भूल नहीं पाया था! और जब अवसर मिला था, तो मेरी समस्त इन्द्रियाँ मेरे विवेक को सरेआम पीट रही थीं! कभी कभार, विवेक को सुला दें पड़ता यही, तो आज मैंने सुला दिया था अपने विवेक को, और काम को जगा दिया था! अब या तो काम ही जागता यही, या फिर विवेक! और कुछ ही देर बाद, आ गयी थी मेरी लाल कचनार की कली! "आओ श्रुति!" मैंने कहा, वो मुस्कुराई! मुझे देखा, जैसे मेरे विचार मेरे चेहरे पर छप गए हों! "बैठो न?" मैंने कहा, नहीं बैठी! "बैठो न?" मैंने कहा, "बिठाओ?" बोली वो!
तो साहब! मैं पकड़ा हाथ! और खींच लिया उसको मेरे ऊपर आ गिरी अब ऊपर आई, तो मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे! दो साल बाद की बर्फ, पिघलने को लगी! "नहीं बदली तुम!" मैंने कहा! "देख रही थी!" बोली वो!
और तभी दरवाजे पर दस्तक हुई! मैं उठा, दरवाज़ा तक गया! खोला! तो सहायक था! "हाँ?" बोला मैं, "वो बाबा पूरब ने बुलाया है" बोला वो, अब इस वक़्त? ऐसे वक़्त पर? मन कसोस उठा!! "ठीक है, आता हूँ" मैंने कहा, मीठे में खट्टा आ गया था! "आना मेरे साथ?" बोला मैं, "कहाँ" पूछा उसने! "आओ तो सही?" मैंने कहा, "चलो" बोली वो,
और हम चल पड़े, बाबा पूरब की ओर! जा पहुंचे उधर! कमरे में वो श्रेष्ठ और उसकी बहन, युक्ता दोनों भी थे!
और मेरे साथ श्रुति! श्रुति मेरी कोई कम न थी उस से! युक्ता से तो, कहीं बेहतर थी मेरी श्रुति! मेरी श्रुति? यही लिखा मैंने? अब लिखा तो लिखा! हाँ! मेरी श्रुति! मैं बैठा वहां! श्रुति युक्ता को देखे, और युक्ता उसे! दोनों ही तलवार, दुधारी थीं! "हाँ बाबा?" मैंने कहा, "श्रेष्ठ के साथ आपने जो किया, वो अनुचित था!" बोले वो! "और इसने जो किया?" मैंने पूछा, "क्या किया?" पूछा, "आपके कान सही हैं न बाबा?" मैंने गुस्से में कहा,
"क्या कह रहे हो?" बोले वो! "सुनो बाबा, मैं ऐसे कई श्रेष्ठों से मिल चुका हूँ! ये अपने बाप के बपौती खाते हैं!" बोला मैं! "चुप कर?" बोला श्रेष्ठ! "ओये, जब मैं बाबा से बात करूँ,तो तू अपना ये सियार सा चेहरा बीच में न लाया कर!" मैंने कहा, बस फिर क्या था! झपट पड़ा मुझ पर! मैंने भी साले के पेट में, दो तीन लात जमा दी! बवाल खड़ा हो गया! लोग आ गए! बीच बचाव हुआ! "सुन ओये, उस धर्मेक्ष की औलाद, कभी अपने बाप की सुनी?" मैंने कहा, बाबा पूरब बीछ बचाव कराएं। "ओ चुप का **** ! बोला वो! "बहन के * तेरी माँ की! अब अगर बोला तो साले यहीं गाड़ दूंगा तुझे!" मैंने कहा, वो आया मेरे पास! मेरा गिरेबान पकड़ा! और गिर दिया मुझे!
और हो गयी गुत्थमगुत्था! चीख-पुकार सी मच गयी!
और तब मैंने उस श्रेष्ठ को, ऐसा मारा, ऐसा मारा कि साला इंसान होगा तो याद रखेगा! बीच-बचाव हुआ!
और फिर बाबा पूरब ने, मुझे सुना दिया फरमान! "कल सुबह, यहाँ से निकल जाओ!" बोले वो! "तो कौन रहता है यहां?" बोला मैंने!
युक्ता ! युक्ता! आँखें फाड़ फाड़ देखे मुझे! मैं खड़ा हुआ! "युक्ता। समझा ले इसे!" मैंने कहा, "जाओ, जाओ यहाँ से?" बोले पूरब बाबा!
और तभी बाबा मैहर आये वाह! मैंने पाँव पड़े! "क्या बात है?" बोले वो!
"
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मैं बात बताई! "अब आप छोडो सबकुछ! बोले वो! "लेकिन ये हराम का कुत्ता माने तो सही!" मैंने कहा!
रोक लिया। उस युक्ता ने रोक लिया उसे! "तो काट ली न रात?" बोली वो! "हाँ! कट ही गयी!" मैंने कहा, "बढ़िया है!" बोली बो! "खाक़ बढ़िया! सब सत्यानाश कर दिया उस कमीने ने!" मैंने कहा, हंस पड़ी वो! मैं भी हंसा! ऐसी स्थिति में तो बस हंस ही सकते थे। "और बाबा मैहर ने बात की बाबा पूरब से?" पूछा मैंने, "हाँ, बुला लेंगे आपको वो" बोली वो, "देखते हैं" मैंने कहा, "भोजन किया?" पूछा उसने! "बस करूँगा, तुमने किये?" पूछा मैंने, "हाँ, करके ही आई थी" बोली वो!
और तभी मेरा फ़ोन बजा! मैंने उठाया, बाबा मैहर थे ये, बोले कि दो बजे आ जाओ वहाँ, मामला निबटा लेते हैं, ऐसी दुश्मनी अच्छी नहीं! मैंने भी हाँ कर दी, कि निबट जाए मामला आराम से तो कोई बात बने। और काट दिया फ़ोन! "आ गया बुलावा!" मैंने कहा, "मैंने कहा था न!" बोली वो, "हाँ, वही हआ" मैंने कहा! "कितने बजे जाओगे वहाँ?" पूछा उसने, "दो बजे" मैंने कहा, "अब आराम से रहना, ताव नहीं खाना!" बोली वो! "हाँ, ठीक, साथ तो चलोगी मेरे?" पूछा मैंने, "हाँ, चलंगी" बोली वो! "ठीक है!" मैंने कहा, मैंने भोजन कर लिया था तब, श्रुति ने नहीं खाया था भोजन, वो पहले से ही खा कर आई थी! थोड़ी बहुत पुरानी बातें की हमने, और फिर कोई डेढ़ बजे, मैं, श्रुति और शर्मा जी, चल पड़े
उधर ही, बाबा पूरब के पास!
जा पहुंचे हम वहाँ, ठीक दो बजे ही! सीधे ही उनके कक्ष की ओर चले, तो सामने से युक्ता आती दिखाई दी! दम्भ से फूली वो युक्ता, ऐसे देख रही थी जैसे वो कोई छिपकली है और मैं कोई कीड़ा! मैंने नज़रें नहीं हटाई अपनी, बल्कि श्रुति की कमर में हाथ और डाल लिया! नथुने फुलाती हुई, निकल गयी वहां से! शायद आज मना कर दिया था उसको वहाँ बैठने से! "नखरे देखे इसके?" मैंने श्रुति से कहा! "हाँ, देखे!" बोली वो! "अभी नयी है शायद, पता चल जाएगा आगे आगे!" मैंने कहा,
अब न बोली कुछ श्रुति!
और अब हम आ गए कक्ष के पास! अंदर बैठे थे सभी, करीब दस लोग, वो श्रेष्ठ अपने गुर्गों के संग, बैठा था कुर्सी पर। "आओ, बैठी" बोले बाबा मैहर! हम बैठे वहां, और तभी वो युक्ता भी आ गयी अंदर! जा बैठी एक तरफ! उसके साथ दो महिलायें और थीं! "देखो, आपस में मनमुटाव अच्छा नहीं, हम चाहते हैं कि सब सामान्य हो, श्रेष्ठ आपसे उम में बड़े हैं, आपको क्षमा मांगने में कोई आपत्ति तो नहीं?" बोले बाबा मैहर! "क्षमा? कैसी क्षमा?
