वर्ष २०११ गुड़गांव क...
 
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वर्ष २०११ गुड़गांव की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अभी तो आवाज़ आई थी?
कौन है?
फिर से वहम?
वहम तो एक बार हुआ तो माना,
लेकिन यहां तो कोई,
गरीब, मज़बूर, रो रहा था!
अब कहाँ था वो?
उफ़!
क्या पहेली है ये?
वे वहीँ बैठ गए,
पौने चार हुए थे,
जग में से,
पानी लिया और पिया,
वहीँ बैठे रहे,
"डॉक्टर साहब?" फिर से आवाज़ आई!
वो चौंके!
आवाज़ बाहर से आई थी!
बाहर भागे वो!
लेकिन कोई नहीं था वहाँ!
"कौन है?" वे बोले,
"मैं हूँ डॉक्टर साहब" आवाज़ आई!
"मैं कौन?" पूछा उन्होंने,
ढूंढते हुए,
"मैं, नीलेश हूँ डॉक्टर साहब" आवाज़ आई,
"सामने तो आओ?" वे बोले,
"सामने आऊंगा तो आप भगा देंगे, मेरी मदद करो, मैं बहुत दुखी हूँ डॉक्टर साहब, मेरे बच्चे तड़प रहे हैं, मेरी पत्नी तड़प रही है, आज भूखे सोये हैं वो, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता, अकेले हैं वो, मेरी मदद करो डॉक्टर साहब" आवाज़ आई,
पिघल गए डॉक्टर साहब!
नीलेश के करुण रूदन को सुन,
पिघल गए थे!
"सामने तो आओ नीलेश?" वे बोले,
"आता हूँ, लेकिन मुझे भगाना नहीं, बहुत उम्मीद लेकर आया हूँ मैं" वो रोते रोते बोला,
"नहीं भगाऊंगा, आ जाओ" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और तभी,
उन मालती के पौधों के बीच में से,
एक तीस साल का व्यक्ति सामने आया,
भीगा हुआ, कमीज पहने, सफ़ेद रंग की,
नीचे जीन्स पहने, नीले रंग की,
बाल हल्के थे उसके,
चेहरा मोहरा सही था,
कद भी सही था,
तंदुरुस्त लगता था,
हाथ जोड़े,
और बगल में कुछ लिए,
आ गया सामने,
"भगाना नही डॉक्टर साहब!" वो गिड़गिड़ाया!
"आ जाओ!" बोले वो,
और अंदर ले आये उसको डॉक्टर साहब!
"अंदर कैसे आये तुम नीलेश?" पूछा उन्होंने,
"मैं दीवार कूद के आया, वो गार्ड तो आने ही नहीं देता" बोला नीलेश,
"अच्छा! नहीं, तुम उस से कहते तो आने देता, मैंने कह रखा है" बोले डॉक्टर साहब!
"मुझे नहीं मालूम था" वो बोला,
"पानी पियोगे?" पूछा उन्होंने,
"जी, पियूँगा" बोला नीलेश,
और पानी पिया उसने,
नीलेश ने,
घर को देखा,
आलीशान घर था डॉक्टर साहब का!
"हाँ, अब बताओ नीलेश? क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
इस से पहले,
कि नीलेश कुछ कहता,
वो फूट फूट के रोया!
डॉक्टर साहब को,
बहुत दुःख हुआ,
चुप कराया उसको,
ऐसा अक्सर होता है इस पेशे में,
मरीज़ भगवान मान लेते हैं उन्हें,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उम्मीद से अधिक इच्छा रखते हैं!
