स्टेशन था ये!
भरतपुर का स्टेशन!
इसके विश्राम कक्ष में बैठे हुए थे हम!
रात करीब ग्यारह बजे का समय था,
यहाँ से दिल्ली जा था वापिस,
बस में यात्रा लम्बी हो जाती है,
और आराम भी नहीं मिलता,
सोचा गाड़ी ही ठीक है,
तो,
इसीलिए बैठे थे हम यहाँ!
एक विवाह था,
वहीँ आये थे हम!
लोहागढ़ का किला भी देखा था,
भव्य किला है ये!
आज भी इतिहास थीम खड़ा है शान से!
गाड़ी हमारी देर से चल रही थी,
अभी समय था,
हमे जो छोड़ने आये थे,
वे जा चुके थे!
थोड़ा समय और बीता,
और फिर सूचना आयी,
हमारी गाड़ी आ पहुंची थी!
हमने सामान उठाया अपना,
और चल पड़े,
प्लेटफार्म की तरफ,
गाड़ी आयी,
तो सवार हुए!
बू दिल्ली ही जाना था अब!
गाड़ी चली,
और हम बैठ गए!
सर्दी के समय था,
तो, खिड़की दरवाज़े बंद थे!
डिब्बे में लोग सो रहे थे,
ऊंघ रहे थे कुछ,
कुछ बतिया रहे थे!
हमने सामान रखा और बैठ गए थे,
गाड़ी चली,
और हम भी चले!
आर मित्रगण!
रात्रि समय कोई एक बजे हम पहुँच गए दिल्ली,
कोहरे की वजह से सुपरफास्ट गाड़ी,
फ़ास्ट पैसेंजर बन गयी थी!
खैर जी,
हम पहुँच गए थे!
वहाँ से ऑटो लिया और अपने अपने घर पहुँच गए!
अब सुबह ही मिलना था!
हुई सुबह!
नाश्ता आदि किया,
भोजन किया बाद में और फिर शर्मा जी आ गए,
आज जाना था,
सामग्री आदि लेने,
तो उनके साथ चला मैं,
बाज़ार पहुंचे,
और सामान आदि ले लिया,
वहाँ से सीधे चले अब अपने स्थान की ओर,
और वहाँ पहुंचे!
सहायक और सहायिका आदि से मिले हम!
और फिर अपने कक्ष में गए!
तबी फ़ोन बजा,
ये मेरे एक जानकार रघु साहब का फ़ोन था,
उनके साले साहब के साथ कोई समस्या थी!
मैंने उनको अपने साले साहब के साथ आने को कह दिया!
और फिर दो दिन बाद,
वे दोनों आ गए मिलने मुझसे,
रघु साहब और उनके साले साहब जीतेन्द्र!
जीतेन्द्र जिला गाज़ियाबाद के रहने वाले थे,
वहीँ गाँव था उनका,
सड़क किनारे ही,
पहुँच में था,
अपना ही व्यवसाय था उनका,
पशुओं की दवा आदि का,
मैंने पानी पिलवाया उन्हें,
और फिर चाय,
"अब बताइये जीतेन्द्र साहब" मैंने कहा,
"गुरु जी, आठ महीने पहले की बात है, मेरे घर एक साधू आया था, उसने कहा कि घर पर विपत्ति का समय है, एक पूजा करवा लो, हम भीरु व्यक्ति हैं, हमने पूजा करवा ली,
सब ठीक था, और फिर एक महीना बीत गया, सब सही रहा, लेकिन एक महीने बाद घर में मेरे बड़े बेटे के साथ एक दुर्घटना हुई, उसके दो उंगलियां, उलटे हाथ की काटनी पड़ीं, और फिर इलाज चलता रहा, फिर मेरी पत्नी बीमार हुई, और मरते मरते बची, बहुत इलाज करवाया हमने, तब जाकर ऐसा हुआ, फिर मेरे साथ दुर्घटना हो गयी, मेरे पाँव में रॉड पड़ी, एक साथ समस्याएं आती चली गयीं, आज तक हैं, एक भैंस मर गयी, घर का कुत्ता पागल हो गया, उसे मारना पड़ा" वे बोले,
"ओह...और वो साधू?" मैंने पूछा,
"जी वो गढ़-गंगा का रहने वाला है, हम वहाँ भी गए, अबकी बार उसका तो स्वभाव ही बदला हुआ था" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"उसने कहा कि वो क्या करे? जो करना था वो कर दिया उसने, पूजा की थी, इसीलिए बचे हुए हो, नहीं तो अब तक कोई न कोई मर ही गया होता" वे बोले,
"कमाल की बात है!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"तो कहीं और दिखाते?" मैंने कहा,
"जी दिखाया" वे बोले,
"क्या कहा उसने?" मैंने पूछा,
"बोला कि घर में बुरी शक्तियों का बसेरा है, और कोई योग्य आदमी चाहिए, उसकी बसकी नहीं है" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
अब पानी पिया उन्होंने,
"तो कोई योग्य आदमी मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हम लेकर आये एक बाबा को घर पर, उन्होंने जांच की, और फिर उन्होंने पूजा की, लेकिन कोई असर नहीं हुआ, काम का भट्टा बैठ चुका था, हम परेशान हो गए हैं बहुत तभी से, अच्छी पूजा करवायी हमने तो" वे बोले,
"ओह!" मैंने कहा,
"और तो और, घर में अजीब अजीब चीज़ें होने लगी हैं, लगता है जैसे कोई घूम रहा है घर में, कोई नज़र रखे हुए है, डर का माहौल है, और जी, हम सभी बीमार हैं" वे बोले,
बात तो अजीब थी ही!
