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वर्ष २०११ कोलकाता से पहले एक स्थान की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 दिन का उजाला था!

 और सड़ी गर्मी!

 ऐसी गर्मी कि सूरज को जो देखा,

 तो मानो बैर मोल ले लिया सूरज से!

 वो तो दर्पण के समान ऐसी किरणें डालते,

 कि त्वचा छूट ही जाए मांस से!

 पानी पी पी कर पेट फूल गया था,

 लेकिन हलक़ ने बग़ावत कर रखी थी!

 बार बार पानी मांगता!

 नहीं तो जिव्हा को सुखाने की धमकी देता!

 कंकड़-पत्थर ऐसे लग रहे थे,

 जैसे मुंह चिढ़ा रहे हों!

 उस भयानक गर्मी में, जिस प्राणी को जो जगह मिली थी,

 छायादार वो वहीँ दुबक गया था!

 पक्षी भी नदारद थे!

 और जो पेड़ झूम रहे थे,

 वे भी बेचारे घायल थे!

 हम तीन लोग थे,

 एक मई,

 एक शर्मा जी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और एक बाबा हरी सिंह!

 हम यहाँ कोलकाता से थोडा पहले आये थे,

 जगह बियाबान थी,

 और हम सर पर तौलिया रखे,

 अपने मुंह ढके,

 आगे बढ़ते जा रहे थे!

 सवारी छोड़े हुए, कोई घंटा हो चुका था!

 किसी भी पल जीभ बाहर आ सकती थी!

 पसीने,

 शरीर के अंदरूनी अंगों पर भी,

 कोहराम मचा रहे थे!

 जांघे जैसे लगने लगी थीं!

 जब लू चलती,

 तो फुरफुरी सी छूट जाती!

 "अरे बाबा? ये कहाँ पहुँच गए इतनी दूर, बियाबान में?" मैंने पूछा,

 "आगे जगह है बढ़िया! हाँ ये जगह अभी बियाबान है, पैदल का ही रास्ता है" वे बोले

 "पहले सही थे, कम से कम ऐसा चलना तो नहीं पढ़ता था!" मैंने कहा,

 हंस पड़े वो!

 और तभी एक विशाल सा पेड़ दिखा!

 उसकी परछाईं बहुत सघन थी!

 उसको देख,

 जान में जान आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मई तो भाग कर बैठ गया उस पेड़ के नीचे,

 रुमाल बिछा कर!

 और फिर वो भी आ गए!

 "आहा! प्यासे को पानी मिला हो जैसे!" शर्मा जी बोले,

 मैंने अपने जूते खोल दिए,

 भभक गए थे पाँव!

 ज़ुराब उतारे तो ऐसे हो गए थे पाँव,

 जैसे अभी स्नान किया हो!

 "शर्मा जी, पानी पिलाइये!" मैंने कहा,

 उन्होंने बोतल पकड़ा दी,

 मैंने पानी पिया,

 पानी गरम तो था,

 लेकिन आनद दे गया!

 फिर उन दोनों ने भी पानी पिया!

 "और कितनी दूर है?" मैंने पूछा,

 "है कोई दो किलोमीटर!" बाबा बोले,

 दो किलोमीटर!

 यहाँ दो मीटर चलने में ही कंकाल नीचे गिरने वाला था मेरा, मांस छोड़ता हुआ! और दो किलोमीटर!

 जहां मेरे होश उड़े,

 वहीँ शर्मा जी भी झटका खा गए!

 चार किलोमीटर तो हम चल ही चुके थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "बाबा को भी क्या सूझी यहाँ आने की?" मैंने पूछा,

 "सो तो है, लेकिन वो जगह बढ़िया है!" वे बोले,

 अब जगह तक तो पहुंचे किसी तरह?

 सूरज ने तो आज भट्टी खोल रखी थी!

 लू ने जैसे हमारे बदन को सेंक देना था!

 पसीना ऐसे बहे,

 जैसे टौंटी चला रखी हो सर में!

 सांसें,

 ऐसे चलें,

 जैसे लुहार की धौंकनी!

 ये पेड़ न होता,

 तो समझो,

 वहाँ जाते ही लोटा उठाके,

 भागना पड़ता जंगल में!

 खुल जाना था सबकुछ!

 जहां पेट खुलता,

 वहीँ बदन भी खुल जाता,

 और वापसी के नाम पर,

 तो, रूह ही काँप जाती!

 हमने करीब आधे घंटे आराम किया,

 घड़ी में देखा,

 ढाई बजे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सूरज को देखा,

 तो मरोड़ उठ गयीं पेट में!

 लेकिन जाना तो था ही!

 सो,

 खड़े हुए,

 जूते, ज़ुराब पहने,

 और सर, मुंह ढक कर,

 चल दिए आगे!

 और जैसे ही धूप में आये,

 फुरफुरी सी रेंग गयी!

 अब कोई पेड़ भी नहीं था वहाँ!

 अब तो बस चलना ही था!

   सूरज से लड़ते-भिड़ते!

 धूप के हाथ-पाँव जोड़ते!

