"यथस की सौगंध, ऐसे नहीं लौटना!" बोले वो!
"नहीं लौटूंगा!" कहा मैंने!
"जाओ! विजयी हो कर आओ!" बोले वो!
और दे दिया आशिर्ववाद उन्होंने!
जोश भर उठा!
और मैं चल पड़ा आगे श्मशान में! अपनी साध्वी संग!
चिताएं जल रही थीं!
धुंआ नहीं था उनमे अब!
बस दहक रही थीं!
उनका ताप हम अपने बदन पर महसूस कर सकते थे!
और हम पहुँच गए उस ठान पर, साफ़ किया गया था वो! आसपास पेड़ लगे थे बड़े बड़े! आकाश काला था उस समय! भक्क काला!
मैंने सामान रखा, और वे चार कपाल निकाले! मदिरा के छींटे दिए! उनकी खोपड़ी थपथपाई मंत्र पढ़ते हुए! और चारों दिशाओं में ऐसे रखे, कि हमें देखते रहें वो!
अब आसन बिछाया!
साध्वी को बिठाया उस पर!
फिर भोग सजाया!
थाल, भोग-थाल!
दीप जलाये, सत्रह दीप!
अलग अलग रखे वो और एक चौमुखी, अपने सामने रखा!
उसके सामने रखा ब्रह्म-कपाल!
त्रिशूल उठाया! मंत्र पढ़े और गाड़ दिया अपने दायें!
और वो शिशु-कपाल, टांग दिया उस पर!
अब अपनी साध्वी का श्रृंगार किया! एक एक अंग का श्रृंगार! रक्त से श्रृंगार! भस्म से श्रृंगार! और तंत्राभूषण करवा दिए धारण!
और तब, तब मैंने श्रृंगार किया! भस्म-स्नान किया! रक्त लेपन किया! और एक महानाद किया!
और उठा दी अलख!
अलख निरंजन!!
साधिका की ओर मुड़ा मैं!
"साधिके?" मैंने कहा!
"हाँ!" बोली वो!
"भय तो नहीं?" पूछा,
"नहीं!" बोली वो,
"संशय?" पूछा,
"नहीं!" बोली वो!
"साधिके?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली,
"पहले मैं गिरूंगा! फिर तुम!" बोला मैं!
चुप रही!
"सुन ले!" मैंने बोला,
देखा उसने मुझे!
"जाना हो, तो जाओ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो!
"जैसा कहूँगा.." बोला मैं,
"करुँगी!" बोली वो!
अब उसका पूजन किया!
वो शक्ति का स्वरुप है!
महा-शक्ति का! पूजन आवश्यक है!
"अब मैं होता हूँ तल्लीन! क्यों साधिके?" बोला मैं!
"अवश्य!" बोली वो!
और तब!
गुरु नमन!
श्री महाऔघड़ नमन!
मैंने स्थान-पूजन किया!
श्मशान पूजन!
अलख पूजन!
कपाल-पूजन!
दिशा पूजन!
और तब!
तब मैंने अपने वाचाल महाप्रेत का आह्वान किया!
आधे घंटे में, श्मशान अट्ठहास से गूँज उठा!
भयानक अट्ठहास!
हर दिशा में!
हर दिशा में!
सीना फाड़ देने वाला अट्ठहास!
और प्रकट हुआ वाचाल! और हुआ मुस्तैद!
उसके बाद,
कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया!
पौने घंटे में, वो भी प्रकट हुई!
अग्नि के गोले पृथ्वी पर डोलने लगे!!
और भोग पश्चात, हुई मुस्तैद!
कुछ प्रश्न किये उसने! और मैंने उत्तर दिए उनके!
भयानक पीड़ा हुई शरीर में, वायु-गोला उठ पड़ा पेट में! लगा फट ही जाएगा पेट! और अब मुस्तैद हुई वो पूर्ण से!
और फिर लड़ाई देख!
तो क्या देखा!
एक बड़ी सी अलख उठी हुई थी!
दो औघड़!
दो औघड़ बैठे थे वहां!
