वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,

 "चलो अच्छा है!" वे बोले,

 "एक काम करना, आज चलना मेरे साथ, आज उप्लाव-पोषण करूंगा आपको!" मैंने कहा,

 "वो क्या?" पूछा उन्होंने!

 "किसी भी स्थान पर, आप सूंघ के जान जाओगे कि कौन सी अला-बला है यहाँ पर!" मैंने कहा!

 ''अच्छा!" वे बोले,

 "हाँ! आज ही" मैंने कहा,

 "कहीं कलुष जैसा तो नहीं?" बोले वो!

 "नहीं नहीं!" मैंने हंस के कहा!

 "कलुष में ही जान निकल गयी थी मेरी तो!" बोले वो!

 "नहीं वैसी नहीं है ये!" मैंने कहा!

 "फिर ठीक है!" बोले वो!

 दिन में भोजन किया, और फिर आराम!

 फिर कुछ चुहलबाजी श्रुति के संग और फिर से आराम!

 रात्रि समय,

 मैं शर्मा जी को लेकर चला क्रिया-स्थल में!

 बिठाया,

 सम्पूर्ण किया!

 श्रृंगार करवाया!

 नमन करवाया!

 स्थान और भव-पूजन करवाया!

 और उसके पश्चात, मैंने उप्लाव जागृत की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ये एक लकड़ी या कंडे पर जागृत होती है!

 इसका धुंआ लेना होता है नथुनों में!

 जब आँखें बिलकुल बंद हो जाएँ और शरीर गिर जाये नीचे,

 तो ये उस शरीर में सदा के लिए वास कर जाती है!

 और यही हुआ!

 गीत गए थे वो!

 जब उठे, मैंने उठाया,

 तो खांस खांस के बुरा हाल था उनका!

 हमने वहीँ मदिरापान किया!

 "कैसा रहा?" पूछा मैंने!

 "बहुत जानलेवा था!" बोले वो!

 "अब विद्याएँ तो आपकी शक्ति का ही प्रयोग किया करती हैं!" मैंने कहा,

 "हाँ, जान गया हूँ मैं!" बोले वो!

 "अब आप, किसी भी, कहीं भी स्थान में, यदि कोई अशरीरी होगा, तो आपको भान हो जाएगा! गंध मिल जायेगी आपको!" मैंने कहा,

 "अच्छा!" बोले वो!

 "हाँ, इस से मेरा काम भी आसान हो जाएगा!" मैंने कहा, हँसते हँसते!

 "हाँ वो तो होगा ही!" बोले वो!

 'एक बात और!" बोला मैं,

 "क्या?" बोले वो,

 "कुछ परहेज हैं, बता दूंगा!" कहा मैंने,

 "ठीक है!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और हम वापिस हुए फिर, कोई ग्यारह बजे!

हम आ गए वापिस फिर, पहुंचे कक्ष में तो स्नान कर लिया! और फिर भोजन की तैयारी की, मैं शर्मा जी को वहीँ ले आया श्रुति के कक्ष में, फिर भोजन मंगवा लिया, भोजन किया और फिर सोने चले! मैं श्रुति के संग ही रहा और शर्मा जी अपने कक्ष में चले गए, रात को नींद बढ़िया आई! सुबह हुई, नहाये धोये और फिर साथ ही नाश्ता भी किया हमने! उसके बाद मैं बाबा से मिलने चला गया, सारी बात उन्हें पहले ही बता चुका था मैं, तो उन्होंने मुझे भरसक मदद करने का आश्वासन भी दिया! और उसके बाद अरुण मुझे और शर्मा जी को ले गया शहर, शहर में अपने एक दो जानकारों से मिले, और फिर कुछ खाया-पिया भी! हम कोई छह बजे वापिस पहुंचे वहाँ! जब पहुंचे तो श्रुति सोयी हुई थी, मैंने जगाया उसको, जाग गयी थी, मैं अंदर ही बैठा तब, वो हाथ-मुंह धोने चली गयी! और तभी फ़ोन बजा उसका, मैंने फ़ोन उठाया, तो फ़ोन बाबा मैहर का था! मैंने ही बात की उनसे, अभी तक खबर नहीं मिली थी, बाबा पूरब ने कोई खबर नहीं दी थी उन्हें! अर्थात कोई तिथि निर्धारित नहीं हुई थी अभी तक! कुशल-मंगल पूछी और फ़ोन काट दिया!

