वर्ष २०११, गढ़वाल के...
 
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वर्ष २०११, गढ़वाल के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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दूर दूर तक फैले पहाड़! धूप की अठखेलियां!
पहाड़ों पर पड़ती धूप की चादर, और फिर नग्न होतीं पहाड़ियां!
सफेद बरफ़ जमी थी पहाड़ियों की चोटियों पर!
पेड़, झूम रहे थे!
पक्षियां, ऐसे गा रहे थे कि जैसे, आयोजन हो उनका कोई!
हमारे पीछे चर रह बकरियां,
मैं-मैं कर रही थीं! उनके छौने फुदक रहे थे!
लाल, काली, सफ़ेद बकरियां!
अपनी उज्जवल आँखों से, हमें भी देख लेती थीं!
एक छोटे से, शैतान बकरे ने, मेरे घुटने में, मारा सींग!
छोटे छोटे सींग थे उसके, ज़ोर से तो न लगी थी, लेकिन, वो ज़िद पर अड़ा था!
भगाना चाहता था हमें वहाँ से!
"अरे जाते हैं यार! इतना गुस्सा क्यों?" बोले शर्मा जी,
मैंने उसके सींग पकड़ लिए थे,
अब ज़ोर-आजमाइश चल रही थी!
"आओ शर्मा जी! इसका ही क्षेत्र है ये!" बोला मैं,
"चल भाई, हो गयी गलती, हम ही चले!" बोले वो,
और हम हट लिया वहां से!
वो हमें देखे, और डराए, सर दिखाए, सर झुकाये!
"गुंडा है जी ये तो!" बोले वो,
"हाँ! भगा रहा है!" बोले वो,
हम चल दिए आगे वहां से,
एक जगह आ बैठे!
बहुत सुंदर जगह थी वो!
मर्चैण्टा रंग के फूल खिले थे!
अपनी गर्दनें हिला रहे थे!
उनकी हरी पत्तियां, चमक रही थीं!
अब सूर्यदेव भी, अस्तांचल के अतिथि होने वाले थे, कुछ ही देर में!
सामने ही, एक पेड़ में,
कोटर बना था, मादा-कठफोड़वा, चारा लायी थी,
अपनी दो छोटे छोटे बच्चों के लिए!
एक को खिलाया, तो दूसरा झगड़ उठा!
मादा उडी और नर आ गया!
उस भूखे बच्चे को खिला दिया!
मैं मुस्कुरा पड़ा था!
छोटा सा जीव!
छोटी सी खोपड़ी!
छोटा सा दिमाग!
और इतना बड़ा काम!
न जाने कितने चक्कर लगाते थे दोनों ही!
दिन भी पेट भरते होंगे उनका!
और जब बड़े हो जाने थे, तो, छोड़ जाने वाले थे इनको!
कौन सी कमाई खिलाने वाले थे इन्हें!
यही है प्रकृति का नियम!
कर्म! कर्म प्रधान है! ये पक्षी, उदाहरण थे इसके!
गाँव की महिलायें,
मुंह ढके, लकड़ियाँ उठाये, जा रही थीं!
चूल्हा-चौकी का इंतज़ाम करना था उन्हें!
दिन भर के थके उनके मर्द, अब आराम से भोजन करते!
ठीक सामने ही,
उस पेड़ के पास,
बिल बने थे,
चूहे आते जाते उनमे!
बड़े थे, कुछ ला रहे थे मुंह में दबाये!
शायद जंगली बीज आदि रहे हों,
बड़ी फुर्ती थी उनमे!
एक दूसरे से मिलते,
तो जैसे पता बताते थे इस दूसरे को!
और दूसरा, पता जान, भाग पड़ता था उधर ही!
तभी आवाज़ दी किसी ने मुझे,
ये हरदू था!
सहायक था उस छोटे से डेरे का,
"कहाँ से आ रहा है?" पूछा मैंने,
"गाँव गया था दूसरे" बोला वो,
साइकिल पर, कट्टा रखा था एक,
"इसमें क्या ले आया?" पूछा मैंने,
"चावल हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" बोला मैं,
वो मुस्कुराया,
और साइकिल पर चढ़, चला गया सामने की ओर!
अब दिन ढलने लगा था,
पहाड़ियां अब लाल हो चली थीं!
बरफ़, जैसे लाल चुनरिया ओढ़ चली थी!
बेहद सुंदर नज़ारा था!
चोटियों पर,
बादल आ चुके थे,
प्रेमी बादल, उन चोटियों के!
अब हवा में भी शीतलता आने लगी थी!
ठंडक बढ़ चली थी!
"क्या नज़ारा है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यही डालो झोंपड़ी और काटो जीवन!" बोले वो,
"सच में!" बोला मैं,
"क्या रखा है शहरों में? साली बीमारियां!" बोले वो,
"अब ये तो है ही!" बोला मैं,
तभी मेरी नज़र,
सामने लगी गुड़मार की बेल पर पड़ी!
"वो गुड़मार है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और ये निर्गुण्डी!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो!
"वो अदरक लगी है!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
अदरक के फूल!
बीस ग्राम!
कच्चा देसी लहसुन,
पांच ग्राम,
मूंगफली का तेल,
दस ग्राम,
भुनी हुई अजवाइन, पांच ग्राम,
दो ग्राम, हींग-चूर्ण,
ईनको मिला लीजिये,
कूट मार लीजिये,
फिर गोलियां बना लीजिये,
दो-दो ग्राम की,
गैस हो, अफारा हो,
अपच हो, पेट फूले,
कब्ज़ हो, अम्लपित्त-दोष हो,
खट्टी डकारें हों, मंदाग्नि हो,
एक एक गोली, सुबह-शाम, गुनगुने पानी से खाएं,
हफ्ते भर में आराम और समस्या खत्म!
शरीर में आलस हो,
थकावट हो,
रोग होने के बाद की कमज़ोरी हो,
देह में दर्द रहता हो,
न बैठे बने,
न लेटे बने,
जवानी में ही वृद्धावस्था घेरे,
जान शेष न लगे,
तो,
सौ ग्राम जीरा लें,
रोगन-बादाम शीरीं एक चम्मच,
और ख़मीरा-ख़ास मरवरीद, माचिस की तीली के,
मसाले के बराबर ले,
इन सभी को,
पानी में डुबो कर रख दें रात को,
ढक कर,
कांच के बर्तन में रखें,
सुबह छान लें, मथ कर,
अब इस पानी को, उबाल लें,
जब आधा रह जाए,
तो उतार लें,
अब रोज रात को, सोने से पहले,
आधा चम्मच पानी,
पी जाएँ,
हफ्ते भर में ही, देह से मुर्दानगी चली जायेगी!
चुस्ती-फुर्ती और स्फूर्ति भर जायेगी!
देसी दवा हैं,
असर थोड़ा देर से करती हैं,
लेकिन रोग का क्षय कर देती हैं!
मूल-नाश उसका!
अब उच्च रक्तचाप!
मुझे भी रहता है,
पर नियंत्रण में है!
अब सामान्य ही है!
सबसे पहले तो,
भोजन से, टेबल-साल्ट हटा दें!
आप सेंधा नमक प्रयोग करें!
व्रत वाला नमक,
ये पौष्टिक होता है!
अब, अमलतास की एक पकी हुई फली ले आएं,
इसका गूदा निकाल लें,
करीब बीस ग्राम,
अब उबाल लें,
एक गिलास पानी बचे, तो भर ले शीशी में,
अब रोज सुबह, आधा चम्मच, पी जाएँ,
रक्तचाप नहीं बढ़ेगा!
अर्जुन-छाल लाएं,
दिन में दो बार, इसकी चाय बना कर पियें,
रक्तचाप न बढ़ेगा,
घीये के बीज,
पचास ग्राम ले आएं,
छील लें, करीब चार,
ताज़े पानी के साथ चबा लें,
रक्तचाप न बढ़ेगा,
देसी लहसुन,
छोटी कलियों वाला होता है,
रोज सुबह,
दो कलियाँ निगल जाएँ,
रक्तचाप न बढ़ेगा!
ये नियम से करें, कभी रोग न बढ़ेगा!
मधुमेह,
भिन्डी वाला प्रयोग बताया था आपको,
अब और कुछ बताता हूँ,
बेल-पत्थर का छिलका ले,
इसको जला लें,
भून लें, करीब पचास ग्राम,
फिर पीस लें,
अब इसका सेवन करें,
आधा चम्मच चूर्ण,
रोज सुबह-शाम, भोजन के उपरान्त!
अचूक लाभ होगा,
करेले को सुखा लें, बीज निकाल कर,
करीब चार,
जब सूख जाएँ तो इनको पीस लें,
चूर्ण बना लें इसका,
इसमें अब, आप, भुने हुए पपीते के बीज डाल दे,
करीब बीस ग्राम,
अब भोजन के बाद,
इसका सेवन करें, आधा चम्मच!
नियम से करें,
रोग नहीं करेगा तंग!
नियंत्रण में रहेगा हमेशा!
प्रकृति में, ऐसा बहुत कुछ है,
जो सभी रोगों का निदान करने में सक्षम है!
बस नियम,
और शुद्ध वनस्पति!
यही चाहियें!
और संयम!
फिर देखिये, कोई रोग नहीं ठहरेगा!
अब घटना,
सूरज ढल चुका था अब,
हम उठे,
और चल पड़े वापिस!
थोड़ा दूर था स्थान वहां से,
टहलते टहलते, हम चले थे वापिस!
और जा पहुंचे उस स्थान पर!______________________________यहां मात्र घटना से संबंधित प्रश्न ही पूछें, उन्ही का उत्तर मिलेगा, विषयरहित प्रश्न, व्यक्तिगत संदेश में पूछें!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हम आ गए अपने कक्ष में!
छोटा सा, लेकिन बेहद ही सुंदर स्थान है वो!
अंदर एक छोटा सा तालाब भी है,
तालाब में छोटी मछलियाँ पाली हुईं हैं,
बत्तखें हैं, कुछ अन्य जल-जीव भी चले आते हैं!
सभी का स्वागत है यहां!
उसके बाद, उनकी सेवा भी होती है,
उन्हें अन्न खिलाया जाता है!
फल काट कर खिलाये जाते हैं!
काला बगुला,
होता है एक,
बेहद सुंदर होता है,
चोंच, आँखें और पंजे,
पीले-गुलाबी से होते हैं इसके!
बहुत सुंदर पक्षी है!
सर पर, एक लगी सी होती है,
दिखने में, स्पाइक-कट सी लगती है,
यदि किसी को,
टी.बी. हो, कैसी भी,
चाहे हड्डी के,
चाहे, फेंफड़ों की,
चाहे गिल्टियों की,
इसकी बीट, देसी पान के पत्ते में रख कर,
खायी जाए, तो माह भर में,
टी.बी. का नाश हो जाता है!
इसकी बीट, ऐसी काम की है!
इसमें चूना नहीं होता, गुलाबी बीट होती है!
उल्लू की बीट,
चूर्ण की तरह सफेद होती है,
इसकी बीट लाइए,
कोई दस ग्राम,
अब जैतून के पचास ग्राम तेल में,
डाल लीजिये,
रख दीजिये नौ दिन, अँधेरे में,
दसवें दिन, छान लीजिये,
अब, इस संसार का, ऐसा कोई दर्द नहीं,
जो इसके सामने ठहरे!
गठिया-बाय,
पुरानी चोट,
पुरवाई हवा का दर्द,
मोच, नचका, नस पर नस चढ़ना, आदि का नाश करता है!
चमगादड़ की सूखी बीट लाइए, कोई दस ग्राम,
इसका चूर्ण बनाइये,
अब इसको,
नारियल के तेल में, कोई पचास ग्राम,
मिला लीजिये, इक्कीस दिन,
अँधेरी जगह में रख दीजिये,
उसके बाद छान लीजिये,
जो बदन पर मालिश करें,
तो कैसा भी त्वचा-रोग हो, सो खत्म!
चोट पर लगाएं,
तो उसमे तत्क्षण आराम!
आपंकों की पलकों पर लगाएं,
तो रौशनी बढ़े,
रतौंधी खत्म हो!
घुटनों पर लगाएं, तो ग्रीस खत्म न हो!
जिनकी खत्म हो, वो लगाएं तो ग्रीस बने!
श्वान की जिव्हा का पसीना या पानी,
इकट्ठा कर ले, कम से कम दस बूँद,
एक शीशी गुलाब-जल मिलाइये इसमें,
और, गुलाब का इत्र,
अब जब भी कहीं जाना हो, तो इसको अपने बालों में लगाइये,
कार्य सिद्ध होगा!
गेरू के साथ मिलाकर,
तिलक करें, तो जग मोहन हो!
लिंग पर लगाएं,
तो वीर्य-स्तम्भन हो,
पाँव की एड़ियों में लगाएं,
तो थकान न हो,
चाहे, चलें पचासियों किलोमीटर!
स्त्री-रोग हो,
तो मेरु-दण्ड की मालिश करें!
रोग खत्म!
ग्रीवा पर लगाएं,
तो व्यापार-वृद्धि हो!
माथे लगाओ, तो रोग हर ले!
अमावस वाले दिन,
मूषक के बिल की मिट्टी लाएं!
पीले रंग के कपड़े में बांधें,
मूषकराज का ध्यान करें!
मूषकराज वही,
वो हमारे, गजः, एक-दंत के वाहन,
मंत्र, कुमार साहब से ले लें,
अब रसोईघर में रख दें,
बरकत ऐसी, कि अगर दस किलो आटा लगता हो,
तो अबकी बार, बचा पड़ा रहेगा, चाहे, नित्य ही, अतिथि आएं!
बस, बताएं किसी को नहीं!
संतान कहा न मानती हो,
मन-मर्ज़ी करे,
अपनी अपनी चलाये,
मान-सम्मान को ठोस पहुंचाए,
तो ऐसी स्थिति,
कष्टप्रद होती है!
लेकिन चिंता न करें आप!
एक पीले रंग का,
रुमाल भर का कपड़ा लें,
उसमे, पांच तरह का अन्न रखें,
गेंहू, चावल, बाजरा, जौ, मक्का या ज्वार, चना आदि,
संतान का नाम बोलें,
पांच बार, एक मंत्र बोलें,
मंत्र कुमार साहब से ले लें,
पांच गांठें बांधें,
और घर में, कहीं अलग रख दें!
अभीष्ट फल प्राप्त होगा!
जब हो जाए प्राप्त,
तो इस पोटली को,
प्रवाहित कर दें,
एक निर्धन मनुष्य को,
दान करें, अथवा भरपेट भोजन खिला दें,
अथवा, किसी गर्भवती श्वान को,
आटे का हलवा खिला दें!
हाँ, हाथ अवश्य ही जोड़ें!
ये, हमारे भूताधिपति, श्री वपुधारक जी के वाहन,
अष्टपूर्तिका श्री श्वान जी का विधान है!
मस्तिष्क दिग्भ्रमित हो,
सटीक निर्णय न लिया जाए,
दुविधा हो,
ये या ये,
ऐसी स्थिति हो,
मित्रगण!
ऐसा सभी के साथ होता है,
कृपया, प्रेमी-प्रेमिका न करें इसे,
जिसे धर्म-संकट हो,
वही करें!
ऐसी स्थिति, सभी के साथ होती है,
आज नहीं है,
तो कल होगी!
होती है!
समाधान है!
बताता हूँ!
एक मुनक्का खाएं,
रात को, सोने से पहले,
एक मंत्र पढ़े,
मंत्र कुमार साहब से ले लें!
अपना प्रश्न,
एक देसी पान के पत्ते पर, लिख दें,
और सिरहाने रख दें,
अब आपको, या तो कोई दृष्टांत दिखेगा,
या कोई उदाहरण,
या कोई आदेश!
आदेश स्त्री-स्वर में होगा!
सुबह, उठें!
अपने दोनों हाथ, चन्द्र-रूप में बांधे,
चूमें, और माथे से छुआएं!
वहीँ करें जैसा आदेश हुआ, या दिखा!
अभीष्ट सिद्ध होगा!
मित्रगण!
हमारा देश,
समृद्ध है!
अत्यंत समृद्ध!
हर विषय में!
यहां विद्वान हैं तो,
कानपुरिये जैसे,
वो टुच्ची और ओछी मानसिकता वाले भी हैं!
फिर भी, हम समृद्ध हैं!
सभी बुद्धिमान हों,
तो सोते ही रहेंगे!
'रेंटमीफॉरडे' जैसे लोग बेचारे,
क्या करेंगे!
ऐसे लोग न हों तो,
कैसे पता चले कि,
टुच्चपन,
ओछापन,
घटिया संस्कार कहाँ से कहाँ ले जाएँ,
इसका उदाहरण,
कहाँ मिलेगा!
इसीलिए, ऐसे ओछे लोग, आवश्यक है!
खैर,
मैं उसको कोई मोल नहीं देता!
जो कहता हो कि,
मुसलमान ये और मुसलमान वो!
तो उसके संस्कार,
झलक जाते हैं!
बुद्धिहीन नहीं कहूँगा,
बुद्धि है,
बस, सदमाग्रस्त है!
अब छोडो!
निबौरी को याद करोगे,
तो कड़वापन आएगा ही मुंह में!
तो, आक थू!
छोडो!
हाँ,
तो हम आ गए थे,
कक्ष में अपने!
तभी, जॉजी आई!
जॉजी!
एक जर्मन महिला हैं!
दो बरस से यही हैं,
कोई बावन बरस आयु है उनकी!
"आइये जॉजी!" बोला मैं,
आई वो!
बिठाया उसे!
हांफ रही थी!
"पानी दूँ?" पूछा मैंने,
मना किया उसे,
"जॉजी? कैसी हो?" पूछा मैंने,
"बढ़िया!" बोलीं वो,
अब हिंदी सीख गयी हैं वो!
"बताइये, कैसे आयीं आप?" बोला मैं,
"सिलाइच से आपकी बात हुई?" बोली वो,
"न?" कहा मैंने,
"उन्होंने कॉल की थी आपको,
"मेरे पास फ़ोन न था, देखता हूँ" बोला मैं,
उठाया फ़ोन,
देखा,
हाँ सिलाइच की कॉल्स थीं, करीब नौ या दस!
"हाँ, हैं!" बोला मैं,
"आप बात कीजिये?" बोलीं वो,
"अब, कल करूँगा!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोलीं वो,
उठीं,
"बैठो न मैडम जॉजी?" बोला मैं,
"एक मिनट" बोलीं वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अभी चलती हूँ, बाद में मिलूंगी" बोलीं वो,
और नमस्कार कर, चली गयीं!
उनकी दो पुत्रियां फिनलैंड में ब्याही हैं,
एक पुत्र है, वो कनाडा में डॉक्टर है,
सिलाइच स्वयं खगोल-शास्त्र से डॉक्टरेट हैं,
जॉजी मैडम, रसायन-शास्त्र में मास्टर्स हैं!
सिलाइच, रूसी पिता और जर्मन माँ से पैदा हुआ थे,
अब वे, जीवन के इस पड़ाव पर, आध्यात्म से जुड़ गए थे,
जॉजी मैडम, दो सालों से यहीं रह रही थीं,
और सिलाइच, आने ही वाले थे,
उनका आना-जाना लगा रहता था भारत में,
अब भारत से अधिक आध्यात्मिक और कौन?
असल में, मुझे सिलाइच से ही मिलना था,
पता मुझे, जॉजी मैडम ने ही दिया था यहां का,
और, इसका माध्यम बाबा देव नाथ बने थे,
सिलाइच साहब के पास एक महत्वपूर्ण सूचना थी,
उसका आधार भी था, वो ला रहे थे अपने संग उस आधार को भी,
जो कि एक युवक था, कोई पच्चीस-तीस बरस का,
जॉजी ने मुझे उसका नाम भरत बताया था,
वो पहाड़ी युवक था,
सिलाइच से उसको मिलवाया था किसी ने!
खबर के अनुसार,
सिलाइच साहब, उस युवक भरत को लेकर, परसों आने वाले थे यहां,
तो हमने वो दिन भी काटा,
घूमे आसपास,
प्राकृतिक छटा का आनंद लिया!
अगला दिन भी ऐसे ही काटा,
और फिर अगले दिन,
सिलाइच साहब आ गए, संग में उस युवक भरत को लेकर,
इकहरे से बदन का युवक था वो भरत,
था हंसमुख,
सिलाइच साहब तो वैसे ही बेहद शांत और समझ वाले इंसान थे,
खुशदिली से मिले हमसे वो,
उनकी यात्रा भी अच्छी रही थी और,
बाबा देव नाथ से मिल, वो इस भरत को ले, यहां आ गए थे!
उस रात सिलाइच साहब ने वो रहस्योद्घाटन किया!
एक ऐसा रहस्य, जिसे सुनकर, हमारी तो पांवों तले ज़मीन खिसक गयी!
भरत की आयु, उस समय, सत्ताईस की थी,
वो लकड़ी की एक टाल पर नौकरी किया करता था,
घर में, माता-पिता, एक बड़ा भाई, उसका परिवार,
और स्वयं उसका परिवार रहा करता था!
सिलाइच साहब ने बताया कि एक रात,
भरत, नशे में था, उनसे शराब पी थी जमकर,
अपने मित्रों के संग,
न सुन रहा था किसी की,
और न सुना ही रहा था कुछ,
लिहाजा, घर में झगड़ा हो गया,
पिता जी ने, घर से निकाल दिया उसको, उसी समय,
अब वो भी गुस्से में था,
दारु की उचंग चढ़ी ही हुई थी!
निकल पड़ा घर से,
न कपड़े ही लिए,
न खाना ही खाया,
दूर जंगल में चला गया!
जहाँ क़दम पड़े, चलता चला गया!
सुबह तक चलता रहा!
आखिर थका,
और एक जगह जाकर, सो गया!
दिन में करीब बारह बजे के बाद,
होश आया,
उठ कर देखा,
कहाँ चला आया था पता नहीं!
खूब आवाज़ दे,
पुकारे लोगों को,
अब कि हो, तो जवाब दे!
कहाँ से आया था,
पता नहीं!
किस दिशा में था पता नहीं!
कहा जाए?
पता नहीं!
अब रोये वो!
दारु को गाली दे,
खुद को भी गाली दे!
रोया-पीटा! झीका!
पर अब फायदा क्या!
चढ़ा एक बड़े से पेड़ पर,
देखा चारों ओर, एक जैसा दृश्य!
सब एक जैसा!
कहाँ जाए?
क्या करे?
एकांत और जंगल,
अब काटने को दौड़े!
शाम हो गयी उसे जंगल में वहीँ,
भूखा-प्यासा!
न कल ही खाया, न आज ही सारे दिन!
चला जंगल में,
तोड़े कुछ जंगली फल, वो खाए,
कुछ तोड़, रख लिए,
अब पानी की तलाश, वो ढूँढा,
एक पत्थर से रिसती हुई, पानी की धार देखी,
लिया पत्ता, बनाया दोना, और भरा पानी,
और पिया, पेट भरकर पी लिया!
वो वहां ही रहा, रात वहीँ काटनी थी उसे,
तो काटी रात उसने, ठंड लगे, जाड़ा चढ़े,
पर अब हो क्या?
समझौता तो करना ही था!
सुबह हुई,
कुल्ला किया, हाथ-मुंह धोये कैसे करके,
और खाए जंगली फल,
और चल पड़ा, पश्चिम की ओर,
दिन भर चला,
एक इंसान नहीं,
एक गाँव नहीं,
एक मवेशी नहीं,
कोई नहीं,
न आदमी, न आदमी की जात!
अब क्या करे?
बैठ गया,
फफक के रोया!
पर उस से क्या हो?
उसे निकलना था तो उसे ही हाथ-पाँव मारने थे!
उठा, वो चला फिर, गहरे जंगल की ओर!
जब वहां आया,
तो सामने एक गुफा दिखी!
झाड़ियों से घिरी हुई,
बेलें लगी थीं मुहाने पर,
गुफा बहुत बड़ी थी!
चला अंदर!
कहीं कोई जानवर न हो,
इसीलिए, एक डंडी तोड़ ली थी उसने,
अंदर चला, तो पानी टपकने की आवाज़ आई,
और चला आगे,
प्रकाश हुआ मंद!
फिर भी चला,
और जब एक जगह पहुंचा,
तो चीख निकलते निकलते बची उसकी!
सामने एक बड़े से चबूतरे पर,
तीन बाबा बैठे थे!
सफेद दाढ़ी,
भारी-भरकम शरीर,
सफेद बाल,
लम्बाई कम से कम आठ या नौ फ़ीट,
वृक्ष की छाल और पत्तों से बने वस्त्रों में!
वे गहन चिंतन में थे!
तपस्या कर रहे थे,
शरीर से उज्जवल प्रकाश फूट रहा था!
उनके शरीर से, सांप लिपटे थे!
वे सांप अब,
उस भरत को देख रहे थे!
उसे भय तो हुआ,
लेकिन एक ख़ुशी भी हुई!
कि अब वो अकेला न था!
वो वहीँ बैठ गया,
घंटों बैठा रहा!
साँसों से उठते और धंसते उनके पेटों को देखता रहा,
कब सोया,
कब जागा,
पता नहीं!
बाहर चला, बेल देखीं,
तो बेल पर एक जंगली फल मिला,
खरबूजे जैसा, सरदा जैसा, वो तोड़ा,
वो खाया, पेट भरा,
अंदर गया फिर से गुफा में,
और अब साफ़-सफाई करनी शुरू की,
मित्रगण!
वो ग्यारह दिन वहीँ रहा,
मना करता चला जाऊं,
एक-दो बार गया भी,
फिर लौट आया!
गुफा में ही रहने लगा वो,
साफ़-सफाई करता,
और वहीँ सो जाता,
बाहर, बेलों से फल तोड़ता और खा लेता!
बारहवें दिन की बात है,
वो पानी पी रहा था,
कि एक बाबा की आँख खुली!
अब वो डरा!
अब वो सहमा!
हाथ जोड़, खड़ा हो गया!
उस बाबा की आँख खुली,
तो दूसरे की भी खुली,
फिर तीसरे की भी!
अब तो वो तीनों ही उसको देखें!
और वो कांपें!
हाथ जोड़े,
रोये!
गिड़गिड़ाए!
और वे तीनों, हुए खड़े,
उतरे नीचे,
एक दूसरे को देखें वो!
 

