वर्ष २०११, गढ़वाल के...
 
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वर्ष २०११, गढ़वाल के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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तो हम अब उस पठार पर चढ़ चुके थे! मिट्टी नरम थी, पाँव मुश्किल से ही जमते थे! कभी-कभार तो पीछे को धकिया देती मिट्टी हमें! भुरभुरी मिट्टी थी वो, इसीलिए! बड़ी ही मुश्किल हुई उस पे चढ़ने में! लेकिन जब ठान ही रखा हो, तो फिर क्या आगे और क्या पीछे! हम आ गए थे उस पठार के शीर्ष पर! आसपास का नज़ारा देखा तो दिल बाग़-बाग़ हो उठा! जैसे प्रकृति ने खूब साज-श्रृंगार किया हो अपना! ऐसी खूबसूरती जिसका कोई सानी नहीं! केवल सूर्य और चन्द्र ही ऐसी खूबसूरती निहारते हैं रोज! क्या छटा थी! सारी तक़लीफ़ और कोफ़्त, छू-मंतर हो गए!
"कैसा विहंगम दृश्य है!" बोले सिलाइच साहब!
"निःसंदेह!" बोला मैं,
"जैसे, सारी छटा यहीं बिखर गयी हो!" बोले वो,
"सच में!" कहा मैंने,
"आकाश का स्वरुप भी देखो कैसा सुंदर है!" बोले वो,
मैंने आकाश को देखा! उत्तर में काला हुआ था वो! और शेष, सूर्य देव के उज्जवल प्रकाश में नहाया हुआ था! श्वेत-नील आभा थी उसकी!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये है प्रकृति!" बोले वो,
"हाँ, इसकी रचियता!" कहा मैंने,
"हाँ, और उसके सिवाय कौन!" बोले वो,
सच बात है! उसका स्थान कौन ले सकता है! कोई नहीं!
"आओ, चलें आगे!" बोले वो,
"जी, चलिए!" कहा मैंने,
और हम सभी, चले आगे! अब हुई ढलान शुरू! मिट्टी भुरभुरी थी, इसीलिए एक-दूसरे का सहारा लेना पड़ता था बार बार!
"अभी तो काफी जान पड़ती है!" कहा मैंने,
"हाँ, है अभी तो!" बोले वो,
"ये देखो! कैसी छिपकली है!" बोले सिलाइच साहब!
"हाँ, हरे रंग की!" कहा मैंने,
"ये धूप में हरी और छाया में गुलाबी सी हो जाती है!" बोले वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
छिपकली, जैसे, हमें ही देख रही थी!
"आओ!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
हमें करीब चालीस मिनट लगे नीचे आने तक! अब ढलान के किनारे पर खड़े थे हम! रास्ता ढूंढ रहे थे, नीचे जाने के लिए!
"वहां से आओ, उस दरार से!" बोले शर्मा जी,
"चलिए! बोले सिलाइच साहब!
और हम बढ़ चले उस दरार की तरफ, उतरने लगे धीरे धीरे!
"आराम से!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
और इस तरह, हम सभी नीचे उतर आये! सकुशल! नीचे आये तो फूलों भरी एक वाटिका जैसा स्थान दिखा! बेहद सुंदर! रंग बिरंगे फूल खिले थे! मनमोहक ख़ुश्बू फैली थी!
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"शानदार!" बोले शर्मा जी,
"बहुत सुंदर!" बोले सिलाइच साहब!
अब जहां तक देखो, नज़रें दौड़ाओ, बस फूल ही फूल! ऐसा नज़ारा कि मन प्रसन्न हो जाए!
"आओ, बैठते हैं ज़रा!" बोले सिलाइच साहब!
"हाँ जी!" कहा मैंने,
और एक जगह, हम सभी बैठ गए, पानी पिया और ज़रा आराम किया!
"यहां तो कोई गुफा नहीं?" कहा मैंने,
"ढूंढना पड़ेगा!" बोले वो,
"देखते हैं!" बोला मैं,
हमने करीब आधा घंटा आराम किया! साँसें ताज़ा हुईं! दम सीधा हुआ! और फिर हम आगे चले!