ऐसा कौन सा पाप कर दिया मैंने?" पूछा मैंने, "आपने मार-पीट की श्रेष्ठ के साथ" बोले वो! "मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा था कि मैं मार-पीट करूँ इसके साथ?" मैंने कहा, "लेकिन आपने की" बोले वो, "हाँ की!" मैंने कहा! "क्यों?" पूछा उन्होंने, "इसने सौंगड़ लड़ाया, नाम मेरा लगाया! क्रिया नष्ट हो गयी, वो घाड़ भी दोनों, फिर इसने वहां मेरे से हाथापाई की, दुबारा यहां की, गलती किसकी?" मैंने पूछा, "सौंगड़ किसने लड़ाया ये मैं जान गया हूँ" बोले बाबा पूरब "किसने?" पूछा मैंने, "आपने ही" बोले वो! मैं सन्न! "यहाँ मुझे समझौते के लिए बुलाया है या फिर राड़ के लिए?" मैंने पूछा,
"आप क्षमा मांगो श्रेष्ठ से!" बोले बाबा पूरब! ये सुन, युक्ता मुझे देखे! जैसे वो क़ाज़ी हो और मैं गुनाहगार! जाइए उसको अदालत में लाया गया था मुझे! "क्षमा!" मैंने कहा, "हाँ, क्षमा!" बोला श्रेष्ठ अब उसको देखा मैंने! दम्भ से फूला हुआ, ठड्डेबाजी में लगा था! "क्षमा कर दूंगा! लौट के न आना कभी! और कभी मैं दिख जाऊं, तो ये पाँव पड़ लेना!" बोला
वो! मैं हंसा! वो हैरान हुआ! युक्ता भी हैरान! "अब पाँव! पाँव तो अब मैं तेरे बाप के भी न पर्दू ज़लील इंसान! और क्षमा, तुझसे? तेरी
औक़ात है क्या?"मैं खड़ा हो गया था। शर्मा जी भी! और उसके गुर्गे, उसको घेर के खड़े हो गए थे! "बस! बस! तू मुझे जानता नहीं है शायद!" बोला वो! "तू जानता है मुझे? नहीं न? नहीं तो तेरा कलेजा तेरे हलक में आ गया होता! जा, पूछ बाबा पूरब से, कौन हूँ मैं?" मैंने कहा! अब तो बिफर पड़ा! मेरा अपमान हुआ है, मुझे पसंद नहीं, समझा लो इसे, नहीं तो टुकड़े टुकड़े कर दूंगा इसके थे, वो और न जाने क्या क्या!! "अब इसका फैसला कैसे होगा?" बोले बाबा पूरब! "जैसा ये चाहे!" मैंने कहा, "क्षमा मांग ले?" बोला श्रेष्ठ "इसके अलावा कोई रास्ता बता?" कहा मैंने, "तो एक ही रास्ता है फिर!" बोला वो! "और वो क्या?" पूछा मैंने! "द्वन्द!" बोला वो!
द्वन्द। ये तो मैं जानता ही था!! मालूम था मुझे! जैसे ही उसने द्वन्द कहा, बाबा मैहर मुस्कुरा गए! और बाबा पूरब, मुरझा गए! बाबा पूरब को पता थी मेरी सिद्धहस्तता द्वन्द में! जानते थे वो कि बाबा धन्ना से कोई नहीं जीता द्वन्द में! और मेरी
रगों में उसी बाबा धन्ना का लह बह रहा है! "ठीक है! द्वन्द ही सही!" बोला मैं! "हाँ, द्वन्द!" बोला वो! 'एक बार सोच ले फिर! बाबा पूरब से जान लेना मेरे बारे में एक बार!" कहा मैंने! "चल? निकल यहां से?" बोला वो! "तमीज़ से बात कर, कहीं वन्द के अंत में तेरी बहन तेरे सिर्फ तेरे पुर्जे चुनने आये!" मैंने कहा! "अरे जा! आया तू!" बोला वो! "चलो शर्मा जी, श्रुति, चल!" मैंने कहा, मैं गुस्से में आगबबूला था बहुत! इसको मैं ऐसी सजा दूंगा, कि ये जिंदगीभर, द्वन्द के नाम सुनते ही कपड़े गीले करता रहेगा! यही सोचा था मैंने उस समय। "चलो" बोले शर्मा जी! हम आ गए बाहर, चले वापिस! "इस कुत्ते से यही आशा थी!" बोले शर्मा जी! "हाँ, मुझे भी यही लगा था!" मैंने कहा, "श्रुति?" मैंने कहा! "हाँ?" बोली वो! "शायद इसीलिए मिलीं तुम मुझे!" मैंने कहा! मुस्कुराई! मेरी बाजू पकड़ी! "मैं साथ हूँ
तुम्हारे! बुलाते तो भी आ जाती!" बोली वो! "जानता था!" मैंने कहा! "मैं तैयार हूँ!" वो बोली! "अच्छा, अब कहाँ चलना है, मेरे संग या यहीं रहोगी?" पूछा मैंने, "आपके संग!" बोली वो!
और तभी बाबा मैहर आ ये वहां! श्रुति ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी! "मैं तिथि के विषय में सूचित करूँगा आपको!" बोले वो! "हाँ बाबा!" मैंने कहा! "और हाँ, गीता के पास जब तक चाहो रहो, कोई चिंता नहीं" बोले वो!
"धन्यवाद" मैंने कहा! अब हम चल पड़े वापिस, यहीं गीता जोगन के पास!
और तभी वो युक्ता दिखी! हंसती हुई! खिलखिलाती हुई! रहा न गया मुझसे! चल पड़ा उसकी तरफ ही! रोक मुझे श्रुति और शर्मा जी ने, लेकिन न रुका मैं जा पहुंचा! "ये हंसी सभाल कर रखना!" मैंने कहा! चौंक पड़ी वो! "अपने आपको संभाल के रखो अब!" बोली वो! "संभाल लो, अभी भी वक़्त है!" मैंने कहा, "श्रेष्ठ क्या है,जान जाओगे तुम!" बोली वो! "और तुम्हारे पिता! अफ़सोस! क्या गुजरेगी उन पर अब!" बोला मैं!
और आ गया वापिस! "क्या कह रही थी?" पूछा शर्मा जी ने, "वही, वही श्रेष्ठ-लीला!" मैंने कहा, "अच्छा! बहन है आखिर!" बोले वो! "श्रुति?" मैंने कहा, "हाँ, कहो?" बोली वो, "कपड़े ले आओ अपने" मैंने कहा! "लाती हूँ अभी" बोली वो! कुछ ही देर में, बैग ले आई अपना! "चलो अब" मैंने कहा! "हाँ चलो" वो बोली, बैग ले लिया था मैंने उसका!
और आ गए हम बाहर। अब चले वापिस! "तो श्रेष्ठ अब 'महा-श्रेष्ठ बनने जा रहे हैं!" बोले शर्मा जी! मैं हंस पड़ा! श्रुति भी! "हाँ, महा श्रेष्ठ!" मैंने कहा,
"और वो चुहिया!! उसको देखो!" बोले वो! "भाड़ में जाने दो उसको अब!" मैंने कहा, हम पहुँच गए वहाँ! गीता जोगन जानती थी श्रुति को, मिल गया कक्ष!
