"हे सुर्ना! एक आराध्या! हे देवी! प्रकट हो! प्रकट हो!" बोला वो!
और मेरे यहां!
आकाश से बूँदें गिरीं!
जल की बूंदें!
शीतल जल की बूँदें!
जैसे झरने से गिरा करती हैं!
"हे माँ! हे माँ महामंडया! प्रकट हो! हे विरालनाशिनी! प्रकट हो!" मैंने चिल्ला के कहा!
हम दोनों ही, अपनी अपनी आराध्या को प्रकट करने के लिए सतत थे!
और तभी!
वहाँ, कंटक-बेल गिरने लगीं! झुण्ड के झुण्ड!
अट्ठहास गूंजा!
उन दोनों का अट्ठहास गूंजा!
और उसी क्षण, कुछ महावीर योद्धा और नट-सुंदरियाँ प्रकट हुईं!
वे दोनों, दंडवत हो गए!
मंत्र जपते रहे!
और कुछ ही क्षणों में, आभामंडल से युक्त!
वो ब्रह्मसुर्ना प्रकट हो ही गयी!
मेरी साँसें थमीं तब!
पल भर में, कुछ का कुछ हो सकता था!
कर्ण-पिशाचिनी के कर्कश स्वर गूंजे!
वो चीखी! चिल्लाई!
और वाचाल, वाचाल जैसे मेरी मेरी कमर पर बैठ गया!
मेरा बदन भारी हो चला! साँसें बंधने लगीं!
और गले ही पल! एक श्वेत प्रकाश!
और आकाश से एक दिव्य-सुंदरी का अवतरण हुआ!!
मैं सामान्य हो गया!
भागा आगे, और लेट गया!
दोनों हाथ जोड़ कर!
और तभी, वे महावीर और नट-सुंदरियाँ प्रकट हुईं वहां!
लेकिन, एक एक कर, सब लोप होते गए!
ये था प्रभाव उस महामंडया का!
जी किया, अट्ठहास करूँ!
फट ही पडूँ हँसते हँसते!
बिखर जाएँ आंतें! कोई चिंता नहीं!
ब्रह्मसुर्ना, लौट पड़ी! लौट पड़ी प्रबल वेग के साथ!
मैंने महामंडया का जाप किया!
लेट लेट कर, उसके मंत्र पढ़ता रहा!
भोग अर्पित किया! और उसके बाद, मेरा रक्षण कर, महामंडया लोप हो गयी!
मैं खड़ा हुआ!
देख लड़ाई!
और देखा वहाँ!
आँखें फ़ाड़े वे दोनों आकाश को देख रहे थे! कुछ प्रकाश के कण धूमिल होते जा रहे थे!
मैं अट्ठहास किया तब!
"मूढ़! बौड़म! क्षमा! क्षमा मांग लो!!" मैंने चिल्ला के कहा!
वो सरभंग आगे आया!
थूका उसने घृणा से! और लौटा पीछे!
"श्रेष्ठ! मान जा! लौट जा!" मैंने कहा,
नहीं माना वो! कैसे मानता! अभी तो,
बहुत तीर बाकी थे उसके तरकश में!!
यही तो होता है दम्भ! लील जाता है पूरा का पूरा!
"श्रेष्ठ! समय शेष है!" मैंने कहा,
"ओ खेड़ा! चुप कर!" बोला सरभंग!
"ओ बौड़म! तेरा तो नाश हो ही जाएगा आज!" बोला मैं गुस्से से!
"नाश! नाश! देखता जा!" बोला वो!
छाती पर हाथ मारते हुए! वो घंटियाँ बजाते हुए!
"आगे बढ़ फिर!" मैंने कहा,
और तभी मेरी साध्वी भागती हुई आई!
और लिपट गयी मुझसे! चढ़ गया था मद!
मैंने मंत्र पढ़े! और वो कपाल छुआ दिया उसे!
चीखी! और नीचे गिर गयी! हुई अचेत!
मैं जा बैठा अलख पर! भोग दिया! और मंत्र जपा!
अब लड़ाई देख!
वो सरभंग!
नाच रहा था! बेसुध!
ये आह्वान था किसी का! फू-फू करता हुआ!
