मैं जान गया!! तभी जान गया!!
मैं झट से भागा, अपनी साध्वी पर आ लेटा!
और तभी!
बड़े बड़े से पत्थर गिरने लगे!
नीचे! धम्म धम्म!
यही तो चाहता था वो, कि मेरी साध्वी पैर गिरें और उसकी इहलीला समाप्त हो!
मैंने अपना त्रिशूल अपने सीने पर रखा!
ढका अपनी साध्वी को!
और जब पत्थर गिरते मेरे ऊपर, तो फट जाते!
फटते ही, चूर्ण हो जाते, उनका रेत सा बन जाता, मेरी देह पर, रेत ही रेत आ बिछता!
अब न बर्दाश्त हुआ मुझसे!
न हुआ!
"सरभंग?"" मैं चिल्लाया!
लेकिन आवाज़ में अवरोध आया!
अवरोध!!
मैं जान गया!
मैं फिर से जुट गया आह्वान में!
और अगले ही क्षण!
अगले ही क्षण!
नीले रंग के पुष्पों की बरसात होने लगी!
वो पत्थर! वो सारे पत्थर,
उस मंडल में विलीन होने लगे!!
मैं जुटा आह्वान में, और प्रखर हुआ!
आकाश जैसे चिर गया था उस समय!
जैसे, आकाश के दो रंग थे!
एक श्याम, और एक नील!!
नील, जैसे वहीँ झुक चला था!
और फिर!
फिर, वर्षा सी हुई!
शीतल जल की वर्षा! मेरा शरीर, हल्का होने लगा!
द्ववंद की, अब तक की, सारी थकावट, जाती रही!
मैं उठ गया था तब! अपनी साध्वी से भी!
आह्वान सफल होने को ही था अब!
सरभंग के होश फ़ाख़्ता थे! उसके सारे अवरोध धूसर हो चले थे! श्रेष्ठ आँखें बंद किये शूलधरणी के आह्वान में मग्न था, बस यही सरभंग अपने प्रपंचों से बाज नहीं आ रहा था! आता भी कैसे, उसने सीखा ही नहीं था ऐसे प्रपंचों से बाज आना! ते सरभंग तो अपने ही गुरु की पीठ में छुरा भोंक दें! और पता नहीं श्रेष्ठ ने क्या लालच दिया था इस सरभंग को, जो ये, यहां चला आया था! बाबा महापात्रा भी इस श्रेष्ठ को धूल चटा देते, अगर ये सरभंग काजिया न रहा होता! इसी ने उदमेक क्रिया से उनकी साधिका को पीड़ित कर मार डाला था, किसी शक्ति के आह्वान के समय, और तभी से वे द्वन्द हारने के कगार पर धकेल दिए गए थे! लेकिन मैं सब जान रहा था, इस धूर्त के सारे प्रपंचों से अवगत था! ये क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, ये मुझे मालूम था! मेरी साध्वी शांत बैठी थी, अलख में ईंधन झोंकती हुई! उसको देखता मैं तो मुझे मेरा ही हिस्सा लगती वो! जैसे मैं ही अलख में ईंधन झोंक रहा हूँ! वो इतनी तत्परता से मेरे संग थी कि जैसे ये द्वन्द उसी का है! वो जब चाहे, द्वन्द छोड़ सकती थी! जब चाहे! लेकिन नहीं, नहीं छोड़ा था उसने वो द्वन्द! वो लड़ रही थी, मेरे लिए! और मैं, लड़ रहा था इन दो दुष्ट मनुष्यों से जो किसी का भी अहित करने से नहीं चूकते! लेकिन आज मैं था सामने उस श्रेष्ठ के! और फिर, मेरे श्री श्री श्री भी मुझे देख रहे थे! मेरा बल तो वैसे ही चार गुना हो चला था! अब सामने ये श्रेष्ठ हो या फिर कोई अन्य सर्वश्रेष्ठ, मुझे बस द्वन्द लड़ना था! हाँ, मैं नियमानुसार ही अब तक लड़ रहा
था! नियम के विरुद्ध जाने से व्यक्ति कायर कहलाता है! इस से तो मरना भला! लेकिन कायर कहे कोई, तो सारी जी ज़िंदगी पर लानत है!