और हम अपने अपने कक्ष में चले गए, बैग, दे दिया था मैंने उसको उसका, अपने कमरे में आया, तो बैठ गया! उस श्रेष्ठ के शब्द आग उगल रहे थे मेरे सीने में "चाय मंगवाऊँ?" बोले शर्मा जी, "मंगवा लो" मैंने कहा, संध्या समय मैं श्रुति के के कक्ष की ओर गया, गया तो दरवाज़ा बंद था अंदर से, मैंने
खटखटाया, और थोड़ी ही देर में, दरवाज़ा खुल गया! सामने मेरे श्रुति ही खड़ी थी! केश खुले थे उसके, बहुत सुंदर लग रही थी! मैं तो देखता ही रह गया था उसको! आँखें हटा ही न सका अपनी! पल भर में ही, पूरा का पूरा नाप लिया था उसको मैंने! ऐसे नापने में तो पुरुष नैसर्गिक रूप से पारंगत हआ करते हैं , वो अलग बात है कि क्रियान्वन में कुछ गणित आगे पीछे हो जाए! "अंदर नहीं आना क्या?" पूछा उसने! मैं तन्द्रा से बाहर आया तभी के तभी! "हाँ, हाँ!" कहते हुए अंदर चला आया! लाल रंग का जयपुरिया कुरता पहना था उसने, बड़े बड़े छींटे थे उस पर, और नीचे सफेद रंग की सलवार! गज़ब की सुंदर लग रही थी श्रुति उसमे! और शायद स्नान भी थोड़ा समय पहले ही किया होगा उसने! "ति?"मैंने कहा! "हाँ?" बोली वो, बैठ गयी थी सामने कुर्सी पर! "दिल मचल रहा है मेरा।" मैंने कहा, "तो मचलने दो!" बोली वो! "इन शब्दों से तो और मचल गया!" मैंने कहा! हंस पड़ी खिलखिलाकर! "ऐसे हँसोगी तो जाना होगा मुझे बाहर फिर!" बोला मैं,
"क्यों?" पूछा उसने! "एक तो दिल मचल रहा है,ऊपर से तुम और घी झोंक रही हो!" बोला मैं! "अच्छा ठीक है, नहीं हंसती!" बोली वो! "हाँ, कुछ राहत तो पड़ेगी!" मैंने कहा, "पूरी राहत लीजिये आप!" बोली वो, "मन तो है वैसे!" मैंने कहा,
अब समझी वो, और फिर हंस पड़ी! मैं भी हंस पड़ा उसकी हंसी में! "तुम भर गयी हो पहले से!" मैंने कहा, "ये अच्छा है या बुरा?" बोली वो! "बहुत अच्छा है! बहुत अच्छा!" मैंने जोश से कहा! "आपको अच्छा लगा?" बोली वो! "हाँ, बहुत अच्छा!" मैंने कहा,
खड़ी हई वो, पानी लिया गिलास में, "पानी पियोगे?" पूछा उनसे! "नहीं, कड़वा लगेगा!" मैंने कहा, "कड़वा?" पूछा उसने! "हाँ, अभी कुछ और पी रहा हूँ!" मैंने कहा, पानी पीते पीते हंसी! फन्दा लग जाता गले में! पानी पी लिया उसने, वापिस बैठ गयी! "वैसे क्या पी रहे हो आप?" पूछा उसने, "तुम जानती तो हो?" मैंने कहा! "बताओ तो सही!" बोली वो! "तुम्हारा रूप! काम-पात्र में अपने!" मैंने कहा, "अच्छा ?" बोली वो! "हाँ!" मैंने कहा! "पेट भर गया तो?" बोली वो! "नहीं भरने वाला ये पेट!" मैंने कहा! तभी मेरा फ़ोन घनघना गया! साला मेरा फ़ोन तभी बजना था! "एक मिनट!" मैंने कहा,
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"कोई बात नहीं" वो बोली, मैं बाहर चला आया, काशी से फ़ोन था किसी जानकार का, कुछ 'विशेष' सामग्री उपलब्ध करवाता है वो! उस से बात हई। और मैं अंदर चला आया फिर! दरवाज़ा बंद किया मैंने! श्रुति वहीं बैठी थी। "हाँ, तो हम कहाँ थे?" मैंने पूछा, "वो काम-पात्र पर!" बोली वो! मुस्कुराकर! मैं हंस पड़ा!! "सुनो, श्रुति?" मैंने कहा, "बोलो?" बोली वो, "क्या मदिरापान करती हो अभी भी?" पूछा मैंने, "अभी भी? नहीं, कभी नहीं" बोली वो! "तो क्या अकेला मैं ही झुलसुंगा?" मैंने पूछा, "क्यों?" उसने पूछा, "मैं अकेला पियूँगा तो कैसे मजा आएगा?" पूछा मैंने, "आपके लिए झुलस लूंगी मैं भी!" बोली वो! उसने ऐसा बोला, और मैंने काम-कूप में डुबकी मारी! "तो मैं आया अभी!" बोला मैं,
और भाग कमरे में अपने! बैग खोला और ले आया बोतल निकाल कर! शर्मा जी को समझा ही दिया था सबकुछ! सामान भी ले आया था मैं सारा!
और अब हुई शुरू जंग मदिरा के संग! उस रात मैंने जम कर पी! दरअसल, मदिरा गाढ़ी हो गयी थी श्रुति के हुस्न के संग!
और मित्रगण! मेरा प्रणय हुआ उस से उस रात्रि! वो मेरी साध्वी भी थी, और मेरी प्रेमिका भी! कुछ भी समझिए! अगली सुबह, बाबा मैहर आ गए थे! उनसे मिला मैं! "कुछ खबर?" मैंने पूछा, "अभी तो कुछ नहीं" बोले वो, "क्यों?" मैंने पूछा,
"सोच रहे हैं कि बात बन्द तक न ही पहुंचे" बोले वो, "वो नहीं मानने वाला!" मैने कहा, "नहीं मानेगा तो पछतायेगा!" बोले बाबा! "अच्छा, बाबा, स्थान का प्रबंध करना होगा!" मैंने कहा, "वो मैं करवा दूंगा!" बोले बाबा! एक वो बाबा थे पूरब!
और एक ये बाबा मैहर! मेरे दादा श्री के शिष्य रहे हैं! "आप तसल्ली से रहें, मैं खबर पहुंचा दूंगा!" बोले वो! "ठीक बाबा!" मैंने कहा, उन्होंने कुछ और भी बताया मुझे उस श्रेष्ठ के बारे
में। "तो बाबा पूरब भी वहीं होंगे?" पूछा मैंने, "हाँ, यही लगता है।" बोले वो! "ओह.." मैंने कहा, "घबराओ नहीं!! मैं संग हैं आपके!" बोले वो! बहुत राहत पड़ी! बहुत राहत! फिर बाबा चले गए! और शर्मा जी आ बैठे संग! "वो नहीं मानेगा!" बोले वो! "जानता हूँ!" मैंने कहा, तभी श्रुति भी आ गयी मेरे पास! "बैठी" मैंने कहा, बैठ गयी वौ! "तो बाबा पूरब भी संग होंगे उसके!" मैंने कहा! "वो तो दामाद है उनका!!" बोले शर्मा जी! मैं हंस पड़ा!!! मैंने ही तो कहा था ऐसा!! "देखो, क्या होता है!" बोले वो! "हाँ, अब तो देखना ही पड़ेगा!" मैंने कहा! "स्थान?" बोले वो! "वो बाबा मैहर करवा देंगे!" मैंने कहा, "अरे वाह!" वो बोले!
तभी श्रुति का फ़ोन बजा! फ़ोन चंदा का था, चंदा ने बुलाया था उसको! श्रुति ने मुझे बताया! "चलो, चलते हैं हम, छोड़ आते हैं" बोला मैं,
और हम चल दिए। वहां पहुंचे,
और छोड़ आये उसको! हम आ गए वापिस! कमरे में ही! पानी पिया!
