वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 "हाँ, बाबा धर्मेक्ष से इसके संबंध भी ठीक नहीं थे!" बताया उसने!

 "अच्छा!! समझा!" मैंने कहा,

 "फिर पाँव पड़ा ये अपने पिता के!" बोला वो,

 "तो फिर महापात्रा बाबा को कैसे रिक्त किया इसने?" मैंने पूछा,

 "ये अकेला नहीं था, साथ में दो और थे" बोला वो,

 "कौन?" पूछा मैंने,

 "खचेडू नाथ और काजिया सरभंग!" बोला वो!

 ''अच्छा!! समझ गया!" बोला मैं!

 "समझे आप?" पूछा उसने!

 "हाँ, समझ गया अब!" बोला मैं!

 "और अब भी ये काजिया को ही लाएगा!" बोला वो!

 "हम्म! ठीक ठीक!" मैंने कहा,

 ''एक काम करना, मृत्युमक्ष से पोषित रखना साधिका को, बस!" बोला वो!

 "अच्छा!" मैंने कहा,

 "वो काजिया साधिका को ही मारेगा सबसे पहले!" बोला वो!

 "अच्छा! साला कमीन!" कहा मैंने!

 "महापात्रा के संग भी यही हुआ था, करुवाहिलि के शिकार हुए थे!" बोला वो!

 "समझा!" बोला मैं!

 "एक बात और बताऊँ?" पूछा उसने!

 "क्या?" मैंने पूछा,

 "आपकी साधिका को भेंट चढ़ाएगा वो अपनी देवी को!" बोला वो!

 प्रचंड!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अति-प्रचंड!

 "क्या?" मैंने पूछा,

 "सच!" बोला वो!

 "हाँ महापात्रा की साधिका, ऐसे ही भेंट चढ़ी थी!" बोला वो!

 "तुझे कैसे पता ये सब?" पूछा मैंने,

 "खचेडू नाथ के पुत्र से!" बोला वो!

 "ओह!" मैंने कहा,

 "अभी कोई तीन ही वर्ष हुए हैं!" बोला वो!

 और बाहर बिजली अर्रायी!

 जैसे छत पत ही गिर जायेगी आज!

 और मुझे,

 वो श्रुति याद आई!

 उसका भोला सा चेहरा! बड़ी बड़ी आँखें!

 बेचारी बिन सोचे-समझे कूद पड़ी थी मेरे संग दावानल में!

 "मृत्युमक्ष से पोषित रखना बस!" बोला वो!

 "हाँ! निश्चित ही!" मैंने कहा,

 और फिर से बिजली कड़की!

 "अरे क्या यहीं उतरेगी?" शर्मा जी बोले!

 "पता नहीं!" मैंने कहा,

 गिलास और खींचे!

 मुझे तो अब उस,

 मेरी साधिका की चिंता ने और आ घेरा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैं तो अब कल से ही उसको पोषित करने की सोच रहा था!

 "कहाँ खो गए?" पूछा शर्मा जी ने!

"कहीं नहीं खोया मैं, कुछ सोच रहा था बस" मैंने कहा,

 "किस बारे में?" बोले वो,

 "नहीं, और कुछ नहीं, बस एक बार बात कर लूँ श्री श्री श्री से" मैंने कहा,

 "हाँ, कल कर लीजिये" बोले वो,

 "हाँ, कल करूँगा मैं" मैंने कहा,

 हम खाते पीते रहे और कोई बारह बजे हुए फारिग, भोजन भी कर ही लिया था हमने, मैंने हाथ-मुंह धोये और मैं चला वहां से सीधा चला श्रुति के पास!

 कमरा लगता तो बंद था, लेकिन मेरे हाथ लगाने से खुल गया था, मैं अंदर चला आया, बत्ती थी नहीं अभी तक, मोमबत्ती भी अब बस कोई पंद्रह-बीस मिनट ही चलती, मैं कुर्सी पर जा बैठा, अपने चेहरे के नीचे हाथ रखे सो रही थी श्रुति, उसका चेहरा देखा, तो द्वन्द का दृश्य याद हो आया, अब कितने आराम से सो रही थी वो! दिल में तरस सा उठ आया, तभी करवट ली उसने, आँख खुली तो मुझे देखा, उठ गयी तभी के तभी!

 "कब आये?" पूछा उसने,

 "अभी कोई दस मिनट पहले" मैंने कहा,

 "मुझे क्यों नहीं जगाया?" बोली वो,

 "तुम सो रही थीं आराम से, इसीलिए नहीं जगाया!" मैंने कहा,

 "अच्छा!! वैसे कभी नहीं जागते?" बोली वो!