"धरणा?" चीखा श्रेष्ठ!
खड़ा हो गया था त्रिशूल लिए!
आकाश को देखते हुए, चीखे जा रहा था!
"धरणा?" बोला वो! और जा बैठ फिर से अलख पर!
और उस क्षण! उस क्षण सुनहरी प्रकाश फूट पड़ा अलख से! प्रकाश फैला, सघन हुआ और दीर्घ भी! और छा गया उस स्थान के ऊपर! उसमे, बिजलियाँ सी कड़क रही थीं! नीली नीली बिजलियाँ! यही पहचान है और चिन्ह है उस शूलधरणी के आगमन का! वो सरभंग, दौड़ के खड़ा हो गया था उस प्रकाश के नीचे! और देखने लगा आश्चर्य से! फिर दौड़ के आया आगे, और घंटियाँ बजाने लगा!
"खेड़ा?" बोला वो!
मैं चुपचाप सुनता रहा उसे!
आह्वान में लीन ही रहा!
"देख! देख काल!! काल आया काल! तेरा काल आया!" बोला सरभंग! और तभी मेरे यहां भूमि पर धप्प धप्प फूल गिरने लगे! नीले रंग के फूल! बीच बीच ने श्वेत पुष्प भी थे! बहुत तीक्ष्ण सुगंध थी उनकी! और ये सुगंध, उस सरभंग तक पहुंची! थूकने लगा वो! भागा सीधा अलख पर! और जा बैठा इस बार!
और तभी मेरे यहां प्रचंड शोर हुआ! जैसे पत्थर गिर रहे हों! भू-स्खलन हो रहा हो! जैसे भूमि फटने वाली हो! मैं हिलने लगा था, भूमि में कम्पन्न मची हुई थी! और फिर सब शांत! एक श्वेत सा प्रकाश फूटा शून्य में से, और पंचकोणिय रूप में आ गया! जैसे कोई शक्ति-यंत्र! मैं खड़ा हुआ, भागा आगे, और बैठ गया नीचे, एक मुद्रा में, आह्वानिक मुद्रा में! और तब, मुझे दो स्त्रियां दिखाई दीं! महासुरिक स्त्रियां! हाथों में खड्ग धारण किया! बलशाली, व्याघ्रचर्म धारण किया, गले में असंख्य अज्ञात अवयवों की मालाएं धारण किये हुए! ये सहोदरियां थीं उस षोड्षासुरी की! मैंने प्रणाम किया उन्हें! उनका रूप अत्यंत ही रौद्र और भयावह था! मेरे कद के बराबर तो उनकी पिंडलियाँ ही थीं! आगमन हो चुका था मेरी आराध्या का! बस कुछ पल और, और फिर!!
और वहां!
वहाँ वो सुनहरा प्रकाश फट पड़ा! जैसे उस प्रकाश की श्लेष्मा उस स्थान पर चढ़ चली! और देखते ही देखते, सहोदरियां प्रकट होने लगीं! उनकी प्रधान सहोदरी श्रीखण्डा सम्मुख हुई! कैसा अद्वितीय रूप था उस श्रीखण्डा का! कैसी विशाल देह! कैसा अद्भुत प्रदीप्त प्रकाश था उसके चारों ओर!
श्रेष्ठ भागा! भोग सम्मुख किया उसने! और आंसू फूटे आँखों से!
कह सुनाया श्रीखण्डा को अपना दुखड़ा!
श्रीखण्डा ने उद्देश्य जाना!
