और रुमाल हाथ में ले,
उठ खड़े हुए!
बाबा हरी सिंह का तो साफ़ा ही बहुत था!
धूप से बचने के लिए!
और अंगोछा हाथ में लिया हुआ था,
तभी कंधे पर रखा उन्होंने अंगोछा,
और हम चल पड़े बाहर!
और अब हुई यात्रा आरम्भ!
चले गाँव से बाहर,
बाहर आ गए,
लू ने स्वागत किया!
अता-पता पूछा हमसे,
बता दिया,
और चल पड़े पैदल ही पैदल!
आठ दस किलोमीटर चलना था,
घने जंगल में!
पानी भर ही लिया था,
पानी के सहारे ही ये यात्रा सम्भव थी,
नहीं तो जीभ लटक जाती बाहर!
थोड़ी दूर ही चले,
कि प्यास लग गयी!
पानी पिया!
और फिर आगे बढ़े!
बढ़ते रहे!
और सड़क आ गयी!
"कोई साधन नहीं है आसपास तक?" मैंने पूछा,
वे हँसे!
"नहीं! जंगल में कहाँ से होगा!" वे बोले,
सही बात थी!
कहाँ से होगा!
तो साहब!
अब तो ऊँट बनना था!
चाहे ठुमक ठुमक के चलो,
चाहे भागो!
बस चलते जाओ!
अब सड़क पार कर हम चलते रहे!
हुआ जंगल शुरू!
भयानक जंगल था ये!
एक पगडंडी सी थी उधर!
बस उसी पर चलते रहे!
आगे आगे टेकचंद बाबा,
पीछे मैं,
फिर शर्मा जी,
और फिर बाबा हरी सिंह!
चलते रहे!
अब छाया आ गयी थी पेड़ों की,
अब गर्मी उतनी नहीं थी,
हाँ, नमी बहुत थी!
घास और झाड़-झंकाड़ की!
दीमकों की बाम्बियां बनी थीं!
रेंग रही थीं दीमक वहाँ,
मजदूर लोग,
अपना कामकर रहे थे उनके!
टूट-फूट का काम ज़ारी था!
हम आगे बढ़ते रहे!
और आधा रास्ता पार कर लिया!
अब घुटने जवाब देने लगे!
और हम सब,
बैठ गए एक बड़े से पेड़ के नीचे!
मैंने तौलिया उतार सर से,
और बिछा लिया!
और बैठ गया!
फिर जूते खोले!
भाप सी उड़ गयी उनमे से!
जुराब से आयी सड़ांध पसीने की,
लेकिन क्या करते!
मजबूरी थी!
मैंने अपने बाएं देखा,
सामने झड़बेरी लगी थी!
मोटे मोटे बेर लगे थे,
गोल गोल!
मैंने जूते पहने,
और शर्मा जी को लिया साथ,
और चल पड़े बेर तोड़ने!
कम से कम आधा किलो बेर तोड़ लिए!
और हुए वापिस!
और अब सभी चबाने लगे बेर!
कुछ खनिज तो गए पेट में!
कुछ विटामिन!
बेर बहुत मीठे थे!
प्राकृतिक मिठाई थी!
और फिर लेट गए!
छह बज चुके थे उस समय तक!
बल्कि ऊपर का ही समय था!
पानी पिया!
और फिर खड़े हुए!
जूते पहने!
शरीर ने न कही!
अनसुना किया!
और चल दिए आगे!
चलते रहे!
चलते रहे!
रात करीब आठ बजे,
हम पहुँच गए वहाँ!
बड़ा ही डरावना सा स्थान था!
कोई भी जंगली जानवर आ जाए तो समझो,
जान हथेली पर!
खैर!
बाबा ने आग जलायी!
और हम बैठ गए!
अब आराम किया!
बदन का जोड़ जोड़ खुल गया था!
कोई ऐसा जोड़ नहीं था,
जो गालियां न सुना रा हो!
लेकिन क्या करते!
आना भी तो था!
रात हुई!
आकाश में तारे चमके!
चाँद आ डटे!
बाबा ने अपनी टॉर्च ठीक कर ली थी!
नए सैल डलवा लिए थे!
अब आँख-मिचौली नहीं करती वो!
घुप्प-घनेरी रात थी वो!
