वर्ष २०११ गुड़गांव क...
 
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वर्ष २०११ गुड़गांव की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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सावन का महीना था,
अभी सावन आरम्भ हुए,
कोई छह-सात दिन ही बीते थे,
बारिश झमाझम बरस रही थी!
डॉक्टर अनुज अपने कमरे में,
बैठे, कुछ पढ़ रहे थे,
चश्मा लगाए,
खिड़की आदि पर,
बारिश की बौछारें,
अपना बसेरा बना चुकी थीं!
उनका पालतू श्वान,
अपने गद्दे पर बैठा,
ऊँघ रहा था!
रात का समय था,
अनुज उठे,
किताब में,
एक कागज़ रखा,
जहां वो पढ़ रहे थे,
और खिड़की का पर्दा हटाया,
बाहर देखा,
उनका गार्ड अपने उस छोटे से कमरे में बैठा था,
रैशनी आ रही थी,
रौशनदान से उसके,
बाहर,
खम्बे पर जलती रौशनी, बारिश का,
हुस्न बे-हिज़ाब करने को आमादा थी!
पानी परदे की भाँति गिर रहा था!
उनकी पत्नी,
जो कि एक डॉक्टर ही थीं,
उन्ही के नर्सिंग होम में थीं अभी तक,
काम बहुत अधिक था,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अनुज भी बस कोई एक घंटे पहले ही लौटे थे वहाँ से!
उनकी बेटी,
अपने कमरे में सो रही थी,
बेटा अपने कमरे में अभी तक,
टीवी देख रहा था,
और डॉक्टर साहब,
अपने कमरे में पढ़ाई कर रहे थे!
टेबल पर सामने,
शराब की बोतल रखी थी,
और एक गिलास,
साथ में बर्फ के टुकड़े,
और कुछ कटे हुए सेब और अन्य फल!
तभी बिजली कड़की!
और उनका पालतू श्वान,
चौंका!
भौंका!
और फिर दम हिलाकर,
खड़ा हुआ,
घूमा,
और फिर बैठ गया!
डॉक्टर साहब ने,
बोतल उठायी,
एक पैग बनाया,
बर्फ डाली और रख दिया,
बैठ गए कुर्सी पर,
और किताब उठा ली,
फिर सेब के कुछ टुकड़े उठाये,
पढ़ते हुए,
चबाने लगे,
बिजली कड़की!
श्वान भौंका!
फिर से बैठ गया!
बेचारे को बहुत तकलीफ होती थी,
बिजली कड़कने से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तक बर्फ घुल चुकी थी!
गिलास उठाया,
और दो चुस्कियां लीं,
और रख दिया!
फिर से पढ़ने लगे,
पन्ना पलटा,
और फिर से गिलास उठाया,
फिर से चुस्कियां लीं,
और तभी उनका फ़ोन बजा,
ये उनकी पत्नी का फ़ोन था,
बात हुई,
और फ़ोन कटा,
रख दिया फ़ोन,
और अब अपना गिलास खत्म किया!
और अब फिर से,
पन्ने पलटे,
देखा कि,
कितना शेष है अभी!
और फिर से,
रख दी किताब,
कागज़ फंसा कर,
उठे,
और गिलास बनाया,
उठाया,
और घूमने लगे वहीँ,
उनका श्वान भी उठ खड़ा हुआ,
उसे माथे पर हाथ फेरा उन्होंने,
और फिर सारा गिलास खत्म कर लिया,
बिजली कड़की!
श्वान भौंका!
और फिर से बैठ गया!
डॉक्टर साहब,
अपने सोफे पर आ बैठे!
फ़ोन उठाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और किसी को फ़ोन लगाया,
हँसते हुए बातें कीं,
करीब बीस मिनट तक!
और फ़ोन फिर से रख दिया,
तभी बेटा आया उनका,
कुछ सेब के टुकड़े उठाये उसने,
और बैठ गया!
अपने पिता से कुछ बातें हुईं,
पिता ने भी कुछ समझाया,
वो चला गया फिर,
फिर से गिलास बनाया उन्होंने,
और आधा पी गए,
दस बज चुके थे!
तभी मेघ गरजे!
इस बार ऐसे,
जैसे घर के पास ही,
दामिनी उतर गयी हों,
अपने सिंहासन सहित!
बाहर देखा उन्होंने,
पर्दा हटाकर,
बारिश ने कहर ढा दिया था!
वो श्वान,
अब तो डर ही गया था!
अबकी बार,
नहीं भौंका!
न कुछ किया,
टांगों में अपना सर दबाये,
बैठा रहा!