"यहां से, सीधा चलें!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और हम सब, उनके साथ चलते रहे सीधा!
"अब आई हैं छोटो पहाड़ियां!" बोले वो,
"अब शायद मिल जाएँ!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
सभी हर्षातिरेक से भरे थे! शायद मंजिल मिल ही गयी थी!
"गिलोय की बेल बताई थीं न?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां तो बहुत गिलोय हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब गुफा और मिले!" कहा उन्होंने,
"यहीं होनी चाहिए!" कहा मैंने,
एक जगह रुके, नज़रें दौड़ायीं हमने!
"वो, वहां!" बोले सिलाइच साहब!
"चलिए!" कहा मैंने,
और तभी, बरसात की बूँदें गिरीं नीचे!
"ओहो! ये एक छोटी सी बदली है!" कहा मैंने,
"चलते रहो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम आगे बढ़ चले! अब बूँदें बड़ी हुईं!
"इधर आ जाओ!" बोले वो,
एक पहाड़ सा था वो, उसके नीचे ही खड़े हो गए थे हम, पत्थर निकले हुए थे, अधिक तो नहीं बचे, लेकिन कुछ बचाव तो हुआ ही!
"बस दस-पंद्रह मिनट और!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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दस-पंद्रह मिनट तो नहीं, करीब आधा घंटा लगा गया, और बारिश हो गयी बंद! अब आकाश ऐसा था, जैसे कि कुछ हुआ ही नही! लेकिन ज़मीन पर उसके निशान चस्पा हो गए थे! मिट्टी की सौंधी-सौंधी सुगंध फैलने लगी थी!
"आओ!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
चेहरे को पोंछा मैंने, सर गीला हो गया था, तो उसको भी पोंछा, अब मौसम बढ़िया हो गया था! हवा में ताज़गी भरी थी और वनस्पतियों में यौवन का चिपका था!
"वो, उधर चलते हैं पहले!" बोले सिलाइच साहब,
"चलिए!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उधर के लिए! वहाँ रुके, तो एक गुफा दिखाई पड़ी! लेकिन उसके मुख पर, गिलोय की बेल नहीं थी, ये कोई और ही गुफा थी शायद, लेकिन अंदर जाकर, देखने में कोई हर्ज़ा नहीं था!
"अंदर चलते हैं!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
मदन और जॉजी मैडम, बाहर ही रोक दिए गए थे, अंदर कुछ अहम मिलता तो अवश्य ही उनको बुला लेते हम! तो हमने टोर्च जलाईं अपनी, और चल पड़े अंदर की तरफ, गुफा साफ़-सुथरी थी, कोई पद-चिन्ह आदि नहीं थे उसमे, इसका अर्थ ये हुआ कि वहाँ कोई जानवर भी नहीं था, अक्सर ऐसी गुफाओं में, भालू आदि अपना समय काटा करते हैं! भालू बहुत ही भयानक और सरफिरा जीव होता है! इस से तो बच कर रहना ही ठीक होता है! ये न पेड़ पर छोड़ता है और न पानी में ही! पीछे पड़ जाए तो समझो हो गया काम!
"ये देखो!" बोले वो,
दीवार में आले से बने थे वहाँ! गहरे गहरे!
"ये तो आले हैं!" मैंने कहा,
"हाँ, सामान इत्यादि के लिए!" बोले वो,
"हाँ, यही प्रयोजन है इनका!" कहा मैंने,
"आगे आओ!" बोले वो,
और हम आगे चले, यहां गुफा का अंत हो जाता था, और कुछ नहीं था वहाँ!
"यहां कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
"हाँ, कुछ भी नहीं!" कहा उन्होंने,
थोड़ा-बहुत टटोला हमने उधर, लेकिन कुछ मिला नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, जिस से कुछ मदद मिलती हमें, बस, साधारण सी गुफा ही थी वो!
"आओ, बाहर चलें!" बोले वो,
"चलिए!" बोले हम,
और इस तरह, हम बाहर आ गए, सिलाइच साहब ने, जॉजी मैडम को बता दिया कि अंदर कुछ भी नहीं है, खाली पड़ी है गुफा!