"बताओ नीलेश?" बोले वो,
"डॉक्टर साहब, मेरा नाम नीलेश है, मैं दिल्ली में रहता हूँ, मैं ड्राइवर हूँ. अक्सर, शहर से भार आता जाता रहता हूँ, मेरा एक दोस्त है, मेरा अज़ीज़ दोस्त, वो भी ड्राइवर है, मेरी तरह" वो बोला,
और रुका,
"अच्छा" वे बोले,
"अभी कोई तीन महीने पहले, उसकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हुई, यहीं गुड़गांव में, इलाज हुआ उसका बहुत, बहुत इलाज करवाया उसका, जो किया जा सकता था सब किया, लेकिन एक दिन मेरे दोस्त की रहस्यमयी कारण से मौत हो गयी, वो अस्पताल में भर्ती रहा, सरकारी अस्पताल में, खूब संघर्ष किया उसने, लेकिन नहीं बच सका" वो बोला,
"ओह...." डॉक्टर साहब बोले,
"कारण का पता नहीं चल सका डॉक्टर साहब" वो बोला,
"अच्छा" वे बोले,
और फिर,
नीलेश ने,
एक पन्नी में लिपटे,
कुछ कागज़ उनकी ओर बढाए,
पकड़े उन्होंने,
पानी लगा था उन पर,
गीले थे,
एक तरफ रख दिए उन्होंने......

कागज़ उठाये,
और अब खोले,
पहले गिने,
ये करीब आठ-दस थे,
सरकारी अस्पताल के कागज़ थे,
उन्होंने पढ़ना शुरू किया,
ईलाज देखा,
जो दवाइयाँ दीं गयी थीं,
वे सब देखी,
ईलाज सही हुआ था,
और काफी परिक्षण भी करवाये गए थे,
परीक्षण भी सही थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई गंभीर बीमारी नहीं थी,
वे एक एक करके,
सभी कागज़ देखते रहे,
चिकित्सकों ने,
खून भी चढ़वाया था,
उन्होंने फिर से पहला पृष्ठ लिया,
नाम पढ़ा,
मरीज़ का नाम अशोक था,
उम्र कोई तीस के आसपास थी,
तारीख पढ़ी,
ये तीन महीने पहले की थी,
इन कागज़ों में तो,
सिर्फ ईलाज के बारे में ही लिखा था,
ईलाज, सही हुआ था,
इसमें कोई संदेह नहीं था,
रख दिए कागज़ उन्होंने वहीँ एक तरफ,
अब बजे नौ,
और उन्होंने खिड़की से बाहर देखा,
बाहर दरवाज़े पर,
आ चुका था नीलेश,
गार्ड से उसकी बातें हुई थीं,
और गार्ड ने अब अंदर भेज दिया था उसको,
नीलेश, लम्बे लम्बे डिग भरता,
आ रहा था अनुज साहब के कमरे की ओर,
वो आ गया,
दरवाज़ा खुला था ही,
दरवाज़े से ही उसने पुकारा उसने अनुज साहब को!
और फिर अंदर बुला लिया नीलेश को उन्होंने,
बैठा गया नीलेश,
नमस्कार की उसने,
तब एक गिलास पानी दे दिया उन्होंने उसको,
नीलेश ने पानी पिया,
और गिलास सामने मेज़ पर रख दिया,
"डॉक्टर साहब, कागज़ देखे आपने?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ नीलेश" वे बोले,
"कुछ ख़ास दिखा आपको?" उसने पूछा,
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं" वे बोले,
"कोई बीमारी?" उसने पूछा,
"नहीं, कोई गंभीर बीमारी नहीं" वे बोले,
"लेकिन अशोक शिकायत किया करता था कि उसके पेट और सर में एक साथ ही एक तीखा दर्द उभर आता था, कभी भी, और इस कारण बेहोशी की नौबत आ जाती थी, क्या ऐसा कुछ लिखा है?" उसने पूछा,
"ऐसा तो नहीं लिखा, लेकिन जो दवा दी गयी थीं उसे, उसमे दर्द की दवाइयाँ थीं, असर तो हुआ होगा" वो बोले,