 भूमि को गुणगान करते करते,

 आखिर हमको एक जगह,

 पेड़ों का झुरमुट दिखायी दिया!

 काफी बड़ा स्थान था वो!

 मानव-निर्मित स्थान देख कर,

 जान में जान आ गयी!

 "वो! सामने!" बाबा बोले,

 "हाँ, देख लिया!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "जान बची लाखों पाये!" शर्मा जी बोले,

 "सही कहा जी!" मैंने कहा,

 पानी पिया!

 और चल दिए आगे!

 और कोई दस मिनट के बाद,

 हम अंदर प्रवेश कर गए!

 आहा!

 आनंद क्या होता है!

 तब ही जाना!

 शीतल छाया!

 और शीतल माहौल!

 बगिया और बगिया में भिनभिनाते भौंरे!

 तितलियाँ!

 और मधु-मक्खियां!

 आनंद!

 अब बाबा हरी सिंह ले चले हमे एक कमरे की तरफ!

 यहीं थे बाबा शम्भू नाथ!

 आयु होगी कोई अस्सी-पिचासी वर्ष!

 हरी सिंह अंदर गए,

 और फिर हमे बुलाया,

 बाबा खड़े हो गए थे!

 हमने पाँव छुए उनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर उन्होंने,

 बिठाया हमको!

 उस फोल्डिंग पलंग पर बैठ कर,

 ऐसा लगा जैसे,

 देवराज के सिंहासन का सुख मिल गया हो!

 बाबा ने आवाज़ दी,

 एक लड़की आयी,

 पानी के लिए कहा,

 और फिर वो पानी ले आयी!

 घड़े का शीतल पानी था!

 आनंद छा गया!

 शम्भू नाथ बाबा ने,

 हरी सिंह से कहा,

 कि फलाना कक्ष में जाएँ,

 आराम करें!

 अब अँधा क्या चाहे! दो आँखें!

 मैं खड़ा हुआ और चल पडा बाबा हरी सिंह के पीछे पीछे!

 कक्ष खुला,

 और मैं अंदर घुसा!

 और लेट गया!

अब आराम किया कोई एक घंटा!

 पंखा था नहीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 हाथ से बने पंखे से हवा करी!

 अब डूबते को तिनके का सहारा!

 लेकिन उस चिलचिलाती धूप को,

 गच्चा दे ही आये हम!

 उसने तो सारा का सारा हमारा,

 जीव-द्रव्य सोखने की ठान रखी थी!

 लोटा उठाने से भी बच गए थे!

 अब पसीनों से थे हम तर-बतर,

 नहाने की सोची अब!

 बाबा हरी सिंह तो हरी का गुणगान करते करते,

 खुद हरे हुए पड़े थे!

 खर्राटे मार रहे थे!

 बार बार पसीना आता तो पोंछ लेते थे!

 मैं बाहर निकला,

 शर्मा जी को लिया साथ,

 और फिर ये ढूँढा कि स्नानागार है कहाँ!

 तभी एक सहायक आया नज़र!

 मैंने बुलाया उसे,

 वो आ गया,

 अब मैंने पूछा उस से,

 उसने इशारा किया एक तरफ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वहीँ था वो स्नानागार!

 अब मैं चला वहाँ,

 तौलिया और अंगोछा थामे!

 पानी देखा,

 नांद सी बनी थी,

 पानी भरा था,

 ऊपर वृख के छोटे छोटे फूलों ने पाट दिया था पानी को,

 मैंने एक मग से पानी निकाला,

 एक तब में,

 और फिर अंगोछा लपेट!

 हो गया शुरू!

 आहा!

 महा-आनंद की प्राप्ति हुई!

 अब जब सुख और आनंद की सभी वस्तुएं यहीं हैं,

 तो फिर स्वर्ग का लालच किसे!

 ये छोटी छोटी चीज़ें,

 बड़े बड़े सुखों का कारण बनती हैं!

 रोना, सदैव बुरा ही माना जाता है,

 पर जब किसी परिवार में किसी नन्हे शिशु की,

 पहली किलकारी गूंजती है,

 तो समझो समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाया करती है!

 ये है सुख!

 धन आदि को सुख से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 नहीं जोड़ना चाहिए,

 वो आपके अर्थ-धर्म से जुड़ा है,

 सुख से नहीं!

 खूब ख़र्चा करके,

 कन्या का विवाह तो किया जा सकता है,

 परन्तु दाम्पत्य-सुख मिले न मिले,

 ये नहीं खरीदा जा सकता!

 अतः,

 छोटी छोटी वस्तुएं सदैव सुख का कारण बनती हैं!

 ऐसे ही था ये जल!

 शरीर पर पडा,

 तो अमृत सा हो गया!

 कोयले सा दहकता बदन,

 शांत हो गया!

 मजा आ गया!

 अब वस्त्र पहने,

 अंगोछा निचोड़ा,

 और चल पड़ा अपने कक्ष की और!

 अब शर्मा जी चले गए!

 और फिर कुछ देर बाद,

 वे भी आ गए!

