और वो श्रेष्ठ, अपनी साध्वी पर कोई क्रिया कर रहा था! उसी साध्वी, चिल्ला रही थी! अपने बाल तोड़ रही थी!
खा जाती थी अपने बाल बार बार! वो खड़ी होती, बैठ जाती, टांगें खोल लेती! मूत्र-त्याग करती।
और वो श्रेष्ठ, उस मूत्र की मिट्टी को उठा लेता! बनाता उनकी गोलियां। बार बार वो यही करता! आखिर में,साधिका खड़ी हुई, उस श्रेष्ठ के कंधों पर चढ़ गयी! श्रेष्ठ उठा! उसको उठाया और ले आया अलख की तरफ! उसको उतारा! वो खड़ी हुई, और श्रेष्ठ लेटा नीचे, अब उसके पेट पर खड़ी हुई वो, और बैठ गयी जैसे श्रेष्ठ आसन हो उसका! श्रेष्ठ, अब आह्वान में लगा! लेकिन कौन सा आह्वान? न वाचाल ही बोले और न कर्ण-पिशाचिनी ही! मैं हैरान! ये कौन सा आह्वान है? किस प्रकार का? मैंने तो सुना ही नहीं इस विषय में?
और तभी वो खड़ी हुई। अलख की तरफ मुड़ी और बैठ गयी उसके पास! मांस का टुकड़ा लिया, झोंका अलख में और एक शब्द बोली वो, "शूलधरणी!" चिल्ला चिल्ला के।
और तब वाचाल के स्वर गूंजे! शूलधरणी! श्रेष्ठ ने अपनी नीचता का परिचय दे दिया था इस शूलधरणी का आह्वान कर! कभी भी शूलशरणी का आह्वान नहीं किया जाता! ये तो महासहोदरी है! एक प्रचंड महाशक्ति की!
अब तो साम, दाम, दंड, भेद, सब भिड़ा डाले थे इस हराम के जने ने! क्या खूब नाम निकाला था इसने अपने पिता का! अगर इसके पिता को पता चलता, कि इसने शूलधरणी का आहवान किया है, तो स्वयं ही उसकी गरदन धड़ से अलग कर देते! या प्रायश्चित करते कि ऐसे पत्र को जन्म ही क्यों दिया उन्होंने!
शूलधरणी! एक सौ इक्यावन रात्रिकाल साधना है इसकी! प्रचंड महाशक्ति है। इसके पर्यायवाची शब्द तो कई सात्विक ग्रंथों में मिलते हैं। पर ये परम तामसिक है! एक बार को तो मैं भी हिल सा गया था अंदर ही अंदर! तो मैं अब, सोच में पड़ा था कि इसकी काट कैसे करूँ! और तभी मुझे याद आया! मुझे कुछ याद आया! कुछ ऐसा, कि ये शुलधरणी, नतमस्तक हो, लोप हो जानी थी उसके दर्शन मात्र से ही! और सदा के लिए उसके सिद्धि पात्र से मुक्त हो जाती! और वो है दक्खन की षोड्षासुरी!! महा-तामसिक! महा-रौद्र और महा-भुर्भुजा! "साधिके?" बोला मैं!
आई मेरे पास! "आओ!" मैंने कहा, उसका चेहरा देखा! भोला-भाला चेहरा! मोटी मोटी आँखों, बस समर्पण भरा! "लेट जाओ साधिके!" बोला मैं,
लेट गयी तब ही! मैंने त्रिशूल लिया, अभिमंत्रित किया!
और छुआ दिया उदर से उसके! वो ऊपर उठी, और नेत्र बंद हो गए उसके! मैं चढ़ बैठा अब उसके ऊपर! और दिया अलख में भोग! और आरम्भ किया महामंत्र! वहां शूलधरणी और यहां ये षोइषासरी! षोड्षासुरी दक्खन की एक महाशक्ति है। इसके कई कंन्दिर हुआ करते थे, आज भी कई विशिष्ट मंदिरों में, ये महासहोदरी के रूप में मूर्तियां हैं इसकी! मैंने इसी का आह्वान किया था!
आज पहली बात आह्वान कर रहा था मैं इसका! मैंने इसका विशाल रूप जब देखा था तो कई दिवस तक, इसमें ही खोया रहा था! दीर्घ देह है
इसकी! रूप में किसी सुंदरी समान! चौंसठ महा-आसरिक सहोदरियों दवारा सेवित है! अस्थियों से बना इसका सनिहासन होता है, नीला रंग है, आभा भी नीली है, नीले रंग के पुष्प ही इसके आभूषण हैं। "काजिया?" मैं चिल्लाया! "श्रेष्ठ?" चिल्लाया मैं! अमुक के नाम पर, इन दोनों का नाम बोल दिया था मैंने! श्रेष्ठ लगा पड़ा था आह्वान में! चिमटा खड़खड़ाते हुए, त्रिशूल की मुद्राएं बनाते हुए श्रेष्ठ, लीन था जाप में! मेरी साध्वी सामान्य साँसें ले रही थी! उसको बार बार देख लेता था!
और तभी! तभी वो सरभंग उठा! कुटिल मुस्कान हंसा! एक कपाल उठाया उसने!
मदिरा परोसी, मंत्र पढ़े और फेंक दिया कपाल सामने! कपाल चीखते हुए दूर चला गया!
और गिरा मेरे सामने ही! ये सरभंग विद्या है! मैं जो बोलता, उसको दोहराता वो कपाल! स्पष्ट था, ये आह्वान में व्यावधान डालने हेतु था! मैं खड़ा हुआ! अपना त्रिशूल उठाया! बढ़ा उस कपाल की तरफ तो हवा में उड़ावो! कभी हँसता! उस सरभंग के स्वर में! कभी रोता! मेरी साध्वी के स्वर में! मैं लौटा पीछे। अलक पर गया! अलख से एक जलती हुई लकड़ी निकाली,
और अस्थि का एक टुकड़ा लिया! अस्थि का टुकड़ा उस जलती हुई लकड़ी पर रखा!
और एक ज़ोर दार फूंक मारी! लकड़ी की आग भड़की! अस्थि ने चटक चटक आवाज़ की!
और तभी! तभी वो हवा में खड़ा कपाल! फट पड़ा! चूर्ण हो, भूमि पर आ गिरा! चूर्ण में, आग लग गयी उसी क्षण! वो कपाल चूर्ण हो, जल गया था! और अब आँखें फट चली थीं उस सरभंग की! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा उसके साथ! वो आह्वान में बाधा डाल रहा था। मैं चाहता तो श्रेष्ठ को आह्वान करने ही नहीं देता! लेकिन ये नियमों के विरुद्ध था! ऐसा करना सबसे बड़ी कायरता थी। द्वन्द है तो द्वन्द के नियमों का पालन आवश्यक है! और तो और, उस खण्डी को, जो उसकी साधिका में थी, मैं चाहता तो हटा सकता था, साधिका का दम घोंट सकता था, या उसकी देह के समस्त छिद्रों से रक्त बहा सकता था, और जब रक्त शुष्क होता तो मज्जा बहने लगती उन छिद्रों से! लेकिन ये सब, मुझे सिखाया ही नहीं गया था! मैं तो अपनी राह पर अडिग था! हाँ, ये सरभंग, अब चुभने लगा था मुझे मेरी आँखों में! मैं आह्वान में सतत लीन था! आह्वान भी करता और रक्षण भी करता! नज़ेन वहीं चारों ओर टिकी रहती और मस्तिष्क में षोड्षासुरी का आह्वान रहता! पल पल में कई बार अपनी साध्वी को देख भी लेता था मैं। मैं नहीं चाहता था कि उसको कोई कष्ट हो! मेरे एक बार कहने पर वो, अपने प्राण मेरे भरोसे, काल के तराजू में रख चुकी थी! मैं बार बार उसके केश सही करता! नथुनों पर ऊँगली रख, उसकी गरम साँसें महसूस करता था! कान, किसी भी
आवाज़ पर, श्वान जैसी प्रतिक्रिया करते थे! "खेड़ा?"आवाज़ आई!
