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वर्ष २०११ कोलकाता से पहले एक स्थान की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 "गाँव तो दूर है बहुत अभी" वे बोले,

 और मैं हुआ सन्न!

 "कितनी दूर?'' मैंने पूछा,

 "कोई बीस किलोमीटर" वे बोले,

 "तो यहाँ क्यों उतरे?" मैंने पूछा,

 "वो उधर, सड़क के पार है" वे बोले,

 अर्थात हमारे उलट!

 "तो बाबा, कहां जा रहे हैं हम?" मैंने पूछा,

 "बिलबा जोगन के यहाँ" वे बोले,

 "अच्छा" मैंने कहा,

 और क्या कहता,

 कुल मिलाकर ये,

 कि रात काटनी थी!

 इसीलिए जा रहे थे!

 लेकिन ये बिलबा जोगन भी न जाने कहाँ बसी थी!

 इतनी दूर आकर!

 "और कितनी दूर?" मैंने पूछा,

 "बस आ लिए" वे बोले,

 और सच में,

 हम एक गाँव में प्रवेश कर गए!

 गाँव के कुत्तों ने देखा,

 तो भौंके!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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 हम हुए मुस्तैद!

 टेकचंद बाबा ने लगायी हांक एक!

 और कुत्ते शांत!

 अर्थात!

 जानते थे वे कुत्ते बाबा को अच्छी तरह!

 और बाबा की टॉर्च ने फिर से सांस तोड़ी!

 बाबा ने फिर से हड़काया उसको!

 जल उठी!

 और हम एक घेर से में प्रवेश कर गये!

 वहाँ एक फाटक सा था!

 बाबा ने फाटक खटखटाया!

 और अंदर से कहीं, चिटकनी खुलने की आवाज़ आयी!

चिटकनी खुली और कोई बाहर आया!

 टेकचंद बाबा ने फिर से हांक भरी!

 और जो आया था बाहर,

 उसने भी हांक भरी!

 ये तो कूट-भाषा था बाबा टेकचंद की!

 रात के बारह करीब बज चुके होंगे!

 दूर, कुत्ते भौंक रहे थे!

 बस उन्ही का शोर सुनायी दे रहा था!

 रात का अँधेरा था,

 अधिक कुछ दिखायी नहीं दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 हाँ, तो वो,

 आदमी आया,

 और फाटक खोला,

 "आओ" बाबा टेकचंद बोले,

 और हम अंदर चले!

 अंदर भी अँधेरा था बहुत!

 टेकचंद बाबा की टॉर्च का ही सहारा था!

 बाबा ने एक लालटेन जलवायी,

 और फिर हुआ उजाला!

 मैंने सामान रखा!

 पहली ही नज़र में मुझे तो ये कोई भुतहा सा मकान दिखा!

 लकड़ी के शहतीरों से छत बनायी गयी थी,

 छत में न जाने क्या क्या खुंसा हुआ था!

 मेरे ठीक सामने, मोरपंख खुंसे हुए थे,

 और शायद मच्छी पकड़ने की डोर थी, काँटा लगा हुआ था उसमे!

 एक खटिया थी वहाँ,

 और टोकरियाँ बड़ी बड़ी!

 बाबा ने उस आदमी से बात की,

 तो पता चला उसका नाम किशोर था,

 बिलबा जोगन का पुत्र था वो!

 "आओ जी" टेकचंद बोले,

 और हम चले उनके साथ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 एक कोठरे में आ गए,

 यहाँ तख़्त पड़े थे,

 बिस्तर भी लगा दिया था किशोर ने,

 अब मैंने अपना सामान तांगा एक खूँटी पर,

 और बैठ गया!

 टेकचंद बाहर चले गए!

 अब हम तीन उन दोनों ही तख्तों पर बैठ गए!

 लालटेन जल रही थी!

 मैंने बत्ती बढ़ा दी उसकी कुछ और,

 वो बटन सा घुमा कर!

 थोड़ी देर में बाबा आ गए,

 "खाना?" उन्होंने पूछा,

 "खा लेंगे" मैंने कहा,

 भूख लगी थी!

 बाबा फिर बाहर चले गए!

 और फिर आ गए,

 थाली लेकर! और एक बड़ा सा परात लेकर!

 परात में मच्छी थी!

 और साथ में चावल!

 प्लेट रख दीं,

 अब जिसको जितना चाहिए, ले लो,

 मैंने लिया, चावल लिए और फिर मच्छी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हाथों से ही मढ़ गए!

 सभी के सभी!

 बढ़िया थी मच्छी!

 हलकी सी ही गरम थी, लेकिन थी बढ़िया!

 बात ये थी कि भूख लगी थी!

 तो सब बढ़िया ही बढ़िया!

 मैंने खाया खाना,

 और पेट भरा!

 डकार आयी और पानी पिया!

 अब हाथ मुंह धोये,

 कुल्ला किया,

 हाथ मुंह पोंछे,

 और लेट मारी अब!