और मैं तैयार था! तत्पर! उत्तर देने के लिए उनका!
सरभंग काजिया नाचे जा रहा था! फू-फू करता हुआ हर तरफ थूके जा रहा था! ये वही काजिया था जिसने बाबा महापात्रा की साधिका को मध्य-क्रिया में मार डाला था! ये नियम तोड़ा गया था इस काजिये द्वारा! सरभंग कब क्या कर जाए, इसकी खबर ज़रूर ही रखनी पड़ती है! नज़र हमेशा टिका कर रखनी पड़ती है उस पर! ब्रह्मसुर्ना लोप हो गयी थी! इस से श्रेष्ठ को पहला धक्का पहुंचा था! अभी तो और कुछ भी बाकी था! श्रेष्ठ अलख में ईंधन झोंके जा रहा था और मंत्र पढ़े जा रहा था! ये मंत्र महा-मारण मंत्र थे! अचानक से सरभंग रुका! झुका! सामने देखा! और अट्ठहास लगाया!
मेरे कानों में स्वर गूंजे!
घंट-नटी!!
मुझे आश्चर्य नहीं हुआ!
कोई आश्चर्य नहीं!
सरभंग यहीं से पकड़ करता है! यहीं से वार का आरम्भ करता है! घंट-नटी, मृत शिशुओं के शरीर के अंगों से पूजित है! इसको औघड़ सिद्ध नहीं किया करते! मात्र पांच रात्रि इसका साधना काल है! छठी रात षोडशी रूप में प्रकट हुआ करती है! सरभंग इसको अपनी पत्नी स्वरुप में देखा करते हैं! और नित्य ही संसर्ग किया करते हैं! इस से उनको शक्ति प्राप्त हुआ करती है! इसको सिद्ध करने के बाद, सरभंग के शरीर से दुर्गन्ध निकला करती है, सड़े मांस की, विष्ठा की! औघड़ लोग, ऐसे सरभंगों से दूर ही रहा करते हैं! और ये कई बार पिट भी जाया करते हैं! ये स्वयं ही किसी औघड़ स्थान का रुख नहीं किया करते! इसीलिए ये सरभंग अक्सर दूर ही रहा करते हैं लोगों से! तो अब ये घंट-नटी का आह्वान कर रहा था! सोच रहा था कि उसकी ये घंट-नटी संहार कर देगी मेरा!
मैं हंसा!
मन ही मन!
कैसा मूर्ख है वो!
जो औघड़, महामंडया को प्रकट कर सकता है, वो घंट-नटी से सामना नहीं कर सकता?
मैं हंसा!! ठहाका लगाया!
हंसा इसकी मूर्खता पर!
लेकिन!
चौंका फिर!
चौंक पड़ा मैं!
ओह!
कुशाग्र!
बहुत कुशाग्र है ये सरभंग तो!
अब समझ गया मैं!! समझ गया! कि क्यों उसने घंट-नटी को चुना! मेरी हंसी, मेरे हलक़ के रास्ते मेरे पेट में उतर गयी! और नज़र मेरी पड़ी मेरी साध्वी पर! वो अचेत थी!
अरे वाह रे सरभंग! क्या युक्ति लड़ाई है तूने!
युक्ति ये, कि ये घंट-नटी, मेरा संहार नहीं करेगी!
न! मेरा संहार नहीं!
ये मेरी साधिका में प्रवेश करेगी! और उसको इस लायक ही नहीं छोड़ेगी कि वो मेरे लायक बचे!
दिल धड़का!
पहली बार इस द्वन्द में दिल धड़का मेरा!
अब क्या हो?
अब एक ही तरीका था बस!
कि मेरी साधिका, मेरे संग संसर्ग करे!
इस से, वो घंट-नटी प्रवेश ही नहीं कर पाएगी!
वो संसर्गरत स्त्री में प्रवेश नहीं करती!
नहीं तो, मेरी भी अंकशायनी ही हो जायेगी वो!
चूंकि, अभी वो इस सरभंग की अंकशायिनी है, इसीलिए नहीं प्रवेश करेगी!
मैं बहुत विकट स्थिति में था! बहुत ही विकट!
मैं भागा!