ये सरभंग था! "हराम** ! क्या समझता है तू?" बोला वो! मैं शांत ही रहा! थोथा चना बाजै घना! "धन्ना! आज धन्ना पछतायेगा कि क्या सिखाया उसने तुझे!!" गला फाड़ के चीखा वो! उसने दुर्मुख से अपने दादा श्री का नाम सुन, मैं बिफर पड़ा!!
जी किया, अभी टुकड़े कर दूँ इसके! भक्षण कर जाऊं इसके कलेजे का मैं!
आँतों से रस्सी बना, जूतियां बनाऊँ इसके चर्म की!
अपमान के घुट पी गया मैं! कड़वे घुट! कालकूट जैसे अपमान के घुट! लेकिन मेरी भुजाएं फड़क उठीं थीं! मैंने अपने आपको, अपने आप में रखा! "धन्ना? ओ धन्ना?" बोला वो सरभंग! मेरे सीने में धरे दिल में आग लगी तब! ऐसा निःकृष्ट मनुष्य? ऐसा निःकृष्ट? फिर समझाया! यही तो चाहता है वो! यही! तभी तो भड़का रहा है मुझे! मैंने आँखें बंद कर ली अपनी! "धन्ना?? ********", गालियां दीं उसने! मैं खड़ा हो गया! गुस्से में फफक उठा!
आँखें खोल दी! देख लड़ाई।
और तब! तब क्या देखा! तभी जैसे किसी ने उस सरभंग की पीठ में लात जमाई किसीने! "हँ??" बोला वो!
और आगे जा गिरा! उठा, आसपास देखा, कोई नहीं! लेकिन!
था!! था वो! पेवाल!
मैं जान गया था कि कौन! पेवाल!! मेरे श्री श्री श्री का भेजा हुआ पेवाल!! मैंने तभी श्री श्री श्री को हाथ जोड़े।
भूमि पर गिरा, आंसू निकलने लगे मेरे! पल पल मुझे देख रहे थे मेरे श्री श्री श्री!! सरभंग उठा!! चौंकते हए! आगे बढ़ा, अलख तक आया! अपनी जीभ निकाली बाहर! खंजर लिया!
और बींध दी अपनी जीभ अलख में! चर्रा पड़ी अलख! दौड़ पड़ी उस सरभंग की तरफ! सरभंग उठा! खून सना खंजर लिया! चाटा उसे!
और अपनी जांघ में घुसेड़ लिया!! मैं जान गया!! तभी जान गया!! मैं झट से भागा, अपनी साध्वी पर आ लेटा!
और तभी! बड़े बड़े से पत्थर गिरने लगे। नीचे! धम्म धम्म! यही तो चाहता था वो, कि मेरी साध्वी पैर गिरें और उसकी इहलीला समाप्त हो! मैंने अपना त्रिशूल अपने सीने पर रखा! ढका अपनी साध्वी को!
और जब पत्थर गिरते मेरे ऊपर, तो फट जाते! फटते ही, चूर्ण हो जाते, उनका रेत सा बन जाता, मेरी देह पर, रेत ही रेत आ बिछता! अब न बर्दाश्त हुआ मुझसे! न हुआ! "सरभंग?"" मैं चिल्लाया! लेकिन आवाज़ में अवरोध आया! अवरोध!!
मैं जान गया! मैं फिर से जुट गया आह्वान में!
और अगले ही क्षण! अगले ही क्षण! नीले रंग के पुष्पों की बरसात होने लगी! वो पत्थर! वो सारे पत्थर, उस मंडल में विलीन होने लगे!! मैं जुटा आहवान मैं, और प्रखर हुआ! आकाश जैसे चिर गया था उस समय जैसे, आकाश के दो रंग थे! एक श्याम, और एक नील!! नील, जैसे वहीं झुक चला था!
और फिर! फिर, वर्षा सी हई!
शीतल जल की वर्षा! मेरा शरीर, हल्का होने लगा!
द्ववंद की, अब तक की सारी थकावट, जाती रही! मैं उठ गया था तब! अपनी साध्वी से भी!
आहवान सफल होने को ही था अब! सरभंग के होश फाख्ता थे। उसके सारे अवरोध धूसर हो चले थे। श्रेष्ठ आँखें बंद किये शूलधरणी के आहवान में मग्न था, बस यही सरभंग अपने प्रपंचों से बाज नहीं आ रहा था! आता भी कैसे, उसने सीखा ही नहीं था ऐसे प्रपंचों से बाज आना! ते सरभंग तो अपने ही गुरु की पीठ में छुरा भोंक दें! और पता नहीं श्रेष्ठ ने क्या लालच दिया था इस सरभंग को, जो ये, यहां चला आया था! बाबा महापात्रा भी इस श्रेष्ठ को धूल चटा देते, अगर ये सरभंग काजिया न रहा होता! इसी ने उदमेक क्रिया से उनकी साधिका को पीड़ित कर मार डाला था, किसी शक्ति के आहवान के समय, और तभी से वे द्वन्द हारने के कगार पर धकेल दिए गए थे। लेकिन मैं सब जान रहा था, इस धूर्त के सारे प्रपंचों से अवगत था! ये क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, ये मुझे मालूम था! मेरी साध्वी शांत बैठी थी, अलख में ईंधन झोंकती हुई! उसको देखता मैं तो मुझे मेरा ही हिस्सा लगती वो! जैसे मैं ही अलख में ईंधन झोंक रहा हूँ! वो इतनी तत्परता से मेरे संग थी कि जैसे ये द्वन्द उसी का है! वो जब चाहे, द्वन्द छोड़ सकती थी! जब चाहे! लेकिन नहीं, नहीं छोड़ा था उसने वो द्वन्द! वो लड़ रही
थी, मेरे लिए! और मैं, लड़ रहा था इन दो दुष्ट मनुष्यों से जो किसी का भी अहित करने से नहीं चूकते! लेकिन आज मैं था सामने उस श्रेष्ठ के! और फिर, मेरे श्री श्री श्री भी मुझे देख रहे थे! मेरा बल तो वैसे ही चार गुना हो चला था! अब सामने ये श्रेष्ठ हो या फिर कोई अन्य सर्वश्रेष्ठ, मुझे बस द्वन्द लड़ना था। हाँ, मैं नियमानुसार ही अब तक लड़ रहा था! नियम के विरुद्ध जाने से व्यक्ति कायर कहलाता है। इस से तो मरना भला! लेकिन कायर कहे कोई, तो सारी जी जिंदगी पर लानत है! "धरणा?" चीखा श्रेष्ठ! खड़ा हो गया था त्रिशूल लिए! आकाश को देखते हए, चीखे जा रहा था! "धरणा?" बोला वो! और जा बैठ फिर से अलख पर!