"आओ, और तलाश करते हैं!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
अबकी बार, हम सीधा चले, फिर थोड़ा सा बाएं, वहां एक गुफा दिखाई दी, उसके मुख पर, गिलोय की एक बड़ी सी बेल चढ़ी थी! पर्दे की तरह से झूल रही थी!
"यही लगती है!" बोले वो,
"हाँ, ठीक वैसी ही बेल है!" कहा मैंने,
"तो देर कैसी?" बोले वो,
"चलें फिर!" कहा मैंने,
और हम, दौड़कर, पहुंचे उधर! गुफा का मुंह बहुत चौड़ा था! नीचे पत्थर पड़े थे, पत्थरों पर, जैसे खड़िया लगी हो, ऐसा लग रहा था!
"सम्भल कर!" बोले सिलाइच साहब,
और वे घुसे अंदर!
"आओ, एक एक करके!" बोले वो,
और हम, एक एक करके, अंदर की तरफ चलने लगे!
"रुक जाओ!" बोले धीमे से सिलाइच साहब, टोर्च जला ली गयीं, अंदर, एक अजीब सी सुगंध फैली थी, जैसे केवड़ा के फूल रखे हों, या जैसे रात की रानी के फूलों की सुगंध! ये मिश्रित सी थी सुगंध! फ़र्क़ करना आसान न था उसमे!
"हो न हो, हम मंजिल पर पहुँच गए!" बोले सिलाइच साहब!
"ऐसा ही हो!" कहा मैंने,
"वो देखो! वही, पीला खरबूजा!" बोला भरत!
"ऐसा ही था?" पूछा मैंने,
"ठीक ऐसा ही!" वो बोला,
अब तो धड़कन बढ़ीं हमारी! दिल बल्लियों उछले!
"आओ, मेरे पीछे!" बोले वो,
गुफा, साफ़ थी, दीवारों पर, पत्थर भी चिकने हुए पड़े थे! गुफा बहुत पुरानी थी वो, ये तो स्पष्ट था!
"रुको!" बोले वो,
हम सभी रुक गए!
"ये आवाज़?" बोले वो,
ध्यान से सुना हमने!
"पानी की आवाज़ है शायद!" बोला मैं,
"हाँ, लगता है, पानी टपक रहा है!" बोले वो,
"बारिश का पानी!" बोले वो,
"बारिश?" मैंने अचानक से पूछा,
"अभी बारिश हुई थी न? वही शायद ऊपर इकट्ठा हो, अब रिस रहा हो?" बोले वो,
"हाँ, ये सम्भव है!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, धीरे धीरे आगे बढ़े!
गुफा बहुत बड़ी थी, बहुत ही गहरी!
"काफी बड़ी है!" कहा मैंने,
"हाँ, गहरी भी!" बोले वो,
तभी अंदर से एक आवाज़ आई, जैसे कोई लकड़ी पीट रहा हो, ज़मीन पर!
"श्ह्ह्ह्ह्ह!" बोले सिलाइच साहब!
हम अभी, ठिठक कर, खड़े हो गए!
"कोई है अंदर!" बोले वो,
कान लाल हो उठे ये सुनकर! कौन हो सकता है? क्या वही बाबा?
"रुके रहो!" बोले वो,
और आवाज़, बंद हुई तभी!
हमने कान लगाए सामने! दिल ऐसे धड़क रहे थे जैसे अभी मुंह से बाहर आ जाएंगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"आराम से!" बोले सिलाइच साहब,
हर क़दम फूंक फूंक के रखा जा रहा था, कोई चूक न हो जाए कहीं, इसीलिए! पता नहीं आगे था क्या? कोई बाबा हैं भी या नहीं! हाँ, अब वो डंडी पटकने की आवाज़ नहीं आ रही थी, जैसे अंदर जो कोई भी था, उसको भान हो गया था कि कोई है गुफा के अंदर, जो अंदर बढ़े आता जा रहा है!
"रुको! रुको!" बोले वो,
फिर से पानी टपकने की आवाज़ आई, इस बार जैसे कि पानी बह रहा हो, जैसे कि अंदर कोई धारा बह रही हो पानी की!
