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वर्ष २०११ कोलकाता से पहले एक स्थान की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 मौत सामने दिख गयी मुझे उस पल!

 वो फिर से पलटा!

 और मेरे सामने आ गया!

 कुछ नही कहा मुझे!

 जान में जान आयी अब!

 "हे नागराज! इच्छा पूर्ण करें!" मैंने डरते, सहमते कहा!

 उसने फिर से कुंडली बनायी!

 और फिर फुंकार भरी!

 "हे नागराज!" मैंने कहा,

 और अब वो पलटा!

 पीछे हुआ,

 और कुंडली खोल,

 जाने लगा!

 मैं खड़े खड़े देखते रहा उसको!

 इच्छा पूर्ण नहीं हुई!

 शायद अभी विश्वास नहीं था मेरे ऊपर!

 और वो,

 प्रकाश बिखेरता हुआ!

 चला गया!

 और फिर ओझल हो गया!

 शर्मा जी दौड़ के आये मेरे पास!

 मेरे कंधे पर हाथ रखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "आपने जीत लिया उसका विश्वास गुरु जी!" वे बोले,

 मैंने सांस भरी!

 "कोई बात नहीं, कल सही!" वे बोले,

 "हाँ" मैंने धीरे से कहा,

 और अब वापिस हुए!

 वहाँ तक पहुंचे!

 बाबा टेकचंद ने अब मेरी प्रशंसा की!

 "कोई बात नहीं! फिर हो जायेंगे दर्शन आपको!" वे बोले,

 मैंने उनको धन्यवाद किया!

 और फिर हम लेट गए!

 मुझे अभी तक,

 उसकी सुगंध याद थी!

 पीले कनेर के फूल की भीनी भीनी सुगंध!

 और उसका रूप!

 उसका स्पर्श!

 उसकी छुअन!

 और उसका फन!

 चौड़ा फन!

 डूबा रहा मैं उसी की सोच में!

 और सोचते सोचते, आँख लग गयी!

 मैं सो गया!

सुबह हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैं उठा!

 सभी उठ चुके थे!

 बस मैं ही देर से उठा था!

 दोनों बाबा,

 तो स्नान भी कर चुके थे!

 अब मैंने वही कीकर वाली दातुन निकाली,

 और की अब रगड़म-पट्टी!

 फिर गया तालाब तक!

 सफ़ेद सफ़ेद छोटे छोटे फूल लगे थे उसमे,

 एक जगह घुसा पानी में,

 और फिर डुबकियां लगायीं!

 पानी ठंडा था बहुत!

 लेकिन गर्मी थी,

 तो मजा आ गया स्नान करने में!

 अब वापिस हुआ!

 बालों में तेल चुपड़ा!

 और फिर आराम से बैठ गया!

 हवा चली तो ठंडी लगी!

 गर्मी से राहत मिली!

 तब बाबा टेकचंद और बाबा हरी सिंह,

 चले शिकार करने!

 वे तालाब की तरफ ही गए थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 दाना सा बिखेरा उन्होंने!

 शायद चने थे,

 और फिर जो धागों का जाल सा बुना था,

 वो बिछा दिया!

 और आ गए वापिस!

 आधे घंटे के बाद गए,

 तो एक बगुला,

 और दो जल-मुर्गियां फुदक रही थीं!

 बगुला तो उड़ा दिया आज़ाद करके!

 और जल-मुर्गियां पकड़ लीं!

 और कर दीं हलाल वहीँ पर!

 साफ़-सफाई की,

 और आ गए हमारे पास!

 आज जल-मुर्गी भूनी जानी थीं!

 और फिर की तैयारी!

 और लगा दीं भूनने के लिए!

 मसाला, नमक लगाया और फिर,

 भूनते गए!

 जब भून गयीं,

 तो एक हमे पकड़ा दी,

 और एक में उन्होंने काम चलाया!

 कर लिया भोजन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 भूख मिट गयी थी तब!

 और फिर किया आराम!

 लेट गए!

 और आँख लग गयी मेरी तो!

 शान्ति थी वहाँ,

 बस जल-पक्षियों की आवाज़ें ही आती थीं!

 या कभी कभी कोई तोता आवाज़ कर देता था!

 इसी कारण से, वहाँ समय थमा सा हुआ था!

 खाओ और सो जाओ!

 बस!

 यही नियम था यहाँ पर!

 मेरी आँख खुली,

 सभी सोये थे,

 शर्मा जी भी सोये थे,

 मैं उठ बैठा,

 पानी पिया,

 और फिर शर्मा जी भी उठ बैठे,

 बोतल की आवाज़ से,

 जाग गये थे!