और उस क्षण! उस क्षण सुनहरी प्रकाश फूट पड़ा अलख से! प्रकाश फैला, सघन हुआ और दीर्घ भी! और छा गया उस स्थान के ऊपर। उसमे, बिजलियाँ सी कड़क रही थीं! नीली नीली बिजलियाँ! यही पहचान है और चिन्ह है उस शूलधरणी के आगमन का! वो सरभंग, दौड़ के खड़ा हो गया था उस प्रकाश के नीचे! और देखने लगा आश्चर्य से! फिर दौड़ के आया आगे,
और घंटियाँ बजाने लगा! "खेड़ा?" बोला वो! मैं चुपचाप सुनता रहा उसे! आह्वान में लीन ही रहा! "देख! देख काल!! काल आया काल! तेरा काल आया!" बोला सरभंग! और तभी मेरे यहां भूमि पर धप्प धप्प फूल गिरने लगे! नीले रंग के फूल! बीच बीच ने श्वेत पुष्प भी थे! बहुत तीक्ष्ण सुगंध थी उनकी! और ये सुगंध, उस सरभंग तक पहुंची! थूकने लगा वो! भागा सीधा अलख पर! और जा बैठा इस बार!
और तभी मेरे यहां प्रचंड शोर हुआ! जैसे पत्थर गिर रहे हों! भू-स्खलन हो रहा हो! जैसे भूमि फटने वाली हो! मैं हिलने लगा था, भूमि में कम्पन्न मची हुई थी! और फिर सब शांत! एक श्वेत सा प्रकाश फूटा शून्य में से, और पंचकोणिय रूप में आ गया। जैसे कोई शक्ति-यंत्र! मैं खड़ा हुआ, भागा आगे, और बैठ गया नीचे, एक मुद्रा में, आवानिक मुद्रा में और तब, मुझे दो स्त्रियां दिखाई दीं! महासुरिक स्त्रियां! हाथों में खड्ग धारण किया! बलशाली, व्याघ्रचर्म धारण किया, गले में असंख्य अज्ञात अवयवों की मालाएं धारण किये हुए! ये सहोदरियां थीं उस षोडषासुरी की! मैंने प्रणाम किया उन्हें! उनका रूप अत्यंत ही रौद्र और भयावह था! मेरे कद के बराबर तो उनकी पिंडलियाँ ही थीं! आगमन हो चुका था मेरी आराध्या का! बस कुछ
पल और, और फिर!!
और वहां! वहाँ वो सुनहरा प्रकाश फट पड़ा! जैसे उस प्रकाश की श्लेष्मा उस स्थान पर चढ़ चली! और देखते ही देखते, सहोदरियां प्रकट होने लगीं। उनकी प्रधान सहोदरी श्रीखण्डा सम्मुख हुई। कैसा अद्वितीय रूप था उस श्रीखण्डा का! कैसी विशाल देह! कैसा अद्भुत प्रदीप्त प्रकाश था उसके चारों ओर! श्रेष्ठ भागा! भोग सम्मुख किया उसने! और आंसू फूटे आँखों से! कह सुनाया श्रीखण्डा को अपना दुखड़ा! श्रीखण्डा ने उद्देश्य जाना!
और अगले ही पल, मेरे यहाँ हरे सुनहरे प्रकासश में लिपटी हुई, उप-सहोदरियां प्रकट हो चली! लेकिन! षोड्षासुरी की प्रधान दोनों ही उप-सहोदरियों ने आगे कदम बढ़ा दिए। आसुरिक शक्तियों से भरी हुई वो दोनों सहोदरियां खड्ग उठाये बढ़ी आगे! और अगले ही पल! अगले ही पल वे उप-सहोदरियां लोप हो गयी! वहां! वहाँ प्रकाश अवशोषित हो चला और श्रीखण्डा लोप हुई! मेरे यहां प्रकट होते ही उनका प्रकाश अवशोषित हुआ और सीधा मेरी अलख में! अलख ने मुंह फाड़ा सुरसा की तरह! और मैं खड़ा हआ! गुणगान किया मैंने अपनी आराध्या षोड्षासुरी का! और फिर वे मेरा उद्देश्य पूर्ण कर, लोप हो चली! निकल गयी हाथ से शूलधरणी!
हो गया खाली पात्र इस से! नहीं संभाल पाया वो श्रेष्ठ उसे! पराजित के पास कभी नहीं ठहरती शूलधरणी! मेरा तो सीना चौड़ गया! मैं भागा सीधा अपनी साध्वी के पास! वो मुझे आते देख,खड़ी हो गयी थी! मैंने भर लिया बाजुओं में उसे! उठा लिया ऊपर! और चूमने लगा! वो समझ गयी थी कि मैंने काट दिया है कोई प्रबल वार उस श्रेष्ठ का! "साधिके! साधिके! शूलधरणी! शूलधरणी!" मैंने कहा,
और लिपट गयी वो मुझसे! मैंने छोड़ा उसे! बैठा अलख पर!
और लड़ाई देख! श्वानों से घिरे किसी श्वान की तरह से हालत थी श्रेष्ठ की!
आँखें फ़टी थीं।
मुंह खुला था!
उसकी साधिका, अचेत लेटी थी! वो सरभंग, समझा रहा था उसे कुछ! लेकिन किसी हारे जुआरी की तरह से हालत हो चुकी थी उसकी! "श्रेष्ठ?" मैं चिल्लाया!
और वो डरा! "समय है अभी भी!" बोला मैं!
अवाक था वो! "मान जा! चला आ चला आ!" बोला मैं! खड़ा हुआ! और थूका सामने! नहीं मानेगा वो हार! चाहे कितने ही परकोटे ढह जाएँ, नहीं मानेगा हार! "धरणा?? कहाँ है धरणा?" पूछा मैंने!
चुप!! "बता? मूढ़। मूर्ख! जान जा!" बोला मैं! "खेड़ा?" सरभंग खड़ा हुआ! "क्या समझता है?" बोला वो! "बौड़म! मान जा!" बोला मैं! "खेल देखना है?" बोला वो! धमकी दी मुझे! "तू दिखायेगा?" मैंने कहा, "हाँ, देखना है?" बोला वो! "हाँ, बौड़म! हाँ! चल,आ आगे! चल!" बोला मैं! "देख अब तू काजिया का खेल!" बोला वो! "सुन काजिया!" मैंने कहा, "बोला खेड़ा?" बोला वो!
"तेरे बस में जो हो, सर्वोत्तम! दिखा, क्योंकि अब ये तेरा अंतिम बार होगा!" बोला मैं! हंस पड़ा!
ठहाके मारे। "चल! देखा खेल बौड़म!" मैंने कहा, अब सरभंग ने केश खोले अपने! पोटली उठा के लाया सामान में से! रखी नीचे, और खोला उसे! इंसानी कलेजा निकाला उसने! काटा उसको दो भागों में! एक का भक्षण किया,
और एक,सामने अलख में उतार दिया! खड़ा हुआ! पेट पर हाथ मार उसने अपने!
और कर दी उलटी नीचे उसने! हंसा! और बैठ गया!
अब उस उलटी को हाथ में उठाया! और लगाया अपनी बगलों में! सरभंगी महाक्रिया!! उठा, अलख तक आया! और अब जपने लगा मंत्र! मित्रगण! मेरी साध्वी चीखी बहुत ज़ोर से! अपने कलेजे पर हाथ रखते हए! अचेत हो गयी!
और वो, सरभंग, अपने हाथ में रखी हड्डी, नचाता रहा हवा में! मेरी साध्वी हवा में उठ गयी! करीब दो फ़ीट! गर्दन और टांगें लटक गयीं उसकी! मैं भागा उसके पास, और जैसे ही हाथ लगाया, मुझे झटका लगा, मैं पीछे जा गिरा। अब चढ़ा मुझे क्रोध! "सरभंग??" चीखा मैं!
और उसने ठहाके लगाए! "अंत हुआ तेरा अब!" बोला मैं!
