नेतराम था!
नाम नेतराम!
और काम छेतराम!
तभी उसकी नज़र मुझसे मिली!
और मेरी उस से!
जैसे हमने तोला एक दूसरे को!
उसने वो फूल उठाया,
डुबोया पानी में,
और फेंक दिया मेरी तरफ!
पानी पड़ा मुझ पर!
और मैंने हटा दिया हाथ से!
चुटकी बजायी,
मुझे बुलाया,
मैं उठा,
और चल,
उसके सामने पहुंचा,
उसने गौर से देखा मुझे!
"बैठ जा!" वो बोला,
मैं बैठ गया!
"हाथ आगे कर" उसने कहा,
मैंने किया,
उसने मेरे हाथ पर भभूत रखी!
"खा जा इसको, प्रसाद है" वो बोला,
हँसता हुआ!
चाल खेल गया था वो!
मैंने ही मन ही मन,
एवंग-मंत्र का जाप कर लिया,
और भभूत चाट गया!
कुछ न हुआ!
न ऐंठन!
न जकड़न!
न प्रदाह!
न शीत!
कुछ नहीं!
नेतराम भौंचक्का!
आँखें फाड़,
मुझे देखे!
और मैं मुस्कुराऊं!
"किसलिए आया है?" उसने पूछा,
दरअसल,
वो जान गया था!
उसको भान हो चुका था!
"कृपा चाहिए आपकी" मैंने कहा,
"कैसी कृपा?" उसने पूछा,
"एक घर तबाह हो रहा है.." मैंने कहा,
और बीच में वो जाड़िया,
वही साधू टपक पड़ा!
"गुरु जी, ये वही हैं, जो मैंने आपको बताया था, वही" उसने कहा,
"समझा!" वो बोला,
"उसके लिए तो पूजा होगी" वो बोला,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"इनको बता दिया?" नेतराम ने पूछा, उस जाड़िये से!
"हाँ जी, बता दिया" वो बोला,
"तो कब होगी पूजा?" मैंने पूछा,
"समय निकाल कर बताऊंगा" वो बोला,
वो बार बार,
मेरे गले में पड़ी,
एक माला को देखता था!
एक औघड़ी माला को!
मैंने वो माला बाहर ही निकाल ली,
कमीज़ से बाहर!
उसने देखा,
"ये कहाँ की है?" उसने पूछा,
"कामाख्या की" मैंने कहा,
"अच्छा! कब पहनी?" उसने पूछी,
"बाइस बरस हो गए" मैंने कहा,
:किसने पहनायी?" उसने पूछा,
"मेरे गुरु, प्रथम गुरु, मेरे दादा श्री ने!" मैंने कहा,
"क्या करते थे तेरे दादा?" उसने कहा,
अब मैं हंसा!
"वो...औघड़ थे! प्रबल औघड़!" मैंने कहा,
और जैसे डंक लगा उसको!
कभी मुझे देखे,
कभी जितेन्द्र को!
"और तू?" उसने पूछा,
अब सभी वहाँ मौजूद,
मुझे ही देख रहे थे!
"मैं भी औघड़ हूँ!" मैंने कहा,
अब मचा हड़कम्प!
"तो तूने ही बेला काटी थी?" वो बोला,
"हाँ!" मैंने कहा,
वो खड़ा हो गया!
मैं भी खड़ा हुआ अब!
उसने देखा मुझे गौर से!
मैंने उसको!
वो जाड़िया भी मुझको देखे!
"क्या चाहता है?" उसने पूछा,
"इनको कुछ नहीं होना चाहिए" मैंने कहा,
मेरा इशारा,
जितेन्द्र की तरफ था!
नेतराम ने देखा जितेन्द्र को!
"क्या कहना चाहता है?" उसने पूछा,
"आप जानते हो!" मैंने कहा,
"तुझको पता है?" उसने पूछा,
"क्या?" मैंने कहा,
"यहाँ औघड़ नहीं आ सकते?" वो बोला,
"कहीं नहीं लिखा यहाँ!" मैंने कहा,
"तूने बताया ही नहीं होगा?" वो बोला,
"किसी ने पूछा ही नहीं!" मैंने कहा,
"अब जा यहाँ से" वो बोला,
"इनको कुछ नहीं होना चाहिए" मैंने कहा,
"निकल जा! नहीं तो फिंकवा दूंगा बाहर, इसी वक़्त!" वो बोला,
मुझे क्रोध आया!
एक बात,
अब स्पष्ट थी,
वो बाज नहीं आने वाला था!
नहीं मानेगा वो!
ये तय था अब!
मैं वापिस मुड़ा,
वो जाड़िया मेरे साथ चला,
अब शर्मा जी और,
जितेन्द्र भी उठे,
और फिर हम बाहर निकले,
जुराब पहने,
और फिर जूते,
और निकल गए बाहर!
जाड़िया हमारे साथ साथ चला!