 आई तब श्रुति अंदर से,

 "किसका फ़ोन था?" पूछा उसने,

 "बाबा मैहर का" मैंने कहा,

 "क्या कह रहे थे?" पूछा,

 "हाल-चाल पूछ रहे थे" मैंने कहा,

 "कोई तिथि?" बोली वो,

 "नहीं कोई नहीं" मैंने कहा,

 "अजीब बात है" बोली वो,

 "हाँ" मैंने कहा,

 "कहीं इरादा तो नहीं बदल लिया?" पूछा उसने,

 "पता नहीं" मैंने कहा,

 "हो सकता है!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तो बाबा बताते नहीं?" बोला मैं,

 ''तो अब तक तो बता देना चाहिए था?" बोली वो!

 "हाँ, ये बात तो है" मैंने कहा,

 "चलो छोडो! कहाँ घूम आये?" बोली वो,

 "बस ऐसे ही आसपास" बोला मैं,

 "अच्छा" बोली वो!

 "मन नहीं लगा क्या?" पूछा मैंने,

 "नहीं तो" बोली वो,

 "बताओ? मन नहीं लगा?" पूछा मैंने,

 "मन तो दो साल में भी नहीं लगा" बोली,

 "अ...म.....हाँ, मानता हूँ" मैंने अटका!

 और तभी मेरे फ़ोन पर फ़ोन आया बाबा मैहर का! अब कि कोई खबर पक्की मिलनी चाहिए थी! मैंने सुना फ़ोन, तो अब पता चला कि श्रेष्ठ को बाबा पूरब ने भी समझाया था कि द्वन्द न ही हो तो ठीक है, लेकिन श्रेष्ठ नहीं माना! और आखिर में अमावस की रात निर्धारित की है उसने! अब मुझे ये बताना है कि मुझे ये स्वीकार है या नहीं! मैंने स्वीकार कर लिया! अब मेरे पास नौ दिन शेष थे! बाबा मैहर ने मुझे ये भी बताया कि मुझे क्या क्या आवश्कयता पड़ेगी, वो सारा सामान मिल जाएगा! बात ख़त्म हुई फिर! तिथि का निर्धारण हो गया था!

 "क्या हुआ?" पूछा उसने,

 "मिल गयी तिथि!" मैंने कहा,

 "कौन सी?" पूछा उसने!

 "ये अमावस!" बोला मैं!

 "अमावस?" बोली!

 "हाँ खेल गया है चाल!" बोला मैं,

 "कैसी चाल?" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अमावस नव-मातंग के कारण!" मैंने कहा,

 "अच्छा!" बोली वो!

 "कोई बात नहीं! खेलने दो चाल!" बोला मैं!

 "मैं जानती हूँ! मुझे मालूम है!" बोली वो!

 "हाँ श्रुति! अब ये श्रेष्ठ जान जाएगा! कि दम्भ किसी का नहीं रहा! बाबा धर्मेक्ष भी कुछ नहीं कर पाएंगे!" मैंने कहा!

 "जानती हूँ ये भी!" बोली वो!

 "एक बात और श्रुति! तुम न होतीं तो मुझे सच में परेशानी होती!" मैंने कहा,

 "क्यों न होती?" बोली वो!

 "ये मेरा भाग्य है!" मैंने कहा,

 "मेरा भी!" वो बोली!

 मैं मुस्कुरा गया!

 उसके गाल को छू लिया!

 वो भी लरजा गयी!

 "सुनो, मैं आऊंगा बाद में!" मैंने कहा,

 "कहाँ?" बोली वो!

 "आज शर्मा जी के संग महफ़िल जमाऊँगा!" बोला मैं!

 ''अच्छा!! मुझे अकेला छोड़ रहे हो?" बोली वो!

