डेढ़ घंटा!
पूरे डेढ़ घंटे हमने नींद ले मारी!
मजा आ गया!
अब वो पलंग और गद्दे क्या मजा देते!
जो इस भूमि ने दिया था!
पसीना नहि आया एक बूँद भी!
हवा इतनी शीतल, कि जैसे गर्मी गर्मी,
यहीं झोंपड़ी बना ली जाए!
और काटा जाया अपना सारा ग्रीष्म-काल यहाँ!
तभी शर्मा जी भी उठ गए,
और हम खड़े हुए,
फिर वापिस चले,
अपने कक्ष में!
और बैठ गए!
बाबा हरी सिंह लेटे हुए थे,
हमे देखा तो खड़े हुए,
बैठ गए!
"लेटे रहो!" मैंने कहा,
"कोई बात नहीं, आओ बैठो" वे बोले,
हम बैठ गए!
"बाबा? इस टेकचंद के बारे में बताओ?" मैंने कहा,
"टेकचंद? ये रहने वाले हैं बहराइच के, फिर रहे गोरखपुर में, कई साल, फिर बाबा शम्भू नाथ के संपर्क में आये, बहुत कुछ जानते हैं, अब यहीं रह रहे हैं, इनका पुत्र भी यहीं है, वहीँ रहते हैं अब, बहुत कर्मठ हैं, जो ठान लें, पूरा करते हैं" वे बोले,
"अच्छा! बहुत बढ़िया बात है ये तो!" मैंने कहा,
"हाँ जी, कल चल रहे हैं उनके साथ, आप जब परखोगे तो जान जाओगे" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
और हम फिर से लेट गए!
तीनों बातें करते करते लेट गए थे!
कभी ऊंघते,
कभी करवटें बदलते!
यहाँ पता चलता था कि,
बाहर गर्मी का नाच हो रहा है!
तो साहब!
बड़ी मुश्किल से हमने संध्या का आंचल पकड़ा!
उस से गिड़गिड़ाये!
दया की उसने!
और फिर संध्या हो गयी जवान!
अब हुई शाम!
तो लगी हुड़क!
लगी हुड़क,
तो जी फिर क्या था!
कहा बाबा हरी सिंह से हमने!
वे फिर से गये बाहर!
घड़ा,
तीन गिलास,
एक मग,
एक कपडे का झोला,
एक छुरी,
ले आये,
थैला पकड़ा मैंने,
और निकाला सामान,
इसमें वही, टमाटर, प्याज, खीरा, चुकंदर और मूली थीं!
की जी घिसाई हमने!
धोये,
और फिर काटे!
और बना ली सलाद!
डाला मसाला हमने!
और जी फिर दारु निकाली!
भूमि भोग दिया!
और मढ़ गए फिर!
बाबा ने एक बड़ा सा गिलास खींचा!
और हमने अपने सामान्य से ही!
तीन गिलास खाली कर दिए,
तभी वो लड़की आ गयी!
डलिया लेकर!
पेट ने मारी सीटी अब जैसे!
मैंने झट से डलिया थामी!
और कपड़ा हटाया!
आहा! आज तो बड़ी और मोटी मोटी माछ थीं!
कुल छह!
खुश्बू ऐसी की सारी ही भसक जाएँ!
अदरक, लहसुन, हरीमिर्च, कच्ची इमली आदि लगी थी उन पर!
और क्या कहने पाक-कला का तो!
मैंने एक टुकड़ा लिया, चटनी में डुबोया और खाया,
चटनी ने तो जैसे हथौड़ा सा मारा! नीबू का स्वाद था उसमे!
शायद नीम्बू के फूल पीसे गये थे!
ऐसा भोजन कम से कम मैंने पहले तो कभी इस बंगाल में नहीं किया था!
ये लड़की तो माहिर थी पाक-कला में!
उंगलियां भी चाटनी पड़ जातीं!
"बहुत बढ़िया माछ बनाती है ये लड़की!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है, हमारी दिल्ली फेल कर दी एक बार में ही!" शर्मा जी बोले,
"बिकुल जी बिलकुल!" मैंने कहा,
"माछ यहाँ सस्ती मिलती हैं, और फिर यहाँ तालाब हैं, वहीँ से आ जाती हैं, कुछ औरतें हैं यहाँ वही ले आती हैं" बाबा बोले,
"लाजवाब! ताज़ा है सारा मामला!" मैंने कहा,
"यही तो है वजह!" शर्मा जी बोले,
हम लेते रहे आनंद और उन माछ का!
अखंड आनन्द!!
भोजन कर लिया!
मिर्च के मारे जीभ तालू से लगती ही न थी!
नाक में हलचल मच गयी थी!
रुमाल से साफ़ कर कर,
नाक भी लाल हो चली थी!
लेकिन स्वाद अभी तक,
बरकरार था!
दारु समाप्त की हमने तब!
