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वर्ष २०११, जिला गाज़ियाबाद की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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 "नहीं मरेंगे भाई, नहीं मरेंगे!" वो बोला,

 ''और गुरुवर कब तक आयेंगे?" मैंने पूछा,

 "दो हफ्ते बाद" वो बोला,

 दो हफ्ते!

 लम्बा समय था ये तो!

 "तब तक कैसे होगी?" मैंने कहा,

 तब उसने,

 अपने कमंडल से एक कागज़ निकाला,

 एक पुड़िया!

 और दे दी,

 जितेन्द्र को!

 "लो, इसको घर में छिड़क देना" वो बोला,

 ये भभूत थी!

 वो पुड़िया मैंने ले ली,

 खोली,

 और नीचे गिरा दी!

 ये देख,

 उसको गुस्सा आ गया!

 ये क्या कर दिया?

 क्यों कर दिया?

 श्राप लग गया!

 अब भुगतना!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 आदि आदि!

 "बाबा! ये कौहाणी विद्या है! बस! जितनी चलनी थी, चल गयी! अब नहीं चलेगी! आने दे अपने गुरुवर को! या बोले तो कल ही लाऊं उसको यहाँ!" मैंने कहा,

 उसने सुना!

 और सुनते ही,

 सांप सूंघ गया उसको!

 जैसे चोर पकड़ा गया हो रंगे हाथ!

 वो खड़ा हो गया!

 और गुस्से में था वो!

 "निकल जाओ यहाँ से अभी के अभी! अब कोई नहीं बचा सकता इनको!" वो बोला,

 मैं हंसा!

 बहुत तेज!

 "सुन ओये लम्पट! ये धमकी किसी और को देना! समझा? मुंह बंद कर ले, नहीं तो दीवारें फाड़ता बाहर गिरेगा!" मैंने कहा,

 धमकी का सर हुआ!

 और वो चुप हो गया!

 "ये विद्या भले के लिए है! व्यापार के लिए नहीं, समझा?" मैंने कहा,

 वो चुप!

 "और सुन! सुन ले! जिसने भी ये प्रयोग किया है, उसको मैं इसी नदी के तट पर कटोरा पकड़वा के रहूँगा! तेरे बसका काम तो नहीं लगता ये! वही होगा ये तेरा गुरुवर! आने दे उसको!" मैंने कहा,

 वो चुप!

 खड़ा रहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कुछ न बोला!

 और हम हुए वापिस अब!

 रास्ते में गाड़ी रोकी!

 और कुछ झाड़ियों में से कुछ फूल तोड़ लिए!

 ये अटकटा के फूल थे!

 कौहाणी विद्या की काट करनी थी!

 नहीं तो,

 जितेन्द्र साहब का सारा,

 काम,

 व्यापार,

 परिवार,

 सब थकाने लग जाता!

 और फिर,

 थोड़ा थोड़ा सामान भी ले लिया,

 हम घर पहुंचे,

 हाथ-मुंह धोये!

 और फिर अब काट करनी आरम्भ की!

 पूजन किया,

 क्रिया की,

 और फिर सात जगह,

 नीबू निचोड़ कर,

 कीलें गाड़ दीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ज़मीन में!

 और देखिये,

 कुछ ही मिनट के बाद,

 उनके फ़ोन पर घंटी बजी!

 एक आर्डर आया गया था!

 काफी बड़ा आर्डर था!

 इसका अर्थ ये हुआ,

 कि कौहाणी विद्या,

 कट गयी थी!

 मुझे ख़ुशी हुई!

 और फिर हम,

 चाय पीकर,

 जितेन्द्र साहब के साथ,

 चले गए,

 उनकी दुकान पर!

 उन्होंने माल लदवाया,

 चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे!

 फिर उनकी पुत्री का फ़ोन आया!

 वो भी अच्छे स्तर पर उतीर्ण हो गयी थी!

 कुल मिलकर,

 कौहाणी विद्या के कारण,

 रुके हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 शुभ फल,

 प्राप्त, होने लगे थे!

 अब कुछ खाने-पीने को मंगवाया उन्होंने!

 हमने खाया-पिया!

 और उन्होंने हमारा,

 अश्रुपूर्ण नेत्रों से धन्यवाद किया!

 मैंने तो कुछ नहीं किया था,

 बस वो विद्या ही काटी थी!

 बस!

 लेकिन!

 अभी लड़ाई बाकी थी!

 उस साधू के गुरु से!

 उसको पता तो चल ही गया होगा!

 अब क्या करेगा,

 ये देखना था!

