और कुछ नहीं, बस एक बार बात कर लूँ श्री श्री श्री से" मैंने कहा, "हाँ, कल कर लीजिये" बोले वो, "हाँ, कल करूँगा मैं" मैंने कहा, हम खाते पीते रहे और कोई बारह बजे हए फारिग, भोजन भी कर ही लिया था हमने, मैंने हाथ-मुंह धोये और मैं चला वहां से सीधा चला श्रुति के पास! कमरा लगता तो बंद था, लेकिन मेरे हाथ लगाने से खुल गया था, मैं अंदर चला आया, बत्ती थी नहीं अभी तक, मोमबत्ती भी अब बस कोई पंद्रह-बीस मिनट ही चलती, मैं कुर्सी पर जा बैठा, अपने चेहरे के नीचे हाथ रखे सो रही थी श्रुति, उसका चेहरा देखा, तो द्वन्द का दृश्य याद हो आया, अब कितने आराम से सो रही थी वो! दिल में तरस सा उठ आया, तभी करवट ली उसने, आँख खुली तो मुझे देखा, उठ गयी तभी के तभी! "कब आये?" पूछा उसने, "अभी कोई दस मिनट पहले" मैंने कहा, "मुझे क्यों नहीं जगाया?" बोली वो, "तुम सो रही थीं आराम से, इसीलिए नहीं जगाया!" मैंने कहा, "अच्छा!! वैसे कभी नहीं जागते?" बोली वो! ये क्या कह दिया था! मेरा फेंका पत्तल मेरे ही सर पर आ गिरा था! मैंने एक फीकी सी मुस्कान हंसी! कि मुझे उसकी इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था!
"खाना खा लिया?" पूछा उसने, "हाँ, और तुमने?" बोला मैं, "बहुत इंतज़ार किया, और फिर खा लिया!" बोली वो, "अच्छा किया!" मैंने कहा, मैं खड़ा हुआ, और फिर जा पहुंचा उसके पास, लेटा और उसको अपनी बाजू पर लिटाया, और ढक ली चादर फिर! अब नशा था बहुत! एक तो मदिरा का नशा, दूसरा उसके स्पर्श का नशा! दीवार पर, बुझती हुई मोमबत्ती की सांस टूटती दिखाई दी! रौशनी दम तोड़ रही थी! और तोड़ दिया फिर! मैं भी सो ही गया! सुबह हुई, सुबह भी हल्की-फुलकी बारिश थी! सामने तालाब में, पानी टपक रहा था अभी! हवा बहुत तेज थी, पानी की लहरें उठ रही थीं। श्रुति अभी सोयी ही थी, शायद ठंड लग रही थी उसे, दोनों हाथ सर के नीचे लिए सोयी थी, घुटने मोड़ रखे थे उसने, सो मैंने चादर उढ़ा दी उसे, और स्वयं स्नान आदि से फारिग होने चला गया। वापिस आया, तो भी सो रही थी। मैंने नहीं जगाया उसे! मैं बाहर आया, दरवाज़ा कस कर बंद किया बाहर से, बाहर तो रिमझिम थी! ठंडी ठंडी फुहार पड़ रही थीं! मैं शर्मा जी के कमरे की ओर चला! कमरा बंद था, मैंने खटखटाया, तो दरवाज़ा खुला, शर्मा जी भी स्नान कर चुके थे! मैं अंदर चला आया! "अरुण चला गया था?" पूछा मैंने, "हाँ, आपके साथ ही" बोले वो! "अच्छा! चाय पी?" पूछा मैंने, "कह के तो आया हूँ" बोले वो, बाल बनाते हुए अपने,
और तभी सहायक आ गया, कप थे उसके पास, चाय डाल दी उसने और दे दी हमें, साथ में कुछ नमकीन सा था, नमकपारे जैसी नमकीन! बरसात में सीलन लग गयी थी उसमे, लेकिन चाय के साथ अच्छे लगे वो! चाय पी ली, और मैं करीब पौना घंटा रहा उनके साथ, फिर वापिस लौटा, लौटा तो कमरा बंद था अंदर से, जाग चुकी थी श्रुति उस समय तक, मैंने खटखटाया दरवाज़ा, खोला उसने, तो मैं अंदर चला, वो भी स्नान कर, तैयार ही थी, बाल
बना रही थी अपने! "कब जागे थे?" पूछा उसने, "कोई घंटा पहले " मैंने कहा, "मुझे नहीं जगाया?" बोली वो,
"तुम्हे ठंड लग रही थी! मैंने सोने दिया!" मैंने कहा, "चाय पी ली?" पूछा उसने, "हाँ, शर्मा जी के साथ" बोला मैं, "और पियोगे?" पूछा उसने, "हाँ, पीलूँगा" मैंने कहा, "कह दिया है मैंने" बोली वो, "अच्छा किया!" मैंने कहा, "बारिश है अभी?" बोली वो, "हाँ, है" मैंने बाहर झांकते हुए कहा, रौशनदान से, "बेमौसम बरसात है!" बोली वो, "हो जायेगी बंद! खुलने लगा है मौसम वैसे" मैंने कहा, बाल बना लिए, बाँध लिए और बैठ गयी! खिली खिली सी लग रही थी। जैसे किसी पूरे खिले गुलाब पर ओस की बूंदें! आँखों में काजल तो बस, कहर मचाने के लिए ही था जैसे! नीले रंग के चुस्त से कुर्ते में और सफ़ेद रंग की चुस्त पाजामी में बैठी थी, वो चुस्त और मैं सुस्त! ये काम भी समय आदि नहीं देखता! हमेशा ऐसी रूपसी की पैमाइश करने में ही लगा रहता है! "सुंदर हो तुम बहुत वैसे श्रुति!" बोला मैं! "हाँ, बताया आपने, कई बार!" उपहास के लहज़े में बोली! "कभी तो मान जाया करो श्रुति!" मैंने कहा, "कब नहीं माना?" पूछा उसने! "सबकुछ मानती हो, लेकिन ये भी मान जाओ कि सच में बहुत सुंदर हो तुम!" बोला मैं! "मान लिया!" बोली वो!
और चाय आ गयी फिर! ले ली हमने! साथ में अब ब्रेड आई थी! मैंने नमकीन पूछी तो वो खत्म हो गयी थी! चलो ब्रेड ही सही! चाय के साथ मुंह चलाना था, और क्या, पेट तो भरना नहीं था। हम चाय पीने लगे।
और तभी चंदा आ गयी अंदर! "आओ चंदा!" मैंने कहा, "नमस्ते!" बोली वो, "नमस्ते!" मैंने कहा,
"कैसी हो?" पूछा मैंने, "कुशल से हूँ, आप?" पूछा उसने, "मैं भी ठीक!" बोला मैं! "चंदा?" मैंने कहा "हाँ?" बोली वो, "ये श्रुति, कभी ख्याल आता है मेरा इसे?" पूछा मैंने, हंस पड़ी चंदा! "इसने क्या कहा?" पूछा चंदाने! "ये बताती ही नहीं!" बोला मैं! "बता न श्रुति?" बोली वो, "पता नहीं!" बोली वो, "देखा चंदा?" बोला मैं! "आपको आता है?" पूछा चंदा ने! "न आता तो इस से मिलता?" मैंने कहा, "तो इसको भी आता है!" बोली वो! "सच? हैं श्रुति?" मैंने पूछा, मुंह फेर लिया, मुस्कुराते हुए! "मैंने सुना था कि श्रुति दिल्ली आई थी?" पूछा मैंने, "किस से सुना?" पूछा चंदा ने! "वो, राधिका ने!" मैंने कहा, "राधिका, वो, दिल्ली वाली?" पूछा उसने, "हाँ!" बोला मैं, "नहीं, नहीं आई थी!" बोली वो! "तो झूठ कह रही थी वो?" मैंने पूछा, "हाँ!" बोली वो, "क्यों? उसे क्या फायदा?" पूछा मैंने, "ये तो वही जाने!" बोली चंदा! "और मैं परेशान वहाँ! कि अब तक न कोई खबर, न फ़ोन!" कहा मैंने, "अच्छा, एक बात बताओ?" बोली श्रुति! "पूछो?" कहा मैंने,
"कभी बुलाया मुझे?" पूछा उसने! बस! बगलें झांकना बाकी था, सो भी झाँक ली "नंबर नहीं था न?" कहा मैंने, "राधिका तो थी?" बोली वो, "मैं नहीं मिलता उस से!" मैंने कहा, "कब से?" पूछा उसने, "दो साल से" कहा मैंने, "सच?" पूछा उसने,
अब नज़रें चुरानी पड़ीं! "बस एक बार मिला था। मैंने कहा, "कहाँ?" बोली वो, "हरिद्वार में " मैंने कहा, "बस?" बोली वो, "और क्या, बस?" मैंने कहा, "ठीक है!" बोली वो! "एक बार और मिला था बस!" मैंने कहा, "कहाँ?" पूछा उसने, "यहीं कोलकाता में" बोला मैं! "कब?" पूछा उसने, "इसी साल" कहा मैंने, "तब मैं कहाँ थी?" पूछा उसने, "वहीं थीं" मैंने कहा, "देखा चंदा!" बोली श्रुति! "अब छोड़ो न?" मैंने कहा, "आपने ही बात शुरू की, मैंने नहीं!" बोली वो! "अब सौ मज़बूरियां होती हैं।" मैंने कहा, "जानती हूँ!" बोली वो! "चलो छोड़ो! जाने दो राधिका को!" मैंने कहा, चाय खत्म! और ये विषय भी!