"सुना?' बोले वो,
"हाँ, पानी की आवाज़ है!" कहा मैंने,
"हाँ, आवाज़ तेज़ है!" बोले वो,
"इसका अर्थ ये है कि हम करीब हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, इसीलिए आराम से चलो सभी!" बोले वो,
हम थोड़ा रुक गए थे, अब गुफा में अन्धकार गहरा था, हमारी टोर्च की रौशनी ही लड़ रही थीं एक दूसरे से, दीवारों पर पड़ती हुई!
"आओ, चलो!" बोले वो,
और हम सब आगे बढ़ चले! गुफा और गहरी हुई! दूर तलक चली गयी थी, हम अब तक करीब अस्सी फ़ीट तक अंदर आ चुके थे!
"चलते रहो!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
तभी सामने, एक दीवार सी दिखी! यहां जैसे वो गुफा ख़त्म हो जाती थी, हम वहीँ जाकर रुक गए! अब यहां जांच-पड़ताल की, दीवार को छू कर देखा, दीवार गीली थी, पानी बह रहा था उस पर,
"यहां से आओ!" बोले वो,
नीचे कीचड़ जमा थी, पत्थर पड़े थे, उन्हीं पर, पाँव रखे हम आगे बढ़ रहे थे! तभी टोर्च की रौशनी में, एक तरफ, दायें तरफ, एक रास्ता दिखा, वो ऊपर को जाता था, सिलाइच साहब उसी पर चढ़ने लगे! हमें हाथ से इशारा किया, उनके पीछे आने को! हम चलते रहे!
ऊपर चढ़े, तो सामने की तरफ चले, वहाँ से एक छोटी सी ढलान मिली, हम नीचे उतरे, अंदर अब उजाला आ गया था, ये उजाला, सूरज की रौशनी का था, जी उस गुफा की छत में हुए छेदों से अंदर आ रहा था! यहां भी ज़मीन गीली थी, बारिश का पानी छेदों से अंदर आया होगा! इसीलिए!
हम ढलान उतरे तो सामने की तरफ चले! कुछ ही देर में, ज़मीन सूखी हो चली! लेकिन वहाँ कुछ न था! बस पत्थर ही पड़े थे! चप्पा-चप्पा छान मारा, और कुछ न मिला हमें तो!
"यहां तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले सिलाइच साहब, अब लहजा बदल गया था उनका, उनको निराशा हाथ लगी थी, साथ हमें भी, इस मकड़जाल में हम फंस के रह गए थे! इस गुफा में हमें और कुछ न मिला!
"आओ, बाहर चलें!" बोले वो,
और कोई रास्ता नहीं था, बाहर ही जाना था!
"चलिए" कहा मैंने,
और हम पलटे, हुए वापिस, आ गए बाहर, गुफा को पुनः देखा, कुछ बदलाव नहीं, हाँ, शाम होने की नौबत अवश्य ही आने लगी थी! अब शाम होती, तो या तो वहीँ समय काटो या फिर वापिस हो जाओ! वापिस होने में तो समय लगता, संभावना यही बनती थी, कि किसी सुरक्षित से स्थान पर, पनाह ले ली जाए!
"यहां और भी होनी चाहियें!" बोले वो,
"आपका मतलब, गुफाएं?" पूछा मैंने,
"हाँ, चलो, देखते हैं!" बोले वो,
तो मित्रगण! यूँ कहो, कि जो हम दो हफ्तों से करते आ रहे थे, फिर से शुरू कर दिया! वो थी खोज! कोई ऐसी गुफा, तो हमें मिले और हम दर्शन-लाभ उठायें!
एक जगह, एक और गुफा दिखी! ये छोटी थी, मुंह करीब छह फ़ीट का ही रहा होगा, इस पर भी गिलोय की बेल चढ़ी थी, लेकिन ये बेल हरी न होकर, बैंगनी सी थी, घुंघरू समान फल से लगे थे उस पर! पत्ता पान के आकार का, बड़ा था उसका!
