अपनी गति भूल गया था!
वो भी स्थिर रह गया था,
ऐसा रूप देखकर!
तभी मेरे पीछे,
जयकार सा हुआ!
मैंने पीछे देखा,
बाबा टेकचंद और बाबा हरी सिंह,
दंडवत प्रणाम कर जयकार कर रहे थे!
और तभी,
वो नागराज मुस्कुराया!
उसकी मुस्कुराहट!
कैसी दिव्य थी!
कैसी आनंददायी थी!
कैसी अभय प्रदान करने वाली थी!
अद्भुत!
और फिर एक दिव्य स्वर गूंजा!
जैसे वीणा बजी हो!
जैसे जल-तरंग बज उठे हों आकाश में!
जैसे संगीत छलक रहा हो,
व्योम के कण कण से!
और सुगंध!
अलौकिक सुगंध!
वो सुगंध मुझे आजतक याद है!
देवत्व भरा था उस सुगंध में!
हाँ,
वो स्वर!
"मै कंद्रपमणि हूँ!" वो बोला,
एक विलक्षण सा मद था उस स्वर में!
जैसे वो मद सर से चढ़ता,
और एड़ी से निकल जाता गुदगुदी सा करता हुआ!
शरीर में झुनझुनाहट सी हो गयी!
मद जहां जहां ठहरता,
वहाँ गुदगुदी सा करने लगता!
हाथ काँप से उठते थे,
होंठ और नासिका के मध्य का स्थल,
इस तरह गुदगुदी महसूस कर रहा था,
कि छींक ही आने वाली थीं!
ऐसा था वो मद!
"हम धन्य हुए! हम धन्य हुए!" मेरे पीछे से आवाज़ आयी!
ये वही दोनों बाबा थे!
मैंने हाथ जोड़ लिए!
"ये मेरा उषालि-प्रदेश है! मै सहस्त्र वर्षों से यहीं हूँ!" उसने कहा,
उषालि-प्रदेश!
हाँ,
उल्लेख पढ़ा था मैंने इसका,
कहीं,
कहीं तो अवश्य ही पढ़ा था!
हाँ!
याद आया!
ये उषालि-प्रदेश कद्र्प से सम्बंधित है!
हाँ! जान गया!
और तभी!
जैसे जल की बूँदें,
हमारे शरीर पर पड़ीं!
इस से,
शरीर में नयी जान आ गयी!
वो जो चेतना,
शून्यता को प्राप्त हुए जा रही थी,
अब लौट आयी वापिस!
मद उतरने सा लगा!
नहीं तो,
हम सभी अचेत हो जाते उसी क्षण!
ये भांप लिया था उसने,
दया दिखायी थी!
प्रसन्न थे वो,
कद्र्पमणि हमसे!
और क्या चाहिए था!
ये किसी आशीर्वाद से कम नहीं था!
बिलकुल कम नहीं!
ये तो महा-आशीर्वाद था!
महा-आशीर्वाद!
सच कहता हूँ मित्रगण!
स्वर्ग!
स्वर्ग देखा है मैंने!
और उन तीनों ने!
इसी भूमि पर!
इसी पावन भूमि, मेरे देश में!
क्या नहीं है इस भूमि पर?
स्वर्ग, नरक सब यहीं हैं!
स्मरण रहे,
मृत्यु-लोक से जो एक बार सम्बन्ध जुड़ा,
तो फिर मोक्ष से ही छूटोगे!
स्वर्ग और नरक!
यहीं भोगना है!
सब यहीं!
इसीलिए,
इस संसार के महान चिंतक, महान धर्म, अध्यात्म और तंत्र,
ये सभी सत्कर्मों को बढ़ावा देते हैं!
यही है सच!
मूल रूप से सच यही है!
अब ये जो शब्द है न कर्म?
इसके कई भेद हैं!
कई भेद!
इतना सरल नहीं इसको जानना!
बस आप इतना जानो,
कि जिस प्रकार,
इस संसार में,
ऊर्जा के एक नन्हे से कण का भी अवसान नहीं होता,
वो बस अपना रूप बदल लेता है,
उसी प्रकार कर्म के फल का क्षय कभी नहीं होता!
अच्छा कर्म,
बुरा कर्म!
अच्छे का फल अच्छा,
और बुरे का फल बुरा!
पुण्य यदि संचित हों,
तो जगपालक भी मौन रहते हैं!
कैसे?