और आखिर में आखिरी टमाटर का टुकड़ा मैंने खाया!
और फिर हुआ मैं तो ढेर बिस्तर पर!
लालटेन जली थी!
खिड़कियाँ खुली थीं!
शुक्र था कि हवा चल रही थी!
नहीं तो मारे गर्मी के,
हालत पतली से भी पतली हो जाती!
किसी तरह से सोये हम!
अब पेट में मदिरा आराम करे,
तो नींद तो आनी ही थी न!
सो, सो गए हम!
खर्राटे बजाते हुए!
सुध में सोये,
या बेसुध सोये,
पता ही न चला!
सुबह हुई,
मैं गया निवृत होने,
और फिर स्नान करके आया!
तरोताज़ा हो गया!
उस दिन मौसम बढ़िया हो गया था!
हवा चल रही थी, बढ़िया और शीतल!
शायद गर्मी के पिंजरे से भाग आयी थी,
नज़र बचा के!
मैं वापिस हुआ,
और कक्ष में आ गया,
अब शर्मा जी गए!
और फिर वे भी आ गए,
बाल पोंछते हुए!
आज कीकर की दातुन की थी हमने!
कीकर की दातुन करने के एक घंटे के बाद,
मुंह में मिठास आ जाती है,
अपने आप!
फिर आयी चाय!
और हमने चाय पी!
साथ में,
वही नमकपारे!
मजा आ गया!
चाय में भी आनंद आ गया!
और जी,
फिर हुई दोपहर!
और आया फिर भोजन!
खुश्बू उड़ चली!
मुझे तो संदेह हुआ उस लड़की पर!
कि वो इंसान ही है न?
कहीं बाबा ने किसी को पकड़ तो नहीं रखा?
चाकरी करने को?
मैंने रोक लिया उसको!
अठारह उन्नीस साल उम्र होगी उसकी!
पतली-दुबली सी,
गेंहुआ रंग!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"दीप्ति" उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"दीप्ति! बहुत बढ़िया! ये भोजन तुम ही बनाती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"बहुत बढ़िया भोजन बनाती हो तुम! मैंने नहीं खाया ऐसा भोजन!" मैंने कहा,
वो हंसी,
और चली गयी!
मैंने थाली का कपड़ा हटाया,
कटहल की सब्जी थी!
दही, चटनी,
और सलाद!
साथ में दाल,
साबुत उड़द की!
और अचार!
कच्चे पपीते का और आम का!
छोटे छूटे आम थे उसमे!
एक चीरा लगा कर,साबुत ही बनाये गये थे!
मसाला इतना शानदार था उसका,
कि एक बार चखो,
तो उंगलियां चाट जाओ!
अब खाया जी कटहल!
क्या लज़ीज़ बनाया था!
दिल्ली वालों को दिखाऊं तो आँखें फटी,
और मुंह खुला रह जाए!
ऐसा लज़ीज़!
ये उस दीप्ति के हाथों का ही कमाल था!
सिल पर पिसे मसालों का,
कोई जवाब नहीं!
कोई जवाब नहीं!
भरपेट खाना खाया!
मजा आ गया!
और फिर पसर गए हम!
शाम को हमे निकलना था यहाँ से!
शाम को थोड़ी ठंडक होती और फिर शहर पहुँच कर,
कोई साधन मिल जाता,
नहीं तो कोई गाड़ी,
या को पैसेंजर ही मिल जाती!
तो,
तब किया आराम!
काफी देर आराम किया!
और फिर बजे साढ़े चार!
अब निकलना था यहाँ से!
सो, अब,
सारा सामान बाँधा!
और उठाकर,
बाबा के पास चले!
बाबा टेकचंद तैयार थे!
और हम बाबा शम्भू नाथ के पाँव छूकर,
आशीर्वाद लेकर!
चल पड़े!
तभी मुझे दीप्ति दिखी!
मैंने बुलाया उसको,
और फिर मैंने कुछ रुपये उसको दिए!
अनुभव क्र. ७९ भाग २
By Suhas Matondkar on Sunday, October 12, 2014 at 5:04pm
उसने इंकार किया!
नहीं लिए!
फिर बड़े बाबा के कहने पर, हाथ में ले लिए!
"दुबारा आउंगा फिर माछ खाने! इसीलिए दिए हैं!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरा गयी!
और हम अब चारों चल पड़े वहाँ से!
अब थी साहब वही दुष्कर पैदल यात्रा!
पानी आदि भर लिया था!
तो जी,
निकल पड़े हम वहाँ से!
तो अब शुर हुई हमारी वो छह किलोमीटर की,
हाड-तोड़ यात्रा!
एक किलोमीटर में ही,
नाक के नथुने,
घोड़े जैसे हो गए!
सांस ऐसे चले कि जैसे धौंकनी घुसेड़ ली हो सीने में!