"आओ, इसे देखें!" बोले वो,
"चलिए" बोला मैं,
और हम अंदर चल पड़े! ये अंदर से काफी गहरी थी! इस बार क़दम तेज थे हमारे और हम, खट-खट आगे बढ़ते चले गए! एक जगह मिली हमें! एक बड़ा सा पत्थर था, समतल सा, वहां कुछ धूनी की सी भस्म रखी थी! अंदर गुफा में, यहां काफी गर्मी थी, जैसे अलाव जलाया गया हो! लेकिन ऐसा कुछ था नहीं! एक बात और, एक जगह, गुफा में, एक छेद सा था, करीब चार फ़ीट का, उसके अंदर झाँका सिलाइच साहब ने, और एक झटके से अलग हुआ!
"अंदर देखो!" बोले वो,
मैंने अंदर झाँका, नज़रें दौड़ायीं! अंदर लगता था कि जैसे किसी का आवास हो वो! वहां लकड़ियाँ संभाल कर रखी गयी थीं! एक ढेरी सी बना कर!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"यहीं से अंदर चलते हैं, और कोई रास्ता नहीं!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
सिलाइच साहब, घुसे उस छेद में, बड़ी मुश्किल हुई उन्हें! वे जब अंदर चले गए, तो सभी को मना कर दिया और कह दिया कि हम सभी बाहर ही रहें, वो जांच करते हैं वहाँ की!
करीब आधा घंटा हो गया, वो हमसे बातें करते रहे, और फिर............
फिर वो नज़रों से ओझल हो गए! अब न आवाज़ आ रही थी उनकी, और न ही दख रहे थे, एक बार को तो, हम सभी घबरा गए!
"सिलाइच साहब?" चिल्ला के बोला मैं,
कोई उत्तर नहीं मिला!
"सिलाइच साहब?" फिर से चिल्लाया मैं!
अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!
अब मैडम जॉजी आयीं आगे, जर्मन भाषा में कुछ बोला उन्होंने, लेकिन कोई उत्तर नहीं!
"मदन?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"अंदर जाएगा?" पूछा मैंने,
"जाता हूँ!" बोला वो,
और वो भी अंदर जाने लगा, मैं टोर्च की रौशनी मारता रहा उस पर, वो उतर गया नीचे, उसने टोर्च की रौशनी मारी, हर तरफ!
"दिखाई दिए?" पूछा मैंने,
"नहीं, लेकिन एक जगह से उजाला आ रहा है!" बोले वो,
"जाकर देख ज़रा?'' पूछा मैंने,
"देखता हूँ!" वो बोला,
और चला गया, नज़रों से वो भी ओझल हुआ! कुछ पल बीते, और फिर दस मिनट हो गए!
"मदन? ओ मदन?" चिल्लाया मैं,
कोई आवाज़ नहीं आई!
ये हो क्या रहा था?
"मदन?" फिर से चिल्लाया मैं,
कोई आवाज़ नहीं!
"कहाँ है मदन?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं, इस बार भी!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"ये टोर्च पकड़ो, मैं जाता हूँ!" कहा मैंने,
"लाओ" बोले वो,
और ले ली टोर्च, और मैं, अंदर जाने लगा उस छेद से, उतर गया नीचे,
"लाओ, टोर्च दो!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
टोर्च पकड़ ली मैंने, और चला आगे, एक तरफ उजाला सा आ रहा था! वहीँ के लिए चला!
"कोई दिखा?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, कोई नहीं!" बोला मैं,
"आगे जाकर देखो?" बोले वो,
"वहीँ जा रहा हूँ!" बोला मैं,
और बढ़ने लगा मैं, उस उजाले की तरफ ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो उजाला, वहाँ से करीब दस फ़ीट दूर था, लगता था जैसे कि बाहर जाने का कोई रास्ता है, लेकिन अगर रास्ता था ही तो, सिलाइच साहब को बताना चाहिए था, और फिर मदन, वो भी पता नहीं कहाँ चला गया था? तो मैं यही चिंता लिए बढ़ा उसकी तरफ, आया उस रास्ते की तरफ, वो सच में ही, एक रास्ता ही था, नीचे पत्थर पड़े थे, उन्हें लांघना ज़रूरी था, दरअसल, ये गुफा का पिछला हिस्सा ही था! तभी मेरी नज़र सिलाइच साहब पर पड़ी!