एक को तो मैं पहचानता था, वो श्रेष्ठ!
और वो दूसरा काजिया!
कैसा विशाल था काजिया!
साढ़े छह-सात फ़ीट का तो होगा ही! सच में! विशाल शरीर था उसका!
साठ साल का लगता था! बदन पर बाल ही बाल थे उसके!
अस्थियां ही अस्थियां धारण की हुई थीं उसने!
किसी जाप में लीन था वो!
और वो श्रेष्ठ, अलख में ईंधन झोंक रहा था!
देख पकड़ी उस काजिया ने!
खड़ा हुआ!
अट्ठहास किया और रक्त-पात्र उठाया!
फोड़ दिया भूमि पर और आ बैठा उस भूमि पर!
एक साध्वी थी वहाँ! वो ज़रा दूर बैठी थी! धुत्त!
शायद किसी शक्ति की सवारी थी उस पर! झूमे जा रही थी!
काजिया खड़ा हुआ!
त्रिशूल उठाया अपना, और दहाड़ मारी!
अट्ठहास किया!
और तीन बार! तीन बार उसने!
भूमि को थाप दी! तीन बार!
और त्रिशूल घुमा कर, गाड़ दिया भूमि में!
ये मेरे लिए संदेश था!!
किआ मैं झुक जाऊं! क्षमा मांग लूँ!
मैं खड़ा हुआ!
आगे गया!
भूमि को थाप दी!
और त्रिशूल घुमा कर, गाड़ दिया भूमि में!
वहाँ! वहां राख गिरने लगी! ये एविक विद्या थी!!
राख गिरते देख, काजिया हंसा! और फूंक मारते हुए, उस विद्या का नाश किया उसने!
अट्ठहास किया उसने! झूम झूम के नाचता रहा! मैं भी हंसा! एविक कोई उड़न नहीं जो चुक जाए! वो तो ऐसे खुश हो रहा था जैसे द्वन्द ही जीत लिया हो उसने! नशे में धुत्त था वो! खड़ा होते हुए भी, कभी कभार गिरते गिरते बचता था! अपने गले में टंगी अस्थियों को बार बार चूमता था! गले में घंटियाँ सी टांगी थीं उसने! बार बार खनखनाता था उनको! अपने कानों के ऊपर रख लेता था उस माल को! वो रुका! आकाश को देखा, धनुष मुद्रा में हुआ, और थूक दिया सामने!
"अरे ओ खेड़ा! जा! निकल जा! जा! छोड़ दिया तुझे!" बोला काजिया!
और हंसने लगा!! बार बार घण्टियाँ बजाता था!
"अरे, ओ बौड़म! जा! माफ़ किया तुझे! जा निकल जा! निकल जा नाक की सीध में!" बोला मैं!
बिफर पड़ा!
थूका ज़मीन पर!
गुस्सा हो गया!
त्रिशूल लहराया! त्वातिका मंत्र पढ़ा और कर दिया त्रिशूल आगे!
मेरे यहां मुंड गिरने लगे!
ढप्प! ढप्प! ढप्प!
और मुंड भी मेरे परिजनों के! मुझे ही देखते हुए!
मैं हंसा! आगे बढ़ा! एक मुंड उठाया! और फेंक मारा आगे! मुंड लुढ़कता हुआ चला गया! और सभी मुंड गायब! मैं आया वापिस! और तृष्ट्रिका मंत्र पढ़ा! ज़मीन पर बैठा, और किया त्रिशूल आगे! भक्क से उसके परिवारजनों के शव नीचे गिरने लगे! जलते हुए! झुलसते हुए! एक! दो! तीन! चार! और गिरते है गए!! ये देख, काजिया ने देखा उस श्रेष्ठ को! जो मुस्कुराते हुए सब देखे जा रहा था! वो आगे बढ़ा, और ज़मीन पर मंत्र पढ़ते हुए थूका! शव गायब!!
अब मैंने अट्ठहास किया! और वो कुढ़ा!