याद कीजिये,
जगपालक ने शिशुपाल के,
निन्यानवे पाप क्षमा किये थे!
बस, यही जानिये आप!
तो पुण्यों का क्षय क्यों हो?
उन्हें संचित करें तो,
क्या नहीं हो सकता?
आपको देवत्व भी प्राप्त हो सकता है!
क्या असम्भव है तब?
कुछ भी तो नहीं!
सम्भवतः हमारे कुछ पुण्य संचित थे,
जो इन नागराज का अलौकिक रूप देखने को मिला!
मै तो यही मानता हूँ!
कोई तंत्र नहीं!
कोई मंत्र नहीं!
बस!
आदर,
सम्मान!
और कुछ नहीं!
न भोग,
न चोला,
न मिष्ठान!
कुछ नहीं!
मात्र कुछ संचित पुण्यों का फल!
और उन्ही संचित पुण्यों के फल द्वारा आज ये दर्शन प्राप्त हुए थे!
हम धन्य हो गए थे!
हम चारों हाथ जोड़े,
और नेत्र बंद किये,
उस अपरम्पार की इस अपार अनुकम्पा पर,
अपने आपको को गौरान्वित महसूस कर रहे थे!
और तभी फिर से वही प्रकाश!
आँखें चुँधियाईं!
और हमने अपने हाथ आगे किये!
नेत्र बंद हो गए थे!
जब खोले,
तो सामने वही नागराज थे!
अपने उसी सर्प-रूप में!
जीभ लपलपाते!
हमने फिर से सर झुका कर प्रणाम किया!
मित्रगण!
हम ऐसे ही बैठे रहे!
उनका आशीर्वाद यूँ ही,
ग्रहण करते रहे!
और फिर एक फुफकार!
अपना फन उठाया उन्होंने,
और फिर पीछे हटे!
और चल दिए!
हम,
देखते रहे उनको!
जाते हुए!
हम तो,
कृतज्ञ हो गए थे उनके!
वो प्रकाश,
चलता रहा आगे आगे,
और फिर धूमिल होता गया!
और जैसे फिर शून्य में लोप हो,
ओझल हो गया!
हम ऐसे ही बैठे रहे!
अवाक से!
हैरान से!
जो देखा था,
वो अविस्मरणीय था!
अलौकिक था!
परन्तु देखा था!
इन्ही नेत्रों ने देखा था!
उस तालाब ने भी देखा था!
उन वृक्षों ने भी देखा था!
उस आकाश के खंड ने,
और उस भूमि-खंड ने भी देखा था!
अब हम उठे!
उन दोनों बाबाओं ने जयकार किया!
और हम वापिस आ लेटे वहाँ!
मै उसी के बारे में सोचता रहा!
प्रश्न बुनता,
और फिर सुलझा भी देता!
इसी उहापोह में आँख लग गयी!
सो गए हम!
अब सुबह हुई!
हम सभी प्रसन्न थे!
हम स्नान कर आये सभी!
और फिर उस भूमि को नमन किया!
चहुँ-दिश धन्यवाद किया!
और फिर प्रणाम!
और हम चल दिए वापिस वहाँ से!
दोपहर तक,
हम मुख्य-सड़क तक आ गए!
तब हम चारों ने,
करीब एक घंटे के बाद, एक बस पकड़ी!
और उस कसबे तक आ गए,
अब वहाँ भोजन किया,
और फिर स्टेशन चले,
गाड़ी का इंतज़ार किया,
और जब गाड़ी आयी,
तो सवार हुए,
और फिर पहुँच गए हम,
रात्रि से थोडा पहले वहाँ!
बाबा शम्भू नाथ को सब बता दिया!
उन्होंने भी प्रणाम किया!
हम तीन दिन और ठहरे वहाँ!
हाँ, खूब माछ खायी हमने वहाँ!
और फिर विदा ली!
स्टेशन पहुंचे,
और वहाँ से मुख्य शहर,
और वहाँ से दिल्ली की गाड़ी पकड़ी ली!
पहुँच गए दिल्ली!
मन में उसके लिए आदर लिए,
सम्मान लिए!
जो आज भी वहीँ विचरण कर रहा है!
सहस्त्र वर्षों से!
और न जाने कब तक!
मुझे वो नागराज!
आज भी याद हैं!
उनके दर्शन, जैसे मैंने, आज ही, अभी, पिछले ही क्षण किये हैं!
अद्धुत!
बस!
अद्भुत!
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