और अगले ही पल, मेरे यहाँ हरे सुनहरे प्रकासश में लिपटी हुईं, उप-सहोदरियां प्रकट हो चलीं! लेकिन! षोड्षासुरी की प्रधान दोनों ही उप-सहोदरियों ने आगे क़दम बढ़ा दिए! आसुरिक शक्तियों से भरी हुईं वो दोनों सहोदरियां खड्ग उठाये बढ़ीं आगे! और अगले ही पल! अगले ही पल वे उप-सहोदरियां लोप हो गयी! वहां! वहाँ प्रकाश अवशोषित हो चला और श्रीखण्डा लोप हुई! मेरे यहां प्रकट होते ही उनका प्रकाश अवशोषित हुआ और सीधा मेरी अलख में! अलख ने मुंह फाड़ा सुरसा की तरह! और मैं खड़ा हुआ! गुणगान किया मैंने अपनी आराध्या षोड्षासुरी का! और फिर वे मेरा उद्देश्य पूर्ण कर, लोप हो चलीं!
निकल गयी हाथ से शूलधरणी!
हो गया खाली पात्र इस से!
नहीं संभाल पाया वो श्रेष्ठ उसे!
पराजित के पास कभी नहीं ठहरती शूलधरणी!
मेरा तो सीना चौड़ गया!
मैं भागा सीधा अपनी साध्वी के पास!
वो मुझे आते देख, खड़ी हो गयी थी!
मैंने भर लिया बाजुओं में उसे!
उठा लिया ऊपर! और चूमने लगा!
वो समझ गयी थी कि मैंने काट दिया है कोई प्रबल वार उस श्रेष्ठ का!
"साधिके! साधिके! शूलधरणी! शूलधरणी!" मैंने कहा,
और लिपट गयी वो मुझसे!
मैंने छोड़ा उसे!
बैठा अलख पर!
और लड़ाई देख!
श्वानों से घिरे किसी श्वान की तरह से हालत थी श्रेष्ठ की!
आँखें फ़टी थीं!
मुंह खुला था!
उसकी साधिका, अचेत लेटी थी!
वो सरभंग, समझा रहा था उसे कुछ!
लेकिन किसी हारे जुआरी की तरह से हालत हो चुकी थी उसकी!
''श्रेष्ठ?" मैं चिल्लाया!
और वो डरा!
"समय है अभी भी!" बोला मैं!
अवाक था वो!
"मान जा! चला आ! चला आ!" बोला मैं!
खड़ा हुआ!
और थूका सामने!
नहीं मानेगा वो हार!
चाहे कितने ही परकोटे ढह जाएँ, नहीं मानेगा हार!
"धरणा?? कहाँ है धरणा?" पूछा मैंने!
चुप!!
"बता? मूढ़! मूर्ख! जान जा!" बोला मैं!
"खेड़ा?" सरभंग खड़ा हुआ!
"क्या समझता है?" बोला वो!
"बौड़म! मान जा!" बोला मैं!
"खेल देखना है?" बोला वो!
धमकी दी मुझे!
"तू दिखायेगा?" मैंने कहा,
"हाँ, देखना है?" बोला वो!
"हाँ, बौड़म! हाँ! चल, आ आगे! चल!" बोला मैं!
"देख अब तू काजिया का खेल!" बोला वो!
"सुन काजिया!" मैंने कहा,
"बोला खेड़ा?" बोला वो!
"तेरे बस में जो हो, सर्वोत्तम! दिखा, क्योंकि अब ये तेरा अंतिम वार होगा!" बोला मैं!
हंस पड़ा!
ठहाके मारे!
"चल! देखा खेल बौड़म!" मैंने कहा,
अब सरभंग ने केश खोले अपने!
पोटली उठा के लाया सामान में से!
रखी नीचे, और खोला उसे!
इंसानी कलेजा निकाला उसने!
काटा उसको दो भागों में!
एक का भक्षण किया,
और एक, सामने अलख में उतार दिया!
खड़ा हुआ!
पेट पर हाथ मार उसने अपने!
और कर दी उलटी नीचे उसने!