 अब गर्मी हो रही थी बहुत!

 लू चल रही थीं!

 हमारा वो पेड़,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 आसरा दिए बैठा था हमे!

 सघन था,

 इसलिए छाया बहुत घनी थी उसकी!

 उसी के कारण हम बचे हुए थे!

 घड़ी देखी तो तीन का समय हो चला था तब!

 लेकिन धूप भयानक थी!

 तालाब में बगुले बैठे थे,

 लू चलती तो उनकी गर्दन के पंख,

 आड़े-तिरछे हो जाते थे!

 लेकिन बगुला कुशल शिकारी होता है!

 जब भी पानी में मुंह मारता,

 मुंह में छोटी मछली अवश्य ही होती थी उनके!

  तो अब दोपहर बीत चुकी थी,

 लेकिन गर्मी ज़बर्दस्त थी!

 त्वचा भूनने वाली गर्मी पड़ रही थी!

 तभी बाबा टेकचंद जागे!

 और उन्होंने हरी सिंह बाबा को भी जगाया!

 पानी पिया उन्होंने,

 पानी हम साथ लाये थे,

 भूख तो हो जाती सहन,

 प्यास नहीं होती!

 बजे पांच!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और अब कांटे सम्भाल,

 वे दोनों चल पड़े तालाब की ओर!

 और फिर,

 कांटे,

 चारा लगा कर फेंक दिए!

 करीब पंद्रह मिनट के बाद,

 बाबा हरी सिंह ने,

 एक बड़ी सी मछली मार ली!

 बस!

 यही बहुत थी!

 काफी बड़ी मछली थी वो!

 की साफ़,

 और ले आये!

 लांची थी ये मछली!

 और फिर,

 लगायी आग!

 और भूनना शुरू किया!

 जब भून गयी,

 तो हमने खायी!

 और भूख मिटाई अपनी!

 मिट गयी भूख!

 हो गया पेट शांत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 नहीं तो चक्की सी चल रही थी!

 अब बस!

 रात का था इंतज़ार!

 ताकि दर्शन हों उस नागराज के स्वरुप के!

 और हम फिर चले यहाँ से!

 अब फिर से लेट गए!

 इंतज़ार करते रहे!

रात हो चुकी थी,

 नौ से ऊपर का समय था,

 आग जल ही रही थी!

 और हम लोग बैठे हुए थे,

 फिर मैं अपनी चादर पर लेट गया!

 शर्मा जी भी लेट गए!

 लेकिन वो नहीं आया!

 बारह बज गए,

 ताकते ताकते!

 नहीं आया वो!

 अब आँखें भारी होने लगीं!

 और मैं सो गया!

 शर्मा जी और वे दोनों भी सो गए!

 कोई रात तीन बजे,

 मेरी आँख खुली!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सामने प्रकाश था!

 दुरंगा प्रकाश!

 मैं बैठ गया!

 शर्मा जी को जगाया,

 वे जागे,

 और सामने देखा,

 वो आ गया था,

 भाग पड़े!

 जब जूते पहने,

 तो बाबा टेकचंद भी जाग गए!

 बैठ गए वो!

 सामने देखा उन्होंने,

 और हाथ जोड़ लिए!

 हम उठे और चल दिए उस तरफ!

 भागे, और वहाँ पहुँच गए!

 वो कुंडली मारे बैठा था!

 और हमारी ओर ही फन कर रखा था!

 जैसे हमारी ही प्रतीक्षा हो उसको भी!

 हम सामने गए उसके!

 उसके नेत्र दहक उठे!

 मैं घबरा सा गया!

 और हाथ जोड़ लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घुटने के बल बैठ गया!

 हाथ जोड़े जोड़े!

 शर्मा जी भी बैठ गए!

 "हे नागराज!" मैंने कहा,

 और उसने फुफकार भरी!

 और फुंकार!

 कुँए से रस्सी जब खिंचती है,

 दीवार से टकराती हुई कुँए की,

 तो जैसी आवाज़ आती है, वैसी ही आवाज़ आयी!

 भय हुआ हमे!

 न जाने क्या हो आगे?

 कहीं क्रोधित न हों?

 "हे नागराज!" मैंने कहा,

 और वो आगे आया अब!

 मेरी बंधी घिग्घी!

 थूक गटकने लगा मैं!

 वो और करीब आया!

 सांस लेता था तो हिस्स की आवाज़ आती!

 गरम सांस!

 और करीब आया!

 और फन फैलाया उसने!

 मेरे चेहरे के सामने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और मेरे नेत्र से उसके नेत्र भिड़े!

 मैं तो सिहर गया उसकी आँखें देख कर!