और बैठ गया अलख पर! खंजर उठाया अपना, और अपनी जिव्हा में घुसेड़ दिया! रक्त के छींटे टपक पड़े! अलख में! मैंने मंत्र पढ़े, अलख में रक्त का भोग दिया, रक्त बहे जा रहा था, मैंने मह बंद किया, और मंत्र पढ़ा, ऑफर उठा, और गया साध्वी के पास, वो अब घूमने लगी थी, इस घूर्णन के कारण ही वो मर जाती, मैं आया उसके पास, और कुल्ला कर दिया रक्त का उसके ऊपर, घूर्णन बंद हुआ और अब उसकी नाभि पर मैंने छोटी ऊँगली रखी, और वो नीचे गिर पड़ी, चोट नहीं लगी थी उसे! लेकिन उस सरभंग का प्रयोग काट दिया था मैंने! मैंने फिर से मन बंद किया अपना, और आया अलख पर, और किया कुल्ला भूमि पर! फिर भस्म चाटी, मंत्र पढ़ा और रक्त बंद हुआ! अब खड़ा हुआ मैं! "सरभंग?" चिल्लाया मैं। सरभंग के होश उड़े थे तब! संग ही संग उस श्रेष्ठ के! "बस बहुत हुआ खेल तेरा!" कहा मैंने! सरभंग नीचे गिर पड़ा! उसे उम्मीद ही नहीं थी कि उसकी महा-क्रिया काम ही नहीं करेगी! "तूने इस हरामज़ादे का साथ दिया! तूने मेरी साधिका को मारने के कई प्रयास किये! तूने,
नियमों के विरुद्ध कार्य किया! अब तू इस दंड का भोगी है! मैं तेरा क्या हाल करने वाला हूँ, जानता है?" बोला मैं! मुझे क्रोध था बहुत! अब मद चढ़ा था! औघड़ मद! अब अलख पर बैठहए मैंने वाहचिका-विद्या का संधान किया! इसका जाप किया! सरभंग के होश पांवों में आये उसे! वो क्षमा मांगता तो छोड़ देता मैं उसे! लेकिन ऐसे सरभंग कहाँ मानने वाले होते हैं! ये नहीं मानते! वो सरभंग भी अपनी जान बचाने के लिए भागा अलख की तरफ! श्रेष्ठ वहीं बैठा था! झिंझोड़ दिया उसने श्रेष्ठ को! कि उसके प्राण संकट में पड़े हैं, बचाये वो उन्हें! श्रेष्ठ ने हाथ झिड़का उसका, और करने लगा जाप! प्राण-रक्षण जाप! अब मैंने अपने खंजर से ज़मीन पर एक आकृति काढ़ी, वाहचिका-विदया से संचारित किया उसको! रक्त के छींटे दिए! और वो औघड़, कांपा अब! वाहुचिका-विद्या को काटने के लिए उसको कम से कम प्रलतयुम-संधि में जाप करना था, और ािसा उनसे कभी जीवन में भी नहीं किया था! वाचिका-विद्या प्रबल आसुरिक महाविद्या है! इसको जो चलाता है, एप प्री भी दांव पर ;गाने होते हैं, यदि काट हुई, तो विद्या चलाने वाले का ही संहार कर देती है!
"सरभंग?" बोला मैं! वो चौंका! खड़ा हुआ! "खेल ख़त्म!" कहा मैंने!
और उस आकृति की सीधी बाजू में खंजर घुसेड़ा! मालाएं, जखीरे, पुंडे, गंडे, ताबीज़, भुजबंध, केशबंध आदि सभी बिखर गए! और एक चीख निकली गले से उसके, उसकी सीधी बाजू में एक छेद हो गया! रक्त की फव्वार फूट पड़ी वहाँ से! उसको पकड़ते हुए, नीचे बैठा वो! अब मैं हंसा! उसकी इस हालत पर मैं हंसा! "सरभंग? बाबा महापात्रा याद हैं?" बोला मैं! चीखता रहा वो।
और अब दूसरी बाजू में घुसेड़ा वो खंजर! एक और बड़ा सा छेद हुआ उधर भी! नसों का गुच्छा बाहर झाँकने लगा उसकी बाजू में से! रक्त की फव्वार फूट पड़ी वहाँ से!
और गले से चीख निकली उसके! मैं खड़ा हुआ! हंसा! उसकी नकल की! फिर नीचे बैठा! हँसते हुए!
और उस आकृति के घुटने की जगह खंजर घोंप दिया! घुटना फट पड़ा उसका! नीचे गिरा! टांग उठायी, और घुटना झूल गया! सिर्फ एक पेशी के सहारे ही जुड़ा रहा टांग से! रोरो के बेहाल हो गया वो। घटना थाम भी न सका।
और श्रेष्ठ! भीगी बिल्ली की तरह से उस सरभंग को तड़पते देखता रहा! फिर दूसरा घुटना! मैंने उस आकृति के दूसरे घुटने में खंजर घुसेड़ा!
फट पड़ा घुटना! ऐसा बड़ा छेद हुआ कि आर-पार दिखने लगा! लहूलुहान हो गया वो सरभंग! "सरभंग?" बोला मैं! "खेल खत्म!" कहा मैंने,
और अब घुसेड़ा उस आकृति के लिंग में! लिंग कट के झूल गया! अंडकोष फट पड़े!
और पीड़ा? पीड़ा अपने उच्चतम स्तर तक जा पहुंची!
और इस तरह अचेत हो गया वो! चींटे, कीड़े-मकौड़े भाग पड़े अपनी दावत की ओर!
और लिपट पड़े उसके ज़ख्मों से! सरभंग का खेल खत्म! मैंने मारा नहीं उसे! हत्या नहीं करनी थी उसकी मुझे! वो जीवित रहे, और दुनिया को बताता रहे कि कभी ऐसा नहीं
करना! यही चाहता था मैं! सरभंग! अब दूर हुआ! दूर हुए अवरोध! दूर हुआ राह का काँटा! अब सम्मुख मैं और वो श्रेष्ठ! मैं खड़ा हुआ फिर! आगे आया! "श्रेष्ठ?" मैं चिल्लाया! वो भी खड़ा हुआ! "श्रेष्ठ? क्या कहता है?" पूछा मैंने! श्रेष्ठ ने उस सरभंग काजिया को देखा एक नज़र! "क्या कहता है हरामज़ादे?" मैं चिल्ला के बोला! कुछ न बोला!
और बैठ गया अलख पर! लिया रक्त-पात्र! कुल्ला किया अलख में!
और झोंका ईंधन अब अलख में! "तू नहीं मानेगा! नहीं मानेगा?" बोला मैं! मंत्र जपता रहा श्रेष्ठ! "सुन ले फिर तू!" बोला मैं! उसने देखा सामने! "तेरी खेड़क बंद कर दूँ?" पूछा मैंने! चाहता तो देख बंद कर देता उसकी!
और फिर, वो पर्दे के पीछे ही रहता! कर देता मैं पल में संहार उसका! आँखें चौड़ गयीं उसकी! "और सुन! तेरा मैं इस सरभंग से भी बुरा हाल करूँगा!" कहा मैंने!
नहीं माना! मैं हंसा! और अट्टहास किया मैंने!
और बैठ गया मैं भी अलख पर! मेरी साध्वी अभी भी अचेत ही थी!
लेकिन मैं प्रसन्न था, अब कोई संकट नहीं था उसके लिए!