हंसा! और बैठ गया!
अब उस उलटी को हाथ में उठाया! और लगाया अपनी बगलों में!
सरभंगी महाक्रिया!!
उठा, अलख तक आया! और अब जपने लगा मंत्र!
मित्रगण!
मेरी साध्वी चीखी बहुत ज़ोर से!
अपने कलेजे पर हाथ रखते हुए! अचेत हो गयी!
और वो, सरभंग, अपने हाथ में रखी हड्डी, नचाता रहा हवा में!
मेरी साध्वी हवा में उठ गयी!
करीब दो फ़ीट! गर्दन और टांगें लटक गयीं उसकी!
मैं भागा उसके पास, और जैसे ही हाथ लगाया, मुझे झटका लगा,
मैं पीछे जा गिरा!
अब चढ़ा मुझे क्रोध!
"सरभंग??" चीखा मैं!
और उसने ठहाके लगाए!
"अंत हुआ तेरा अब!" बोला मैं!
और बैठ गया अलख पर!
खंजर उठाया अपना, और अपनी जिव्हा में घुसेड़ दिया! रक्त के छींटे टपक पड़े! अलख में!
मैंने मंत्र पढ़े, अलख में रक्त का भोग दिया, रक्त बहे जा रहा था, मैंने मुंह बंद किया, और मंत्र पढ़ा, ऑफर उठा, और गया साध्वी के पास, वो अब घूमने लगी थी, इस घूर्णन के कारण ही वो मर जाती, मैं आया उसके पास, और कुल्ला कर दिया रक्त का उसके ऊपर, घूर्णन बंद हुआ और अब उसकी नाभि पर मैंने छोटी ऊँगली रखी, और वो नीचे गिर पड़ी, चोट नहीं लगी थी उसे! लेकिन उस सरभंग का प्रयोग काट दिया था मैंने! मैंने फिर से मन बंद किया अपना, और आया अलख पर, और किया कुल्ला भूमि पर! फिर भस्म चाटी, मंत्र पढ़ा और रक्त बंद हुआ! अब खड़ा हुआ मैं!
"सरभंग?" चिल्लाया मैं!
सरभंग के होश उड़े थे तब!
संग ही संग उस श्रेष्ठ के!
"बस बहुत हुआ खेल तेरा!" कहा मैंने!
सरभंग नीचे गिर पड़ा!
उसे उम्मीद ही नहीं थी कि उसकी महा-क्रिया काम ही नहीं करेगी!
''तूने इस हरामज़ादे का साथ दिया! तूने मेरी साधिका को मारने के कई प्रयास किये! तूने, नियमों के विरुद्ध कार्य किया! अब तू इस दंड का भोगी है! मैं तेरा क्या हाल करने वाला हूँ, जानता है?" बोला मैं!
मुझे क्रोध था बहुत!
अब मद चढ़ा था! औघड़ मद!
अब अलख पर बैठ हुए मैंने वाहुचिका-विद्या का संधान किया! इसका जाप किया! सरभंग के होश पांवों में आये उसे! वो क्षमा मांगता तो छोड़ देता मैं उसे! लेकिन ऐसे सरभंग कहाँ मानने वाले होते हैं! ये नहीं मानते! वो सरभंग भी अपनी जान बचाने के लिए भागा अलख की तरफ! श्रेष्ठ वहीँ बैठा था! झिंझोड़ दिया उसने श्रेष्ठ को! कि उसके प्राण संकट में पड़े हैं, बचाये वो उन्हें! श्रेष्ठ ने हाथ झिड़का उसका, और करने लगा जाप! प्राण-रक्षण जाप! अब मैंने अपने खंजर से ज़मीन पर एक आकृति काढ़ी, वाहुचिका-विद्या से संचारित किया उसको! रक्त के छींटे दिए! और वो औघड़, कांपा अब! वाहुचिका-विद्या को काटने के लिए उसको कम से कम प्रलतयुम-संधि में जाप करना था, और िासा उनसे कभी जीवन में भी नहीं किया था! वाहुचिका-
विद्या प्रबल आसुरिक महाविद्या है! इसको जो चलाता है, एप प्रीं भी दांव पर ;गाने होते हैं, यदि काट हुई, तो विद्या चलाने वाले का ही संहार कर देती है!