 

वे आये आगे, ठीक उसके सामने, वो तो उनके कंधों से भी नीचे आ रहा था!
मज़बूत देह वाले थे तीनों ही बाबा,
मज़बूत भुजाएं और मज़बूत सीना,
चौड़े कंधे और पेड़ के तने समान जंघाएँ!
चेहरे पर, कोई क्रोध नहीं!
शांत थे उनके चेहरे!
"कौन हो पुत्र तुम?" पूछा एक बाबा ने,
अब तो बुक्का फाड़ रोये वो!
बता दिया कि कैसे शराब की उचंग में निकल आया वो गाँव से!
कैसे कैसे रहा वो,
घर की बहुत याद आ रही है बहुत!
लेट गया नीचे!
रोये ही जाए!
बाबा ने करवाया शांत उसे!
"उठो!" बोले बाबा,
उठा वो, झाड़ी मिट्टी वस्त्रों से!
"भोजन किया?" पूछा बाबा ने,
बता दिया, कि कैसे उसने उन बेलों से, वो फल तोड़ कर खाए थे!
कैसे यहां तक चला आया था, और कैसे यहीं ठहर गया था!
बाबा मुस्कुराये!
"बैठो उधर!" बोले बाबा,
जा बैठा उधर, एक पत्थर पर,
"आगे करो हाथ!" बोले वो,
किये दोनों हाथ आगे!
आया एक थाल!
उसमे, तरह तरह के पकवान!
"खाओ!" बोले बाबा,
अब खाना, खाना शुरू किया उसने!
बारह दिन बाद, अन्न मिला था उसे!
मुंह से धुआं निकले, आँखों से पानी!
खाता रहा वो! भर लिया पेट,
जल-पात्र भी आया था, पिया जल!
और फिर, सब लोप!
वो हैरान नहीं था, सुना था, ऐसे बाबा के लिए कुछ भी असम्भव नहीं!
उसकी कमज़ोरी,
थकान,
आलस्य, सब दूर हो गया था!
"कौन सा वर्ष चल रहा है ये?" पूछा बाबा ने,
बताया भरत ने,
उन तीनों से आपस में देखा,
उनको, सात सौ वर्ष हो गए थे!
यही सुना था भरत ने!
"क्या चाहते हो पुत्र?" पूछा बाबा ने,
वो हुआ खड़ा,
पकड़ लिए पाँव उनके,
"मैं घर जाना चाहता हूँ, मुझे बहुत याद आ रही है घर की!" बोला वो, आंसू लाते हुए!
"खड़े हो जाओ!" बोले वो,
वो हुआ खड़ा,
और बाबा ने किया हाथ आगे,
"लो" बोले बाबा,
रखा कुछ उसके हाथ पर,
खोला हाथ उसने,
स्वर्ण के ग्यारह सिक्के थे वो!
मुस्कुराये वो!
"नेत्र बंद करो पुत्र!" बोले वो,
किये नेत्र बदन,
"अब खोलो!" बोले वो,
उसने खोले!
जगह पहचानी उसने!
उसके गाँव का रास्ता!
वो सामने मंदिर, और मंदिर के पीछे उसका घर,
सिक्के पकड़े, भाग लिया!
भाग लिया घर की ओर, नाम ले लेकर सभी का!
पहुंचा घर!
सारे परेशान थे!
जब देखा कि वापिस आया,
तो सब खुश!
पिता ने फिर से झाड़ पिला दी!
कि इतनी हिम्मत?
घर छोड़ चला जाए?
उमेठ दिए कान!
और कर दी फजीहत!
अब चाहे जो होता!
अब न जाता वो घर छोड़ कर!
अब बताई उसने घर में, कि क्या हुआ?
सभी हैरान!
हैं?
पागल हो गया है!
जंगल में रह कर, दिमाग सटक गया है इसका,
एक-दो महीने में हो जायेगा ठीक!
खिलाओ-पिलाओ इसे!
दवा-दारु कराओ!
और जब दिखाए सिक्के उसने,
तो अब सब हैरान!
हैं?
क्या सच बोल रहा है ये?
क्या मिले थे सच में, वो तीन बाबा इसे?
क्या ये, सच कह रहा है?
ये सिक्के झूठ नहीं!
और है भी शुद्ध स्वर्ण!
तो जी,
दे दिया सिक्के पिता जी को,
वो तो लौट आया था घर, सकुशल,
ये बहुत था उसके लिए!
लेकिन पिता जी और ताऊ जी को चैन न आये!
बार बार पूछें!
रास्ता पूछें!
उसे याद नहीं!
कैसे बताये!
बार बार पूछें!
और बार बार गोल सा जवाब!
एक बार कोशिश की गयी,
कि वो रास्ता बता दे,
पिलाई गयी शराब!
पर न याद आया उसे!
पता ही नहीं चल सका!
गाँव में बात फ़ैल गयी!
जो भी आये,
उससे बात करे,
पता पूछे वहाँ का!
अब पता हो तो बताये वो?
बेचारा!
न दिन में चैन,
न रात में आराम!
कोई कब आये,
और कोई कब!
मित्र लोग पूछें,
कान खुजलाये वो,
पता पता न याद आये!
क़दम कहाँ ले चले थे,
पता ही न चला था उसे!
उसी गाँव में एक जोगन थी, वनि जोगन!
उसके कान में पहुंची बात!
अब की बात उसने भरत से,
अब भरत ने जो देखा, जो सुना,
सब बता दिया!
अब जोगन हुई बेचैन! काश हो जाएँ दर्शन उन बाबाओं के!
काढ़ दी बात उसने, बाबा दीप नाथ के कानों से,
अब क्या था!
अब लगने लगे बाबाओं के चक्कर गाँव में!
कभी कोई और कभी कोई!
लेकिन भरत,
जितना जानता था, वही बताता,
उस से न अधिक,
और उस से न कम ही!
बाबाओं ने सर पटक लिए,
देख लड़ा ली,
पकड़ फेंकी,
कुछ न हुआ!
कोई पता न चल सका!
और फिर मिले बाबा देव नाथ उस से,
उन्होंने भी पूछी,
वही सब बताया,
बोल तो वो सच ही रहा था!
अपने हिसाब से टटोला उसे!
महीना लगा दिया,
उसकी पर 'खोज' करने में!
निष्कर्ष ये कि,
वो निःसंदेह गया था वहां,
उसने दर्शन भी किये,
भोजन भी किया,
सिक्के भी लाया,
और वापिस भी भेजा उसको!
सब सत्य!
अब प्रश्न ये,
कि वो स्थान है कहाँ?
वो घर से, उस रात, करीब,
आठ बजे निकला था,
पूर्व दिशा पकड़ी थी उसने,
तभी वो पश्चिम के लिए मुड़ा था वापिस,
एक घंटे में पांच किलोमीटर,
वो सुबह, पहुंचा था, छह बजे,
यानि कि, कुल पचास किलोमीटर के आसपास,
वहाँ से वो, पश्चिम के लिए मुड़ा,
आठ घंटे चला,
अर्थात, चालीस किलोमीटर के आसपास!
ये एक कच्चा नक्शा था!
एक अनुमान,
और अब होनी थी खोज!
लिया साथ में भरत को!
बाबा दीप नाथ और बाबा देव नाथ,
और वो जोगन,
साथ में चार लोग और,
निकल पड़े पूरब में!
रास्ते भर सवाल पूछते रहे भरत से!
भरत ने,
एक दो जगह पहचान लीं,
रास्ता सही था!
वे बढ़ चले आगे,
आराम करते, और आगे बढ़ जाते!______________________________
 

 

तो मित्रगण!
दो दिन खूब ख़ाक़ छानी गयी!
भरत ने कुछ पहचाना और कुछ नहीं!
दो दिन बाद वे, एक नयी ही जगह पर आ पहुंचे!
वहाँ, खंदकें बनी तीन,
ये सब प्राकृतिक ही था!
लेकिन वो जगह न मिल सकी उन्हें!
आखिर में, हताश हो, वे वापसी हुए,
जहाँ से आये थे, वहीँ से वापिस लौट चले!
जब आधे में आये,
तो एक जगह याद आई उसे!
वो रुका,
आसपास देखा,
और ले चला सभी को एक जगह,
अब रास्ता मिल गया था उसे!
लगता तो यही था!
सभी में जोश भर उठा!
और चल पड़े उसके साथ साथ!
साँझ ढ़ले, वो एक जगह पहुंचे,
उसने आसपास का भूगोल देखा,
यही जगह थी,
और यहीं है वो गुफा भी!
उस गुफा के बाहर,
बेलें लगी हैं,
पीले रंग के, सरदा खरबूजे से लगे हैं!
अब तो सभी ढूंढें!
हो गयी रात!
गुफा न मिली!
आखिर में, वे वहीँ रुके रात को!
सुबह फिर से खोज आरम्भ हुई!
नाप दिया चप्पा-चप्पा!
लेकिन वो गुफा न मिली!
अन्य दो-एक गुफाएं तो मिलीं,
लेकिन वो न मिल सकी!
फिर से हुए हताश!
बार बार भरत से पूछा जाता,
वो बार बार वही जवाब देता!
आखिर में, साँझ ढली, और फिर रात हुई,
जंगल में चार-पांच दिन हो गए थे उन्हने,
रात में वहीँ सोये,
और तड़के ही,
वापिस हुए अब गाँव के लिए!
खोजी टुकड़ी, असफल हो गयी थी!
कुछ न मिला था उन्हें,
एक रात और बीच में रुक,
अगले दिन दोपहर में, वे सभी वापिस आये, खाली हाथ!
मित्रगण!
आदरणीय सिलाइच साहब का मिलना हुआ बाबा देव नाथ से,
बाबा देव नाथ ने उन्हें, यही कहानी सुना दी,
वे तो उछल पड़े!
सिलाइच साहब ऐसे विषयों में, वैज्ञानिक अध्ययन किया करते थे,
जब मिले भरत से,
और सुनी भरत की कहानी तो,
बदन पर, कानखजूरे से रेंगने लगे!
उन्होंने, बारीकी से अध्ययन किया!
एक एक शब्द का,
एक एक स्थान का,
और एक कच्चा सा नक्शा बना लिया,
अब उसको, और संशोधित किया,
वो खगोलविद हैं, दिन तो क्या,
रात को भी आकाश का अध्ययन कर सकते हैं!
उनकी धर्मपत्नी, जॉजी भी संग ही थीं!
बस, अब एक नया रूप दिया गया इस खोज को!
पैसा सारा, सिलाइच साहब लगाने वाले थे,
दो बड़ी गाड़ियां की गयीं,
ये जीप थीं, और जंगल में जाने की जैसे अभ्यस्त थीं!
सिर्फ एक सरसरी तौर पर जांच करने के लिए,
सारी तैयारियां कर ली गयीं थीं,
दो बावर्ची, खाने-पीने का सामान,
तम्बू, हंडे, ईंधन आदि सब लाद लिए गए थे!
कोई न कोई सूत्र मिल जाता तो,
फिर मुक़्क़मल तौर पर खोज होती!
अभी तो फ़क़त एक मुआयना था!
वन-विभाग से अनुमति प्राप्त कर ली थी,
न शिकार ही करना था, न पेड़ आदि ही काटने थे!
अन्यथा, दण्ड-विधान था अथव मोटा ज़ुर्माना!
खैर,
वे चल पड़े अंदर जंगल में,
रुकते, आराम करते, आसपास देखते, दूरबीन का प्रयोग करते,
पत्थरों को पेड़ों पर, निशान लगाते!
जैसा जैसा भरत बताता,
वैसा वैसा किया जाता!
यूँ कहें कि,
चार दिनों में उस जगह का चप्पा-चप्पा छान मारा!
लेकिन वो गुफा ही न मिली!
आखिर में, हफ्ता बिताने के बाद,
वे वापिस हुए!
न मिल सका उन्हें वो स्थान!
सिलाइच साहब, जीवट वाले इंसान हैं,
एक बार ठान लिया, तो ठान लिया,
इस प्रकार, ये अभियान, दो माह के लिए, मुल्तवी कर दिया गया!
बाबा देव नाथ से,
इस बीच मेरी मुलाक़ात हुई, वे दिल्ली आये हुए थे,
सिलाइच साहब और जॉजी मैडम को विदा करने,
तब मुझे ये सारा वाक़या सुनाया गया!
जैसे ही मैंने सुना,
मेरे तो मन के रेगिस्तान में,
बवंडर से उठ गए!
अब मैंने भी उन्हें, इस अभियान में शामिल करने को कहा!
वे मान गया!
मैं हुआ खुश!
शर्मा जी को साथ ले,
जा पहुंचे गढ़वाल!
बाबा देव नाथ के स्थान पर!
ये कारण था हमारे यहां आने का!
वो शाम हमने सिलाइच साहब के साथ ही काटी!
मदिरा का आनंद लिया,
गरमा-गरम भोजन किया!
और अगले दिन,
अब एक टुकड़ी बनाई गयी!
सारा सामान इकट्ठा किया गया!
खाने-पीने का, हंडे, तम्बू, ईंधन, कटनी आदि आदि!
और दो बड़ी गाड़ियां!
दो दिन बाद निकलना था हमें,
वन-विभाग से,
अनुमति ले ही ली थी!
इस बार आधुनिक-संयंत्र भी लिए गए थे!
कैमरे, जी.पी.एस-सिस्टम, लैपटॉप्स, नाईट-विज़न आदि आदि!
अब ये अभियान,
पुरातन और आध्यात्मिक न होकर,
वैज्ञानिक अभियान अधिक लगता था!
वजह ये,
कि सिलाइच साहब,
इस बार कोई कसर न छोड़ना चाहते थे!
बस एक बार मिल जाए स्थान!
मिल जाए,
तो तहलका हो!
पता चले कि,
भारत देश कितना समृद्ध था,
है आज भी,
और रहेगा सदैव!
संस्कृति का आरम्भ, यहीं से हुआ!
आध्यात्म का आरम्भ, यही से हुआ,
प्रथम ज्ञान-लौ,
यहीं प्रज्ज्वलित हुई!
बस एक बार, वो स्थान मिल जाए!
उन्होंने, एक नक्शा बनाया था,
जहाँ पहले गए थे,
उनको पेन से, काला कर दिया था,
जहां जाना शेष था,
वो लाल निशान थे!
गुफाएं पहाड़ों में थीं,
उसके भूगोल में,
कहाँ कहाँ पहाड़ हैं,
इसकी जानकारी जुटा ली गयी थी,
कहाँ, नदी-नाले हैं,
कहाँ पुल ठीक हैं,
कहाँ नहीं हैं,
कहाँ बाढ़ आती है,
कहाँ आबादी है,
आदि आदि जानकारियां, जुटा,
अपने लैपटॉप में डाल ली थीं!
अपनी डायरी में ही उलझे रहते थे वो!
जर्मन-हैट पहने,
स्लेटी सी दाढ़ी रखे,
सुनहरा चश्मा पहने,
हाफ-स्लीव्स की कमीज़ पहने,
नीचे, जीन्स पहने,
वैज्ञानिक लगते थे पूरे!
जॉजी मैडम,
भारतीय लिबास में थीं,
सूट और सलवार पहने,
धूप का चश्मा पहने,
भूरे बाल, बंधे हुए!
और होंठों पर, एक प्यारी से मुस्कान!
हमेशा ही तैरती थी उनके होंठों पर!
दो दिन बीते,
सारा सामान बंधा गया,
पानी आदि रखा गया,
गाड़ी का ईंधन आदि,
खाने-पीने का सामान,
सब रख लिया गया!
और हम,
सुबह करीब नौ बजे,
निकल लिए!
गाड़ी दौड़ चली!
उन छोटे छोटे पहाड़ी रास्तों से!
मवेशी आते रास्ते में,
भागते इधर-उधर!
बकरियां धौंस जमातीं बीच सड़क में खड़ी हों!

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उन रास्तों पर गाड़ियां कभी ऊंचाई पर चढ़तीं,
कभी ढलान पर उतरतीं.
कभी रुकतीं तो कभी आगे बढ़तीं!
फ़ोर्स की मज़बूत गाड़ियां थीं,
कमानियाँ पूरी की पूरी मुड़ जातीं!
कभी हॉर्न मारना पड़ता,
बकरियां रास्ता घेर लेतीं,
कभी कभार, उन्हें उतर कर, भगाना पड़ता!
कभी गाँव के लोग आ जाते बीचोंबीच!
आखिरकार,
रास्ता मिला साफ़, और हम चले अब तेज!
हम कुल आठ जमा तीन, ग्यारह लोग थे,
दो हम, एक सिलाइच और एक जॉजी मैडम, वो भरत,
दो बावर्ची, एक जोगन और एक बाबा, और दो हमारे ड्राइवर!
करीब एक घंटे के बाद,
गाड़ियों ने रख किया जंगलों का!
रास्ता था तो उबड़-खाबड़ ही,
लेकिन गाड़ी चल रही थीं,
झाड़ियाँ टकराती थीं, खिड़कियों से,
खिड़की बंद कर रखी थीं,
कोई कोई जंगली जानवर भागता नज़र आ जाया करता था!
हम काफी अंदर तक चले गए थे,
वहां उतरे,
ठहरने का इंतज़ाम किया गया,
सिलाइच साहब ने, अपने संयंत्र और उपकरण निकाले,
किया उनका अध्ययन,
और कुछ विवरण, लिख लिया डायरी पर,
तब हमने दोपहर का खाना खाया,
और किया फिर आराम सभी ने,
मैं और शर्मा जी, गाड़ी में ही आ लेटे थे,
आज का भोजन तो तैयार ही लाये थे,
आलू-पूरी और आलू-गोभी की बजी, और पूरियां,
खा-पी आराम से आ, लेट गए थे गाड़ी में!
"वैसे अँधेरे में सुईं ढूंढने जैसा है ये!" बोले वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"अब यहां सैंकड़ों गुफाएं होंगी!" बोले वो,
"हाँ, होंगी" बोला मैं,
"अब कौन सी वो गुफा है, कौन जाने?" बोले वो,
"लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज़ा?" बोला मैं,
"तभी तो आये हैं!" बोले वो,
तभी एक ड्राइवर आया,
फल लाया था, सेब, कटे हुए,
दे गया था,
हम उठे, और सेब खाने लगे,
खट्टे-मीठे सेब थे वो, लेकिन थे बढ़िया,
सफेद से रंग के!
उसके बाद आराम किया हमने,
नींद ली, करीब दो घंटे,
दो बजे करीब उठे हम,
पानी पिया, चेहरा धोया,
और फिर सामान बंधवाने में मदद की,
उस उसके बाद चले हम वहां से,
सिलाइच साहब ने, कुछ विवरण सा उतार लिया था अपनी डायरी में,
उसी के अनुसार हम चलते जा रहे थे,
उनके उपकरण, सच में ही मदद कर रहे थे हमारी!
तभी बात उन तीनों बाबाओ की चल पड़ी!
"भरत?" बोला मैं,
"हाँ जी?" देखा मुझे,
"कितनी उम्र होगी उनकी?" पूछा मैंने,
"करीब अस्सी की" बोला वो,
"अच्छा, दाढ़ी सफेद थी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, मेरे बराबर दाढ़ी होगी जी!" बोला वो,
अब वो होगा पांच फ़ीट का,
तो नौ फ़ीट के इंसान की, पांच फ़ीट की दाढ़ी होना,
सच में ही कमाल था!
"गुफा में और क्या था?" पूछा मैंने,
"उनके पीछे एक कुण्ड था, इतना बड़ा, पानी टपकता था उसमे!" बोला वो,
हाथों से इशारा किया था तो करीब चार गुणा चार फ़ीट का कुण्ड!
"कुछ और?" पूछा मैंने,
"सांप थे जी गले में" बोला वो,
"तीनों के?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"कौन से सांप?" पूछा मैंने,
"हरियल" बोला वो,
हरे रंग का सांप!
"कोई माला आदि?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, मोटी मोटी!" बोला वो,
"क्या था? रुद्राक्ष या कुछ और?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता जी!" बोला वो,
"सांस ले रहे थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"तुम ग्यारह दिन रहे?" बोला मैं,
"हाँ जी" बताया उसने,
एक जगह गाड़ी रुकी!
एक हिरण का शिकार हुआ था,
किसी तेंदुएं ने मारा था,
वो खींच रहा था उसे,
हमारी गाड़ी को देख, छोड़ कर से, पेड़ पर चढ़ गया था!
"पीछे लो" बोले सिलाइच,
अब गाड़ी पीछे ली,
पौने घंटे के बाद,
वो पेड़ से उतरा,
खींच हिरण,
और मार उछाल, चला शाख पर!
फिर मुंह में, गरदन दबा उसकी,
ले चला ऊपर!
"चलो अब" बोले सिलाइच,
और तब हम चले,
चार का समय हो चला था,
और जंगल अब, गहरा हो चला था,
"चलें आगे?" बोले सिलाइच,
"चलो" बोले बाबा,
और म चलते रहे,
सामने दिखे अब कुछ छोटे पहाड़,
"यहां ठीक है" बोली सिलाइच,
"ठीक" बोले बाबा,
"लगा दो गाड़ी" बोले वो,
हम उतरे,
सामान उतारा,
जगह साफ़ थी,
आराम से तम्बू लगाया जा सकता था!
अलाव के लिए लकड़ियाँ लायी गयीं!
जला लिया अलाव,
लगा लिए चार तम्बू,
एक में मैं और शर्मा जी, और एक चालक, रघु,
बावर्चियों ने संभाली कमान,
कीं सब्जियां साफ़,
आटा गूंदा गया,
और चढ़ाई कड़ाही!
डेढ़ घंटे बाद,
भोजन बन गया!
अब सभी ने भोजन किया!
क्या बढ़िया भोजन बना था!
पेट भर के खाया,
देर रात तक,
कल की रणनीति बनती रही,
कुछ ये बदलाव, और कुछ वो बदलाव,
और मसौदा हुआ तैयार!
कल यहां से हमें,
पश्चिम में जाना था,
वहाँ गुफाएं मिलने की संभावनाएं अधिक थीं!
भरत, भूगोल देखता था,
सिलाइच साहब, पूछते रहते थे उस से,
रात गहराई,
तो हम सोये फिर,
आराम से, बढ़िया नींद आ गयी!
अलाव सारी रात जलता रहा,
सुबह उठे,
निवृत हुए,
हाथ-मुंह धोये,
पानी पिया,
और फिर चाय-नाश्ता हुआ तैयार!
आलू की कचौड़ियां और अचार, मिर्च का,
साथ में, पाउडर के दूध से बनी चाय!
करीब, नौ बजे,
हमने सामान बाँधा,
रखा गाड़ी पर,
अलाव बुझा दिया गया,
लकड़ियाँ बिखेर दी गयीं,
और फिर चल पड़े आगे के लिए,
जहाँ सिलाइच साहब ने कहा,
और हम चल पड़े!
करीब ढाई बजे,
हम एक जगह पहुंचे,
याद आया भरत को कुछ!
उसने,
एक जगह पहचानी,
बताया कि वो एक रात यहीं ठहरा था!
और यहीं से,
वो आगे चला गया था!
उसके हिसाब से, ये जगह,
पश्चिम में थी!
सिलाइच साहब का उपकरण भी वहीँ की ओर,
इंगित कर रहा था!
इस बार हम सही आये थे!
भरत ने पुष्टि कर दी थी!
अब तो उमंगें जाग उठीं!
दर्शन करने का लालच जाग उठा!
भरत ने,
कुछ और निशानियाँ पहचान ली,
अब हम सही थे,
इसका मतलब,
रात से पहले तक, हम पहुँच सकते थे!
तो अब गाड़ियां दौड़ पड़ीं!
हमारी गाड़ी आगे,
और दूसरी पीछे!
बड़ा प्यारा नज़ारा था!
छोटे से झरने,
पेड़! खंदक!
पहाड़ियां और वो पथरीले रास्ते!
 

 

मेरे पास कई संदेश आते हैं, विशेषकर,
हर्निया से पीड़ित मित्रों के,
आपको जो मैं बताने जा रहा हूँ,
वो एक ऐसी ही दवा है,
पेट का दर्द, कैसा भी,
पथरी, कैसी भी,
बवासीर या अर्श, कैसी भी,
भगंदर, कैसा भी,
ज्वर-दोष, कैसा भी,
हर्निया, कैसा भी हो,
जलोदर का रोग हो,
खांसी हो, सूखी या बलग़म वाली,
स्त्रियों में, श्वेत-प्रदर का रोग हो,
अथवा योनि का अन्य कोई रोग भी,
गुर्दे का रोग हो, हृदय-रोग हो,
वात-ज्वर, हिचकी-रोग, गांठें या गिल्टियाँ,
दमा-श्वास रोग हो,
उसके लिए ये देसी औषधि कुल्थी प्रयोग में लाएं,
कुल्थी, तेज,पित्त बढ़ाने वाली, गरम होती है,
रक्त-पित्त के रोगियों, गर्भवती स्त्री और तपेदिक के रोगियों के लिए,
हानिकारक है, इन्हें नहीं सेवन करने चाहिए इसका,
इसको ले आएं करीब ढाई सौ ग्राम,
पानी में फुलोने रख दें, करीब पचास ग्राम,
रात्रि-समय इसकी दाल बन लें, मसाला न डालें,
एक माह सेवन करें पचास ग्राम रोज,
रोग कट जाएगा, नाश होगा रोग का!
मात्र पानी के संग ही, जिस पानी में रखी हो, उस के साथ,
तब भी लाभ करेगी!
मित्रगण!
औषधियां तो इतनी हैं,
कि आप लिखने बैठे,
तो भी नहीं लिख पाएंगे!
एक चमत्कारिक औषधि बताता हूँ!
कादिकपान!
ये स्वाद में कड़वा,
इसका पत्ता,
कसैला सा,
स्वाद में तेज होता है!
विष का परम शत्रु है!
सर्प-दंश हुआ हो, तो इसका पत्ता कच्चा चबाया जाए,
तो विष नहीं चढ़ने देता!
ये यक्ष्मानाशक है!
मात्र माह भर सेवन करने से ही,
रोग का मूल नाश कर देता है!
ये आंत्रसंकोचक रोग का नाश करता है,
इस रोग में, आंतें फ़ैल जाती हैं,
विषम-ज्वर(टाइफाइड) में इसका काढ़ा पिलाने से,
तीन दिन में इस रोग का नाश करता है!
पुराने विषम-ज्वर में,
गोखरू-मूल और चिरायते के साथ इसका काढ़ा पिलाना चाहिए,
रोग का नाश होगा!
अब घटना.............
तो हम वहाँ के लिए निकल पड़े थे,
और करीब सात बजे,
जा पहुंचे,
यहां का भूभाग,
बड़ा ही अजीब सा था!
वनस्पतियाँ भी अलग,
रंग भी अलग!
जैसे कोई अजीब सी ही जगह हो!
कातिकाश्प के वृक्ष लगे थे!
इसकी लकड़ी, जितनी गीली,
उतना लोहा!
वहीँ लगा लिए गए तम्बू!
और हुआ फिर भोजन बनाना शुरू!
सब्जियां काटी गयीं,
सभी ने मदद की,
लेकिन आसपास कोई झरना, तालाब न था,
ताकि नहा-धो ही लेते!
खैर,
सिलाइच साहब, बढ़िया इंतज़ाम कर लाये थे,
तो खाया-पिया हमने!
और तब, देर रात सो गए!
सुबह उठे, निवृत हुए,
हाथ-मुंह धोये,
चाय-नाश्ता हुआ,
आलू की कचौड़ियां बनाई गयी थीं!
तक़रीबन, दस बजे,
अब हुई खोज!
भरत, सभी स्थान देखता,
वो चलता,
तो हम भी चल पड़ते उसके पीछे,
खूब ख़ाक़ छानी!
एक गुफा न मिली!
बज गए चार,
हुए वापिस,
किया आराम,
चाय बनवायी गयी,
चाय पी, और पांच बजे,
फिर से की ढूँढेर शुरू!
सात बजे तक,
वहीँ ढाक के तीन पात!
कुछ क्या मिलता,
एक सूत्र भी न मिला!
वो स्थान भूल-भुलैय्या था!
एक जैसा भूभाग!
एक जैसी वनस्पति!
कुछ न पता चला!
रात को, भोजन किया,
और सो गए,
अगले दिन, फिर से ढुंढेर!
शाम हो गयी!
चप्पा-चप्पा चयन मारा!
और कुछ न मिला!
अब कल आगे जाना था!
वही हुआ, अगली सुबह,
भोजन कर, निकल पड़े आगे के लिए,
एक पड़ी नदी, फिर क्या था!
खूब स्नान किया!
मछलियाँ पकड़ ली गयीं!
दोपहर में, मछलियों की दावत हुई!
सौल मच्छी थीं, मजा आ गया!
साथ में भात! पेट भर के जीमा!
किया आराम!
भरत से बात हुई,
पिछली बार कोई नदी न पड़ी थी,
इसका अर्थ, हम ही गलत जगह पर थे!
वो शाम और रात,
वहीँ बिता दिए,
अगले दिन स्नान किया,
फिर से मछलियाँ पकड़ लीं,
रख लीं साफ़ कर,
और चल पड़े वहाँ से वापिस,
एक जगह रुके,
और चले उत्तर की तरफ,
वहाँ कोई गाँव था,
कोई सत्तर किलोमीटर दूर,
वहीँ के लिए चले,
लेकिन,
साँझ होने तक भी न पहुंच सके!
बीच में ही रुकना पड़ा,
बनाया भोजन,
और रात वहीँ बिता दी,
अब भी कुछ हाथ नहीं लगा था,
कोई रास्ता नहीं,
कोई निशानी नहीं,
कोई सूत्र नहीं!
भरत भी परेशान!
सिलाइच साहब, हिम्मत बांधें रहें उसकी!
अगली सुबह फिर चले,
और फिर रुके,
अब मैंने सिलाइच साहब से बातें कीं,
हम उत्तर में बढ़ रहे थे,
वो रास्ता दुष्कर था,
बेहतर था,
उत्तर-पश्चिम चलें,
मान गए वो,
और चल दिए हम!
शाम तक,
एक खाली स्थान पर पहुंचे,
यहां ज़मीन,
बंजर सी थी,
भूगोल बड़ा अजीब सा था वहां का!
हवा भी सर्द थी!
तो,
वहीँ लगा दिए गए तम्बू,
बनाया भोजन,
और भोजन कर,
सो गए हम!
उठे सुबह,
अब भूगोल देखा हमने,
सामने तो पहाड़ियां थीं!
वहां रास्ता न था कोई!
अब क्या किया जाए?
गाड़ी मोड़ी फिर वापिस,
और अब चले पूरब में,
पूरब में,
वहीँ आ पहुंचे,
जहां से हम होते आ रहे थे!
अगले दिन शाम तक,
वहीँ आ गए वापिस!
वही ढाक के तीन पात!
जंगल छान मारा!
हाथ न आया कुछ भी!
लगा दिया तम्बू!
मैंने लिया उनका जी.पी.एस. सिस्टम,
देखा उसमे,
हमारे आसपास, कोई गाँव न था!
कोई आबादी नहीं!
खाली जंगल ही जंगल था वहां!
मैं उठा, और एक जगह, नज़र पड़ी मेरी, और............!!
 