अपना त्रिशूल लिया, भौमसिद्धिका मंत्र से अभिमंत्रित किया, और छुआ दिया उसे!
विद्युत सी प्रवाहित हो चली!
और जाग गयी वो! अब कोई शक्ति नहीं थी उस पर! मुक्त थी वो!
"श्रुति?" मैंने कहा,
मैं घबराया हुआ था!
मुझे उत्तेजना भी नहीं हो रही थी उस समय जो संसर्ग करता!
समय खिसके जा रहा था, और वो सरभंग, हँसे जा रहा था! ठहाके मारे जा रहा था! शायद इसी वार से इस सरभंग ने, उन बाबा महापात्रा को छकाया था और उनकी साध्वी को मार डाला था! यही वजह रही होगी! और अब ये वही कर रहा था! घंट-नटी कब आ जाए, पता नहीं!
"श्रुति?" मैंने कहा,
खींचा उसको और उठा लिया!
भागा अपने आसन पर, ले आया उसको!
मैं लेट गया, उत्तेजना हो, इसीलिए चिपक गया उसके साथ, अंगों से खेलना लगा उसके, उत्तेजना जगी! मैंने मंत्र का भी सहारा लिया और अपने गले में टंगी के बूटी का भी, बूटी का टुकड़ा चबाया, और बिठा लिया उसको अपने ऊपर, ये देख, सरभंग के होश उड़े! मैं भांप गया था उसका इरादा!
सरभंग ने अपना चिमटा फेंक मारा सामने!
श्रुति भांप गयी मेरा इरादा,
और मैं उसके संग संसर्ग मुद्रा में आ गया!
तंत्र में, पुरुष रमण नहीं किया करता!
समझना मेरे मित्रगण!
पुरुष नहीं किया करता!
अपितु स्त्री किया करती है!
मैंने श्रुति को और तेजी से उग्र होने को कहा, जितना उग्र होती, उल्टा ही वेग बनता और वेग बनता तो घंट-नटी नहीं प्रवेश करती! श्रुति उग्र हुई! मेरे वक्ष में नाख़ून गाड़ दिए! मेरी जाँघों में नाख़ून गाड़ दिए, मैं नीचे था वो ऊपर, मेरे कंधों पर अपने पाँव पटकती वो, मेरी आँखें बंद हो जातीं उस समय!
प्रचंड वायु-वेग बहा!
बहुत गरम!
दुर्गन्ध!
असहनीय दुर्गन्ध!
नथुने लगे हमारे!
मुझे स्खलित नहीं होना था! हुआ, तो मेरी साधिका का आज अंतिम समय होता, अंतिम रात्रि होती इस भूमि पर, और मैं, जीवन भर इस दुःख में भरा रहता, कि मेरे कारण श्रुति का अंत हुआ.....
"श्रुति?" मैंने कहा, और एक चांटा दिया उसको गाल पर!
उसने सर हिलाया!
"श्रुति! मेरी श्रुति!" बोला मैं, और खींचे उसके केश!
अपने पास लाने के लिए!
मेरी छाती पर जैसे किसी ने पाँव रखा!
दम सा घुटा मेरा!
और तब!
तब मैंने श्री श्री वपुधारकाय का महा-मंत्र पढ़ डाला!
भयानक सा क्रंदन हुआ!
वजन हल्का हुआ!
और मेरी साँसें नियंत्रित हुई!
श्रुति मेरा मर्दन कर रही थी!
वो बार बार उचक जाती,
मैं पकड़ता उसे! ये बार बार हुआ, और फिर,
फिर मेरे सीने पर गिर गयी वो!
हाँफते हुए! पसीनों से लथपथ हुए!
मैंने भुजाओं में भर लिया उसे!
चूम लिया एक एक अंग!
मैंने, बचा लिया था अपनी साधिका को!
बच गयी थी मेरी श्रुति!
अनुभव क्र. ७७ भाग ४
By Suhas Matondkar on Monday, October 6, 2014 at 9:55pm
बच गयी थी!