"सरभंग?" बोला मैं!
वो चौंका!
खड़ा हुआ!
"खेल ख़त्म!" कहा मैंने!
और उस आकृति की सीधी बाजू में खंजर घुसेड़ा! मालाएं, ज़ख़ीरे, पुंडे, गंडे, ताबीज़, भुजबंध, केशबंध आदि सभी बिखर गए! और एक चीख निकली गले से उसके, उसकी सीधी बाजू में एक छेद हो गया! रक्त की फव्वार फूट पड़ी वहाँ से! उसको पकड़ते हुए, नीचे बैठा वो!
अब मैं हंसा!
उसकी इस हालत पर मैं हंसा!
''सरभंग? बाबा महापात्रा याद हैं?" बोला मैं!
चीखता रहा वो!
और अब दूसरी बाजू में घुसेड़ा वो खंजर!
एक और बड़ा सा छेद हुआ उधर भी!
नसों का गुच्छा बाहर झाँकने लगा उसकी बाजू में से!
रक्त की फव्वार फूट पड़ीं वहाँ से!
और गले से चीख निकली उसके!
मैं खड़ा हुआ! हंसा!
उसकी नकल की!
फिर नीचे बैठा!
हँसते हुए!
और उस आकृति के घुटने की जगह खंजर घोंप दिया!
घुटना फट पड़ा उसका!
नीचे गिरा! टांग उठायी, और घुटना झूल गया!
सिर्फ एक पेशी के सहारे ही जुड़ा रहा टांग से!
रो रो के बेहाल हो गया वो! घुटना थाम भी न सका!
और श्रेष्ठ!
भीगी बिल्ली की तरह से उस सरभंग को तड़पते देखता रहा!
फिर दूसरा घुटना!
मैंने उस आकृति के दूसरे घुटने में खंजर घुसेड़ा!
फट पड़ा घुटना! ऐसा बड़ा छेद हुआ कि आर-पार दिखने लगा!
लहूलुहान हो गया वो सरभंग!
"सरभंग??" बोला मैं!
"खेल खत्म!" कहा मैंने,
और अब घुसेड़ा उस आकृति के लिंग में!
लिंग कट के झूल गया! अंडकोष फट पड़े!
और पीड़ा?
पीड़ा अपने उच्चतम स्तर तक जा पहुंची!
और इस तरह अचेत हो गया वो!
चींटे, कीड़े-मकौड़े भाग पड़े अपनी दावत की ओर!
और लिपट पड़े उसके ज़ख्मों से!
सरभंग का खेल खत्म!
मैंने मारा नहीं उसे! हत्या नहीं करनी थी उसकी मुझे!
वो जीवित रहे, और दुनिया को बताता रहे कि कभी ऐसा नही करना! यही चाहता था मैं!
सरभंग!
अब दूर हुआ!
दूर हुए अवरोध!
दूर हुआ राह का काँटा!
अब सम्मुख मैं और वो श्रेष्ठ!
मैं खड़ा हुआ फिर!
आगे आया!
"श्रेष्ठ?" मैं चिल्लाया!
वो भी खड़ा हुआ!
"श्रेष्ठ? क्या कहता है?" पूछा मैंने!
श्रेष्ठ ने उस सरभंग काजिया को देखा एक नज़र!
"क्या कहता है हरामज़ादे?" मैं चिल्ला के बोला!
कुछ न बोला!
और बैठ गया अलख पर!
लिया रक्त-पात्र!
कुल्ला किया अलख में!
और झोंका ईंधन अब अलख में!