"सिलाइच साहब?" चिल्लाया मैं,
उन्होंने ऊपर देखा मुझे! और इशारा किया नीचे आने का!
"आता हूँ अभी!" कहा मैंने,
और फिर पलटा पीछे की तरफ, खबर करने को, बाकी के लोगों को, वे सभी चिंता में थे! मैं लौटा, तो शर्मा जी अंदर ही झाँक रहे थे!
"मिले क्या?' पूछा उन्होंने,
"हाँ, दरअसल, वे दोनों गुफा के पीछे हैं, आप जॉजी मैडम को वहीँ रोकिये, केवल आप अंदर आइये!" कहा मैंने,
"आता हूँ" बोले वो,
और उन्होंने समझा दिया बाकी के लोगों को, एक सहायक और मैडम जॉजी ही थे, उन्हें इंतज़ार करना था हमारे वापिस आने तक!
"आओ!" कहा मैंने,
अपना हाथ पकड़ाया मैंने उन्हें, और वो, आ गए अंदर उस छेद से!
"क्या मामला है?" पूछा उन्होंने, अपने कपड़े झाड़ते हुए!
"वो पीछे की तरफ हैं!" बोला मैं,
"वहां क्या कर रहे हैं?" बोले वो,
"पता नहीं, बुला रहे हैं!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
और हम दोनों उस उजाले की तरफ चल पड़े! पहुंचे,
"वो देखो, वो रहे!" बोला मैं,
सिलाइच साहब और मदन, बैठे हुए थे एक बड़े से पत्थर पर, देख रहे थे हमारी तरफ ही!
"चलो!" कहा मैंने,
"हाँ, अब अँधेरा होने को है!" बोले वो,
"हाँ, शाम का वक़्त है!" कहा मैंने,
और हम दोनों नीचे उतर आये, पत्थर फलाँगते हुए, चले सिलाइच साहब की तरफ, वो सामने देख रहे थे उन गुफाओं के पत्थर को! हम आ गए उनके पास, वे हुए खड़े,
"पीछे देखो!" बोले वो,
हमने पीछे देखा पलट कर, वहाँ, नीचे की तरफ, एक गुफा थी! बस तीन या साढ़े तीन फ़ीट का रास्ता था उसमे, अंदर जाने का!
"ये गुफा है कोई?" पूछा मैंने,
"हाँ, मैंने देखा था, रास्ता है अंदर!" बोले वो,
"इसमें रास्ता? अंदर भी इतनी गहरी है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं, ये रास्ता ऐसा ही कि लेट कर ही अंदर जाया जा सकता है!" बोले वो,
"और फिर? खड़े होने की जगह है?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले वो,
"तो अब क्या करें?" पूछा मैंने,
"आज यहीं रुकते हैं, कल सुबह ही चलेंगे अंदर!" बोले वो,
"लेकिन उन बाबाओं ने तो ऐसा कुछ बताया ही नहीं था?" कहा मैंने,
"इशारा किया था, किया था या नहीं?" बोले वो,
"हाँ, किया तो था!" कहा मैंने,
"तो अब कल देखते हैं!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"अब चलो वापिस!" बोले वो,
"चलिए" कहा मैंने,
और मैं वहीँ के लिए लौटने लगा, जहां से आये थे!
"यहां से नहीं, यहां से आओ!" बोले वो, और चल पड़े! हम सब उनके साथ ही चल पड़े थे, कुछ ही देर में, हम उस गुफा के बाएं से निकले! ये छोटा रास्ता था!
"अच्छा! ये रास्ता भी यहीं आता है!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"मदन?" बोले वो,
"जी?" बोला मदन,
"कोई अच्छी सी जगह तलाश करो, आज यहीं रुकना है!" बोला सिलाइच साहब,
"तो अंदर ही न चलें?" बोला मदन,
"अंदर, घुटन हो जायेगी, अलाव भी जलाना है न?'' बोले वो,
"हाँ! ठीक है!" कहा मदन ने!