 

मेरी नज़र पड़ी एक जगह, वो एक बड़ी सी पहाड़ी थी,
उसके साथ ही, कुछ और भी पहाड़ियां थीं,
गाड़ी वहाँ जा नहीं सकती थी,
पैदल ही जाया जा सकता था, और दृष्टि-मापन से,
ये स्थान करीब दो किलोमीटर के आसपास ही होता!
"सिलाइच साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
फल खा रहे थे, छील छील कर, संतरा था,
"वो सामने देखिये?" कहा मैंने,
वे उठे,
देख उधर ही,
"पहाड़ियां हैं?" बोले वो,
"हाँ, सघन हैं" कहा मैंने,
"आपका आशय ही कि, वहां चला जाए?" बोले वो,
"हाँ, वो जगह ज़रूरी है जाना!" बोला मैं,
अब तक, जॉजी जी, शर्मा जी, और बाबा देव, आ चुके थे,
एक छोटी सी मंत्रणा हुई, और कल सुबह, वहाँ जाने के लिए,
सभी तैयार हो गए!
रात को भोजन किया,
दाल-भात और अचार खया था,
अब जंगल में इतना भी मिल जाए भरपेट, तो क्या चाहिए!
रात कटी,
सहर आई, मदमाती सहर!
जंगल की सहर वैसे ही मदमाती हुआ करती है!
वनस्पतियों की सुगंध,
और उसकी शीतलता!
जैसे खड़े खड़े ही नहा लिए!
चाय बनायी, नाश्ता भी किया,
और करीब नौ बजे, अपने पिट्ठू-बैग उठा,
कंधों पर थाम, चल दिए हम!
वो दो किलोमीटर नहीं,
बल्कि चार किलोमीटर थी दूरी!
रुकते रुकते चलते थे,
मैडम जॉजी को बेहद दिक्कत हुई थी,
उनको सहारा देना पड़ता था कभी-कभार तो,
आखिर में आ गयीं वो पहाड़ियां!
हरी भरी पहाड़ियां!
खूबसूरत पहाड़ियां,
जल पक्षी उड़ रहे थे वहां,
अवश्य ही कोई ताल-तलैय्या था वहाँ!
हम वहीँ चल पड़े!
करीब आधे किलोमीटर पर,
जैसे कोई नख़लिस्तान पड़ा!
नीले स्वच्छ जल का एक छोटा सा तालाब!
आसपास पेड़ लगे थे!
जल-पक्षी, जल-क्रीड़ा कर रहे थे!
पेड़ों पर बैठे थे!
ज़मीन पर, मोर घूम रहे थे!
उनके शोर ने, जैसे चार चाँद लगा दिए थे वहां!
"वाह! नायाब!" बोले सिलाइच साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये जल स्त्रोत वो झरना है शायद!" बोले वो,
एक झरना था दूर!
जैसे पहाड़ी में, मांग भरी थी!
"हाँ जी!" कहा मैंने!
"बेहद सुंदर है आपका देश!" बोले वो,
"धन्यवाद!" बोला मैं,
"मैं पानी भरता हूँ!" बोले वो,
"चलिए" बोला मैं,
हम चल पड़े आगे,
फिर हम सभी चल पड़े!
एक छोटी सी धारा बनी थी,
वहीँ के लिए चले,
पानी भरा, ताज़ा स्वच्छ पानी!
मीठा और चमकदार!
वनस्पतियों से लड़ता-झगड़ता आता है ये जल!
इसमें, सभी प्राकृतिक गुण समा जाया करते हैं!
वही ताज़गी दिया करता है!
हम बैठ गए एक जगह!
बड़े बड़े सारस उछल रहे थे वहां!
मेरे कद के बराबर रहे होंगे,
मोटी मोटी,
सुनहरी आँखें,
और भूरे भूरे पंख उनके!
पीले और भूरे पंजे!
बेहद सुंदर!
और भी थे पक्षी वहाँ,
काले बगुले, सफेद बगुले, छोटे सारस,
कुछ विदेशी मेहमान!
सब ओर!
सब ओर थे वो!
उसका गान बड़ा ही मधुर था!
कोई कोई चीख कर, कपड़ा सा फाड़ देता था!
कानों पर, हाथ रखना पड़ता था!
तभी, एक बावर्ची आया!
उसने बताया कि पहाड़ी कुर्रा मछली है तालाब में!
ये रोहू की संबंधी है,
रंग में सुनहरी हुआ करती है ये,
बारह इंच से अधिक न बढ़ती,
कई दुःसाध्य रोगों के लिए राम-बाण है,
इसका सौ ग्राम मांस, लहसुन की चटनी के साथ,
खाया जाए, तो हफ्ते भर में ही,
मस्सों वाली और दूसरी बवासीर को जड़ से समाप्त करती है,
गठिया-बाय का पुराने से पुराना दर्द हो,
तो इसके तेल की मालिश करें,
दर्द जड़ से समाप्त हो जाएगा!
पांवों में, गोखरू बनता हो,
जड़ बन जाती हो,
तो इसकी चर्बी का लेप करें,
कभी नहीं पड़ेगा गोखरू!
हकलापन हो,
अपस्मार हो,
तो इसका मांस खाना चाहिए,
मिरगी की तो परम शत्रु है ये!
मैं उठ कर देखने चला गया,
झुण्ड के झुण्ड थे वहाँ उनके!
इंसान वहां शायद ही आता हो,
इसीलिए,
ज़रा सी हरकत होने पर,
फौरन गहरे पानी में उतर जाती थीं!
सुनहरी, कुर्रा मछली!
"पकडूँ?" बोला वो,
"रहने दो!" कहा मैंने,
"स्वाद देखना इसका?" बोले वो,
"छोड़ो!" कहा मैंने,
और आ गया वापिस,
सिलाइच साहब खड़े हो गए थे,
दूरबीन से अवलोकन कर रहे थे!
"वो देखना?" बोले वो,
मैंने ली दूरबीन!
लगायी आँखों पर,
ओहो! बहुत सारे जर्मन अक्षर, संख्या, दूरी-मापक, और नीले रंग का प्रकाश सा चमक पड़ा!
मैंने देखा उधर,
एक बड़ी पहाड़ी थी वो,
और उसमे बनी थीं,
कई गुफाएं!
"वहीँ चलें?" पूछा मैंने,
"हाँ, सवा किलोमीटर है" बोले वो,
"चलो" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहाँ के लिए,
अब पड़ा रास्ता बड़ा टेढ़ा!
कहीं से रास्ता नहीं,
झाड़-झंखाड़!
नीचे खाई!
तो सवा किलोमीटर, दो किलोमीटर हो गया!
हिम्मत नहीं हारी!
चलते ही रहे!
करीब ढाई घंटे बाद,
हम उस पहाड़ी पर पहुंचे,
अब पड़ीं गुफाएं!
बड़ी बड़ी!
भरत न पहचाने उन्हें!
हम आगे बढ़े!
वहां पड़ीं,
उन्हें भी न पहचाने!
खैर,
आराम किया हमने!
पानी पिया,
जी-पी.एस. देखा उन्होंने,
लैपटॉप खंगाला!
कैमरे से फोटो लीं,
लेटे,
बैठे!
फल खाए,
ग्लूकोज़ पिया,
आराम किया!
एक घंटे के बाद,
फिर से चले,
और इस बार,
एक बड़ी सी गुफा के सामने पहुंचे!
उसको जांचा-परखा,
और फिर अंदर चले,
अंदर झाड़ियाँ!
कटनी से काटीं उन सहायकों ने!

   
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श्रीशः उपदंडक
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अंदर बेहद खतरनाक झाड़ियाँ थीं!
कटनी भी काट नहीं पा रही थी उन्हें, वे सूख गयी थीं,
अंदर पता नहीं, क्या क्या कैसे कैसे कीड़े-कांटे हों?
पता नहीं कैसे कैसे सांप हों?
यहां वैसे ही भारत के कुछ चुनिंदा ज़हरीले सांप मिला करते हैं!
"वापिस जाना होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, बात नहीं बनेगी" बोली सिलाइच साहब,
"चलो" कहा मैंने,
और हम सभी मुड़ पड़े,
आये बाहर, ताज़ा हवा मिली! चैन आया!
अंदर तो दम सा घुटने लगा था हमारा!
हम आये एक जगह! आसपास देखा हमने,
और थोड़ा विश्राम करने के लिए,
चादर बिछा लीं,
मेरी नज़र वहीं लगे कंजा के पेड़ों पर पड़ी!
हरे रंग के चमकदार और मुलायम पत्ते होते हैं कंजा के,
अंग्रेजी में, स्मूथ-लीवड कहा जाता है!
ये भी एक, वन-औषधि है,
इसके पेड़, हरे, विशाल, बड़े, सघन और नमी के स्थान पर,
अधिक पाये जाते हैं, इसको घिया-करंज या बिटप-करंज भी कहा जाता है,
इसमें कांटे बहुत होते हैं,
अतः, खेतों या बागों की बाड़ में लगाये जाते हैं,
कंजे के पत्ते, गर्म, तीखे स्वाद वाले होते हैं,
योनि-रोगों के लिए अचूक औषधि है,
अर्श, पेट का निकल जाना, पेट में कृमि होना,
मिरगी के रोग में, काली-खांसी,
दांतों के दर्द में,
और पायरयिा आदि रोगों में अचूक लाभ पहुंचाता है!
यहां ये बहुतायत से लगे थे!
मैंने कुछ पत्ते तोड़ लिए थे, और रख लिए थे अपने बैग में,
सिलाइच साहब ने भी पूछा,
उनको भी बताया,
उन्होंने भी तोड़ लिए उसके पत्ते!
इसके पत्तों का काढ़ा बनाया जाता है, आठ पत्ते लें,
उबाल लें, आधा गिलास पानी शेष रहे, तो सेवन करें!
एक और पेड़ है, जिसको शायद जंगली ही समझा जाता है!
इसको महानिम्ब, बकायन या बकांद कहा जाता है,
इसकी निबौरियां गोल और गुच्छे में लगी होती हैं!
जिन लोगों को, हड्डी संबंधी विकार हो,
जैसे गठिया-बाय आदि, रिकेट्स आदि,
बारह से चौदह मिलीग्राम अर्क, इसके पत्तों का,
लाभ होने तक सेवन करें, अचूक लाभ होगा,
ये गुल्म(पेट की गाँठ), पित्तज्वर, बवासीर, श्वास-रोग, आदि,
तो ये अर्क, शहद या मलाई में मिलाकर चाटें!
इसकी निबौरियां ले लें, पचास ग्राम,
साफ़ कर, चूर्ण बना लें,
अब अदरक के अर्क के साथ, एक चौथाई चम्मच,
सुबह शाम, सेवन करें, मधुमेह रोग, कभी तंग नहीं करेगा!
मित्रगण!
शाम ढल गयी,
कोई गुफा ऐसी न मिली,
जो भरत पहचान ले!
आखिर में,
ये अभियान भी, असफल ही हुआ!
सिलाइच बेहद मायूस थे,
जॉजी मैडम, परेशान,
बाबा देव, मायूस,
भरत, खाली हाथ,
और हम, मूक दर्शक!
अगले ही दिन,
हम वापिस हो लिए,
क्या करते?
कोई लाभ न था,
जंगल की खूब खाक छान ली थी!
नतीजा, वही सिफर! वही सिफर!
वहां से, सीधा बाबा देवनाथ के डेरे आये,
और दो दिन बाद,
मैं और शर्मा जी, भी वापिस चल पड़े दिल्ली के लिए!
उत्कंठा तो थी ही,
पर मार्ग नहीं था कोई!
देख-पकड़, आदि कुछ न लग पाती!
सिलाइच साहब भी चले गए वापिस,
दिल्ली आये,
तो मिले हमसे!
उनके लिए अभियान समाप्त नहीं हुआ था अभी!
बस एक, अल्प-विराम लगा था!
ऐसा जीवट है उनका!
मैडम जॉजी भी अच्छे से मिलीं!
और वे विदा हुए!
मित्रगण!
करीब डेढ़ महीने बाद,
एक और धमाका हुआ!
एक व्यक्ति, किशोर ने कुछ ऐसी ही घटना बताई,
बताई उस भरत को!
भरत ने बताया कि,
जंगल के एक भाग में,
उसने ऐसे ही तीन साधू देखे थे!
ऐसे ही, जैसे,
स्वयं भरत ने बताये थे!
वे, पैदल ही चल रहे थे,
उनका तेज ऐसा था जैसे कि,
प्रकाश स्वयं ही चल रहा हो!
शेष वो,
मौखिक रूप से ही बताता!
हमने अगले ही दिन,
करवायीं टिकटें!
और अगले ही दिन,
हुए रवाना!
अब तो जिज्ञासा क्या,
और उत्कंठा क्या!
मथ के रख दिया हमें तो!
सिलाइच साहब को भी खबर कर दी गयी थी!
और इस तरह, हम दोनों,
जा पहुंचे बाबा देव के डेरे पर!
 

 

किशोर की आयु कोई अधिक नहीं थी, यही कोई, इक्कीस-बाइस बरस का रहा होगा वो, इकहरा बदन और शांत सा युवक! उसने उस रोज से कोई दस दिन पहले वे बाबा लोग देखे थे, यही सोचा पहले कि कोई भूत-प्रेत हैं! वो छिप गया था एक झाड़ी के पीछे, वे तीनों बाबा, शांत से चलते जा रहे थे, जैसे ज़मीन पर तैर रहे हों! वो हैरान था, उनको देखता रहा, और फिर भागा गाँव की तरफ! भरत के पास में ही गाँव था उसका, उसने जो खबर की, तो अब भरत की भी पुष्टि हो गयी!
"किशोर?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"कहाँ को जा रहे थे वे?" पूछा मैंने,
अब उसने जो दिशा बताई,
वो उत्तर थी, और उत्तर में, हिमाचल था!
अब यहां ऐसी किवदंतियां बहुत हैं,
बहुत सी पहाड़ी किवदंतियां, कहानियां आदि,
और ये देहाती, पहाड़ी लोग,
झूठ नहीं बोला करते,
उसके लहजे से, और बताने से ये साफ़ ज़ाहिर था,
कि उसने सच में ही उन बाबाओं को देखा था!
और हम?
आधुनिक उपकरणों के होते हुए भी,
जंगल की खाक छान, खाली हाथ ही आये थे!
उसने जो वेश-भूष बताई थी उनकी,
वो मेल खाती थी भरत की बताई वेश-भूषा से,
वही कद-काठी,
वही, प्रकाश, वही तेज!
वे जंगल में भ्रमण कर रहे थे और,
हम यहां, कल्पनाओं में भ्रमण कर रहे थे!
उस रात काफी बातें हुईं किशोर से,
उसने और भी कई बातें बतायीं उनके बारे में,
कि एक के हाथ में, बड़ा सा कमंडल था,
एक के हाथ में,
लाठी थी, उस पर, धागे से बंधे थे,
तीनों ही,
भीमकाय शरीर वाले थे!
आयु में, सब समान ही लगते थे!
अगली सुबह,
सिलाइच साहब का फ़ोन आया,
और उन्होंने मालूमात की,
इस बार वो,
कुछ और भी आधुनिक उपकरण लाने वाले थे,
रात्रि में, ताप पकड़ने वाले,
इंफ्रा-रेड कैमरे आदि,
इस बार नहीं असफल होना चाहते थे वे!
उनको आने में, अभी करीब आठ दिन थे,
तब तक मैंने,
बाबा प्रताप के पास जाना सोचा,
बाबा प्रताप, काशी के रहने वाले हैं,
डेरा यहीं है उनका,
मैंने बाबा देव से बातें कीं, और आठ दिन बाद आने को कहा,
और हम निकल लिए वहाँ से फिर,
पहुंचे बाबा प्रताप के यहां,
बहुत खुश हुए!
अब मैंने उन्हें बताया इस बारे में,
तो उनको भी आश्चर्य हुआ!
आँखें पटपटा गयीं उनकीं!
वहां दूर जंगल में,
सिद्ध हैं, ऐसा सुना था उन्होंने,
लेकिन वे नज़र भी आये थे, ये बड़ा ही विचित्र था!
उन्होंने बड़ी ही सूक्ष्मता से जानकारी जुटाई मुझ से,
फिर एक महिला को बुलाया,
उस महिला का नाम सरोज था,
आयु में, पचपन साठ की रही होंगी वो,
उनसे नमस्कार हुई,
तब बाबा ने बताया, कि,
करीब बीस बरस पहले,
सरोज की छोटी बहन को,
ऐसे ही एक बाबा मिले थे, वे,
एक रात्रि, गाँव के बाहर बने मंदिर में भी ठहरे थे,
उन्होंने अपना नाम, ध्वजवंदन बताया था,
वे रन्द्रपुर का निवासी बताते थे अपने आपको,
ये रन्द्रपुर, आज का शायद रुद्रपुर हो, सम्भव है,
उन्होंने बताया था कि,
जंगल में, अनेक ऐसे महर्षि हैं,
जो सहस्त्रों वर्षों से, साधनालीन हैं,
वे भूमि के नीचे हैं,
पहाड़ की चोटियों पर हैं,
कंदराओं में हैं आदि आदि!
बाबा ध्वजनन्दन, अपने गुरु श्री के पास जा रहे थे,
तब वो रुक थे, वे नौ सौ तीस वर्षों से तपस्यालीन थे!
एक और झटका!
सरोज ने तो,
बाकायदा प्रत्यक्ष दर्शन किये थे!
वे स्वयं ही आये थे!
सरोज मंदिर की साफ़-सफाई करती थी,
ये उस समय की बात है,
कमाल था!
मैंने और भी पूछा उनके बारे में!
वो, जैसे जैसे बताती जाए,
मानो, मनों वजन सर पर, बढ़ता जाए!
क्या हो रहा है संसार में!
आज भी!
आज भी,
इन जंगलों में,
ऐसे तपस्वी शेष हैं!
ये किवदंतियां नहीं हैं!
जिन्होंने देखा उन्हें,
उन पर या तो किसी ने विश्वास नहीं किया,
या फिर, देखने वाले ही चुप बैठे रहे!
और फिर,
उनकी तपस्या में बाधा कौन चाहता है!
ये तो,
पाप है,
साधना में दखल,
पाप श्रेणी में आता है!
यही कारण रहा था!
और रहा है आज तक!
हम कोई, दखल नहीं देना चाहते थे,
बस, एक बार,
बस एक बार,
दर्शन हो जाएँ ऐसी किसी तपस्वी के,
तो जैसे जीवन साकार हो जाए!
बस यही एक आकांक्षा पाले हुए थे मन में!
इस से अधिक और कुछ नहीं!

   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण!
बड़ी बेसब्री से वो पंद्रह दिन गुजारे!
हम दो दिन बाद ही वापिस आ गए थे दिल्ली, सिलाइच साहब को और देर लगनी थी! खैर, पंद्रह दिन बीते तो बात हुई उनसे, अभी और पंद्रह दिन लगने थे उन्हें, कुछ वीज़ा आदि के कारण, एक एक दिन बड़ा भारी गुजर रहा था!
और फिर एक दिन,
कोई आठवें दिन,
मैडम जॉजी का फ़ोन आया, उन्होंने बताया कि वे कल पहुँच जाएंगे दिल्ली! और वहाँ से अगले दिन के लिए, निकल पड़ेंगे बाबा देव नाथ के पास! हमने भी यही कहा कि, साथ ही चलते हैं, ये बढ़िया रहेगा, और हो गया हमारा कार्यक्रम निर्धारित!
अगले दिन,
वे लोग आ गए, उनसे मुलाक़ात हुई,
एक रात वहीँ ठहरे वो, और एक गाड़ी कर ली उन्होंने, वहां के लिए! हम भी साथ थे, सामान आदि रख ही लिया था! और इस तरह, रुकते-रुकाते, हम जा पहुंचे बाबा देव नाथ के पास!
थकावट हो चुकी थी बहुत, तो दो दिन आराम किया हमने,
हाँ, सिलाइच साहब ने, किशोर से सारी बातें पूछीं,
दर्ज़ कर लीं अपनी डायरी में, वे सच में हैरान थे और खुश भी!
हमसे भी बातें कीं उन्होंने, और कुछ राय-शुमारी भी हुई!
इस बार कोई त्रुटि न हो, कोई कमी न रह जाए, इसलिए,
बारीक से बारीक, विषय पर भी, गंभीर हुए थे सिलाइच साहब!
तीसरे दिन, दो बड़ी गाड़ियां की गयीं,
सारा सामान रखा गया,
खाने-पीने का, पानी आदि,
उपकरण आदि,
और सुबह ही कोई पांच बजे,
हम निकल पड़े थे, वन-विभाग से अनुमति ले ही चुके थे वो!
साथ में किशोर और भरत भी थे!
हम इस बार, कुल मिलाकर, चौदह लोग थे!
जिस जगह किशोर ने देखा था उन्हने,
वो इस जगह से कोई चालीस किलोमीटर दूर थी,
तो हम, वहीँ के लिए चले,
रास्ता ऐसा, जैसे बस दुनिया में, हम ही शेष हों!
हमारी ही गाड़ियां चल रही थी,
उबड़-खाबड़ रास्ता,
धचकियां!
ऐसी कि पसलियां कड़कड़ा जाएँ!
खाया-पिया सब हजम हो जाए!
पेट से, छपक-छपक की आवाज़ आये!
जब नहीं हुई बर्दाश्त, तो एक जगह रुक गए हम!
सभी की हालत ऐसी थी कि जैसे,
विश्व-भ्रमण पर निकले हों हम!
चेहरे लाल! पसीनों से तरबतर!
पेट में गुदगदी!
पसलियों में, खुलाव!
पानी पिया जी!
और हिम्मत कर, फिर से बैठे!
गाड़ी चलीं आगे!
फिर से वही हाल!
मन करे, बाहर निकलूं और पैदल ही चलूँ!
सभी के मुंह से, अनजान से शब्द निकल रहे थे!
हम सभी जंगल में थे उस समय!
बात नहीं बनी!
रुक गए फिर!
हालत सभी की खराब थी!
सब उतरे नीचे!
कैसे पिंजरे से बाहर निकले हों, एक लम्बे अरसे के बाद!
चेहरे पर सभी के,
हवाइयां उड़ी पड़ी थीं!
रास्ता बेहद ही खराब था वो!
गड्ढे, पत्थर आदि आदि!
खैर,
किसी तरह,
पेट पकड़ पकड़ कर,
हम जा पहुंचे उस जगह,
जहां किशोर ने, उन तीनों को देखा था,
वहाँ का भूगोल देखा हमने,
पीछे पहाड़ थे,
साथ में, एक बरसाती नाला था,
जो अब सूखा था, झाड़ियाँ लगी थीं उसमे,
स्थान, बंजर ही था,
पेड़-पौधे, नाम-मात्र को ही थे,
हाँ, कुछ औषधियां अवश्य ही लगी थीं,
और कुछ नहीं था!
"यहां तो कोई कंदरा नहीं?" बोले बाबा,
"हाँ, ये तो मैदान ही है" बोले सिलाइच साहब,
"तो आसपास देखें?" बोले बाबा,
"आओ" बोले वो,
अब हम लोग,
दो दो की टुकड़ी में बंट गए,
और लगे खोज में!
मैं और शर्मा जी, काफी दूर तक चले गए,
लेकिन कुछ नहीं मिला!
न कोई कंदरा,
न कोई ऐसा ही स्थल!
हाँ, जदवार की घास लगी थी वहाँ!
नीले फूलों वाली,
ये भी एक औषधि है!
"कुछ नहीं यहां!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोला मैं,
"चलें वापिस?" बोले वो,
"हाँ, चलो" कहा मैंने,
और हम चले वापिस!
पहुंचे गाड़ियों तक,
पिया पानी! और जा बैठे अंदर!
थोड़ी देर में ही,
सभी लौटे वहाँ!
किसी को, कुछ न मिला था!
थोड़ा आराम किया सभी ने,
और फिर, चल पड़े आगे के लिए,
कईब दो घंटे के बाद,
एक बढ़िया सी जगह मिली,
हरी-भरी जगह!
तालाब था वहाँ!
उसी के किनारे जा बैठे सभी!
अब किया भोजन, आज शाम तक का तो ले आये थे,
हम तो लेट गए थे!
आँख भी लग गयी थी!
उस दोपहरी में,
पेड़ों की मस्त छाया मिली तो नींद आनी ही थी!
दो घंटे सोये हम!
जब उठे, वो सभी सो ही रहे थे!
पानी पिया, और जगाया उनको!
वे उठे फिर,
करीब आधे घंटे के बाद,
सिलाइच साहब ने,
निर्देश दिया कि,
हम सब उत्तर में चलेंगे,
वहाँ, करीब सात बजे तक चलेंगे,
कुछ मिला तो ठीक,
नहीं तो,
वहीँ तम्बू लगा लेंगे!
रात वहीँ काटेंगे और आगे का निर्धारण करेंगे!
यही हुआ!
हम निकल पड़े,
चलते रहे,
हम करीब ढाई घंटा चले!
और बज गए सात!
पहाड़ियां अभी बहुत दूर थीं!
अब सफर करने की हालत न थी!
तो लगा लिया तम्बू!
और जा घुसे!
लकड़ियाँ आदि ले आये थे सहायक,
रात को,
अलाव जलाना था!
जगह सुनसान!
बियाबान!
कोई पक्षी भी नहीं!
बस,
ज़मीन पर रेंगते हुए कीट!
सूखा स्थान!
हुई शाम!
और सिलाइच साहब के साथ,
हमने मदिरा का आनंद लिया!
भोजन किया,
आगे की रणनीति बनायी,
और जा घुसे अपने तम्बूओं में!
कोई ग्यारह बजे,
बिजली कड़कने की आवाज़ आई!
बाहर झाँका,
तो तेज हवा चल रही थी!
ठंडी!
बरसात हो सकती थी!
अलाव की आग, नाच रही थी!
और इस तरह,
कोई बारह बजे,
बारिश पड़नी शुरू हो गयी!
खैर,
हम तम्बूओं में सुरक्षित थे!
बस,
हवा थोड़ा परेशान करती थी!
बारिश सुबह कोई चार बजे तक हुई!
 