गुस्से में पाँव पटकता हुआ, जा बैठ पास उस श्रेष्ठ के! अब श्रेष्ठ उठा! गले में असंख्य मालाएं धारण किये हुए था! भ्राम-मंत्र का जाप करते हुए आगे बढ़ा! अपना त्रिशूल उठाया और एक महानाद किया उसने! फिर नमन सा किया उसने! और हुआ पीछे!
त्रिशूल तीन बार लहराया उसने! और अपने कंधे पर रख लिया! हंसा और ठहाका मारा ज़ोर का!
"जानता नहीं तू मुझे! नहीं जानता! नहीं तो सामने खड़ा नहीं रहता तू!" बोला वो गाल फाड़ते हुए!
"आगे बढ़ ढीमने! आगे बढ़!" मैंने कहा!
हंसा वो! चिल्ला चिल्ला के नाम लिया मेरा!
और हुआ पीछे! चिमटा उठाया अपना!
और खड़खड़ा दिया!
हो गया आगाज़ द्वन्द का!
मैंने अपना चिमटा उठाया!
अलखेश्वर का नाम लेते हुए, खड़का दिया चिमटा!
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे वाचाल के!
अरिक्षयिका!
वाह!
अरिक्षयिका!
एक उप-सहोदरी है! उप-सहोदरी, भंजिनिका की! मैंने पूर्व के द्वन्द में इस भंजिनिका को भी परास्त किया था! अरिक्षयिका उसी की उप-सहोदरी है! इकत्तीस रात्रि साधना है इसकी! नौ बलि-कर्म से पूज्य है! मृद-मंडल वासिनी है! शत्रु-भंजिनिका के नाम से विख्यात है! जब चल पड़े, तो समस्त वृक्ष भी ठूंठ बन जाते हैं! भूमि फट जाती है! पानी से भरे तालाब आधे रहजाते यहीं, पानी एक रंग हरा हो जाता है, गाढ़ा हरा और उसमे मछली कभी वास नहीं करती! जल दूषित रह जाता है! कुँए, बावड़ी आदि की खुदाई से पहले इसका पूजन अनिवार्य हुआ करता था! तब जल-जनित रोग नहीं हुआ करते थे! आज तो जल-जनित रोगों का बोलबाला है! अरिक्षयिका किसी तालाब किनारे की समतल भूमि पर सिद्ध की जाती है, आसन इसका बिल्व-पत्र से बना होता है, धागा उसमे कट्ठे के पेड़ के रेशे से बनाया जाता है! सवा हाथ चौड़ा और सवा हाथ लम्बा, ये आसन, साधना समय प्रयोग किया जाता है! मात्र नौ मंत्र हैं इसके, और उनके इक्यासी उप-मंत्र! और ये समक्ष प्रकट हो जाती है!
तो इसने सिद्ध किया था इसको!
करवाया होगा बाबा धर्मेक्ष ने!
"कंकमालिनी!" स्वर गूंजे!
और मैं आह्वान में जुट गया!
मेरी साध्वी, मेरा साथ दिए जा रही थी!
अलख में ईंधन झोंक रही थी वो बार बार!
तब, मैंने कपाल कटोरे में मदिरा परोसी!
कंक का मंत्र पढ़ा और गले से नीचे उतार लिया!
भम्म! भम्म!
अलख में से आवाज़ आई!
मैंने अट्ठहास लगाया!
वहाँ!
वहाँ मंत्रोच्चार में डूबा था वो श्रेष्ठ! आज श्रेष्ठ ही द्वन्द लड़ना था उसे! नहीं लड़ता, तो शर्तिया अपने पिता से पहले श्री मृत्युराज का मेहमान बनेगा!
दोनों तरफ मंत्रोच्चार था!
भीषण!
शशां जागृत हो चुके थे!
क्या भूत और क्या प्रेत!
सभी के सभी दौड़े दौड़े पनाह ढूंढ रहे थे!
और तभी ठंडी सी बयार बही! शीतल सी! शीट ऋतु जैसी!
कंक जाग चुकी थी!
"हे कंका!! कंका! कंका!!" मैंने त्रिशूल उठाये झूम पड़ा था!