 "कहाँ अकेला, मेरे संग ही हो तुम!" मैंने कहा,

 एक बार और उसके चेहरे को छुआ और चला आया बाहर!

 आया शर्मा जी के पास!

 सुट्टा लगा रहे थे आराम से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैं बैठ गया वहीँ!

 "तिथि मिल गयी!" मैंने कहा,

 "कौन सी?" पूछा,

 "ये अमावस!" मैंने कहा,

 "अमावस? कोई ख़ास वजह?" पूछा उन्होंने,

 "हाँ, नव-मातंग!" मैंने कहा!

 "अच्छा! साला हरामी कहीं का!" बोले वो!

 "जाने दो साले को भाड़ में! आप सामान निकालो!" मैंने कहा,

 "निकालता हूँ" बोले वो,

 और मैं पानी आदि के लिए कहने चला गया!

 आया वापिस, तो सामान थोड़ा मैं लाया था और थोड़ा सहायक!

 रख दिया, और उसके बाद हुए शुरू!

 "आज मछली बढ़िया लगती है!" मैंने कहा,

 "हाँ, लग तो बढ़िया रही है!" वो बोले,

 हमने खायी तो मजा आ गया! बहुत बढ़िया थी! मसाला पूरा बंगाली!

 "कल से तैयारियां आरम्भ करूँगा मैं" बोला मैं,

 "यहां?" पूछा,

 "नहीं" मैंने कहा,

 "फिर?" बोले वो,

 "बाबा मैहर के पास है स्थान" बोला मैं,

 "अच्छा" बोले वो,

 और तभी श्रुति आए गयी, फ़ोन लिए हाथ में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"किसका है?" पूछा मैंने,

 "बाबा मैहर का" बोली वो!

 मैंने फ़ोन लिया बातें हुईं, और दे दिया फ़ोन वापिस,

 चली गयी वो वापिस,

 "क्या कह रहे थे?" पूछा उन्होंने,

 "बुला रहे हैं कल" बोला मैं,

 "अच्छा!" वो बोले,

 "हाँ, चलते हैं" मैंने कहा,

 "चलो कल" बोले वो,

 "कल से श्रुति को भी पोषित करना है" मैंने कहा,

 "हाँ, करना ही होगा!" बोले वो,

 "वैसे जानती तो है, लेकिन इस बार मामला टेढ़ा है!" मैंने कहा,

 "अच्छा!" बोले वो,

 तभी सहायक आया अंदर!

 खाना दे गया था, श्रुति के पहले दे ही दिया था,

 हमने खाना खाया, और निबट गए हम!

 फिर मैं श्रुति के पास चला आया!

 लेटी हुई थी,

 "खाना खा लिया?" मैंने पूछा,

 "हाँ" बोली वो,

 "हमने भी खा लिया!" मैंने कहा,

 और बैठ गया वहीँ, समीप उसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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स रात मैं आराम से सोया! और श्रुति को भी सोने दिया! मुझे अब अमावस की पड़ी थी! अमावस आये और मैं द्वन्द में उतर जाऊं! जानता था, कि श्रेष्ठ सबकुछ दांव पर लगा देगा! दम्भी लोग यही किया करते हैं, और वो तो औघड़ था, भला वो कैसे चूकता! साम,दाम,दण्ड, भेद, सारे हथकंडे अपनाता वो! ऐसे औघड़ कब अपने नियम भंग कर दें, कुछ पता नहीं रहता! अतः सावधान रहना ही पड़ता है! और फिर ये तो वैसे भी एक बिगड़ैल औघड़ था, मुझे पता चला था कि उसने एक उड़ीसा के महा-प्रबल औघड़ को रिक्त किया था! तभी से वो अपने आपको श्रेष्ठ नहीं, सर्वश्रेष्ठ समझता था!

 सुबह हुई!

 हम सभी फारिग हुए!

 सामान बाँधा अपना, और चाय पी, नाश्ता किया,

 उसके बाद, बाबा देवज से आज्ञा लेने पहुंचे!

