भय तो था हमे!
उसने एक दंश मारना था,
और मैं सीधा मृत्युराज का अतिथि बन जाता!
एक विशेष अतिथि!
मैंने सर उठाया!
उसको देखा,
उसके भयानक नेत्रों को देखा!
पीले,
लौह जैसे खौलता है,
ऐसे नेत्र!
जीभ लपलपाता!
मेरे शरीर में,
झुरझुरी छूट गयी!
"क्षमा! क्षमा हे नागराज!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा!
और जीभ लपलपाई!
दो-फाड़ जीभ ऐसी,
जैसे कि दो,
तलवारें!
आपस में भिड़ी हुईं!
"क्षमा!" मैंने कहा,
और वो पीछे हटा!
और पीछे!
और पीछे!
और मैं उठा!
घुटनों पर बैठा!
हाथ जोड़े हुए!
वो पीछे हट गया था!
और अब,
कुंडली मार,
हमे ही देख रहा था!
गौर से!
फन बंद था उसका!
अब कोई फुफकार नहीं!
कोई फुफाकार नहीं!
अनुभव क्र. ७९ भाग ४
By Suhas Matondkar on Sunday, October 12, 2014 at 5:09pm
कैसी भी!
शांत था वो!
जैसे क्षमा कर दिया था उसने!
हमारी धृष्टता को,
क्षमा कर दिया था!
आदर और बढ़ गया!
मैंने प्रणाम किया उसको!
और खड़ा हो गया!
वो पीछे हटा!
कुंडली खोली!
और पीछे घूमा!
और चल पड़ा पीछे!
और हमारे देखते ही देखते!
जंगल में चला गया!
झाड़ियों से होता हुआ!
प्रकाश झलकाता हुआ!
और हम,
जड़त्व के मारे,
देखते रहे उसे!
और वो ओझल हो गया!
कितना अलौकिक नज़ारा था वो!
अद्भुत!
उसकी गरम श्वास,
अभी तक जैसे,
मेरे हाथों पर,
जीवंत थी!
और वो अलौकिक सुगंध!
भीनी भीनी सुगंध!
अभी तक नथुनों में बसी थी!
उस रूप!
चमक!
देह!
सब याद था!
"देव!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! देव! कोई देव!" मैंने कहा,
अभी तक हम वहीँ देख रहे थे!
जहां वो ओझल हुआ था!
"अद्भुत!" वे बोले,
"निःसंदेह!" मैंने कहा,
अब लौटे हम वापिस!
और आ गए!
बाबा टेकचंद गुस्सा थे बहुत!
अब उनको समझाया मैंने!
बड़ी मुश्किल से माने वो!
हम लेट गए!
लेकिन मैं,
वहीँ खोया था!
उसके दर्शन में!
ये आधुनिक संसार!
पढ़ा-लिखा संसार!
नहीं मानता इनका अस्तित्व!
न माने!
अच्छा है!
न माने!
कम से कम,
सुरक्षित तो हैं ही वो!
ये तो,
हमारे भारतीय अध्यात्म,
संस्कृति,
और सभ्यता की पहचान हैं!
किस भी जगह चले जाइये आप!
ये सम्मान के अधिकारी हैं!
हमारी पहचान हैं!
और किसी सर्प को देखिये आप!
किसी नाग को!
दिखने में ही,
अलौकिक लगते हैं!
इस लोक के वासी नहीं लगते!
उनके गौ-चरण,
अथवा नंदी-चरण को देखिये!
लगता है कि,
जैसे स्व्यं श्री महाऔघड़ ने खींचा हो!
बनाया हो!
अपने हाथों से!
कितना अनुपम रूप होता है उनका!
अद्भुत!
बहुत अद्भुत!
करवटें बदलता रहा मैं!
शर्मा जी,
अपना हाथ अपने माथे पर रखे,
सोचते रहे!
आँखें,
तारागण पर लगी थीं!
पर मन,
मन उसी इच्छाधारी में था!
उस सहस्त्र वर्षों के तपस्वी में!
तपस्याधारी में!
कितना अलौकिक था उसका रूप!
हाँ!
उसकी वो मणि!
श्वेत-मणि!
कैसा प्रकाश था!
अद्वित्य!
अद्वित्य प्रकाश!
दिव्य-प्रकाश!
जैसे,
निशापति ने अपनी चमक,
स्थायी तौर से दे दी हो उसको!
जैसे वे स्वयं समा गए हों उसमे!
उसका,
श्याम-नील वर्ण!
कैसा अद्भुत!
कैसा अद्भुत!
चमक रहा था!
मणि के प्रकाश में!
अलौकिक!
निःसंदेह अलौकिक!
यही सोचते सोचते!
रात घिर आयी!
और आँख लग गयी!
हुई सुबह!
और हम जागे!
फिर मैंने स्नान किया!
डुबकियां लगायीं!
ठंडा पानी था!
गर्मी में भी,
फुरफुरी छूट गयी!
फिर वस्त्र पहने!
और आ गया उस पेड़ के नीचे!
तब,
बाबा टेकचंद,
और हरी सिंह,
चले गए शिकार के लिए!
और हम लेटे रहे!
एक घंटे के बाद आये!
दो खरगोश मार लाये थे!
साफ़ किये!
और फिर भूनने रखे!
और फिर हुए तैयार!
और हमने अब भोजन किया!
जंगली खरगोश थे!
मोटे ताज़े!
मजा आ गया!
पेट भर गया, लबालब!
और फिर किया आराम!
नींद लग गयी!
पेड़ के नीचे,
पर्याप्त छाया थी,
ठंडी छाया,
नींद ली अब!
हम सभी ने!