 

सुबह हुई, हम उठे!
बाहर देखा, मौसम बेहद खुशगवार हो चला था!
वो बीहड़ सा स्थान अब,
जन्नत सरीखा लगने लगा था!
पानी, जमा नहीं था,
मिट्टी की सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू,
नथुनों में जाती तो बेहद प्यारी सी लगती!
आकाश में अब भी बादल थे,
लेकिन बरसाती बादल नहीं थे!
कल भी अचानक ही बरसात हुई थी,
आज भी हो सकती थी,
तब तलक हमने तम्बू नहीं उखाड़े थे,
हवा में ठंडक थी,
और तम्बूओं में बैठकर ही,
आराम मिल रहा था,
हवा तेज थी, फ़ड़फ़ड़ा देती थी तम्बूओं को!
भोजन बनाने के लिए, नाश्ता आदि के लिए,
एक कनात और बांधी गयी,
तब जाकर, ईंधन जला!
चाय बनी, और नाश्ता तैयार हुआ!
हमें हमारे तम्बू में ही मिला वो नाश्ता,
अभी तक भाप उड़ रही थी उसमे से!
चाय के साथ, उड़द की दाल की कचौरी आई थीं!
खींच मारीं हमने चाय के साथ!
अब जंगल में चाय,
और साथ में कचौरी, मिल जाएँ तो भला इस से बढ़िया, और क्या!
करीब साढ़े दस बजे,
भोजन भी बन गया, दाल और चावल,
अब पेट में जो जगह खाली थी,
वो भी भर ली!
किता थोड़ा आराम उसके बाद,
और कोई बारह बजे के बाद,
हम सामान उठा कर, अपना अपना,
चल पड़े आगे के लिए,
इस बार हम, घनी पहाड़ियों की तरफ जा रहे थे,
यहां तो कुछ नहीं था,
कोई गुफा नहीं और कोई वैसी वनस्पति भी नहीं,
जैसी कि भरत ने देखी थीं!
हम करीब पांच बजे थे चले,
पहाड़ियां अभी भी दूर थीं,
लेकिन अभी यहां पर,
हरियाली बहुत थी!
जंगल घना था!
पेड़-पौधे,
फूल-बेलें,
पहाड़ी छोटी छोटी नदियां,
बरसाती नाले आदि आदि!
अब वे नाले भर चुके थे,
इतने भी नहीं कि हम पार न कर सकें,
हमारी गाड़ियां पार कर लिया करती थीं उन्हें!
ऐसी ही एक नाले को पार करते समय,
हमारी एक गाड़ी फंस गयी थी!
बहुत परेशानी के बाद,
दूसरी गाड़ी से धकियाया उसको!
पहिया स्लिप मार जाता था उसका!
और इस तरह, हम एक बेहद ही शानदार जगह पर आ गए!
हम उतरे वहाँ!
आसपास देखा,
रंग-बिरंगे फूल,
विशाल पेड़ और बेलें!
लेकिन भरत को,
वो सरदा जैसी बेल न दिखी थी!
कोई गुफा भी नहीं थी वहाँ,
समतल मैदान था,
पहाड़ियां, अभी भी आगे थीं!
"क्या जगह है!" बोले शर्मा जी,
"यक़ीनन!" कहा मैंने,
"हर चीज़ बोल रही है यहां!" बोले वो,
"सच कहा!" कहा मैंने,
मैं और शर्मा जी,
टहलने चल पड़े थे वहाँ,
आज शायद, सिलाइच साहब,
यहीं बसेरा डालने वाले थे!
एक बरसाती नदी के पास हम चल दिए थे,
पानी ऐसा साफ़,
कि तला दीखे उस नदी का!
स्नान करने के लिए जगह बढ़िया थी,
सुबह आराम से स्नान किया जा सकता था वहाँ!
वहाँ बैठे,
कुछ बातें कीं,
और चले वापिस फिर,
वही हुआ,
तम्बू गाड़ लिए गए थे वहां,
और अब भोजन की भी तैयारी हो चली थी,
हवा अब कुछ कम थी,
हम सब, वहीँ बाहर ही बैठे थे,
तभी सिलाइच साहब के पास फ़ोन आया,
ये फ़ोन उनके पास,
इटली से आया था,
उनके एक मित्र भूगोलशास्त्री थे,
श्रीमान ग्रुसेव,
उनसे उनकी इतालवी में बातें हुईं,
तक़रीबन आधा घंटा!
सिलाइच साहब, मुस्कुरा रहे थे,
अर्थात कोई, बढ़िया खबर थी!
फिर फ़ोन रख दिया गया!
मैंने उनसे पूछा,
तो वो बोले,
कि उन पहाड़ियों में, गुफाएं हैं!
उसका कुछ ब्यौरा भी मिला था उन्हें!
इसका मतलब,
हम सही राह पर थे!
जॉजी मैडम भी खुश थीं!
जॉजी मैडम को जब भी समय मिलता,
मुझसे अपना हाथ जँचवातीं रहतीं!
हस्त-रेखा फल के लिए!
वे प्रसन्न होतीं,
जब मैं उनका कोई अनछुआ पहलू उजागर करता!
वे चकित होतीं!
मेरे माथे पर हाथ रखतीं,
और एक माँ की तरह से,
मेरे सर पर हाथ रखती थीं!
उनकी आँखों में चमक बनी रहती!
उनकी नीली आँखों में,
ममत्व तैरता रहता!
हंसमुख हैं बहुत!
उनका शिक्षण,
उनके चेहरे से झलकता है!
और सिलाइच साहब,
जैसे वे दोनों, एक दूसरे के लिए ही बने थे!
आपस में बातें करते,
तो खो जाते थे!
बेहद प्रेम है दोनों में!
सिलाइच साहब जब बातें करते,
तो एक पिता समान निर्देश दिया करते थे!
उस उम्र में भी, जवान थे सिलाइच साहब!
शांत और गंभीर!
एक वैज्ञानिक की तरह!
तो वो रात हमने,
वहीँ काटी,
कल हम उन पहाड़ियों तक,
जा ही पहुँचते!
जंगल अब यहां से,
उथला और छितरा हुआ सा लगता था!
रास्ता भले ही पथरीला था,
लेकिन गाडी आराम से चलती थी उन पर,
अगली सुबह,
हमने उसी नदी में स्नान किया,
फिर चाय-नाश्ता,
और फिर भोजन!
ग्यारह बजे,
ठीक, हम आगे के लिए बढ़े!
अचानक ही मौसम ने करवट बदली,
तेज हवा चली!
धूल-धक्कड़!
आंधी!
और फिर बरसात!
हम सब, गाड़ी में ही बैठे रहे!
बाहर निकलना सम्भव न था उस समय!
 

 

बारिश तो ऐसी पड़ी, कि रुकने का नाम ही न लिया!
हम सब, गाड़ियों में ही क़ैद हो कर रह गए!
ऐसी पड़ी, कि पूछिए ही मत!
ऊँघने लगे थे हम सभी!
और जिसको जैसे बन पड़ी,
वो सो चला!
मैं और शर्मा जी, पीछे बैठे थे,
वही पसर लिए हम भी!
क्या करते!
आज कमर का धनुष बन जाना था पक्का!
कल सुबह सुबह ही, हमें इन्द्रायण बूटी ढूंढनी थी!
भारतीय इन्द्रायण, रेचक(दस्तावर) हुआ करती है,
परन्तु, औषधियों में, ये विशिष्ट स्थान रखती है!
इसके पत्ते चबा लें, कड़वे होते हैं,
कैसा भी दर्द हो, क्षण में छू!
बांझपन की कट्टर शत्रु है!
अंडकोष-वृद्धि, तीव्र-ज्वर, मति-भ्रम, कैसी भी गांठें हों,
जलोदर, फीलपांव आदि में रामबाण औषधि है!
ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां ये न मिलती हो!
कल उसी का सहारा था!
बारिश ने ज़िद पकड़ ली थी!
तो साहब,
हम सो गए!
खिड़कियाँ बंद!
दरवाज़े बंद!
बत्ती बंद!
सारी रात मेह बरसा!
पटर-पटर पड़ती रही बारिश!
कभी तेज, कभी मंद!
कभी खिड़की पर पड़ती,
कभी दरवाज़ों पर!
घुप्प अँधेरा!
और उस अँधेरे में खड़ी, दो गाड़ियां!
गाड़ियों में, चौदह खोजी!
अब फंसे थे, बीच जंगल में!
खैर,
कोई विकल्प था ही नहीं!
अब कमर टेढ़ी हो,
या गरदन,
अब तो, फंस ही गए थे!
तो जी,
हुई सुबह!
बादल गरजे!
झाँका बाहर!
अभी भी बारिश हो रही थी!
अब क्या किया जाए?
बारिश का तो मौसम था नहीं ये?
अब क्या करें?
हर जगह गीला,
हर जगह कीचड़-काचड़!
कहीं रुकें, तो कहाँ रुकें?
आगे चलें, तो कहाँ चलें?
रास्ता फिसलन भरा था!
तो अब, फंस ही गए थे हम!
अब बारिश बंद हो, तो कुछ हो!
बाहर तो,
बादल ऐसे काले,
ऐसे काले, कि बार बार धमका जाएँ हमें!
बिजली कड़के!
भूखे-प्यासे,
पिंजरे में से क़ैद हम,
बस यही कहें कि बारिश बंद हो कैसे भी!
आसपास देखा,
कुछ नहीं!
समतल मैदान!
"सर?" बोला मैं,
"जी?" बोले सिलाइच साहब!
"अब क्या किया जाए?" पूछा मैंने,
"थोड़ा इंतज़ार करते हैं" बोले वो,
"बाहर तो, कोई उम्मीद नहीं लगती!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"आगे जा नहीं सकते" बोले वो,
"कोशिश की जाए?" बोला मैं,
"लैंड-स्लाइड का खतरा है!" बोले वो,
हाँ!
ये तो सोचा ही नहीं मैंने!
ऐसा अक्सर होता है, पहाड़ों पर!
"कोई जगह भी नहीं है यहां तो?" बोला मैं,
"एक मिनट" बोले वो,
और निकाली बैग से दूरबीन!
किया उसका स्विच ऑन!
जलीं उसकी एल.ई.डी. बत्तियां!
अब लगाई आँखों से,
कैमरे जैसी आवाज़ हुई!
झाँका बाहर,
दायें,
बाएं,
सामने,
पीछे!
फिर दायें!
"वो देखो?" बोले वो,
दी दूरबीन मुझे,
लगाई आँखों से,
देखा सामने,
एक पहाड़ सा था,
गहन जंगल सा,
"यहां क्या है?" पूछा मैंने,
"वो पठार है न?" बोले वो,
"हाँ?" बोला मैं,
"वहां चलते हैं" बोले वो,
"लाभ?" पूछा मैंने,
"ऊंची जगह है!" बोले वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
और दी दूरबीन शर्मा जी को!
उन्होंने भी झाँका बाहर!
"चलें?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"मदन?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला चालक,
"उधर चलो" बोले वो, इशारा करके,
"जी" बोला मदन,
की गाड़ी स्टार्ट!
तो स्टार्ट न हो!
झटका मारे!
और फिर,
दम तोड़ दे!
"ठंड लग गयी इसको!" बोले शर्मा जी!
"अभी देखता हूँ" बोला मदन,
की स्टार्ट! कई बार!
और एक बार, ले लिया दम!
"शुक्र है!" बोले सर!
अब मोड़ी गाड़ी उसने!
दूसरी भी स्टार्ट हुई,
और हम चल पड़े उधर के लिए!
बरसात जैसे, रास्ता रोके!
बादल गरजें!
बिजली कड़के!
उपरवाला, सभी की फोटो खींच ले!
चलते रहे आराम आराम से!
दूरबीन लिए देख रहे थे सिलाइच साहब!
"चलते रहो!" बोले वो,
हम चलते रहे!
आगे, और आगे!
और एक जगह गाड़ी रुकवा दी उन्होंने!
लगाई दूरबीन!
किया एक दूसरा स्विच ऑन!
और अब देखा गौर से!
वो दूरबीन, सच में ही, चाँद के भी गड्ढे दिखा देती थी!
ऐसी जर्मन दूरबीन थी वो!

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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पहली बार हमारी क़िस्मत ने साथ दिया था हमारा!
ठीक सामने, पहाड़ में, उस पठार की पीछे,
एक बड़ी सी गुफा दिखी थी!
गुफा के ऊपर पहाड़ था, जैसे, परछत्ती सी बनी हो!
गुफा और उसके आसपास की ज़मीन,
सूखी थी! अंदर चलते तो पता चलता!
गुफा करीब पचास मीटर दूर थी हमसे,
अधिक अंदर गाड़ी नहीं जा सकती थी,
इसीलिए, हम वहीँ रुक गए थे,
सिलाइच साहब, निर्देश दे रहे थे सभी को,
मुझे टोर्च लेकर, अंदर जाने को कहा,
देखने को, कि अंदर जगह है भी या नहीं?
मैं और शर्मा जी, दौड़ पड़े बारिश में,
पहुंचे, गुफा के मुहाने पर,
जगह साफ़ थी,
कोई दुर्गन्ध नहीं थी,
मांस आदि की दुर्गन्ध,
वो इसलिए कि कोई तेंदुआ या अन्य कोई मांसाहारी,
जानवर न हो उसमे!
अब तक तो कोई न था!
"आओ" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो,
टोर्च जलायी मैंने,
और चले अंदर,
अंदर तो कमाल था!
गुफा एकदम साफ़ सुथरी थी!
कोई गंदगी नहीं!
बस पत्थर पड़े थे वहां,
वो शायद छत से ही झड़े थे उसमे!
हम अंदर तक गए!
काफी गहरी थी वो गुफा,
लेकिन थी साफ़-सुथरी!
आराम से रहा जा सकता था उसमे!
"आओ" बोला मैं,
और हम बाहर चले,
किया इशारा उन्हें अंदर आने का!
वे तब चले हमारी तरफ!
सामान आदि खोल लिया गया था!
मैडम जॉजी दौड़ी चली आ रही थीं!
सिलाइच साहब, अपने बैग टाँगे, आ रहे थे!
सहायक आदि सामान लेकर आ रहे थे!
आ गए सब!
"सब ठीक?" बोले वो,
"हाँ सर!" बोला मैं,
"ठीक!" बोले वो,
वे पलटे, और सामान आदि रखवाने लगे!
मुझे बुलाया,
"लकड़ियाँ चाहियें!" बोले वो,
"देखते हैं सर!" बोला मैं,
आसपास देखा,
झाड़ियाँ तो थीं सूखी,
लेकिन पेड़ आदि तो गीले ही थे!
फिर भी,
मैं और शर्मा जी,
ले चले दो सहायकों को लेकर,
कुल्हाड़ियाँ थीं उनके पास,
और एक ठूंठ पेड़ मिला गिरा हुआ!
था तो गीला, लेकिन हो जाता काम!
काट लिया वो,
और ले आये लकड़ियाँ उठाकर!
आज रात के लिए तो चल ही जाता काम!
सिलाइच साहब ने, फौरन मदद की हमारी!
उन्होंने हंडे जलवा लिए थे,
दरियां बिछा ली थीं!
लकड़ियाँ आदि रखवा लीं,
और रखीं लंबवत!
सिलाइच साहब न इक तरीका सिखाया!
उन्होंने, जो सूखी सी लकड़ियाँ थीं, वो पहले जलाईं!
उनके ऊपर, थोड़ा सा खुला स्थान रख, गीली लकड़ियाँ रखीं!
सूखी लकड़ियाँ जलीं,
तो गीली लकड़ियों की नमी उड़ा दी!
फिर वे भी जलाईं!
अलाव जल उठा!
हम जा बैठे उसके चारों ओर!
बारिश अब भी हो रही थी,
और अब तो, ठंड भी लगने लगी थी!
अलाव ने बड़ी राह दी!
फिर, कुछ पकाने की सलाह दी उन्होंने,
अब सब्जी काटी गयी!
आलू, और मूंग की वडियाँ!
बनाई जाने लगीं!
ख़ुश्बू उड़े!
नाक में जाए,
मुंह में पानी आये,
पेट में आंतें हिलाये!
और फिर पक गया खाना भी!
और सब ऐसे टूटे!
ऐसे टूटे जैसे,
कई दिनों से भूखे हों!
उसके बाद आराम!
बारिश न रुके!
बादल गरजें!
बिजली चमके!
अलाव ही बचाये!
हवा ऐसी चले,
कि रीढ़ कंपा जाए!
कंबल आदि लाये नहीं थे,
खेस थे हमारे पास,
वहीँ लपेट लिए!
मित्रगण!
सिलाइच साहब!
अपने सिलाइच साहब न मानें हार!
अपने उपकरणों में, उलझे रहें!
लिखें,
पढ़ें,
लैपटॉप में टंकण करें!
रोज डायरी लिखें!
हमसे बातें करें!
मनोबल न टूटने दें!
उनका जीवट देख,
हम सभी क़ायल थे उनके!
आखिर रात हुई!
और हम सोये फिर!
सिलाइच साहब,
काफी देर तक,
उलझे रहे!
आखिर कोई, रात में, दो बजे,
आराम करने लेटे!
मैडम जॉजी को खेस उड़ाया उन्होंने!
ये देख,
मैं और शर्मा जी,
मुस्कुरा पड़े!
आदर्श हैं सिलाइच साहब!
मानव हैं सच्चे!
मानवीय मूल्यों का सही पालन करते हैं!
ज़िंदादिल इंसान हैं!
खैर,
रात में सो गए,
सुबह उठे सभी!
आज नहीं थी बारिश!
हाँ,
मौसम ठंडा था बहुत!
सिलाइच साहब, बाहर गए थे घूमने,
हम भी चले,
बाहर आये,
तो वर्जिश कर रहे थे वो!
सूर्य-नमस्कार भी किया!
वाह!
जिसे हम भूल बैठे,
उसका महत्व, इन विदेशियों से जाना!
 

 

ये सत्य है!
ये विदेशी, सबकुछ छोड़ आ जाते हैं!
परन्तु!
ये कैरियर है इस देश में,
अधिकतर!
कैरियर, ड्रग्स के!
आप जान जाओगे देखते ही!
आप जाएँ, ज़रा,
मैकलॉयडगंज!
आप सब जान जाएंगे!
खैर!
छोड़िये!
असली वही, जो ज्ञान खोजे!
और हमारे, सिलाइच साहब,
वे तो अनोखे हैं!
जज़्बे वाले!
कर्मठ!
सच्चे!
बात के पक्के!
इरादे के पक्के!
हम बहुत ही,
खुशनसीब थे, कि उनके निर्देश तले,
आगे बढ़ रहे थे!
उन्होंने रॉकी-पर्वत-श्रृंखला पर, कई माह बिताये थे!
उनका अनुभव,
हमारे लिए तो,
ज्ञान-भंडार था!
हम सच में ही उनके आभारी थे!
वे हुए फारिग, और हम भी हुए फारिग!
मौसम सर्द था!
नमी बहुत थी!
सिलाइच साहब ने,
उस दिन, हमें वहीँ रहने का आदेश दिया!
अब वहीँ रहना था,
मध्यान्ह में, खूब बारिश पड़ी!
बहुत तेज!
अच्छा हुआ,
कि यहां थे, अन्यथा,
मुसीबत हो जाती!
सिलाइच साहब, लगातार, अपने जी.पी.एस. में देख लेते थे!
जॉजी मैडम, उनसे मैं बातें कर लिया करता था!
उस दिन बारिश रही,
रात भर रही,
अगले दिन, कोई दो बजे तक,
छिटपुट रही!
और फिर निकले अपने सूरज महाराज!
उस दिन मित्रगण!
हम ऐसे खुश!
ऐसे खुश कि जैसे,
खजाना मिल गया हो!
सिलाइच साहब ऐसे खुश!
कि बार बार मुझ से गले मिलें!
वो और शर्मा जी,
पाइप मिलकर पियें!
अब शर्मा जी हमारे फौजी हैं,
वो और सिलाइच साहब,
ऐसे पाइप उड़ाएं, कि मुझे जैसे चिढ़ा रहे हों!
खैर जी,
दिन में दो बजे मौसम साफ़!
चटकदार धूप!
साफ़ मौसम!
और तब,
दौड़ाई गाड़ी सिलाइच साहब के निर्देश पर!
पहुंचे एक जगह!
बड़ी सी नदी!
बाएं हमारे!
हो गया स्नान!
बनाया खाना!
वाह! वाह क्या खाना!
चावल और आलू की सब्जी!
अब समझा मैं!
इसीलिए,
चावल का निर्माण हुआ है!
चावल, चावल नहीं,
मेवा सा लगे, एक एक दाना!
मित्रगण!
मेरे दिमाग में एक बात आई!
ऐसे कब तक ढूंढते रहेंगे हम?
क्या करें?
बाबा देव?
हाँ!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" जवाब उनका,
"बाबा देव से कहें कि देख लगाएं?" पूछा मैंने,
"अब सुनो आप!" बोले वो,
अब!
समझ गया कि,
श्लोक शुरू हुए उनके!
"इस बहन के ** ने!!" बोले वो,
अजी मैंने समझा!
"इसका पैसा लगता न? तो साला केंचुआ हो जाता!" बोले वो,
"तो अब?" बोला मैं,
"इस बाबा देव को बोलो, देख लड़ाए?" बोले वो,
"मैं कैसे बोल दूँ?" कहा मैंने,
"मैं कह दूँ?" बोले वो,
"कह दो?" बोला मैं,
"आओ" बोले वो,
"चलो!" बोला मैं,
और हम,
पहुंचे वहाँ!
हुई प्रणाम!
"हाँ बाबा?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"अब करना क्या है?" बोले वो,
"वो सिलाइच कर तो रहा है?" कहा उन्होंने,
"सिलाइच की गां* मार लो!" बोले शर्मा जी,
"क्या???" बोले बाबा,
"अरे सुनो?" बोले वो,
"सुनाओ?" बोले बाबा,
"क्यों नहीं लगाते देख?" बोले वो,
"देख नहीं लगेगी" बोले वो,
"क्यों?" पूछा,
"कहीं गड़बड़ हुई तो?" बोले वो,
"और ये जो अभियान?" बोले वो,
"अब क्या करूँ?" दिया जवाब!
कुछ न बोले शर्मा जी!
उठ गए!
गुस्सा किया!
परेशान!
और दीं अब बाबा को गालियां!
मैं हँसू!
वो गुस्से में!
"चुप!" बोला मैं,
"क्या चुप?" बोले वो,
"तो करें क्या?" पूछा इन,
"इस बाबा देव की गां* में डालो लेहि!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"साला या तो करे कमाल, नहीं तो वापसी!" बोले वो,
बात तो सही थी!
पैसा लग रहा था!
समय खराब!
हल, कुछ नहीं!
"तो?" पूछा मैंने,
"इस देव से कहिये आप?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"या तो लगा देख" बोले वो,
"या फिर?" पूछा मैंने,
"नहीं तो सींक आग पर सेंक!" बोले वो!
और मैं हंसा!
 

 

बारिश रुक गयी थी उस दिन! आराम भी कर लिया था, लेकिन अभी तक, कहाँ जाएँ और कहाँ नहीं, ये तय नहीं हो पाया था, समय के पहिये तेजी से घूम रहे थे, सबकी अपनी अपनी सोच थी, लेकिन रास्ता जैसे कहीं दूर था अभी! जैसे, हम आंधी में हों और आँखें बंद हों!
उस रोज, मैडम जॉजी की ऐड़ी में, एक काँटा घुस गया था, काँटा ऐसे घुसा था कि ऐड़ी को फाड़ता हुआ, ऐड़ी के ऊपर की तरफ से निकल आया था, खूनम-खान हो गया था उनका पाँव! ये एक नयी मुसीबत थी, पैदल उन पर चला नहीं जा रहा था और अकेले उनको छोड़ा नहीं जा सकता था, हालांकि, चोट आदि के लिए सारा इंतज़ाम करके लाये थे सिलाइच साहब, उन्होंने, पाँव को साफ़ किया, सैवलोन से, पट्टी कर दी थी, और ए.टी.एस का इंजेक्शन भी दे दिया था, कुछ दवाइयाँ भी दे दी थीं, और उसी दिन, मदन, जो चालक था, उसकी भी तबियत खराब हो गयी थी, वो बारिश में भीग गया था, अब उसको एक सौ एक-दो बकाहर था, कंपकंपी छूट रही थी उसकी, उसको भी दवाइयाँ दे दी गयी थीं वैसे तो, लेकिन ये मुसीबतें हैं थीं, क्या करते, जूझ रहे थे हम सभी! मैडम जॉजी तो कह रही थीं कि हम आगे निकल जाएँ, और तलाश ज़ारी रखें, मदन को भी वो दवा आदि देने को तैयार थीं, अब दिमाग पड़ा था कुन्द! क्या करें? वापिस चलें? अगर अबकी बार वापिस गए, तो पता नहीं कब आना हो? आना हो भी या नहीं, पता नहीं!
दोपहर की बात है, खाना आदि खाने के बाद, हम चले एक जगह के लिए,
मैडम जॉजी के साथ, मदन और एक सहायक छोड़ दिया गया था,
करीब तीन बजे, हम एक ऐसी जगह पहुंचे,
जहां, शायद स्वर्ग का जैसे कोई टुकड़ा गिरा हो!
हरे-भरे, बड़े बड़े वृक्ष!
फलदार वृक्ष!
बड़े बड़े आड़ू लगे थे वहाँ!
सरबती आड़ू! फूल ऐसे,
कि कहीं और न देखे थे हमने उस जंगल में!
मित्रगण!
सहसा कुछ कौंधा मस्तिष्क में!
महागाथा, उस महाभारत की याद आई!
महायुद्ध का आठवाँ दिन!
कौरव पक्षों के महारथी खड़े थे!
उन्हीं में से था अलायुध, अलम्बुष आदि आदि योद्धा!
उस दिन, दुर्योधन के कहने पर,
अलम्बुष से अपनी मित्रता की आन ली अलम्बुष से दुर्योधन ने!
अलम्बुष महा-मायावी असुर योद्धा था!
वर्तमान के, गढ़वाल के ऊपरी क्षेत्र के आसपास उसका राज्य था!
उसी दिन, अलम्बुष ने, एक महामाया की रचना की!
उसने एक उपवन बनाया! सुंदर उपवन!
उस उपवन में, स्वर्गिक सौंदर्य था!
किरात आदि का सौंदर्य समाया था,
तमाम आसुरिक शक्तियों का वास था!
ऐसी ऐसी वनस्पतियाँ थीं, जो मात्र स्वर्ग में ही उपलब्ध थीं!
ये माया, या उपवन, भूमि से ऊपर, आकाश में स्थित था!
इरावन या इरावान ने इसे ध्वस्त करने के लिए,
महायुद्ध लड़ा! वो भी नाग था, ऐसी विद्याओं का ज्ञाता था,
अर्जुन का पुत्र था! महाबलशाली था!
भयानक युद्ध हुआ!
इरावान के हाथों, मलयकेतु, शिक्राकेतु, प्रहाधिनि, सौन्वासुर, महारुक्षा, अधरहिं आदि महा-असुरों का वध हुआ!
तब, दुर्योधन ने, देखा अलम्बुष की तरफ!
अलम्बुष ने रखा अलायुध के कंधे पर हाथ!
इशारा समझ अलायुध, चल पड़ा!
भयानक युद्ध हुआ!
और मित्रगण!
उन दोनों का ऐसा युद्ध हुआ, ऐसा युद्ध हुआ,
कि आकाश में देवतागण भी देखने लग गए!
पूरी सेना यही युद्ध देखे जा रही थी!
अलायुध के भीषण बाणों से, उस उपवन के कुछ हिस्से कटे,
और धरा पर गिरने लगे!
पहला हिस्सा है, फूलों की घाटी!
ये आज के उत्तराखंड में और, और पश्चिमी हिमालय में पड़ती है!
यहां, ऐसी ऐसी वनस्पतियाँ हैं, फूल हैं,
जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलतीं!
दूसरा हिस्सा है, जिउज़हागौ घाटी, मिन पर्वत-शृंखला, तिब्बत!
इसको नौ गाँवों की घाटी कहा जाता है!
ये अत्यंत ही सुंदर और दर्शनीय स्थान है!
अब वर्ल्ड-हेरिटेज है!
तीसरा है, बंद-ए-अमीर झील, मीठे पानी की झील, अफ़ग़ानिस्तान!
ऐसे कुछ और भी स्थल हैं!
और अब, जहां हम खड़े थे, वो स्थान भी ऐसा ही था कुछ!
जैसे किसी स्वर्ग के टुकड़े को,
यहां स्थापित कर दिया गया हो!
जैसे आज भी कोई,
इस स्थल की देखभाल कर रहा हो!
"अनुपम!" बोले सिलाइच साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ऐसी सुंदरता नहीं देखी!" बोले वो,
"सच में!" बोले शर्मा जी,
"स्वर्ग है ये!" बोले वो,
"कोई संदेह नहीं!" बोला मैं
हम आगे चले,
रास्ते में, फूल ही फूल!
काले रंग के वो अनुपम फूल तो,
जैसे इस संसार के थे ही नहीं!
छह छह इंच के फूल रहे होंगे वो!
एक लाल रंग का बड़ा फूल था वहां,
नीले रंग की रेखाएं थीं उस पर,
और उस पौधे का तना, जैसे ताड़ के पेड़ जैसा था!
उसके इर्द-गिर्द,
बेल के रूप में,
ये पौधा चलता था!
फूल ऐसे सुंदर,
ऐसे प्यारे, कि बस जीवन भर उन्हें ही निहारते रहें!
"ये है सुंदरता!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम और आगे चले!
क्या पेड़!
क्या पौधे!
हमने आड़ू तोड़े!
खाए!
रसीले आड़ू!
रस टपकता था उनमे से!
ऐसी बड़े आड़ू थे वो!
ख़ुश्बू ऐसी,
कि भूख बढ़ जाए!
इंसान की पहुँच नहीं थी यहां शायद!
पत्थर भी,
लाल और सफेद रंग के थे!
ज़मीन पर, चादर बिछी थी फूलों की!
घास भी, गाढ़े हरे रंग की थी!
पक्षी ऐसे,
तितलियाँ ऐसीं,
बार्रे, भँवरे ऐसे,
कि प्रकृति ने जैसे यहां अपना,
सारा शबाब उड़ेल दिया हो!
चारों ओर,
बस वही रंगीली छटा!
वही भीनी भीनी सुगंध!
वही मदमस्त सी हवा!
वही, शांत और अलमस्त माहौल!
बड़ी बड़ी तितलियाँ,
उन फूलों पर बैठी थीं!
भँवरे, जैसे बावले हो गए थे!
कभी यहां, कभी वहाँ!
"आओ बैठें!" बोले वो,
और हम लोग बैठ गए!
अब उन्होंने फोटो खींचीं!
हर तरफ से!
पहाड़ों की,
छोटे झरनों की,
उन फूलों की,
उन पेड़ों की,
उन तितलियों की!
उस हरी घास की!
और खुले नीले आकाश की!
सबकुछ ऐसा,
जैसे हम सब,
स्वर्ग के उस टुकड़े में,
स्थानांतरित कर दिए गए हों!
दिल खुश!
मन खुश!
हम सभी खुश!
सिलाइच साहब तो, फोटो पर फोटो खींच रहे थे!
 