और हम फिर आ गए एकदम बाहर!
अब करना था संग्राम आरम्भ!
हम गाड़ी में बैठे,
और चल दिए उनके घर,
और फिर घर पहुँच गए,
रास्ते में रुक कर चाय पी ली थी,
लेकिन माथा ठनक रहा था!
अब मुझे इनका बचाव करना था,
अब बात मेरी और उसकी हो चली थी!
ऐसे मांत्रिकों को पाठ पढ़ाना ही चाहिए,
यही सोचा था मैंने,
उस वक़्त भी!
घर पहुंचे,
तो आराम किया हमने!
और फिर भोजन भी किया,
आज रात वहीँ ठहरना था,
इस लिए इंतज़ाम भी ही हो गया!
अब मैंने जितेन्द्र साहब को,
एल कागज़ पर लिख कर,
कुछ सामान लाने को कहा,
मैं आज घर पर ही एक छोटी सी क्रिया करना चाहता था,
वे चले गये,
और रह गए,
मैं और शर्मा जी,
"बहुत कमीन इंसान हैं हरामज़ादे!" वे बोले,
"सो तो है ही!" मैंने कहा,
"साले ऐसे करके कितने आदमी फंसा लिए होंगे, सब दुखी, और बाद में, पैसा लेकर, सब ठीक!" वे बोले,
"हाँ, लेकिन जो एक बार फंस गया सो फंस गया, क्योंकि ये महीने दो महीने ठीक रखेंगे और फिर से वही हाल, रकम बढ़ती जायेगी!" मैंने कहा,
"ऐसों को तो नंगा करके, रेलवे स्टेशन पर पीटा जाए!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
और रेलवे स्टेशन की सोच कर,
हंसी छूट पड़ी!
"और मारो दस, गिनो एक! और बिठा दो मालगाड़ी में!" वे बोले,
"हाँ, सही बात!" मैंने कहा,
"हराम का ** बोल रहा था कि औघड़ नहीं आ सकते यहाँ! तेरी माँ **** आये थे! अब ** जायेगी बहन के **!!" वो बोले,
और फिर हुआ उनका,
गाली का ककहड़ा शुरू!
एक बार शुरू!
तो फिर अंत तक सत्तर तरह की,
नयी नयी,
बेशुमार और खतरनाक गालियां जब तक,
ख़तम न हो जाएँ,
तब तक क़तई चुप नहीं!
वही हुआ!
बाबा का तो पूरा कुनबा ही रंगीन कर दिया उन्होंने!
अब तक,
जितेन्द्र साहब ले आये थे सारा सामान,
कुछ मैंने रख लिया,
और कुछ,
फ्रिज में रखवा दिया,
अब रात को ज़रूरत थी इसकी!
अब हमने किया आराम!
मैं सो गया!
और शर्मा जी भी!
शाम के समय,
नींद खुली,
अँधेरा घिरने लगा था,
और क्रिया का समय करीब आता जा रहा था,
सो अब मैंने सामान मंगवाया,
और किया उसको अब क्रिया लायक,
और कुछ सामान अलग रख दिया!
और फिर स्नान करने चला गया,
स्नान किया,
और अब एक खाली कमरे में,सारा सामान रखा,
दिए जलाये,
एक त्रिभुज खींचा,
काजल से कुछ लिखा,
खड़िया से चौखंड बनाया,
और फिर सामान सजाया!
और अब,
मंत्र पढ़े!
करीब एक घंटा लग गया!
अब उठा,
और काजल से पूरे घर में,
चिन्ह बना दिए,
तांत्रिक चिन्ह!
अब उसकी कोई भी विद्या,
यहाँ प्रवेश नहीं कर सकती थी!
चाहे वो कुछ भी कर ले!
और फिर हुई रात!
एक ख़ास सामान डाल कर आना था नदी में!
तो अब चले हम,
एक नहर थी पास में ही,
वहीँ चले,
और मंत्र पढ़ते हुए,
वो सामान बहा दिया नदी में!
क्रिया समाप्त!
हो गया काम!
और अब चले वापिस!
रास्ते में रुके!
मदिरा ली,
आर साथ में खाने को,
और हो गए शुरू!
जितेन्द्र साहब भी,
शौक़ फरमा ही लेते थे,
तो उन्होंने भी महफ़िल में,
शिरक़त की!
निबटे हम फिर,
और चले घर उनके!
अब सुबह निकलना था स्थान अपने!
उनके घर पहुंचे,
भोजन कर ही लिया था,
तो भोजन के लिए मना कर दिया,
अब हम लेट गए!
आराम किया!
और फिर आ गयी नींद!
सो गए हम!
रात भर,
आराम से सोये,
कुछ नहीं हुआ!
सब ठीक था!
हुई सुबह और फिर..
उस रात कुछ नहीं हुआ!
कुछ किया भी होगा तो बंदिश ने काट दिया होगा!