करीब तीन बजे,
आँख खुली!
और मैंने देखा,
बाबा हरी सिंह और बाबा टेकचंद!
तालाब पर खड़े थे!
कांटे डाले हुए!
मच्छी मारने गए थे!
हम भी वहीँ चले!
कुछ देर बैठे!
और तब!
बाबा हरी सिंह ने डोर खींची!
और जैसे ही खींची,
एक बड़ी सी मछली ने मारी छलांग!
वाह!
कोई पांच किलो की मच्छी मारी थी बाबा ने!
खींच ली!
यही बहुत थी!
रोहू थी ये!
अब बाबा ने वहीँ किया उसका काम तमाम!
और साफ़ कर ली!
और अब चले वापिस!
और फिर,
लगायी आग!
और भूने को रख दी!
चटक चटक!
भुनती रही!
बाबा, मसाला और नमक लगाते रहे उसमे!
और फिर पत्तों से बने पत्तल पर रख दी!
खुशबु उड़ी!
और पेट ने मारी दहाड़!
झपाझप, हम लीलते चले गये!
पेट भर गया!
ऊपर तक!
मजा आ गया!
बहुत लज़ीज़ बनी थी!
लेट गए फिर उसके बाद!
और अब था रात्रि का इंतज़ार!
फिर हुई रात!
और अब दिल धड़का!
उसके आगमन की प्रतीक्षा थी बस!
हम चारों ही जागे थे!
बातें कर रहे थे आपस में!
अभी पानी शेष था हमारे पास,
तो मैंने,
अब पानी पिया,
और फिर से लेट गया!
रात करीब ग्यारह बजे,
फिर से प्रकाश सा चमका!
अब ये दो रंग का था!
एक सफ़ेद, दूधिया,
और एक संतरी!
आज दो मणियाँ थीं उसके पास!
हम दौड़ पड़े उधर!
मैं और शर्मा जी!
दोनों!
वो आ चुका था वहाँ!
बैठा था,
फन फैलाये!
कुंडली मारे!
और वे मणियाँ, अब उसके मस्तक पर नहीं थीं!
कुंडली के मध्य थीं!
वहीँ से प्रकाश आ रहा था!
चमकता हुआ!
संतरी वाला प्रकाश तो,
जैसे दहक रहा था!
प्रकाश,
उसके कुंडली के मध्य से ऐसे आ रहा था,
जैसे कोई टॉर्च भूमि में दबा दी हो!
उस प्रकाश में,
उसका फन साफ़ दिखायी दे रहा था!
बहुत बड़ा फन था!
हम आगे गए!
डर डर के!
और हाथ जोड़ लिए!
बैठ गए!
घुटनों के बल!
उसने,
फुफकार भरी!
और फिर फुंकार छोड़ी!
भयानक आवाज़ हुई!
कोई हाथी भी हो,
तो भाग जाए पीछे!
ऐसी आवाज़!
कुछ देर ऐसे ही रहे हम!
न वो हिला,
और न हम!
फिर मैं आगे बढ़ा!
सांप ऐसे ही बैठा रहा!
मैं और आगे गया!
कोई हरक़त नहीं की उसने!
मैं और आगे बढ़ गया!
बस, कोई एक मीटर की दूरी रह गयी!
हमारे बीच!
अब उसने जीभ लपलपाई!
और मैं बैठा!
हाथ जोड़े!
और घुटनों पर बैठ गया!
मेरे सामने एक विशाल सर्प था!
विषैला!
खतरनाक!
और ताक़तवर!
उसने कोई हरक़त नहीं की!
विश्वास जीत लिया था उसका मैंने!
मैंने सर उठाया!
और फिर उसके दहकते नेत्रों में देखा!
कुछ पल ऐसे ही बीते!
"हे नागराज!" मैंने कहा,
उसने फुंकार मारी!
मैं चुप हुआ!
"हे नागराज!" मैंने कहा,
और फिर से एक भयंकर फुंकार!
मैं घबरा सा गया!
पाँव तले जैसे ज़मीन खिसक गयी!
मैंने हिम्मत टटोली अपनी!
बाँधा उसे!
"हे नागराज!" मैंने कहा,
अब कोई फुंकार नहीं!
शांत!
एकदम शांत!
मेरी हिम्म्त बढ़ी!
मैंने प्रणाम-मुद्रा में उसको प्रणाम कहा!
"हे नागराज! आप क्रोधित न हों! हम बस आपके दर्शन करना चाहते हैं! इच्छाधारी स्वरुप में!" मैंने कहा,
कह दिया!
बड़ी हिम्म्त जुटा कर!
उसने फिर से फुंकार भरी!
मेरी आँखें बंद हुईं!
"हे नागराज! हम दर्शन करना चाहते हैं आपका!" मैंने कहा,
फिर से फुंकार!
तेज फुंकार!
"हम कोई अहित नहीं करेंगे आपका! बस आपके दर्शन के अभिलाषी हैं!" मैंने कहा,
अब कोई फुंकार नहीं!
फिर कुछ पल,
ऐसे ही बीते!
अधर में लटके लटके!
और फिर से फुंकार!
तेज फुंकार!
अब उस सांप ने कुंडली खोली!
और वो अलौकिक मणियाँ,
अपने मस्तक पर धारण कीं!
और अपना फन फैलाया!
मेरे सामने आया!
मैंने उसके शल्क देखे!
एकदम करीब से!
दम साध लिया मैंने!
सांस थम सी गयी!
मेरे माथे पर उसने अपना फन रखा!
मैं कांपा अब!
लगा,
कुंडली में दबोच लेगा मुझे!
फिर मेरे कंधे से गुजरा!
मेरी साँसे अटक गयीं!
