वर्ष २०११ गुड़गांव क...
 
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वर्ष २०११ गुड़गांव की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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धमाका सा हुआ!
ज्वालामुखी सा फूटा सीने में डॉक्टर साहब के!
और फिर................................................

डॉक्टर साहब को जैसे सांप सूंघा!
खड़े हुए,
कांपते हुए क़दमों से,
धीरे धीरे आगे गए,
बैग के पास तक,
टेबल पर एक हाथ रखा,
सहारे के लिए,
मंजुला के एक शब्द ने तो,
सुखा ही दिया था उनके,
सारे बदन का खून!
निचुड़ गया था सारा जीव-द्रव्य,
हलक सूख गया था,
कांटे उभर आये थे उसमे,
थूक गायब हो गया था,
मसूड़े, हींहोने दांतों को थाम रखा था,
अब सूख चले थे,
रंग बदल गया था,
कत्थई हो चला था,
अब दर्द भी होने लगा था उनमे!
कांपते हाथों से,
वो कागज़ पकड़ा,
हाथ में पसीने आ चुके थे,
कलाई के बाल,
और रोओं के साथ,
खड़े हो चले थे!
ऊँगली की पोरों का रंग उड़ चला था,
कागज़ उठाया,
और नाम पढ़ा,
ये अशोक नहीं था,
ये तो नीलेश था!
आँखें चौडीं हो गयीं उनकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गिरते गिरते बचे,
मंजुला के कंधे पर हाथ रखा उन्होंने,
सहारे के लिए,
फिर से पढ़ा,
नीलेश!
ये नीलेश ही था!
ये कागज़, उसी नीलेश के ही थे!
अर्थात,
नीलेश ही स्वयं आया था!
कैसे?
एक व्यक्ति, जो मर गया,
वो कैसे वापिस आया?
किसलिए?
हाँ, जवाब जानने के लिए!
कि उसकी मौत का कारण क्या था!
दिल धड़क उठा,
मंजुला काँप उठीं,
सारा माजरा भांप गयीं!
आराम से,
हाथ टेबल पर टिका कर,
कुर्सी पर बैठ गयीं!
और डॉक्टर साहब,
अपने चश्मे से,
जो कि अब काफी नीचे खिसक गया था,
उन कागज़ों को देखते रहे!
फ़ौरन कागज़ पलटे,
हर जगह, नीलेश और नीलेश,
दिल के दौरे वाले कागज़ पर आये,
आगे बस,
दवाइयाँ ही दवाइयाँ!
एक एक कर,
सारे कागज़ पलट बैठे!
कुछ हाथ नहीं लगा,
लगता था, इसके बाद,


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे मौत हो गयी थी नीलेश की!
धम्म से बैठ गए,
सर लटकाये,
नीलेश का चेहरा याद आया,
वो शांत सा चेहरा,
बस बेचैन था,
बहुत बेचैन,
अपनी मौत का राज जानने को!
वो आएगा?
आएगा न?
वो,
पोस्ट-मोर्टेम के कागज़ लेकर?
हाँ!
उसने कहा था,
कहा था उसने!
कि दो दिन बाद आऊंगा!
आ जाओ!
आ जाओ नीलेश!
आ जाओ!
मैं देखूंगा वो सारे कागज़!
तुमने मुझे चुना!
मुझे?
ओह!
मेरा असीम भाग्य!
कितना खुशनसीब हूँ मैं!
मुझे चुना तुमने!
आ जाओ!
आ जाओ नीलेश!
मैं सब बता दूंगा!
तब शान्ति मिलेगी तुम्हे!
मैं भी यही चाहता हूँ!
डॉक्टर साहब, यही बड़बड़ाते रहे!
मंजुला दुविधा में फंसी थी अब!
बड़ी मुश्किल से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो अनुज साहब को,
घर लायीं,
वहाँ सभी को निर्देश देकर!
घर आये डॉक्टर साहब,
और खिड़की खोलकर बैठ गए,
बड़बड़ाते रहे,
बाहर ही झांकते रहे,
नीलेश का नाम बार बार लेते,
मंजुला बहुत परेशान थीं,
और उनका बेटा और बिटिया भी!