 

सिलाइच साहब ने तो कोने कोने से फोटो खींचे!
एक से एक नायाब फोटो!
दृश्य ही ऐसा सुंदर था वो!
पहाड़ियां लदी पड़ी थीं फूलों से!
लाल-पीले, काले, नीले, सफेद आदि आदि!
लेकिन!
अभी तक कोई सूत्र हाथ न लगा था!
अब क्या करें?
अब एक ही सहारा था,
कि जगह बदली जाए,
और कोई अन्य मार्ग चुना जाए!
और यही निर्धारित हुआ!
हम लौटे पीछे, सामान सारा बाँधा,
और चले वापिस वहां से!
रात फिर से एक खुली जगह में बितायी,
सुबह फिर से आगे बढ़े!
कोई ग्यारह बजे,
भरत को एक जाने पहचानी जगह दिखी!
वो आया जोश में!
और ले चला हमें एक तरफ!
वो बताता जाए, और हम चलते जाएँ!
उस रास्ते पर, रेत बहुत थी,
मिट्टी कम, रेत ज़्यादा!
पहिये स्लिप हो जाते थे गाड़ियों के,
खैर, सम्भल सम्भल के चले हम,
और मित्रगण!
भरत हमें उस गुफा पर ले आया जगह वो स्वयं आया था!
वो खूब जोश में था!
अब, एक एक चीज़ बता रहा था!
हम उतरे वहाँ!
वो गुफा देखीं!
कुल दो गुफा थीं वहां!
एक के बाहर, सरदा वाली बेलें लटकीं थीं!
अब हो चली थी पुष्टि, कि भरत, इसी गुफा में आया था!
हम सब हुए तैयार!
कहीं बाबा अभी बही अंदर ही न हों?
कहीं हमें देख, रुष्ट न हो जाएँ?
कहीं कोई अमानत में खयानत न हो जाए?
कहीं कोई अनहोनी न हो जाए?
ऐसी आशंकाएं मन में घर बनाये बैठीं थीं!
हम सब तैयार थे!
हाथ-मुंह धोये,
कुल्ला-दातुन किया,
ईष्ट-स्मरण किया!
और हम सब, अब अंदर चले!
भरत हमें अंदर ले जा रहा था!
कम से कम बीस मीटर हम अंदर गए,
पानी टपकने की आवाज़ आई!
ऐसा ही बताया था भरत ने!
दिल जहां बल्लियों उछल रहा था,
वहीँ आशंकाओं के मारे, फुरफुरी भी छूट जाती थी!
और इस तरह!
भरत हमें उधर ले ही आया!
वहाँ तीन चबूतरे बने थे!
तीनों ही कम से कम आठ गुणा आठ फ़ीट के थे!
सात सात फ़ीट ऊंचे!
ऊपर चढ़ने के लिए,
दो बड़े पत्थर रखे थे,
उनके सहारे, ऊपर चढ़ा जा सकता था!
हमारे लिए तो, ढाई फ़ीट की एक सीढ़ी बनती वो!
वहां, जंगली घास उगी थी,
जंगली पौधे उगे थे,
पीले रंग के फूल उगे थे!
दीवारों पर,
लाल लाल रंग की टिकलियाँ लग थीं!
बाएं हाथ पर,
एक झरना बह रहा था,
झरना क्या, पत्थरों से, पानी चू रहा था,
वो पानी, नीचे एक कुन्ड में पड़ रहा था,
ये गुफा का अंत था,
और वहां कोई भी नहीं था!
वे बाबा जा चुके थे वहाँ से!
निराशा हाथ लगी!
लेकिन एक उम्मीद भी बंधी!
भरत ने,
एक एक बात बताई हमें!
हमने फोटो लीं वहां की,
एक एक कोने की,
जांच की,
वहाँ कोई नहीं था!
आज रात, यहीं काटनी थी,
उसके बाद, कहीं आगे बढ़ते!
कौन सा रास्ता सुगम था,
ये कल ही देखते!
भरत सरदा तोड़ लाया था, सभी ने खाया,
ऐसा मीठा कि,
गुड के जैसा!
शाम घिरी,
रात हुई!
भोजन बनाया गया,
भोजन खाया,
लगाया बिस्तर,
जलाया अलाव!
और देर रात तक, बातें करने के बाद,
सो गए सभी!
एक बात का चैन था सभी को,
कि आखिर वो गुफा ढूंढ ली थी हमने!
लगभग पूरा जंगल छान मारा था हमने तो!
जॉजी मैडम अब ठीक थीं,
मदन भी ठीक था, हालांकि कमज़ोरी थी उसे,
फिर भी, चल-फिर रहा था वो, दवाइयाँ ज़ारी थीं उसकी,
अगले दिन,
स्नान किया सभी ने!
भोजन भी कर लिया था,
अब रास्ते की जांच की गयी,
यहां से दो रास्ते जाते थे,
एक सामने दूर,
सघन जंगल में,
और एक ठीक ऊंची पहाड़ी पर,
सिलाइच साहब ने, अपनी जर्मन दूरबीन निकले,
और बनाये कुछ चित्र कागज़ पर,
चित्र देख मुझे बड़ी हैरत हुई!
चित्र, जीवंत थे!
ये कला भी उनके पास थी!
सिलाइच साहब ने,
जीवन के पल पल को,
सीखने में ही लगा दिया था, प्रतीत होता था!
स्वभाव से मृदु,
स्नेहशील,
विस्तृत मानसिकता वाले,
और ज्ञानवान हैं सिलाइच साहब!
कुछ देर ही बातें करने से उनसे,
आप जान जाते हैं उनकी विद्वता!
तो उन्होंने चित्र बनाये,
दूर पहाड़ी पर,
कुछ काले से धब्बे दीखते थे,
सिलाइच साहब के अनुसार,
ये गुफाओं के मुहाने हो सकते थे!
पहाड़ी करीब तीन किलोमीटर दूर थी,
और मात्र चढ़ कर ही,
अवलोकन किया जा सकता था उनका!
कम से कम, पूरा एक दिन लग जाता,
आज का आधा दिन तो बीत गया था,
अब कल ही कुछ हो सकता था!
उस शाम, सिलाइच साहब के साथ, मदिरा का आनंद लिया,
सरदा खाया, जंगली फल खाए!
भोजन किया, और फन्ना के सोये हम सभी फिर!
गुफा सुरक्षित थी, और किसी भी प्रकार का भय न था!
पानी पर्याप्त मात्र में था ही, वो भी शीतल और मीठा!
 

 

तो रात को ही ये निर्धारित हो गया था कि,
मैडम जॉजी, मदन और एक सहायक, वहीँ नीचे रहेंगे,
शेष हम, कल पहाड़ी के लिए रवाना होंगे,
संध्या तक, वापिस आ जाना था, चाहे कुछ भी हो,
यही हुआ,
सुबह चाय-नाश्ता कर, भोजन बंधवा,
हम चल दिए अब ऊपर के लिए,
रास्ता कष्टकारी होगा, ये सभी को पता था,
खैर, अब कष्टकारी हो, या नहीं, जाना तो था ही!
और हम, लेकर डमरू वाले का नाम, चल दिए पहाड़ी की तरफ!
मौसम बढ़िया था, पानी भर ही रखा था,
रास्ते में, खट्टे-मीठे बेर मिल जाते थे,
वहीँ खाते, थकावट हटानी हो तो आप विटामिन सी का प्रयोग करें,
ये शीघ्र ही घुलता है और स्फूर्ति देता है!
शर्मा जी ने, अपना एक छोटा सा बैग भर लिया था उनसे!
खाते जाते, और बढ़ते जाते!
कम से कम आधा किलोमीटर चढ़ने के बाद,
सांस फूलने लगी हमारी तो!
एक जगह आराम किया, पानी पिया,
सिलाइच साहब ने, दूरबीन से देखा,
दूरी का आंकलन किया, और फिर से चले!
वहां रास्ते में, रौन्ता घास लगी थी,
मैं इसे रौन्ता घास के नाम से ही जानता हूँ,
इसकी जड़ में, एक प्याज हुआ करती है, पीले से रंग की,
ये बेहद ज़बरदस्त बूटी है!
प्याज आकार में, चवन्नी से छोटी लेकिन,
गठीली हुआ करती है!
इसका मीठे पानी के साथ सेवन करने से,
वीर्य गाढ़ा और पुष्ट हुआ करता है!
पुरुष, माह भर सेवन करें, और गर्भ-स्थापन के लिए,
पूर्णिमा को संसर्ग करे, तो निश्चित रूप से जुड़वां संतान की प्राप्ति होती है!
अमावस को संसर्ग करे, तो समझिए, लक्ष्मी और वीणाधारिणि,
की प्राप्ति हुआ करती है!
अष्टमी को संसर्ग करे, तो विदुर समान नीतिपूर्ण का पिता बने,
पंचमी को करे, तो अप्सरा समान सौभाग्यशाली कन्या का पिता बने!
मैं क्षमा चाहूंगा मित्रगण!
मैं स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करता!
परन्तु, आपको, मात्र वही बताऊंगा जो सीखा, जाना!
इस रौन्ता घास को, जब कन्या का विवाह पक्का हो जाए,
तो चावल के मांड के साथ, नित्य रात्रि में सेवन करे कन्या,
इसमें श्री चन्द्र देव का का महामूल मंत्र है जपने को,
मंत्र कुमार साहब से ले लें,
मुझे संदेश न करें कृपा करके!
सत्य कहता हूँ!
कन्या, राज करेगी! उत्तम संतान प्रदान करेगी!
अपनी ससुराल में, देवी भांति, पूज्य होगी!
रौन्ता घास, माँ वृंदा के अश्रु हैं!
रौन्ता घास की पांच प्याज,
हरे रंग के सूती कपड़े में बाँध कर,
घर की चौखट पर टांग दें,
घर में चोरी न होगी,
सेंध न लगेगी, बरकत बनी रहेगी!
इस घास के, ग्यारह पल्ल्व ले कर,
माँ मनसा को चढ़ा दें,
घर में, रोग न रहेगा,
सदा मानसिक शान्ति रहेगी, क्लेश समाप्त हो जाएगा!
धन चोरी हुआ हो,
कोई सदस्य चला गया हो,
स्वर्ण गुम गया हो,
बने-बनाये काम बिगड़ रहे हों,
शरीर में रोग ने जड़ बना ली हो,
झूठा मुक़द्दमा दायर हुआ हो,
तो, इस रौन्ता घास को,
शनिवार वाले दिन, अपने हाथों से, किसी भी बकरी को खिलाएं!
सारे कार्य, घंटों में सिद्ध होंगे!
व्यवसाय ठप्प हो,
सम्बन्धियों से बिगाड़खाता हो,
ससुराल में, कन्या दुखी रहे,
अथवा,
विवाहोपरांत संतान-सुख न प्राप्त हो,
पितृ-दोष हो,
राहू, शनि अथवा सूर्य दोष हो,
पत्री में,
चांडाल-योग हो,
अल्पायु-योग हो,
व्यर्थ की समस्याएं हों,
हृदय-संबंधी रोग हों,
वीर्य पुष्ट न हो,
स्त्री-रज में समस्या हो,
या,
स्तनों में, स्त्री के, पूर्ण दूध न उतरे,
या,
मवेशियों में दुग्ध-समस्या हो,
शरीर जीर्ण हो,
जवानी में भी,
बुढ़ापा झलके,
जैसे चालीस वर्ष में, साठ का सा एहसास हो,
या साठ में अस्सी का,
शरीर में कांति न हो,
शरीर बोझिल लगे,
तो निम्न प्रयोग करें!
मात्र तीन दिवस में लाभ होगा!
किसी भी, हरे-भरे बड़े से, बीहड़ में लगे,
एक मदार के पौधे को,
मदार, अर्थात आक या आका,
न्यौत आइये, किस दिन?
रविवार वाले दिन!
अब शब्द मात्र ये हों, स्पष्ट रूप से याद कर लें!
"हे ज्येष्ठ मदार! इस कनिष्ठ एवं पंगु का न्यौता स्वीकार करें!"
बस, एक एक शब्द, ऐसा ही हो!
अब आपने, न्यौतना कैसे है?
एक गिलास दूध!
दूध वही, जिसका आप सेवन करते हों,
न कर सकें, तो एक गिलास पानी में, एक चम्मच दूध डाल दें!
घर की ही, एक चुटकी हल्दी इसमें डालें,
एक चुटकी बूरा, या चीनी, या गुड,
गिलास यदि पीतल का हो, तो क्या कहने!
नहीं तो, सकोरा ले लें मिट्टी का!
अब, आप मदार के, नौ पत्तों को माथे से लगाएं,
जड़ को, इक्कीस बार छुएं, हाथ माथे पर लगाएं,
स्मरण रहे, जूते-चप्पल उतार दें!
फिर वो वाक्य बोलें,
और दूध, जड़ में चढ़ा दें!
लौट आएं वापिस,
पीछे न देखें!
तीन दिन बाद!
दो पूरी,
दो सब्जी,
थोड़ा सा दही,
थोड़ा सा मीठा,
यथासम्भव,
नहीं तो चीनी भी चलेगी,
एक काला कपड़ा,
एक रुमाल भर का,
सूती ही हो, सूती ही चलता है,
काले तिल, एक चुटकी,
साबुत मूंग डाल, एक चुटकी,
एक पूर्ण जायफल,
एक साबुत नजरिया, पानी वाला,
ले जाएँ!
फिर ये शब्द बोलें,
"हे ज्येष्ठ! स्वीकार करें!"
अब सारा सामान, उनकी जड़ में रख दें!
और अपना ध्येय, उन्हें सुना दें!
उसके पश्चात,
नौ बार नमन करें!
फिर, काला कपडा, जड़ में बाँध दें!
ये हैं हमारे चाकर वीर! कार्य आपका होवे ही होवे!

   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम एक तरह से उन पहाड़ियों पर पहुँच चुके थे, यहां तो जैसे वन-औषधियों की भरमार थी! ऐसी ऐसी औषधियां थीं यहां कि वे सब संजीवनी कहने लायक थीं! अपस्मार से लेकर नवजीवन-संचनि की अद्भुत औषधियां थीं यहां! अनन्तमूल, अन्धाहुली अर्कपुष्पी समान औषधियां लदी पड़ी थीं यहां, बेलों के रूप में, झाड़ियों के रूप में! शहरों में ऐसी औषधियां मिलती तो हैं, परन्तु काफी महंगी और पुरानी होती हैं, औषधि यदि ताज़ा हो तो मृत-संजीवनी की तरह से कार्य करती है! मैंने कई फोटो भी लिए थे उनके, कुछ एक तोड़ कर रख ली थीं! ये बहुत काम आने वाली थीं! मित्रगण! एक सादा सी औषधि है, भारत में हर जगह मिलती है, खरपतवार भी कह सकते हैं इसे आप! ये है भांग! इसके बीज अत्यंत गुणकारी हैं, यदि किसी व्यक्ति को, थकान, आलस्य अथवा स्मृति-दोष हो तो इसके बीज एक चौथाई ग्राम का सेवन करें गर्म दूध के साथ, एक माह तक, रोग दूर होगा, स्त्री-प्रसंग से पहले एक चौथाई बीज इसके, देसी पान के पत्ते में रख कर चबाएं, वीर्य-स्तम्भन होगा, धातु-विकार दूर होगा! गर्भ न ठहरता हो तो, इसके एक चौथाई बीज, भून कर, शुद्ध शहद में मिला कर स्त्री को रजस्वला-समय चटायें, तदोपरांत, गर्भ अवश्य ही धारण करेगी स्त्री! घाव न भर रहा हो, शरीर पर, चरम रोग हो, एक्ज़ीमा, खारिश, खुजली, दाद हो तो, इसके पत्तों को घिस कर, अरण्ड के तेल में मिलाकर, लेप करें, निश्चित रूप से लाभ होगा, सफेद दाग में, मछली के तेल में, ये पत्ते पीसें और लेप करें, सौ प्रतिशत लाभ होगा! दाग पुनः नहीं आएंगे! एड़ियां फटती हों तो, इसके पत्तों का अर्क, नारियल के तेल में मिलाकर, लेप करें, लाभ होगा, सरसों के तेल में, सौ ग्राम तेल में, बीस ग्राम, पत्ते मिलाएं, सेंधा नमक एक चुटकी, कपूर दो ग्राम, मिला लें, और छान ले, पत्तों का रक निकला लें, सर पर ये तेल लगाएं, रूसी नहीं होगी, बाल झड़ेंगे नहीं, गंजापन ठीक होगा और बाल काले रहेंगे! तो ऐसी ऐसी औषधियां भरी पड़ी हैं इस धरा पर! पर अफ़सोस! हमारे पास धरा से जुड़ने का अब समय ही नहीं!
खैर,
हम एक जगह आ रुके थे,
सामान रखा, पानी पिया और आराम भी किया,
कुछ एक गुफाएं भी देखीं थीं, कुछ छोटी, और कुछ बड़ीं!
उसके बाद, हम एक गुफा में घुसे,
कंकड़-पत्थर भरे पड़े थे उसमे,
पानी की सीलन की बदबू आ रही थी, दीवार पर,
कीड़े रेंग रहे थे बड़े बड़े!
सफेद और पीले!
कुछ बिच्छू भी थे वहाँ, अत्यंत ही ज़हरीले!
काट लें, तो शरीर से ऑक्सीजन का स्तर ही कम कर दें!
ऐसी विषैले बिच्छू!
ऐसा ही एक बिच्छू होता है, अक्सर ऐसी जगह ही मिलता है,
इसको पहाड़ी लोग, अहंग बोलते हैं,
ये दुरंगा होता है, पीला और काला,
इसका विष, विषहरण में काम आता है!
पील के नरम पत्तों के संग इसके विष को,
विष-दंश के ऊपर ढक दिया जाता है, पत्ता विष को सोख लेता है!
ज़हरीले बिच्छू की पहचान है कि,
जिस बिच्छू के हाथ और पूंछ, जितने मोटे होंगे,
वो उतना ही ज़हरीला होगा! कभी कभार, पूंछ मोटी होती है,
वो भी ज़हरीला हुआ करता है! कुछ ही घंटों में, हृदयाघात हो जाया करता है!
खैर, हम आगे बढ़े,
आगे पानी था गुफा में, शायद कहीं से रिस रहा था,
"रुको?" बोले सिलाइच साहब,
हम रुक गए,
"आगे रास्ता नहीं है" बोले वो,
मैंने टोर्च मारी, रास्ता नहीं था वहाँ,
"फिर?" बोला मैं,
"बाहर चलो" बोले वो,
और हम बाहर चले फिर,
उन्होंने आसपास देखा,
ऊपर एक जगह, एक और गुफा थी,
"वहां चलो" बोले वो,
"चलिए" कहा मैंने,
और हम अब ऊपर के लिए चले,
पत्थर पकड़ पकड़, चढ़े ऊपर,
ये गुफा तो बहुत बड़ी थी!
गुफा में जगह जगह छेद बने थे,
भरपूर रौशनी थी उसमे!
रास्ता भी साफ़ था, बस दीवारों पर, जंगली पौधे लगे थे,
"आओ" बोले वो,
और हम चले उनके पीछे,
चलते रहे, चलते रहे,
एक जगह हुआ अँधेरा,
टोर्च जलाईं,
सामने देखा,
देखा तो होश उड़े!
सामने दो त्रिशूल गड़े थे!
बड़े बड़े!
शायद लोहे के थे वो,
अब काले पड़े थे!
सिलाइच साहब की बांछें खिलीं!
हमारी आँखें फटीं!
"आओ!" बोले वो जोश से,
और हम चल पड़े!
ये एक बड़ा सा चबूतरा था!
कोई छह गुणा छह का!
चौकोर सा!
उसमे दो गड्ढे बने थे,
मानो कि जैसे वो अलख के लिए बने हों!
अब त्रिशूल देखे गौर से!
ये लोहे के ही थे!
जंग भी नहीं लगा था उन पर!
दोनों ही त्रिशूल, करीब छह फ़ीट के रहे होंगे!
पत्थर में, छेद किये गए थे,
उन्हीं में ये रखे गए थे!
आसपास देखा,
और कुछ न था!
न कोई आसन, न कोई सामान,
और न कुछ ऐसा, जिस से पता चले कि कोई,
अभी भी वास करता है यहां,
सिलाइच साहब ने, उस चबूतरे पर पड़ी मिट्टी को,
पेन से खुरचा, करीब तीन इंच मोटी मिट्टी थी वो,
"यहां कोई नहीं है अब" बोले वो,
स्पष्ट भी था,
कोई होता वहाँ अगर,
तो मिट्टी इतनी न जमी होती उस पर!
"जो भी था, अब चला गया है" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आसपास देखो ज़रा" बोले वो,
अब हम अलग अलग हुए,
टोर्च की रौशनी मारते हुए,
आगे चल दिए,
एक जगह दीवार में, एक कोटर दिखा,
मैंने टोर्च मारी उसमे,
तो उसमे कुछ रखा दिखा,
आगे गया मैं,
गौर से देखा,
ये मिट्टी का एक बर्तन था,
बेले जैसा बर्तन,
मैंने उठाया उसे,
धूल में नहाया हुआ था वो!
उसको साफ़ किया,
ये कच्ची मिट्टी का लेकिन पका हुआ बर्तन था!
करीब बारह इंच व्यास का!
"भोजन पात्र है शायद" बोले शर्मा जी,
"हाँ, वही है" कहा मैंने,
"पुराना भी लगता है" बोले वो,
"हाँ, ये तो है" बोला मैं,
तभी सिलाइच साहब आये!
बर्तन देखा, हुए चकित!
लिया मेरे हाथों से बर्तन! लगाया माथे अपने!
 