 और इसीका,

 मुझे इंतज़ार भी था!

 मैंने जितेन्द्र साहब को कुछ समझाया,

 और फिर,

 हम वापिस हुए वहाँ से!

 आ गए अपने स्थान!

मित्रगण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 एक हफ्ता बीत गया!

 सब ठीक हो गया था वहाँ!

 एक दिन की बात है, कोई आठवाँ या नौंवा दिन होगा वो,

 वही साधू आया,

 एक और साधू के साथ,

 उनके घर,

 पूजा की बात की उसने,

 तब जितेन्द्र साहब ने भगा दिया उसको!

 तब वो धमकी देकर गया कि,

 अब वो आगे आगे देखे,

 कि होता क्या है!

 ये खबर मुझ तक आ गयी,

 मुझे भी हैरत हुई!

 बड़ा ही बद्तमीज़ आदमी था वो साधू!

 लताड़ने के बावज़ूद भी,

 आ पहुंचा था घर!

 और पूजा करवाने को कह रहा था!

 बड़ी हिमाक़त की उसने!

 मैं उसी रात बैठा क्रिया में!

 और अपने दो पहरेदार हाज़िर किये!

 वे हाज़िर हुए!

 और उनको मुस्तैद कर दिया मैंने जितेन्द्र साहब के घर पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 देखें क्या होता है!

 दो दिन तक कुछ नहीं हुआ!

 हाँ तीसरे दिन,

 दोनों पहरेदार आये वापिस!

 और बताया कि वहाँ प्रयोग होना आरंभ हुआ है!

 बस!

 यही जानकारी चाहिए थी मुझे!

 अब उस घर को मज़बूत करना था!

 बहुत मज़बूत!

 कोई भेद न पाये,

 ऐसा!

 मैंने अगले दिन फ़ोन किया,

 जितेन्द्र साहब को, और बुला लिया अपने पास,

 वे आ गए,

 नमस्कार आदि हुई,

 और फिर मैंने उनको कुछ सामान दिया,

 ये सामान कुछ तो घर में रखना था,

 और कुछ बाहर गाड़ के आना था,

 इस से,

 उनका घर अभेद्य हो जाता,

 उन्होंने हाँ कही,

 सामान रख लिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और चले गये फिर,

 और फिर उन्होंने कर दिया वैसा ही!

 अब घर सुरक्षित था!

 कोई हानि नहीं हो सकती थी!

 उन प्रयोगों को मोड़ दिया था मैंने,

 अब वे प्रयोग मुझ पर ही होने थे!

 दो हफ्ते बीत गए!

 और एक दिन,

 दोपहर समय,

 मेरे बदन में ताप सा चढ़ा!

 भयानक ताप!

 तापमान कम से कम,

 मेरे शरीर का,

 एक सौ पांच हो गया होगा!

 आँखों से आंसू निकल पड़े!

 सर में, पेट में,

 कमर में, और पिंडलियों में,

 भयानक पीड़ा हुई!

 ये प्रथम प्रहार था उसका!

 मैं क्रिया-स्थल में गया,

 और उसकी काट की,

 काट दिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और मैं,

 सामान्य हो गया,

 अब जंग आरम्भ हो गयी थी!

 मैंने तभी,

 उसी समय अपने सिपहसालार इबु को,

 हाज़िर किया,

 उसको भोग दिया,

 और उद्देश्य जान वो उड़ पड़ा!

 मैं गुस्से में थे बहुत!

 बता दिया था उसको,

 कि अगर टांगें भी तोड़नी पड़ें,

 तो तोड़ ही देना!

 परन्तु!

 ऐसा नहीं हुआ!

 इबु वापिस आ गया!

 उसको रोक दिया गया था!

 उसी गुरु ने!

 अपनी विद्या से!

 इसका अर्थ!

 वो समर्थ था!

 और ये जंग,

 अब भीषण होनी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 एक मांत्रिक,

 और एक औघड़ की!

 तब मैंने,

 क्रिया-स्थल में ही, एक क्रिया की,

 और फिर एक प्रयोग!

 प्रयोग सफल रहा!

 तड़प पड़ा वो मांत्रिक!

 और फिर ठीक भी हो गया!

 उसको मेरा,

 और मुझको उसका, भान हो ही चला था!

 अब मुझे तैयारी करनी थी!

 कुछ विशेष!

 इसी लिए मैं,

 जुट गया!

 और हो गया शुरू!

 मैंने मंत्र जागृत किये!

 विद्याएँ जागृत कीं,

 और सशक्तिकरण किया!

 और फिर वंद-स्नान कर लिया!