लेकिन ऐसा हुआ कैसे था?
किसने किया ऐसे?
किसलिए?
कौन था ऐसा शत्रु?
और फिर एक बात और!
बाबा ने जान लिया था,
पूजा से असर पड़ना चाहिए था,
लेकिन नहीं पड़ा था,
क्यों?
"पूजा में कितना ख़र्चा आया था?" मैंने पूछा,
"जी कोई बीस हज़ार" वे बोले,
"अच्छा, और बाबा ने कितने लिए?" मैंने पूछा,
"जी उन्होंने बीस ही मांगे थे, तो उनको ही दे दिए थे" वे बोले,
अब मुझे संदेह हुआ!
उस बाबा पर ही!
उस साधू पर!
कहीं कोई चाल तो नहीं खेल गया?
कहीं उसी का किया धरा तो नहीं ये?
पहले बीस,
फिर पचास लेगा,
और फिर ये हो जायेंगे सोने की मुर्गी!
हो सकता है!
सम्भव है!
मेरा संदेह पुष्ट कैसे किया जाए?
घर जाना होगा इनके!
तभी पता चल सकता है!
"जीतेन्द्र साहब, आप अपने गाँव का पता दीजिये, मैं आता हूँ कल वहाँ" मैंने कहा!
ये सुना उन्होंने,
तो खुश हो गए!
ऐसा ही होता है!
बेचारे दुखी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं,
उम्मीद में!
और उम्मीद नहीं तोड़नी चाहिए!
खैर,
उन्होंने पता लिखवा दिया,
जिला गाज़ियाबाद दूर नहीं था दिल्ली से,
और फिर उन्होंने विदा ली!
और अब रह गए हम दोनों वहाँ!
"लगता है, वो साधू ही बाजा बजा गया इनका!" शर्मा जी बोले,
"हाँ, मुझे भी संदेह है!" मैंने कहा,
"ये तो होता है!" वे बोले,
"ऐसा ही हुआ है!" मैंने कहा,
"चल कर देख जो लेते हैं" वे बोले,
"हाँ, कल चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक, मैं सुबह आ जाऊँगा, आप तैयार रहना गुरु जी" वे बोले,
"हाँ, आ जाओ" मैंने कहा,
फिर हमने एक एक चाय और पी,
थोड़ी इधर उधर की बातें,
और फिर शर्मा जी,
चले गए!
काम था उनको कुछ,
ज़रूरी,
कुछ कागज़ात बनवाने थे,
मैंने भी नहीं रोका,
खैर,
वे गए,
और मैं अपने कामों में लगा,
एक सहायिका आयी,
कुछ पैसों की ज़रूरत थी उको,
सो पैसे दिए,
वो खुश!
गाँव जाना था उसको,
इसीलिए,
कुछ वस्त्र भी दे दिए,
विवाह था किसी का,
गाँव में उसके,
खैर जी,
सुबह हुई,
मैं तैयार हुआ,
नहाया-धोया,
और फिर चाय पी,
शर्मा जी आये,
उन्होंने भी चाय पी,
नाश्ता किया,
और फिर हम चले वहाँ से,
निकल पड़े,
रास्ते में एक जगह रोकी गाड़ी,
रुके,
आराम किया,
कुछ खाया-पिया,
और फिर चल पड़े,
जीतेन्द्र साहब को फ़ोन किया,
वे आज घर पर ही थे,
हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे,
और फिर हम,
कोई ढाई घंटे के बाद,
उनके घर पर खड़े थे!
वे बाहर ही मिले,
वे और उनका पुत्र,
दोनों!
गाड़ी लगायी जी हमने वहाँ,
एक बरगद के पेड़ के नीचे,
गाँव बहुत सुंदर था उनका,
गाँव क्या,
अब तो शहर सा ही था,
केबल टीवी के छत्र लगे थे,
हर जगह!
और कुछ ट्रेक्टर आदि के विज्ञापन!
कुछ बीज आदि के!
हम घर में घुसे,
घर में तो मुर्दानगी छायी थी!
हर तरफ इस मुर्दानगी का कोलाहल था!
नाच रही थी ये मुर्दानगी!
स्पष्ट था कि यहाँ कुछ न कुछ हुआ है!