और चाय आ गयी फिर, चाय पी! "क्या लगता है आपको ये श्रेष्ठ?" पूछा उन्होंने, "है तो खैर प्रबल ही!" मैंने कहा, "नव-मातंग से?" बोले वो! "हाँ, उस से पहले ये कि उसको बाबा धर्मेक्ष का सरंक्षण है!" मैंने कहा, "हाँ, ये तो है!" बोले वो! "और यहीं हमै थाह लेनी होगी श्रेष्ठ की!" मैंने कहा, "तो बाबा मैहर से पूछ?" बोले वो, "हाँ, वो खुद ही बता देंगे!" मैंने कहा! "एक चिंता है!" मैंने कहा! "क्या?"बोले वो, "कहीं बाबा धर्मेक्ष न दें साथ उसका!" मैंने कहा, "अरे...." बोले वो! "बस यही चिंता है!" मैंने कहा! "समझ गया" बोले वो! "धर्मेक्ष बाबा को जानता हूँ मैं! प्रबल नहीं महाप्रबल हैं वो!" मैंने कहा! "समझ गया!" बोले वो! मैंने फिर से पानी पिया! "अगर साथ दिया तो?" पूछा उन्होंने, "तो हमने भी किसी को लाना होगा!" कहा मैंने, "किसको?" बोले वो! "बाबा खम्मट नाथ को!" मैंने कहा,
"वो, सियालदाह वाले?" बोले वो! "वाह!! वाह!!" वे बोले, "बस मान जाएँ!!" मैंने कहा, "मान जाएंगे!" बोले वो! "मान जाएँ तो ये दद्वन्द, द्वन्द नहीं, महा-वन्द होगा फिर!" मैंने कहा! इस तरह एक और दिन बीत गया! मेरी बात अभी श्री श्री श्री से नहीं हई थी, मुझे आज्ञा लेनी थी उनसे! और फिर वो मार्गदर्शन देते! और मैं आगे बढ़ता! मुझे सबकुछ देखना था, सबकुछ कुछ प्रबंध भी करने थे! हालांकि बाबा मैहर मदद कर ही रहे थे, लेकिन केवल उन्ही पर बोझ डालना भी उचित नहीं था, इस स्थान पर मेरी वाक़फ़ियत मेरी सिर्फ बाबा पूरब से थी, लेकिन बाबा पुरब तो अब पछां के हो गए थे! मैं घड़ी के छह पर खड़ा था और वो, वो बारह पर, मैं तीन पर तो वो नौ पर! ऐसा आंकड़ा हो चला था उनका और मेरा! बाबा पूरब को कोई लालच था या कोई स्वार्थ उस श्रेष्ठ से, समझ नहीं आ रहा था। एकाएक उनका रुख बदल गया था! ये ठीक था कि श्रेष्ठ एक पहुंचे हए बाबा धर्मेक्ष का पुत्र था, लेकिन उनके इस पुत्र में उनकी तरह शालीनता नहीं थी! बाबा धर्मेक्ष इस तरह के न थे, वे शांत और शालीन थे, अक्सर ऐसे चक्करों से दूर ही रहते थे, इसीलिए उन्होंने युक्ता और उस श्रेष्ठ को इस आयोजन में भेजा था,स्वयं नहीं आये थे! ये भी मेरा भाग्य था कि मुझे श्रुति मिल गयी थी, नहीं तो कोई साधिका ढूंढनी पड़ती मुझे, और इसके लिए मुझे वापिस
कोलकाता जाना पड़ता! तो श्रुति के आने से, ये समस्या तो हल हो गयी थी! वो मेरे साथ साधनारत रह चुकी थी! वो प्रखर थी, भयहीन थी और अपने साधक के प्रति, पूर्ण रूप से समर्पित! अब इंतज़ार था तो बस उस द्वन्द की तिथि का! तिथि मिले और फिर तैयारियां आरम्भ हों! मैं इसी इंतज़ार में था! अगले दिन शाम को, मुझे श्रुति से एक खबर मिली! बाबा पूरब ने बाबा धर्मेक्ष से बात की थी, लेकिन बाबा धर्मेक्ष स्वास्थय के ठीक न रहते हए, इस द्वन्द से बाहर थे, और उन्होंने बाबा पूरब से भी मना किया था कि श्रेष्ठ किसी भी द्वन्द में न उतरे! ये मेरे लिए मेरी जीत की पहली निशानी थी! यदि ऐसा था, तो ये श्रेष्ठ अपने जीवन का श्रेष्ठतम सबक सीखने वाला था! श्रुति बहुत खुश थी, और मैं भी! मैं गया तभी शर्मा जी के पास और उनको ये खबर कह सुनाई! वे भी बहुत खुश हुए। "वाह! ये हुई कुछ बात!" बोले वो! "हाँ, ये अच्छी बात हुई!" मैंने कहा,
और तभी बाबा मैहर भी आ गए! उनके साथ एक स्त्री भी थी! "आओ बाबा! बैठिये!" मैंने कहा,
बैठ गए वो दोनों! "मुझे श्रुति ने कुछ बताया बाबा!" मैंने कहा, "हाँ, सही बताया है!" बोले वो! "क्या बाबा धर्मेक्ष ने मना किया है उसको?" पूछा मैंने, "हाँ, मेरे सामने ही बात हुई थी!" बोले वो! "क्या बात हुई थी?" पूछा मैंने, "बताया था कि धन्ना बाबा का मसला है! बस, समझ गए थे, आपको तो जानते ही हैं वो!
आपसे मिले भी थे?" बोले वो! "हाँ, जानता हूँ मैं उन्हें अच्छी तरह से!" मैंने कहा, "लेकिन एक बात समझ नहीं आई?" मैंने कहा, "वो क्या?" पूछा उन्होंने! "इस श्रेष्ठ को हुआ क्या? मैंने कोई बदतमीज़ी नहीं की उसकी बहन के साथ?" मैंने कहा, "मानता हूँ, लेकिन युक्ता ने कुछ बढ़ा-चढ़ा के बताया हो, हो नहीं सकता क्या?" बोले वो, "हाँ! ये हो सकता है!" मैंने कहा! "इसका मतलब, श्रेष्ठ कोई सच्चाई नहीं मालूम?" शर्मा जी बोले, "मालूम भी हो, तो अब बात आगे बढ़ चुकी है! हाथापाई जो हुई थी!" मैंने कहा! "और वो सौंगड़ भी!" बाबा बोले! "हाँ!" मैंने कहा, तभी चाय आ गयी, और हम चाय पीने लगे! "ये कौन हैं?" मैंने पूछा, उस महिला की तरफ इशारा करते हुए, "ये दीपा हैं, यहीं रहती हैं" बोले वो, "अच्छा!" मैंने मुस्कुरा के कहा, "अच्छा, आपको नव-मातंग के विषय में जानकारी है?" बोले बाबा, "हाँ, पूर्ण जानकारी है। मैंने कहा, "फिर तो बढ़िया! नहीं तो दीपाइसीलिए आयीं थीं यहां!" बोले वो! "आपका शुक्रिया!" मैंने दीपा से कहा, "बस, वो इसी पर दम भर रहा है!" बोले बाबा! "भरने दो उसको दम!" मैंने कहा! चाय पी ली थी, और उसके बाद बाबा और वो दीपा, चले गए! मैं आ गया फिर श्रुति के कमरे में, लेकर उसको!
"देखा इस युक्ता को!" बोला मैं! "पींगें भी तो आपने ही बढ़ायीं थीं!" बोली वो! "मैंने तो उसके बारे में पूछा था बस!" मैंने कहा, "हाँ, पूछा होगा! लेकिन उसने श्रेष्ठ ने बारह के बत्तीस बताये होंगे!" बोली वो। "यही बात है। मैंने कहा, "अब छोडो! देखो अब होता क्या है?" बोली वो! "हाँ, ये तो है" मैंने कहा, "क्या कहती हो, कुछ सोचेगा वो?" पुछा मैंने, "नहीं, नहीं सोचेगा!" बोली वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "तेवर नहीं देखे उसके?" बोली वो!
"हाँ!!" मैंने कहा, "अब छोडो भी!" बोली और खड़ी हुई! एक मदमस्त सी अंगड़ाई ली उसने! मेरी तो नज़रें जा भिड़ी उसके बदन की उस अंगड़ाई पर! कैसे किसी मूर्ति की तरह से मुद्रा में आई थी वो! "अब बैठ जाओ!" मैंने कहा, "क्या करूंगी?" बोली वो! "कुछ नहीं करना, बैठ जाओ!" मैंने कहा, "आओ, साथ आओ मेरे" बोली वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "सवाल बहुत करते हो!" बोली! "चलो" मैंने कहा,
और हम चले बाहर की तरफ! बाहर आये तो साँझ ढल चुकी थी! मौसम में कुछ ठंडक थी! एक जगह एक तख्त पड़ा था, वहीं जा बैठे हम! "अब यहाँ क्या?"मैंने पूछा, "कुछ नहीं" बोली, "तो यहां किसलिए?" मैंने पूछा,
"अरे वैसे ही?" बोली वो! "ठीक है!" मैंने घुटने टेके! हम बैठ रहे वहीं कोई घंटा भर! "अब चलो" मैंने कहा, "चलो" बोली वो! "एक घंटा बेकार करवा दिया!" मैंने कहा, "कमरे से अच्छा नहीं लगा यहां?" पूछा, "क्या अच्छा, मच्छरों ने नाम पता सब पूछ लिया!" मैंने कहा! हंस पड़ी अति!