"नहीं हुआ असर, एक रत्ती भी नहीं, वो तड़पता था, बहुत बुरी तरह, उसको तड़पते देख उसके बीवी-बच्चे भी तड़प उठते थे, किसी तरह से वो इस दर्द को बर्दाश्त करता कि उसके बीवी-बच्चों को कष्ट न हो, वो काम पर जाता, तो दवाइयों का नशा रहता, दर्द कभी भी उठा जाता था, कंपनी कहीं उसको निकाल न दे, इसीलिए बर्दाश्त करता रहता था" वो बोला,
"ओह, दुःख की बात है" वे बोले,
"क्या इसमें ऐसा कुछ भी नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं नीलेश" वे बोले,
मायूस हो गया नीलेश,
आँखों में आंसू भर लाया,
अनुज साहब भी,
गंभीर हो गए,
अपने मृतक दोस्त के प्रति,
ऐसा प्रेम देख,
वे भी भावों में भ चले,
पानी पिया उन्होंने,
और नीलेश को देखा,
वो शून्य में ताक रहा था,
गुमसुम,
भावहीन,
बस आँखों में आंसू थे उसके,
"तुमने बताया था नीलेश कि तुम्हारे उस दोस्त की मौत एक दुर्घटना में हुई थी, कैसे?" उन्होंने पूछा,
नीलेश ने आंसू पोंछे अपने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सिसकी भरी,
और फिर अनुज साहब को देखा,
"डॉक्टर साहब, मुझे लगता है कि जब वो वापिस आ रहा था, उस रात जयपुर से, तो यहीं गुड़गांव में उसको दर्द उठा होगा, इसी कारण से गाड़ी का संतुलन बिगड़ा होगा, और वो, टकरा गयी थी उस ट्रक से" वो बोला,
"ओह..तो क्या मौत वहीँ, मौके पर ही हो गयी थी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, पांच दिन अस्पताल में रहा वो, और छठे दिन, संघर्ष हार गया वो, सुबह सुबह उसने मौत का हाथ पकड़ लिया, जीवन की डोर, छूट गयी उस से" वो बोला,
"ओह....बहुत बुरा हुआ, सच में, बहुत बुरा" वे बोले,
"जी डॉक्टर साहब, बहुत बुरा हुआ, उसके दो छोटे छोटे बच्चे हैं, बीवी है, किराए के मकान पर रहते हैं, मैं तो उनके लिए चिंतित हूँ, जितनी मदद कर सकता हूँ, करता हूँ, कर रहा हूँ" वो बोला,
"बहुत नेकी का काम कर रहे हो नीलेश" वे बोले,
"डॉक्टर साहब, मेरे पास कुछ और भी कागज़ हैं, क्या आप वो भी देख लोगे? मैं आपका अहसानमंद रहूंगा जीवन भर के लिए" हाथ जोड़कर बोला नीलेश,
डॉक्टर साहब ने कुछ सोचा,
विचार किया,
"हाँ नीलेश देख लूँगा" बोले वो,
सुकून का रंग चढ़ गया चेहरे पर,
नीलेश की!
हाथ जोड़े जोड़े ही,
आंसू बहाता रहा,
बहुत समझाया अनुज साहब ने,
लेकिन आंसू नहीं थमे उसके,
लगता था कि,
जिस सवाल ने नीलेश को परेशान कर रखा है,
उस सवाल का,
उत्तर बस अनुज साहब, डॉक्टर साहब ही दे सकते हैं!
यही थे वो सुकून के आंसू!
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद" वो बोला,
"कोई बात नहीं" वे बोले,
अब नीलेश खड़ा हुआ,
हाथ जोड़े ही,
"कब आऊँ डॉक्टर साहब?" बोला नीलेश,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कल आ जाओ नीलेश" वे बोले,
"इसी समय?" पूछा उसने,
"हाँ, इसी समय ठीक रहेगा" वे बोले,
"जी डॉक्टर साहब" वो बोला,
और अपने आंसू पोंछता हुआ,
चला गया बाहर,
खिड़की से देखा अनुज साहब ने,
दरवाज़ा खोला गार्ड ने,
और बाहर चला गया नीलेश,
बैठ गए,
कमर टिका कर,
सोफे से अनुज साहब,
वे कागज़ फिर से उठाये,
और फिर से पढ़ने लगे,
और अब, गहन जांच करने लगे!

