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वर्ष २०११ कोलकाता से पहले एक स्थान की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और वैसे भी आम की बौर आयी हुई थी!

 बढ़िया!

 बहुत बढ़िया!

 और फिर हम हुए वापिस अब!

 बत्ती नहीं थी जी वहाँ अभी तक,

 खम्बे तो लगे थे,

 तार नहीं थे अभी,

 वो भी पड़ने ही वाले होंगे,

 तो साहब,

 लैंप और लालटेन का ही सहारा था यहाँ!

 अंदर के कई कमरो में,

 लालटेन जल गयी थीं!

 और हमारे कमरे में अभी उजाला था,

 सूरज डूबने में वक़्त था थोड़ा,

 हम आराम करते रहे!

 और मौसम हुआ ठंडा अब!

 और हुई शाम!

 याद आये जाम!

 लगी हुड़क!

 बड़ी कड़क!

 हरी सिंह बाबा से बात की,

 बाबा समझ गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और चले गए बाहर!

 जब आये,

 तो तीन गिलास,

 पानी,

 पानी का एक पूरा मटका ही उठा लाये थे!

 और पन्नी में बांधे हुए फल और सलाद!

 बैठ गए!

 गिलास धोये,

 और फिर सलाद बनाने की घिसाई शुरू!

 सलाद बन गयी!

 मसाला डाल दिया गया!

 फल काट लिए गए!

 और जम गयी महफ़िल!

 "माछ भी आने वाली है" बाबा ने कहा!

 वाह!

 तब तो मजा दोगुना हो जाएगा!

 ये बढ़िया रहेगा!

 थकावट नहीं होगी!

 जो थी,

 वो भी ख़तम हो जायेगी!

 तो जी,

 हम बढ़े अब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ताबड़तोड़ तीन गिलास खींच गए!

 बाबा को दिल्ली का ये कड़वा पानी बहुत रास आया!

 बहुत तारीफ़ की!

 और तभी,

 वही लड़की आयी,

 एक डलिया से लेकर,

 बाबा उठे,

 और डलिया ले ली,

 कपड़े से ढकी थी!

 और जब कपड़ा उठाया!

 तो बांछें खिल गयीं!

 शुद्ध बंगाली तरीक़े की माछ थीं!

 साबुत, फ्राई की हुईं!

 कुल छह!

 वाह!

 साथ में हरी चटनी,

 नीम्बू, और खीरे, पतले पतले कटे हुए!

 तबियत हरी हो गयी!

 और जैसे ही मैंने एक टुकड़ा खाया,

 बस पूछो ही मत!

 फिर से एक और गिलास,

 और फिर से गले के नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मदिरा इठला रही थी गिलास में!

 खिल्ली सी उड़ा रही थी!

 कर दिया काम तमाम!

 और फिर से एक और गिलास!

 सलाद!

 माछ!

 और वो चटनी!

 वाह! खट्टी, हरी-मिर्च मिलायी हुई चटनी!

 तीखी ऐसी कि सीतापुरी मिर्च आ जाए याद!

 लेकिन लज्ज़तदार!

 नाक खींचे जाएँ,

 और खाये जाएँ!

 बहुत स्वादिष्ट था वो सब!

उस रात जम कर खाया!

 बाद में रसे वाली माछ आयी, भात के साथ!

 मांड वाले भात!

 बहुत आनंद आया!

 सच में!

 देसी भोजन का कोई जवाब ही नहीं!

 हाँ, अब सुबह ही देखना था कि ये,

 जल-तुरईयां क्या रंग दिखातीं!

 पेट तो भर गया था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब सुबह पता चलना था!

 खैर साहब,

 सो गए हम फिर पाँव पसार के!

 ऐसी नींद आयी,

 कि सुबह ही नींद खुली!

 औ जब उठा,

 तो पेट में ज्वालामुखी उफन रहा था!

 भाग,

 निवृत हुआ!

 और सब ठीक!

 फिर स्नान किया!

 पचा लिया था वो तीखा भोजन!

 बहुत शानदार था!

 स्वाद अभी तक याद था!

 हम सभी ने स्नान कर लिया,

 और फिर आयी चाय!

 चाय पी गयी!

 साथ में कुछ नमकपारे से थे,

 कुरकुरे!

 चाय के साथ बहुत बढ़िया लगे वो!

 चाय पी ली गयी!

 और फिर आराम से हम,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 एक जगह खटिया बिछा कर लेट गए!

 अभी गर्मी कच्ची थी!

 कली जैसी,

 फूल नहीं बनी थी!

 नहीं तो नागफनी बन जाती!

 छुओ तो मरो,

 हटो तो बचो!

 और तभी बाबा हरी सिंह आये!

 और बुलाया उन्होंने,

 टेकचंद आ पहुंचा था!

 लप्पझप्प हम पहुंचे बाबा के पास!

 टेकचंद वहीँ बैठा था,

 आयु में कोई साठ बरस का रहा होगा!

 नमस्कार हुई!

 और फिर हम मुख्य मुद्दे पर आ गए!