अधिक बढ़ता तो और छिछालेदारी होती मेरी! फजीहत!! दोपहर तक बारिश रुक गयी थी, और हमने भोजन भी कर लिया था, अरुण अभी भी वहीं था, उसने मुझे वहां का क्रिया-स्थल दिखाया भी था। सच में, बहुत बढ़िया स्थान था वो! काफी बड़ा और पक्का बना था, बारिश आती तो भी पानी अंदर नहीं आ सकता था। सोने के लिए भी पत्थर की पटिया आदि भी रखी थीं! कल मिलाकर, करीब बीस आदमी आराम से ठहर सकते थे वहां! बस अब कल से मुझे यहां विद्याएँ जागृत करनी थीं! साड़ी सामग्री आज मिलने ही वाली थी! मैंने और श्रुति ने उस स्थान की साफ़ सफाई की, झाड़ बुहारी की! मकड़ी के जाले आदि हटाये वहाँ से! दीवारें भी साफ़ की, इसमें समय तो लगा, लेकिन अब क्रिया-स्थल चमचमा गया था! हम थक गए थे, तो वहीं एक पटिया पर आ बैठे। मैं तो लेट
गया था। श्रुति बैठी थी! मेरे सर के नीचे घुटना कर दिया था उसने! "बस सात दिन और न?" बोली वो, "क्या मतलब?" पूछा मैंने, "सात दिन बाद आप चले जाओगे न?" बोली वो! सवाल तो तीखा था, नश्तर की तरह से सीना बींध गया था! मैं मुस्कुराया! "श्रुति! मैं तुमसे दूर हो कर भी दूर नहीं!" बोला मैं!
और क्या बोलता! बोलता कुछ तो सवालों के परदे टंग जाते वहां! "चले जाओगे न" बोली वो, "हाँ, जाना तो पड़ेगा!" मैंने कहा, "फिर से दो साल, या न जाने कितना?" बोली वो! "नहीं, अब दो साल नहीं!" मैंने कहा, तभी उसकी आँखों से आंसू की एक बूंद मेरे होंठ पर आकर गिरी! मैं उठ बैठा! उसका चेहरा अपनी तरफ किया! और लगा लिया गले! "अति! नहीं रोना नहीं! बस रोना ही नहीं कभी!" मैंने कहा, "उत्तर नहीं दिया?" डबडबायी हुई आँखों से ही पूछा उसने! "अब नहीं! अब नहीं दूर जाऊँगा मैं! आता रहूँगा मिलने!" मैंने कहा!
मुस्कुरा गयी!
कितना असम्भव होता है न समझाना? जब स्वयं ही उत्तर जानते हो कि होना क्या है! और
वो भी ऐसी प्रेयसी को, जो आपके लिए सबकुछ न्यौछावर कर दे! या फिर कोई ऐसा, जो
आपसे बदले में कुछ न मांगे! कुछ नहीं माँगा था मुझसे श्रुति ने कभी भी! बदले में तो कभी नहीं! शब्दों का खिलाड़ी नहीं मैं! हार मान गया था उसी क्षण! वचन दिया, आता रहंगा मिलने, या जब भी वो बुलाये मुझे, मुझे आना हो होगा! ये सिलसिला, बदस्तूर आज तक
जारी है। "आओ, उठो!" मैंने कहा, और उठा लिया उसको! उठ गई वो मेरा हाथ थाम कर! मैंने क्रिया स्थल की सांकल लगाई, और चल पड़ा उसके संग!
आ गए कमरे में अपने! हाथ-मुंह धोये हमने, और फिर आ बैठे बिस्तर पर! "कल से एक नियम है, पूर्ण करना होगा!" मैंने कहा, "हाँ, जानती हूँ" बोली वो, "बस! बाकी काम मैरा! बस मेरा साथ थामै रहना, वो श्रेष्ठ क्या कोई भी आ जाए फिर! चाहे कुछ भी हो, नाम नहीं भूलेगा मेरा वो कभी, जब तक जिंदा रहेगा!" बोला मैंने! मुस्कुरा पड़ी!
और मैं लेट गया! संग मेरे वो भी लेट गयी! मेरी आँखें बंद हुईं, और मैं उसको कसे हुए, सो गया! जब नींद खुली, तो शाम ढल चुकी थी! श्रुति जाग गयी थी, और बैठी हुई थी! "जाग गए?" पुछा उसने! मैंने उबासी ली तभी! "हाँ!" कहा मैंने! "चाय मंगवाई है" बोली बो, "अच्छा किया। मैंने कहा, "बाबा मैहर नहीं आये?" पूछा मैंने, "हाँ, नहीं आये, बुलाऊँ?" बोली वो, "रहने दो, आ जाएंगे" बोला मैं, चाय आ गयी तभी, चाय पी मैंने! और उसने भी! "मैं आती हूँ अभी" बोली वो, "कहाँ चली?" पूछा मैंने, "चंदा से मिलने" बोली वो,
"अच्छा! जाओ!" मैंने कहा, चली गयी वो, और मैं, कमरे का दरवाज़ा बंद कर, शर्मा जी के पास चला गया! "देख आये स्थल?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" मैंने कहा, "कैसा है?" पूछा उन्होंने, "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, "तो कल से?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "श्रुति ठीक है?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "बहुत अच्छी लड़की है ये श्रुति!" बोले वो! "हाँ, बेशक!" मैंने कहा, "कोई और साधिका होती, तो सौ बार सोचती!" बोले वो! "यही तो बात है!" मैंने कहा, "और तो और, कुछ मांगती भी!" बोले वो, "सच!" कहा मैंने! मित्रगण! उस शाम, मदिरा नहीं ली मैंने! ये भी एक नियम है! उस रात, मैं श्रुति को बहुत कुछ समझाता रहा, कि नव-मातंग का साधक क्या करेगा, उसके साथ आया काजिया क्या कर सकता है! आदि आदि! और फिर आया अगला दिन! सुबह! दोपहर!
और शाम! आज से क्रियाएँ आरम्भ करनी थीं!
और उस शाम, मैंने मृत्युमक्ष विद्या का संधान किया। मंत्रोच्चार किया। और ये मंत्रोच्चार सघन होता गया! डेढ़ घंटा लग गया था और उसके बाद! उसने बाद विद्या जागृत हुई! मैंने भूमि पर वृत्त खींचा त्रिशूल से! मंत्र पढ़े और फिर मैं भी खड़ा हो गया! वृत्त के नौ चक्कर काटे मैंने!