कागज़ फिर से पढ़े,
कुछ दवाइयाँ ऐसी थीं,
जैसे मरीज़ को कोई,
मानसिक रोग हो,
चिकित्सकों ने जो परीक्षण करवाये थे,
उनसे भी एस यही पता चलता था,
लग रहा था कि वो मरीज़,
शायद दिमागी रूप से,
परेशान था,
वे दवाएं,
जो दी गयी थीं,
वहम से ग्रस्त मरीज़ों को दी जाती हैं,
प्रथमदृष्टया तो यही लगता था,
रख दिए कागज़ उन्होंने,
वहीँ उसी मेज़ पर,
और उठे अब,
फ्रिज खोला,
बर्फ निकाली,
पानी निकाला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर अपनी वो स्कॉच की,
बोतल उठायी,
अपनी नौकरानी को आवाज़ दी,
वो आई,
तो कुछ फल काटने को कह दिया उस से,
वो चली गयी,
थोड़ी देर बाद फल काट लायी,
और रख दिए वहीँ मेज़ पर,
तब ही उनका पालतू श्वान आ बैठा वहां,
उसके सर पर हाथ फेरा उन्होंने,
और सेब का एक टुकड़ा दे दिया उसको,
बड़ा सा,
वो उसको लेकर,
वहीँ अपने गद्दे पर बैठ गया,
और खाने लगा!
तभी बाहर मेघ गरजे!
एकाएक मौसम ने करवट बदल ली थी!
वैसे भी,
चौमासे चल रहे थे,
वर्षा कब आ धमके,
पता ही नहीं चलता था,
उनका श्वान भौंका बाहर की तरफ मुंह करके,
अपनी पूंछ हिलायी,
अपने मालिक को देखा,
और फिर बैठ गया अपने गद्दे पर,
हुक्म-ए-मालिक की,
तामील कर दी थी उसने!
तभी बिटिया आ गयी उनकी,
अपने पापा से बात की उसने,
कुछ बात हुई,
और चली गयी अंदर अपने कमरे में,
घड़ी देखी,
साढ़े दस बज चुके थे,
डॉक्टर साहब ने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बड़े बड़े, चार पैग खींच मारे,
ग्यारह बज रहे थे,
तभी बाहर का दरवाज़ा खुला,
गार्ड ने दरवाज़ा खोला,
मंजुला आ चुकी थी,
गाड़ी पार्क की उन्होंने,
और सीधा डॉक्टर साहब की तरफ चली,
आ गयीं और बैठ गयीं वहां,
अपना चेहरा साफ़ किया अपने रुमाल से,
"कैसा है सुशील?" उन्होंने पूछा,
"कोई सुधार नहीं है, लगता है, नहीं बचेगा" बोली मंजुला,
काँप से गए अनुज साहब,
कौन डॉक्टर चाहता है कि,
उसका मरीज़ इस तरह से मर जाए,
लाचार हो जाएँ डॉक्टर्स!
कोई नहीं चाहता!
सोच में डूब गए,
आँखें बंद कर लीं,
"खाना लगवा रही हूँ, खाना खाइये अब" बोली मंजुला,
उन्होंने आँखें खोलीं,
मंजुला जा चुकी थी,
उठे वो,
और चले अब खाना खाने,
बैठ गए वहीँ टेबल पर,
हल्का-फुल्का खाना खाया,
हाथ-मुंह धोये,
और अपने शयनकक्ष में चले आये,
और लेट गए,
सुशील का चेहरा,
सामने घूमता रहा,
अभी तो जवान था सुशील,
जीवन, देखा ही कहाँ था उसने?
और अभी से विदा?
इस संसार से विदा?