डॉक्टर साहब जैसे अब,
इस संसार में नहीं थे!
अगले दिन नहीं गए नर्सिंग होम,
मंजुला ही गयी,
दिन में दो बार घर आयीं,
डॉक्टर साहब से मिलीं,
उनको देखा,
बुखार हो गया था उन्हें,
वे सारा दिन अपने कमरे में बैठ,
बाहर झांकते रहे थे!
सुशील की हालत, जस की तस थी!
दो दिन और बीत गए!
नहीं आया नीलेश,
यहां डॉक्टर साहब,
अब अपनी सारी सुध-बुध खो बैठे थे,
बाहर ही झांकते रहते,
न खाना,
न पीना,
कुछ नहीं!
बस उन कागज़ों में उलझे रहते,
चार दिन बीत गए,
नहीं आया नीलेश,
डॉक्टर साहब,
बार बार अपने कमरे से उठते,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाहर के दरवाज़े तक जाते,
और दोनों तरफ देखते,
कि कोई आ रहा है या नहीं?
वो नीलेश,
वो आ रहा है?
दिन में कई बार,
और रात में अपना बिस्तर छोड़,
कई बार!
कोई नहीं आया!
पांच दिन और बीत गए!
सुशील की हालत में कोई सुधार नहीं था,
मंजुला ही सारी,
देखभाल कर रही थीं,
और यहां!
डॉक्टर साहब को,
अपना ही होश नहीं था,
सुशील का क्या पता होता!
वो तो बस,
कागज़ पढ़ते,
शून्य में ताकते,
और नीलेश, नीलेश ही चिल्लाते रहते थे!
मंजुला बहुत परेशान थीं!
क्या किया जाए,
इसी में उलझी थीं!
लगता था कि,
डॉक्टर साहब,
अब अपनी सारी डॉक्टरी,
भूल चुके हैं!
सदमा लगा है उन्हें कोई, जैसे,
मंजुला रोतीं भी,
और हिम्मत भी बंधाती!
लेकिन डॉक्टर साहब,
अब खुद गार्ड की कुर्सी पर बैठने लगे थे,
बाहर झांकते हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कभी खड़े होते,
कभी बैठ जाते,
कभी उचक कर,
बाहर देखने लगते!
कोई नहीं आया था!
और डॉक्टर साहब!
वे तो जैसे अब पूरी तरह से, रिक्त हो चले थे अपने आप से!

अगले दिन की बात है,
दिन में कोई दो बजे होंगे,
डॉक्टर साहब,
अपने कमरे में बैठे हुए थे,
उनके सामने,
खिड़की के ऊपर,
एक तस्वीर लगी थी,
एक कुँए की,
कुआं आदिम ज़माने का सा लगता था,
पत्थर उखड़े हुए थे,
साथ लगा पेड़ भी ठूंठ था,
ठूंठ!
हाँ!
अब तो डॉक्टर साहब भी ठूंठ से ही लगने लगे थे!
मन उचाट था, दिमाग कहीं रुकता नहीं था,
अपने पेशे में ध्यान नहीं था,
बचकानी हरकतें करने लगे थे,
नीलेश नीलश चिल्लाते रहते थे!
अकेले में अपने आप से ही बात किया करते थे,
कभी हँसते थे,
कभी सुबकते थे,
कभी मंजुला से,
पानी मंगवाते थे,
पानी उन्हें दिया जाता,
तो दूसरी सीट के पास,
वहाँ रखी मेज़ पर,
पानी रख देते थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अकेले में किसी से बातें किया करते थे!
तो वो कुआँ देख रहे थे!
कुआं तो उनके सीने में बना था अब!
और देखिये,
उसी सोच के कुँए में,
वो खुद डूब गए थे!
तभी फ़ोन बजा उनका,
अनमने मन से फ़ोन उठाया उन्होंने,
ये मंजुला का फ़ोन था,
मंजुला ने बताया कि,
रक्तचाप गिरता जा रहा है सुशील का,
चुपचाप सुनते रहे,
और फ़ोन काट दिया उन्होंने,
फिर से कुँए में खो गए,
कोई तीन बजे तब,
मंजुला की गाड़ी अंदर आई घर के,
पार्किंग में लगाई उन्होंने,
कुछ सामान उठाया,
और सीधा चलीं डॉक्टर साहब के पास!