"साधिके!" बोला मैं! वो खड़ी हो गयी! "इसके मध्य खड़ी हो जाओ!" मैंने कहा, वो हुई खड़ी मध्य उसके!
और जैसे ही खड़ी हुई। आँखें चढ़ गयीं उसकी! शरीर कांपने लगा! फिर स्थिर हुई। शरार का वर्ण पीत-वर्णी हुआ! फिर धीरे धीरे श्वेत!
और फिर वो लहराई। मैं खड़ा हुआ और थाम लिया उसे! गिर पड़ी थी वो! लिटा दिया उसको मैंने! मंत्र पढ़े!
और मदिरा के छींटे दिए उसको! फिर माथे पर एक चिन्ह काढ़ दिया! "साधिके?" मैंने पुकारा! न जगी! "साधिके?" पुनः पुकारा!
आँखें खोल दी उसने! "कालकेय!" बोली वो! मैं हंसा पड़ा!! मृत्युमक्ष सफल हुई! "उठ जा साधिके!" बोला मैं! उठ गयी तभी! फिर मंत्र पढ़ा! और छुआ दिया त्रिशूल उसकी पीठ पर! झटका खाया उसने! और उठके खड़ी हो गयी! "बैठ जा साधिके!" बोला मैं। बैठ गयी! "अब कैसी हो ति?" पूछा मैंने! "ठीक, पूर्ण?" पूछा उसने! "हाँ! पूर्ण!" मैंने कहा,
भर लिया था मैंने उसे अपने अंक में! "श्रुति! श्रुति!" मैंने कहा, मैं प्रसन्न था अब! अब काजिया नहीं कर सकता था कुछ! मृत्युमक्ष से खचित हो चुकी थी वो! "आओ, चलें अब!" मैंने कहा, "चलो!" बोली वो! और हम चल पड़े! आये वापिस कक्ष में! "तुम स्नान करो! मैं भी आता हूँ" मैंने कहा, वो अंदर गयी, और मैं अपने कक्ष में! स्नान किया और बैठ गया! थक गया था काफी! "निबट लिए?" पूछा उन्होंने! "हाँ!" मैंने कहा, "अच्छा हुआ!" बोले वो! "हाँ, अब श्रुति सुरक्षित है!" मैंने कहा, "ये बहुत बढ़िया किया आपने!" वो बोले वो!
और तब मैं उठा, उन्हें बताया कि मैं जा रहा हूँ श्रुति के पास! और जब में गया श्रुति के पास, तो वो, उल्टियाँ सी कर रही थी। मैं भाग गुसलखाने में तभी के तभी! मित्रगण! मैं इन छह दिनों में एक एक विद्या साधता चला गया! मैंने चौथे दिन श्री श्री श्री से आज्ञा ले ली थी, एक ब्रह्म-दीप वे भी प्रज्ज्वलित करने वाले थे अपने डेरे में उन्होंने भी बहुत कुछ समझाया! बहुत कुछ सिखाया! बाबा मैहर से भी बात की थी उन्होंने, उन्हें भी समझा दिया था कि क्या क्या आवश्यकता पड़ेगी! और क्या क्या करना है! मुझे अब चिंता नहीं थी! उस वर्ष में ये मेरा कोई तीसरा द्वन्द था, दो में मैं विजयी रहा था, ये तीसरा था!
और अब उसको देखना था कि मेरे गुरु का क्या बल है! क्या सीखा है उनसे मैंने! सिद्धियां प्राप्त करना ही सबकुछ नहीं। उनका क्रियान्वन कैसा हो, ये मायने रखता है। मैंने बहुत सी विद्याएँ जागृत की थीं, मंत्र जागृत किये थे! औद्युप-प्रयुप, नकर, एविक और सेमक आदि सब जागृत कर लिए थे! अब मैं तैयार था! मेरी साध्वी पल पल मेरे संग थी! कल अमावस थी, और मुझे प्रातःकाल से ही मौन व्रत धारण करना था! और इसी क्रिया-स्थल में वास करना था! कल, बाबा मैहर के साथ, अपनी साध्वी को लेकर, उस श्मशान में जाना था,
जहां से ये द्वन्द लड़ा जाना था। श्री श्री श्री अनुसार, चार कपाल चाहिए थे रक्षण हेतु, वे भी उपलब्ध थे, मेरे ब्रह्म-कपाल मेरे पास ही था! शिशु-कपाल भी पास था, और उस रात्रि, मैंने अपने सभी तंत्राभूषणों को भी अभिमंत्रित कर लिया था। बस, अब था तो दवन्द का ही। इंतज़ार! मैंने अपनी साध्वी को औषध-विज्ञान का सहारा ले, पुष्ट कर दिया था! वो पूर्ण रूप से तैयार थी! किसी भी दवन्द के लिए! किसी भी वार के लिए! उस रात्रि मैं वहीं सोया! मेरी साध्वी भी सोयी! अलख जलती ही रही। सुबह ब्रहम-मुहर्त में वो शांत पड़ी! । सुबह हुई, हमने स्नान किया, और वहीं वास भी किया, सारा दिन भोजन ग्रहण नहीं किया, बस जल, ताकि अपान वायु दोष न हो, इसका बहुत ध्यान रखना पड़ता है। अन्यथा चूक होते ही आपके प्राण-रक्षण मंत्र आपका भी भंजन कर देंगे! मैं वहीं रहा, साध्वी भी वहीं रही!
और फिर हुई शाम! शाम को, बाबा मैहर आये, अरुण भी आ गया था, शर्मा जी भी! हम अब चले वहाँ से! मैंने सारा सामान उठा लिया! शर्मा जी ने आशीर्वाद देकर विदा किया।
हालांकि वो अरुण और बाबा मैहर के संग ही श्मशान में ही रहने वाले थे, फिर भी, मेरे से प्रेम के कारण, मेरे इर्द गिर्द ही थे! मैंने सारा सामान ले लिया था,तीन प्रकार का मांस था,रक्त-पात्र थे, फूल आदि सब थे! रात कोई आठ बजे मैंने उस श्मशान में प्रवेश किया! संग मेरे मेरी साध्वी थी, बाबा मैहर आये मेरे पास! मेरा चेहरा पकड़ा और देखा मुझे! "धन्ना की सौगंध! ऐसे नहीं लौटना!" बोले वो! "नहीं लौटूंगा!" मैंने कहा, "यथस की सौगंध, ऐसे नहीं लौटना!" बोले वो! "नहीं लौटूंगा!" कहा मैंने! "जाओ! विजयी हो कर आओ!" बोले वो!
और दे दिया आशिर्ववाद उन्होंने! जोश भर उठा!
और मैं चल पड़ा आगे श्मशान में! अपनी साध्वी संग! चिताएं जल रही थीं। धुंआ नहीं था उनमे अब! बस दहक रही थीं! उनका ताप हम अपने बदन पर महसूस कर सकते थे!
और हम पहुँच गए उस ठान पर, साफ़ किया गया था वो! आसपास पेड़ लगे थे बड़े बड़े!
आकाश काला था उस समय! भक्क काला! मैंने सामान रखा, और वे चार कपाल निकाले! मदिरा के छींटे दिए! उनकी खोपड़ी थपथपाई मंत्र पढ़ते हए! और चारों दिशाओं में ऐसे रखे, कि हमें देखते रहें वो! अब आसन बिछाया! साध्वी को बिठाया उस पर! फिर भोग सजाया! थाल, भोग-थाल! दीप जलाये, सत्रह दीप! अलग अलग रखे वो और एक चौमुखी, अपने सामने रखा! उसके सामने रखा ब्रह्म-कपाल! त्रिशूल उठाया! मंत्र पढ़े और गाड़ दिया अपने दायें!