 अरुण भी मिला, अरुण ने अपनी गाड़ी से छोड़ने को कहा, ये बढ़िया हुआ था! हम आधे घंटे में ही निकल गए थे वहाँ से! रास्ता तो बढ़िया था, लेकिन एक दो जगह पेड़ टूटे पड़े थे, उन्हें हटाने में काफी समय लग रहा था हटाने वालों को, कुल एक घंटा खराब हो गया था हमारा!

 और हम पहुँच गए वहां! मैं अरुण को भी साथ ही ले आया था अंदर! अंदर हम पहुंचे तो अपने कक्ष में गए, हाथमुंह धोये और फिर बैठे! शर्मा जी चाय के लिए कहने चले गए थे! चाय आई, और हमने पी!

 "यहां जगह कम है" बोला अरुण,

 "कामचलाऊ है यार!" मैंने कहा,

 "एक जगह दिखाऊं?" बोला वो,

 "कहाँ है?" पूछा मैंने,

 "यहां से दस किलोमीटर होगी" बोला वो,

 "ये तो कोई दूर नहीं" मैंने कहा,

 "खुला स्थान है, बढ़िया है!" बोला वो!

 "देख लेते हैं!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "चलें फिर?" बोला वो,

 "अभी बाबा मैहर आने वाले हैं!" मैंने कहा,

 ''अच्छा!" बोला वो,

 बाबा को फ़ोन कर ही दिया था मैंने, आने ही वाले थे वो!

 और फिर बाबा आये कोई घंटे के बाद, संग चंदा भी थी,

 सारा सामान भी ले आये थे अपना,

 बाबा से मुलाक़ात हुई अरुण की, अरुण ने परिचय दिया अपना, अपने पिता जी का, पहचान गए बाबा उन्हें! और उसके बाद बाबा से मैंने अरुण की जगह देखने के लिए कहा, बाबा मान गए, और इस तरह कोई आधे घंटे के बाद, मैं, शर्मा जी, बाबा और अरुण, श्रुति चल पड़े साथ में ही, जगह देखने, रास्ता बहुत बढ़िया था, हरा-भरा! जंगली इलाका था! आवाजाही बहुत कम थी वहां लोगों की! फिर एक जगह गाड़ी रुकी, एक कच्चे से रास्ते पर चल पड़े, और सामने एक स्थान दिखा! बहुत बड़ा स्थान था ये!

 "यही है?" मैंने पूछा,

 "हाँ" बोला वो,

 गाड़ी अंदर ली,

 हम सभी उतरे!

 "आओ" बोला वो!

 "चलो" मैंने कहा,

 और हम चल पड़े!

 पहुंचे एक जगह! एक व्यक्ति मिला कोई पचास बरस का, अरुण को देख खुश हो गया! अरुण ने परिचय दिया हमारा और कक्ष मांगे! कक्ष मिल गए! दोमंजिला स्थान था वो! और स्थान में, एक बड़ा सा तालाब भी था वहाँ! जा लगे थे, अर्थात मछली वहीँ आराम से उपलब्ध थी!

 "कैसी है जगह?" पूछा अरुण ने!

 "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बाबा मैहर, आप भी यहीं आ जाओ!" बोला अरुण!

 "सही कहते हो, साथ ले आते चंदा को भी!" बोले वो,

 "मैं ले आऊंगा, आप आराम करें!" बोला वो!

 अरुण ने एक कक्ष और दिलवा दिया उन्हें!

 "वो, वहाँ, क्रिया-स्थल है, और यहीं से आपको देशराज श्मशान भी ले जाएगा!" बोला अरुण!

 "अरे वाह!" मैंने कहा,

 "आप आराम करो, मैं लेकर आता हूँ सामान और चंदा को" बोला वो,

 "मैं चलूँ?" पूछा मैंने,

 "मैं चलता हूँ" बोले बाबा मैहर,

 "चलिए फिर, मौसम ठीक नहीं है आज!" बोला वो!

 सच में, मौसम ठीक नहीं था, आकाश में बादल बन गए थे!

 कब रिमझिम हो जाए पता नहीं!

 वे चले गए और मैं श्रुति के कक्ष में चला गया!