शिकायत की उन्होंने,
कि पूरी बात क्यों नहीं सुनी उन्होंने!
डॉक्टर साहब ने,
इस कान सुनी उनकी बात,
और उस कान निकाली!
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा उन पर!
जस के तस बैठे रहे डॉक्टर साहब!
मंजुला गुस्से में, अपना बैग उठा,
चली गयीं अंदर!
और डॉक्टर साहब खुद से ही बातें करने लगे तब!
चार बजे,
करीब चार बजे,
बाहर का दरवाज़ा खुला,
डॉक्टर साहब नज़रें गड़ाए वहीँ देख रहे थे,
एक मंझोले कद के आदमी ने प्रवेश किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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डॉक्टर साहब उठ बैठे,
बाहर चले,
कमरे से बाहर आये,
और लपक कर उस आदमी के पास पहुंचे,
उस आदमी के हाथ में एक झोला सा था,
कपड़े का बना, जैसा अक्सर आजकल दुकानों पर मिलता है,
कुछ कागज़ थे उसमे,
उस आदमी ने,
फ़ौरन ही नमस्कार की उन्हें,
डॉक्टर साहब ले आये उसको अंदर,
बिठाया,
उस आदमी ने अपना नाम अशोक बताया!
अब घूमे डॉक्टर साहब!
तन्द्रा टूटी उनकी!
होश क़ाबिज़ हुए उनके अब!
"डॉक्टर साहब, परसों रात को मेरा एक दोस्त नीलेश मेरे सपने में आया था, उसने ही कहा कि मैं ये कागज़ आपको दे आऊँ, मैं कल नहीं आ पाया, सोचा वहम होगा, लेकिन कल रात फिर आया, और उसने फिर से कहा, कि मैं आपसे जल्दी मिलूं, अब ये वहम नहीं था, उसने ही मुझे ये पता दिया आपका, और ये कागज़, लीजिये" वो बोला,
डॉक्टर साहब ने,
कांपते हुए हाथों से वो कागज़ पकड़े,
"क्षमा कीजिये डॉक्टर साहब, मैं बिना अनुमति लिए ही यहां आ गया, मेरा दोस्त भटक रहा है, बहुत भला आदमी था वो, आज भी याद आता है मुझे, हंसमुख था बहुत, बहुत दया थी उसके दिल में, उसने ही आपका पता दिया था" बोला अशोक,
डॉक्टर साहब,
चुपचाप बैठे रहे,
"यही वो कागज़ हैं जिनके बारे में उसने कहा था, मैंने आपको दे दिए हैं, मेरी भी तबीयत ठीक नहीं है, मैं आज्ञा चाहूंगा अब" वो बोला,
और खड़ा हुआ,
नमस्कार की,
और सीधा कमरे से बाहर गया,
अपनी चप्पलें पहनीं,
और चलता गया,
सीधा दरवाज़े से बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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डॉक्टर साहब,
देखते रहे उसको,
जब तक कि वो बड़ा दरवाज़ा,
बंद नहीं हो गया!
अब होश में थे डॉक्टर साहब!
आवाज़ दी उन्होंने मंजुला को!
मंजुला दौड़ी दौड़ी आई वहां!
सारी बात कह सुनाई उन्होंने!
कान लाल हो उठे मंजुला के!
और वो कागज़!
कागज़ उस झोले में थे!
मंजुला ने झोला पकड़ा,
तो छीन लिया डॉक्टर साहब ने उनसे!
और अब कागज़ निकाले,
धीरे धीरे!
आराम से,
ये एक फोल्डर था,
इसी में सारे कागज़ खोंसे गए थे!
इसमें सारी रिपोर्ट थीं,
टेस्ट्स थे,
दवाइयों के पर्चे थे,
और उन दवाइयों को,
कब कब बदला गया था,
ये सब लिखा था,
अब पढ़ते चले गए वो,
और फिर आयी पोस्ट-मोर्टेम की रिपोर्ट,
ज़हर!