मैंने उसको लिटाया नीचे, थक गयी थी श्रुति बहुत, मैं भागा आगे, मदिरा उठायी, और गटक गया तीन चार घूँट! और बैठा लख पर, अब अलख में ईंधन झोंका! रक्त लिया, उस रक्त से एक चतुर्भुज बनाया, फिर एक यंत्र स्थापित किया उसमे! और अब उसकी रक्त से लिपि मिटटी को उठाया, और जा पहुंचा अपनी साधिका के पास! उसको सीधा किया, और उसके वक्ष-स्थल पर एक चिन्ह बना दिया, फिर उदर पर, फिर योनि पर, और फिर घुटनों से नीचे, उल्टा किया, फिर कमर पर, और फिर नितम्बों से नीचे! और सीधा किया! मैं बैठा, और उसको अपने घुटनों पर लिटाया! कमर के बल, अब उस मृत्युमक्ष विद्या को जागृत किया! पल भर में विद्या जारित हुई, आँखें खोिन उस श्रुति ने, मुझे देखा! मैं मुस्कुराया! उठी और मेरे गले लग गयी! जानी या नहीं जानी! लेकिन उस समय प्रेम से भरी थी वो! अभी तक द्वन्द में हमने उन दोनों को पछाड़ा था! अब आगे देखना था कि अब वे क्या करते हैं, मैं चाहता तो अब वार कर सकता था, लेकिन अभी मैं और दमखम देखना चाहता था उस सरभंग काजिया का या फिर उस श्रेष्ठ का!
"यहां बैठो, हिलना मत!" मैंने कहा,
और अपने त्रिशूल से उसके चारों और एक घेरा काढ़ दिया!
एक रक्षा का घेरा!
अब आगे गया!
देख लड़ाई!
तो वो सरभंग अकेला बैठा था वहाँ! अलख के सामने!
और वो श्रेष्ठ, अपनी साध्वी पर कोई क्रिया कर रहा था!
उसी साध्वी, चिल्ला रही थी!
अपने बाल तोड़ रही थी!
खा जाती थी अपने बाल बार बार!
वो खड़ी होती, बैठ जाती, टांगें खोल लेती! मूत्र-त्याग करती!
और वो श्रेष्ठ, उस मूत्र की मिट्टी को उठा लेता!
बनाता उनकी गोलियां! बार बार वो यही करता!
आखिर में, साधिका खड़ी हुई, उस श्रेष्ठ के कंधों पर चढ़ गयी!
श्रेष्ठ उठा! उसको उठाया और ले आया अलख की तरफ! उसको उतारा!
वो खड़ी हुई, और श्रेष्ठ लेटा नीचे,
अब उसके पेट पर खड़ी हुई वो, और बैठ गयी जैसे श्रेष्ठ आसन हो उसका!
श्रेष्ठ, अब आह्वान में लगा! लेकिन कौन सा आह्वान?
न वाचाल ही बोले और न कर्ण-पिशाचिनी ही!
मैं हैरान!
ये कौन सा आह्वान है?
किस प्रकार का?
मैंने तो सुना ही नहीं इस विषय में?
और तभी वो खड़ी हुई!
अलख की तरफ मुड़ी और बैठ गयी उसके पास!
मांस का टुकड़ा लिया, झोंका अलख में और एक शब्द बोली वो, "शूलधरणी!" चिल्ला चिल्ला के!
और तब वाचाल के स्वर गूंजे!
शूलधरणी!
श्रेष्ठ ने अपनी नीचता का परिचय दे दिया था इस शूलधरणी का आह्वान कर! कभी भी शूलशरणी का आह्वान नहीं किया जाता! ये तो महासहोदरी है! एक प्रचंड महाशक्ति की! अब तो साम, दाम, दंड, भेद, सब भिड़ा डाले थे इस हराम के जने ने! क्या खूब नाम निकाला था इसने अपने पिता का! अगर इसके पिता को पता चलता, कि इसने शूलधरणी का आह्वान किया है, तो स्वयं ही उसकी गरदन धड़ से अलग कर देते! या प्रायश्चित करते कि ऐसे पुत्र को जन्म ही क्यों दिया उन्होंने!