 अब सुबह ही आँख खुलनी थी!

 आज मदिरा की हुड़क,

 हुड़क ही रह गयी!

 चलो कल सही!

 अब सो गए!

 हुई सुबह!

 जल्दी ही उठ गए!

 अब देखा नज़ारा सामने!

 पुराना सा गाँव था ये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सामन इक तालाब था,

 काफी बड़ा!

 जाल सा लगा था उसमे,

 शायद मत्स्य-पालन के लिए रखा गया था वो!

 शर्मा जी भी आ गए!

 और हमने फिर अपनी वहिं कलवाली दातुन निकाली,

 और हो गयी रगड़म-पट्टी शुरू!

 फिर कुल्ला किया!

 तब तक चाय आ गयी थी!

 स्टील के गिलासों में!

 धुंआ उड़ता हुआ!

 शुद्ध देहाती चाय!

 दूध अलग!

 पत्ती अलग!

 पानी अलग!

 और अदरक साबुत की साबुत!

 साथ में कुछ नमकीन!

 ये पाउच वाली नमकीन अब हर जगह पहुँच गयी हैं!

 वही ली साथ में!

 और फिर स्नान किया!

 बर्मा लगा था घर में,

 वहीँ से नहाये धोये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर अंदर आ बैठे!

 पता चला बिलबा जोगन अपनी बेटी के यहां गयी है!

 कल आएगी वापिस!

 कोई बात नहीं साहब!

 हमको तो जाना था आगे!

 रात ही बिताने आये थे!

 तो अब मैंने बाबा को देखा,

 चाय पी ही चुके थे!

 "हाँ जी? कब कलना है?" मैंने पूछा,

 "भोजन कर लें?" उन्होंने पूछा,

 "गाँव में कर लेंगे, अब चलना चाहिए" मैंने कहा,

 "ठीक है" वे बोले,

 और अब,

 सामान उठाया,

 किशोर से मिले,

 और फिर चल दिए बाहर,

 गाँव की ओर,

 अभी सड़क तक आना था,

 और वहाँ से फिर कोई साधन पकड़ना था!

 अगर मिल गया तो!

 चले जी बाहर!

 और आ गए सड़क पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तभी एक दूध वाली गाड़ी मिल गयी,

 बाबा ने बात की,

 और बात बन गयी!

 उतार दिया उसने हमको गाँव से कोई दो किलोमीटर पहले,

 मैंने उस गाड़ी वाले को पैसे दे दिए!

 घुटने बचा लिए थे उसने!

 नहीं तो घिसाई पक्का थी!

 अब चले यहाँ से पैदल पैदल!

 साथ में एक नहर सी बह रही थी,

 छोटी सी,

 उसके साथ साथ ही चल रहे थे!

 मिट्टी जूतों में चढ़ गयी थी!

 जूते गालियां दे रहे थे!

 गालियां सुनते सुनते,

 आखिर हम पहुँच गए गाँव!

 और कर गए प्रवेश!

 गाँव के मध्य पहुंचे,

 और फिर टेकचंद बाबा एक घर में ले आये हमे!

 घर में काफी लोग थे!

 अचरज से हमे देखें सभी!

 बाबा ने,

 एक कमरे में बिठा दिया हमको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हमने सामान रख दिया वहीँ!

 एक लड़का पानी लाया,

 हमने पानी पिया!

 और जूते उतारे!

 और टांग ऊपर कर,

 बैठ गए चारपाई पर!

 चारपाई भी शुद्ध बंगाली तरीक़े से बनी थी!

 लेकिन थी मजबूत!

 हरियाणा जैसी!

तो हम आखिर पहुँच ही गए थे गाँव!

 पापड़ी के पेड़ लगे थे यहाँ!

 काफी सघन और बड़े बड़े!

 कुल मिलकर उनके घेर में बहुत पेड़ थे,

 एक दो अनार के भी पेड़ थे,

 और अब फूल आये हुए थे उनमे,

 कुछ ही दिनों में,

 अनार देने लगते वे पेड़!

 अनार भी कांधारी था,

 देसी नहीं!

  हाँ, तो हम,

 बैठ गए थे उस खटिया पर,

 पानी आया तो हमने पानी पिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 हम शहरी लोग हैं, तो,

 इसलिए चाय भी बनवा दी गई!

 चाय शुद्ध देहाती थी!

 पी जी हमने!

 आनंद आ गया!

 थकावट में चाय आराम देती है!

 "ये है जी मेरे छोटे भाई का घर" वे बोले,

 "अच्छा! सगे हैं?" मैंने पूछा,

 इसलिए कि बाबा तो यहाँ के रहने वाले थे नहीं!

 "हाँ, ताऊ का लड़का है" वे बोले

 "अच्छा!" मैंने कहा,

 "मैं यहीं ठहरा था उस समय जब मुझे वो खबर मिली थी, भाई ने ही बताया था मुझे" बाबा टेकचंद बोले,

 "अच्छा, और वो जगह कितनी दूर है यहाँ से?" मैंने पूछा,

 "कोई आठ-दस किलोमीटर होगी" वे बोले,

 सांप सूंघ गया!