ज़हर बन चुका था बदन में नीलेश के,
वो पहले ही दिन से मर रहा था,
धीरे धीरे!
बदन में ज़हर!
खून में ज़हर!
यही था वो कारण!
इसी कारण से मौत हुई थी उस नीलेश की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखें बंद कर लीं उन्होंने!
अब सारे कागज़,
मंजुला ने ले लिए!
वे भी पढ़ती गयीं!
एक एक कागज़!
वो पढ़ती जातीं,
और आंसू बहाती जातीं!
वे भी उस सदमे में आ गयीं,
जिस सदमे में,
डॉक्टर साहब उस दिन से थे,
जिस दिन उस सुशील को दौरा पड़ा था!
उन्होंने भी,
वही व्यवहार दिखाया,
जो डॉक्टर साहब ने दिखाया था!
वे शायद सुशील का ही भविष्य पढ़ रही थीं!
यही तो हो रहा था!
यही हो रहा था उस सुशील के साथ!
कागज़ बंद कर दिए उन्होंने,
और अपना सर,
सोफे की पुश्त से टिका दिया!
आँखों से,
आंसू बह निकले!
सुशील का चेहरा याद आ गया,
उन्होंने,
फिर से कागज़ खोले,
तारीख का हिसाब लगाया,
चौदह दिन,
चौदह दिन तक दाखिल रहा था नीलेश,
और चौदहवें दिन,
सांस छूट गयी थी उसकी!
इसका मतलब,
अब दो दिन थे,
इस सुशील के पास!
आह सी निकल गयी उनके मुंह से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कागज़ बंद कर दिए!
आंसू पोंछे उन्होंने,
और ताकने लगीं शून्य में!
बिलकुल,
डॉक्टर साहब की ही तरह!
फिर से कागज़ खोले,
वो पोस्ट-मोर्टेम की रिपोर्ट देखी,
कारण पढ़ा!
कारण स्पष्ट था!
जैसे ही वो फोल्डर बंद करने लगीं,
एक सफ़ेद कागज़,
उछल कर नीचे आ गिरा!

वो कागज़,
हवा में तैरता हुआ नीचे आ गिरा,
डॉक्टर साहब झुके,
और झुककर वो कागज़ उठाया,
कागज़ को सीधा किया,
ये हिंदी में लिखा हुआ एक,
पत्र सा था...
पढ़ने लगे डॉक्टर साहब,
ये था वो पत्र..........

आदरणीय डॉक्टर साहब,
नमस्कार,
अब तक आप सब समझ चुके होंगे, मुझे आशा है, डॉक्टर साहब, मैं अब इस दुनिया में, आपकी दुनिया में नहीं हूँ, कुछ वक़्त चुरा कर लाया था आपके पास आने के लिए, मेरी मौत कैसे हुई, ये मैं जान गया, मैं अभी भी आपके साथ ही हूँ, इस पत्र के पढ़ते ही, मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा, कभी नहीं लौट पाउँगा, डॉक्टर साहब, आप सोच रहे होंगे कि मेरा क्या मक़सद था आपके पास आने का, बताता हूँ, आपके मरीज़, सुशील की दुर्घटना ठीक वहीँ हुई जहां मेरी दुर्घटना हुई थी, मैं वहीँ था, लोगबाग मदद कर रहे थे उसकी, वो बेहोश था, मेरी तरह, लेकिन मैंने अपने आपको उसमे देखा, मुझे मेरे छोटे छोटे बच्चे याद आये, मेरी पत्नी याद आई, मैं नहीं जा सका वहाँ, मैं बहुत दुखी था, इसीलिए, मैं सुशील के साथ बना रहा, जो मेरे साथ हुआ, वो इसके साथ नहीं हो, यही सोचता रहा, आपको आगाह करना चाहता था मैं, आप हुए भी, डॉक्टर साहब, मैं तो


   
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श्रीशः उपदंडक
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इतना भाग्यशाली नहीं था कि कोई मेरी ऐसी मदद करता, लेकिन ये सुशील है, मैं इसको नहीं मरने दूंगा! बस, यही वो वजह है, जिसके कारण मैं आपके पास आता रहा, आपसे पूछता रहा, और फिर मैंने अपने दोस्त अशोक को आपके पास भेजा, उसी के कारण आज मैं आपबीती सुना सका,
आपका धन्यवाद,
नीलेश,
(घर का पता)
..........................................