शूलधरणी! एक सौ इक्यावन रात्रिकाल साधना है इसकी! प्रचंड महाशक्ति है! इसके पर्यायवाची शब्द तो कई सात्विक ग्रंथों में मिलते हैं! पर ये परम तामसिक है! एक बार को तो मैं भी हिल सा गया था अंदर ही अंदर! तो मैं अब, सोच में पड़ा था कि इसकी काट कैसे करूँ! और तभी मुझे याद आया! मुझे कुछ याद आया! कुछ ऐसा, कि ये शूलधरणी, नतमस्तक हो, लोप हो जानी थी उसके दर्शन मात्र से ही! और सदा के लिए उसके सिद्धि-पात्र से मुक्त हो जाती! और वो है दक्खन की षोड्षासुरी!! महा-तामसिक! महा-रौद्र और महा-भुर्भुजा!
"साधिके?" बोला मैं!
आई मेरे पास!
"आओ!" मैंने कहा,
उसका चेहरा देखा! भोला-भाला चेहरा!
मोटी मोटी आँखों, बस समर्पण भरा!
"लेट जाओ साधिके!" बोला मैं,
लेट गयी तब ही!
मैंने त्रिशूल लिया, अभिमंत्रित किया!
और छुआ दिया उदर से उसके!
वो ऊपर उठी, और नेत्र बंद हो गए उसके!
मैं चढ़ बैठा अब उसके ऊपर!
और दिया अलख में भोग!
और आरम्भ किया महामंत्र!
वहां शूलधरणी और यहां ये षोड्षासुरी!
षोड्षासुरी दक्खन की एक महाशक्ति है! इसके कई कंन्दिर हुआ करते थे, आज भी कई विशिष्ट मंदिरों में, ये महासहोदरी के रूप में मूर्तियां हैं इसकी!
मैंने इसी का आह्वान किया था!
आज पहली बात आह्वान कर रहा था मैं इसका!
मैंने इसका विशाल रूप जब देखा था तो कई दिवस तक, इसमें ही खोया रहा था! दीर्घ-देह है इसकी! रूप में किसी सुंदरी समान! चौंसठ महा-आसुरिक सहोदरियों द्वारा सेवित है! अस्थियों से बना इसका सनिहासन होता है, नीला रंग है, आभा भी नीली है, नीले रंग के पुष्प ही इसके आभूषण हैं!
"काजिया?" मैं चिल्लाया!
"श्रेष्ठ?" चिल्लाया मैं!
अमुक के नाम पर, इन दोनों का नाम बोल दिया था मैंने!
श्रेष्ठ लगा पड़ा था आह्वान में!
चिमटा खड़खड़ाते हुए, त्रिशूल की मुद्राएं बनाते हुए श्रेष्ठ, लीन था जाप में!
मेरी साध्वी सामान्य साँसें ले रही थी!
उसको बार बार देख लेता था!
और तभी!
तभी वो सरभंग उठा!
कुटिल मुस्कान हंसा!
एक कपाल उठाया उसने!
मदिरा परोसी, मंत्र पढ़े और फेंक दिया कपाल सामने!
कपाल चीखते हुए दूर चला गया!
और गिरा मेरे सामने ही!
ये सरभंग विद्या है!
मैं जो बोलता, उसको दोहराता वो कपाल!
स्पष्ट था, ये आह्वान में व्यावधान डालने हेतु था!
मैं खड़ा हुआ!
अपना त्रिशूल उठाया!
बढ़ा उस कपाल की तरफ तो हवा में उड़ा वो!
कभी हँसता! उस सरभंग के स्वर में!
कभी रोता! मेरी साध्वी के स्वर में!
मैं लौटा पीछे!
अलक पर गया!
अलख से एक जलती हुई लकड़ी निकाली,
और अस्थि का एक टुकड़ा लिया!
अस्थि का टुकड़ा उस जलती हुई लकड़ी पर रखा!
और एक ज़ोर दार फूंक मारी! लकड़ी की आग भड़की!
अस्थि ने चटक चटक आवाज़ की!
और तभी!
तभी वो हवा में खड़ा कपाल!
फट पड़ा! चूर्ण हो, भूमि पर आ गिरा!
चूर्ण में, आग लग गयी उसी क्षण!