 गेंद जैसी बड़ी बड़ी आँखें!

 और कोड़े जैसी जीभ!

 दो-फाड़!

 जीभ लहराती तो लगता जैसे कोई,

 काला चुटीला लहरा रहा है!

 श्याम-नील रंग था उसका!

 उसकी श्वास मेरे चेहरे से टकरायी!

 और मैं!

 मैं जैसे काठ का बन गया!

 भूमि से चिपक गया था मैं तो!

 हाथ कांपने लगे थे!

 सर टपकता पसीना,

 माथे से होता हुआ,

 आँखों में जाने लगा!

 मेरी चिबुक से,

 टप टप टपक रहा था!

 और धड़कन ऐसी,

 कि जैसे दिल मुक्त हो गया है,

 पसलियों से!

 वो तो क्रीड़ा सी कर रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और दिमाग!

 वो तो अब जैसे डर के मारे,

 शांत हो गया था!

 कुंद पड़ गया था!

 वो आगे हुआ,

 मेरे कंधे से होता हुआ,

 मेरी कमर में कुंडली मार ली!

 ओह!

 अब क्या होगा?

 कैसे हाथ लगाऊं?

 क्या करूँ?

 मंत्र चला नहीं सकता!

 खंजर इस्तेमाल कर नहीं सकता!

 क्या करूँ?

 मन ही मन,

 अब गुरु-स्मरण किया!

 वही निकालें इस ब्रह्म-संकट से!

 उसने कुंडली मारी,

 तो मेरे सामने अपना फन किया!

 शरीर की जान आधी हो गयी!

 ऊपर की ऊपर,

 और नीचे की नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 फिर उसने कुंडली खोली!

 मैंने मन ही मन गुरु-नमन किया!

 बच गया था मैं!

 अभी तक तो जीवित था!

 आगे का पता नहीं!

 उसने छोड़ दिया मुझे!

 और सामने कुंडली मार,

 बैठ गया!

 अब जान में जान आयी मेरे!

 दिल, फिर से पसलियों में क़ैद हो गया!

 दिमाग में हलचल सी शुरू हो गयी!

 अब शब्द फूटे मेरे मुंह से!

 "हे नागराज! अपने स्वरुप का दर्शन दें!" मैंने कहा,

 उसने फुफकार मारी!

 और फिर एक ही पल में!

 वो प्रकाश-पिंड में परिवर्तित हो गया!

 मेरी तो आँखें चुंधिया गयीं!

 ढक ली आँखें मैंने अपने हाथों से!

 और फिर खोलीं!

 मेरे सामने!

 ओह!

 कैसे बताऊँ?


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे सामने..........

प्रकाश बेहद चमकदार और तापयुक्त था,

 जैसे सामने मेरे,

 कोई कोयले की सी भट्टी,

 चल रही हो!

 बड़ी मुश्किल से नेत्र खुले,

 मेरी कमीज़ के आस्तीन,

 कमीज़ के कॉलर दहक पड़े,

 उनके बटन गरम हो गए,

 मेरे गले में पड़ी माला बेहद गरम हो गयी!

 ऐसा था उसका आभामंडल!

 मैंने मुश्किल से सामने देखा!

 और हैरत में पड़ गया!

 मेरे सामने कोई राजा समान व्यक्ति खड़ा था!

 उज्जवल रूप था उसका!

 चौड़ा वक्ष!

 चौड़े ही कंधे!

 और लम्बे लम्बे स्याह केश!

 पीछे कंधे से होते हुए,

 पीठ तक जाते हुए!

 रौबदार ताव वाली मूंछें!

 दमकता चेहरा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सुसज्जित वेश-भूषा!

 सुनहरा रंग वेश-भूष का!

 आभूषण युक्त देह!

 शरीर किसी पहलवान की तरह!

 और कद कोई आठ-नौ फीट!

 देव!

 हाँ!

 कोई देव!

 जैसे कोई देव,

 उतर आया था भूमि पर!

 कोई कुमार, कुमार देव!

 अद्वित्य रूप था उसका!

 जो एक बार देख ले,

 तो बस जड़ता को प्राप्त हो जाए!

 जैसे श्री नंदी महाराज अपने ईष्ट,

 श्री महाऔघड़ के समक्ष पाषाण से हो जाते हैं!

 कितनी पावन ही वो भूमि,

 कितना पावन है ये देश मेरा!

 कितने सौभाग्यशाली हैं हम भारतवासी!

 जो ऐसे समृद्ध और इन नागराजों के संग इस भूमि पर,

 विचरण करते हैं!

 वहाँ तो समय,


   
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