 

उन्होंने माथे से लगाया था उस बर्तन को! हमारा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! वे बेहद प्रसन्न प्रतीत होते थे! वे बार बार उसको उलट-पलट के देखते! और फिर वो बर्तन ले, उन त्रिशूलों की तरफ आये! हम भी चले!
रख दिया वो बर्तन वहाँ पर उन्होंने!
हाथ जोड़े उन त्रिशूलों के और उस बर्तन के!
"जानते हो?" बोले वो,
"क्या जी?" पूछा मैंने,
"सोचो, ये किसी न किसी का तो होगा ही?'' बोले वो,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
"और वे अब यहां नहीं हैं?" बोले वो,
"हाँ, नहीं हैं?" कहा मैंने,
"कहाँ गए?" बोले वो,
"अब कैसे जानें?" कहा मैंने,
"आप क्या कह सकते हो?' पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"की वो कहीं आगे चले गए होंगे?" बोले वो,
मैंने सोचा, विचारा!
ये कैसी पहेली सी बूझ रहे हैं ये?
कैसा अजीब सा प्रसन्न है?
क्या कहना चाहते हैं सिलाइच साहब?
"हो भी सकता है!" कहा मैंने,
"और अगर मैं कहूँ कि............." बोले वो, और रुके,
"क्या?" मैंने हैरत से पूछा,
"यही कि वे अब.........." बोले वो,
हमें देखा,
मुस्कुराये, हाथ जोड़े,
त्रिशूलों को देखा!
"क्या?" पूछा मैंने,
"यही कि उन्होंने अब सिद्धत्व प्राप्त कर लिया है!" बोले वो,
पाँव तले ज़मीन खिसकी!
ठंडी हवा ने बदन को छुआ!
बदन की गर्मी जैसे सोख ली उस हवा ने!
लगा, सागर की एक नगण्य सी लहर पर खड़े हैं हम!
क्या बात कही थी!
क्या आंकलन था!
क्या निर्णय था!
ये सम्भव भी था!
"नहीं हो सकता?" बोले वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
और तब जोड़े हाथ उस स्थान के!
ह एक सिद्ध-स्थान में खड़े थे!
वे महापुरुष, महात्मा, जो यहां थे,
अब सिद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं,
सोच कर ही, रोम रोम पुलकित हो उठा!
"आओ बाहर!" बोले वो,
हम चल पड़े बाहर उनके पीछे!
"हम इस स्थान के लायक नहीं!" बोले वो,
सत्य!
सत्य ही तो कहा था उन्होंने!
कहाँ एक सिद्ध-स्थान और कहाँ हम निःकृष्ट मानव!
हम आ गए बाहर!
पुनः हाथ जोड़े उस स्थान के!
"आओ, आगे चलें!" बोले वो,
और हम आगे चल पड़े!
संध्या के पांच का समय हो चला था!
एक जगह रुके,
आराम किया, पानी पिया!
उस स्थान के विषय में बातें कीं!
करीब आधे घंटे के बाद, हम फिर से आगे चले!
यहां ढलान थी!
ढलान उतरे! आगे चले!
नीचे उतरे, तो एक अजीब सा स्थान आया!
कुल चौदह गुफाएं थीं वहां!
पेड़ लगे थे बड़े बड़े!
स्थान साफ़-सुथरा था!
रोक लिया सिलाइच साहब ने!
"रुको!" बोले वो,
सब रुके!
अब शाम हो चली थी!
"अब नहीं, कल आते हैं!" बोले वो,
ये सही भी था!
गुफाएं, एक दो नहीं, चौदह थीं वहां!
मानव-निर्मित गुफाएं थीं!
स्पष्ट दीखता था ये सब!
जैसे कोई मठ हो!
जैसे कोई, साधना-स्थल रहा हो!
सम्भव था कि,
कोई अब भी हो वहां!
अब शाम हो चली थीं,
कुछ ही देर में, शाम का घूंघट ढक जाता,
और स्याह रात की आमद होती!
हम वापिस चल पड़े!
वही गुफा पड़ी रास्ते में!
उसको प्रणाम किया!
नीचे उतरे!
और फिर वापिस चले!
हमें तीन घंटे लगे उतरने में!
पाँव दर्द करने लगे थे!
पिंडलियाँ कस गयीं थीं!
गर्मी लग रही थी बहुत!
थोड़ा-बहुत पानी था, लेकिन स्नान नहीं किया जा सकता था,
अतः, कपड़े से ही बदन गीला कर, स्वच्छ किया!
भोजन बनाने की तैयारी हुई!
सिलाइच साहब के साथ, जाम टकराये!
भोजन किया,
और फिर आराम से जा लेटे!
सिलाइच साहब से बातें होती रहीं हमारी!
उस बर्तन के बारे में,
उन त्रिशूलों के बारे में,
उस स्थान के बारे में,
और उन गुफाओं के बारे में!
देर रात,
हम सोये,
करीब रात में, दो बजे,
बाबा देव नाथ ने उठाया हमें,
हम उठे,
वे हैरत में पड़े थे!
हम एक झटके से उठ, चले उनके साथ!
सिलाइच साहब खड़े थे वहां,
मैडम जॉजी भी साथ थीं!
वे सामने देख रहे थे!
हमने भी देखा सामने!
देखा, तो चौंके!
उस स्थान पर,
पहाड़ी से पीछे,
तेज प्रकाश की आभा निकल रही थी!
पीला प्रकाश!
जैसे, कोई बड़ी सी,
हैलोजन जल रही हो वहां!
"ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने,
"दिव्यता!" बोले सिलाइच साहब!
सच में!
वो दिव्य प्रकाश ही था!
वो प्रकाश शायद,
उन्हीं गुफाओं में से आ रहा था!
उन्हीं, चौदह गुफाओं में से!
सभी अचम्भित थे!
सभी हैरत में थे!
सभी भौंचक्के थे!
और,
हम भी अछूते न थे!
हमने ऐसा दृश्य पहले कभी न देखा था!
दूर, जंगल में,
उस बियाबान में,
ऐसा दिव्य प्रकाश!
इसका अर्थ?
इसका अर्थ ये कि,
वो स्थान अभी भी जीवित है!
वहाँ अवश्य ही,
कोई दिव्य तपस्वी हैं!
मन में, आदर-सरिता बह निकली!
झट से, मैंने तो,
पूर्वी क्षितिज को देखा,
क्या पता, आज कोई रश्मि, पहले आन पहुंची हो वहां!
जगाने, महाराज सूर्य को!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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बड़ा ही अद्भुत नज़ारा था वो! सभी की नींद उड़ चली थी!
"ये वही गुफाएं हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही हैं!" बोले बाबा देव नाथ!
"फिर तो हम सफल हुए!" कहा मैंने,
"उम्मीद तो यही है!" बोले बाबा,
चलो! इतने दिनों की मेहनत रंग ले आई थी!
अब तो बस, कल का दिन आये, और हम चलें वहां!
दर्शन हो जाएँ ऐसे किसी महात्मा के, तो धन्य हों सब!
और सहसा ही, वो प्रकाश लुप्त हो गया!
गहरा अन्धकार छा गया एक ही क्षण में!
सभी अचम्भित हो उठे!
बहुत प्रतीक्षा की, लेकिन फिर प्रकाशोदय नहीं हुआ!
चार बजे करीब, हम फिर से सो गए, अब दिन होने में, ढाई-तीन घंटे थे,
इतने में ही नींद पूरी कर लेनी थी!
नहीं तो ऊंघते रहते अगले दिन सभी के सभी!
वैसे एक बात की तसल्ली थी,
कि अब हम अधिक दूर नहीं थे!
लक्ष्य सामने था, बस ढूंढने की देर थी!
तो मित्रगण!
हम सुबह आठ बजे उठे,
दातुन, कुल्लाड़ी किया, निवृत हुए,
और फिर चाय पी, चाय के संग, बिस्कुट लिए,
तब तक खिचड़ी बन चुकी थी,
थोड़ी देर बाद ही, खिचड़ी भी खा ली,
और अपना साजो-सामान लेकर, हम चल पड़े वापिस!
वापिस, उसी पहाड़ी की तरफ!
ऊपर चढ़े,
आज तो जोश से भरे थे सब, देर न लगी, जा पहुंचे,
उस गुफा तक, प्रणाम किया उसे,
और फिर चले ढलान की तरफ!
पर?
ये क्या?
वहाँ तो आज कोई ढलान ही न थी?
ये क्या माया?
ये कैसा रहस्य?
वो ढलान कहाँ गयी?
वो रास्ता?
वो कहाँ गया?
हम सही जगह तो थे?
आसपास देखा,
रास्ता तो सही था, फिर?
वो ढलान कहाँ गयी?
यहां तो अब सीधी दीवार सी थी,
करीब सौ फ़ीट की!
सभी हैरान!
सिलाइच साहब ने, निकाली दूरबीन,
देखा आसपास,
चारों तरफ,
कहीं ढलान नहीं!
वो गुफाएं तो वहीँ थीं,
लेकिन वो ढलान जैसे रातोंरात, गायब हो गयी थी!
"वापिस चलो, वहाँ से चलते हैं" बोले वो, इशारा करके,
वो वहाँ से दायें में एक रास्ता था,
पेड़-पौधे और जंगली झाड़ लगे थे वहाँ,
बस वही एक रास्ता था,
करीब किलोमीटर लम्बा, एक किलोमीटर लम्बा!
क्या करते?
जाना ही था!
लेकिन?
रातोंरात, ये हुआ क्या?
सब हैरान थे!
सिलाइच साहब की पेशानी पर पसीने छलछला गए थे!
पसीने तो हमारी कनपटियों पर भी रेंगने लगे थे!
हम बढ़ चले उस रास्ते के लिए,
यहां जंगल छिछला सा था,
रास्ता उबड़-खाबड़ था,
कहीं पत्थर, कहीं गड्ढे,
करते रहे पार,
लेकिन उस रास्ते ने, जान सुखा दी हमारी तो!
आखिर में, कोई तीन घंटे के बाद,
हम वहाँ आ पहुंचे थे!
मारे थकावट के, टांगें कांपने लगी थीं!
बैठ गए एक जगह!
पानी पिया, कमर सीधी की सभी ने पानी,
पिंडलियों की मालिश की,
पाँव भभक रहे थे, जूते-जुराब से बाहर निकाल लिए!
करीब एक घंटा आराम किया हमने!
और फिर बढ़े आगे!
हम जहां आये थे,
वहाँ वो गुफाएं,
नहीं थीं!
यहां तो जंगल ही जंगल था!
देखा आसपास!
एक जगह, एक गड्ढा दिखा,
पानी भरा था उसमे,
फूल खिले थे आसपास,
वहीँ चले,
पानी सड़ा हुआ था,
कूड़ा-करकट भरा पड़ा था उसमे,
पत्ते आदि सड़ रहे थे उसमे,
दुर्गन्ध उठ रही थी,
वहां से आगे चले,
जैसे ही आगे आये,
एक फुलवारी सी दिखी!
फूल ही फूल!
ताज़ा हवा!
हरे-भरे पेड़!
हरी-हरी घास!
मन प्रसन्न हो उठा!
सामने एक पठार सा था,
उस पर चढ़े, सामने देखा,
तो गुफाएं दिखाई दीं!
"वो! वहाँ!" बोले बाबा!
"चलो!" बोला मैं,
और हम चल पड़े,
अब रास्ता आरामदेह हुआ,
बस, मिट्टी ही थी वहाँ, कोई कंकड़-पत्थर नहीं!
और इस तरह,
हम उस जगह पहुँच गए!
वहां गुफाएं तो थीं,
लेकिन सब की सब,
मिट्टी से ढकी हुईं!
जैसे लीप कर बंद कर दी गयी हों!
मात्र एक ही खुली थी!
"ये क्या?" बोले बाबा,
"ये लीप दी गयी हैं!" कहा मैंने,
"आखिर किसलिए?" बोले वो,
"शायद सुरक्षा के लिए?" कहा मैंने,
"जानवरों से?" बोले वो,
"सम्भव है" कहा मैंने,
"उसमे चलें?" बोले वो,
उसी, खुली गुफा में,
"चलो" बोला मैं,
सिलाइच साहब बढ़ चले आगे,
हम उनके संग चले,
"रुको" बोले वो,
सभी रुक गए,
उसी गुफा के सामने,
गुफा का द्वार, करीब छह फ़ीट चौड़ा और आठ फ़ीट ऊंचा था,
लेकिन!
उस गुफा के द्वार पर,
दो नाग चिन्ह बने थे!
मिट्टी से उभरे हुए!
कुंडली मारे हुए!
द्वार के दायें और बाएं!
ऊपर, एक त्रिशूल बना था!
अनगढ़ सा, मिट्टी का, उभरा हुआ,
"ये कोई सांकेतिक चिन्ह है!" बोले सिलाइच साहब!
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"कोई चेतावनी तो नहीं?" बोले वो,
"इन्हें देख कर, ऐसा तो नहीं लगता?" बोले बाबा,
"तो चलते हैं अंदर, मेरी टोर्च कहाँ है?" बोले वो,
 

 

टोर्च दी गयी सिलाइच साहब को, जर्मन टोर्च थी, दूधिया प्रकाश वाली, काफी बड़ी और बेहद ही तेज रौशनी वाली! वही ली उन्होंने और उन्होंने उसको ऑन किया, प्रकाश कौंधा, और उन्होंने अंदर प्रवेश किया, अंदर जैसे ही प्रवेश किया, सामने एक दीवार मिली, ये दीवार करीब दस फ़ीट दूर थी, उसके दायें और बाएं, रास्ता था, एक गलियारा सा, आसपास, ऊपर नीचे, दायें-बाएं रौशनी डाली, दीवारें लेपी हुईं सी लगीं, जैसे मिट्टी से लेपी हुईं हों, धुंए जैसा रंग था उन दीवारों का, उन्होंने दाए देखा, फिर बाएं, और फिर बाएं चले, वहाँ रास्ता साफ़ और लम्बा था, हम भी चल दिए, नीचे ज़मीन पर, मिट्टी पड़ी थी, जूतों के कारण, धूल उठने लगी थी, खांसी उठने लगी थी, रुमाल लगाने पड़े नाक और मुंह पर, आँखें साफ़ कर लेते हम बार बार, अंदर काफी गर्मी थी, ऊपरी छत बुरी तरह से तपी हुई थी, यही कारण था, एक जगह रास्ते में रुके हम, पानी पिया, दीवारों को छुआ और फिर आगे चले, आगे चले तो रास्ता बाएं मुड़ा, हम बाएं चले, और जब बाएं रास्ता खत्म हुआ, तो सामने एक छोटा सा प्रांगण दिखा, ये एक खुला सा स्थान था, करीब दस गुणा पंद्रह फ़ीट का, दीवारें साफ़ थीं, हाँ, वहाँ चार बड़े से गोल चबूतरे बने थे, चबूतरों पर चढ़ने के लिए, दो सीढ़ियां बनी थीं, सीढ़ियां पत्थरों से बनी थीं, कुल तीन फ़ीट रहा होगा उनका कुल व्यास, सिलाइच साहब रुक गए, हम सब रुके,
"ये तो चबूतरे हैं?" बोले वो,
"हाँ जी" बोले बाबा देव नाथ,
"और कोई रास्ता नहीं है यहां" बोले वो,
"उधर देखो?" बोले बाबा,
रौशनी डाली उधर,
उधर, कुछ मृद-भांड से रखे थे,
"ये क्या हैं?' बोले वो,
और चले आगे,
हम भी चले,
कुल तीन भांड थे वहाँ पर,
अधिक बड़े नहीं थे, छोटे ही थे,
साधारण से भांड जैसे ही,
नीचे बैठे वो, मैं भी बैठा,
भांडों के मुख खुले थे,
उनमे रौशनी डाली,
अंदर झाँका, खाली थे, बस मिट्टी जमी थी उन पर,
"सारे खाली हैं" बोले वो,
उठे हम, आसपास देखा,
"कुछ नहीं है, पीछे चलो" बोले वो,
अब हम पीछे चले, सिलाइच साहब को रास्ता दिया,
वे आगे हुए, और चले आगे,
फिर से गुफा का द्वार आया, और अब उसको पार कर,
हम फिर से आगे चले,
ये रास्ता लम्बा था पहले वाले से,
हम चलते रहे, चलते रहे,
और फिर से एक प्रांगण जैसे क्षेत्र में आ गए,
यहां भी ठीक वैसे ही चबूतरे बने थे,
तीन मृद-भांड रखे थे वहां भी,
उनमे भी झाँका, कुछ नहीं, खाली ही थे,
हाँ, उस प्रांगण से एक रास्ता जा रहा था आगे के लिए,
हम आगे चले, उस रास्ते में आये,
रास्ता संकरा था काफी, जैसे ही आये,
प्रकाश झांकता दिखा,
ऊपर एक छेद था, यहीं से प्रकाश आ रहा था अंदर,
जहां आ रहा था, वहाँ एक गड्ढा बना था,
उस गड्ढे को देखा तो,
वो पत्थर से बना था, गौर से देखा,
तो उसमे एक नाली भी बनी थी,
नाली अब मिट्टी से ढकी थी,
शायद, बरसात के पानी का निकास था वो!
गड्ढा भी काफी बड़ा था,
करीब चार फ़ीट व्यास रहा होगा उसका!
"ये है क्या स्थान?" पूछा मैंने,
"शायद कोई साधना-स्थल है" बोले सिलाइच साहब,
"यदि ऐसा है, तो अब यहां कोई नहीं है" कहा मैंने,
"हाँ, लगता तो यही है" बोले वो,
"आगे चलें?" बोला मैं,
"हाँ, चलते हैं" बोले वो,
और हम आगे चले,
यहां रास्ता बड़ा ही संकरा था,
टेढ़ा होकर निकलना पड़ा,
सर बचाना पड़ा, क्योंकि इसकी ऊंचाई मात्र पांच फ़ीट ही थी,
अब जैसा भरत ने बताया था उन तीनों बाबाओं का आकार,
उनके हिसाब से तो ये रास्ता काफी संकरा और छोटा पड़ता,
अब ये रास्ता था क्या, ये आगे ही पता चलता,
हम आगे गए,
और ठीक बीच में ही, एक कक्ष पड़ा,
हम उस कक्ष में गए,
कक्ष में प्रवेश किया,
वहाँ काफी सारे मृद-भांड रखे थे,
हमने जांच की,
सब खाली ही निकले, कुछ नहीं था उनमे,
दीवारों पर, कोई चिन्ह नहीं था,
हमारी खोज का इस स्थान पर यहीं अंत हो गया था,
यहां और कुछ नहीं था,
आगे रास्ता बंद था, इसीलिए!
निराशा हाथ लगी हमारे!
मित्रगण!
हम वापिस आ गए बाहर!
बाहर आये, तो पसीनों से तरबतर थे,
बाहर हवा लगी,
तो सुकून मिला!
बैठ गए सभी एक जगह,
पानी पिया हमने,
और उस स्थान के फोटो लिए सिलाइच साहब ने,
"कुछ नहीं है" बोले वो,
हम क्या कहते?
वहां और कुछ नहीं था! बस वे बंद मुहाने और एक रास्ता!
लेकिन?
एक बात!
वो तरह गुफाएं क्या हैं?
वे बंद क्यों हैं?
इसका क्या कारण है?
"सिलाइच साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
पानी पीते हुए,
"हमें ये तरह गुफाएं नहीं मिलीं?" बोला मैं,
वे चौंके!
तेजी से पानी की बोतल बंद की!
उन बंद गुफाओं को देखा!
"अरे हाँ!" बोले वो,
"शायद, कोई भूमिगत रास्ता है!" कहा मैंने,
"ये हो सकता है!" बोले वो,
अब हम उठे, और चले ऐसी ही एक गुफा की तरफ!
उसके मुख पर लगी मिट्टी को थपथपाया!
आवाज़ खोखली न मिली!
ऐसे ही, हर मुहाने पर थपथपाया!
नौवीं गुफा पर, आवाज़ खोखली मिली!
अब रहस्य से दिमाग घूमा!
"इसको तोड़ें?" बोला मैं,
उन्होंने सोच कुछ,
"ठीक है!" बोले वो,
दो बड़े पत्थर लाये गए!
और जैसे कोई फाटक तोडा जाता है, वैसे ही पत्थर फेंके उन पर!
करीब आठ-नौ बार मारे,
एक एक बड़ा सा पत्थर, अंदर जा गिरा!
धूल का एक गुबार बाहर आया तभी!
"अंदर है रास्ता!" बोला मैं!
और फिर, से तोडा उसको!
अब इतना टूट गया की सर अंदर डाला जा सके!
सिलाइच साहब ने अंदर सर डाला!
फिर टोर्च डाली!
मारी रौशनी!
हुए बाहर!
"क्या है अंदर?" बोला मैं,
"कुछ नहीं दिख रहा, और तोड़ो!" बोले वो,
अब बारी बारी से तोडा उसे,
और बना दिया रास्ता!
बन गया रास्ता!
अब चले सिलाइच साहब अंदर!
धूल उड़ी!
धसका उठा!
रुमाल निकाले!
वे अंदर चले, तो बाबा अंदर चले,
फिर हम सब, एक एक करके अंदर चले!
अंदर चार फ़ीट का रास्ता था!
दोनों तरफ!
दायें और बाएं!
हम पहले दायें चले,
दायें रास्ता बंद हो गया!
हम फिर से वापिस हुए,
बाएं चले!
काफी दूर जाकर,
वो भी बंद हो गया!
अजीब पहेली!
ऐसा ही था अगर,
तो बंद क्यों किया गया?
यहां तो ऐसा कुछ नहीं?
कोई रास्ता नहीं?
कोई कक्ष नहीं?
कोई सीढ़ियां नहीं?
सर खुजा लिए हमने तो!
पानी पिया मैंने,
और अब दीवारों को देखा,
दीवारें तो बदरंग थीं, समय ने खूब चाटा था उन्हें!
 
था ये तो! न सर और न पैर! गुफाएं थीं, रास्ते थे, लेकिन उद्देश्य क्या था उनका, पता नहीं! काहे लीपी गयीं पता नहीं, क्या करें पता नहीं! अंदर न तो कोई सामान था जिसे सुरक्षित रखा गया हो, न कोई रास्ता! क्या किया जाए और क्या नहीं, पता नहीं! न कोई सूत्र और न कोई मार्ग, किसने बनाया इन्हें, क्यों बनाया, पता नहीं!
हम बाहर आ गए थे तब, दिमाग में हथौड़े बजने लगे थे, कोई चक्कर समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? बाहर आये, तो बैठे एक जगह, पानी पिया, और की मंत्रणा, सभी ने सलाह दी अपनी अपनी, बाबा देव नाथ ने एक सलाह दी, क्यों न इस गुफा में, गौर से अध्ययन किया जाए? हो सकता है कोई सूत्र हाथ लगे? सलाह तो अच्छी थी, इसी पर अमल किया गया, हम फिर से अंदर गए, और सभी अलग अलग जांच करने लगे, करीब पंद्रह मिनट में, एक सहायक को, दीवार में कुछ असामान्य सा दिखा, उसने बुलाया हमें, हम पहुंचे, उसने दिखाया हमें, जब देखा तो चौंके हम!
"ये देखिये, ये हिस्सा कुछ अंदर है" बोला वो,
हाथ लगाकर देखा मैंने, सिलाइच साहब ने भी,
सच में ही दीवार का वो हिस्सा कुछ सेंटीमीटर अंदर था,
अब पूरी परिमाप की गयी, तो कुछ हाथ लगा,
ये हिस्सा साढ़े छह फ़ीट ऊँचा, और चार फ़ीट चौड़ा था!
मुक्कों से थपथपाया तो हल्का सा खोखलापन महसूस हुआ,
इसका अर्थ था, दीवार के पीछे कुछ न कुछ अवश्य ही था!
"इसे भी तोड़ना पड़ेगा!" बोले सिलाइच साहब!
और कोई रास्ता भी नहीं था शेष!
हुआ तय, और उसका तोड़ना ही उचित लगा!
सहायकों से कहा गया तोड़ने के लिए उसे,
सहायक लाये पत्थर बड़े बड़े, और लगे तोड़ने,
हम तब तक बाहर चले गए थे, दीवार मज़बूत न थी,
बस जैसे किसी पत्थर की पटिया से ढकी गयी थी,
करीब दस मिनट में ही, दीवार ढह गयी!
अंदर बड़ा अँधेरा था, हम सब वहीँ खड़े थे,
अंदर रौशनी मारी, अंदर भी मृद-भांड रखे थे,
और सींग रखे थे, हिरणों के सींग, बड़े बड़े,
उनके कंकाल, मुंड और अस्थियां,
अब समझ न आया कि उनका औचित्य क्या था वहाँ रखने का?
खैर, हमने अंदर प्रवेश किया, दीवारें देखीं, कुछ नहीं!
करीब दो धंटे खूब मगज़मारी की,
लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात!
हम तो थक-हार गए!
कुछ समझ न आये कि क्या करें!
आखिर में आ बैठे बाहर!
पानी पिया, आराम किया,
सब अपनी अपनी अटकलें दौड़ाते रहे!
हम लेट गए थे, हवा बड़ी अच्छी लग रही थी!
नींद आने लगी थी, बदन बोझिल होने लगा था!
"कल रात यहीं प्रकाश देखा था हमने?" बोले सिलाइच साहब,
"हाँ जी" कहा मैंने,
"और यहां कुछ नहीं" बोले वो,
"हाँ जी" कहा मैंने,
"अब एक ही काम शेष है" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"यहां रात काटी जाए" बोले वो,
सलाह तो बढ़िया थी!
"उचित है" कहा मैंने,
अब तीन सहायकों को, दौड़ाया गया वापिस,
दो तम्बू लाने थे, हो सके तो कुछ भोजन-सामग्री भी!
सहायक दौड़ पड़े, और करीब आठ बजे रात को,
वे वापिस आये! भोजन भी लाये थे,
और साथ में दो बड़े तम्बू भी, तम्बू क्या थे,
कनात थीं बस, एक कनात छत की तरह से लग जाती थी!
एक ही जगह भोजन किया गया,
पानी पिया, स्थान साफ़ था ही, कनात लगा दी गयीं!
और हम घुस गए उसमे,
दरियां बिछाई गयीं थीं, जा लेटे!
अलाव जला ही लिया गया था!
हमारी आँख तो कोई दस बजे ही लग गयी थी,
खूब बढ़िया नींद आई हमें तो!
रात करीब, तीन बजे, बाबा देव नाथ ने जगाया हमें!
हम जागे, आये बहार, बाहर झाँका,
वो रौशनी तो बहुत बहुत दूर से आ रही थी!
जैसे कई पहाड़ियों के पार से!
अब टूटी हिम्मत!
टूट गयी डोर!
सिलाइच साहब से नज़रें मिलीं,
स्पष्ट था कि,
ये अभियान अब समाप्त हुआ!
उस प्रकाश के पास जाना सम्भव ही न था!
यहां न कोई गाँव ही था,
न कोई आबादी!
सघन जंगल था बस,
कोई राह बताने वाला नहीं!
हिम्मत टूटी, तो अंदर कनातों में आ गए,
रही-सही रात भी बिता ली!
सुबह सुबह ही वापिस लौट पड़े,
घोर निराशा हाथ लगी थी,
इतने दिनों की मेहनत सब खाक हो चली थी!
खोदा पहाड़,
निकली चुहिया,
वो भी मरी हुई!
सभी निराश थे,
सामान रखा गया सारा,
अब वापसी सफ़र में ही कहीं भोजन बनाया जाता,
भोजन सामग्री, पानी आदि, सब चुक जाने वाले थे,
बस दो तीन दिन की ही रसद शेष बची थी!
हुईं गाड़ी स्टार्ट,
और हुए हम सवार,
लौट पड़े वापिस,
उस रोज हम करीब सत्तर किलोमीटर चले वापिस,
हालत खराब थी सभी की,
बीच में एक जगह एक नदी पड़ी,
उसमे नहाये-धोये आराम से,
अपने कपड़े भी धो लिए थे!
नहाये-धोये तो स्फूर्ति आई!
वहीँ आलू की सब्जी बनाई गयी,
रोटियां बनायीं, खायीं,
दो घंटे आराम किया और फिर से सामान लाद,
हम वापिस हुए!
आधुनिक संयंत्र,
भरत और किशोर,
हम और वो सब,
लौट पड़े अपना सा मुंह लिए वापिस!
मित्रगण!
शाम करीब सात बजे,
कुछ देहाती नज़र आये हमें!
अपने मवेशी चराते हुए!
इसका अर्थ था कि,
आसपास गाँव अवश्य ही था कोई!
भरत ने देहाती में बात की,
तो पता चला, पास में ही एक पहाड़ी गाँव है, बुगात,
रास्ते में ही पड़ेगा, दाहिनी तरफ,
अभी लोग मिल जाएंगे क्योंकि,
पहाड़ों पर बर्फबारी नहीं हुई है शुरू!
ये अच्छी खबर थी, वो मिलते तो शायद कुछ ताज़ा वस्तुएं मिल जातीं,
या फिर कोई अहम जानकारी!
फड़कती हुई लौ, फिर से स्थिर हो गयी थी!
 