वो कपाल चूर्ण हो, जल गया था! और अब आँखें फट चली थीं उस सरभंग की! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा उसके साथ! वो आह्वान में बाधा डाल रहा था! मैं चाहता तो श्रेष्ठ को आह्वान करने ही नहीं देता! लेकिन ये नियमों के विरुद्ध था! ऐसा करना सबसे बड़ी कायरता थी! द्वन्द है तो द्वन्द के नियमों का पालन आवश्यक है! और तो और, उस खण्डी को, जो उसकी साधिका में थी, मैं चाहता तो हटा सकता था, साधिका का दम घोंट सकता था, या उसकी देह के समस्त छिद्रों से रक्त बहा सकता था, और जब रक्त शुष्क होता तो मज्जा बहने लगती उन छिद्रों से! लेकिन ये सब, मुझे सिखाया ही नहीं गया था! मैं तो अपनी राह पर अडिग था! हाँ, ये सरभंग, अब चुभने लगा था मुझे मेरी आँखों में! मैं आह्वान में सतत लीन था! आह्वान भी करता और रक्षण भी करता! नज़ेन वहीँ चारों ओर टिकी रहतीं और मस्तिष्क में षोड्षासुरी का आह्वान रहता! पल पल में कई बार अपनी साध्वी को देख भी लेता था मैं! मैं नहीं चाहता था कि उसको कोई कष्ट हो! मेरे एक बार कहने पर वो, अपने प्राण मेरे भरोसे, काल के तराजू में रख चुकी थी! मैं बार बार उसके केश सही करता! नथुनों पर ऊँगली रख, उसकी गरम साँसें महसूस करता था! कान, किसी भी आवाज़ पर, श्वान जैसी प्रतिक्रिया करते थे!
"खेड़ा?" आवाज़ आई!
ये सरभंग था!
"हराम**! क्या समझता है तू?" बोला वो!
मैं शांत ही रहा!
थोथा चना बाजै घना!
"धन्ना! आज धन्ना पछतायेगा कि क्या सिखाया उसने तुझे!!" गला फाड़ के चीखा वो!
उसने दुर्मुख से अपने दादा श्री का नाम सुन, मैं बिफर पड़ा!!
जी किया, अभी टुकड़े कर दूँ इसके!
भक्षण कर जाऊं इसके कलेजे का मैं!
आँतों से रस्सी बना, जूतियां बनाऊँ इसके चर्म की!
अपमान के घूँट पी गया मैं!
कड़वे घूँट!
कालकूट जैसे अपमान के घूँट!
लेकिन मेरी भुजाएं फड़क उठीं थीं!
मैंने अपने आपको, अपने आप में रखा!
"धन्ना? ओ धन्ना?" बोला वो सरभंग!
मेरे सीने में धरे दिल में आग लगी तब!
ऐसा निःकृष्ट मनुष्य?
ऐसा निःकृष्ट?
फिर समझाया!
यही तो चाहता है वो!
यही!
तभी तो भड़का रहा है मुझे!
मैंने आँखें बंद कर लीं अपनी!
"धन्ना?? ********", गालियां दीं उसने!
मैं खड़ा हो गया!
गुस्से में फफक उठा!
आँखें खोल दीं!
देख लड़ाई!
और तब!
तब क्या देखा!
तभी जैसे किसी ने उस सरभंग की पीठ में लात जमाई किसी ने!
"हूँ??" बोला वो!
और आगे जा गिरा!
उठा, आसपास देखा,
कोई नहीं!
लेकिन!
था!!
था वो!
पेवाल!
मैं जान गया था कि कौन!
पेवाल!! मेरे श्री श्री श्री का भेजा हुआ पेवाल!!
मैंने तभी श्री श्री श्री को हाथ जोड़े!
भूमि पर गिरा, आंसू निकलने लगे मेरे!
पल पल मुझे देख रहे थे मेरे श्री श्री श्री!!
सरभंग उठा!!
चौंकते हुए!
आगे बढ़ा, अलख तक आया! अपनी जीभ निकाली बाहर!
खंजर लिया!
और बींध दी अपनी जीभ अलख में!
चर्रा पड़ी अलख!
दौड़ पड़ी उस सरभंग की तरफ!
सरभंग उठा! खून सना खंजर लिया!
चाटा उसे!
और अपनी जांघ में घुसेड़ लिया!!