 ये क्या कह दिया था! मेरा फेंका पत्तल मेरे ही सर पर आ गिरा था! मैंने एक फीकी सी मुस्कान हंसी! कि मुझे उसकी इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था!

 "खाना खा लिया?" पूछा उसने,

 "हाँ, और तुमने?" बोला मैं,

 "बहुत इंतज़ार किया, और फिर खा लिया!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "अच्छा किया!" मैंने कहा,

 मैं खड़ा हुआ, और फिर जा पहुंचा उसके पास,

 लेटा और उसको अपनी बाजू पर लिटाया, और ढक ली चादर फिर! अब नशा था बहुत! एक तो मदिरा का नशा, दूसरा उसके स्पर्श का नशा! दीवार पर, बुझती हुई मोमबत्ती की सांस टूटती दिखाई दी! रौशनी दम तोड़ रही थी! और तोड़ दिया फिर! मैं भी सो ही गया!

 सुबह हुई, सुबह भी हल्की-फुलकी बारिश थी! सामने तालाब में, पानी टपक रहा था अभी! हवा बहुत तेज थी, पानी की लहरें उठ रही थीं! श्रुति अभी सोयी ही थी, शायद ठंड लग रही थी उसे, दोनों हाथ सर के नीचे लिए सोयी थी, घुटने मोड़ रखे थे उसने, सो मैंने चादर उढ़ा दी उसे, और स्वयं स्नान आदि से फारिग होने चला गया! वापिस आया, तो भी सो रही थी! मैंने नहीं जगाया उसे!

 मैं बाहर आया, दरवाज़ा कस कर बंद किया बाहर से, बाहर तो रिमझिम थी! ठंडी ठंडी फुहार पड़ रही थीं! मैं शर्मा जी के कमरे की ओर चला! कमरा बंद था, मैंने खटखटाया, तो दरवाज़ा खुला, शर्मा जी भी स्नान कर चुके थे! मैं अंदर चला आया!

 "अरुण चला गया था?" पूछा मैंने,

 "हाँ, आपके साथ ही" बोले वो!

 ''अच्छा! चाय पी?" पूछा मैंने,

 "कह के तो आया हूँ" बोले वो,

 बाल बनाते हुए अपने,

 और तभी सहायक आ गया, कप थे उसके पास, चाय डाल दी उसने और दे दी हमें, साथ में कुछ नमकीन सा था, नमकपारे जैसी नमकीन! बरसात में सीलन लग गयी थी उसमे, लेकिन चाय के साथ अच्छे लगे वो!

 चाय पी ली, और मैं करीब पौना घंटा रहा उनके साथ, फिर वापिस लौटा, लौटा तो कमरा बंद था अंदर से, जाग चुकी थी श्रुति उस समय तक, मैंने खटखटाया दरवाज़ा, खोला उसने, तो मैं अंदर चला, वो भी स्नान कर, तैयार ही थी, बाल बना रही थी अपने!

 "कब जागे थे?" पूछा उसने,

 "कोई घंटा पहले" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "मुझे नहीं जगाया?" बोली वो,

 "तुम्हे ठंड लग रही थी! मैंने सोने दिया!" मैंने कहा,

 "चाय पी ली?" पूछा उसने,

 "हाँ, शर्मा जी के साथ" बोला मैं,

 "और पियोगे?" पूछा उसने,

 "हाँ, पी लूँगा" मैंने कहा,

 "कह दिया है मैंने" बोली वो,

 "अच्छा किया!" मैंने कहा,

 "बारिश है अभी?" बोली वो,

 "हाँ, है" मैंने बाहर झांकते हुए कहा, रौशनदान से,

 "बेमौसम बरसात है!" बोली वो,

 "हो जायेगी बंद! खुलने लगा है मौसम वैसे" मैंने कहा,

 बाल बना लिए, बाँध लिए और बैठ गयी! खिली खिली सी लग रही थी! जैसे किसी पूरे खिले गुलाब पर ओंस की बूँदें! आँखों में काजल तो बस, कहर मचाने के लिए ही था जैसे!

 नीले रंग के चुस्त से कुर्ते में और सफ़ेद रंग की चुस्त पाजामी में बैठी थी, वो चुस्त और मैं सुस्त! ये काम भी समय आदि नहीं देखता! हमेशा ऐसी रूपसी की पैमाइश करने में ही लगा रहता है!

