"क्या?" मैंने पूछा,
"कोई खरगोश मिल जाए, या फिर कोई जल-मुर्गी!" वे बोले,
"अच्छा! अच्छा!" मैंने कहा,
और बाबा अपना झोला ले कर चले गए!
जंगल में,
औ रह गये हम!
शर्मा जी उठे,
और फिर हम सभी स्नान करके आये!
स्नान किया,
और फिर वस्त्र पहन,
सर में तेल आदि लगा,
बैठ गए!
रात का दृश्य घूम गया आँखों के आगे!
वो दो पुंज!
प्रकाश-पुंज!
दिव्य-प्रकाश!
और तभी बाबा आते दिखायी दिए!
कानों से पकड़ दो खरगोश लाते हुए!
बाबा ने रखे वो वहाँ!
और अब हुआ उनको साफ़ करने का काम शुरू!
बाबा ने की सफाई!
और फिर साफ़ करने के बाद!
उनको भूनने को रख दिया!
मसाला आदि ले कर आये थे वो!
जंगल के खिलाड़ी थे!
अब होता भरपेट भोजन!
और फिर भोजन हुआ तैयार!
गर्मागर्म परोसा गया!
हमने खाया!
और पेट की आग बुझाई!
पेट में खाना गया,
तो अब ऊर्जा आयी!
अब वहाँ रोटियां तो बन नहीं सकती थीं!
बस ऐसे ही काम चलाना था,
कभी खरगोश,
कभी मछली, तालाब से पकड़ कर,
कभी जल-मुर्गी!
यही था बस वहाँ उपलब्ध भोजन!
और कुछ नहीं!
"मैं आता हूँ अभी" मैंने बताया बाबा को!
"ठीक है" वे बोले,
और मैंने शर्मा जी को लिया साथ,
और चला वहीँ,
जहां वो नाग देखा था कल रात को!
वहाँ पहुंचा!
न तो वहाँ कोई बिल था,
न कोई पत्थर!
न कोई टूटा शहतीर!
न कोई पेड़!
हाँ!
वहाँ रेत में,
निशाँ बने थे,
उसी नाग के,
निशानों को देखा तो कुछ अंदाजा हुआ,
सांप दस फीट से अधिक था,
मोटा भी बहुत होगा,
उसके शल्क काफी बड़े बड़े रहे होंगे!
और फन तो काफी बड़ा होगा!
यही था वो मणिधारी सांप!
इच्छाधारी सांप!
वो जंगल में जाता था,
मैं उसके निशान का पीछा करता करता,
आगे चला,
निशान,
चलते चले गए,
और हम भी!
अब वे निशान, जंगल में चले गए!
यहाँ घास-फूस थी,
अब मुश्किल थी!
तो अब फिर वापिस हुए!
"देख आये निशान?" बाबा ने पूछा,
"हाँ, देख आये" मैंने कहा,
और हम बैठ गए!
"वो जंगल में जाता है, और फिर देर रात को ही आता है" वे बोले,
''अच्छा!" मैंने कहा,
और अब मैं लेटा!
दोपहर हुई!
और फिर कोई चार बजे!
बाबा ने मुझे एक डोर पकड़ाई,
फिर शर्मा जी को भी!
ये मछली पकड़ने का काँटा था!
शाम की तैयारी करनी थी,
उजाला रहते ही!
अब हम चारों चल दिए,
तालाब की तरफ!
और फिर चारे के लिए,
केंचुए खोद लिए,
कांटे पर लगाए,
और कांटे फेंक दिए!
मैंने भी फेंक दिया!
केंचुआ, आधा लगाया जाता है,
और आधा लटका रहने दिए जाता है,
ताकि मछली को हरकत दिखायी दे,
और वो उसको निगल ले!
मछली चबाती तो है नहीं,
निगलती ही है,
इसीलिए कांटे में फंस जाती है!
सबसे पहले,
शर्मा जी के कांटे में हरकत हुई,
वो लकड़ी जिस से काँटा बंधा था,
डूब गयी!
बाबा ने झट से डोर ले ली,
और खींचना शुरू किया!