"तू नहीं मानेगा! नहीं मानेगा?" बोला मैं!
मंत्र जपता रहा श्रेष्ठ!
"सुन ले फिर तू!" बोला मैं!
उसने देखा सामने!
"तेरी खेड़क बंद कर दूँ?" पूछा मैंने!
चाहता तो देख बंद कर देता उसकी!
और फिर, वो पर्दे के पीछे ही रहता! कर देता मैं पल में संहार उसका!
आँखें चौड़ गयीं उसकी!
"और सुन! तेरा मैं इस सरभंग से भी बुरा हाल करूँगा!" कहा मैंने!
नहीं माना!
मैं हंसा! और अट्ठहास किया मैंने!
और बैठ गया मैं भी अलख पर!
मेरी साध्वी अभी भी अचेत ही थी!
लेकिन मैं प्रसन्न था, अब कोई संकट नहीं था उसके लिए!
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे!
वाचाल के भीषण स्वर!
"कालप्रिया!"
कालप्रिया!
अपनी सभी बड़ी बड़ी सिद्धियों को दांव पर लगा रहा था ये श्रेष्ठ! अभी बहुत बाण बाकी हों शायद उसके तरकश में! लेकिन बाण भले ही कितने हों! तरकश अभय नहीं! अक्षय नहीं!
अब बुद्धि छोड़ने लगी थी उसका साथ!! पहले विवेक ने त्याग उसे, अब बुद्धि ने छोड़ा! अब श्रेष्ठ भला श्रेष्ठ कैसे रहेगा!
कालप्रिया!
महाचामुंडिका!
कालयुूप-वासिनी! महाशक्ति! कालप्रिया चौंसठ महावीरों द्वारा सेवित है! इसकी सहोदरियां नहीं हैं! इसके ये महावीर, महाभट्ट योद्धा हैं! दुरभट्ट कहा जाता है इन्हे! ये ही चेवाट की भूमिका निभाते हैं! ये भी एक महाशक्ति की शस्त्रवाहिनी शक्ति है! चन्दपाल अस्त्र होता है वो! खड्ग और खड्ग में अर्धचन्द्राकार कटाव ही चन्दपाल कहलाता है! इसी शस्त्र की वाहिनी है ये कालप्रिया! महाचामुण्डिका! सौ रात्रिकाल साधना है इसकी! इकत्तीस बलिकर्म
से सेवित है! जल में आधे डूबकर, इसकी साधना होती है, साधना में मंत्र मन में ही जपे जाते हैं! एक बार साधना आरम्भ हुई तो फिर त्यागी नहीं जा सकती, अन्यथा नाश हो जाएगा देह का!
और ये कालप्रिया, इसको सिद्ध करवाई होगी इसके पिता ने!
इसलिए?
कोई पूछे तो सही बाबा धर्मेक्ष से!
आज वो भी नहीं रहने वाली इसके पास!
और ईंधन झोंका मैंने फिर अलख में!
खड़ा हुआ, साध्वी के पास गया! साँसें सामान्य ही थीं!
त्रिशूल उठाया अपना, अभिमंत्रित किया और छुआ दिया उसके उदर से!
आँखें खुल गयीं उसकी! उठ बैठी वो!
'आओ साधिके!" बोला मैं,
और चला वापिस!
और आ गयी मेरे पास वो! बैठ गयी!
"अलख ज़ारी रखो तुम!" कहा मैंने!