 "सुंदर हो तुम बहुत वैसे श्रुति!" बोला मैं!

 "हाँ, बताया आपने, कई बार!" उपहास के लहज़े में बोली!

 "कभी तो मान जाया करो श्रुति!" मैंने कहा,

 "कब नहीं माना?" पूछा उसने!

 "सबकुछ मानती हो, लेकिन ये भी मान जाओ कि सच में बहुत सुंदर हो तुम!" बोला मैं!

 "मान लिया!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चाय आ गयी फिर! ले ली हमने! साथ में अब ब्रेड आई थी! मैंने नमकीन पूछी तो वो खत्म हो गयी थी! चलो ब्रेड ही सही! चाय के साथ मुंह चलाना था, और क्या, पेट तो भरना नहीं था!

 हम चाय पीने लगे!

 और तभी चंदा आ गयी अंदर!

 "आओ चंदा!" मैंने कहा,

 "नमस्ते!" बोली वो,

 "नमस्ते!" मैंने कहा,

 "कैसी हो?" पूछा मैंने,

 "कुशल से हूँ, आप?" पूछा उसने,

 "मैं भी ठीक!" बोला मैं!

 "चंदा?" मैंने कहा,

 "हाँ?" बोली वो,

 "ये श्रुति, कभी ख्याल आता है मेरा इसे?" पूछा मैंने,

 हंस पड़ी चंदा!

 "इसने क्या कहा?" पूछा चंदा ने!

 "ये बताती ही नहीं!" बोला मैं!

 "बता न श्रुति?" बोली वो,

 "पता नहीं!" बोली वो,

 "देखा चंदा?" बोला मैं!

 "आपको आता है?" पूछा चंदा ने!

 "न आता तो इस से मिलता?" मैंने कहा,

 "तो इसको भी आता है!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "सच? हैं श्रुति?" मैंने पूछा,

 मुंह फेर लिया, मुस्कुराते हुए!

 "मैंने सुना था कि श्रुति दिल्ली आई थी?" पूछा मैंने,

 "किस से सुना?" पूछा चंदा ने!

 "वो, राधिका ने!" मैंने कहा,

 "राधिका, वो, दिल्ली वाली?" पूछा उसने,

 "हाँ!" बोला मैं,

 "नहीं, नहीं आई थी!" बोली वो!

 "तो झूठ कह रही थी वो?" मैंने पूछा,

 "हाँ!" बोली वो,

 "क्यों? उसे क्या फायदा?" पूछा मैंने,

 "ये तो वही जाने!" बोली चंदा!

 "और मैं परेशान वहाँ! कि अब तक न कोई खबर, न फ़ोन!" कहा मैंने,

 "अच्छा, एक बात बताओ?" बोली श्रुति!

 "पूछो?" कहा मैंने,

 "कभी बुलाया मुझे?" पूछा उसने!

 बस! बगलें झांकना बाकी था, सो भी झाँक लीं!

 "नंबर नहीं था न?" कहा मैंने,

 "राधिका तो थी?" बोली वो,

 "मैं नहीं मिलता उस से!" मैंने कहा,

 "कब से?" पूछा उसने,

 "दो साल से" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सच?" पूछा उसने,

 अब नज़रें चुरानी पड़ीं!

 "बस एक बार मिला था" मैंने कहा,

 "कहाँ?" बोली वो,

 "हरिद्वार में'' मैंने कहा,

 "बस?" बोली वो,

 "और क्या, बस?" मैंने कहा,

 "ठीक है!" बोली वो!

 "एक बार और मिला था बस!" मैंने कहा,

 "कहाँ?" पूछा उसने,

 "यहीं कोलकाता में" बोला मैं!

 "कब?" पूछा उसने,

 "इसी साल" कहा मैंने,

 "तब मैं कहाँ थी?" पूछा उसने,

 "वहीँ थीं" मैंने कहा,

 "देखा चंदा!" बोली श्रुति!

 "अब छोड़ो न?" मैंने कहा,

 "आपने ही बात शुरू की, मैंने नहीं!" बोली वो!

 "अब सौ मज़बूरियां होती हैं!" मैंने कहा,

 "जानती हूँ!" बोली वो!

 "चलो छोड़ो! जाने दो राधिका को!" मैंने कहा,

 चाय खत्म! और ये विषय भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अधिक बढ़ता तो और छिछालेदारी होती मेरी!

 फजीहत!!