बस, आग की लपटों की रौशनी जहां तक पड़ती,
वही सब दीखता था,
आगे कुछ नहीं!
"यहीं है बाबा वो?" मैंने पूछा,
"हाँ, आगे, वहाँ एक छोटी सी पहाड़ी है, वहीँ" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
अब तो सुबह ही दिख सकता था वो!
रात में तो असम्भव ही था!
बाबा ने अब झोला खोला,
और निकाला भोजन!
रोटियों पर सब्जी रखी,
और पकड़ा दी सभी के हाथों में,
हम सभी खाने लगे!
भोजन कर लिया,
अब पानी पिया!
हाथ-मुंह साफ़ किये,
और बैठ गए!
अब बाबा टेकचंद उठे!
औए घेरा खींचा एक,
सुरक्षा घेरा,
विष-हरण घेरा!
ताकि कोई,
विषैला कीड़ा-मकौड़ा,
सांप, बिच्छू प्रवेश न करने पाये!
और फिर फैला लें टांगें हमने!
और आराम से बातें करते रहे!
और फिर नींद आ गयी!
सो गए हम!
निश्चिन्त!
सुबह हुई!
हमारे बाएं ही वो तालाब था! बस थोड़ी ही दूर,
एक टीले के पीछे,
बाबा यहीं ले गए हमे!
दातुन-कुल्ला किया,
हमने स्नान किया फिर,
और वस्त्र पहन,
वापिस वहीँ आ बैठे!
अब यहाँ से,
आगे की रणनीति बनानी थी!
कि आगे किया क्या जाए!
अब मंत्रणा हुई!
और फिर निर्णय हो गया!
हम आकर बैठे!
"तो चले बाबा पहाड़ी पर?" मैंने कहा,
"हाँ, चलते हैं" वे बोले,
और फिर हम चल पड़े!
सामान उठाया और चल पड़े पहाड़ी की तरफ!
पहाड़ी दूर थी,
कोई एक किलोमीटर तो रही होगी!
दिक्कत हुई वहाँ तक जाने में,
गड्ढे थे,
और झाड़ियां बहुत थीं,
भूमि अब ऊपर उठने लगी थी,
इस से और दिक्कत हुई,
सांस फूलने लगा था,
ऊपर से धूप,
जान की दुश्मन!
हमारी परछाईयाँ ही उपहास उड़ा रही ही हमारा!
हिलते-डुलते,
संतुलन बनाते,
हम चलते चले गये!
और पहुँच गए एक जगह!
"ये, ये है वो पेड़, जहां मैं छिपा था" बाबा ने कहा,
मैंने पेड़ देखा,
बड़ा मोटा पेड़ था,
उसकी शाखाएं भूमि के करीब ही छू रही थीं,
चढ़ना आसान था उस पर!
जंगली पेड़ था,
कटहल का सा,
शायद उसी की प्रजाति का था,
"और वो, वहाँ देखा था मैंने उसको" वे बोले,
दूर पेड़ों का एक झुरमुट था,
वहीँ इशारा किया था उन्होंने,
कोई ढाई सौ मीटर दूर,
"कोई बाम्बी वगैरह है वहाँ?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई नहीं है" वे बोले,
"इसका अर्थ वो यहीं रहता है कहीं" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कोई कंदरा आदि है क्या वहाँ?" मैंने पूछा,
"यहाँ तो नहीं है, आगे हो या पीछे, वो पता नहीं" वे बोले,
"ढूँढा जाए?" मैंने पूछा,
"चलो" वे बोले,
और अब हम दो दो के गुट में हुए,
एक बाएं से जाएगा,
और एक दायें से,
और फिर आपस में मिल जायेंगे,
यदि कोई कंदरा होगी,
तो पता चल जाएगा!
और फिर देखते हैं क्या होता है!
और हम दो दो के गुट में चल दिए,
मेरे साथ शर्मा जी थे,
सामान आदि पेड़ के नीचे ही रख दिया था,
कोई आता जाता था नहीं,
तो चिंता की बात नहीं थी कोई!
अब लगाना शुरू किया चक्कर उस छोटी सी पहाड़ी का!
और लगाते चले गये!
गर्मी तो चिंघाड़ रही थी!
बीच बीच में हम रुक जाते थे,
अवलोकन करते थे,
और फिर आगे बढ़ जाते थे!