आ गए कमरे में हम! "अंदर बैठो, मैं आया। मैंने कहा,
और मैं सहायक से कह आया सामान के लिए, खुद ले आया अपना सामान! सामान आ गया, सारा सामान! "लोगी?" पूछा मैंने! "नहीं" बोली वो! "क्यों?" पूछा, "नहीं, मन नहीं" वो बोली, "ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
और तभी बाबा मैहर का फ़ोन आ गया! मैंने फ़ोन उठाया! बात हुई!
और पता लगा कि तिथि का निर्धारण कल हो जाएगा! ये अच्छी बात थी, अब जो हो, जल्दी हो! बता दिया श्रुति को मैंने सबकुछ फिर! "आज है चतुर्थी, इसका अर्थ, तेरस या चौदस!" मैंने कहा, "हाँ, यही होगा!" बोली वो! "कोई बात नहीं, मुझे पांच दिन चाहियें बस!" मैंने कहा, "हाँ, पता है!" बोली वो!
और मेरा गिलास भर दिया उसने! "लाओ!" कहा मैंने और,
खींच गया एक ही बार में!!
और खाया कुछ साथ में उसके! पैग बहुत बड़ा बना दिया था उसने! तो इस तरह से वो रात भी गुजर गयी। सुबह हुई, और हम सभी नहा-धोकर, तैयार हो गए थे। बाबा मैहर की खबर आती भी तो शाम तक ही, अब वहाँ बैठे बैठे भी समय नहीं काटे कट रहा था, सोचा कोलकाता ही चला जाए। थोड़ा समय भी कट जाएगा और आराम से दिमाग भी ठंडा हो जाएगा! इस श्रेष्ठ ने वैसे ही मेरे दिमाग में जलेबियाँ बनायीं हुईं थीं और अभी भी तले ही जा रहा था! शर्मा को को मेरी सलाह अच्छी लगी, तो मैं वापिस श्रुति के कमरे में आ गया, चाय पी चुकी थी वो, हमने नहीं पी थी अभी तक, "आओ, बैठो!" बोली वो! मैं बैठ गया वहीं! "सुनो, मैंने सोचा है कि यहां पड़े पड़े तो और दिमाग में जंग लगे जा रहा है, क्यों न कोलकाता चला जाए, बाबा देवज के पास?" मैंने कहा, "आप जा रहे हो?" पूछा उसने, "मैं और शर्मा जी' बोला मैं, "अच्छा" बोली वो, "अब चलना हो तो बताओ?" मैंने कहा, "ले जा रहे हो तो बताओ?" बोली वो, "हाँ, क्यों नहीं?" मैंने कहा, "कब चलना है?" पूछा उसने,
"आज ही चलते हैं, ढाई घंटे में पहुँच जाएंगे" बोला मैं, "ठीक है" बोली वो, "तुम तैयार हो जाओ, मैं आता हूँ" बोला मैं,
और बाहर आ गया! शर्मा जी को भी तैयार होने को कहा, और खुद भी तैयार हो गया! कोई आधे घंटे बाद, गीता जोगन से कह, हम निकल गए कोलकाता, बाबा देव्ज के पास, नाम वैसे देवराज है उनका, मेरे से बहुत निभती है उनकी! उनका एक पुत्र है, अरुण, मित्र जैसा ही है। वो मिला तो फिर तो कोई बात ही नहीं! हम कोई तीन बजे पहुंच गए थे बाबा देवज के डेरे पर! वहां बाबा भी मिले और अरुण भी!
और सबसे बढ़िया बात कि आज वहां भेषज-क्रिया थी! क्रिया में बैठने का मुझे भी आमंत्रण मिला! ये तो बहत बढ़िया हआ था! हमको कक्ष दे दिए गए, दो कक्ष, एक हमारा, मेरा और
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शर्मा जी का, और एक श्रुति का, आज उसको अकेले ही रहना था, मैं तो क्रिया में ही रहता आज रात, प्रातःकाल ही आ सकता था वापिस! समझा दिया था उसको मैंने! मैं संध्या समय साथ ही रहा श्रुति के! बाबा मैहर की कोई खबर नहीं आई थी अभी तक, शायद तिथि-निर्धारण नहीं हुआ अभी तक, खैर, हो जाना था वो भी! रात को नौ बजे, मैं चला वहां से, शर्मा जी और श्रुति को समझा ही दिया था! और पहँच गया क्रिया-स्थल पर, वहां कोई बारह औघड़ थे, अरुण भी वहीं था, और बाबा देवज भी, समस्त वंदन करने के पश्चात, श्रृंगार किया हमनें! आसन लगाए अपने अपने और क्रिया आरम्भ हई। कोई एक घंटे के बाद नौ या दस साधिकाएं भी पहुंच गयी थीं वहाँ! और फिर क्रिया आगे बढ़ी! इस क्रिया से बल मिलता है! सिद्धि-बल! वाक-शक्ति बढ़ जाती है, केंद्रीकरण हो जाता है, शक्ति प्राप्त हो जाती है! औघड़ अक्सर ये भेषज-क्रिया किया करते हैं। इसे आप एक
औषधि भी कहें तो कोई गलत न होगा। इस से काम-शक्ति, मुद्रा-शक्ति, त्वर-शक्ति आदि प्राप्त हो जाती है। क्रिया चार बजे तक चली! कई औघड़ और कई साधिकाएं वहीं ढेर हो चले थे! मैंने कोई काम-तंत्र नहीं किया था वहाँ! हालांकि साधिकाएं आयीं इसीलिए थीं, लेकिन नहीं किया था मैंने, उस समय मेरी साध्वी मेरे संग थी, भले ही यहां नहीं, दूर सही, लेकिन थी वही, तो उसके अतिरिक में उस समयावधि में पर-स्त्री संसर्ग नहीं कर सकता था, ऐसा नहीं कि कोई नियम है ये, बस इच्छा नहीं की मेरी! अब कलाकंद खाते व्यक्ति को भला मोतीचूर का लड्डू कैसे अच्छा लगता! बस यही कारण था, और कुछ नहीं! तो क्रिया का समापन हुआ, और फिर मैं स्नान करने के बाद, चला वापिस! सीधा श्रुति के पास,उक्सो जगाया, और सो गया! आँखों में नींद ही नींद थी! ऐसा सोया कि सुबह ग्यारह बजे ही उठा! नहाया धोया, फारिग हुआ और फिर आया गुसलखाने से वापिस, बैठा वहाँ! "कैसी रही क्रिया?" पूछा श्रुति ने, "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, "हाँ, वो तो रात को पता चल रहा था!" बोली वो! "अरे नहीं! तुम हो तो कोई और नहीं!" मैंने कहा, "सच?" पूछा उसने! "झूठ बोलने से क्या होगा?" मैंने कहा! "चाय पीनी है?" पछा उसने, "हाँ" मैंने कहा, "कहती हूँ मैं" बोली वो, "रुको, मैं जाता हूँ" मैंने कहा,
"आराम करो अभी" बोली वो,
और चली गयी! कह आई थी वो चाय के लिए, चाय आई तो मैंने पी, "खाना साथ ही लोगे?" पूछा उसने, "हाँ" मैंने कहा, चाय पी ली थी अब तक, "मैं आया ज़रा" बोला मैं,
और आ गया बाहर, शर्मा जी के पास पहुंचा, "हो गयी क्रिया?" पूछा उन्होंने, "हाँ" मैंने कहा, "कैसी रही?" पूछा उन्होंने! "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, "चलो अच्छा है!" वे बोले, "एक काम करना, आज चलना मेरे साथ, आज उप्लाव-पोषण करूंगा आपको!" मैंने कहा, "वो क्या?" पूछा उन्होंने! "किसी भी स्थान पर, आप सूंघ के जान जाओगे कि कौन सी अला-बला है यहाँ पर!" मैंने कहा। "अच्छा !" वे बोले, "हाँ! आज ही मैंने कहा, "कहीं कलुष जैसा तो नहीं?" बोले वो! "नहीं नहीं!" मैंने हंस के कहा! "कल्प में ही जान निकल गयी थी मेरी तो!" बोले वो! "नहीं वैसी नहीं है ये!" मैंने कहा! "फिर ठीक है!" बोले वो! दिन में भोजन किया, और फिर आराम! फिर कुछ चुहलबाजी श्रुति के संग और फिर से आराम!