दोपहर तक बारिश रुक गयी थी, और हमने भोजन भी कर लिया था, अरुण अभी भी वहीँ था, उसने मुझे वहां का क्रिया-स्थल दिखाया भी था! सच में, बहुत बढ़िया स्थान था वो! काफी बड़ा और पक्का बना था, बारिश आती तो भी पानी अंदर नहीं आ सकता था! सोने के लिए भी पत्थर की पटिया आदि भी रखी थीं! कुल मिलाकर, करीब बीस आदमी आराम से ठहर सकते थे वहां! बस अब कल से मुझे यहां विद्याएँ जागृत करनी थीं! साड़ी सामग्री आज मिलने ही वाली थी! मैंने और श्रुति ने उस स्थान की साफ़-सफाई की, झाड़ू-बुहारी की! मकड़ी के जाले आदि हटाये वहाँ से! दीवारें भी साफ़ कीं, इसमें समय तो लगा, लेकिन अब क्रिया-स्थल चमचमा गया था! हम थक गए थे, तो वहीँ एक पटिया पर आ बैठे! मैं तो लेट गया था! श्रुति बैठी थी! मेरे सर के नीचे घुटना कर दिया था उसने!

 "बस सात दिन और न?" बोली वो,

 "क्या मतलब?" पूछा मैंने,

 "सात दिन बाद आप चले जाओगे न?" बोली वो!

 सवाल तो तीखा था, नश्तर की तरह से सीना बींध गया था!

 मैं मुस्कुराया!

 "श्रुति! मैं तुमसे दूर हो कर भी दूर नहीं!" बोला मैं!

 और क्या बोलता! बोलता कुछ तो सवालों के परदे टंग जाते वहां!

 "चले जाओगे न" बोली वो,

 "हाँ, जाना तो पड़ेगा!" मैंने कहा,

 "फिर से दो साल, या न जाने कितना?" बोली वो!

 "नहीं, अब दो साल नहीं!" मैंने कहा,

 तभी उसकी आँखों से आंसू की एक बूँद मेरे होंठ पर आकर गिरी!

 मैं उठ बैठा! उसका चेहरा अपनी तरफ किया! और लगा लिया गले!

 "श्रुति! नहीं! रोना नहीं! बस रोना ही नहीं कभी!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "उत्तर नहीं दिया?" डबडबायी हुई आँखों से ही पूछा उसने!

 "अब नहीं! अब नहीं दूर जाऊँगा मैं! आता रहूँगा मिलने!" मैंने कहा!

 मुस्कुरा गयी!

 कितना असम्भव होता है न समझाना? जब स्वयं ही उत्तर जानते हों कि होना क्या है! और वो भी ऐसी प्रेयसी को, जो आपके लिए सबकुछ न्यौछावर कर दे! या फिर कोई ऐसा, जो आपसे बदले में कुछ न मांगे! कुछ नहीं माँगा था मुझसे श्रुति ने कभी भी! बदले में तो कभी नहीं! शब्दों का खिलाड़ी नहीं मैं! हार मान गया था उसी क्षण! वचन दिया, आता रहूंगा मिलने, या जब भी वो बुलाये मुझे, मुझे आना हो होगा! ये सिलसिला, बदस्तूर आज तक ज़ारी है!

 "आओ, उठो!" मैंने कहा,

 और उठा लिया उसको!

 उठ गई वो मेरा हाथ थाम कर!

 मैंने क्रिया-स्थल की सांकल लगाई, और चल पड़ा उसके संग!

 आ गए कमरे में अपने!

 हाथ-मुंह धोये हमने, और फिर आ बैठे बिस्तर पर!

 "कल से एक नियम है, पूर्ण करना होगा!" मैंने कहा,

 "हाँ, जानती हूँ" बोली वो,

 "बस! बाकी काम मेरा! बस मेरा साथ थामे रहना, वो श्रेष्ठ क्या कोई भी आ जाए फिर! चाहे कुछ भी हो, नाम नहीं भूलेगा मेरा वो कभी, जब तक ज़िंदा रहेगा!" बोला मैंने!

 मुस्कुरा पड़ी!

 और मैं लेट गया! संग मेरे वो भी लेट गयी! मेरी आँखें बंद हुईं, और मैं उसको कसे हुए, सो गया!

 जब नींद खुली, तो शाम ढल चुकी थी! श्रुति जाग गयी थी, और बैठी हुई थी!

 "जाग गए?" पूछा उसने!

 मैंने उबासी ली तभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "हाँ!" कहा मैंने!