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे! वाचाल के भीषण स्वर! "कालप्रिया!" कालप्रिया! अपनी सभी बड़ी बड़ी सिद्धियों को दांव पर लगा रहा था ये श्रेष्ठ! अभी बहुत बाण बाकी हौं शायद उसके तरकश में! लेकिन बाण भले ही कितने हो! तरकश अभय नहीं! अक्षय नहीं! अब बुद्धि छोड़ने लगी थी उसका साथ!! पहले विवेक ने त्याग उसे, अब बुद्धि ने छोड़ा! अब श्रेष्ठ भला श्रेष्ठ कैसे रहेगा! कालप्रिया! महाचामुंडिका! कालयुप-वासिनी! महाशक्ति! कालप्रिया चौंसठ महावीरों द्वारा सेवित है। इसकी सहोदरियां नहीं हैं। इसके ये महावीर, महाभट्ट योद्धा हैं! दुरभट्ट कहा जाता है इन्हे! ये ही चेवाट की भूमिका निभाते हैं। ये भी एक महाशक्ति की शस्त्रवाहिनी शक्ति है! चन्दपाल अस्त्र होता है वो! खड़ग और खड्ग में अर्धचन्द्राकार कटाव ही चन्दपाल कहलाता है! इसी शस्त्र की वाहिनी है ये कालप्रिया! महाचामुण्डिका! सौरात्रिकाल साधना है इसकी!
इकत्तीस बलिकर्म से सेवित है! जल में आधे डूबकर, इसकी साधना होती है, साधना में मंत्र
मन में ही जपे जाते हैं! एक बार साधना आरम्भ हुई तो फिर त्यागी नहीं जा सकती, अन्यथा नाश हो जाएगा देह का! और ये कालप्रिया, इसको सिद्ध करवाई होगी इसके पिता ने! इसलिए? कोई पूछे तो सही बाबा धर्मेक्ष से! आज वो भी नहीं रहने वाली इसके पास! और ईंधन झोंका मैंने फिर अलख में! खड़ा हुआ, साध्वी के पास गया! साँसें सामान्य ही थीं! त्रिशूल उठाया अपना, अभिमंत्रित किया और छुआ दिया उसके उदर से!
आँखें खुल गयीं उसकी! उठ बैठी वो! 'आओ साधिके!" बोला मैं,
और चला वापिस! और आ गयी मेरे पास वो! बैठ गयी! "अलख ज़ारी रखो तुम!" कहा मैंने! श्रुति अलख में ईंधन झोंके जा रही थी! मैं प्रसन्न था कि वो सरभंग रास्ते से हट गया था! मुझे क्रोध भी था उस पर, किस प्रकार उसने बाबा महापात्रा को हरवाया होगा, ऐसे ही प्रपंच लड़वा कर! और तो और, ये श्रेष्ठ अभी भी नहीं डिगा था! वो मरणासन्न सरभंग सामने पड़ा
था, अचेत, कीड़े-मकौड़े रेंग रहे थे उस पर! फिर भी नहीं सोचा एक बार ही कि उसका भी ये हश्र हो सकता है! लेकिन उसको दम्भ था! उसको लगता था कि नव-मातंग महाक्रिया बचा लेगी उसे और मेरा संहार कर देगा वो! इसी क्रिया से पहले उसने कालप्रिया का आह्वान किया था! उसको लगता था कि मैं इस कालप्रिया की काट करने में सक्षम नहीं! लेकिन वो
ये नहीं जानता था कि ये कालप्रिया अब उसकी होकर रहने वाली नहीं! वो भी उसके सिद्धि पात्र से छिटकने वाली है! मैं खड़ा हुआ। अलख में ईंधन झोंका! मांस उठाया, और कलेजी के पांच टुकड़े अलख में झोंक दिए! और फिर आया आगे, त्रिशूल उठाया अपना! और दीथाप भूमि को! "श्रेष्ठ?" दहाड़ा मैं उसने मुंह फाड़ के देखा ऊपर! "श्रेष्ठ! अभी भी समय है! सम्भल जा!" मैंने कहा, "नहीं! नहीं! तू होता कौन है? तेरी औक़ात क्या?" बोला वो!
मैं हंस पड़ा उसकी मूर्खता पर! "समझ जा! अभी समय है श्रेष्ठ!" बोला मैं! "तुझे जीवित नहीं जाने दूंगा मैं!" बोला श्रेष्ठ! ज़मीन में मुक्के मारता हुआ! "नहीं मांगेगा तू!" बोला मैं,
और अट्टहास लगाया। मैं वापिस आया अलख के पास! "साधिके?" बोला मैं, उसने देखा मेरी तरफ! "मदिरा! मदिरा परोसो साधिके!" मैंने कहा, उसने कपाल कटोरे में मदिरा परोसी! मुझे दी! और मैंने ज़मीन में रखा वो कटोरा! एक मंत्र पढ़ा! और ब्रह्म-कपाल उठा लिया! अब कपाल को नीचे रखा! "औंधिया?" बोला मैं! "ओ औंधिया?" बोला मैं उस कपाल से! "औंधिया?" चिल्लाया मैं! "हऊम!" एक लम्बी सी आवाज़ आई! "ले! ले औंधिया!" मैंने कहा,
और वो कटोरा रख दिया कपाल के ऊपर! कटोरे में से मदिरा कम होने लगी धीरे धीरे! मैंने अट्टहास लगाया! "अब जा! तेरी दावत होगी! जाऔंधिया!" बोला मैं! वो कटोरा, कपाल से नीचे गिरा! चला गया था औंधिया मसान!! "साधिके?" मैंने कटोरा उठाया, तो मदिरा परोस दी उसने उसमे "आ, इधर आ!" बोला मैं, वो उठी, खड़ी हुई! "आ बैठ" मैंने कहा,
और जांघ पर बिठा लिया उसको!
"ले, पी ले!" कहा मैंने! उसने कटोरा लिया और पी गयी! कर दिया खाली! "जा! बैठ जा! अलख जगा!" कहा मैंने
अब अलख में भोग दिया उसने! और मैं हुआ तैयार उस कालप्रिया का जवाब देने के लिए!
मैत्राक्षी!
हाँ! मैत्राक्षी! मैत्राक्ष शब्द एक विशेष प्रकार के प्रेत की ओर इंगित करता है, ये प्रेत देव-गुण सम्पन्न होता है! ये मैत्राक्षी आसुरिक गुणों से सम्पन्न इनकी ईष्ट है! मैत्राक्षी! एक सहस्त्र मैत्राक्ष प्रेतों द्वारा सेवित है! प्रबल आसुरिक है! इक्यावन रात्रिकाल इसकी साधना का विधान है। निर्जन स्थान पर, सियार के चर्म के आसन का प्रयोग कर, इसकी साधना हुआ करती है। पांच साध्वियां आवश्यक हैं, इक्कीस बलिकर्म द्वारा पूजित है, जब प्रकट होती है, तो साधक नेत्रहीन हो जाता है! और मैत्राक्ष प्रश्न और उद्देश्य पूछा करते हैं! उत्तर सटीक हए, तो सिद्ध होती है, नहीं हए, तो मृत्यु-वरण करना होता है! और जब मैत्राक्षी प्रकट हो जाती
है, तो नेत्र सामान्य हो जाते हैं! ये मैत्राक्षी, कालप्रिया से कहीं अधिक शक्तिशाली है! पलाश वृक्ष की जड़ों में इसका वास रहता है, माँ में दो दिन, सरोवर स्नान किया आकृति यही, आयु में षोडशी सादृश्य और देह में रति समान हुआ करती है! काम सदैव जागृत रहता है इसका! यही है मैत्राक्षी! मैंने इसका आह्वान किया तब! मेरे पास बलिकर्म के लिए पीछे बंधे मेढ़े खड़े थे। मैं पीछे गया! भेरी उठायी, उसका पूजन किया! और अलख के सामने रख दिया! फिर सबसे कम उम के एक मेढ़े को लाया! उसका भी पूजन किया। भेरी पर रखा सर उसका!
और एक ही खड्ग के वार से गर्दन धड़ से अलग! रक्त का फव्वारा छूट पड़ा!