दो घंटे लग गए!
और फिर हमको वे दोनों दिखायी दिए,
आते हुए!
मिल गए!
और पता चल कोई कंदरा नहीं है!
न उनको मिली,
न हमको ही!
अब फंस गए थे हम!
क्या करें?
मंत्र चलाते,
तो किसी अनहोनी की आशंका थी!
अब तो केवल एक ही काम था,
वापिस पेड़ के पास जाएँ,
और अपने सौभाग्य के कारण,
कुछ दिख जाए तो भली मानो!
यही किया!
और वापिस हुए हम!
आ गए वापिस!
भूख लगी हुई थी!
भोजन रात वाला ही था,
रोटियां और अचार,
वही खाया हमने,
और पानी पिया!
और मैं तो लेट गया फिर!
दोपहर बीती,
और फिर शाम हुई!
शाम को एक बार फिर से स्नान कर लिया हमने!
तरोताज़ा हो गये!
फिर से दो दो रोटियां खा लीं,
अचार के साथ,
अब तो रोटियां पापड़ बन गयी थीं!
सुबह की सुबह ही देखते!
रात हुई!
आग जलायी!
और घेरा खींचा और सो गए!
आराम से सोये!
करीब रात दो बजे,
बाबा ने मुझे मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए जगाया,
और मुंह बंद रखने को ही कहा,
हाथ के इशारे से!
और दूर दिखाया मुझे इशारा करके!
वहाँ दो प्रकाश के छोटे छोटे पुंज चमक रहे थे!
एक सफ़ेद!
ट्यूबलाइट जैसा,
और एक गहरे संतरी रंग का!
आँखें फटी रह गयीं मेरी!
ये नागमणि थीं! दो नागमणि!
ऐसा ही बताया था बाबा ने!
मैंने अब शर्मा जी को जगाया,
वे जागे,
और दिखाया उनको!
विस्मय में रह गए वो!
वो प्रकाश पुंज,
धीरे धीरे ओझल हो गए नज़रों से!
ये वही था!
वही मणिधारी नाग!
"चलें बाबा?" मैंने पूछा,
"नहीं!" वे बोले,
"फिर कब?" मैंने पूछा,
"अभी रुक जाओ" वे बोले,
रुक गए!
और क्या करते!
नज़रें वहीँ टिकीं रहीं हमारी!
घंटा!
दो घंटे!
ढाई!
और फिर तीन!
और कुछ समय बाद!
फिर से वापिस आया वो!
फिर से वही प्रकाश बिखेरता!
उस प्रकाश में आसपास का दृश्य भी दीख रहा था!
धवल प्रकाश था!
हम किसी,
अलौकिक दृश्य के साक्षी बन चुके थे!
वो प्रकाश ठहर गया!
और हमारी नज़रें भी ठहर गयीं!
और फिर अचानक से वो प्रकाश गायब हो गया!
और अँधेरा हो गया!
हमे समझ नहीं आया कुछ भी!
कोई बिल तो नहीं वहाँ?
जहां ये घुस गया?
कहाँ चला गया?
और तभी!
फिर से प्रकाश हुआ!
और,
चल पड़ा प्रकाश आगे!
झाड़ियों में से होता हुआ,
चमकता हुआ,
गायब हो गया!
मैं अवाक रह गया!
कहाँ गया?
किधर गया?
सच में दो मणि हैं उसके पास!
एक सफ़ेद,
और एक संतरी!
कैसा दिव्य प्रकाश था!
मन हुआ,
भाग जाऊं अभी वहाँ!
पर बाबा नहीं माने!
अब नींद उड़ गयी थी!
सुबह होने को ही थी!
फिर भी,
मैं लेट गया!
और आँखें बंद कर लीं!
फिर भी आँख लग ही गयी!
सो गए हम!
सुबह जब आँख खुली,
तो पेड़ की पत्तियों में से,
धूप आँख-मिचौली खेल रही थी!
बाबा उठ चुके थे!
और किसी तैयारी में लगे थे!
"कहाँ की तैयारी है?" मैंने पूछा,
"भोजन की व्यवस्था करने जा रहा हूँ" वे बोले,
"कैसा भोजन?" मैंने पूछा,
"देखता हूँ, क्या मिलता है" वे बोले,