"साधिके?" बोला मैं,
वो खड़ी हुई!
"भोग सजा!" बोला मैं!
भोग सजाने लगी मेरी साधिका!
मैंने भाग उधर! कपाल कटोरा उठाया! अलख-नाद किया! और गटक गया वो मदिरा! मैं झूम उठा! मेरी कंका जागृत हो चुकी थी और अब किसी भी क्षण, प्रकट हो ही जाती!
"साधिके?" मैंने चिल्लाया!
वो भागी मेरी तरफ!
मेरे कंधे पर हाथ रखा,
और ले गयी अलख की ओर!
वहां!
वहाँ सर ज़मीन से छुआए वो श्रेष्ठ, मंत्रोच्चार कर रहा था! और तभी मांस के टुकड़े गिरने लगे नीचे! क्या छोटे और क्या बड़े! लोथड़े!
"अरिक्षयिका! प्रकट हो! प्रकट हो!" बोलता गया वो!
और भागा अलख की तरफ!
उठाया मांस और झोंक दिया अलख में!
वो काजिया!!
काजिया खड़ा हुआ!
गर्दन हिलायी उसने लगातार!
और चिल्ला पड़ा!!!
"अरिक्षयिका! आ! आ भोग ले मेरा!! भोग ले!! प्रकट हो! प्रकट हो!" चिल्लाता रहा!
मेरे यहाँ!
अख में ईंधन झोंका मैंने!! कपाल कटोरे में मदिरा डलवाई!
और गटक गया!! एक ही घूँट में!! आनंद! औघड़ आनंद!
और तभी! तभी प्रकाश फूटा! श्याम-नील सा प्रकाश! आँखें फोड़ता प्रकाश!
और अट्ठहास! अट्ठहास!!
मैंने अपनी साध्वी को तभी, तभी अपने आसन पर बिठा दिया!
और आ गया आगे! बैठा ज़मीन पर!
"कंका! माँ! कंका!! मैंने चिल्लाया!
और तभी दूसरी तरफ से प्रचंड वायु वेग चला!
मैं नीचे गिरते गिरते बचा!
अरिक्षयिका आ पहुंची थी!
खनक सी गूंजी! खनक! जैसे कोई तलवार!!
और उसी क्षण! भयानक सा अट्ठहास हुआ! ऐसा अट्ठहास कि साधारण व्यक्ति तो सर पकड़ बैठ ही जाए ज़मीन पर, और कभी उठे ही नहीं!
जिस क्षण प्रकट हुई अरिक्षयिका, उसी क्षण! तत्क्षण! कंका भी प्रकट हुई!!
प्रकाश ऐसा तेज था कि आँखें खुल नहीं रही थीं! श्मशान में रौशनी फ़ैल गयी थी! पेड़ पौधे चमक उठे थे उस प्रकाश में! नीचे हरी घास और हरी हो गयी थी! अलख की अग्नि भी अपना रूप फीका कर चली थी! और तभी क्रंदन हुआ! अरिक्षयिका क्रंदन करती हुई लोप हुई! और मैंने तब सर उठाकर देखा! भूमि से कुछ फ़ीट ऊपर कंका अपने रौद्र रूप में प्रकट थी! मैं भाग चला! जा लेटा उसके समक्ष! उसके मंत्र पढ़े और जैसे उसको मन्त्रों से धन्यवाद किया हो! उसने अट्ठहास किया और झाम जैसी आवाज़ करती हुई लोप हो गयी! मैंने पहली प्राचीर गिरा दी थी उस श्रेष्ठ की! श्रेष्ठ के होश नहीं उड़े थे अभी! अभी तो खेल शुरू ही हुआ था बस! दो विरोधी एक दूसरे के बल की थाह लेने में लगे थे! तोल रहे थे एक दूसरे का दमखम! मैं उठा! और भागा आया वापिस अपनी साधिका के पास! साधिका अलख थामे हुए थी! मैं बहुत प्रसन्न था, जैसे मैंने अभी कोई सोम-बूटी खायी हो! मैं खड़ा हुआ! अट्ठहास किया! और आगे जाते हुए, त्रिशूल उखाड़ा अपना! तीन बार थाप दी मैंने! और घुमाते हुए, अपने त्रिशूल का फाल कर दिया उनके श्मशान की तरफ!