 और फिर बताना शुरू किया बाबा टेकचंद ने!

 "यहाँ से सौ किलोमीटर उत्तर में कुछ छोटी छोटी सी पहाड़ियां हैं, वहीँ एक स्थान में मैंने एक इच्छाधारी को देखा है, उसको मांस-रूप में भी देखा है, किसी राजकुमार समान है! शांत और सौम्य!" बाबा ने कहा,

 "कितना करीब से देखा था?" मैंने पूछा,

 "एक पेड़ पर चढ़ कर छिपा बैठा था मैं" वे बोले,

 'और आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,

 "एक मेरे जानकार ने, वो वहीँ का रहने वाला है" वो बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उसने भी देखा ही होगा?" मैंने पूछा,

 "हाँ" वो बोले,

 "एक माह आपने नज़र रखी?" मैंने पूछा,

 "हाँ, पूरे एक माह" वे बोले,

 "कोई गाँव है पास में?" मैंने पूछा,

 "हाँ दो छोटे छोटे गाँव हैं" वे बोले,

 "जानकारी है वहाँ?" मैंने पूछा,

 "हाँ है" वे बोले,

 ये ठीक था!

 नहीं तो कई,

 गांववाले विरोध करते हैं,

 देवता मानते हैं इनको,

 इस कारण,

 मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं!

 यदि जानकारी थी,

 तो ये बढ़िया था!

 अब तो अलख जल उठी!

 मेरे मन में!

 उत्कंठा मारने लगी ज़ोर!

 जिज्ञासा केश खींचे मेरे!

 अगन सी लग गयी!

 "कब चल सकते हैं?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "कभी भी चलिए?" वे बोले,

 अब मैंने बाबा शम्भू नाथ को देखा,

 वे समझ गए!

 "आप कब जाना चाहते हो?" उन्होंने पूछा,

 "जब मर्जी" मैंने कहा,

 "हाँ टेकचंद?" बाबा ने पूछा,

 टेकचंद से!

 टेकचंद ने भी हाँ कर दी!

 और फिर,

 एक दिन बाद,

 यानि परसों का कार्यक्रम बन गया!

 हो गया पक्का!

 तभी एक और चाय आ गयी!

 अब चाय पी,

 फिर से!

 और वही नमकपारे साथ में!

 फिर हम उठे!

 और अपने कक्ष में चले गए!

 बाकी वे तीनों,

 वहीँ रह गए!

 हम कमरे में आये,

 और लेट गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"परसों निकलना है!" मैंने कहा,

 "हाँ" वे बोले,

 "ठीक है, दिख जाए तो बात बने!" मैंने कहा,

 "हाँ जी" वे बोले,

 और हम बातें करते रहे,

 फिर भोजन आ गया!

 दाल, सब्जी आदि!

 किया जी भोजन हमने!

 और पेट पर हाथ फेरते हुए,

 डकार से खाना,

 नीचे धकेलते हुए,

 मैं तो लेट गया!

 और खो गया!

 कल्पनाओं में!

 उस इच्छाधारी,

 राजकुमार समान!

 उस नाग में!

 कैसा होगा?

 हम कैसे करेंगे?

 क्या होगा?

 कैसे होगा?

 ऐसे ही सवाल उछल-कूद करने लगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यहाँ से सौ किलोमीटर?

 ये ख़याल आया तो वो,

 छह किलोमीटर की महा-यात्रा याद आ गयी!

 जी सा मिचला गया!

 कैसे जायेंगे?

 कोई साधन तो होगा ही?

 आखिर गाँव हैं वहाँ!

 हाँ होगा तो ज़रूर!

अब दोपहर का समय था!

 और सूरज अब अपना क्रोध ले,

 डटे थे आकाश में!

 हम तो अपने उस कक्ष के नीचे,

 दुबके से पड़े थे!

 छत इसकी पटियायों से बनी थी,

 बीच में लोहे के गार्टर पड़े थे,

 छत ऊंची थी, तो गर्मी इतनी अधिक नहीं थी,

 हाँ,

 बाहर पेड़ों को देखकर,

 पता चलता था कि कहर आरम्भ हो गया है,

 सूरज जी का!

 पेड़ों की पत्तियाँ अब,

 कुम्हला गयीं थीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 जो फूल के पौधे आदि थे,

 वे अभी अपनी जड़ों में लगे पानी के सहारे,

 मुकाबला करने में लगे!

 तभी वही लड़की आयी,

 दो गिलास शरबत लिए,

 वही लज़ीज़ बेल का शरबत!

 गर्मी में बेल का शरबत अमृत समान काम करता है!

 हमने लिया,

 और लम्बे लम्बे घूँट मार कर लील गए!

 डकार आयी!

 और मजा आ गया!

 लड़की ले गयी गिलास वापिस!