 "चाय मंगवाई है" बोली वो,

 "अच्छा किया" मैंने कहा,

 "बाबा मैहर नहीं आये?" पूछा मैंने,

 "हाँ, नहीं आये, बुलाऊँ?" बोली वो,

 "रहने दो, आ जाएंगे" बोला मैं,

 चाय आ गयी तभी, चाय पी मैंने! और उसने भी!

 "मैं आती हूँ अभी" बोली वो,

 "कहाँ चलीं?" पूछा मैंने,

 "चंदा से मिलने" बोली वो,

 "अच्छा! जाओ!" मैंने कहा,

 चली गयी वो, और मैं, कमरे का दरवाज़ा बंद कर, शर्मा जी के पास चला गया!

 "देख आये स्थल?" पूछा उन्होंने,

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "कैसा है?" पूछा उन्होंने,

 "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,

 "तो कल से?" बोले वो,

 "हाँ" कहा मैंने,

 "श्रुति ठीक है?" बोले वो,

 "हाँ" कहा मैंने,

 "बहुत अच्छी लड़की है ये श्रुति!" बोले वो!

 "हाँ, बेशक!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई और साधिका होती, तो सौ बार सोचती!" बोले वो!

 "यही तो बात है!" मैंने कहा,

 "और तो और, कुछ मांगती भी!" बोले वो,

 "सच!" कहा मैंने!

 मित्रगण! उस शाम, मदिरा नहीं ली मैंने! ये भी एक नियम है!

 उस रात, मैं श्रुति को बहुत कुछ समझाता रहा,

 कि नव-मातंग का साधक क्या करेगा,

 उसके साथ आया काजिया क्या कर सकता है!

 आदि आदि!

 और फिर आया अगला दिन!

 सुबह!

 दोपहर!

 और शाम!

 आज से क्रियाएँ आरम्भ करनी थीं!

 और उस शाम, मैंने मृत्युमक्ष विद्या का संधान किया! मंत्रोच्चार किया! और ये मंत्रोच्चार सघन होता गया! डेढ़ घंटा लग गया था और उसके बाद! उसने बाद विद्या जागृत हुई! मैंने भूमि पर वृत्त खींचा त्रिशूल से! मंत्र पढ़े और फिर मैं भी खड़ा हो गया! वृत्त के नौ चक्कर काटे मैंने!

 "साधिके!" बोला मैं!

 वो खड़ी हो गयी!

 "इसके मध्य खड़ी हो जाओ!" मैंने कहा,

 वो हुई खड़ी मध्य उसके!

 और जैसे ही खड़ी हुई!

 आँखें चढ़ गयीं उसकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शरीर कांपने लगा!

 फिर स्थिर हुई!

 शरार का वर्ण पीत-वर्णी हुआ!

 फिर धीरे धीरे श्वेत!

 और फिर वो लहराई!

 मैं खड़ा हुआ और थाम लिया उसे!

 गिर पड़ी थी वो! लिटा दिया उसको मैंने! मंत्र पढ़े!

 

 और मदिरा के छींटे दिए उसको! फिर माथे पर एक चिन्ह काढ़ दिया!

 "साधिके?" मैंने पुकारा!

 न जगी!

 "साधिके?" पुनः पुकारा!

 आँखें खोल दीं उसने!

 "कालकेय!" बोली वो!

 मैं हंसा पड़ा!!

 मृत्युमक्ष सफल हुई!

 "उठ जा साधिके!" बोला मैं!

 उठ गयी तभी!

 फिर मंत्र पढ़ा! और छुआ दिया त्रिशूल उसकी पीठ पर!

 झटका खाया उसने! और उठके खड़ी हो गयी!

 "बैठ जा साधिके!" बोला मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 बैठ गयी!

 "अब कैसी हो श्रुति?" पूछा मैंने!

 "ठीक, पूर्ण?" पूछा उसने!

 "हाँ! पूर्ण!" मैंने कहा,

 भर लिया था मैंने उसे अपने अंक में!

 "श्रुति! श्रुति!" मैंने कहा,

 मैं प्रसन्न था अब!

 अब काजिया नहीं कर सकता था कुछ! मृत्युमक्ष से खचित हो चुकी थी वो!

 "आओ, चलें अब!" मैंने कहा,

 "चलो!" बोली वो!

 और हम चल पड़े!

 आये वापिस कक्ष में!

 "तुम स्नान करो! मैं भी आता हूँ" मैंने कहा,

 वो अंदर गयी, और मैं अपने कक्ष में!