और वो शिशु-कपाल, टांग दिया उस पर। अब अपनी साध्वी का श्रृंगार किया! एक एक अंग का श्रृंगार! रक्त से श्रृंगार! भस्म से श्रृंगार! और तंत्राभूषण करवा दिए धारण!
और तब, तब मैंने श्रृंगार किया! भस्म-स्नान किया! रक्त लेपन किया और एक महानाद किया!
और उठा दी अलख! अलख निरंजन!! साधिका की ओर मुड़ा मैं! "साधिके?" मैंने कहा! "हाँ!" बोली वो! "भय तो नहीं?" पूछा, "नहीं!" बोली वो, "संशय?" पूछा, "नहीं!" बोली वो! "साधिके?" बोला मैं, "हाँ!" बोली, "पहले मैं गिरूंगा! फिर तुम!" बोला मैं! चुप रही! "सुन ले!" मैंने बोला,
देखा उसने मुझे! "जाना हो, तो जाओ?" कहा मैंने, "नहीं!" बोली वो! "जैसा कहँगा.." बोला मैं, "करूँगी!" बोली वो!
अब उसका पूजन किया! वो शक्ति का स्वरुप है! महा-शक्ति का! पूजन आवश्यक है! "अब मैं होता है तल्लीन! क्यों साधिके?" बोला मैं! "अवश्य!" बोली वो!
और तब! गुरु नमन! श्री महाऔघड़ नमन! मैंने स्थान-पूजन किया! श्मशान पूजन! अलख पूजन! कपाल-पूजन! दिशा पूजन!
और तब! तब मैंने अपने वाचाल महाप्रेत का आह्वान किया! आधे घंटे में,श्मशान अट्टहास से गूंज उठा! भयानक अट्टहास! हर दिशा में! हर दिशा में!
सीना फाड़ देने वाला अट्टहास!
और प्रकट हुआ वाचाल! और हुआ मुस्तैद! उसके बाद, कर्ण-पिशाचिनी का आहवान किया! पौने घंटे में, वो भी प्रकट हुई! अग्नि के गोले पृथ्वी पर डोलने लगे!!
और भोग पश्चात, हई मुस्तैद! कुछ प्रश्न किये उसने! और मैंने उत्तर दिए उनके! भयानक पीड़ा हुई शरीर में, वायु-गोला उठ पड़ा पेट में। लगा फट ही जाएगा पेट! और अब मुस्तैद हुई वो पूर्ण से! और फिर लड़ाई देख! तो क्या देखा! एक बड़ी सी अलख उठी हुई थी! दो औघड़! दो औघड़ बैठे थे वहां! एक को तो मैं पहचानता था, वो श्रेष्ठ!
और वो दूसरा काजिया! कैसा विशाल था काजिया। साढ़े छह-सात फ़ीट का तो होगा ही! सच में! विशाल शरीर था उसका! साठ साल का लगता था! बदन पर बाल ही बाल थे उसके! अस्थियां ही अस्थियां धारण की हुई थीं उसने! किसी जाप में लीन था वो!
और वो श्रेष्ठ, अलख में ईंधन झोंक रहा था! देख पकड़ी उस काजिया ने! खड़ा हुआ! अट्टहास किया और रक्त-पात्र उठाया! फोड़ दिया भूमि पर और आ बैठा उस भूमि पर! एक साध्वी थी वहाँ! वो ज़रा दूर बैठी थी! धुत्त! शायद किसी शक्ति की सवारी थी उस पर! झमे जा रही थी! काजिया खड़ा हुआ! त्रिशूल उठाया अपना, और दहाड़ मारी!
अट्टहास किया।
और तीन बार! तीन बार उसने! भूमि को थाप दी! तीन बार! और त्रिशूल घुमा कर, गाड़ दिया भूमि में! ये मेरे लिए संदेश था!!
किआ मैं झुक जाऊं! क्षमा मांग लूँ!
मैं खड़ा हुआ! आगे गया। भूमि को थाप दी!
और त्रिशूल घुमा कर, गाड़ दिया भूमि में! वहाँ! वहां राख गिरने लगी! ये एविक विद्या थी!! राख गिरते देख, काजिया हंसा! और फूंक मारते हुए, उस विद्या का नाश किया उसने! अट्टहास किया उसने! झूम झूम के नाचता रहा! मैं भी हंसा! एविक कोई उड़न नहीं जो चुक जाए! वो तो ऐसे खुश हो रहा था जैसे द्वन्द ही जीत लिया हो उसने! नशे में धुत्त था वो! खड़ा होते हुए भी, कभी कभार गिरते गिरते बचता था। अपने गले में टंगी अस्थियों को बार बार चूमता था! गले में घंटियाँ सी टांगी थीं उसने! बार बार खनखनाता था उनको! अपने कानों के ऊपर रख लेता था उस माल को! वो रुका! आकाश को देखा, धनुष मुद्रा में हुआ,
और थूक दिया सामने! "अरे ओ खेड़ा! जा! निकल जा! जा! छोड़ दिया तुझे!" बोला काजिया!
और हंसने लगा!! बार बार घण्टियाँ बजाता था! "अरे, ओ बौड़म! जा! माफ़ किया तुझे! जा निकल जा! निकल जा नाक की सीध में!" बोला
बिफर पड़ा!
थूका ज़मीन पर! गुस्सा हो गया! त्रिशूल लहराया! त्वातिका मंत्र पढ़ा और कर दिया त्रिशूल आगे! मेरे यहां मुंड गिरने लगे! ढप्प! ढप्प! ढप्प!
और मुंड भी मेरे परिजनों के! मुझे ही देखते हुए! मैं हंसा! आगे बढ़ा! एक मुंड उठाया! और फेंक मारा आगे मुंड लुढ़कता हुआ चला गया!
और सभी मुंड गायब! मैं आया वापिस! और तृष्ट्रिका मंत्र पढ़ा! ज़मीन पर बैठा, और किया त्रिशूल आगे! भक्क से उसके परिवारजनों के शव नीचे गिरने लगे! जलते हुए! झुलसते हुए!
एक! दो! तीन! चार! और गिरते है गए!! ये देख, काजिया ने देखा उस श्रेष्ठ को! जो मुस्कुराते हए सब देखे जा रहा था! वो आगे बढ़ा, और ज़मीन पर मंत्र पढ़ते हए थका! शव गायब!!
अब मैंने अट्टहास किया! और वो कुढ़ा! गुस्से में पाँव पटकता हआ, जा बैठ पास उस श्रेष्ठ के! अब श्रेष्ठ उठा! गले में असंख्य मालाएं धारण किये हुए था! भाम-मंत्र का जाप करते हुए आगे बढ़ा! अपना त्रिशूल उठाया
और एक महानाद किया उसने! फिर नमन सा किया उसने! और हुआ पीछे। त्रिशूल तीन बार लहराया उसने और अपने कंधे पर रख लिया। हंसा और ठहाका मारा ज़ोर
का!
"जानता नहीं तू मुझे! नहीं जानता! नहीं तो सामने खड़ा नहीं रहता तू!" बोला वो गाल फाड़ते हए! "आगे बढ़ ढीमने! आगे बढ़!" मैंने कहा! हंसा वो! चिल्ला चिल्ला के नाम लिया मेरा!
और हुआ पीछे! चिमटा उठाया अपना! और खड़खड़ा दिया! हो गया आगाज़ द्वन्द का! मैंने अपना चिमटा उठाया!
अलखेश्वर का नाम लेते हए, खड़का दिया चिमटा!
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे वाचाल के! अरिक्षयिका! वाह!