मैंने देखा, श्रेष्ठ हंसा रहा था! अपना त्रिशूल उठाये, हंस रहा था!
"मूर्ख?" बोला वो!
और हंसा!
"जानता नहीं? मैं श्रेष्ठ हूँ! श्रेष्ठ!" चिंघाड़ा वो!
"मूढ़ है तू! मूढ़! अपने पिता से ही कुछ सीखा होता! तू श्रेष्ठ नहीं! निःकृष्ट है! निःकृष्ट!" चिल्लाया मैं ये कहते कहते!
वो हंसा!
ऐसा हंसा जैसे अभी फट पड़ेगा!
"धन्ना पर बहुत घमंड है न तुझे?" बोला वो!
उसने अपने दम्भी मुख से मेरे दादा श्री का नाम लिया? ऐसा साहस? जी तो किया अभी अरंगराज वेताल का आह्वान अकरुण और उदा दूँ इनके सर धड़ से! करवा दूँ भक्षण शाकिनियों से इनके शरीर का! रक्त की एक बूँद भी न बचे बदन में इनके! ऐसा दुःसाहस? ऐसी हिमाक़त? मेरे शरीर में अंगार फूट चले थे! मेरी रगों में जैसे क्षारक बहने लगा था!
"हाँ है! है घमंड! और आज तू जान ही जाएगा कि क्यों! चल! गाल न बजा! आगे बढ़! बढ़ आगे!" बोला मैं!
"हाँ! देख! देख कैसे भीख मांगता है तू मेरे समक्ष! देख!" बोला वो!
और लौट पड़ा अलख पर!
जा बैठा! और अलख में मांस झोंका!
रक्त के छींटे दिए!
और मैं, मैं भी आ बैठा अलख पर!
अलख भोग दिया! रक्त के छींटे दिए!
और तभी मेरे कानों में स्वर गूंजे!
"ब्रह्मसुर्ना!"
क्या?
सही सुना मैंने?
ब्रह्मसुर्ना?
सिद्ध किया है इसने इसे?
है क्या ये इतना योग्य?
यदि है, तो श्रेष्ठ के संग ये द्वन्द मुझे सदैव स्मरणीय रहने वाला है!
सागर-वासिनी ब्रह्मसुर्ना एक कालकेय महाशक्ति है! एक अत्यंत रौद्र और विध्वंसक प्रकृति वाली अजेय महाशक्ति है! चौंसठ रात्रि इसकी साधना है! इक्कीस बलिकर्म द्वारा पूज्य है! इसमें प्राण कब चले जाएँ, कुछ पता नहीं! इक्यासी महाशूलना सहोदरियों द्वारा सेवित है! चौंसठ केंच-वीर इसके सेवक हैं! वार में अचूक और उद्देश्य पूर्ण करने वाली होती है ये ब्रह्मसुर्ना! इसके सागर के आसपास, आज भी खंडहरों में, पूजा-स्थल मिल जाया करते हैं! विशेषकर, केरल और तमिलनाडू में, आदिकाल से ही ये सागर-मन्थिनी कही जाती रही है! इसका पूजन अति-आवश्यक हुआ करता था उस समय! उड़ीसा के कोणार्क मंदिर में, अर्ध-सर्प और अर्ध-स्त्री के रूप में इसकी मूर्तियां आज भी हैं! इसको यम-सेविका भी कहा जाता है! ये ये यम-सेविका इस से सर्वथा पृथक है!
तो श्रेष्ठ ने इसका आह्वान किया था!
और तभी फिर से स्वर गूंजा!
एक कर्कश सा स्वर!
कर्ण-पिशाचिनी का स्वर!
महामंडया!!
महामंडया!