 चित्त प्रसन्न था उनका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मेरी तरह ही!

 हम अब बैठे,

 और बाबा हरी सिंह भी जाग गए!

 मैंने उनको स्नान करने को कहा,

 तो वो भी सरपट भागे!

 इतने में ही वो लड़की दो गिलास भर कर लायी!

 ये बेल का शरबत था!

 भाई वाह!

 सोने पर सुहागा!

 शरबत पिया जी हमने!

 आनंद में वृद्धि हो गयी!

 फिर वो गिलास ले गयी!

 मित्रगण!

 हम यहाँ आये थे,

 अपने पाँव घिस कर!

 जानते हैं किसलिए?

 बाबा शम्भू नाथ के पास,

 एक अहम् खबर थी!

 ऐसी खबर,

 जिसे सुनकर मैं भी,

 व्याकुल हो उठा था!

 शर्मा जी को बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तो वो भी व्याकुल!

 खबर ये थी कि,

 बाबा शम्भू नाथ का एक जानकार,

 जो उनके साथ ही रह रहा था,

 उसने यहाँ से सौ किलोमीटर,

 उत्तर में,

 किसी को देखा था!

 उसने पूरे एक माह उस पर नज़र रखी थी!

 जानते हो क्या था वो?

 एक इच्छाधारी नाग!

 उस जानकार ने स्व्यं,

 अपनी आँखों से देखा था उसको!

 और उस नाग के पास,

 एक नहीं, दो मणियाँ थीं!

 श्वेत और संतरी रंग की!

 इस खबर ने तो तहलका सा मचा दिया!

 मेरे अंदर!

 शर्मा जी के अंदर!

 बाबा शम्भू नाथ से,

 मैंने सलाह की,

 और फिर कोई एक हफ्ते बाद,

 दिल्ली से चल पड़े थे हम!


   
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 यहाँ उतरे थे,

 और यहीं हमे बाबा हरी सिंह मिले थे!

 वे लेने आये थे!

 ये थी खबर!

 तभी,

 बाबा हरी सिंह भी

 स्नान करके आ गए!

 और बैठ गए!

 साढ़े चार का समय हो चुका था,

 अब भूख ज़ोर मार रही थी!

 और तभी!

 वो लड़की, ले आयी भोजन!

 मुंह में पानी आ गया,

 भोजन रखा तो!

 ताज़ा ही बनाया था!

 कुछ चावल थे, सब्जी, दाल, अचार और दही!

 क्या कहने!

 मजा आ गया था!

खाना खाते खाते,

 पांच बज चुके थे!

 अब थोड़ा सा किया आराम!

 और फिर बाबा हरी सिंह चले गये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 शायद बाबा से मिलने गए थे!

 फिर आये,

 और ले गए हमको बुलाकर,

 हम भी चल पड़े!

 बाबा एक खुली जगह बैठे थे,

 बहुत बढ़िया जगह थी वो!

 पिलखन का पेड़ था वो,

 और उसके नीचे बना.

 पक्का चबूतरा!

 वहीँ बैठे थे,

 टाट के बोरे बिछा रखे थे,

 सो जी,

 हम भी टिक गए!

 "यात्रा कैसी रही?" बाबा ने पूछा,

 "बढ़िया रही जी" मैंने कहा,

 "कोई परेशानी तो नहीं हुई?" उन्होंने पूछा,

 "नहीं, स्टेशन तक तो कोई नहीं, हाँ उसके बाद बड़ा बुरा हाल हुआ जी!" मैंने हंस कर कहा,

 "हाँ, वो रास्ता बनने वाला है थोड़े बहुत दिनों में, नाम आ गया है इसका" वे बोले,

 "तब बढ़िया रहेगा!" मैंने कहा,

 "हाँ, तब पहुँच आसान रहेगी" वे बोले,

 "हाँ जी" मैंने कहा,

 "भोजन कर लिया?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "हाँ जी" मैंने कहा,

 "चलो आज रात आराम करो, कल सुबह बात करता हूँ, सुबह वो टेकचंद भी आ जाएगा, जिसने नज़र रखी थी, विश्वस्त आदमी है मेरा, झूठ का प्रश्न नहीं" वे बोले,

 "ठीक है बाबा!" मैंने कहा,

 और फिर बाबा ने चाय मंगवा ली,

 हमने चाय पी,

 बकरी के दूध की चाय थी,

 मजा आ गया!

 चाय पी,

 और उठे हम!

 स्थान बहुत बड़ा था!

 एकदम शांत!

 मजाल है कि किसी की आवाज़ आ जाए!

 यहाँ तो मुझे लगता है आदमी भी थोड़े ही होंगे,

 तभी सामने से कुछ औरतें आयीं,

 कुछ सामान था उनके पास,

 प्रणाम करते हुए गुजर गयीं,

 और हम आगे चले,

 और फिर एक जगह रुके,

 यहाँ आम का वृक्ष था,

 कई वृक्ष थे!

 मौसम में तो मजे आ जाते होंगे यहाँ!


   
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