 "मजा आ गया!" शर्मा जी बोले,

 "हाँ जी!" मैंने कहा,

 "बनाया भी बहत शानदार है!" वे बोले,

 "शुद्ध देसी तरीके से बनाया है! इसीलिए, मिक्सर में बनाते तो कड़वा हो जाता!" मैंने कहा,

 "हाँ, इसने खूब मथा है इसको, एक भी बीज नहीं!" वे बोले,

 "हाँ! यही तो खूबी है!" मैंने कहा!

 एक घंटा बीता!

 और बाबा हरी सिंह आ गए हमारे पास!

 बैठे!

 पसीना पोंछा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "अरे बाबा? एक बात बताओ?" मैंने पूछा,

 "हाँ?" वे बोले,

 "टेकचंद ने जहां बताया, वहाँ कोई साधन तो होगा आने जाने का?" मैंने पूछा,

 "हाँ, गाड़ी है, रेलगाड़ी, और बस भी है" वे बोले,

 "बस! फिर ठीक है!" मैंने कहा,

 अब रूह में ठंडक आयी!

 नहीं तो प्राण निचुड़ जाते उस भयानक गर्मी में!

 क़तरा क़तरा पसीने में बह जाते प्राण!

 जानलेवा गर्मी थी!

 प्रचंड गर्मी!

 तभी वो लड़की आयी,

 हरी सिंह से कुछ बात की,

 बाबा उठे,

 और चल दिए उसके साथ,

 फिर थोड़ी देर में आये,

 भोजन ले आये थे,

 मैंने भोजन पकड़ा और मदद की उनकी!

 भोजन ढका हुआ था,

 मैंने कपड़ा हटाया,

 वाह! भिन्डी की सब्जी थी!

 लम्बी लम्बी भिन्डी कटी थीं!

 प्याज, लहसुन की साबुत कलियों के साथ बनायी गयीं थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और हींग की खुश्बू ऐसी, कि सूंघते ही पेट ने,

 मुंह फाड़ दिया!

 गड्ढा सा खुल गया पेट में!

 कटोरी में दही,

 हरी चटनी,

 अचार और कुछ सलाद!

 और चूल्हे की रोटियां!

 मैंने पहले टुकड़ा खाया!

 और मुंह से निकला वाह!

 "बाबा! ये तो ताज़ा लगती हैं!" मैंने कहा,

 "हाँ, ताज़ा हैं, यहीं लगायीं हुई हैं ये भिंडियां, और अन्य सब्जियां भी!" बाबा बोले,

 "वाह जी वाह! नसीब खुल गए! शहरों में तो बासी ही सब्जियां मिलती हैं, भिन्डी को पानी मार मार कर जवान रखा जाता है! और जहां भिन्डी का डंठल गीला हुआ, उसके गुण ख़तम हो जाया करते हैं! इसकी श्लेष्मा ख़त्म हो जाती है!" मैंने कहा,

 "सही कहा आपने!" बाबा बोले,

  हम भिन्डी खा रहे थे!

 बहुत लज़ीज़ बनी थीं भिंडियां!

 ताज़ा थीं तो स्वाद अलग ही था!

 रोटियां चूल्हे की थीं,

 तो मजा दोगुना हो गया था!

 सही ने तो और मजे बाँध दिए!

 मैं काफी रोटियां खा गया!

 हमारे देसी भोजन का कोई तोड़ नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आजकल की अटरम-शटरम से तो लाख गुना बेहतर!

 अटरम-शटरम खाओ, और बीमार पड़ो!

 पैसा भी खर्चो, और बीमारी और मोल ले लो!

 तो इनसे दूर ही रहिये!

 भोजन कर लिया!

 और अब पानी पिया!

 और मैं और शर्मा जी,

 ज़रा घूमने चले!

 बाहर की तरफ!

 भोजन को व्यवस्थित करने उदर में!

हम बाहर निकले,

 धूप तो थी ही,

 लेकिन पेड़ों के सहारे सहारे चलते हुए,

 हम एक जगह आ कर बैठ गए,

 ये जगह बहुत छायादार थी!

 यहाँ लू चलती,

 तो ठंडी हवा में बदल जाती थी!

 सुकून का माहौल था यहाँ!

 पसीना जो आ रहा था,

 अब सूख चुका था!

 मैं तो घास में एक जगह लेट गया!

 भूमि ठंडी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 आनंददायक थी बहुत!

 मुझे लेटा देख,

 शर्मा जी भी लेट गये!

 मैंने तो सर की नीचे रखे दोनों हाथ,

 और आँखें की बंद!

 और नशा सा छाया!

 भोजन का नशा!

 ठन्डे माहौल का नशा!

 और ठंडी भूमि का नशा!

 तभी,

 नीम्बू की सी महक आयी,

 मैंने सर उठाया,

 अपने पीछे देखा,

 नीम्बू के पेड़ लगे थे वहाँ!

 फूल खिले थे उनमे,

 उन्ही की खुश्बू थी ये!

 नथुनों में गयी वो सुगंध, बहुत भीनी भीनी थी!

 खैर,

 मैंने तो आँखें बंद कीं,

 और लेट गया!

 आँख लग गयी!

 शर्मा जी भी ऊंघते ऊंघते सो ही गए!


   
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