"आओ, बुला लाते हैं उन्हें!" बोले सिलाइच साहब,
और हम अंदर चल दिए, अंदर मैडम जॉजी परेशान थीं, हमें सकुशल देख, उन्हें भी राहत हुई! उन्हें समझा दिया सबकुछ, अब तक जो हुआ था!
तो उस रात हम वहीँ ठहरे, आगे की रणनीति बनाई, कल का दिन बस आखिरी था हमारे लिए, या तो दर्शन हो ही जायंगे, नहीं तो वापिस!
"कल हो जाएँ दर्शन!" बोले सिलाइच साहब,
"हाँ जी!" बोला मैं,
"नहीं तो, पता नहीं कब अवसर मिले!" बोले वो,
"सच में!" कहा मैंने,
"वैसे क्या लगता है?" बोले शर्मा जी,
"क्या?" सिलाइच साहब ने पूछा,
"उम्मीद है?" पूछा शर्मा जी ने,
"अब देखो!" बोले वो,
उनका ये जवाब, उत्तर दे रहा था बहुत कुछ!
"सिलाइच साहब?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले धीरे से,
"हो गए तो ठीक, नहीं हुए, तो प्रभु-इच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ........" बोले वो, एक लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"मानता हूँ, समय बहुत हुआ!" कहा मैंने,
"जानता हूँ" बोले वो,
"कोई बात नहीं, अब नसीब हमारा!" कहा मैंने,
"हां......." बोले धीरे से,
देर रात हुई! बातें करते करते, बारह बज गए!
"अब सो जाइए!" कहा मैंने,
"हाँ, आप सब भी!" बोले वो,
आँखें कीं बंद!
और आँखों में, कल की दिखी झलक! नींद ही न आये! खैर, आ गयी नींद किसी तरह!
हुई सुबह! उठे हम! कुल्ला-पानी किया!
''आओ!" बोले वो,
"चलिए" कहा मैंने,
और हम, उसी रास्ते से आगे चले! पहुंचे वहां!
"मदन?" बोला मैं,
"जी?" चौंका वो,
"अंदर झांको ज़रा?" कहा मैंने,
"अभी!" बोला वो,
और चला अंदर, झुक के जाना पड़ा!
"बंद है आगे!" बोला वो,
"आराम से देखो?" सिलाइच साहब ने कहा,
"हाँ, बंद है, कुछ नहीं है!" बोला वो,
अब टूटी हिम्मत!
रंग उड़ गया हमारे चेहरों का!
"आ जाओ बाहर" बोले सिलाइच साहब, और खुद अंदर जाने के लिए, हुए तैयार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब सिलाइच साहब अंदर गए, ज़रा परेशानी तो हुई उन्हें, लेकिन चले गए अंदर, मदन बाहर आ गया था, अब मैंने भी अंदर जाने की सोची, कम से कम देखूं तो सही? कि अंदर है क्या? मैं अंदर चला, मदद की सिलाइच साहब ने मेरी, जब मैं अंदर आया तो उस अन्धकार के साथ ही हमारा अभियान दम तोड़ गया! कुछ नहीं था वहाँ, बस एक पत्थर की दीवार, और कुछ मकड़ी के जले, और कुछ नहीं था वहां, बस एक आद जगह, पानी के कारण आई हुई सीलन! और कुछ नहीं! कम से कम पांच मिनट हम वहीँ खड़े रहे, अब तो स्पष्ट था, कि हमें अब खाली हाथ ही जाना पड़ेगा........