श्रुति ने, मेरे कहे अनुसार, रक्त एकत्रित किया उसका, एक बड़े से पात्र में! और शेष बहता
हुआ रक्त, मैंने दूसरे पात्र में रख लिया!
अब सर उठाया उसका!
और धड़ वहीं छोड़ दिया! आया अलख के पास, ओस र और वो रक्त-पात्र लेकर! अपने शरीर पर रक्त पोता मैंने। और हुआ अब आह्वान आरम्भ! उस मेढ़े के सर से जीभ बार निकाल ली थी, काट लिया उसको. खंजर आरपार किया उसके, और खंजर अलख के समीप गाड़ दिया!
और हुआ अब आरम्भ, महा-आह्वान! अब हुआ मैं लीन! वहां! जाप में मग्न था वो!
और कुछ ही देर मैं वहाँ, मस्तक गिरने लगे! कटे हुए मस्तक! ये उस कालप्रिया की सेवकों द्वारा फेंके गए मस्तक थे! सभी की आँखें निकाल ली गयीं थीं! अट्टहास सा लगाया उस श्रेष्ठ ने। लगा कि मुझे अभिद एर है प्रकट करने में उस मैत्राक्षी को! लेकिन ये नहीं जानता था वो कि, मैत्राक्षी मात्र कुछ ही देर में प्रकट हो जाती है! सबसे छोटा आह्वान है इस मैत्राक्षी का! "कालप्रिया?" "कालप्रिया?" "मेरी महा-आराध्या?" "मेरी प्राण-रक्षिणी!" "प्रकट हो!" "प्रकट हो!" बोला चिल्लाते चिल्लाते वो! मेरी हंसी सी छूट पड़ती!
लेकिन मैं दबा गया हंसी अपनी!
और तभी! तभी मेरे यहां जैसे आकश में से अनगिनत छेद हो गए! पानी बरसने सा लगा था! लेकिन ये पानी, गीला करने वाला नहीं था! ये पानी, इस लोक का नहीं था! वो कैसा जल था, अद्भुत जल! यही है इस मैत्राक्षी के आगमन का सूचक! हर तरफ शीतलता छा गयी थी! हर तरफ! धुंध सी छाने लगी थी!! अजीब सी धुंध! पीले रंग की धुंध!
और तभी प्रकट हुए वो, महाभट्ट मैत्राक्ष! जैसे कई ब्रह्म-राक्षस एक साथ प्रकट हुए हों! मैं खड़ा हुआ! प्रणाम किया मैत्राक्षी को! अंतिम मंत्र पढ़ा! और भोग अर्पित कर दिया समक्ष! झुका! अलख के करीब!
और वो खंजर से बिंधी जीभ, उठा ली मैंने! ये आवश्यक है बहुत! यही विधान है। इस मैत्राक्षी का विधान! कल मैंने आपको तुलजा के विषय में जानकारी दी थी, तुलजा अति-रौद्र रूप में आये तो आपको किसी भी स्थान पर तबाही का मंजर दिखाई दे जाएगा! साधना छोटी है इसकी बहुत, लेकिन यदि छह मास में इसको जागृत नहीं किया जाए तो आपको
इसकी सिद्धि पुनः करनी पड़ेगी! तुलजा विंध्याचल में पूज्य भी है कई जनजातियों में, इसका पूजन आज भी होता है! और यै प्रत्यक्ष भी दर्शन दे देती है! वो श्रेष्ठ महा-विक्रालिका का जाप कर रहा था! चुन चुन कर, अपनी एक से एक सिद्धियां आगे ला रहा था। लेकिन बेचारे की पार नहीं पड़
रही थी! अब तक के सभी वार व्यर्थ ही गए थे! एक दो सिद्धियां हाथ से निकल भी गयीं थीं! अब बस किसी चमत्कार के ही इंतज़ार में था वो श्रेष्ठ! मुझे लगा था कि अच्छी टक्कर दे सकता है ये श्रेष्ठ, लेकिन अभी तक तो उसके सभी हथियार भोथरे ही निकले थे। और तो
और, वो प्रपंची सरभंग अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा था अचेतावस्था में। हाँ, कीड़े-मकौड़े मेरा धन्यवाद अवश्य ही कर रहे थे। टूट के पड़ रहे थे उसके ज़ख्मों पर! और फिर मैं खड़ा हुआ! उस मेढ़े को चीरा और निकाल लिए कुछ अंग अंदर से, इनकी आवश्यकता पड़ती है, ऐसे आहवान में, इसीलिए ले आया था मैं वे अंग! "साधिके?" बोला मैं, देखा मुझे! अपनी मोटी मोटी आँखों से!
आँखें बहुत संदर हैं श्रुति की! किसी छोटी बछिया जैसी! पलकों के बाल, घुमावदार हैं! सुनहरे से चमकते हैं! एक बार नज़र लड़ जाए तो हटाई नहीं
जाती! खैर, कटोरा भर दिया था उसने मदिरा से, मैंने लिया और गटक लिया, एक ही बार में,
और हुआ फिर खड़ा! थोड़ा लड़खड़ा गया था मैं! नशा गहरा हो चला था तब तक! अब लड़ाई देख! तो अपने दोनों हाथों को नचा रहा था श्रेष्ठ! आहवान में! मंत्र लगातार फूट रहे थे उसके मुंह से! आँखें बंद करता और कभी आँखें खोल लेता, फिर अलख में ईंधन झोंकता और फिर से हाथ नचाता अपने! मैं बैठ गया नीचे!
और अब डूबा गहन मंत्रोच्चार मैं! हुआ तल्लीन और प्रखर!
चढ़ता चला गया मन्त्र-दीर्घा! कोई बीस मिनट बीते होंगे, कि मेरे स्थान पर, लाल रंग के फूल गिरे! हवा में तैरते हुए! मैं समझ गया। जान गया, तुलजा का आगमन होने को है। और तभी वाचाल के स्वर गूंजे। एक शब्द बोला उसने, और मैंने अपनी आँखें बंद की! वहाँ, वहाँ सफ़ेद फूल गिरने लगे थे! ढेर के ढेर! और श्रेष्ठ, विक्षिप्त की तरह से हाथ नचाये जा रहा था! फूंक मारता जा रहा था बार बार अलख में!
और तभी उसकी अलख चौंध पड़ी!
अलख में से सफेद रंग का आग का गोला फूट पड़ा! वो खड़ा हुआ! अट्टहास किया! और झूम पड़ा! "देख रहा है * * * * * * *?" चीखा वो! हाँ! देख रहा था मैं! "अब क्या करेगा? क्या करेगा तू?" बोला दांत भींच कर! मैंने कुछ नहीं कहा!
आँखें खोल दी! और हआ मंत्रों में लीन! अब मंत्र हुए भीषण मेरे! एक एक करके मैं आगे बढ़ता रहा, और अंत में 'फट्ट पर अंत किया मंत्र का!
और झोंक दिया ईंधन अलख में! डाल दिए कुछ अंग उस मेढ़े के अलख में!
और एक और मंत्र पढ़ा! और फिर, "प्रकट हो!" कहा मैंने! तभी मेरे बदन में ताप बढ़ने लगा! मैंने अपनी साध्वी को वहां से हटने को कहा,
वो हट गयी और अलख के बाएं, थोड़ा दूर जा बैठी!
और तभी, तभी आकाश से स्वर्णिम रेखाएं फूट पड़ीं! घूमते हुए, लहराते हुए वे पृथ्वी की ओर बढ़ीं! भूमि से स्पर्श करते ही, फिर से ऊपर उठीं! तभी एक हुंकार सौ गूंजी! कोई था नहीं वहाँ! सहसा ही वाचाल ने संकेत दिया मुझे! आ पहुंची थी महा-विक्रालिका की सहोदरियां वहां! मैं भागा अलख पर! ईंधन झोंका और चिल्ला पड़ा! "तुलजा?" "तुलजा?" "तुलजा? प्रकट हो!" मैंने कहा, मैंने कहना था और प्रकाश का गोला जैसे फूट पड़ा! रंग बिरंगा प्रकाश छलकता रहा!