हाँ! सही! उचित!! ये मुझे श्री श्री श्री ने असम में सिद्ध करवाई थी! महामंडया जहां अत्यंत रौद्र है, वहीँ दयाभाव में इसका कोई सानी नहीं! यदि शत्रु क्षमा मांग ले, तो ये प्राणदान दे दिया करती है! मुख्य कार्य इस रक्षण है! पाषाण-गुहा इसका वास है, जहां से पांच धाराएं एक साथ गुजरती हों! महामंडया, चर भाव की संधिका है! एक स्थान पर अधिक वास नहीं करती! इसी कारण से, झरने आदि के पास ही इसकी साधना का विधान है! इक्यावन रात्रि इसका साधना-काल है! इक्कीस बलिकर्म द्वारा सेवित है! रूप में, परम काम-सुंदरी है! स्वर्णाभूषण धारण करती यही, देह नग्न है, कमल के फूल कमर में बंधे रहते हैं! हाथों में कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं होता! महाकाल साधना में, इस महामंडया का उल्लेख हुआ करता है! आयु में इक्कीस वर्ष की सी प्रतीत होती है! मुख पर तेज है! जब सिद्ध होती है, तो साधक को चिर-लोक का भ्रमण करवाती है! भ्रमण सशरीर नहीं हुआ करता! ये सूक्ष्मावस्था का भ्रमण हुआ करता है!
तो अब मैंने इसी का आह्वान आरम्भ किया!
"साधिके?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो!
"सामग्री दो!" मैंने कहा,
उसने सामान दिया!
"वो, वो उठाओ?" बोला मैं,
कपाल-कटोरा उठाया उसने! दिया मुझे!
"परोसो!" बोला मैं,
परोस दी!
"लाओ!" कहा मैंने,
"इधर आओ!" कहा मैंने,
आई वो,
"यहां बैठो" बोला मैं,
बैठ गयी मेरी जंघा पर,
"अब इसे उतार लो कंठ के नीचे!" कहा मैंने,
उसने एक बार में ही, कंठ के नीचे उतार ली मदिरा!
अभिमंत्रित मदिरा!
"जाओ! वहाँ बैठो अब!" कहा मैंने,
अब! अब वो जाए न!
मुझे देखे! घूरे! गरदन टेढ़ी किये हुए!
मैं हंसा! खड़ा हुआ! आगे बढ़ा! त्रिशूल उखाड़ा!
"साधिके?" बोला मैंने,
नहीं देखा मुझे!
मैं नीचे बैठा तभी!
"साधिके?" बोला मैं!
और तब उसने एक मंत्र बोला, आधा!
शीर्ष मंत्र!
और अधो, मैंने पूर्ण किया!
हुआ शक्ति प्रवेश!
"साधिके?" कहा मैंने!
"हाँ???" बोली वो अंगड़ाते हुए!
"जाओ! बैठ जाओ वहाँ!" मैंने कहा,
वो ज़मीन पर चलते हुए, लेटते हुए, जा बैठी!
अब वो श्रुति न थी!
और मैंने तब महानाद किया! महानाद!
"श्रेष्ठ?" बोला मैं!
वहाँ!
देखा उसने! ऊपर!
"बढ़ आगे!! बढ़!" मैंने कहा!
और मैंने अब महामंडया का आह्वान आरम्भ किया, रक्त के तीन घूँट पीकर!