अरिक्षयिका! एक उप-सहोदरी है! उप-सहोदरी, भंजिनिका की! मैंने पूर्व के द्वन्द में इस भंजिनिका को
भी परास्त किया था! अरिक्षयिका उसी की उप-सहोदरी है! इकत्तीस रात्रि साधना है इसकी! नौ बलि-कर्म से पूज्य है! मद-मंडल वासिनी है! शत्रु-भंजिनिका के नाम से विख्यात है! जब चल पड़े, तो समस्त वृक्ष भी ढूंठ बन जाते हैं! भूमि फट जाती है! पानी से भरे तालाब आधे रहजाते यहीं, पानी एक रंग हरा हो जाता है, गाढ़ा हरा और उसमे मछली कभी वास नहीं करती! जल दूषित रह जाता है! कुँए, बावड़ी आदि की खुदाई से पहले इसका पूजन अनिवार्य हुआ करता था। तब जल-जनित रोग नहीं हुआ करते थे। आज तो जल जनित रोगों का बोलबाला है! अरिक्षयिका किसी तालाब किनारे की समतल भूमि पर सिद्ध की जाती है, आसन इसका बिल्व-पत्र से बना होता है, धागा उसमे कट्टे के पेड़ के रेशे से बनाया जाता है! सवा हाथ चौड़ा और सवा हाथ लम्बा, ये आसन, साधना समय प्रयोग किया जाता है! मात्र नौ मंत्र हैं इसके, और उनके इक्यासी उप-मंत्र! और ये समक्ष प्रकट हो
जाती है। तो इसने सिद्ध किया था इसको! करवाया होगा बाबा धर्मेक्षने! "कंकमालिनी!" स्वर गूंजे!
और मैं आहवान में जुट गया! मेरी साध्वी, मेरा साथ दिए जा रही थी!
अलख में ईंधन झोंक रही थी वो बार बार! तब, मैंने कपाल कटोरे में मदिरा परोसी! कंक का मंत्र पढ़ा और गले से नीचे उतार लिया!
भम्म! भम्म! अलख में से आवाज़ आई! मैंने अट्टहास लगाया! वहाँ! वहाँ मंत्रोच्चार में डूबा था वो श्रेष्ठ! आज श्रेष्ठ ही द्वन्द लड़ना था उसे! नहीं लड़ता, तो शर्तिया अपने पिता से पहले श्री मत्यराज का मेहमान बनेगा! दोनों तरफ मंत्रोच्चार था! भीषण! शशां जागृत हो चुके थे! क्या भूत और क्या प्रेत! सभी के सभी दौड़े दौड़े पनाह ढूंढ रहे थे! और तभी ठंडी सी बयार बही! शीतल सी! शीट ऋतु जैसी! कंक जाग चुकी थी! "हे कंका!! कंका! कंका!!" मैंने त्रिशूल उठाये झूम पड़ा था! "साधिके?" बोला मैं, वो खड़ी हुई! "भोग सजा!" बोला मैं। भोग सजाने लगी मेरी साधिका! मैंने भाग उधर! कपाल कटोरा उठाया! अलख-नाद किया! और गटक गया वो मदिरा! मैं झूम उठा! मेरी कंका जागृत हो चुकी थी और अब किसी भी क्षण, प्रकट हो ही जाती! "साधिके?" मैंने चिल्लाया!
वो भागी मेरी तरफ! मेरे कंधे पर हाथ रखा,
और ले गयी अलख की ओर! वहां। वहाँ सर ज़मीन से छु आए वो श्रेष्ठ, मंत्रोच्चार कर रहा था! और तभी मांस के टुकड़े गिरने लगे नीचे! क्या छोटे और क्या बड़े! लोथड़े! "अरिक्षयिका! प्रकट हो! प्रकट हो!" बोलता गया वो!
और भागा अलख की तरफ! उठाया मांस और झोंक दिया अलख में! वो काजिया!! काजिया खड़ा हुआ! गर्दन हिलायी उसने लगातार!
और चिल्ला पड़ा!!! "अरिक्षयिका! आ! आ भोग ले मेरा!! भोग ले!! प्रकट हो! प्रकट हो!" चिल्लाता रहा! मेरे यहाँ! अख में ईंधन झोंका मैंने!! कपाल कटोरे में मदिरा डलवाई! और गटक गया!! एक ही घूट में!! आनंद! औघड़ आनंद! और तभी! तभी प्रकाश फूटा! श्याम-नील सा प्रकाश! आँखें फोड़ता प्रकाश! और अट्टहास! अट्टहास!! मैंने अपनी साध्वी को तभी, तभी अपने आसन पर बिठा दिया!
और आ गया आगे! बैठा ज़मीन पर! "कंका! माँ! कंका!! मैंने चिल्लाया!
और तभी दूसरी तरफ से प्रचंड वायु वेग चला! मैं नीचे गिरते गिरते बचा! अरिक्षयिका आ पहुंची थी! खनक सी गूंजी! खनक! जैसे कोई तलवार!!
और उसी क्षण! भयानक सा अट्टहास हुआ! ऐसा अट्टहास कि साधारण व्यक्ति तो सर पकड़ बैठही जाए ज़मीन पर, और कभी उठे ही नहीं! जिस क्षण प्रकट हुईं अरिक्षयिका, उसी क्षण! तत्क्षण! कंका भी प्रकट हुई!!
प्रकाश ऐसा तेज था कि आँखें खुल नहीं रही थीं! श्मशान में रौशनी फैल गयी थी! पेड़ पौधे चमक उठे थे उस प्रकाश में नीचे हरी घास और हरी हो गयी थी! अलख की अग्नि भी अपना रूप फीका कर चली थी! और तभी क्रंदन हुआ! अरिक्षयिका क्रंदन करती हुई लोप हई! और मैंने तब सर उठाकर देखा! भूमि से कुछ फ़ीट ऊपर कंका अपने रौद्र रूप में प्रकट थी! मैं भाग चला! जा लेटा उसके समक्ष! उसके मंत्र पढ़े और जैसे उसको मन्त्रों से धन्यवाद किया हो! उसने अट्टहास किया और झाम जैसी आवाज़ करती हुई लोप हो गयी! मैंने पहली प्राचीर गिरा दी थी उस श्रेष्ठ की! श्रेष्ठ के होश नहीं उड़े थे अभी! अभी तो खेल शुरू ही हुआ था बस! दो विरोधी एक दूसरे के बल की थाह लेने में लगे थे! तोल रहे थे एक दूसरे का
दमखम! मैं उठा! और भागा आया वापिस अपनी साधिका के पास! साधिका अलख थामे हए थी! मैं बहुत प्रसन्न था, जैसे मैंने अभी कोई सोम-बूटी खायी हो! मैं खड़ा हुआ। अट्टहास किया!
और आगे जाते हुए, त्रिशूल उखाड़ा अपना! तीन बार थाप दी मैंने! और घुमाते हुए, अपने त्रिशूल का फाल कर दिया उनके श्मशान की तरफ। मैंने देखा, श्रेष्ठ हंसा रहा था! अपना त्रिशूल उठाये, हंस रहा था! "मुर्ख?" बोला वो!
और हंसा! "जानता नहीं? मैं श्रेष्ठ हूँ! श्रेष्ठ!" चिंघाड़ा वो! "मूढ़ है तू! मूढ़! अपने पिता से ही कुछ सीखा होता! तू श्रेष्ठ नहीं! निःकृष्ट है! निःकृष्ट!" चिल्लाया मैं ये कहते कहते! वो हंसा! ऐसा हंसा जैसे अभी फट पड़ेगा! "धन्ना पर बहुत घमंड है न तुझे?" बोला वो! उसने अपने दम्भी मुख से मेरे दादा श्री का नाम लिया? ऐसा साहस? जी तो किया अभी
अरंगराज वेताल का आह्वान अकरुण और उदा, इनके सर धड़ से! करवा दूं भक्षण शाकिनियों से इनके शरीर का! रक्त की एक बूंद भी न बचे बदन में इनके! ऐसा दुःसाहस? ऐसी हिमाकत? मेरे शरीर में अंगार फूट चले थे! मेरी रगों में जैसे क्षारक बहने लगा था! "हाँ है। है घमंड! और आज तू जान ही जाएगा कि क्यों! चल! गाल न बजा! आगे बढ़! बढ़
आगे!" बोला मैं! "हाँ! देख! देख कैसे भीख मांगता है तू मेरे समक्ष! देख!" बोला वो!