श्रुति अलख में ईंधन झोंके जा रही थी! मैं प्रसन्न था कि वो सरभंग रास्ते से हट गया था! मुझे क्रोध भी था उस पर, किस प्रकार उसने बाबा महापात्रा को हरवाया होगा, ऐसे ही प्रपंच लड़वा कर! और तो और, ये श्रेष्ठ अभी भी नहीं डिगा था! वो मरणासन्न सरभंग सामने पड़ा था, अचेत, कीड़े-मकौड़े रेंग रहे थे उस पर! फिर भी नहीं सोचा एक बार ही कि उसका भी ये हश्र हो सकता है! लेकिन उसको दम्भ था! उसको लगता था कि नव-मातंग महाक्रिया बचा लेगी उसे और मेरा संहार कर देगा वो! इसी क्रिया से पहले उसने कालप्रिया का आह्वान किया था! उसको लगता था कि मैं इस कालप्रिया की काट करने में सक्षम नहीं! लेकिन वो ये नहीं जानता था कि ये कालप्रिया अब उसकी होकर रहने वाली नहीं! वो भी उसके सिद्धि-पात्र से छिटकने वाली है! मैं खड़ा हुआ! अलख में ईंधन झोंका! मांस उठाया, और कलेजी के पांच टुकड़े अलख में झोंक दिए! और फिर आया आगे, त्रिशूल उठाया अपना! और दी थाप भूमि को!
"श्रेष्ठ?" दहाड़ा मैं!
उसने मुंह फाड़ के देखा ऊपर!
"श्रेष्ठ! अभी भी समय है! सम्भल जा!" मैंने कहा,
"नहीं! नहीं! तू होता कौन है? तेरी औक़ात क्या?" बोला वो!
मैं हंस पड़ा उसकी मूर्खता पर!
"समझ जा! अभी समय है श्रेष्ठ!" बोला मैं!
"तुझे जीवित नहीं जाने दूंगा मैं!" बोला श्रेष्ठ! ज़मीन में मुक्के मारता हुआ!
"नहीं मांगेगा तू!" बोला मैं,
और अट्ठहास लगाया!
मैं वापिस आया अलख के पास!
"साधिके?" बोला मैं,
उसने देखा मेरी तरफ!
"मदिरा! मदिरा परोसो साधिके!" मैंने कहा,
उसने कपाल कटोरे में मदिरा परोसी!
मुझे दी! और मैंने ज़मीन में रखा वो कटोरा!
एक मंत्र पढ़ा! और ब्रह्म-कपाल उठा लिया!
अब कपाल को नीचे रखा!
"औंधिया?" बोला मैं!
"ओ औंधिया?" बोला मैं उस कपाल से!
"औंधिया?" चिल्लाया मैं!
"हूऊम!" एक लम्बी सी आवाज़ आई!
"ले! ले औंधिया!" मैंने कहा,
और वो कटोरा रख दिया कपाल के ऊपर!
कटोरे में से मदिरा कम होने लगी धीरे धीरे!
मैंने अट्ठहास लगाया!
"अब जा! तेरी दावत होगी! जा औंधिया!" बोला मैं!
वो कटोरा, कपाल से नीचे गिरा!
चला गया था औंधिया मसान!!
"साधिके?" मैंने कटोरा उठाया,
तो मदिरा परोस दी उसने उसमे!
"आ, इधर आ!" बोला मैं,
वो उठी, खड़ी हुई!
"आ बैठ" मैंने कहा,
और जांघ पर बिठा लिया उसको!
"ले, पी ले!" कहा मैंने!
उसने कटोरा लिया और पी गयी!
कर दिया खाली!
"जा! बैठ जा! अलख जगा!" कहा मैंने!
अब अलख में भोग दिया उसने!
और मैं हुआ तैयार उस कालप्रिया का जवाब देने के लिए!
मैत्राक्षी!
हाँ! मैत्राक्षी!
मैत्राक्ष शब्द एक विशेष प्रकार के प्रेत की ओर इंगित करता है, ये प्रेत देव-गुण सम्पन्न होता है! ये मैत्राक्षी आसुरिक गुणों से सम्पन्न इनकी ईष्ट है!
मैत्राक्षी! एक सहस्त्र मैत्राक्ष प्रेतों द्वारा सेवित है! प्रबल आसुरिक है! इक्यावन रात्रिकाल इसकी साधना का विधान है! निर्जन स्थान पर, सियार के चर्म के आसन का प्रयोग कर, इसकी