पानी पीते जाएँ, और आगे बढ़ते जाएँ!
चलते रहे!
चलते रहे!
जूते भभक पड़े!
कंकड़-पत्थर खिल्लियां उड़ाने लगे!
सूरज क्रोध से,
अपना ताप फेंकने लगे!
सर पर तौलिया रखा था,
पसीना आता, तो पोंछ लेते थे!
कभी बैग मैं उठाता,
कभी शर्मा जी!
उर ऐसे करते करते,
हमन एवो छह किलोमीटर की मैराथन,
पार कर ली!
पार करते ही,
हम एक पुराने से बने मंदिर के,
एक पेड़ के नीचे आ बैठे!
अब यहाँ से, पकड़नी थी सवारी!
आधा घंटा हुआ!
और थकावट उतरी!
और फिर सवारी भी आ गयी!
जगह बनायी,
और साहब,
हम बैठ गए!
एक घंटे के बाद,
धक्के खाते,
पसीने बहाते,
खाया-पिया पचाते,
हिचकोले खाते,
पहुँच गए एक स्टेशन!
अब ये छोटा सा स्टेशन था!
बड़ी गाड़ी रूकती नहीं थी यहाँ,
या तो पसीनगर से बेड़े स्टेशन तक जाओ,
या फिर क़िस्मत रही तो कोई बस या ट्रक ही मिल जाए!
देखा,
एक पैसेंजर गाड़ी आने में, अभी एक घंटा था!
अब इंतज़ार करने के अलावा और कोई तरीक़ा नहीं था बचा हुआ!
अब इंतज़ार किया!
टिकट ले ही लिए थे हमने!
आकर, बैठ गए!
इंतज़ार किया अब!
लू ऐसे चले कि संग ही ले जाए प्राण हमारे!
न तो वहाँ पानी का कोई इंतज़ाम था,
न ही चाय आदि का!
जो पानी संग लाये थे,
वही बूँद बूँद पी रहे थे!
घंटा बीता,
और घोषणा हुई!
गाड़ी आने वाली थी!
हम हुए जी तैयार!
आ गए प्लेटफार्म पर!
और दूर से गाड़ी का इंजन दिखायी दिया!
सुकून हुआ!
गाड़ी आ लगी!
कुछ लोग उतरे!
और हम घुसे!
शुक्र था कि सीट मिल गयी!
अब चली जी गाड़ी आगे!
और हमने अब सीट से कमर लगायी!
सामान रख ही दिया था पहले ही!
तभी एक बूढी अम्मा आयी,
टाइम-पास मूंगफली लिए हुए,
ले ली हमने!
और टाइम पास करते हुए,
चलते रहे गाड़ी के साथ साथ!
रात करीब आठ बजे,
हम पहुंचे एक जगह!
वहाँ उतरे!
छोटा सा क़स्बा था ये,
अब पानी लिया सबसे पहले,
फिर चाय, और साथ में कुछ गरमागरम पकौड़ियां भी!
और चाय पीते पीते खाते चले गये!
अब यहाँ से पकड़नी थी बस!
टेकचंद बाबा ने उठाया हमे अब!
और चले गये एक तरफ!
और बस भी तैयार मिली!
ले ली बस!
बस ऐसी कि पूछो ही मत!
लेकिन जाना तो था ही!
तो जी, बैठ ही गए!
किराया चुकाया,
और चल पड़ी बस!
क्या रास्ता था वो!
आज तलक याद है मुझे!
मेरा बस चले तो मैं उस ड्राईवर को इनाम दे देता!
कितना कुशल था वो ड्राईवर!
गड्ढे से ऐसे निकालता था कि बस का पीछे वाला एक एक पहिया हवा में चल रहा होता!
वाह!
और फिर ब्रेक ऐसे लगाता कि अगर सामने सीट न होती तो, सामने की खिड़की तोड़ते हुए हम बाहर ही आ पड़ते!
कभी दायें हिलते, और कभी बाएं!
और हाँ!
रफ़्तार बरकरार रखी थी उसने!
वो चार घंटे की यात्रा!
ऐसी थी जैसे मंगल ग्रह की यात्रा!
हम उतर गए!
घुप्प अँधेरा!
बस, एक दो लट्टू चमक रहे थे दूर कहीं!
और बस जिसकी रौशनी थी,
वो आगे बढ़ गयी!
अब तो हम बाबा टेकचंद से ही टेक लगाए थे!
"आओ" वे बोले,
और हम चले उनके साथ,
उन्होबे अपने झोले में से,
एक टॉर्च निकाल ली थी!
टॉर्च भी ऐसी,
कि जलते जलते कभी कभी,
सांस टूट जाती थी उसकी!
वो हाथ मारते उस पर,
और वो जैसे सुबक सुबक कर,
फिर से जल उठती!
"गाँव आगे है क्या?" मैंने पूछा,