 

तो हम आगे बढ़ते गए, रास्ता संकरा होता गया, अब एक सड़क मिली हमें, उसको देख, लगता था कि यहां से यातायात आता-जाता होगा, रास्ता भले ही संकरा था लेकिन उस पर पुलिया बनी थीं, सरकारी पुलिया, उनका विवरण भी लिखा था उन पर, इसका अर्थ हम अब आबादी में ही थे!
"ये तो गाँव आबादी वाला लगता है!" बोले सिलाइच साहब,
गाँव सामने था, पहाड़ी पर, सामने,
छोटे छोटे घर नज़र आने लगे थे,
सीढियाँदार खेत नज़र आ रहे थे सामने!
"हाँ, लगता तो ऐसा ही है" बोला मैं,
गाड़िया दौड़ पड़ीं वहां के लिए,
इक्का-दुक्का पहाड़ी लोग नज़र आने लगे,
बीच बीच में रुक कर, हमें देखते,
और हम आगे, गाँव के लिए चलते जाते,
रास्ता भले ही खराब था लेकिन था ठीक ही, चलने के लिए,
गति भले ही दस की हो, लेकिन निकले जा रहे थे हम!
आखिर एक जगह रुके हम!
ये एक छोटी सी पहाड़ी दुकान थी!
अंगीठी जल रही थी उसमे, छान पड़ी थी!
कच्ची मिट्टी से बनी दीवारें थीं,
सफेद और पीले रंग से चित्र बने थे उसमे!
भरत ने बात की उस दुकानदार से,
चाय के लिए, चाय मिल जाती,
बस उसको दूध लाना था गाँव से जाकर!
हम सब उतर गए, दुकान के अंदर, बोरे पड़े थे,
वहीँ जा बैठे सभी के सभी!
मैं, शर्मा जी, और सिलाइच साहब, गाड़ी में ही रह गए थे!
"वैसे हमारी लोकेशन क्या है?" पूछा मैंने,
"बैटरी आदि सब खत्म हैं, ये घड़ी है, इसके अनुसार हमें दक्षिण में जाना है!" बोले वो,
उनकी घड़ी में ही एक कंपास था, उसी से बताया उन्होंने!
हाँ, कैमरे की बैटरी वो गाड़ी से रिचार्ज कर लेते थे!
गाँव में जैसे ज़िंदगी ठहरी सी लगती थी,
जैसे इस संसार से कटा हो वो गाँव!
बस, वही जीव हों वहाँ,
न बाहरी दुनिया से कोई संबंध,
न अन्य कोई और कारण,
स्वावलम्बी सा गाँव लगता था वो!
कोई आधा घंटा लगा, बाल्टी में दूध लाया गया,
शायद दूध ताज़ा काढ़ा गया था या कहीं से लाया गया था,
दूध में से फूस हटाई गयी,
दूध छलके नहीं, इसीलिए फूस लगाई गयी थी,
अंगीठी में ईंधन डाला गया,
भगोना साफ़ किया गया,
पानी रखा गया चाय का,
जब खौला तो पत्ती डाली गयी,
साथ में कुछ फोड़ कर भी डाला,
ये कुछ कुछ छोटी सी प्याज जैसा लगता था!
होगी कोई वनस्पति शायद, वहीँ की स्थानीय,
भरत और उस चायवाले की चल निकली बात!
पता नहीं कहाँ कहाँ की भांज ली दोनों ने एक दूसरे से!
करीब बीस मिनट के बाद, मिट्टी के बर्तनों में चाय दी गयी!
और जब चाय पी, तो क्या आनंद! क्या स्वाद!
इतने दिनों पाउडर की चाय पीते पीते,
असली दूध को जैसे भूल ही बैठे थे हम!
ये दूध बकरी का था, स्वाद से पता चल रहा था!
मिठास अलग ही होती है उसमे, वैसी ही थी!
एक एक चाय पी, तो और चाय पीने को कह दिया!
सभी राजी! और चाय बनवायी गयी!
तो हमने दूसरी बार भी चाय पी, मजा आ गया!
भरत आया हमारे पास,
उसने बताया कि उस चाय वाले ने,
एक आदमी के बारे में बताया है,
वो गाँव के बाहर, छत्तोलि देवी का पुजारी है,
अभी मिल जाएगा, उस से बाते करें तो कुछ पता चले!
कली खिली! मुरझाई हुई कली में जान पड़ी!
चाय वाले को पैसे दिए, खुले भी वापिस नहीं लिए,
बहुत दिनों के बाद खर्च किये थे पैसे हमने!
बैठा भरत गाड़ी में,
और हम चल पड़े फिर आगे!
हम आये गाँव के बाहर, तो एक पुराना सा मंदिर दिखा,
मंदिर जैसे लकड़ी से बना हो, ऐसा लगता था!
सिलाइच साहब और भरत, दोनों ही चले उधर,
करीब पौने घंटे में लौटे वापिस!
चेहरे पर दो भाव थे सिलाइच साहब के!
एक हाँ!
और एक न!
आये अंदर, बैठे, पसीने पोंछे!
"क्या रहा?" पूछा मैंने,
वे मुस्कुराये!
हमें देखा!
"बताइये?" पूछा मैंने,
"अंदर एक पुजारी है!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"उसने बताया कि ऐसे स्थान तो जंगल में बहुत हैं!" बोले वो,
"बहुत हैं?" मैंने हैरत से पूछा!
"हाँ! बहुत हैं!" बोले वो,
"इसका क्या अर्थ हुआ?" पूछा मैंने,
"यही, कि हमने समय बर्बाद किया!" बोले वो,
"सो तो ठीक है, लेकिन आगे क्या?" पूछा मैंने,
उन्हें मेरे सवाल से थोड़ा आश्चर्य हुआ,
मुझे देखा,
"यही कि ऐसा कोई स्थान नहीं!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"मतलब कि, मिलने को अभी मिल जाएँ, न मिलने को पुश्तें गुजर जाएँ!" बोले वो!
अब आया समझ!
हाय रे हमारी फूटी क़िस्मत!
भरत को मिले,
किशोर को दिखे!
और हमें!
हमें एक ज़र्रा भी नहीं नसीब हुआ!
ठीक ही कहा है!
बिन मांगे मोती और मांगे मिले न भीख!
यही हो रहा था!
पैसा और समय,
पानी की तरह बहा दिया था!
बस एक आस में!
बस एक आस कि,
उनके दर्शन हो जाएँ!
और कुछ नहीं चाहिए!
चाहें तो दें आशीर्वाद,
चाहें तो दुत्कार दें!
बस एक बार!
बस!
ये एक बार ही पकड़ में नहीं आ रहा था!
जंगल को घर,
और खुद को जंगली बना लिया था हमने!
लेकिन एक ज़र्रा भी न मिला!
हाय रे क़िस्मत!
क्या करते!
किस से कहते!
क्या करते अब!

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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ये सब ऐसा था कि मानो, बरसों मेहनत कर,
एक बाँध बनाया गया हो,
एक एक बूँद जैसे इकट्ठी की गयी हो उसमे,
और अचानक से ही छेद हो जाए उसमे,
छेद भी ऐसा कि रुके ही नहीं, बल्कि,
और बढ़ता जाए!
ऐसा ऐसा अँधेरा, जो छंटने की बजाय,
और स्याह होता जाए, गहराता जाए!
इतने दिन हमारे इसी स्याह अँधेरे की भेंट चढ़ गए थे,
क्या मेहनत और क्या पैसा,
कुछ हांसिल ही न हुआ इन्हें भी दांव पर लगाकर,
जो कुछ ढूँढा हमने जंगल में,
इस गाँव के लोग जानते ही थे उनके बारे में!
कुछ न लगा हाथ!
रह गए बस खाली हाथ!
अब क्या करें?
वापिस जाएँ या फिर,
इस पुजारी के बताये हुए स्थान की तरफ जाएँ?
क्या करें?
"सिलाइच साहब?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या किया जाए?" पूछा मैंने,
"आप सुझाईये?" बोले वो,
"जब यहां तक आना हुआ ही है तो, क्यों न एक रात और लगाई जाए?" कहा मैंने,
"हाँ बाबा जी?" बोले सिलाइच साहब, बाबा से,
"जैसी आपकी मर्ज़ी" बोले बाबा,
"हाँ, जॉजी?" बोले वो,
"मेरी समझ से तो चलते हैं" बोलीं वो,
"ठीक है, चलते हैं फिर" बोले वो,
और गाड़ियां चल पड़ीं उस स्थान के लिए,
जहां उस पुजारी ने बताया था कि वहाँ,
एक सरोवर है, अष्टाल नाम है उसका,
उस सरोवर के पास, एक मंदिर है,
माँ धूसरी का, अत्यंत प्राचीन मंदिर है वो,
पत्थर काट के बनाया गया है गुफा में,
वहाँ अक्सर ऐसे महात्मा आया करते हैं,
हमारा सौभाग्य हुआ तो शायद दर्शन हो जाएँ उनमे से किसी के!
और वो यहां से कोई एक सौ बीस किलोमीटर था!
अब जाना था तो जाना ही था!
चल पड़े थे हम वहां के लिए,
रास्ता पथरीला और हाड़-तोड़ था!
ऐसी धचकियां कि सर फूटें ही फूटें!
धड़ से सर ऐसे नाचे की जैसे बस में ही न हो!
कहीं चढ़ाई कहीं ढलान!
कमर ऐसे नचके की अब उतरी और तब उतरी!
कम से कम पचास किलोमीटर चल लिए थे!
एक बढ़िया और खुशनुमा जगह आई!
हिरन दौड़ रहे थे वहाँ, इधर-उधर!
छायादार जगह थी वो!
लगाया गया एक तम्बू उधर ही!
और किया आराम!
बावर्ची ने भोजन की तैयारियां शुरू कीं!
भूख तो लगी थी सभी को!
कब खाना सामने आये और कब हम लीलें उसे!
मैंने और शर्मा जी ने आराम किया तब,
जूते खोले और लेट गए थे आराम से,
छक कर पानी पिया था हमने!
"अब देखो, मिल जाएँ तो सौभाग्य!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब तो मिल ही जाएँ!" बोले वो,
"हाँ, बहुत दिन हुए" कहा मैंने,
"वैसे वो जो गुफाएं थीं?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"कोई तो उद्देश्य होगा उनका?" बोले वो,
"होगा तो, लेकिन पता नहीं चला!" कहा मैंने,
"अब जंगल में कौन बनाएगा ऐसी गुफाएं?" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"वो देखो!" आई आवाज़ सिलाइच साहब की!
हम उठे बैठे!
सामने देखा, जहां उनका हाथ था!
एक तेंदुआ था, पत्थरों पर बैठा हुआ!
कम से कम डेढ़ सौ फ़ीट दूर!
हम गए सिलाइच साहब के पास,
ली उनसे दूरबीन,
और देखा उसे!
दूरबीन में अंदर रंग पीला हुआ,
कुछ अक्षर से और कुछ संख्याएँ सी नाचीं!
और हुआ दृश्य स्पष्ट!
क्या सुंदर था!
कसा हुआ गठीला बदन!
चकत्ते ऐसे शानदार जैसे,
किसी कलाकार ने बनाये हों!
और लगे, इतना पास कि जैसे,
हाथ बढ़ाओ और छू लो!
दुम फटकार रहा था अपनी!
किसी शिकार पर, दृष्टि जमाये था,
शायद, वही हिरन रहे होंगे उसके शिकार में से एक!
वो कभी बैठता,
कभी उठ जाता,
कभी घात लगाता,
कभी ऊँघने लगता!
फिर अचानक ही,
जा कूदा पीछे! दौड़ पड़ा था!
"क्या शानदार था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"ये जंगल के शिकारी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ! सबसे बड़े तो यही हैं यहां!" बोले वो,
"हाँ, या फिर भालू!" बोला मैं,
वो यहां रात में शिकार करते हैं अक्सर!
दिन में ऊंघते रहते हैं अपनी मांदों में!
सामना हो जाए तो मुश्किल से ही जान बचे!
बड़ा ही जुझारू और निपट्ट बुद्धि वाला होता है भालू!
जो ठान लिया तो ठान लिया!
डरता है नहीं!
आपके पीछे पीछे आता रहेगा!
चाहे कितनी ही दूर चले जाओ आप!
बहुत जिज्ञासु जीव है!
सर्वहारी होता है!
जो मिल जाए,
सब गपक!
खैर,
हम फिर से आराम करने लेट गए थे,
शर्मा जी के तो खर्राटे शुरू हो चले थे!
मुझे भी खुमारी सी उठी!
और सर के नीचे, कोहनी रख,
मैं भी सो गया!
बढ़िया नींद आई!
करीब दो घंटे के बाद, जगाया बाबा ने हमें,
हमने हाथ-मुंह धोये,
और खाना खाया फिर,
रोटी और दाल बनी थीं!
दाल ऐसी बढ़िया कि पूछिए ही मत!
थाली चाट ली जी!
और उसके बाद,
फिर से आराम!
पेट भर खाया था,
तो नींद आ गयी!
बहुत सोये हम!
सभी के सभी!
एक सहायक जागा हुआ था, वही नज़र रख रहा था हम पर!
एक सोता तो दूसरा पहरा देता, वो सोता तो तीसरा!
हम करीब पांच बजे तक सोये सभी के सभी!
 

 

नींद जम कर आई थी! बदन खुल गया था बिलकुल!
थकान भी मिट गयी थी, और बदन की अकड़ाहट भी दूर हो चली थी!
अब सिलाइच साहब के अनुसार, दो राय रखी गयीं,
एक, कि आज की रात, यहीं काट ली जाए,
दो, कि आगे बढ़ा जाए, कम से कम आठ बजे तक,
लेकिन आगे बढ़ने में एक मुश्किल थी,
दुश्वारी ये, कि आगे कोई स्थान न मिला तो?
कहीं पहाड़ियों ने रास्ता रोक लिया तो?
तो सलाह यही हुई कि रात यहीं काट ली जाए,
और ये ठीक भी था, तरोताज़ा हो जाते तो कल आराम से आगे बढ़ते!
सिलाइच साहब ने, अपने उपकरण रिचार्ज कर लिए थे,
और उन्हीं में वो उंगलियां घुमा रहे थे!
मैं और शर्मा जी, ज़रा घूमने के लिए आगे निकल पड़े थे!
हथियार के नाम पर, बस एक कटनी साथ थी हमारे!
हम आगे चलते गए, आगे, और आगे,
एक जगह आवाज़ सी आयी, जैसे झरना बह रहा हो!
ऐसी ही आवाज़ थी!
हम वहीँ के लिए चल पड़े,
पहाड़ी सी चढ़े,
आगे देखा, एक छोटा सा चश्मा था वहाँ!
उसके नीचे, साफ़ जल जमा था!
जी तो किया वहीँ से, सारे कपड़े उतार कर, मार दी जाए छलांग!
ये खबर बाकी लोगों को भी देनी थी,
लेकिन उस से पहले, हमने पेट भर के ठंडा, शीतल जल पिया!
मिनरल वाटर को भी कहीं पीछे छोड़ दे, ऐसा शीतल और मीठा जल!
जल की सही क़ीमत, ऐसी ही जगह आकर पता चला करती है!
एक बार पिया, फिर दुबारा पिया, फिर तिवारा पिया!
सर भिगोया! चेहरा धोया! हुए ताज़ा और चले वापिस!
पहुंचे वहाँ, दी खबर!
सभी ऐसे खुश कि जैसे सदियों का इंतज़ार हटा!
बाल्टी-लोटा ले भाग चले सभी हमारे साथ साथ!
झरना देखा तो सभी की सांस में सांस आई!
और फिर क्या था! पनकउआ जैसे डूब चले उसमे!
जॉजी मैडम को बाल्टी दे दी गयी थी भर के,
वे एक बड़े से पत्थर के पीछे स्नान करने लगी थीं!
और हम, हम तो उस दिन मगरमच्छ से हो चले थे!
ऐसा आनंद, ऐसा आनंद कि इन्द्र भी आएं तो मना कर दें उन्हें!
डेढ़ घंटे पानी से खूब लड़ाई की हमने!
जब तलक कानों में पानी नहीं घुस गया,
निकले ही नहीं हम!
और फिर हुए वापिस हम!
बाल्टियों में, ताज़ा पानी भर लिया गया था!
जम कर पिया था सो अलग!
शाम को, सिलाइच साहब के साथ, मदिरा का लुत्फ़ लिया!
आलू उबाल लिए थे, उनके साथ ही, मसाला लगा कर,
दारु के चीथड़े उड़ा दिए थे हमने!
रात को अलाव जलाया,
हवा चल ही रही थी मदमस्त!
पसीना आता तो सूख जाता था!
आकाश में मोती जड़े थे!
सब उन्हीं को बरबस देख रहे थे!
भोजन किया, और पाँव पसार, आराम से सो गए हम!
अगले दिन, चाय बनाई गयी,
साथ में बिस्कुट लिए,
भोजन बना लिया गया,
सो खाया,
और करीब साढ़े दस बजे,
हम आगे के लिए बढ़े!
शुक्र था कि रास्ता ठीक ठाक था,
हम चलते रहे!
और इस तरह मित्रगण!
हम करीब पांच बजे के आसपास,
उस बड़े से तालाब के पास आ पहुंचे!
क्या सुंदर तालाब था वो!
पेड़ों से घिरा हुआ!
पहाड़ों के बीच में!
आबादी से अछूता!
परली पार,
एक छोटी सी पहाड़ी पर, एक मंदिर बना था,
माँ धूसरी का मंदिर!
स्थानीय देवी हैं यहां की,
उन्हें प्रणाम किया!
लगाए गए तम्बू!
उतारा गया सामान!
बिछाई गयी दरियां!
और जा लेटे हम!
शीतल पवन!
ताज़ा हवा!
प्राकृतिक छटा!
इसका एक अलग ही नशा हुआ करता है मित्रगण!
तो सभी नशे में थे उसके!
करीब सात बजे,
हम चले उस मंदिर के लिए,
मंदिर पहुंचे,
मैडम जॉजी नहीं चल सकती थीं,
वो वहीँ बैठ गयीं थीं नीचे,
हम उन पत्थरों पर चढ़, ऊपर चढ़े!
मंदिर क्या था!
एक गुफा थी!
गुफा में,
वक छोटी सी मूर्ति थी,
न आँखें,
न हाथ,
बस पाँव,
और एक पत्थर का वृत,
एक चबूतरा,
प्राचीन मंदिर था!
सभी ने प्रणाम किया!
माँ धूसरी से, अनुनय किया कि,
हमें एक बार दर्शन हो जाएँ,
उन महात्माओं के, उनकी कृपा से!
मंदिर में,
परिंदों ने,
घोंसले बना रखे थे,
उनके छोटे बच्चे ऐसे शोर मचा रहे थे,
कि जैसे चोर घुस आये हों मंदिर में!
अलग अलग आवाज़ें!
बड़े परिंदे आते,
गरदन उचका उचका के,
शहरी चोरों को देखते!
आ गए थे हम उनकी,
शान्ति भंग करने को!
कई तो ऐसे होंगे,
जिन्होंने इंसानों को पहली बार ही देखा होगा!
अजीब सी आवाज़ें करते थे हमें देख!
मंदिर के कोने में,
लकड़ियों का ढेर लगा था,
ये शायद,
उन लोगों ने रखा था,
जो बर्फबारी के समय,
यहां फंस जाते होंगे,
दूसरों की मदद के लिए,
अलाव जलाने के लिए!
हमने उन बिखरी हुई लकड़ियों को,
ठीक से रखा,
गली-सड़ी लकड़ियाँ,
बाहर फेंकीं,
उनमे कीड़ा लग गया था,
बाकी में भी लग जाता तो चूर्ण हो जातीं वो, इसीलिए,
उनको ठीक ढंग से रखा,
सिलाइच साहब ने,
तस्वीरें लीं वहाँ की,
उन्हें वो स्थान, बेहद पसंद आया!
हमारी भारतीय-संस्कृति का बखान करते करते,
थके ही नहीं!
माँ धूसरी के स्थान को,
उस चबूतरे को,
अपने रुमाल से साफ़ किया!
धूल हटाई, तिनके हटाये, परिंदों की बीट खुरची!
मैं और शर्मा जी, स्तब्ध नहीं थे!
उनका अवश्य ही संबंध रहा होगा भारत भूमि से कभी!
कोई पूर्व-जन्म का संबंध!