और एक खग्गा मछली उछलते हुए आ गयी!
कोई किलोभर की होगी वो!
वाह! वाह!
अब बाबा ने एक गड्ढा खोदा,
हाथों से,
उसमे पानी भरा तालाब का,
और वो मछली कांटे से छोड़कर,
उस गड्ढे में डाल दी!
शर्मा जी का काँटा, फिर से चारा लगा कर फेंक दिया पानी में!
और तभी,
बाबा हरी सिंह ने डोर खींची!
उन्होंने भी कोई आधा किलो की,
रोहू मछली पकड़ ली!
कांटे से आज़ाद की,
और गड्ढे में!
फिर मेरे कांटे में हरकत हुई!
मैंने खींचा,
और आधा किलो भर की,
एक और खग्गा आ गयी!
कांटे से अलग की,
और गड्ढे में!
थोड़ी देर बाद,
बाबा के कांटे में हुई हरकत!
उन्होंने भी एक किलो भर की रोहू मार ली!
हो गया इंतज़ाम!
अब शाम को भोजन होगा!
भुनी हुई मछलियां!
वाह वाह!
अब बाबा हरी सिंह और बाबा टेकचंद ने,
साफ़ की मछलियां!
और धो लीं!
छीछड़े वहीँ तालाब में फेंक दिए!
डोर लपेटीं और फिर चल दिए!
अब जलाई आग!
और मछलिया भूनने को रखीं!
खुश्बू मस्त!
और फिर तैयार हो गयीं!
और अब हमने लिया माछ-आनंद!
कर लिया भोजन!
हाथ-मुंह धो,
आराम से लेट गए!
अब बस,
रात होने का इंतज़ार था!
हाँ तो अब रात हो चुकी थी!
सब ओर असीम सी शान्ति पसरी थी!
बस हमारी आग की रौशनी ही हलचल मचा रही थी!
ऊपर,
तारागण,
तारापति,
अपने अपने स्थान में चाक-चौबंद थे!
चाँद का प्रकाश फैला था!
परन्तु,
हमारी आँखों में नींद नहीं थी!
कल रात जो देखा था,
वो भूले नहीं,
भूल रहा था!
कैसे भूला जाता!
अभी सोच ही रहे थे हम,
अपना अपना दिमाग दौड़ा ही रहे थे,
कि,
दूर, श्वेत प्रकाश आता दिखायी दिया!
आज संतरी नहीं था!
वो रख आया था अपनी संतरी मणि!
किसी सुरक्षित स्थान पर!
वो प्रकाश,
और बड़ा,
और बड़ा होता गया!
ओर जैसे कोई,
सी.एफ.एल. जल रही हो!
तेज रौशनी की!
हम खड़े हो गए सभी!
आँखें फाड़ फाड़ वहीँ देखें!
शर्मा जी ने अपना चश्मा साफ़ किया!
और गौर से देखा!
सांप तो दिखायी नही पड़ा,
बस वो प्रकाश ही दीख रहा था!
अलौकिक प्रकाश था वो!
अद्वित्य प्रकाश!
अब नहीं रुका मैं!
और मैं चलने लगा उसकी ओर!
बाबा ने आवाज़ दी,
नहीं रुका मैं!
शर्मा जी भागे मेरे पास,
और हम चल पड़े!
उसी प्रकाश की तरफ!
भागे!
दौड़े!
वो प्रकाश वहीँ था!
हम भागते रहे!
और आ गए वहाँ!
सांप कोई बीस मीटर दूर था!
हाँ!
अब दीख रहा था!
बहुत विशाल था!
काले रंग का!
भक्क काला!
चाँद के प्रकाश और मणि के प्रकाश में,
नीला दीख रहा था!
सांप घूमा,
और हमे देखा!
उसके नेत्र ज्वाला की तरह थे!
काँप से रहे थे नेत्र!
हम एकटक देखते रहे!
मैंने झट से दोनों हाथ जोड़ लिए!
शर्मा जी ने भी!
हमने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी थी!
हम कोई नुक्सान नहीं पहुंचाना चाहते थे उसे!
उसने फुंकार भरी!