और मैं प्रसन्न हुआ! महा-विक्रालिका की सहोदरियां गंध लेते ही तुलजा की, क्षण भर में ही हो गयी लोप!
और मैं भाग लिया अपनी प्राण-रक्षक तुलजा के समक्ष लेटने को! प्रणाम करने को! लेकिन तुलजा प्रकट नहीं हुई थी, उसकी उप-सहोदरियां थीं वहां, दो, हालांकि तुलजा उप सहोदरियां आदि नहीं लाती संग! लेकिन ये विषय दूसरा है! सिद्धि का विषय दूसरा! और फिर, मैंने आज पहली बार तुलजा का आह्वान किया था किसी द्वन्द में! मैं खड़ा हुआ!
और पढ़े मंत्र तुलजा के! एक प्रकार से उसका धन्यवाद किया! मेरी प्राण-रक्षिका थी वो! इसीलिए प्रणाम किया।
और फिर, प्रकाश जैसे अवशोषित हुआ, और तुलजा लोप! मैं हंसा पड़ा! अट्टहास सा लगाया मैंने! खुशी का अट्टहास! भागा पीठे, त्रिशूल उठाया, और नाचने लगा! झूमने लगा! अब मद चढ़ा था। विजय का मद। उस श्रेष्ठ को चित्त करने का मद! अब लड़ाई देख! श्रेष, भयातुर सा बैठा था अलख के पास! दोनों हाथ पीछे किये हए! "श्रेष्ठ * * * * * ?" मैंने गुस्से से कहा!
आँखें फाड़ के देखे वो सामने! "गयी?" बोला मैं।
चुप! "गयी न?? हा! हा! हा! हा!" बोला मैं! चली गयी थी महा-विक्रालिका उसके सिद्धि-पात्र से! अब धीरे धीरे रिक्त हए जा रहा था उसका सिद्धि-पात्र!
जैसे छिद्र हो गया हो पेंदे में उसके! "मान जा! अभी भी समय है!" बोला मैं!
खड़ा हुआ वो। अलख में से एक जलती लकड़ी उठायी!
और फेंक मारी सामने! ये खीझ थी उसकी! खीझ! हार की गंध! पराजय की आहट! जो अब उसे, सुनाई देने लगी थी! लेकिन! वो अभी भी डटा था मैदान में! क्यों न डटता!! आखिर दम्भ में अँधा था। "श्रेष्ठ?" मैं फिर से चिल्लाया!
अवाक खड़ा था! "मान जा! मैं क्षमा कर दूंगा तुझे!" बोला मैं! "क्षमा??" बोला वो! हँसते हुए!
"क्षमा तू मांग ले! तू!" बोला वो! मैं हंसा! उसकी मूर्खता पर! "तु अब देखना?" बोला वो! मैं हँसता रहा! "अब देखना तू?" बोला वो! और बैठ गया अलख पर! साध्वी को खींच कर अलग कर दिया था वहाँ से उसने! "अब देख!" बोला वो!
और लिया अपना सामान उसने! और निकाली उसमे से, कुछ छोटी छोटी मूर्तियां! कुल नौ! नौ मूर्तियां! नव मातंग!
अंतिम हथियार उसका! अंतिम पड़ाव का अंतिम चरण आ पहुंचा था! "देख रहा है?" पूछा उसने! मैं हंस पड़ा फिर से! "देख! देख क्या हाल होगा तेरा!" बोला वो, हँसते हए! ये शायद, आज उसकी अंतिम हंसी थी, या जिंदगी की अंतिम हंसी! नव-मातंग! मातङ्गिकाएँ! महा-मातंगी की प्रधान महा-सहोदरियां! प्रचंड एवं भीषण महाशक्तियां! अब तक के, ताल-ठाल से मैंने जो जाना था वो ये, कि श्रेष्ठ के बस में नहीं था इनको सिद्ध करना! ये अवश्य ही श्रेष्ठ को उसके पिता जी ने ही सिद्ध करवाई होगी! या, ये प्रदत्त होंगी! श्रेष्ठ बस नाम का ही श्रेष्ठ था! ये तो मैं अब तक जान गया था। उसने अपने पिता से कुछ सीखा था या नहीं, लेकिन, अपने पिता की तरह की सूझबूझ नहीं थी उसकी! बाबा धर्मेक्ष कभी द्वन्द नहीं करते। और बाबा ने इस श्रेष्ठ को मना भी कर दिया था द्वन्द करने के लिए, लेकिन माना नहीं था ये श्रेष्ठ! आज श्रेष्ठ की श्रेष्ठता दांव पर लगी थी! लानत है ऐसी औलाद पर, जो अपने पिता से हक्मतलफ़ी करे! कोई फायदा नहीं ऐसी
औलाद का! अब पता नहीं बाबा ने कैसे इसको नव-मातंग साधना करवा दी थी! कहिर, अब जो भी हो, अब नतीजा आने को ही था! बस कुछ देर और, कोई घंटा या डेढ़ घंटा! उसके बाद साबित हो जाना था कि द्वन्द की चुनौती देना किसे भारी पड़ने वाला था! अब श्रेष थे उस अलख के पास एक वृत्त खींचा! त्रिशूल के फाल से! उसका त्रिशूल भी काफी मज़बूत था, पूरा का पूरा ठोस था! और फाल अंदर को मुड़े थे उसके! ये अवश्य ही उड़ीसा का रहा होगा, वहीं ऐसे ही त्रिशूल बना करते हैं! खैर, उसने वृत्त काढ़ लिया था! और उस वृत्त की रेखा पर, वो छोटी छोटी मूर्तियां रख दी थी एक समान दूरी पर! और अपने झोले में से कुछ सामग्री निकाली उसने, और रख दी सभी मूर्तियों के सामने! और अब हुआ खड़ा, पहुंचा अलख पर! ईंधन झोंका उसने अलख में! और हो गया शुरू महाजाप में! तो अब नव मातंग ही अंतिम विकल्प था उसके पास!
और मेरे पास क्या विकल्प था? क्या काट थी इसकी। थी! थी इसकी काट, जिसके कारण मैंने श्रेष्ठ को कई बार समझाया था। लेकिन वो समझ ही नहीं पाया था! मातंग वायव्य कोण वासिनी है! ये नौ महाशक्तियां हैं, जो संयुक्त हो, एक अथाह, महा-विकराल महाशक्ति का सृजन किया करती हैं! और यही शक्ति, अत्यंत विध्वंसक है!
"मूर्ख श्रेष्ठ?" बोला मैं, नहीं सुना उसने! दरकिनार किया उसने "मूर्ख। अभी भी सम्भल जा!! समय है अभी शेष!" कहा मैंने। नहीं सुना! कोई प्रतिक्रिया नहीं! "श्रेष्ठ! सुन! आज का सूरज तेरे लिए क्या लाने वाला है, जानता है?" पूछा मैंने, नहीं सुना! लगा रहा जाप में!
और अब आया मुझे क्रोध! मैं बैठ गया अलख के पास! अलखनाद किया! औघड़नाद किया! और फिर, मुझे अब कोई कुकृत्य न हो जाए कहीं, गुरु से क्षमा भी मांग ली मैंने!
और अब! अब बस एक ही उद्देश्य था, शत्रु को परास्त करना!