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऑंखें बंद कर लीं,
और करवट बदल ली,
और आँख लग गयी उनकी,
मंजुला जानती थी,
कि वे परेशान हैं,
सुशील को लेकर,
इसीलिए कोई बात नहीं की उसने,
और वो भी सो गयी,
सुबह हुई,
फारिग हुए वो,
नाश्ता-बोजन कर,
सीधे भागे चले गए अपने नर्सिंग-होम,
डॉक्टर रेहान से सुशील के बारे में पूछा,
रेहान ने भी,
वही सब बताया जो,
उनको अभी तक बताया जा रहा था!
कोई सुधार नहीं!
और अब तो कोई,
गुंजाइश भी नहीं दीखती,
बड़े परेशान हुए वो,
सीधा, सुशील के पास जा पहुंचे,
जांचा,
देखा,
कोई सुधार नहीं,
बस सांस का एक धागा,
जिसमे एक कच्ची सी गाँठ पड़ी थी,
झूल रहा था,
गाँठ कब खुल जाए,
कुछ पता नहीं!
घबरा गए वो,
सहम गए डॉक्टर साहब!
आने वाले दिन या दिनों में,
क्या होगा,
यही सोच कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चले वापिस,
भारी सर लिए,
और आ बैठे,
अपने कमरे में,
पानी पिया,
और कुछ कागज़ जांचने लगे..

वे कागज़ जांच रहे थे,
इसी सुशील के,
दवाइयाँ देखीं,
चौंक पड़े!
लगा कि जैसे,
यही कागज़ उन्होंने देखा है कुछ देर पहले?
कहाँ?
तभी याद आया!
वो अशोक!
अशोक के कागज़!
वो अस्पताल के कागज़!
क्या ये,
संयोग है?
ऐसा संयोग?
हो भी सकता है!
यही माना उन्होंने!
एक संयोग!
और संयोग तो घटते ही रहते हैं!
और ये मानव जीवन तो,
चलता ही संयोगों पर ही है!
तो ये भी एक संयोग ही है!
आगे पृष्ठ बदले,
ये एक सूची थी,
सभी चिकित्सकों की राय भी थी,
और जांच भी थी!
तभी विचार आया उनको,
उन्होंने दवाइयाँ बदल दीं!
उनको लगा कि,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अशोक की दवाइयों के कारण!
उन दवाइयों के कारण बच न सका था वो,
प्रमाण सामने था उनके,
न जाने क्या हुआ कि,
दवाइयाँ बदल दीं उन्होंने!
डॉक्टर आशा को बुलाया,
और बता दिया कि दवाइयाँ बदल दी गयी हैं,
डॉक्टर आशा ने गौर से सुना,
और उसी क्षण से अनुज साहब की राय पर,
दवाइयाँ बदल दीं!
वो दिन काटा उन्होंने,
और दूसरे मरीज़ भी देखे,
कई मरीज़ों में सुधार हो गया था!
शाम हुई,
बजे साथ और अब वे चले वापिस अपने घर,
जैसे ही वापिस चले,
डॉक्टर मंजुला भी आ चुकी थीं,
अनुज साहब ने सबकुछ बता दिया उनको,
मंजुला को अटपटा तो लगा,
एक जल्दबाजी में लिया गया सा फैंसला ही लगा,
खैर,
मान लिया मंजुला ने,
अब अनुज साहब वापिस चल दिए,
कार्यभार अब, मनुला ने संभाल लिया!
घर पहुंचे अपने अनुज साहब,
नहाये धोये,
बेटा मिला,
अपने पापा से लागलपेट की बातें की,
डॉक्टर साहब समझ गए,
कि पैसे चाहियें उसे!
हंस कर, पैसे दे दिए अपने बेटे को,
वो हंसी-ख़ुशी दौड़ पड़ा बाहर!
आ बैठे अपने कमरे में,
तभी उनकी नज़र उन कागज़ों पर पड़ी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वही कागज़,
जो नीलेश ने दिए थे उन्हें,
कागज़ उठाये और पढ़ने लगे,
वही दवाइयाँ थीं,
वही की वही!