हाँ, एक बात और, उनका घर तो अब सुरक्षित था,
पर यदि कोई सदस्य बाहर आदि जगह जाता है तो,
समस्या थी,
मैं सदैव तो उनके संग नहीं था,
अतः मैंने कुछ निश्चय किया,
और फिर चाय आदि नाश्ता करने के बाद,
मैं जितेन्द्र साहब को,
अपने एक जानकार के शमशान में ले गया,
वहाँ कुछ मंत्र जागृत किये,
और फिर वहीँ एक डोर बना दी,
ये डोर चिता रखने आये, अर्थी में लग कर आये धागों से बनी थी,
अब इस डोर से मैंने,
धागे बनाये,
और फिर उनको घर के प्रत्येक सदस्य के बाएं हाथ पर बाँध दिया,
अब ये एक, रक्षा-सूत्र बन गया था!
अब वो मांत्रिक चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था!
मैं अब निश्चिन्त था!
और फिर उसी दिन,
भोजन करने के बाद,
मैं वापिस हो लिया अपने स्थान की ओर,
जितेन्द्र साहब ने बहुत बहुत धन्यवाद किया मेरा,
और फिर कुछ पैसे दान स्वरुप भी दे दिए,
हंसी-ख़ुशी!
मैंने रख लिए, ये श्मशान के विकास-कार्य हेतु प्रयोग होते हैं,
हम वापिस आ गए थे!
तब कोई चार बजे थे!
शर्मा जी उस दिन वहीँ रहे,
संध्या हुई,
और अब लगी हुड़क!
सूरज ढलते ही,
हुड़क लगनी शुरू हो जाती है!
बस फिर क्या था!
शर्मा जी ने निकाली बोतल,
सहायक को आवाज़ दी,
सहायक पानी, टमाटर, गाज़र, मूली, खीरा और पत्ता-गोभी दे गया,
हमने अब की उनकी सफाई और छिलाई,
और हो गयी सलाद तैयार अब!
मैंने भोग दिया,
भूमि-भोग!
शक्ति-आमंत्रण भोग!
और फिर गिलास में भरी मदिरा को स्वर्गारोहण करवा दिया!
जीवन सफल हो गया उसका!
उस दिन उस सहायक ने मछलियां बनायी थी,
ये तो और सोने पर सुहागा था!
वो लाया और हमने फिर लेने शुरू किये आनंद उस मीन-भोज के!
आनन्द ही आनंद!
मित्रगण!
यही है एक औघड़ का आनद!
मदिरा अंदर जाते ही,
एक लगी लग जाती है!
कि भाग!
भाग!
क्रिया-स्थल में!
आसपास की शालतियाँ जागृत होने लगती हैं!
प्रेतगण अपना अपना हिस्सा मांगने लगते हैं!
कोई ज़बरदस्ती!
कोई रो रो कर!
कोई गिड़गिड़ाकर!
कोई हंस कर!
कोई याचना कर!
यही होता है!
और इसीलिए,
औघड़ गाली-गलौज करता है!
इन्ही से वार्तालाप करते हुए!
और लोग समझते हैं कि वो,
उन्हें गालियां दे रहा है!
ऐसा नहीं है!
उसको तो अपना होश ही नहीं रहता!
तंत्र में,
दूसरे का आदर, सम्मान बहुत आवश्यक है!
बहुत आवश्यक!
दुर्भावों से बच के रहना होता है!
इसीलिए,
मदिरा सेवन कर, एकांत में चले जाना चाहिए,
ताकि किसी को कोई समस्या नहीं हो!
किसी भी कन्या सम्मुख(साध्वियों के अतिरिक्त), ब्याहता सम्मुख, रोगी सम्मुख, अपंग सम्मुख, किसी के देहावसान सम्मुख, ब्याह सम्मुख, मदिरा का सेवन त्याज्य है! ये नियम हैं! परन्तु आज कोई नहीं मानता इन नियमों को! परन्तु मैं परम्परावादी हूँ इस विषय में, मैं मानता हूँ! और मानना भी चाहिए!
अब बात करते रहे हम!
और फिर बात,
घूमते घूमते,
आ रुकी उस नेतराम पर!
और शर्मा जी का पारा चढ़ा!
और हुईं शुरू गालियां!
एक से एक बढ़कर गालियां!
ऐसी ऐसी,
कि यदि सप्रसंग-व्याख्या करो तो किताब ही बन जाए एक!
और मेरी हंसी छूटी!
सहायक आ गया!
देखा दोनों टुल्ली हैं हम तो, इसीलिए!
"ला! गिलास ला अपना!" शर्मा जी ने कहा,
सहायक ने,
अपने कुर्ते की जेब में रखा,
प्लास्टिक का गिलास दे दिया!
शर्मा जी ने भर दिया!
सहायक ने पानी डाला,
माथे से लगाया, और फिर खीरे का एक टुकड़ा उठाया,