रात्रि समय, मैं शर्मा जी को लेकर चला क्रिया-स्थल में! बिठाया,
सम्पूर्ण किया! श्रृंगार करवाया! नमन करवाया! स्थान और भव-पूजन करवाया!
और उसके पश्चात, मैंने उप्लाव जागृत की! ये एक लकड़ी या कंडे पर जागृत होती है! इसका धुंआ लेना होता है नथुनों में! जब आँखें बिलकुल बंद हो जाएँ और शरीर गिर जाये नीचे,
तो ये उस शरीर में सदा के लिए वास कर जाती है! और यही हुआ! गीत गए थे वो! जब उठे, मैंने उठाया, तो खांस खांस के बुरा हाल था उनका! हमने वहीं मदिरापान किया! "कैसा रहा?" पूछा मैंने! "बहुत जानलेवा था!" बोले वो! "अब विदयाएँ तो आपकी शक्ति का ही प्रयोग किया करती हैं!" मैंने कहा, "हाँ, जान गया हूँ मैं!" बोले वो! "अब आप, किसी भी, कहीं भी स्थान में, यदि कोई अशरीरी होगा, तो आपको भान हो जाएगा! गंध मिल जायेगी आपको!" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो! "हाँ, इस से मेरा काम भी आसान हो जाएगा!" मैंने कहा, हँसते हँसते! "हाँ वो तो होगा ही!" बोले वो! 'एक बात और!" बोला मैं, "क्या?" बोले वो, "कुछ परहेज हैं, बता दूंगा!" कहा मैंने, "ठीक है!" बोले वो,
और हम वापिस हुए फिर, कोई ग्यारह बजे! हम आ गए वापिस फिर, पहंचे कक्ष में तो स्नान कर लिया! और फिर भोजन की तैयारी की, मैं शर्मा जी को वहीं ले आया श्रुति के कक्ष में, फिर भोजन मंगवा लिया, भोजन किया और
फिर सोने चले! मैं श्रुति के संग ही रहा और शर्मा जी अपने कक्ष में चले गए, रात को नींद
बढ़िया आई। सुबह हई, नहाये धोये और फिर साथ ही नाश्ता भी किया हमने! उसके बाद मैं बाबा से मिलने चला गया, सारी बात उन्हें पहले ही बता चुका था मैं, तो उन्होंने मुझे भरसक मदद करने का आश्वासन भी दिया! और उसके बाद अरुण मुझे और शर्मा जी को ले गया शहर, शहर में अपने एक दो जानकारों से मिले, और फिर कुछ खाया-पिया भी! हम कोई छह बजे वापिस पहुंचे वहाँ! जब पहुंचे तो श्रुति सोयी हुई थी, मैंने जगाया उसको, जाग गयी थी, मैं अंदर ही बैठा तब, वो हाथ-मुंह धोने चली गयी! और तभी फ़ोन बजा उसका,
मैंने फ़ोन उठाया, तो फ़ोन बाबा मैहर का था! मैंने ही बात की उनसे, अभी तक खबर नहीं मिली थी, बाबा पूरब ने कोई खबर नहीं दी थी उन्हें! अर्थात कोई तिथि निर्धारित नहीं हई
थी अभी तक! कुशल-मंगल पूछी और फ़ोन काट दिया! आई तब श्रुति अंदर से, "किसका फ़ोन था?" पूछा उसने, "बाबा मैहर का" मैंने कहा, "क्या कह रहे थे?" पूछा, "हाल-चाल पूछ रहे थे" मैंने कहा, "कोई तिथि?" बोली वो, "नहीं कोई नहीं" मैंने कहा, "अजीब बात है" बोली वो, "हाँ" मैंने कहा, "कहीं इरादा तो नहीं बदल लिया?" पूछा उसने, "पता नहीं" मैंने कहा, "हो सकता है!" बोली वो! "तो बाबा बताते नहीं?" बोला मैं, "तो अब तक तो बता देना चाहिए था?" बोली वो! "हाँ, ये बात तो है" मैंने कहा, "चलो छोडो! कहाँ घूम आये?" बोली वो, "बस ऐसे ही आसपास" बोला मैं, "अच्छा" बोली वो! "मन नहीं लगा क्या?" पूछा मैंने, "नहीं तो" बोली वो.
"बताओ? मन नहीं लगा?" पूछा मैंने, "मन तो दो साल में भी नहीं लगा" बोली, "अ...म.....हाँ, मानता हूँ" मैंने अटका!
और तभी मेरे फ़ोन पर फ़ोन आया बाबा मैहर का! अब कि कोई खबर पक्की मिलनी चाहिए थी! मैंने सुना फ़ोन, तो अब पता चला कि श्रेष्ठ को बाबा पूरब ने भी समझाया था कि द्वन्द न ही हो तो ठीक है, लेकिन श्रेष्ठ नहीं माना! और आखिर में अमावस की रात निर्धारित की है उसने! अब मुझे ये बताना है कि मुझे ये स्वीकार है या नहीं! मैंने स्वीकार कर लिया! अब मेरे पास नौ दिन शेष थे। बाबा मैहर ने मुझे ये भी बताया कि मुझे क्या क्या आवश्कयता पड़ेगी, वो सारा सामान मिल जाएगा! बात खत्म हुई फिर! तिथि का निर्धारण हो गया था! "क्या हुआ?" पूछा उसने, "मिल गयी तिथि!" मैंने कहा, "कौन सी?" पूछा उसने! "ये अमावस!" बोला मैं! "अमावस?" बोली! "हाँ खेल गया है चाल!" बोला मैं, "कैसी चाल?" बोली वो! "अमावस नव-मातंग के कारण!" मैंने कहा, "अच्छा!" बोली वो! "कोई बात नहीं। खेलने दो चाल!"बोला मैं! "मैं जानती हूँ! मुझे मालूम है!" बोली वो! "हाँ श्रुति! अब ये श्रेष्ठ जान जाएगा! कि दम्भ किसी का नहीं रहा! बाबा धर्मेक्ष भी कुछ नहीं
कर पाएंगे!" मैंने कहा! "जानती हूँ ये भी!" बोली वो! "एक बात और श्रुति! तुम न होती तो मुझे सच में परेशानी होती!" मैंने कहा, "क्यों न होती?" बोली वो! "ये मेरा भाग्य है।" मैंने कहा, "मेरा भी!" वो बोली! मैं मुस्कुरा गया! उसके गाल को छू लिया! वो भी लरजा गयी!
"सुनो, मैं आऊंगा बाद में!" मैंने कहा, "कहाँ?" बोली वो! "आज शर्मा जी के संग महफ़िल जमाऊँगा!" बोला मैं! "अच्छा!! मुझे अकेला छोड़ रहे हो?" बोली वो! "कहाँ अकेला, मेरे संग ही हो तुम!" मैंने कहा, एक बार और उसके चेहरे को छुआ और चला आया बाहर!
आया शर्मा जी के पास! सुट्टा लगा रहे थे आराम से! मैं बैठ गया वहीं! "तिथि मिल गयी!" मैंने कहा, "कौन सी?" पूछा, "ये अमावस!" मैंने कहा, "अमावस? कोई खास वजह?" पूछा उन्होंने, "हाँ, नव-मातंग!" मैंने कहा! "अच्छा! साला हरामी कहीं का!" बोले वो! "जाने दो साले को भाड़ में! आप सामान निकालो!" मैंने कहा, "निकालता हँ" बोले वो,
और मैं पानी आदि के लिए कहने चला गया! आया वापिस, तो सामान थोड़ा मैं लाया था और थोड़ा सहायक रख दिया, और उसके बाद हुए शुरू! "आज मछली बढ़िया लगती है!" मैंने कहा, "हाँ, लग तो बढ़िया रही है!" वो बोले, हमने खायी तो मजा आ गया! बहुत बढ़िया थी! मसाला पूरा बंगाली! "कल से तैयारियां आरम्भ करूँगा मैं" बोला मैं, "यहां?" पूछा, "नहीं" मैंने कहा, "फिर?" बोले वो, "बाबा मैहर के पास है स्थान" बोला मैं, "अच्छा " बोले वो,
और तभी श्रुति आए गयी, फ़ोन लिए हाथ में!