आज बदल दीं थी उन्होंने!
तभी उनका फ़ोन बजा,
उन्होंने फ़ोन उठाया,
ये मंजुला का फ़ोन था,
उनकी बात हुई,
मंजुला ने बताया कि एक क्षण के लिए,
आँखें खोलीं थीं उस सुशील ने!
ये सुनते ही, डॉक्टर साहब को जैसे,
खजाना मिल गया!
बहुत खुश हुए!
प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने मंजुला से,
मंजुला जितना जानती थीं,
उतना सब बता दिया!
प्रसन्न हो उठे वो!
वो कागज़ उठाये उन्होंने,
लगा कि जैसे ये सुशील के कागज़ हों!
एक एक करके,
सभी कागज़ पढ़ डाले!
एक एक करके!
इन कागज़ों में तो कहीं भी होश नहीं आया था अशोक को,
लेकिन सुशील को आ गया था!
भले ही पल भर के लिए!
ये शुभ लक्षण था!
उसको होश आता तो,
और गहनता से ईलाज हो जाता,
फिर ठीक भी हो जाता वो!
वो खुश थे!
बहुत खुश!
बिटिया आई तभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने फ़ौरन ही जेब से अपनी,
अच्छे-खासे पैसे दे दिए उसको!
वो तो खुश!
आज तो बिना कुछ पूछे ही,
उसके पापा मेहरबान थे!
उन्होंने अपनी नौकरानी को आवाज़ दी,
फल काटने को कहा,
वो गयी,
और ले आई फल काट कर!
और हुआ उनका दौर शुरू तब!
धीमे धीमे,
हलके हल्के वो पीते रहे!
और फिर बजे नौ!
उन्हें ध्यान आया,
आज तो नीलेश भी आएगा!
वो मदद करने को उसकी,
पूरी तरह से तैयार थे!
इंसानियत के नाते!
बाहर का दरवाज़ा खुला,
और नीलेश अंदर चला आया,
फिर उनके कमरे तक आया,
आवाज़ दी,
तो अंदर बुला लिया उसको!
उसने नमस्कार की,
और बैठ गया!
हाल-चाल पूछे नीलेश से उन्होंने,
कहा दिया कि ठीक है वो!
अब एक पन्नी आगे बढ़ायी उसने,
एक नीले रंग की पन्नी!
उन्होंने पन्नी खोली,
कागज़ बाहर निकाले,
नाम पढ़ा,
अशोक,
और फिर अगला पृष्ठ पलटा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जो देखा,
तो सन्न रह गए वो!
यहां वे ही दवाइयाँ लिखी थीं,
जो उन्होंने आज बदली थीं!
एकदम वही!
जड़ रह गए वो!
नज़रें गड़ गयीं उस कागज़ पर!

अगला पृष्ठ बदला,
यहां और दवाएं बदल दी गयीं थीं,
उस समय वे चिकित्सक,
अपनी ओर से भरसक प्रयत्न कर रहे थे,
उस अशोक को बचाने के लिए,
उनको लगा,
कि जैसे,
भविष्य का निदान देख रहे हों वो,
उस सुशील का,
आगे और भी दवाएं बढ़ा दी गयी थीं,
उन्होंने फिर से आगे का पृष्ठ बदला,
फिर से चिकित्स्क की,
राय लिखी थी,
अशोक की हालत, ठीक वैसी ही थी,
जैसी हाल इस सुशील की थी!
वे सन्न थे!
क्या ये भी,
संयोग है?
आज के दिन,
दो ऐसे संयोग?
हो सकते हैं,
संभव है,
यही माना उन्होंने,
"नीलेश?" बोले वो,
"जी डॉक्टर साहब" बोला नीलेश,
"क्या आपका दोस्त, ये अशोक, दिमागी रूप से परेशान था?" पूछा उन्होंने,
"नहीं डॉक्टर साहब" वो बोला,


   
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