"आओ, बाहर चलें" बोले टूटे हुए से सिलाइच साहब,
"चलिए" कहा मैंने,
और मैं उनके बाद बाहर चला, सभी ने देखा हमें, और समझ गया हमें देखकर वो, कि कुछ भी हांसिल नहीं हुआ है, हम असफल हुए हैं, हमने चारों तरफ देखा, पहाड़िया, पहाड़, प्राकृतिक सौंदर्य, लेकिन अब हिम्मत शेष न बची थी! अब तो बस, वापसी की राह पकड़नी थी, आज ही निकल जाना था हमें वहाँ से! बाबा देव नाथ, जो की पीछे ही रुक गए थे, इंतज़ार में थे हमारे, पूरे रास्ते भर, किसी ने किसी से भी बात नहीं की, सभी का मन खिन्न था बहुत, विशेषकर, सिलाइच साहब का, उनकी उम्मीदें अब टूट चली थीं, और हमारी तो पूछो ही मत, धुंआ हो चली थीं, पहली बार ऐसा हुआ था कि, इतनी मेहनत और माथा-पच्ची के बाद भी, कुछ हाथ न लगा था! हम करीब दस बजे वहाँ से चले थे, और रुकते-रुकते करीब ढाई बजे वहां पहुंचे, हमारी हालत अब खराब थी, बाबा देवनाथ सब समझ गए थे, बस सांत्वना देने के अलावा और कुछ न कर सकते थे! हमारा अभियान, अब समाप्त हो चला था! पूर्णतया समाप्त!
मित्रगण!
हम वहां से, उसी समय निकल पड़े, बीच गाँव में आये, चाय पी, साथ में कुछ खाया भी, क्या खाया, क्या स्वाद था, पता नहीं, और इस तरह हम वापिस हुए!
हम, बब देव नाथ के डेरे पर जा पहुंचे, वहां एक दिन आराम किया, और फिर दूसरे दिन, हमने वहां से विदा ली, सिलाइच साहब, वापिस जाते समय, हमसे दिल्ली में मिलने वाले थे, जाने से पहले, ये आखिरी मुलाक़ात होती हमारी और उनकी!
वो पंद्रह दिन, नहीं भूले जा सकते थे, हमने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा था, बस इसी का मलाल शेष था!
और इसी तरह, एक हफ्ते बाद, सिलाइच साहब और जॉजी मैडम हमसे दिल्ली में मिले, ये आखिरी मुलाक़ात थी हमारी उनसे, म में खेद तो था लेकिन किया कुछ भी नहीं जा सकता था! शाम पांच बजे, सिलाइच साहब और मैडम जॉजी ने, हिन्दुस्तान की ज़मीन को अलविदा कह दिया!
करीब दो महीने बाद................
बब देव नाथ का फ़ोन आया, एक स्त्री ने, तीन बाबाओं को देखा था! उन बाबाओं ने उस स्त्री से बात भी की थी, स्थान वही था, भरत का बताया हुआ, हाँ, इस बार उन बाबाओं में से एक ने, कुछ दिया था उस स्त्री को! ये एक कार्ष्ण था, ताम्बे का कार्ष्ण! बस, और कुछ नहीं पता चला!
करीब तीन महीने बाद, वो कार्ष्ण देखने का मुझे अवसर मिला, मैंने देखा, वो ताम्बे का एक बड़ा सा कार्ष्ण था, देखा जाए तो उस लिपि के अनुसार वो, करीब सात सौ वर्ष पुराना था! बाबा देव नाथ के पास वो आज भी सुरक्षित है!
उसके बाद, न कोई अभियान ही बना, और न हमारी हिम्मत ही हुई! हाँ, इतना अवश्य ही पता चला, जिसका नसीब होगा, उसको दर्शन हो जाएंगे! ये उनकी इच्छा पर निर्भर है, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते!
उन जंगलों में, आज भी ऐसे विलक्षण बाबा हैं, ये सिद्ध हुआ था, मैं तो मानता हूँ, हमें इसीलिए दर्शन नहीं हुए कि, एक तो हम संभवतः विघ्न डाल रहे थे, दूसरा ये कि, सम्भवतः उन बाबाओं ने ही स्वीकृत नहीं किया था हमें दर्शन देना! सिलाइच साहब वर्ष २०१५ की इन सर्दियों में, एक बार फिर आ रहे हैं! अभी अभियान, निर्धारित तो नहीं हुआ, हाँ, मुझे प्रतीत होता है, कि उनके आने का उद्देश्य शायद यही हो!
परमेश्वर से प्रार्थना ही, कि बस एक बार, एक बार दर्शन हो जाएँ, बस एक बार! शायद, नसीब जागे हमारा! तब तक, बस वो जिज्ञासा पाली ही हुई है मन में!
साधुवाद!

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