अब साढ़े ग्यारह का वक़्त था,
तभी बाहर का बड़ा दरवाज़ा खुला,
छतरी लिए हुए, गार्ड बाहर आया,
और दरवाज़ा खोला उसने,
चारदीवारी काफी ऊंची थी,
उसके आसपास लगे पेड़ पौधे,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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दीवार के साथ सट गए थे,
पेड़ झूम रहे थे,
और पौधे उनके संग,
नाचने में मस्त थे,
बेलें तो चारदीवारी से लटकी थीं,
अब फिसलने के डर से,
काँप रही थीं!
खैर,
गाडी अंदर आई,
ये अनुज साहब की मेमसाहिब थीं,
गाड़ी आगे आती गयी,
और फिर पार्किंग में खड़ी कर दी,
पार्किंग टीन की चादर से ढकी थी,
अतः बारिश यहां नहीं टोह ले सकी थी!
गाड़ी की बत्तियां बंद हुईं,
और मेमसाहिब बाहर निकलीं,
अपने कागज़ात उठाये,
अपना बैग भी,
और अपना रेनकोट भी,
और दौड़ीं घर के अंदर!
नौकरानी ने दरवाज़ा खोला,
और सीधा अंदर जा पहुंची,
डॉक्टर साहब को पता चला गया था कि,
मेमसाहिब आ चुकी हैं,
वे उठे,
और दरवाज़े का पर्दा हटा दिया,
कुछ देर में,
मेमसाहिब आ बैठीं वहाँ,
अपने बाल सँवारे,
और फिर अपना रुमाल रखा गोद में,
"क्या रहा उस मरीज़ का?" पूछा अनुज साहब ने,
"हालत गंभीर है उसकी" बोली मंजुला,
उनकी मेमसाहिब,
"कोई सुधार नहीं?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं" वो बोली,
"होश भी नहीं आया?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" वो बोली,
अब सोच में डूबे,
"सदमे की स्थिति है ये" वे बोले,
"हाँ, ये सही है" वो बोलीं,
"अब कौन है वहाँ?" पूछा उन्होंने,
"रेहान हैं, आशा है" वो बोली,
'चलो सुबह देखते हैं" वे बोले,
"हाँ, उम्मीद है, बच जाए" वो बोलीं,
"ठीक है, मैं जाता हूँ अब सोने, सुबह जल्दी जाना होगा" बोले वो,
"मैं आती हूँ अभी" बोली मंजुला,
अनुज साहब उस मरीज़, सुशील को लेकर बहुत परेशान थे,
सुशील, उनके एक वक़ील जानकार का सबसे बड़ा बेटा था,
अभी वक़ालत कर रहा था,
दो दिन पहले,
सड़क पर, उसकी चार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी,
इसमें बहुत ज़ख्मी हुआ था वो,
तभी से,
उसका इलाज यहीं चल रहा था,
पुलिस को खबर कर दी गयी थी,
लेकिन होश नहीं आया था उसे,
अनुज साहब बिस्तर में लुढ़क गए,
और जब तक मंजुला आई,
वो सो चुके थे,
मंजुला भी सो गयी,
सुबह बारिश रुक चुकी थी,
अस्पताल से कोई फ़ोन नहीं आया था अभी,
अर्थात,
स्थिति जस की तस ही थी,
नहाने-धोने के पश्चात,
चाय-नाश्ता कर,
वे चले गए थे अपने नर्सिंग-होम,
सीधे उस मरीज़ के पास पहुंचे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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जांच-पड़ताल की,
कुछ अन्य परीक्षण भी देखे,
और फिर डॉक्टर रेहान से भी,
कुछ मालूमात की,
हालत गंभीर थी सुशील की,
जाकर,
अपने कक्ष में आ बैठे,
सुशील के माता-पिता,
दुखी होकर,
आये उनके पास,
अब अनुज क्या कहते,
कोई जवाब नहीं था उनके पास,
न तो मरीज़ को होश ही आया था,
और न ही कोई दवा असर कर रही थी,
ऐसा लग रहा था,
फिर भी,
जैसे एक डॉक्टर,
हमेशा हिम्मत बंधाता है,
उनकी हिम्मत बंधाई उन्होंने,
यही कहा कि,
होता है ऐसा अक्सर,
दुर्घटनाओं के मामले में,
आ जाएगा होश भी,
भले ही दो दिन लगें,
या चार दिन,
ये तो मात्र सांत्वना के शब्द थे,
जानते तो,
वो माता-पिता भी थे,
लेकिन क्या करते?
सब नियति की हाथों छोड़ दिया था उन्होंने,
अब तो, जो नियति तय है सुशील की,
वही होगा,
और क्या करें?
दवा-दारु चल ही रही है,


   
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श्रीशः उपदंडक
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दुआ करनी तो छूटी ही नहीं है!
दोपहर हुई,
फिर से जांच हुई,
और फिर से वही,
ढाक के तीन पात,
कोई फ़र्क़ नहीं,
नौ बोतल खून चढ़ चुका था,
और चेतना,
नाम-मात्र को भी नहीं थी!