और लौट पड़ा अलख पर! जा बैठा! और अलख में मांस झोंका!
रक्त के छींटे दिए!
और मैं, मैं भी आ बैठा अलख पर! अलख भोग दिया! रक्त के छींटे दिए।
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे! "ब्रह्मसु !"
क्या? सही सुना मैंने? ब्रह्मसुर्ना? सिद्ध किया है इसने इसे? है क्या ये इतना योग्य? यदि है, तो श्रेष्ठ के संग ये द्वन्द मुझे सदैव स्मरणीय रहने वाला है। सागर-वासिनी ब्रह्मसुर्ना एक कालकेय महाशक्ति है! एक अत्यंत रौद्र और विध्वंसक प्रकृति वाली अजेय महाशक्ति है! चौंसठ रात्रि इसकी साधना है! इक्कीस बलिकर्म द्वारा पूज्य है! इसमें प्राण कब चले जाएँ, कुछ पता नहीं! इक्यासी महाशूलना सहोदरियों द्वारा सेवित है! चौंसठ केंच वीर इसके सेवक हैं! वार में अचूक और उद्देश्य पूर्ण करने वाली होती है ये ब्रह्मस् ! इसके सागर के आसपास,आज भी खंडहरों में, पूजा-स्थल मिल जाया करते हैं! विशेषकर, केरल और तमिलनाडू में, आदिकाल से ही ये सागर-मन्थिनी कही जाती रही है। इसका पूजन अति-आवश्यक हआ करता था उस समय! उड़ीसा के कोणार्क मंदिर में, अर्ध-सर्प और अर्ध-स्त्री के रूप में इसकी मूर्तियां आज भी हैं। इसको यम-सेविका भी कहा जाता है! ये ये यम-सेविका इस से सर्वथा पृथक है! तो श्रेष्ठ ने इसका आह्वान किया था!
और तभी फिर से स्वर गूंजा! एक कर्कश सा स्वर! कर्ण-पिशाचिनी का स्वर! महामंडया!! महामंडया! हाँ! सही! उचित!! ये मुझे श्री श्री श्री ने असम में सिद्ध करवाई थी! महामंडया जहां अत्यंत रौद्र है, वहीं दयाभाव में इसका कोई सानी नहीं! यदि शत्रु क्षमा मांग ले, तो ये प्राणदान दे दिया करती है! मुख्य कार्य इस रक्षण है! पाषाण-गुहा इसका वास है, जहां से
पांच धाराएं एक साथ गुजरती हो! महामंडया, चर भाव की संधिका है! एक स्थान पर अधिक वास नहीं
करती! इसी कारण से, झरने आदि के पास ही इसकी साधना का विधान है! इक्यावन रात्रि इसका साधना-काल है! इक्कीस बलिकर्म द्वारा सेवित है! रूप में, परम काम-सुंदरी है! स्वर्णाभूषण धारण करती यही, देह नग्न है, कमल के फूल कमर में बंधे रहते हैं। हाथों में कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं होता। महाकाल साधना में, इस महामंडया का उल्लेख हुआ करता है! आयु में इक्कीस वर्ष की सी प्रतीत होती है! मुख पर तेज है! जब सिद्ध होती है, तो साधक को चिर-लोक का भ्रमण करवाती है! भमण सशरीर नहीं हुआ करता! ये सूक्ष्मावस्था का भमण हुआ करता है! तो अब मैंने इसी का आह्वान आरम्भ किया! "साधिके?" बोला मैं, "हाँ!" बोली वो! "सामग्री दो!" मैंने कहा, उसने सामान दिया! "वो, वो उठाओ?" बोला मैं, कपाल-कटोरा उठाया उसने! दिया मुझे! "परोसो!" बोला मैं, परोस दी! "लाओ!" कहा मैंने, "इधर आओ!" कहा मैंने,
आई वो, "यहां बैठो” बोला मैं, बैठ गयी मैरी जंघा पर, "अब इसे उतार लो कंठ के नीचे!" कहा मैंने, उसने एक बार में ही, कंठ के नीचे उतार ली मदिरा! अभिमंत्रित मदिरा! "जाओ! वहाँ बैठो अब!" कहा मैंने, अब! अब वो जाए न। मुझे देखे! घूरे! गरदन टेढ़ी किये हुए! मैं हंसा! खड़ा हुआ! आगे बढ़ा! त्रिशूल उखाड़ा! "साधिके?" बोला मैंने, नहीं देखा मुझे!
मैं नीचे बैठा तभी "साधिके?" बोला मैं!
और तब उसने एक मंत्र बोला, आधा! शीर्ष मंत्र!
और अधो, मैंने पूर्ण किया! हुआ शक्ति प्रवेश! "साधिके?" कहा मैंने! "हाँ???" बोली वो अंगड़ाते हए! "जाओ! बैठ जाओ वहाँ!" मैंने कहा, वो ज़मीन पर चलते हुए, लेटते हुए, जा बैठी! अब वो श्रुति न थी!
और मैंने तब महानाद किया! महानाद! "श्रेष्ठ?" बोला मैं! वहाँ! देखा उसने! ऊपर! "बढ़ आगे!! बढ़!" मैंने कहा!
और मैंने अब महामंडया का आह्वान आरम्भ किया, रक्त के तीन चूंट पीकर! तभी वो सरभंग खड़ा हुआ! एक लोटा लिए हए, शायद रक्त था उसमे, उसने रक्त पिया, जीभ बाहर निकाली, अंजल में रक्त डाला और सर पर मला! कोई खेल खेलने जा रहा था वो! अब मुझे आह्वान भी करना था ओस सरभंग को भी देखते रहना था! वो नीचे बैठा और अपने चिमटे से भूमि खोदने लगा! जब खोद ली तो खड़ा हुआ, और अपनी लंगोट भी खोल ली, अब मूत्र किया उस गड्ढे में! और उस मूत्र में अब रक्त डाला, दोनों हाथ डाले अंदर, हाथों में रक्त मिश्रित मूत्र उठाया और पी गया! मैं समझ गया! ये आमूल-हंत क्रिया है, वो
मेरे आह्वान में बाधा डालना चाहता है! अब उसने मंत्र पढ़े, और मैं खड़ा हुआ, अपने त्रिशूल से वो शिश-कपाल उतारा! और जा पहंचा साध्वी के पास! उधर, श्रेष्ठ अपनी आराध्या ब्रह्मसर्ना के आह्वान में लीन था। मैं नीचे बैठा, साध्वी के पास गया, उसको लिटाया, बोल सकता नहीं था, इसीलिए पाँव से लिटाया उसे, उसने पाँव पकड़ लिया मेरा, मैंने आँखें चौडी
करके दिखायीं उसे! वो दरी और लेट गयी! मैंने वो शिशु-कपाल उसे वक्ष पर रख दिया, वक्ष पर रखते ही उसका शरीर धनुटंकार की मुद्रा में आ गया! यही मैं चाहता था! अब उठाया कपाल मैंने, और लौटा पीछे साधिका को देखा अब वो पेट के बल नीचे लेती थी, हाथ और
पाँव फैलाये! मैं पीछे लौटा था, बैठा अलख पर, और शिशु-कपाल अपनी गोद में रख लिया! आहवान जारी था मेरा! और तभी जैसे भूमि में हलचल हई! रक्त की फव्वार फूट पड़ी! भूमि में से! गाढ़ा गाढ़ा रक्त! और उस सरभंग के ठहाके गूंजे! मैं खड़ा हुआ, त्रिशूल उठाया, और गया सामने। अलख में त्रिशूल को गर्म किया और छआ दिया भूमि से। फव्वार बंद हो गए उसी समय! और मैं फिर से आ बैठा अलख पर। फिर से ठहाके गूंजे उसके सामने मेरे, सर्प चले आ रहे थे। बड़े बड़े सर्प! फुफकारते हए! मैं खड़ा हुआ! और तभी घनघोर सा शोर गूंजा! जैसे आकाश फटा हो! ये महामंडया के जागृत होने का प्रमाण था! वे सर्प, पल भर में लोप हए! और वो सरभंग! मुंह फाड़ता हुआ, आँखें फाड़ता हुआ, पीछे लौट पड़ा! मैं उठा, शिशु कपाल वापस लटकाया त्रिशूल पर, साध्वी तक पहुंचा, उसको पाँव से सीधा किया, आँखें बंद थीं उसकी, पेट पर पाँव रखा! हिलाया तो आँखें खोल दी उसने! हाथों से बैठने को कहा, और बैठ गयी वो फिर, दोनों हाथ फैलाये हुए, जैसे मैं उसका आलिंगन कर लूँ! इस से पहले उसको मद चढ़े,मुझे आहवान में सतत रहना था! मैं वापिस लौटा अलख पर, मांस का भोग दिया अलख मैं! अलख चटमटायी! मांस की सुगंध फैल उठी! प्रेत इधर से उधर व्याकुल हो भागने लगे थे! न भागे बने,न ठहरे बने! क्या छोटे और क्या बड़े! क्या स्त्री और क्या पुरुष! क्या जवान और क्या वृद्ध! घेरा बना कर बैठ जाते थे वहाँ! मैं जब अलख में भोग देता, तो झपटने को तैयार रहते थे! सभी के सभी!