और हम पीछे हटे!
वो क्रोध में था!
फन फैलाता,
और फिर बंद करता!
सर पर रखी मणि,
चमके जा रही थी!
आँखें चुंधिया जाती थीं!
फिर से एक और फुंकार!
और हम खड़े रहे जस के तस!
समय हो गया स्थिर!
हम एक दूसरे के सामने थे!
वो सांप!
वहीँ खड़ा था!
आधा शरीर उठाये!
खड़े हम भी थे!
आधा शरीर झुकाये!
उसकी मणि का प्रकाश चमक रहा था!
दमक रही थी मणि!
उसके चमक में,
मेरी कमीज के अंदर पहनी हुई बनियान भी,
चमकने लगी थी!
शर्मा जी का चश्मा लश्कारे मार रहा था!
चश्मे की सुनहरी डंडियां,
सुनहरा प्रकाश परावर्तित कर रही थीं!
दूधिया प्रकाश था!
बहुत दूधिया!
उसने फिर से एक फुंकार मारी!
जैसे एक मरखनी भैंस या गाय,
आवाज़ करती है, ऐसी आवाज़!
वो आगे बढ़ा!
और हम झुक कर,
बैठ गए,
दोनों हाथ जोड़े हुए!
वो और करीब आया!
तभी एक भीनी सी सुगंध आयी,
कैसे बताऊँ वो सुगंध आपको!
फिर भी!
कोशिश करता हूँ!
आपने कभी पीला कनेर का फूल सूंघा है?
तेजी से सूंघिए!
एक भीनी भीनी सी सुगंध आएगी आपको!
बस,
इस सुगंध को बीस गुना कर दीजिये!
ऐसी सुगंध थी!
वो और आगे आया!
करीब दस मीटर रह गया!
फिर फुंकार मारी!
फन फैलाया,
किसी छोटी छतरी समान फन था उसका!
चमचमाता हुआ!
गौ-चरण चिन्ह बहुत बड़ा था!
उसके कंठ पर!
पीले रंग का!
चमकता हुआ!
बड़ा सा!
मेरे सीने बराबर!
ये बड़ा ही विचित्र नज़ारा था!
एक इच्छाधारी के सामने,
दो मानव!
वो सहस्त्र वर्षों से,
इस संसार में था!
और हमारी आयु तो कण समान थी उसके आगे!
आदर सहित,
हम हाथ जोड़े बैठे थे!
दम साधे!
आँखें फाड़े!
और मुंह खोले!
हैरान थे हम!
उसने फिर से फुफकार भरी!
इस बार,
हल्की सी,
भयानक नहीं!
वो समझ गया था,
कि हम उसको नुकसान नहीं पहुंचा रहे!
न ही उसकी मणि ही लेने आये हैं!
वो और आगे आया!
करीब पांच मीटर!
अब पांच मीटर ही दूर था वो!
फन बंद किये!
लेकिन उसका सर,
बहुत बड़ा था!
मेरे सर से भी बड़ा!
हाँ!
एक बात और!
उसके दाढ़ी नहीं थी!
युवा था वो!
उसकी आँखें ऐसी,
जैसे अंगार!
उसने जीभ लपलपाई!
माहौल का जायज़ा लिया!
और फिर ऊंचा उठा!
ऐसे लहराया,
जैसे कोई सपेरा किसी सांप को,
बीन से लहराता है!
उसका शरीर बहुत मोटा था!
हाथी के पाँव जैसा!
बल्कि और मोटा!
अजगर जैसा!
एकदम काला!
स्याह काला!
नीले रंग की आभा बिखेरता!
वो और आगे आया!
करीब तीन मीटर!
लहरा कर!
भाग कर!
और अब!
हम लेटे!
लेट गए नीचे!
दोनों हाथ आगे किये!
सर झुकाये!
वो और आगे आया!
और एकदम हमारे करीब!
मणि के प्रकाश से,
आँखें मिचमिचा गयीं!
चमक के मारे,
आँखें बंद ही हो गयीं!
मैंने अब अपने हाथों पर,
गरम गरम श्वास महसूस की!
वो हमारे करीब ही था!