एक ऊँगली भी नहीं हिलायी थी,
एक पल को भी,
आँखें नहीं खोली थीं उसने,
चोटें बहुत गंभीर थीं,
पसलियां टूट चुकी थीं,
आंतें फट गयीं थीं,
जिगर में भी चोट पहुंची थी,
ऑपरेशन तो,
उसी रात कर दिया गया था,
लेकिन अभी तक,
होश नहीं आया था,
यही फिक्र की बात थी,
अब शाम हुई,
और हालत में कोई सुधार नहीं,
बैठे रहे अनुज वहाँ,
कुछ और मरीज़ देखे,
फिर हुई रात,
आठ बजे,
उनकी पत्नी मंजुला आयीं वहां,
कुछ समझाया अनुज ने उनको,
और फिर वे,
लौट पड़े घर की ओर,
मन चिंता से भरा पड़ा था,
न जाने क्या हो?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोशिश में तो कोई भी,
कमी नहीं छोड़ी थी उन्होंने!

घर पहुंचे,
और बारिश शुरू हुई अब,
गाड़ी अंदर लगाई अपनी,
और अपना सामान लेकर भागे अंदर,
उनकी बिटिया की,
दो सहेलियां आई हुईं थीं,
नमस्ते हुई,
बेटा अपने कमरे में था,
अपने काम में मस्त!
वे सीधा अपना सामान रखा,
नहाने गए,
और आकर वापिस,
अपने कमरे में बैठ गए,
फिर से अपने मरीज़ के बारे में सोचने लगे,
सच में,
उनके मरीज़ और उसकी मौत के बाच,
फांसला बेहद कम था,
ये बात बखूबी जानते थे वो,
बखूबी,
लेकिन कह नहीं सकते थे,
उनका पेशा,
उनका फ़र्ज़,
रोक लेता था उन्हें,
होंठ सील देता था उनके,
इसीलिए चुप थे,
सोचते सोचते,
ख्यालों में डूबे डूबे,
दस बजा दिए,
नौकरानी आई,
खाने की पूछी,
मना कर दिया उन्होंने,
मन नहीं था उनका खाने का,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चिंता लगी थी मन में बहुत,
उन्होंने,
अपनी नौकरानी को बुलाया,
कुछ फल कटवाए,
और फिर वो चली गयी,
बाहर मेघ गरजे!
भूमि को धमकी दी उन्होंने,
कि आज!
आज देख कैसे तेरा जलवा हर लेते हैं हम!
इस बात की,
गवाही दी कड़कती बिजली ने!
आकाश को चीरती हुई,
वो चमकी!
और उनका पालतू श्वान,
भौंका!
उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका,
बारिश की झड़ी लगी थी!
पेड़-पौधे,
सब मस्त थे!
बेचारी बेल,
परित्यक्ता थी आज भी!
बस, दीवार का ही सहारा था उसे!
गार्ड,
अपने उस छोटे से कमरे में,
दुल्लर हुए बैठा था!
बेचारा,
काट रहा था समय अपना किसी तरह!
बिजली फिर से कड़की!
और श्वान भौंका!
फिर,
मन मसोस कर,
वहीँ बैठ गया!
उसे दिखाना तो था ही,
कि वो श्वान है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने मालिक का श्वान!
डॉक्टर साहब ने फिर से,
हर दुःख को हरने वाली बूटी निकाली!
फ्रिज से बर्फ निकाली,
आज तो सोडा भी निकाला,
जम कर पीने का कार्यक्रम था शायद आज!
गिलास बनाया,
सोडा डाला,
बर्फ डाली,
और थोड़ा सा पानी,
और इस बार तो एक बार में ही,
उद्धार कर दिया उस मदिरा का!
पेट में,
जाते ही,
हिलोरें काटने लगी वो तो!
डॉक्टर साहब ने,
कुछ टुकड़े उठाये,
चबाये,
और टहलने लगे!
दारु पीते पीते,
ग्यारह बज गए,
मेमसाहिब भी आ गयीं थीं,
साथ कमरे में ही बैठी थीं,
डॉक्टर साहब ने हाल पूछा,
तो खबर बुरी थी,
लगता था कि सुशील के,
गुर्दों ने,
काम करना बंद कर दिया था!
कलेजा मुंह को आ गया उनका तो!
झट से एक बड़ा गिलास बनाया,
और खींच मारा!
मेमसाहिब ने खाना पूछा,
बाद में, ऐसा कहा उन्होंने,
और मेम साहिब चली गयीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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डॉक्टर साहिब,
वहीँ उसी कुर्सी पर,
बैठ गए,
सामने रखी एक किताब उठायी,
नशे में,
कुछ दिखाई नहीं दिया,
रख दी किताब वापिस!