तभी वो सरभंग खड़ा हुआ! एक लोटा लिए हुए, शायद रक्त था उसमे, उसने रक्त पिया, जीभ बाहर निकाली, अंजुल में रक्त डाला और सर पर मला! कोई खेल खेलने जा रहा था वो! अब मुझे आह्वान भी करना था ओस सरभंग को भी देखते रहना था! वो नीचे बैठा और अपने चिमटे से भूमि खोदने लगा! जब खोद ली तो खड़ा हुआ, और अपनी लंगोट भी खोल ली, अब मूत्र किया उस गड्ढे में! और उस मूत्र में अब रक्त डाला, दोनों हाथ डाले अंदर, हाथों में रक्त मिश्रित मूत्र उठाया और पी गया! मैं समझ गया! ये आमूल-हंत क्रिया है, वो मेरे आह्वान में बाधा डालना चाहता है! अब उसने मंत्र पढ़े, और मैं खड़ा हुआ, अपने त्रिशूल से वो शिशु-कपाल उतारा! और जा पहुंचा साध्वी के पास! उधर, श्रेष्ठ अपनी आराध्या ब्रह्मसुर्ना के आह्वान में लीन था! मैं नीचे बैठा, साध्वी के पास गया, उसको लिटाया, बोल सकता नहीं था,
इसीलिए पाँव से लिटाया उसे, उसने पाँव पकड़ लिया मेरा, मैंने आँखें चौडीं करके दिखायीं उसे! वो दरी और लेट गयी! मैंने वो शिशु-कपाल उसे वक्ष पर रख दिया, वक्ष पर रखते ही उसका शरीर धनुटंकार की मुद्रा में आ गया! यही मैं चाहता था! अब उठाया कपाल मैंने, और लौटा पीछे साधिका को देखा अब वो पेट के बल नीचे लेती थी, हाथ और पाँव फैलाये! मैं पीछे लौटा था, बैठा अलख पर, और शिशु-कपाल अपनी गोद में रख लिया! आह्वान ज़ारी था मेरा! और तभी जैसे भूमि में हलचल हुई! रक्त की फव्वार फूट पड़ीं! भूमि में से! गाढ़ा गाढ़ा रक्त! और उस सरभंग के ठहाके गूंजे! मैं खड़ा हुआ, त्रिशूल उठाया, और गया सामने! अलख में त्रिशूल को गर्म किया और छुआ दिया भूमि से! फव्वार बंद हो गए उसी समय! और मैं फिर से आ बैठा अलख पर! फिर से ठहाके गूंजे उसके! सामने मेरे, सर्प चले आ रहे थे! बड़े बड़े सर्प! फुफकारते हुए! मैं खड़ा हुआ! और तभी घनघोर सा शोर गूंजा! जैसे आकाश फटा हो! ये महामंडया के जागृत होने का प्रमाण था! वे सर्प, पल भर में लोप हुए! और वो सरभंग! मुंह फाड़ता हुआ, आँखें फाड़ता हुआ, पीछे लौट पड़ा! मैं उठा, शिशु-कपाल वापस लटकाया त्रिशूल पर, साध्वी तक पहुंचा, उसको पाँव से सीधा किया, आँखें बंद थीं उसकी, पेट पर पाँव रखा! हिलाया तो आँखें खोल दीं उसने! हाथों से बैठने को कहा, और बैठ गयी वो फिर, दोनों हाथ फैलाये हुए, जैसे मैं उसका आलिंगन कर लूँ! इस से पहले उसको मद चढ़े, मुझे आह्वान में सतत रहना था!
मैं वापिस लौटा अलख पर, मांस का भोग दिया अलख में! अलख चटमटायी! मांस की सुगंध फ़ैल उठी! प्रेत इधर से उधर व्याकुल हो भागने लगे थे! न भागे बने, न ठहरे बने! क्या छोटे और क्या बड़े! क्या स्त्री और क्या पुरुष! क्या जवान और क्या वृद्ध! घेरा बना कर बैठ जाते थे वहाँ! मैं जब अलख में भोग देता, तो झपटने को तैयार रहते थे! सभी के सभी!
और तभी दामिनी का जैसे स्वागत किया श्मशान ने मेरे! श्वेत प्रकाश फ़ैल उठा! मेरी महामंडया बस कुछ ही पलों में प्रकट होने वाली थी! मैंने देख लड़ाई!
वो श्रेष्ठ खड़ा था! अपना त्रिशूल लिए!
फिर बैठा, आकाश को देखा!
गहरा लाल रंग फ़ैल गया था वहाँ!
चमकदार लाल रंग! जैसे लाल रंग की रौशनी की गयी हो वहां!
"हे सुर्ना! ब्रह्मकपाली! मेरी आराध्या! प्रकट हो! प्रकट हो!" चीखता हुआ!
उसके श्मशान में चीखें गूँज उठीं! चीखें जैसे रक्तपात हो रहा हो!