"किसका है?" पूछा मैंने, "बाबा मैहर का" बोली वो! मैंने फ़ोन लिया बातें हुईं, और दे दिया फ़ोन वापिस, चली गयी वो वापिस, "क्या कह रहे थे?" पूछा उन्होंने, "बुला रहे हैं कल" बोला मैं, "अच्छा!" वो बोले, "हाँ, चलते हैं" मैंने कहा, "चलो कल" बोले वो, "कल से श्रुति को भी पोषित करना है मैंने कहा, "हाँ, करना ही होगा!" बोले वो, "वैसे जानती तो है, लेकिन इस बार मामला टेढ़ा है!" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो, तभी सहायक आया अंदर! खाना दे गया था, श्रुति के पहले दे ही दिया था, हमने खाना खाया, और निबट गए हम! फिर मैं श्रुति के पास चला आया!
लेटी हुई थी, "खाना खा लिया?" मैंने पूछा, "हाँ" बोली वो, "हमने भी खा लिया!" मैंने कहा,
और बैठ गया वहीं, समीप उसके! उस रात मैं आराम से सोया! और श्रुति को भी सोने दिया! मुझे अब अमावस की पड़ी थी! अमावस आये और मैं दद्वन्द में उतर जाऊ! जानता था, कि श्रेष्ठ सबकुछ दांव पर लगा देगा! दम्भी लोग यही किया करते हैं, और वो तो औघड़ था, भला वो कैसे चूकता! साम,दाम,दण्ड, भेद, सारे हथकंडे अपनाता वो। ऐसे औघड़ कब अपने नियम भंग कर दें, कुछ पता नहीं रहता! अतः सावधान रहना ही पड़ता है। और फिर ये तो वैसे भी एक बिगडैल
औघड़ था, मुझे पता चला था कि उसने एक उड़ीसा के महा-प्रबल औघड़ को रिक्त किया था! तभी से वो अपने आपको श्रेष्ठ नहीं, सर्वश्रेष्ठ समझता था! सुबह हुई!
हम सभी फारिग हए! सामान बाँधा अपना, और चाय पी, नाश्ता किया, उसके बाद, बाबा देवज से आज्ञा लेने पहुंचे! अरुण भी मिला, अरुण ने अपनी गाड़ी से छोड़ने को कहा, ये बढ़िया हुआ था। हम आधे घंटे में ही निकल गए थे वहाँ से रास्ता तो बढ़िया था, लेकिन एक दो जगह पेड़ टूटे पड़े थे, उन्हें हटाने में काफी समय लग रहा था हटाने वालों को, कुल एक घंटा खराब हो गया था हमारा!
और हम पहुँच गए वहां! मैं अरुण को भी साथ ही ले आया था अंदर! अंदर हम पहुंचे तो अपने कक्ष में गए, हाथमह धोये और फिर बैठे! शर्मा जी चाय के लिए कहने चले गए थे! चाय आई, और हमने पी! "यहां जगह कम है" बोला अरुण, "कामचलाऊ है यार!" मैंने कहा, "एक जगह दिखाऊं?" बोला वो, "कहाँ है?" पूछा मैंने, "यहां से दस किलोमीटर होगी" बोला वो, "ये तो कोई दूर नहीं" मैंने कहा, "खुला स्थान है, बढ़िया है!" बोला वो!
"देख लेते हैं!" मैंने कहा, "चलें फिर?" बोला वो, "अभी बाबा मैहर आने वाले हैं।"मैंने कहा, "अच्छा!" बोला वो, बाबा को फ़ोन कर ही दिया था मैंने, आने ही वाले थे वौ!
और फिर बाबा आये कोई घंटे के बाद,संग चंदा भी थी, सारा सामान भी ले आये थे अपना, बाबा से मुलाकात हुई अरुण की, अरुण ने परिचय दिया अपना, अपने पिताजी का, पहचान गए बाबा उन्हें! और उसके बाद बाबा से मैंने अरुण की जगह देखने के लिए कहा, बाबा मान गए, और इस तरह कोई आधे घंटे के बाद, मैं, शर्मा जी, बाबा और अरुण, श्रुति चल पड़े साथ में ही, जगह देखने, रास्ता बहुत बढ़िया था, हरा-भरा! जंगली इलाका था! आवाजाही बहुत कम थी वहां लोगों की! फिर एक जगह गाड़ी रुकी, एक कच्चे से रास्ते पर चल पड़े, और सामने एक स्थान दिखा! बहुत बड़ा स्थान था ये! "यही है?" मैंने पूछा,
"हाँ" बोला वो, गाड़ी अंदर ली, हम सभी उतरे। "आओ" बोला वो! "चलो" मैंने कहा, और हम चल पड़े! पहुंचे एक जगह! एक व्यक्ति मिला कोई पचास बरस का, अरुण को देख खुश हो गया! अरुण ने परिचय दिया हमारा और कक्ष मांगे! कक्ष मिल गए! दोमंजिला स्थान था वो! और स्थान में, एक बड़ा सा तालाब भी था वहाँ! जा लगे थे, अर्थात मछली वहीं आराम से उपलब्ध थी! "कैसी है जगह?" पूछा अरुण ने! "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, "बाबा मैहर, आप भी यहीं आ जाओ!" बोला अझण! "सही कहते हो, साथ ले आते चंदा को भी!" बोले वो, "मैं ले आऊंगा, आप आराम करें!" बोला वो! अरुण ने एक कक्ष और दिलवा दिया उन्हें! "वो, वहाँ, क्रिया-स्थल है, और यहीं से आपको देशराज श्मशान भी ले जाएगा!" बोला
अरुण! "अरे वाह!" मैंने कहा, "आप आराम करो, मैं लेकर आता हूँ सामान और चंदा को" बोला वो, "मैं चलूँ?" पूछा मैंने, "मैं चलता हूँ" बोले बाबा मैहर, "चलिए फिर, मौसम ठीक नहीं है आज!" बोला वो! सच में, मौसम ठीक नहीं था, आकाश में बादल बन गए थे! कब रिमझिम हो जाए पता नहीं! वे चले गए और मैं श्रुति के कक्ष में चला गया! वो वहाँ नहीं थी, मैंने गुसलखाना देखा, बंद था, शायद अंदर थी, मैं तो जा लेटा बिस्तर पर! उठा, और दरवाज़ा बंद कर दिया और तभी बिजली कड़की! और बत्ती गुल! अँधेरा छा गया वहाँ! एकमेक!
और तभी, श्रुति बाहर आई! उसको देखा, तो मेरे दिल में बिजली कड़की! गीले बाल! दमकता चेहरा! उसका शारीरिक विन्यास! मचल उठा मैं तो! "बत्ती गयी?" पूछा उनसे! "हाँ, मेरी भी!" बोला मैं! हंस पड़ी! मंशा ताड़ गयी मेरी! "इधर आओ!" मैंने कहा, "वो?" बोली, "क्या वो?" पूछा मैंने, "अरे वो, खिड़की?" बोली वो! "अच्छा!" मैंने कहा, कामांध हो गया था मैं! खिड़की खुली थी सामने ही, दीवार में! हालांकि बाहर मात्र तालाब ही था, फिर भी, कुछ कार्य छिपे में ही शोभा देते हैं। जैसे अर्थ-सुख, काम-सुख, पुण्य-संचन, ईष्ट-वंदन! तो यहां मामला काम-सुख का था! "अब आओ?" मैंने कहा,
आ गयी! अपने केश बनाने लगी! और मेरे गर्म हाथ, उसके गीले बदन को खंगालने लगे! "तसल्ली से हड़हा है तुम्हारा बदन बनाने वाले ने!" मैंने कहा, अब जब काम भड़कता है, तो ऐसे ही कुछ चंद अलफ़ाज़ अपने आप जुबान पर चढ़ आते हैं। "अच्छा?" पूछा उसने!
"हाँ!" मैंने कहा, "कैसे?" पूछा उसने! "ये! ये! ये! ये! वो! वो! सब, क्या नक्काशी है!" बोला मैं! हंसती रही!