हम घर में बैठे,
उनकी पुत्री ने पानी दिया,
हमने पानी पिया,
और फिर चाय पी,
साथ में कुछ खाया भी,
घर काफी बड़ा था,
चार कमरे थे, और खुला स्थान,
बहुत अधिक था,
दो मवेशी भी थे,
एक नौकर काम कर रहा था,
उनके साथ ही,
चारा दे रहा था उनको,
मैं उठा,
शर्मा जी को साथ लिया,
और फिर मैंने जांचने के लिए,
एक मंत्र चलाया,
और आँखें बंद कर लीं!
आश्चर्य!
यहाँ तो किसी मांत्रिक ने ताना-बना बुना था!
ये किसी मांत्रिक का जाल था!
माया-जाल!
किसी सिद्धहस्त मांत्रिक का कारनामा!
अरे वाह रे मांत्रिक!
खाने के लाले पड़ गए जो,
हंस-सवारिनी, वीणा-धारी का सहारा लेना पड़ा!
उस से ही भीख मांग लेता!
दयावान है!
दे देती कुछ न कुछ!
बड़ा सधा हुआ खेल खेला था उसने!
सांप भी मर जाए,
और लाठी की आवाज़ भी न हो!
बहुत खूब!
मैं,
सदैव ही ऐसे मांत्रिकों से चिढ़ता हूँ!
ऐसे ही मेरे एक पाठक हैं,
होडल में रहते हैं,
ऐसे ही एक मांत्रिक के शिकार हैं वो!
इसी कारण से,
चिंतित रहते हैं बहुत!
हालांकि वो सर मैंने क्षीण कर दिया है,
परन्तु वो मांत्रिक,
बाज नहीं आ रहा,
करना ही पड़ेगा उसका काम,
ठीक तरह से!
मित्रगण!
जो तांत्रिक,
अथवा मांत्रिक,
व्यर्थ ही ऐसे किसी मासूम को,
शिकार बनाया करता है,
अपनी विद्या से,
लानत है उस पर!
उसको सबक देना,
बहुत आवश्यक है!
और यहाँ ये साधू महाराज!
कर गए थे अपना काम!
अब इनसे ही मिलना था!
ज़रा आमने सामने बात होती तो पता चलता!
मैं वापिस हुआ,
बैठा वहीँ,
"कैसा था वो साधू?" मैंने पूछा,
जितेन्द्र साहब से,
"जी कोई होगा पचास वर्ष का" वे बोले,
"कमंडल-धारी था?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"गेरुआ?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"कहाँ है वो?" मैंने पूछा,
"जी गढ़-गंगा में" वे बोले,
"चल सकते हैं वहाँ?" मैंने पूछा,
'वो बात ही नहीं करता" वे बोले,
"बात मैं करवा दूंगा" मैंने कहा,
"जी फिर अवश्य चलूँगा" वे बोले,
"तो फिर चलिए" मैंने कहा,
"भोजन तैयार है, भोजन आर लें पहले" वे बोले,
भोजन तैयार था,
और भूख भी लगी थी,
तो,
भोजन किया,
और फिर उसके बाद,
हम निकल पड़े!
उस साधू से मिलने!
उस मांत्रिक से मिलने!
तो जी, हम पहुंचे अब गढ़-गंगा!
जहां ये साधू रहता था,
वो स्थान थोडा सा बाएं में,
आगे थे!
वहीँ पहुंचे!
सीधा अंदर गए!
काफी सारे साधू बैठे हुए थे!
हम कोई मुर्गी हैं,
ऐसा समझ के,
भीड़ इकठ्ठा हो गयी!
जितेन्द्र साहब ने उस साधू का पता पूछा,
तो पता चल गया!
और जितेन्द्र साहब, हमको ले चले,
साधू जी आराम से लेते हुए थे,
एक तख़्त पर,
पंखा झल रहे थे हाथों से,
हमको देखा,
तो बैठ गए,
धोती सही की,
और तख़्त पर ही बैठने को कहा,
हम बैठ गए!
अब बात मैंने शुरू की,
"बाबा जी, ये बहुत परेशान हैं, कुछ करो इनका" मैंने कहा,
"अब जो करना था, सो कर दिया" वो बोला,
"लेकिन इनकी हालत तो पहले से भी ज्य़ादा खराब है?" मैंने कहा,
"ये ज़िंदा हैं, ये कम है क्या?" वो बोला,
"वो तो ठीक है, लेकिन हालत बहुत खराब है" मैंने कहा,
"अब एक पूजा होगी और" वो बोला,
देखा!
मैंने कहा था न!
पहले बीस!
फिर पचास!
फिर लाख!
"कितना खर्च आएगा?" मैंने पूछा,
"कोई साठ हज़ार का, जप होगा, दस लाख मन्त्रों का" वो बोला,
जबकि,
एक मंत्र आता नहीं होगा उसको!
"आप कब करोगे ये पूजा?" मैंने पूछा,
"अभी हमारे गुरुवर आयेंगे, वो वर्धमान में हैं, तब करेंगे" वो बोला,
"तब तक तो ये मर जायेंगे?" मैंने कहा,