और फिर,
अपना सर टिका कर,
बैठ गए!
कब तक बैठे रहे,
नहीं पता चला,
जब आँख खुली, तो,
दो बज चुके थे!
सर भारी था उनका,
बाहर बारिश गज़ब की पड़ रही थी!
वे चले अब अपने कमरे की ओर,
और वहाँ जाकर,
लेट गए,
जैसे ही लेटे,
लगा कोई है वहां,
वि झटके से उठे,
मंजुला अपना सर ढके सो रही थी,
डॉक्टर साहब ने,
चारों ओर देखा,
कोई नहीं था वहाँ!
कोई भी नहीं!
डॉक्टर साहब, फिर से लेट गए!
अभी दस मिनट ही बीते होंगे,
कि आवाज़ आई एक,
"डॉक्टर साहब?"
"डॉक्टर साहब?"
वे चौंक पड़े,
मंजुला ने नहीं सुनी थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इसीलिए वो, सोती रही!
डॉक्टर साहब, उठकर बैठ गए,
चिंतित से,
"डॉक्टर साहब?"
"डॉक्टर साहब?" फिर से आवाज़ आई,
ये आवाज़, उनके उसी कमरे से आई थी,
जहां वो दारु पी रहे थे,
वे उठे,
चप्पलें पहनीं,
और चल दिए वहाँ की तरफ!

डॉक्टर साहब उसी कमरे में गए,
बत्ती जलायी,
कोइ नहीं था,
अपना नाईट-सूट बाँधा,
और खिड़की से बाहर झाँका,
कोई भी नहीं था वहाँ,
किसने आवाज़ दी?
कौन था?
आवाज़, आई तो थी,
घड़ी देखी,
सवा तीन बजे थे,
इतने रात गए कौन आएगा?
शायद वहम रहा होगा,
दिमाग वैसे ही परेशान है,
दरवाज़ा खोला उन्होंने,
जो बाहर खुलता था,
बारिश की फुहार पड़ीं!
फुहार पड़ीं,
तो नींद उड़ी अब!
सामने देखा,
गार्ड के कमरे की बत्ती जली थी अभी भी,
कमरे में ही था गार्ड अभी,
फिर भी सोचा,
कि, देख ही लिया जाए,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कि है भी कि नहीं?
अंदर गए,
छतरी उठायी,
और बाहर आकर, खोल ली,
चले अब उस कमरे की तरफ,
गार्ड वहीँ बैठा था,
अपनी कुर्सी पर,
हिलता-डुलता कमरे के बाहर देख रहा था,
साहब को देखा तो खड़ा हुआ,
"आप..साहब?" बोला गार्ड,
साहब अंदर आ गए उसी कमरे में,
गार्ड के कमरे में,
"कोई आया था क्या अभी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं साहब, कोई नहीं आया" बोला गार्ड,
"अच्छा" वे बोले,
और फिर बाहर आ गए,
गार्ड कुछ न समझ सका,
अपने कमरे में आ गए,
छतरी रखी वहीँ,
और चले फिर अपने शयनकक्ष की ओर,
दरवाज़ा बंद किया और चल दिए,
पहुँच गए,
अपने पाँव पोंछे,
और लेट गए,
पर अब नींद नहीं आ रही थी,
"कौन था?"
"आवाज़ तो किसी आदमी की आई ही थी?"
"कौन हो सकता है?"
यही सोच रहे थे!
करवट बदल ली उन्होंने,
मंजुला,
इत्मीनान से सो रही थी,
खैर,
उनका पेश ही ऐसा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात बेरात कौन आ जाए ज़रूरतमंद,
पता नहीं था,
यही सोचा था उन्होंने कि,
कोई आया होगा!
आँखें बंद कीं,
आधा घंटा बीता,
खर्राटे आरम्भ हुआ डॉक्टर साहब के,
और फिर से आवाज़ आई,
"डॉक्टर साहब?"
"डॉक्टर साहब?"
चौंक कर,
उठ पड़े वो!
वही आवाज़?
वही आदमी?
वे बैठ गए,
कान लगा दिए कमरे की तरफ!
"डॉक्टर साहब, मैं मज़बूर आदमी हूँ, गरीब आदमी, मेरी मदद करो" आवाज़ आई किसी की, रोते!
उठे,
भाग पड़े वो!
कमरे का दरवाज़ा खोला,
बत्ती जलायी,
लेकिन कोई नहीं था वहाँ!
हाँ!
बाहर की तरफ का,
दरवाज़ा खुला हुआ था!
ये किसने खोला?
कौन आया?
अपने आप खुला?
नहीं, हवा से नहीं खुल सकता ये,
फिर कैसे खुला,
वे चल पड़े बाहर,
कोई नहीं था वहाँ!
बड़ी हैरानी की बात थी!


   
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