   
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श्रीशः उपदंडक
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हम मंदिर से करीब साढ़े आठ बजे लौटे, अँधेरा घिर ही चुका था,
रास्ते से कुछ लकड़ियाँ उठा ली थीं,
जंगल था, ठूंठ पेड़ गिरे मिलते थे, तोड़ लेते थे हम,
काफी सारी लकड़ियाँ तोड़ ली थीं हमने,
आज रात तक तो चल ही जानी थीं,
कोई कमी नहीं पड़ने वाली थी,
तो जी, लकड़ियाँ जलाईं गयीं,
लकड़ियाँ जलीं तो प्रकाश हुआ,
जंगल में मंगल जैसा दृश्य था,
तालाब में, आग की रौशनी पड़ी,
तो मछलियाँ उसको सूरज समझ, ऊपर उछलीं!
सोच रही थीं की आज सूरज इतनी जल्दी कैसे आ गए उनकी सुध लेने!
मछलियाँ भी बड़ी बड़ी थीं!
भरत ने तो कहा की वो पकड़ सकता है उनको,
परन्तु, सूरज ढलने पश्चात, मछलियाँ नहीं पकड़ी जातीं!
इसीलिए मन कर दिया था मैंने,
अब कल की कल देखी जाती!
तो दाल बनी, साथ में चावल और रोटियां,
प्याज के साथ, आराम से खायीं हमने,
आनंद आ गया हम सभी को!
करीब साढ़े दस बज चुके थे,
पेट भर ही गया था, अब आराम किया,
आज दो सहायक बारी बारी से जागने वाले थे,
यदि कोई दीखता तो अवश्य ही वे बताते हमें!
हम तो पाँव पसार के सोये उसके बाद!
मित्रगण!
वो सारी रात गुजर गयी!
न कोई आया और न कोई गया!
सामान्य सी ही रात गुजरी!
सुबह नहाये धोये, अपने कपड़े लत्ते भी धो लिए,
सुखा भी दिए, गाड़ी से टांग कर!
फिर चाय-नाश्ता और आराम!
करीब दस बजे,
दो सहायक तालाब में उतरे,
तैराक थे कुशल दोनों ही!
कनात ले गए थे अपने साथ!
जब डूब गए पेट तक, छाती तक,
तो कनात फैला दी,
करीब दस मिनट के बाद उठायी कनात तेजी से!
दो बड़ी मछलियाँ आ गयीं हाथ!
बड़ी बड़ी, उनको पकड़ कर, फेंक दिया हमारी तरफ!
गौंच मछलियाँ थीं दोनों ही!
कम से कम एक एक करीब चार किलो की!
इस तरह, कुल चार मछलियाँ पकड़ लीं,
दो गौंच और दो मलैट!
आज तो दावत होनी थी!
माछ-भात की!
तो दोपहर में, वहीँ बनाई गयीं!
मजा आ गया!
यूँ कहो कि इतने दिनों बाद,
आज सही से पेट भरा!
भोजन किया तो फिर आराम किया!
करीब दो बजे, मैं और शर्मा जी, साथ में, मदन को लेकर,
चले ज़रा जंगल घूमने!
जब एक जगह आये, तो मुझे बड़ी हैरत हुई!
वहां जगह जगह बराहीकन्द के पेड़ लगे थे,
पेड़ कहूँ या पौधा?
ये इन दोनों के बीच का होता है!
पत्ता बड़ा और चिकना होता है!
ये बहुत ही शानदार पौधा होता है!
इसका कंद, ऐसी औषधि है जो,
वृद्धावस्था का नाश करती है!
इसका शरबत बनाकर, रोज पियें!
तीन माह में, शरीर हृष्ट-पुष्ट और चेहरे पर तेज आ जाएगा!
वृद्धावस्था का क्षय कर देगा ये!
ये स्वाद में हल्का कड़वा, तीखा, गर्म, रासायनिक, वीर्यशोधक, कामोत्तेजक, भूख और चेहरे के तेज को बढ़ाने वाला होता है!
अक्सर जंगल में आदिवासी और पहाड़ी लोग इसका सेवन किया करते हैं,
उनके नब्बे वर्ष के पुरुष और स्त्रियों में भी,
हम से कहीं अधिक बल हुआ करता है!
ये सफेद-दाग, प्रमेह, पेट के कीड़े, बवासीर, सूजन, मूत्रकृच्छ का नाश करने वाला होता है!
पुराने से पुराने, चर्म-रोग का समूल नाश करता है!
आमातिसार में इसका गूदा उबाल कर खाने से,
शीघ्र ही लाभ देता है!
ये मधु-मेह का नाश करता है!
काम को तीव्र करने वाला,
पुरुष प्रदान करने वाला,
पुरुष-लिंग को पुष्ट और शक्ति प्रदान करने वाला होता है!
चांदी के टीबीज़ में धारण करने से,
इसके सूखे कंद के टुकड़े को,
शरीर का सूखा रोग समाप्त हो जाता है!
ताम्बे के ताबीज़ में धारण करने से,
काला पीलिया का नाश होता है!
घीये के अर्क के साथ सेवन करने से,
पीलिया का नाश करता है!
जो मरीज़,
कैंसर के रोग से पीड़ित हों,
चिकित्सकों ने जवाब दे दिया हो,
उनको, इस कंद का गूदा दिन में तीन बार,
उबाल कर, उसी पानी के साथ, खाना चाहिए,
एक माह में, कैंसर की कोशिकाएं मरने लगती हैं,
नव-कोशिकाएं, कैंसर से मुक्त होती जाती हैं,
फलस्वरूप,
कैंसर का नाश हो जाता है!
तो ऐसी चमत्कारित औषधि है ये!
हम मनुष्यों को,
भगवान धन्वन्तरि की,
एक अनुपम और अत्यंत मूल्यवान,
भेंट है ये बराहीकन्द!
मैंने, दो कंद निकाल लिए थे,
इसको सुखा दिया जाए,
और चूर्ण बना लिया जाए,
तो कई रोगों में आभकारी हो जाता है!
शर्मा जी और मदन को,
इसके विषय में अवगत करा ही दिया था!
"ये क्या पहाड़ों पर ही होता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, नमी के स्थान पर!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोले वो,
हम और आगे चले गए घूमने,
ऐसी बहुत सी औषधियां लगी थीं वहां!
कुछ तोड़ ली थीं मैंने,
काम आने वाली थीं वो बहुत!
शहरों में अक्सर नहीं मिला करतीं!
हम करीब, दो घंटे घूमे,
बैठे, बतियाये,
और फिर से बात घूम-फिर कर,
उन महात्माओं पर आ गयी!
आ जाएँ तो भाग जगे हमारे!
नहीं तो घोर निराशा तो बाए खड़ी ही थी!
लपक के गोद में आ चढ़ती!
मन हो जाता खिन्न,
और न जाने फिर कब अवसर मिलता ऐसा!
आ गए वापिस,
सिलाइच साहब को बताया उन औषधियों के बारे में,
हैरत में पड़े!
हम भाटियों का ज्ञान,
किस उच्च-कोटि का है,
ये देख, हैरान थे वो!
मैंने सबकुछ बताया उस औषधि के बारे में,
अफ़सोस,
वो ले नहीं जा सकते थे उसे अपने साथ!
क्योंकि, ऐसे कंद का एक टुकड़ा भी,
भूमि में गाड़ दिया जाए,
तो पौधा फूट जाता है उसका!
ऐसे ही अदरक और ऐसे ही जिमीकंद आदि!
इसी कारण से नहीं ले जा सकते थे वो!
उस जंगल में,
बहुत सी औषधियां थीं,
हर तरफ!
जहां नज़र डालो, वहीँ!
और फिर से,
हम उसी केंद्र-बिंदु पर आ गए!
वो तपस्वी लोग!
कब आएंगे?
आएंगे भी?
या नहीं आएंगे?
आगे हमारी क़िस्मत!
और क्या करते हम!
जितना कर रहे थे,
उतना भी सरल नहीं था करना!
न नौ मन तेल होगा,
न राधा नाचेगी!
हमारे बस में नहीं था इतना पैसा खर्च करना,
ऐसे जंगल में घूमना!
ये तो सिलाइच साहब की मेहरबानी मानो!
नहीं तो ये अभियान,
कब  का दम तोड़ चुका होता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! लगता था जैसे, फूस के एक बड़े से ढेर में से, हम एक सुईं ढूंढने चले हों! ढूंढ तो हम कब से रहे थे, लेकिन सुईं तो क्या, कोई शहतीर भी न हाथ लगा था हमारे तो! वो तो सिलाइच साहब की हिम्मत की डोर थी, जो अभी तक टूटी नहीं थी और हम उसी डोर के सहारे आगे बढ़े जा रहे थे! उसी में बंधे हुए! जॉजी मैडम अब ठीक थीं, लेकिन चलने में उनको अभी भी असुविधा ही होती थी, हाँ, पाँव में अब सूजन नहीं थी, सिलाइच साहब, दिन में दो बार, पट्टियां बदल दिया करते थे! इस से काफी आराम पहुंचा था उन्हें!
तो इस प्रकार, वो दिन भी बीत गया, और वो रात भी, अब तो हमारे पास राशन-पानी भी कम पड़ने लगा था! चावल अब समाप्त हो चले थे और आटा भी अब चुकने लगा था! गाँव वापिस जाते तो शायद सामान इतना नहीं मिलता जितना चाहिए था! अभी यूँ कहिये कि, दो दिन की रसद बची थी हमारे पास, मदन और एक अन्य सहायक, बड़ी बड़ी मछलियाँ पकड़ लिया करते थे! और दोपहर में, वही हमारा भोजन हुआ करता था! उस रोज, उन्होंने एक बड़ा सा कछुआ भी पकड़ लिया था! लेकिन कछुआ ऐसी पवित्र जगह पर, हलाक़ करना, अच्छा नहीं था, अतः मैंने उसको छुड़वा दिया! पानी में गहरा गोता लगा गया वो! एक बार को, निकल कर, हमें देखा और फिर अपनी थूथनी ऊपर कर, चल दिया आगे! जैसे मेरा धन्यवाद करके गया हो! मित्रगण, कछुए के मांस में, कुछ चमत्कारिक गुण हुआ करते हैं! पहला, साँझ ढलने के बाद, यदि तपेदिक के रोगी को, कछुए का मांस, सात दिन तक खिलाया जाए, तो कैसी भी तपेदिक हो, उसका नाश होता है! साँझ ढलने से पहले खिलाया जाए, तो अस्थमा या दमा का नाश करता है! फालिज पड़ी हो, तो कछुए के पंजे के पास का मांस खाया जाता है, माह में सात बार, एक माह में रोग कटने लगता है और फालिज पड़े अंगों में जान पड़ने लगती है! और भी कई प्रयोग है कछुए के! तंत्र में इसका बहुत महत्व है! इसका एक एक अंश काम में लाया जाता है! कछुआ, धनदायिनी लक्ष्मी जी का वाहन है! अतः, कछुए को, पीत रंग के भोज्य-पदार्थ खिलाये जाएँ नित्य, जैसे कि केला, कनेर का पीला फूल, पीले चावल, पीला लड्डू आदि, तो लक्ष्मी जी की कृपा अवश्य ही मिला करती है! एक और विशेष बात, कछुए को कभी भी क़ैद करके, नहीं रखना चाहिए! इस से लाभ नहीं, दोष मिलता है! धन में कमी आती है, घर में क्लेश और दारिद्रय पाँव पसारता जाता है! अतः कछुए को, कभी नहीं पालना चाहिए! अपना यदि, तालाब हो, तो उसमे रखे जा सकते हैं कछुए! कछुए के कई प्रजाति हुआ करती हैं, कुछ शाकाहारी हैं और कुछ मांसाहारी! ये पहचान उनके मुख से हुआ करती है!
खैर! वो दोपहर थी, हवा में गर्मी थी, तम्बू में गर्मी लग रही थी बहुत! उसको खोलते तो धूप गले लगने को आती थी! इसीलिए, मदन, मैं और शर्मा जी, चले बाहर की तरफ! वहाँ पेड़ लगे थे बड़े बड़े! वहीँ के लिए चले! चादर ले आये थे, वहीँ बिछा ली, और जा बैठे! लेकिन लू जैसी हवाएँ चल रही थीं! उनसे कोई आराम न था! बात नहीं बनी! तो मैं और शर्मा जी, उठ लिए! आसपास नज़र दौड़ाई! तो नीले फूल वाली एक जड़ी-बूटी दिखाई दी!
हम वहीँ के लिए चले! पहुंचे,
"ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने,
"बच्छनाग!" कहा मैंने,
"अच्छा! इसके गुण?" बोले वो,
"यदि देह में, कोई दर्द-विकार हो, चाहे दर्द-विकार कितना ही पुराना हो, इसके बीजों को, पत्तों को उबाल कर, काढ़ा बनाया जाए, दिन में, तीन बार सेवन किया जाए, तो ये दर्द-विकार पंद्रह दिनों में जड़ से समाप्त हो जाता है! इसके अतिरिक्त ये मधुमेह, बहुमूत्र, तंतुमेह, स्वप्नदोष, इंद्री-शिथिलता, वीर्य-विकार का भी नाश करता है! बेहद अचूक औषधि है ये! अंडकोषों के विकारों में, इसके बीज पीस लें, उबाल लें, और आधा कप दूध में ये पानी मिला लें, ऐसा कोई भी विकार शेष नहीं बचेगा!" कहा मैंने!
"वाह! चमत्कारिक है ये तो!" बोले वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
और उन्होंने, कुछ फूल तोड़ कर रख लिए! एक कागज़ लिया, और लपेट लिए उसमे! फिर हम टहलने के लिए चल दिए! आगे गए, तो नमी का सा एहसास हुआ! और आगे गए, तो एक गड्ढा था वहाँ, पानी भरा था उसमे! कुछ पक्षी बैठे थे आसपास उसके! वहाँ कीचड़ थी, इसीलिए आगे न जा सके! नमी इतनी, कि हालत खराब हो! हो लिए वापिस वहाँ से! आये वहीँ, मदन तो सो गया था, खर्राटे बजा रहा था! हम बैठ लिए वहीँ! और क्या करते!
"क्या उम्मीद है?" बोले वो,
"कह नहीं सकता!" कहा मैंने,
"अब कब तक यहीं रहना है?" बोले वो,
"आज बात करते हैं सिलाइच साहब से!" कहा मैंने,
"हाँ, वक़्त भी ज़ाया हो रहा है" बोले वो,
"सो तो है ही" कहा मैंने,
तभी आकाश में, एक काली सी बदली दिखाई दी! काली, पानी भरी!
"लगता है, बारिश होगी रात को!" कहा मैंने,
"हो सकता है, गर्मी भी तो है!" बोले वो,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"अब पहाड़ों में मौसम कब बदल जाए, पता नहीं!" बोला मैं,
"ये तो है ही!" बोले वो,
और हम भी लेट गए! आँखें बंद कर लीं, ज़बरन नींद लाने लगे!
"आज बात कर लो, नहीं तो चलो वापिस!" बोले वो,
"हाँ, करूंगा बात!" बोले वो,
"सिलाइच साहब तो डटे ही हुए हैं!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"दाद देनी पड़ेगी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई और होता, तो भाग ही लिया होता!" बोले वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"हमें देखो न? जंगली लगने लगे हैं!" बोले वो,
मुझे आई हंसी!
"हाँ, देखो तो सही?" बोले वो,
"वो कैसे?" पूछा मैंने,
"अब कपड़े बचे हैं! वो भी उधड़ ही जाने वाले हैं!" बोले वो,
मेरी हंसी छूटी!
"अब ले लो हाथ में भाला, और दौड़ो जंगल में!" बोले वो,
"उसकी क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"तभी मिलें वो बाबा लोग!" बोले वो,
हंसी फिर से आई!
"और क्या?" बोले वो,
"आपका मतलब अंदर चलें जंगल में!" बोला मैं,
"हाँ! अब यहां नहीं आने वाले वो!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"यहां क्या करेंगे वो?" बोले वो,
"हो सकता है, कहीं आवागमन करें?" बोला मैं,
"उनका तो नहीं, लेकिन हमारा ज़रूर होगा अब!" बोले वो,
अब हंसा खुलकर मैं!
"अब तो अंदर ही चलना पड़ेगा!" बोले वो,
"अब ये तो सम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"यहां तो आएं नहीं वो!" बोले वो,
"क्या पता?" बोला मैं,
"दस-बारह दिन हो गए!" बोले वो,
"तो?" कहा मैंने,
"जंगल का हर जानवर पहचान गया होगा हमें!" बोले हंस कर!
मेरी भी हंसी छूटी!
"बोलता होगा, लो, साले पगला गए हैं!" बोले वो,
मैं हंसा!
"और क्या?" बोले वो,
मैं उठ बैठा! हँसते हुए!
"ये जो पक्षी हैं न?" बोले वो,
"हाँ?" बोला मैं,
"कहते होंगे, अभी तक नहीं गए बावले!" बोले वो,
मैं हंसा अब ज़ोर से! जैसे ही पक्षी चहचहाया, और हंसी छूटी मेरी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण! उसी शाम मैंने, भोजन के समय, सिलाइच साहब से बात की, वे भी संशय में ही थे, एक तो समय बीत रहा था, दूसरा, हाथ कुछ नहीं लगा था, हम जैसे, धूल में ही लाठी भांज रहे थे! और अब तक तो बुरी तरह से थक चुके थे! हांफ रहे थे, ऐसे कि मुंह से लार भी टपकने लगी थीं! सिलाइच साहब ने अभी तक हिम्मत नहीं हारी थी! कैसा मजबूत जीवट था उनका! लेकिन अब बहुमत एक तरह से यही बनता था कि अब यहां से चला जाए, न तो भरत और न ही किशोर के हाथों कुछ लगा था! और हमारे लिए तो सारा का सारा जंगल ही एक जैसा था! हर कोना, हर चप्पा चप्पा!
"ठीक है, दो दिन और!" बोले सिलाइच साहब,
"दो दिन?" पूछा मैंने,
"हाँ, कल और परसों!" बोले वो,
अब दो हफ्तों से हम खानाबदोश थे, चलो दो दिन और सही! हमारी उत्कंठा ही हमें वहाँ बनाये हुए थी, अन्यथा, तन और मन, बाहरी दुनिया में ही अब विचरण करने लगे थे! तो अब दो दिन, कोई बात नहीं!
"जी, ठीक है!" बोला मैं,
"एक काम करेंगे कल!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"कल यहां से हम, आगे चलते हैं, किशोर, भरत साथ चलेंगे, और मदन भी, आप दोनों और मैं, बाकी यहीं ठहरेंगे!" बोले वो,
"कोई हर्ज़ा नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक है फिर, कल करीब, नौ बजे, सुबह, निकल पड़ते हैं!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और उठ लिए हम वहाँ से, अभी धुंधलका छाया था, अँधेरा नहीं हुआ था, खाना खा लिया था, अब बस, सोने की तैयारी ही थी, तो हम अपने तम्बू के पास आ बैठे, मदन ने वहाँ आंच जला ली थी, और वैसे भी मौसम में सर्दी की सी सुगबुगाहट थी! हवा ठंडी थी जो चल रही थी!
"कल कहाँ आगे चलेंगे?" पूछा शर्मा जी ने,
"पता नहीं, शायद पूरब में?" कहा मैंने,
"पूरब में? वहीँ क्यों?" बोले वो,
"अब पता नहीं!" कहा मैंने,
"चलो जी, पूरब ही सही! जहां दो इंच, वहाँ चार इंच!" बोले वो!
मेरी हंसी छूटी! हंसने लगा मैं! वे भी हंसने लगे!
"वैसे क्या उम्मीद है?" बोला मदन, आग को फैलाते हुए!
"उम्मीद पर ही तो यहां है यार!" बोले वो,
"नहीं, वैसे!" बोला वो,
"पता नहीं, कहा नहीं जा सकता!" कहा मैंने,
"मिल-मिला जाएँ तो हम भी घर चलें, बावरे हो चले हैं हम तो!" बोला वो,
"हाँ, ये तो है!" बोला मैं,
तो हमने करीब ग्यारह बजे तक बातें कीं, सिलाइच साहब, अब आराम करने लगे थे, उनके तम्बू में से, लालटेन की मद्धम रौशनी दीख रही थी! और फिर हम भी लेट गए! कल सुबह पता नहीं कहाँ जाना पड़ जाए!
तो हम भी अब सो गए, आ गयी नींद!
रात करीब दो बजे!
"उठो?" आई आवाज़ मुझे,
मैं उठा, अलसाया हुआ सा, मदन ने जगाया था मुझे!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वहाँ देखना?" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वो, मंदिर की तरफ?" बोला वो,
मैं हड़बड़ाया, देखा उधर, वहाँ अलाव जल रहा था!
"ये क्या?" बोला मैं,
"पता नहीं?"" बोला वो,
अब मैंने शर्मा जी को उठाया, झिंझोड़ दिया उन्हें, वो हड़बड़ा के उठे!
"क्या हुआ?" बोले वो,
"वो, वहां, मंदिर पर!" कहा मैंने,
"अलाव सा जल रहा है?" चौंक के बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन है?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"सिलाइच साहब को जगाओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम तीनों दौड़ पड़े! आवाज़ दी सिलाइच साहब को, तम्बू की चेन खुली, औ वे आये, आँखें मलते हुए!
"क्या हुआ?" चौंक के पूछा उन्होंने,
मैडम जॉजी भी, कपड़े संभालती हुईं, आ गयीं बाहर,
"वो देखिये!" कहा मैंने,
उन्होंने देखा, और देखते ही, आँखें खुल गयीं उनकी पूरी!
"ये कौन हैं?" बोले वो, धीरे धीरे!
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"तो चलो अभी!" बोले वो,
और चले तम्बू के अंदर, आवाज़ें दीं दूसरों को, भरत, किशोर आदि सभी को! सभी आये भागे भागे! अलाव को सभी देखें! ले लीं टोर्च हमने, और चल दिए जूते पहन कर हम सब! मैडम जॉजी और एक सहायक रुक गए थे वहीँ!
अब हम कभी भागते, कभी रुक कर, तेज चलते!
"किसको पता चला था?" पूछा उन्होंने,
"मदन को!" कहा मैंने,
"भाई वाह मदन!" बोले वो, कंधे पर हाथ मारते हुए उसके! और हम जा पहुंचे वहाँ! अलाव काफी बड़ा था वो! उसके उजाले में, भगवा कपड़ों में, चार साधू लेटे हुए थे! हमें आये देख, सभी जाग गए, और उठ बैठे!
"प्रणाम बाबा!" बोले सिलाइच साहब!
"प्रणाम! जंगल में?" अचरज से पूछा एक वृद्ध साधू ने!
"हाँ बाबा!" बोले वो,
"कैसे? क्या बात है?" पूछा एक ने,
अब हम बैठे जी वहाँ, और सिलाइच साहब ने, भरत से लेकर, किशोर तक और अब तक का सारा हाल सुना दिया! चारों ही मुस्कुरा पड़े!
"बेटे! यहां मात्र वही नहीं, सैंकड़ों हैं वैसे!" बोले बाबा,
सैंकड़ो? हमने तो जंगल छान मारा सारा! हमें तो एक भी न मिला!
"सैंकड़ों?" बोले सिलाइच साहब, चबे हुए से शब्द निकले मुंह से उनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सच में! एक बार को तो मेरा भी दिमाग़ भाप बने न रह सका था! उन्होंने इतनी सहजता से ये बताया था कि वहाँ एक तीन ही नहीं, सैकड़ों हैं! ठीक हमारे पांवों के नीचे! नीचे, कहीं गुफाओं में! सिलाइच साहब ने तो अपना माथा खुजाया था ये सुनकर! हाँ, भरत और किशोर, बिन मुस्काये न रह सके थे! मुस्काये, चूंकि उनकी सत्यता को साक्षी जो मिल गए थे!
"कब से ढूंढ रहे हो?" पूछा एक बाबा ने,
"आप वर्ष कह सकते हैं, एक वर्ष में, ये तीसरी बार है!" बोले सिलाइच साहब!
"ऐसे तो पूरा जन्म बीत जाएगा तुम्हारा!" बोले वो बाबा,
अब बात भी सही थी! हमारे पास कोई सूत्र भी नहीं था! तो पूरा जन्म लग जाए, तो नयी और चौंकने वाली बात क्या!
"आप मदद करें बाबा?" बोले सिलाइच साहब!
बाबा मुस्कुराये! खखार कर, गला साफ़ किया अपना!
"करोगे क्या भला?'' पूछा उन्होंने,
"बस एक बार दर्शन की अभिलाषा है!" बोले सिलाइच साहब!
"वो किसलिए?" पूछा फिर से, मुस्कुराते हुए!
"यूँ कह लें, कि इस जन्म में दर्शन हो जाएँ तो धन्य हों हम सभी!" बोले वो!
"वो आप लोगों के सामने से, न जाने कितनी बार गुजरे होंगे!" बोले बाबा,
हैं? क्या कहा ये बाबा ने? कितनी बार?
"क्या बाबा?" बोले सिलाइच साहब, आश्चर्य से!
"हाँ, न जाने कितनी बार! अनगिनत बार!" बोले वो,
"समझा नहीं बाबा मैं?" बोले सिलाइच साहब, कौतुहल ने अब सर पर मारा हथौड़ा उनके!
"हाँ, अपने अदृश्य रूप में!" बोले बाबा,
अदृश्य रूप में? तो फिर? भरत..........और वो......किशोर..............?
"सम्भव है बाबा, आप मदद करें!" संभाल कर बोले सिलाइच साहब!
"और यदि उनकी इच्छा न हो दर्शन देने की, तो?" पूछा बाबा ने,
बात सही थी! लाख टके की बात थी! तब हम क्या कर सकते थे? कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं!
"इसका प्रश्न का उत्तर नहीं है मेरे पास, बाबा!" बोले सिलाइच साहब!
"जैसी प्रभु-इच्छा! आपने पर्यटन किया, निष्ठां रखी उसके प्रति, आपको दर्शन अवश्य ही प्राप्त होने चाहियें! परन्तु............................." कहते कहते रुके वो!
"परन्तु क्या बाबा?'' पूछा सिलाइच साहब ने!
"मैं और किसी की नहीं कह सकता, कि दर्शन होंगे या नहीं, और पूर्णतया ये भी नहीं कह सकता कि आप उस योग्य होंगे कि नहीं, हाँ, मैं इतना अवश्य कर सकता हूँ, कि आपको, ऐसे ही नौ बाबाओं का पता बता सकता हूँ, हमने उनके दर्शन कोई ग्यारह दिन पहले किये थे!" बोले बाबा,
ओहो! बिल्ली के भाग से छीका फूटा! ठूंठ वृक्ष पर कोंपलें फूटीं! रेगिस्तान में झमझम बारिश हुई!
अब तो हम सभी चरणों में पड़े उन बाबा के! ऐसा उपकार! अब वो बताएँगे तो अवश्य ही दर्शन-लाभ होगा हमें! साकार होने को है जीवन! नौ बाबा! धन्य हुए हम तो! रंग लायी मेहनत हम सभी की!
"कल आप, उत्तर-पश्चिम में जाएँ, एक पहाड़ी मिलेगी, उसका रूप किसी ऊँट के कूबड़ जैसा है, उस से दायें जाएँ, एक नदी मिलेगी, उसमे पानी नहीं है, होगा तो भी बहुत कम, उसको पार करें, सत्लुठा के वृक्ष मिलेंगे, उन्हीं वृक्षों के बीच में एक ढलान पड़ेगी, उतर जाएँ, नीचे आपको, एक बड़ी सी गुफा दिखेगी, गुफा के मुख पर, गिलोय, बड़ी-गिलोय की लताएँ मिलेंगीं! इसी गुफा में वास है उनका! आगे प्रभु-इच्छा!" बोले बाबा!
जैसे खजाना मिला! जैसे सर में घुसा तीर बाहर निकला! जैसे जिगर को चीरता हुआ भाला, बाहर निकला! ऐसा चरम-सुख! ऐसी चरम-सुखानुभूति! हम सभी ने बाबा के चरण पकड़ लिए! उन्होंने जैसे कुंजी दे दी थी हमें! हमने बाबाओं का बहुत बहुत धन्यवाद किया! उसने आशीर्वाद लिया! और फिर हम वापिस हुए! जब हम आये तो चार बज चुके थे! अब कौन सोने वाला था! किसे नींद आती!सुबह छह बजे तक, हमने अपने अपने पिट्ठू-बैग कस लिए थे, उस मंदिर पर जलने वाला वो अलाव, अब शांत हो चला था! सुबह चाय-नाश्ता किया, और मैं, शर्मा जी, मदन, किशोर, भरत, सिलाइच साहब और जॉजी मैडम, चल पड़े उसी मार्ग पर! हालांकि जॉजी मैडम को चलने में दिक़्क़त थी, परन्तु वो लोभ-संवरण के वशीभूत हो चली थीं! अतः, सिलाइच साहब ने उन्हें साथ चलने की आज्ञा प्रदान कर दी! इस प्रकार, नौ बजे, हम चल पड़े थे!
हम उसी मंदिर के पास आये, अलाव शांत था और बाबा वहाँ थे नहीं, वे कहाँ गए, पता नहीं! वे संभवतः पाव फटते ही कुछ कर गए थे!
"चले गए!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"ये कब आएं, कब जाएँ, क्या कह सकते हैं!" बोले सिलाइच साहब!
"सही कहा आपने!" कहा मैंने,
"चलो आगे!" बोले सिलाइच साहब!
"जी!" कहा मैंने,
सिलाइच साहब की तो फुर्ती देखते ही बनती थी! ऐसे लम्बे-लम्बे डिग भरते थे कि हमें दौड़ कर उनके बराबर होने तक, पकड़ना पड़ता था!
"उत्तर-पश्चिम!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो इसका अर्थ हुआ.......ये, ये दिशा!" बोले वो,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
और हम चल पड़े आगे!
"उन्होंने बताया था कि सत्लुठा के वृक्ष मिलेंगे, आपको पहचान है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, देखे हैं मैंने, चीकू जैसा होता है सत्लुठा!" बोला मैं,
"मतलब गहरा हरा पत्ता?' बोले वो,
"जी! बरसात में, तोतई सा लगता है!" बोले वो,
"समझ गया!" बोले वो,
और हम आगे बढ़ चले!
ठीक बारह बजे, एक जगह रुके! आराम किया और पानी पिया!
"वो है पहाड़ी शायद?" बोले वो,
मैंने गौर से देखा, उधर, उस पहाड़ी को!
"हाँ, वही है, कूबड़ जैसी है!" कहा मैंने,
"बाबा न मिलते तो लौटना पड़ता हमें!" बोले सिलाइच साहब!
"अब इसे हमारा भाग्य ही माना जा सकता है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
आराम करने के बाद, हम फिर से चल पड़े आगे के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम आगे बढ़ लिए थे, अब हमारे सामने लक्ष्य था वो, वो पहाड़ी, जिसका शिखर एक ऊँट के कूबड़ सा दीखता था! पहाड़ी पर, खूब जंगली पेड़ लगे थे! तो हम उसी के लिए आगे बढ़ते जा रहे थे, हमें उसके दायें से जाना था, वहीँ हमें एक बरसाती नदी मिलनी थी, जिसे पार कर, एक ढलान मिलती, और इस तरह, उस ढलान से नीचे उतरना था! तो हमारे क़दम आगे बढ़ते जा रहे थे! सामने, उस पहाड़ी के लिए, यहां पेड़ तो थे, घने, लेकिन रास्ता आसानी से मिलता जा रहा था, कांटेदार झाड़ियाँ नहीं थीं यहां, ये बहुत ही अच्छी बात थी!
"करीब आधा किलोमीटर होगी अभी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, इतना तो है ही!" बोले सिलाइच साहब!
"रास्ता ठीक है, नहीं तो ये आधा किलोमीटर ही जान ले लेता!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, घास है यहां!" बोले वो,
"ये! ये देखिये!" बोले वो,
अब सभी रुके! ये एक सांप की केंचुली थी, सांप करीब दस फ़ीट लम्बा रहा होगा वो! और काफी मोटा भी, उसके शल्क भी काफी बड़े थे, उम्रदराज़ सांप होगा! पत्थरों के बीच में से निकला था वो, केंचुली उतारने के लिए, तभी वो केंचुली, एक साथ ही गुथी पड़ी थी! मदन से कह कर, वो केंचुली रखवा ली उसके बैग में! काले सांप की केंचुली बेहद ही काम की होती है! इसके प्रयोग बहुत हैं! यदि बालक को सूखा रोग हो, तो बकरी के दूध को, आधा कप लो, और उस बालक के हाथ के अंगूठे के बराबर इस दूध में मिलाकर उसको पिलाना चाहिए! माह में चार बार! सूखा रोग समाप्त हो जाएगा! यदि शरीर में, खुजली हो, दाने पड़ जाते हों, पित्त उछल जाती हो, तो नीम के तेल में, पांच ग्राम ये केंचुली डाल कर, तेल को मिला लो, और स्नान से एक घंटे पहले, इस तेल की मालिश करें, रोग समाप्त हो जाएगा, दो हफ़्तों में ही! यदि बालक को नज़र लगती हो, तो चांदी के ताबीज़ में इस केंचुली को मढ़वा लें चाहिए, बालक को गले में धारण करवा दीजिये, नज़र-दोष ख़त्म होगा! स्तनपान कराने वाली स्त्री का दूध पर्याप्त मात्र में न उतरे तो ताम्बे के ताबीज़ में मढ़वा कर, उलटी बाजू में बाँध दें, दूध उतरने लगेगा! नौकरी में समस्याएं हों तो, श्री भोले नाथ को, सात दिन, इस केंचुली को, उनके चरण में रख कर, भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र का जाप करें! समस्याएं समाप्त होंगी!
खैर, हम आगे बढ़ते गए! और सच में, सत्लुठा के वृक्षों का जंगल आ गया! हम दायें ही चलते जा रहे थे, यहीं जाना था!
"हाँ, चीकू जैसा है ये पेड़!" बोले सिलाइच साहब,
"हाँ जी!" बोला मैं,
"इस पर कोई फल लगता है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, तोते और पक्षी अक्सर उसके बीज की मींग खाते हैं, वैसे वो फल स्वाद में कसैला और कड़वा होता है!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोले वो,
हम चलते गए! और पहाड़ी आ चली थी!
"अब दायें!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
उन्होंने जांच-पड़ताल की, और फिर एक रास्ते के लिए इंगित किया,
"यहां से चलो!" बोले वो,
"जी चलिए!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
सभी को देखा पीछे, और हम चल पड़े!
"अब नदी, यहीं होनी चाहिए!" बोले वो,
"हाँ, यहीं कहीं आसपास!" बोला मैं,
"चलते रहो बस!" बोले वो,
हम आगे चलते रहे, और करीब पौने घंटे के बाद, हमें वो नदी दिखाई दी! ये बरसाती नदी थी, पानी कहीं कहीं ही था, हाँ, पत्थर गोल थे, अर्थात नदी स्थायी ही थी, और पुरानी भी थी!
"इसको पार करना है!" बोले वो,
"तो चलो!" कहा मैंने,
और हम, पानी से बचते-बचाते नदी पार करने लगे! नदी बरसात के समय कम से कम छह या सात फ़ीट गहरी होती होगी, जब हम उसके बीच में आये, तो अंदाजा लगाया!
"बरसात में तो कहर ढाती होगी ये!" कहा मैंने,
"हाँ, गहरी है!" बोले वो,
"आसपास पानी ही पानी होता होगा!" कहा मैंने,
"कोई शक नहीं!" बोले वो,
और हमने नदी पार कर ली! आ गए दूसरे किनारे पर! और हम सभी पार कर गए थे उसे! अब ज़रा आराम करने की सोची, बस यही कोई दस मिनट!
"पानी लो?" बोले सिलाइच साहब,
"जी!" कहा मैंने, और पानी पिया!
"अब हम दूर नहीं!" बोले वो,
"लगता तो है!" कहा मैंने,
"अभी पता चल जाएगा!" बोले वो,
तभी ठंडी हवा का झोंका आया! हवा बड़ी ही ठंडी थी! फुरफुरी सी दौड़ा दी उसने तो बदन में हमारे!
"लगता है, उत्तर में बरसात हो रही है!" बोले सिलाइच साहब!
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"यहां तो मौसम साफ़ है!" बोले शर्मा जी,
"यहां कब मौसम बदल जाए, पता नहीं!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" बोला मैं,
"धूप है अभी, एकदम से बदली छाने लगेंगीं और अगले ही पल, बरसात! पहाड़ी मौसम है!" बोले वो,
"हाँ जी, ये तो है!" बोले शर्मा जी,
"उठो अब!" बोले वो,
और हम सभी उठे, उन्होंने सभी को देखा, जॉजी मैडम से बात हुई कि वो ठीक हैं या नहीं, वो ठीक थीं, उनका उत्तर यही था!
"अब चलो आगे!" बोले वो,
"जी!" बोला मैं,
हम आगे बढ़ते चले फिर! एक जगह पठार सा भू-भाग मिला, चढ़ाई सी करनी पड़ी उस पर तो!
"अब यहीं होगी ढलान!" बोले सिलाइच साहब!
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"तो चलो फिर! अब मंजिल दूर नहीं!" बोले वो,
नया जोश भर दिया उनके इन शब्दों ने तो! ईंधन सा पड़ गया हम में! और पांवों में जैसे पहिये से लग गए! हम आगे बढ़ते गए फिर!


   
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