जानती थी, मंशा क्या है मेरी! बिजली कड़की बाहर "ये देखो!" मैंने कहा, "क्या?" पूछा उसने! "बिजली!" मैंने कहा, "हाँ देखा" बोली वो,
"अरे वहाँ नहीं, यहां!" मैंने दिल छुआ अपना! "क्या इरादा है?" पूछा, "नेक नहीं है।" मैंने कहा, खिलखिलाकर हंसी!
और मुझपर बरसात हुई। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई! काम की चढ़ती लहरें, किनारा छोड़ चली! "आता हूँ" मैंने कहा,
और दरवाज़ा खोल दिया! बाहर, अरुण था, मुस्कुराया! "आ गए सब! आओ मेरे साथ, यदि!!" बोला वो! "हाँ चल यार!" मैंने कहा,
और चल पड़ा संग उसके मैं! ले आया एक जगह! "ये लालचंद हैं, संचालक" बोला वो, "अच्छा!" मैंने नमस्कार की! "कोई भी ज़रूरत हो, तो इनसे कहिये!" बोला वो! "हाँ ज़रूर!" बोला मैं।
और बरसात आरम्भ हो गयी!! और मेरी, सूख चली! "देसू भाई?" बौला अरुण, "हाँ जी?" बोला देसू, "वो आज, ज़रा तड़केदार माल लगाना!" बोला अरुण! "जी! ज़रूर!" बोला वो! "और हाँ, बढ़िया सा सामान लाओ ज़रा?" बोला वो! "लाता हूँ" बोला देसू और ले आया बढ़िया सा माल! "और तड़केदार में क्या देर?" पूछा अरुण ने, "पता करता हूँ" बोला वो!
आवाज़ दी एक महिला को, बंगाली भाषा में बात हुई, और चली गयी महिला! "बैठ जाओ!" बोला वो!
हम बैठ गए! एक जगह! "अभी आता है माल! ले जाओ, और आराम से 'जम्पर' जोड़ो!" बोला अरुण! मैं हंस पड़ा! बहुत तेज! दरअसल हम कुछ चुनिंदा लोग ही ये शब्द 'जम्पर जोड़ना' प्रयोग करते हैं। "कहाँ यार! अब तो बाद में!" मैंने कहा, "वैसे एक बात है!" बोला वो! "क्या?" मैंने पूछा, "लम्बे कद का फायदा ही फायदा है!" बोला वो! "कैसे?" पूछा मैंने, मैं जानता था, वो कुछ शैतानी तो करेगा ही! "अरे हमें देखो! साढ़े पांच फ़ीट तक ही रुक गए! अब क्या करें!" बोला वो! "तो?" पूछा मैंने, "अरे भाई! टक्कर बराबर की ही न हो तो क्या फायदा!" बोला वौ! मैं हंस पड़ा फिर से!
और कोई बीस मिनट में सामान आ गया! तड़केदार! वैसे ये तड़केदार तो नहीं था, तला हआ था, चार मछलियाँ थीं, मोटी मोटी, देखने से ही बेहतरीन लग रही थीं! "देसू?" बोला वो, "पानी भिजवा दे कमरे में" बोला वो, "अरे सुन अरुण? साथ ले न हमारे?" मैंने कहा, "मुझे क्यों पीसते हो, मैं क्या करूँगा?" बोला वो! "अबै शर्मा जी और मेरे साथ!" मैंने कहा, "अच्छा! हाँ ठीक है फिर" मैंने कहा, "देसू, ये दोनों सामान और भिजवा देना अंदर, वो उस कमरे में!" बोला वो! "हाँ, भिजवाता हूँ" बोला वो! हम उठ चले, अरुण ने सामान पकड़ा और चला, "कह दो भाई अंदर!" बोला वो! "अच्छा, हाँ!" मैंने कहा,
और चला गया अंदर श्रुति के कमरे में! बत्ती थी नहीं, मोमबत्ती जल रही थी! "वो मैं, अरुण और शर्मा जी के साथ हूँ कमरे मैं!" मैंने कहा, "और जो मैं डर गयी तो?" बोली वो!
मज़ाक में! "तुम और डर जाओ!" मैंने कहा, मुस्कुरा पड़ी! "बरसात तेज यही, है न?" बोली वो, "हाँ, चादर चाहिए?" मैंने पूछा, "नहीं, ज़रूरत नहीं!" बोली वो! "ठीक है, आता हूँ फिर" मैंने कहा, "अच्छा, जाओ!" बोली वो, "दरवाज़ा बंद कर लो!" मैंने कहा, उसने दरवाज़ा बंद किया और मैं चला वहां से, चंदा आ रही थी, श्रुति के पास के लिए, मुस्कुराई और गुजर गयी! मैं कमरे में आ गया। चार चार मोमबत्तियां जलवायीं थी शर्मा जी ने! सामान तैयार था ऊपर से! "आओ!" बोले शर्मा जी! मैं बैठ गया!
और हम हो गए शुरू! "ये जो श्रेष्ठ है, ये धर्मेक्ष का ही पुत्र है न?" बोला अरुण, "हाँ" मैंने कहा, "अच्छा! साला ऐसा बना गया अब!" बोला वो! "ऐसा? मतलब?" बोला मैं, "पहले गिण था साला!" बोला वो! "गिण?" मैंने कहा, "हाँ, गिण! कपाल बेका करता था!" बोला वो! "अच्छा?" मैंने हैरत से पूछा, "हाँ, बाबा धर्मेक्ष से इसके संबंध भी ठीक नहीं थे।" बताया उसने! "अच्छा!! समझा!" मैंने कहा, "फिर पाँव पड़ा ये अपने पिता के!" बोला वो, "तो फिर महापात्रा बाबा को कैसे रिक्त किया इसने?" मैंने पूछा, "ये अकेला नहीं था, साथ में दो और थे" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने, "खचेडू नाथ और काजिया सरभंग!" बोला वो! "अच्छा!! समझ गया!" बोला मैं! "समझे आप?" पूछा उसने! "हाँ, समझ गया अब!" बोला मैं! "और अब भी ये काजिया को ही लाएगा!" बोला वो! "हम्म! ठीक ठीक!" मैंने कहा, "एक काम करना, मृत्युमक्ष से पोषित रखना साधिका को, बस!" बोला वो! "अच्छा!" मैंने कहा, "वो काजिया साधिका को ही मारेगा सबसे पहले!" बोला वो! "अच्छा! साला कमीन!" कहा मैंने! "महापात्रा के संग भी यही हुआ था, करुवाहिलि के शिकार हुए थे!" बोला वो! "समझा!" बोला मैं! "एक बात और बताऊँ?" पूछा उसने! "क्या?" मैंने पूछा, "आपकी साधिका को भेंट चढ़ाएगा वो अपनी देवी को!" बोला वो! प्रचंड!
अति-प्रचंड! "क्या?" मैंने पूछा, "सच!" बोला वो! "हाँ महापात्रा की साधिका, ऐसे ही भेंट चढ़ी थी!" बोला वो! "तुझे कैसे पता ये सब?" पूछा मैंने, "खचेडू नाथ के पुत्र से!" बोला वो! "ओह!" मैंने कहा, "अभी कोई तीन ही वर्ष हुए हैं!" बोला वो!
और बाहर बिजली अर्रायी! जैसे छत पत ही गिर जायेगी आज!
और मुझे, वो श्रुति याद आई! उसका भोला सा चेहरा! बड़ी बड़ी आँखें!
बेचारी बिन सोचे-समझे कूद पड़ी थी मेरे संग दावानल में! "मृत्युमक्ष से पोषित रखना बस!" बोला वो! "हाँ! निश्चित ही!" मैंने कहा,
और फिर से बिजली कड़की! "अरे क्या यहीं उतरेगी?" शर्मा जी बोले! "पता नहीं!" मैंने कहा, गिलास और खींचे! मुझे तो अब उस, मेरी साधिका की चिंता ने और आ घेरा! मैं तो अब कल से ही उसको पोषित करने की सोच रहा था। "कहाँ खो गए?" पूछा शर्मा जी ने! "कहीं नहीं खोया मैं, कुछ सोच रहा था बस" मैंने कहा, "किस बारे में?" बोले वो, "नहीं,