 स्नान किया और बैठ गया! थक गया था काफी!

 "निबट लिए?" पूछा उन्होंने!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "अच्छा हुआ!" बोले वो!

 "हाँ, अब श्रुति सुरक्षित है!" मैंने कहा,

 "ये बहुत बढ़िया किया आपने!" वो बोले वो!

 और तब मैं उठा, उन्हें बताया कि मैं जा रहा हूँ श्रुति के पास!

 और जब में गया श्रुति के पास, तो वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उल्टियाँ सी कर रही थी! मैं भाग गुसलखाने में तभी के तभी!

मैं इन छह दिनों में एक एक विद्या साधता चला गया! मैंने चौथे दिन श्री श्री श्री से आज्ञा ले ली थी, एक ब्रह्म-दीप वे भी प्रज्ज्वलित करने वाले थे अपने डेरे में!उन्होंने भी बहुत कुछ समझाया! बहुत कुछ सिखाया! बाबा मैहर से भी बात की थी उन्होंने, उन्हें भी समझा दिया था कि क्या क्या आवश्यकता पड़ेगी! और क्या क्या करना है! मुझे अब चिंता नहीं थी! उस वर्ष में ये मेरा कोई तीसरा द्वन्द था, दो में मैं विजयी रहा था, ये तीसरा था! और अब उसको देखना था कि मेरे गुरु का क्या बल है! क्या सीखा है उनसे मैंने! सिद्धियां प्राप्त करना ही सबकुछ नहीं! उनका क्रियान्वन कैसा हो, ये मायने रखता है! मैंने बहुत सी विद्याएँ जागृत की थीं, मंत्र जागृत किये थे! औद्युप-प्रद्युप, नकर, एविक और सेमक आदि सब जागृत कर लिए थे! अब मैं तैयार था! मेरी साध्वी पल पल मेरे संग थी! कल अमावस थी, और मुझे प्रातःकाल से ही मौन व्रत धारण करना था! और इसी क्रिया-स्थल में वास करना था! कल, बाबा मैहर के साथ, अपनी साध्वी को लेकर, उस श्मशान में जाना था, जहां से ये द्वन्द लड़ा जाना था! श्री श्री श्री अनुसार, चार कपाल चाहिए थे रक्षण हेतु, वे भी उपलब्ध थे, मेरे ब्रह्म-कपाल मेरे पास ही था! शिशु-कपाल भी पास था, और उस रात्रि, मैंने अपने सभी तंत्राभूषणों को भी अभिमंत्रित कर लिया था! बस, अब था तो द्वन्द का ही इंतज़ार! मैंने अपनी साध्वी को औषध-विज्ञान का सहारा ले, पुष्ट कर दिया था! वो पूर्ण रूप से तैयार थी! किसी भी द्वन्द के लिए! किसी भी वार के लिए! उस रात्रि मैं वहीँ सोया! मेरी साध्वी भी सोयी! अलख जलती ही रही! सुबह ब्रह्म-मुहर्त में वो शांत पड़ी!

 सुबह हुई, हमने स्नान किया, और वहीँ वास भी किया, सारा दिन भोजन ग्रहण नहीं किया, बस जल, ताकि अपान-वायु दोष न हो, इसका बहुत ध्यान रखना पड़ता है! अन्यथा चूक होते ही आपके प्राण-रक्षण मंत्र आपका भी भंजन कर देंगे! मैं वहीँ रहा, साध्वी भी वहीँ रही! और फिर हुई शाम!

 शाम को, बाबा मैहर आये, अरुण भी आ गया था, शर्मा जी भी! हम अब चले वहाँ से! मैंने सारा सामान उठा लिया! शर्मा जी ने आशीर्वाद देकर विदा किया! हालांकि वो अरुण और बाबा मैहर के संग ही श्मशान में ही रहने वाले थे, फिर भी, मेरे से प्रेम के कारण, मेरे इर्द-गिर्द ही थे! मैंने सारा सामान ले लिया था, तीन प्रकार का मांस था, रक्त-पात्र थे, फूल आदि सब थे!

 रात कोई आठ बजे मैंने उस श्मशान में प्रवेश किया! संग मेरे मेरी साध्वी थी, बाबा मैहर आये मेरे पास! मेरा चेहरा पकड़ा और देखा मुझे!

 "धन्ना की सौगंध! ऐसे नहीं लौटना!" बोले वो!

 "नहीं लौटूंगा!" मैंने कहा,


   
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