और शत्रु कौन? वो श्रेष्ठ! यही था मेरा अब सबसे बड़ा शत्रु! अलख में ईंधन झोंका और किया एक महामंत्र का जाप! "साधिके?" बोला मैं,
आई वो! "भोग सजाओ! नौ दीप भी प्रज्ज्वलित करो!" मैंने कहा, वो करने लगी सबकुछ तैयार! पहले भोग सजाया, फिर दीप प्रज्ज्वलित करने हेतु, कड़वा तेल डाला, और हाथों से बाती बनाकर, अलख के दायें,जहां मैंने कहा था, वे दीप प्रज्ज्वलित कर दिए। "आओ साधिके!" मैंने कहा,
और बिठा लिया अपने दायें उसे! और अब जाप किया मैंने उन नौ महावीरों का, जिनसे बड़ी से बड़ी शक्ति भी थर्रा जाती है! नाम नहीं बताऊंगा उनका, प्रतिबंधित हैं, नाम लिए भी नहीं जाते, मात्र मन में ही जपे जाते हैं! मात्र साधना समय ही उनके नाम लेने का विधान है! मैं उनको यहां नौ वीर कहूँगा! हाँ,
इतना बता सकता हूँ कि ये नौ-वीर श्री श्री श्री रक्तज जी के हैं। नमन है उन्हें मेरा यहां! मैंने आह्वान थामा अब! मंत्रों की आवाजें श्मशान में गूंज उठीं। श्मशान का सीना जैसे छलनी होने लगा। लकिन अन्तःमन में प्रसन्नता भर गयी उस श्मशान के! वे नौ-वीर, आज यहां प्रकट होने वाले थे, इसलिए! "साधिके?" बोला मैं! वो खड़ी हो गयी! "केडिया, खेड़िया, गेड़िया और रुरु! प्रसाद लाओ उनका!" बोला में,
ये चार, प्रहरी हैं!
द्वारपाल उन नौ-वीरों के! मदिरा ले आई वो। "यहाँ! यहाँ रखो!" बोला मैं, सामने रख दिया मेरे सामान वो! "खल्लज लाओ!" बोला मैं, ले आई खल्लज मेरे सामने, चार खल्लज! अब मैंने परोस दी मदिरा उन चार खल्लजों में! "लो! अलग लग चारों दिशाओं में रख दो!" बोला मैं, वो एक एक करके,रख आई चारों दिशाओं में सभी खल्लज! "एक एक दीया, रख दो उधर, उन्ही खललजों के सामने!" कहा मैंने! एक एक दीया, रख आई वो! "साधिके?" बोला मैं! "भुर्भुजा का भोग लाओ!" कहा मैंने!
ले आई भोग! "मेरी पीठ के पीछे छआ कर, इसको रख आओ उस पेड़ के नीचे!" मैंने पेड़ की तरफ इशारा करके बताया! रख आई वो भोग उस भुर्भुजा का!
भूर्भुजा! हंकिनी! उन चारों द्वारपालों की हंकिनी!
.
"आओ, बैठ जाओ!" बोला मैं!
और अब हुआ भूर्भुजा का आह्वान! और कुछ ही देर में, उस भूर्भुजा का पेड़ के नीचे रखा भोग, उछला हवा में, और गायब! बस ठाल ही नीचे गिरा। मैंने अट्टहास लगाया! "हंकिनी!" आ हंकिनी! आ!" बोला मैं! भम्म सी आवाज़ हुई, और फिर सब शांत! हो गयी थी हंकिनी मुस्तैद! अब उन चारों का आह्वान आरम्भ हुआ! नव-मतंग में अभी समय था! उसके बाद
पूजन भी था उनका! फिर उद्देश्य आदि। इसीलिए मैं यहाँ सजग बैठा था! पल पल मैं, वाचाल संकेत दे देता था! मैं गहन आह्वान में डूब चला! भूल गया अपने आपको भी! बस मंत्र! और मंत्र! बस! मैं झूम झूम के मंत्र पढ़ता! बैठ बैठे! कभी तेज, कभी धीरे।
और अलख में ईंधन झोंक देता! वहाँ! भोग सजा हुआ था! फूल आदि सब तैयार थे! सारी सामग्री तैयार थी!
और मंत्र ही मंत्र! सत्ता की लड़ाई थी। सत्ता! उसके लिए! मेरे लिए, उस श्रेष्ठ को दिखाना, कि, धन्ना ने क्या सिखाया था मुझे। क्या सीखा मैंने! ये सब दिखाना था इस श्रेष्ठ को!
एक तो देख चुका था। वो धराशायी हो, अचेत था! रक्त बहे जा रहा था, मांस को कीड़े नोंच रहे थे।
और इसके बाद भी ये श्रेष्ठ, नहीं माना था। नहीं सीखा था अपने पिता से कुछ भी! मैंने लम्बे लम्बे मंत्र पढ़े!
और तभी! तभी प्रसाद के खल्लज ऊपर उठे!
और नीचे गिरे! आन पहुंचे थे वे चारों। प्रसाद भी स्वीकार कर लिया था! लेकिन वे सब अदृश्य ही रहते हैं। प्रत्यक्ष नहीं आते कभी! हाँ, रुरु कभी-कभार दिख जाता है! भीमकाय देहधारी है, वर्ण काला है उसका, लौह दंड रहता है हाथ में,
और भुजाओं में सर्प लिपटे रहते हैं! केश रुक्ष हैं, नेत्र लाल हैं!
और देह, पाषाण जैसी होती है! तो वे चारों द्वारपाल और हंकिनी आ चुके थे। आमद हो चुकी थी उनकी! ये महाभट्ट वीर हैं, इनकी आज्ञा लिए बिना आगे का मार्ग नहीं खुल सकता! कुल वीर श्री श्री श्री श्री रक्तज जी के चौंसठ हैं, ये नौ-वीर, अत्यंत ही क्रूर, कालकूटपूर्ण, यमभट्ट और महासंत्रासक महावीर हैं! उन चार द्वारपालों में रुरु ज्येष्ठ हैं, अतः रुरु का भी आह्वान करना पड़ता ही है, वे ही बाकी तीनों दवारपालों को लाते हैं साथ! हंकिनी संग होती हैं इनके! ये ही हांकती है इन चारों को, यही कार्यभार है इस हंकिनी का! तो हंकिनी और वे चारों द्वारपाल आ चुके थे यहां, और मुस्तैद थे, वे ही मार्ग प्रशस्त किया करते हैं उन नौ महावीरों का! भाल,चंद, ताम,तूम्ब आदि आदि शब्दों से श्रेष्ठ ने श्मशान को जगाया हआ था! कोई कसर नहीं छोड़ रहा था! नव-मातंग साधना है ही ऐसी क्लिष्ट! वो उठा, और कर दिया हलाक़ एक बकरा, रक्त इकडा किया उसका, और ले आया अलख पर! रक्त के छींटे दिए उसने अलख में, और फिर अपना श्रृंगार किया, नौ जगह श्रृंगार आवश्यक है, अन्यथा कुछ न कुछ बाधा आयेगीही आएगी, या तो वो कट के गिर जाएगा या फिर सुन्न पड़ जाएगा!
इसी कारण से ये श्रृंगार किया जाता है। उसे श्रृंगार किया और फिर अलख को नमन किया उसने! खड़ा हुआ, खंजर उठाया और अपना अंगूठा चौर लिया! टपका दिया लहू अलख में! अलख चटमटा गयी! पीछे लौटा, सामग्री उठायी, महामंत्र का जाप किया और झोंक दी सामग्री अलख में। और जा बैठा फिर! मांस काट रहा था खंजर से वो श्रेष्ठ! भोग आदि के लिए! लगा ही हआ था अपने क्रिया-कलाप में! मैं भी जाप में लगा था! मैं अलख में भोग