और तभी दामिनी का जैसे स्वागत किया श्मशान ने मेरे! श्वेत प्रकाश फैल उठा! मेरी महामंडया बस कुछ ही पलों में प्रकट होने वाली थी! मैंने देख लड़ाई! वो श्रेष्ठ खड़ा था! अपना त्रिशूल लिए! फिर बैठा, आकाश को देखा!
गहरा लाल रंग फैल गया था वहाँ! चमकदार लाल रंग! जैसे लाल रंग की रौशनी की गयी हो वहां! "हे सुर्ना! ब्रह्मकपाली! मेरी आराध्या! प्रकट हो! प्रकट हो!" चीखता हआ! उसके श्मशान में चीखें गूंज उठीं! चीखें जैसे रक्तपात हो रहा हो! "हे सुर्ना! एक आराध्या! हे देवी! प्रकट हो! प्रकट हो!" बोला वो!
और मेरे यहां आकाश से बूंदें गिरी! जल की बूंदें! शीतल जल की बँदें! जैसे झरने से गिरा करती हैं।
"हे माँ! हे माँ महामंडया! प्रकट हो! हे विरालनाशिनी! प्रकट हो!" मैंने चिल्ला के कहा! हम दोनों ही, अपनी अपनी आराध्या को प्रकट करने के लिए सतत थे!
और तभी! वहाँ, कंटक-बेल गिरने लगी। झुण्ड के झुण्ड! अट्टहास गूंजा! उन दोनों का अट्टहास गूंजा!
और उसी क्षण, कुछ महावीर योद्धा और नट-सुंदरियाँ प्रकट हुईं! वे दोनों, दंडवत हो गए। मंत्र जपते रहे।
और कुछ ही क्षणों में, आभामंडल से युक्त! वो ब्रह्मसुर्ना प्रकट हो ही गयी! मेरी साँसें थी तब! पल भर में,कुछ का कुछ हो सकता था! कर्ण-पिशाचिनी के कर्कश स्वर गूंजे! वो चीखी! चिल्लाई!
और वाचाल, वाचाल जैसे मेरी मेरी कमर पर बैठ गया! मेरा बदन भारी हो चला! साँसें बंधने लगी!
और गले ही पल! एक श्वेत प्रकाश! और आकाश से एक दिव्य-सुंदरी का अवतरण हुआ!! मैं सामान्य हो गया! भागा आगे, और लेट गया! दोनों हाथ जोड़ कर!
और तभी, वे महावीर और नट-सुंदरियाँ प्रकट हुई वहां! लेकिन, एक एक कर, सब लोप होते गए! ये था प्रभाव उस महामंडया का! जी किया, अट्टहास करूँ! फट ही पडूं हँसते हँसते! बिखर जाएँ आंतें! कोई चिंता नहीं! ब्रह्मसुर्ना, लौट पड़ी! लौट पड़ी प्रबल वेग के साथ! मैंने महामंडया का जाप किया!
लेट लेट कर, उसके मंत्र पढ़ता रहा! भोग अर्पित किया! और उसके बाद, मेरा रक्षण कर, महामंडया लोप हो गयी! मैं खड़ा हुआ! देख लड़ाई!
और देखा वहाँ! आँखें फ़ाड़े वे दोनों आकाश को देख रहे थे! कुछ प्रकाश के कण धूमिल होते जा रहे थे! मैं अट्टहास किया तब! "मूढ़! बौड़म! क्षमा! क्षमा मांग लो!!" मैंने चिल्ला के कहा!
वो सरभंग आगे आया! थूका उसने घृणा से! और लौटा पीछे! "श्रेष्ठ! मान जा! लौट जा!" मैंने कहा, नहीं माना वो। कैसे मानता। अभी तो, बहुत तीर बाकी थे उसके तरकश में!!
यही तो होता है दम्भ! लील जाता है पूरा का पूरा! "श्रेष्ठ! समय शेष है!" मैंने कहा, "ओ खेड़ा! चुप कर!" बोला सरभंग! "ओ बौड़म! तेरा तो नाश हो ही जाएगा आज!" बोला मैं गुस्से से! "नाश! नाश! देखता जा!" बोला वो! छाती पर हाथ मारते हुए! वो घंटियाँ बजाते हुए! "आगे बढ़ फिर!" मैंने कहा,
और तभी मेरी साध्वी भागती हुई आई! और लिपट गयी मुझसे! चढ़ गया था मद! मैंने मंत्र पढ़े! और वो कपाल छुआ दिया उसे! चीखी! और नीचे गिर गयी! हई अचेत! मैं जा बैठा अलख पर! भोग दिया! और मंत्र जपा! अब लड़ाई देख। वो सरभंग! नाच रहा था! बेसुध! ये आह्वान था किसी का! फू-फू करता हुआ!
और मैं तैयार था! तत्पर! उत्तर देने के लिए उनका!
सरभंग काजिया नाचे जा रहा था! फू-फू करता हुआ हर तरफ थूके जा रहा था! ये वही काजिया था जिसने बाबा महापात्रा की साधिका को मध्य-क्रिया में मार डाला था। ये नियम तोड़ा गया था इस काजिये द्वारा! सरभंग कब क्या कर जाए, इसकी खबर ज़रूर ही रखनी पड़ती है! नज़र हमेशा टिका कर रखनी पड़ती है उस पर! ब्रह्मसुर्ना लोप हो गयी थी! इस से श्रेष्ठ को पहला धक्का पहुंचा था! अभी तो और कुछ भी बाकी था! श्रेष्ठ अलख में ईंधन झोंके जा रहा था और मंत्र पढ़े जा रहा था! ये मंत्र महा-मारण मंत्र थे! अचानक से सरभंग रुका झुका! सामने देखा! और अहहास लगाया! मेरे कानों में स्वर गूंजे! घंट-नटी!! मुझे आश्चर्य
नहीं हुआ! कोई आश्चर्य नहीं! सरभंग यहीं से पकड़ करता है। यहीं से वार का आरम्भ करता है। घंट-नटी, मृत शिशुओं के शरीर के अंगों से पूजित है! इसको औघड़ सिद्ध नहीं किया करते! मात्र पांच रात्रि इसका साधना काल है! छठी रात षोडशी रूप में प्रकट हुआ करती है! सरभंग इसको अपनी पत्नी स्वरूप में देखा करते हैं! और नित्य ही संसर्ग किया करते हैं! इस से उनको शक्ति प्राप्त हुआ करती है। इसको सिद्ध करने के बाद, सरभंग के शरीर से दुर्गन्ध निकला करती है, सड़े मांस की, विष्ठा की! औघड़ लोग, ऐसे सरभंगों से दूर ही रहा करते हैं। और ये कई बार पिट भी जाया करते हैं। ये स्वयं ही किसी औघड़ स्थान का रुख नहीं किया करते! इसीलिए ये सरभंग अक्सर दूर ही रहा करते हैं लोगों से! तो अब ये घंट-नटी का आह्वान कर रहा था! सोच रहा था कि उसकी ये घंट-नटी संहार कर देगी मेरा! मैं हंसा! मन ही मन! कैसा मूर्ख है वो! जो औघड़, महामंडया को प्रकट कर सकता है, वो घंट-नटी से सामना नहीं कर सकता? मैं हंसा!! ठहाका लगाया! हंसा इसकी मूर्खता पर!