 अब वो जो करेगा,

 मुझे पल पल पता चलेगा!

 हाँ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो जितेन्द्र के परिवार पर प्रयोग करेगा,

 इसी शंका थी मुझे,

 और ऐसा ही हुआ!

 भेद दिया उसने,

 सुरक्षा को!

 और मचा दिया घर में,

 कोहराम!

 काम बंद,

 व्यापार बंद!

 घर में सभी फिर से बीमार!

 पत्नी हो गयीं दाखिल,

 जितेन्द्र साहब की!

 उन्होंने मुझे खबर की,

 और मैं वहाँ पहुंचा,

 फिर से काट की,

 और फिर से ठीक हुए वो,

 लेकिन ये सिलसिला,

 आगे तक चलना था,

 और मैं ऐसा चाहता नहीं था,

 अतः,

 अब मुझे श्मशान का ही सहारा लेना था!

 परन्तु,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उसके लिए मुझे,

 तैयारी करनी थी!

 कुछ विशेष तैयारी!

 पहले उसको समझना था,

 मान गया,

 तो ठीक,

 नहीं माना,

 तो ज़बरदस्ती मनाना था!

 यही करना था!

 और इसी कारण से,

 मैं और शर्मा जी,

 जितेन्द्र साहब के साथ,

 चल पड़े!

 गढ़-गंगा!

 अब यहीं बात होनी थी!

 और यहीं फैसला,

 आगे का!

हम उस स्थान पर जा पहुंचे!

 वहाँ अच्छी-खासी भीड़म-भाड़ थी!

 लोग-बाग़ आये हुए थे दूर से यहाँ,

 गाड़िया खड़ीं थीं,

 कुछ दिल्ली की,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कुछ यूपी की,

 कुछ हरियाणा की!

 बाबा की तो तूती बोल रही थी!

 बाबा के शिष्य थे ये सभी!

 और वो बाबा,

 इनके कृपानिधान!

 तभी वो साधू नज़र आया जितेन्द्र साहब को!

 साधू ने देखा और दौड़ा हमारी तरफ!

 रुका!

 हमे देखा!

 "आ गया रे?" वो बोला,

 "हाँ" जितेन्द्र साहब ने कहा,

 जैसा समझाया था उनको,

 वैसा ही कहा!

 "अब किसलिए आया है? उस दिन तो भगा दिया था तूने? अब क्या अपनी माँ *** आया है या अपनी बहन ***?" वो बोला,

 अब मेरी हुई कनपटी गरम!

 साले की इतनी हिम्म्त की,

 गाली-गलौज करे?

 "गलती हो गयी जी इनसे" मैंने कहा,

 मैं पी गया कड़वा घूँट!

 पीना पड़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उसी की जगह थी,

 और लोग बहुत थे!

 "अब लगेगी कुल रकम एक लाख रूपये!" वो बोला,

 आँखें मटकाते हुए!

 "हम दे देंगे" मैंने कहा,

 "तो लाओ आधा?" वो बोला,

 "बाबा से तो मिलवाओ?" मैंने कहा,

 उसने मुझे देखा,

 ऊपर से नीचे तक!

 मैंने बाल बाँध रखे थे,

 ऊपर से कपड़ा बाँध रखा था,

 इस से,

 मेरी जटाएँ नहीं दिखीं उसे!

 "आओ मेरे साथ" वो बोला,

 और हम चल पड़े उसके पीछे!

 मैंने देखना चाहता था,

 कि ये बाबा है कौन?

 एक कमरे में ले जाने से पहले,

 "जूते उतार लो, जुराब भी" वो बोला,

 हमने उतार लिए,

 "आओ" वो बोला,

 और फिर हाथ धुलवाए हमारे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "आओ, और फिर एक और कमरे में ले गया,

 वहाँ कई लोग बैठे थे,

 औरतें,

 वृद्ध,

 लड़कियां,

 बालक-बालिकाएं,

 सभी उम्र के!

 "बैठ जाओ यहाँ" वो बोला,

 और हम दरी पर बैठ गए!

 और सामने,

 सामने एक पचास-साठ वर्ष का एक बाबा बैठा था!

 सफ़ेद रंग की धोती,

 और गेरुए रंग का कुरता!

 गले में ताम-झाम पहना था!

 हाथों में ताम-झाम!

 सामने एक लोटा रखा था,

 जल भरा,

 वो फूल लेकर एक,

 इसमें डुबोता,

 और लोगों पर फेंक देता!

 और लोग 'जय नेतराम बाबा की; बोल उठते!

 तो इसका नाम,


   
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