इतना पढ़ते ही,
पत्र निकल गया उनके हाथों से,
सन्न रह गए वो!
लपक कर मंजुला ने वो पत्र उठाया,
और एक ही सांस में पूरा पढ़ लिया,
और जो रुलाई छूटी,
सभी आ गए वहां!
किसी को समझ ही नहीं आया!
मित्रगण!
मैंने ये पत्र पढ़ा था!
ये पत्र आज भी है डॉक्टर साहब के पास,
वो सारे कागज़ भी हैं!
मैं चकित था!
नीलेश,
वापिस लौटा था!
किसी की मदद करने को!
तभी!
मंजुला का फ़ोन बजा!
ये फ़ोन नर्सिंग-होम से था!
डॉक्टर आशा ने फ़ोन किया था,
ये बताने को,
कि सुशील को होश आ गया है!
वो एकदम ठीक है!
अपने माता-पिता से बात कर रहा है!
नीलेश!
बोलीं मंजुला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और डॉक्टर साहब को उठा,
ले गयी संग नर्सिंग-होम!
सुशील के रिश्तेदार,
पाँव पकड़ रहे थे उनके,
मौत से छीन लिया था डॉक्टर साहब ने उस सुशील को!
लेकिन,
डॉक्टर साहब,
और मंजुला,
असलियत जानते थे!
ये मसीहा वे दोनों नहीं,
वो नीलेश था!
कुछ निर्देश दिए मंजुला ने दूसरे डॉक्टर्स को,
और डॉक्टर साहब को संग ले,
चल पड़ीं!
चल पड़ीं उस नीलेश के घर!
जब वो घर पहुंचे नीलेश के,
तो दीवार पर,
तस्वीर थी उस नीलेश की,
माला चढ़ी हुई!
बच्चे पढ़ रहे थे,
और उनकी माँ,
पूजा, रोटियां बना रही थीं!
मित्रगण!
किराए का मकान था,
चार महीने का किराया बाकी था,
नौकरी अभी लगी नहीं थी कहीं उस पूजा की,
सारा पैसा चुकाया मंजुला ने,
और ले आयीं उन्हें गुड़गांव!
एक मकान दिया उन्हें, रहने को,
बच्चों का दाखिला करवाया,
बढ़िया स्कूल में!
और पूजा को,
रख लिया नौकरी पर नर्सिंग-होम में ही!
नीलेश के बच्चे,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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स्कूल से आते ही डॉक्टर साहब के यहां आराम करते हैं,
खाना खाते हैं,
और शाम को,
अपनी माँ के संग चले जाते हैं पास में ही अपने मकान में!
मेरे तो आंसू निकल पड़े थे!
ये कैसा अजीब संसार है!
यहां जीते जी,
कोई किसी की मदद नहीं करता,
और वो,
वो नीलेश,
मरने के बाद भी मदद कर गया!
लानत है ऐसे मानव-जीवन पर!
पाषाण हैं हम!
निष्प्राण पाषाण!
और डॉक्टर साहब!
वे अब डॉक्टर नहीं हैं!
छोड़ दी है डॉक्टरी!
मन नहीं लगता उनका!
मेरे पीछे पड़े रहते हैं!
मैं बहुत समझाता हूँ उन्हें!
नहीं आता समझ!
और वो नीलेश!
जब उसकी तस्वीर देखी मैंने,
हँसते हुए,
तो लगा,
मेरे संग ही खड़ा है वो!
साथ में!
खुश है बहुत!
कि उसका परिवार बच गया!
नीलेश!
जो मर कर लौटा था!
याद है मुझे!
आज भी याद है!
------------------------साधुवाद!-------------------


   
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