लेकिन! चौंका फिर! चौंक पड़ा मैं!
ओह!
कुशाग्र!
बहुत कुशाग्र है ये सरभंग तो! अब समझ गया मैं समझ गया कि क्यों उसने घंट-नटी को चुना। मेरी हंसी, मेरे हलक़ के रास्ते मेरे पेट में उतर गयी! और नज़र मेरी पड़ी मेरी साध्वी पर! वो अचेत थी! अरे वाह रे सरभंग! क्या युक्ति लड़ाई है तूने! युक्ति ये, कि ये घंट-नटी, मेरा संहार नहीं करेगी! न! मेरा संहार नहीं! ये मेरी साधिका में प्रवेश करेगी! और उसको इस लायक ही नहीं छोड़ेगी कि वो मेरे लायक बचे! दिल धड़का! पहली बार इस द्वन्द में दिल धड़का मेरा! अब क्या हो? अब एक ही तरीका था बस! कि मेरी साधिका, मेरे संग संसर्ग करे! इस से, वो घंट-नटी प्रवेश ही नहीं कर पाएगी!
वो संसर्गरत स्त्री में प्रवेश नहीं करती! नहीं तो, मेरी भी अंकशायनी ही हो जायेगी वो!
चूंकि, अभी वो इस सरभंग की अंकशायिनी है, इसीलिए नहीं प्रवेश करेगी! मैं बहुत विकट स्थिति में था! बहुत ही विकट! मैं भागा! अपना त्रिशूल लिया, भौमसिद्धिका मंत्र से अभिमंत्रित किया, और छुआ दिया उसे! विदयुत सी प्रवाहित हो चली!
और जाग गयी वो! अब कोई शक्ति नहीं थी उस पर! मुक्त थी वो! "श्रुति?" मैंने कहा, मैं घबराया हुआ था! मुझे उत्तेजना भी नहीं हो रही थी उस समय जो संसर्ग करता। समय खिसके जा रहा था, और वो सरभंग, हँसे जा रहा था! ठहाके मारे जा रहा था! शायद इसी वार से इस सरभंग ने, उन बाबा महापात्रा को छकाया था और उनकी साध्वी को मार डाला था! यही वजह रही होगी! और अब ये वही कर रहा था! घंट-नटी कब आ जाए, पता नहीं!
"श्रुति?" मैंने कहा, खींचा उसको और उठा लिया! भागा अपने आसन पर, ले आया उसको! मैं लेट गया, उत्तेजना हो, इसीलिए चिपक गया उसके साथ, अंगों से खेलना लगा उसके, उत्तेजना जगी! मैंने मंत्र का भी सहारा लिया और अपने गले में टंगी के बूटी का भी, बूटी का टुकड़ा चबाया, और बिठा लिया उसको अपने ऊपर, ये देख, सरभंग के होश उड़े! मैं भांप
गया था उसका इरादा! सरभंग ने अपना चिमटा फेंक मारा सामने! श्रुति भांप गयी मेरा इरादा, और मैं उसके संग संसर्ग मुद्रा में आ गया! तंत्र में, पुरुष रमण नहीं किया करता! समझना मेरे मित्रगण! पुरुष नहीं किया करता! अपितु स्त्री किया करती है! मैंने श्रुति को और तेजी से उग्र होने को कहा, जितना उग्र होती, उल्टा ही वेग बनता और वेग बनता तो घंट-नटी नहीं प्रवेश करती! श्रुति उग्र हुई! मेरे वक्ष में नाखून गाड़ दिए! मेरी जाँघों में नाखुन गाड़ दिए, मैं नीचे था वो ऊपर, मेरे कंधों पर अपने पाँव पटकती वो, मेरी आँखें बंद हो जाती उस समय! प्रचंड वायु-वेग बहा! बहुत गरम! दुर्गन्ध! असहनीय दुर्गन्ध! नथुने लगे हमारे! मुझे स्खलित नहीं होना था! हुआ, तो मेरी साधिका का आज अंतिम समय होता, अंतिम रात्रि होती इस भूमि पर, और मैं,जीवन भर इस दुःख में भरा रहता, कि मेरे कारण श्रुति का अंत हुआ..... "श्रुति?" मैंने कहा, और एक चांटा दिया उसको गाल पर! उसने सर हिलाया! "श्रुति! मेरी श्रुति!" बोला मैं, और खींचे उसके केश! अपने पास लाने के लिए!
मेरी छाती पर जैसे किसी ने पाँव रखा! दम सा घुटा मेरा!
और तब! तब मैंने श्री श्री वपुधारकाय का महा-मंत्र पढ़ डाला! भयानक सा क्रंदन हुआ! वजन हल्का हुआ!
और मेरी साँसें नियंत्रित हुई! श्रुति मेरा मर्दन कर रही थी! वो बार बार उचक जाती, मैं पकड़ता उसे! ये बार बार हुआ, और फिर, फिर मेरे सीने पर गिर गयी वो! हाँफते हुए। पसीनों से लथपथ हुए! मैंने भुजाओं में भर लिया उसे!
चूम लिया एक एक अंग! मैंने, बचा लिया था अपनी साधिका को! बच गयी थी मेरी श्रुति! बच गयी थी! मैंने उसको लिटाया नीचे,थक गयी थी अति बहत,मैं भागा आगे,मदिरा उठायी, और गटक गया तीन चार घुट। और बैठा लख पर, अब अलख में ईंधन झोंका! रक्त लिया, उस रक्त से एक चतुर्भुज बनाया, फिर एक यंत्र स्थापित किया उसमे! और अब उसकी रक्त से लिपि मिटटी को उठाया, और जा पहुंचा अपनी साधिका के पास! उसको सीधा किया, और उसके वक्ष-स्थल पर एक चिन्ह बना दिया, फिर उदर पर, फिर योनि पर, और फिर घुटनों से नीचे, उल्टा किया, फिर कमर पर, और फिर नितम्बों से नीचे! और सीधा किया! मैं बैठा,
और उसको अपने घुटनों पर लिटाया! कमर के बल, अब उस मृत्युमक्ष विद्या को जागृत किया! पल भर में विद्या जारित हई, आँखें खोश्नि उस श्रुति ने, मुझे देखा! मैं मुस्कुराया!
उठी और मेरे गले लग गयी! जानी या नहीं जानी। लेकिन उस समय प्रेम से भरी थी वो! अभी तक द्वन्द में हमने उन दोनों को पछाड़ा था! अब आगे देखना था कि अब वे क्या करते हैं, मैं चाहता तो अब वार कर सकता था, लेकिन अभी मैं और दमखम देखना चाहता था उस सरभंग काजिया का या फिर उस श्रेष्ठ का! "यहां बैठो, हिलना मत!" मैंने कहा,
और अपने त्रिशूल से उसके चारों और एक घेरा काढ़ दिया! एक रक्षा का घेरा! अब आगे गया! देख लड़ाई!
तो वो सरभंग अकेला बैठा था वहाँ अलख के सामने!