 इतनी दूर!

 गर्मी तो निचोड़ देगी!

 सूखा पत्ता बना देगी!

 "घबराओ नहीं! वहाँ तालाब है एक, स्नान कर सकते हैं!" वे बोले,

 वाह!

 बेहोश के मुंह पर पानी मारा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 प्यासे को पानी पिला दिया!

 गिरे पड़े को सहारा दे दिया!

 बाबा के इस कथन ने तो!

 जान में जान आ गयी!

 "वो जगह अच्छी है! खूब पेड़ हैं वहाँ, एक दूसरे से गुथे हुए!" वे बोले,

 "अच्छा!" मैंने कहा,

 यानि कि,

 धूप से बचाव सम्भव था!

 अन्यथा, ये धूप तो खाल उतारने को तैयार थी!

 और तभी,

 भोजन आ गया!

 पत्ता-गोभी और मात्र की सब्जी!

 साथ में अचार!

 देहाती अचार!

 आंवला,

 और आम!

 मजा आ गया!

 साथ में हरी चटनी,

 वही मिर्च और लहसुन वाली!

 खाओ,

 और नाक बहाओ!

 पसीने नाक पर आ जाते हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 फिर पोंछते रहो!

 अब किया खाना शुरू!

 लज़ीज़ भोजन था!

 देसी ज़ायक़ा था न इसीलिए,

 तभी एक महिला,

 एक घड़ा सा ले आयीं,

 और उसमे से,

 दही निकाल,

 हमारे को एक एक कटोरा दे दिया,

 अब और क्या चाहिए!

 मैंने झट से नमक मिलाया दही में,

 और वो हरी चटनी भी,

 थोड़ी सी!

 बन गया वो इंद्र की थाली का प्रिय भोजन!

 मजा आ गया!

 नाक सुड़कते रहे,

 और खाते रहे!

 बहुत लज़ीज़ भोजन था!

 हम शहरी लोग तो,

 तरसते हैं ऐसे भोजन के लिए!

 वहाँ न ऐसा स्वाद आता है,

 न ज़ायक़ा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और न ही ऐसा आनंद!

 बस,

 पेट भरना होता है किसी तरह से!

 भोजन कर लिया!

 और अब हाथ-मुंह धोया!

 कुल्ला किया!

 और मुंह पोंछा!

 सूरज ने अपना क्रोध भड़काना,

 आरम्भ कर दिया था!

 लेकिन हम अब तक बचे हुए थे!

 पेड़ों की छाया हमारी रक्षा कर रही थी!

 भोजन किया,

 तो अब आराम की सोची!

 मैं लेट गया!

 और शर्मा जी भी लेट गए!

 बाबा ने भी भोजन कर लिया,

 और वे बाहर चले गए!

 "खाना बढ़िया था!" मैंने दांत में तीली मारते हुए कहा,

 "हाँ! बहुत बढ़िया!" वे बोले,

 "देसी ज़ायक़ा है!" मैंने कहा,

 "हाँ, यही वजह है!" वे बोले,

 अब बाबा आ गए अंदर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 बैठे!

 "कब चलोगे?" उन्होंने पूछा,

 "जब आप चाहो?" मैंने कहा,

 "चार बजे निकलते हैं" वे बोले,

 "ठीक है" मैंने कहा,

 "तैयार रहना, मैं आता हूँ अभी" वे बोले,

 और चले गए!

 और मैं,

 चार बजने का इंतज़ार करने लगा!

 इच्छाधारी को देखने की उत्कंठा ने,

 नींद ही उड़ा दी!

 बस,

 उसी के विचार!

 कुछ सवाल और,

 अनुत्तरित जवाब

आराम कर लिया था!

 अब देखी घड़ी!

 छोटा काँटा चार की करवट में ही था,

 और बड़ा वाला,

 नौ और दस के बीच में,

 और पतला वाला काँटा,

 सेकंड का,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 बड़े वाला का सन्देश पहुंचाता था,

 बार बार,

 छोटे वाले को!

 कि आगे खिसक जा!

 कुछ ही समय शेष था बस!

 तभी बाबा आ गए,

 एक झोला लिया हुआ था उन्होंने!

 भोजन बंधवा लिया था उन्होंने!

 ये बढ़िया किया था!

 रात में कम से कम आराम से तो खा-पीकर सो ही जाते!

 चेहरे पर कपड़ा बांधे,

 और सर पर,

 अंगोछा कसे!

 मैंने भी अपना तौलिया लिया,

 और सर पर रख लिया,

 घूंघट की तरह!

 ताकि धूप न लगे,

 नहीं तो धूप खोपड़ी में कर देती चम्पी,

 और हो जाता काम खराब!

 और ले लिया रुमाल साथ,

 अब सामान उठाया,

 और शर्मा जी भी अपना तौलिया सर पर रख,


   
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