 वो वहाँ नहीं थी, मैंने गुसलखाना देखा, बंद था, शायद अंदर थी,

 मैं तो जा लेटा बिस्तर पर!

 उठा, और दरवाज़ा बंद कर दिया! और तभी बिजली कड़की! और बत्ती गुल!

 अँधेरा छा गया वहाँ! एकमेक!

 और तभी, श्रुति बाहर आई! उसको देखा, तो मेरे दिल में बिजली कड़की!

 गीले बाल! दमकता चेहरा! उसका शारीरिक विन्यास! मचल उठा मैं तो!

 "बत्ती गयी?" पूछा उनसे!

 "हाँ, मेरी भी!" बोला मैं!

 हंस पड़ी! मंशा ताड़ गयी मेरी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "इधर आओ!" मैंने कहा,

 "वो?" बोली,

 "क्या वो?" पूछा मैंने,

 "अरे वो, खिड़की?" बोली वो!

 "अच्छा!" मैंने कहा,

 कामांध हो गया था मैं! खिड़की खुली थी सामने ही, दीवार में!

 हालांकि बाहर मात्र तालाब ही था, फिर भी, कुछ कार्य छिपे में ही शोभा देते हैं!

 जैसे अर्थ-सुख, काम-सुख, पुण्य-संचन, ईष्ट-वंदन!

 तो यहां मामला काम-सुख का था!

 "अब आओ?" मैंने कहा,

 आ गयी! अपने केश बनाने लगी!

 और मेरे गर्म हाथ, उसके गीले बदन को खंगालने लगे!

 "तसल्ली से हड़हा है तुम्हारा बदन बनाने वाले ने!" मैंने कहा,

 अब जब काम भड़कता है, तो ऐसे ही कुछ चंद अलफ़ाज़ अपने आप ज़ुबान पर चढ़ आते हैं!

 "अच्छा?" पूछा उसने!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "कैसे?" पूछा उसने!

 "ये! ये! ये! ये! वो! वो! सब, क्या नक्काशी है!" बोला मैं!

 हंसती रही!

 जानती थी, मंशा क्या है मेरी!

 बिजली कड़की बाहर!

 "ये देखो!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "क्या?" पूछा उसने!

 "बिजली!" मैंने कहा,

 "हाँ देखा" बोली वो,

 "अरे वहाँ नहीं, यहां!" मैंने दिल छुआ अपना!

 "क्या इरादा है?" पूछा,

 "नेक नहीं है!" मैंने कहा,

 खिलखिलाकर हंसी!

 और मुझपर बरसात हुई!

 तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई!

 काम की चढ़ती लहरें, किनारा छोड़ चलीं!

 "आता हूँ" मैंने कहा,

 और दरवाज़ा खोल दिया!

 बाहर, अरुण था, मुस्कुराया!

 "आ गए सब! आओ मेरे साथ, यदि!!" बोला वो!

 "हाँ चल यार!" मैंने कहा,

 और चल पड़ा संग उसके मैं!

 ले आया एक जगह!

 "ये लालचंद हैं, संचालक" बोला वो,

 "अच्छा!" मैंने नमस्कार की!

 "कोई भी ज़रूरत हो, तो इनसे कहिये!" बोला वो!

 "हाँ ज़रूर!" बोला मैं!

 और बरसात आरम्भ हो गयी!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और मेरी, सूख चली!

"देसू भाई?" बोला अरुण,

 "हाँ जी?" बोला देसू,

 "वो आज, ज़रा तड़केदार माल लगाना!" बोला अरुण!

 "जी! ज़रूर!" बोला वो!

 "और हाँ, बढ़िया सा सामान लाओ ज़रा?" बोला वो!

 "लाता हूँ" बोला देसू और ले आया बढ़िया सा माल!

 "और तड़केदार में क्या देर?" पूछा अरुण ने,

 "पता करता हूँ" बोला वो!

 आवाज़ दी एक महिला को, बंगाली भाषा में बात हुई, और चली गयी महिला!

 "बैठ जाओ!" बोला वो!

 हम बैठ गए! एक जगह!

 "अभी आता है माल! ले जाओ, और आराम से 'जम्पर' जोड़ो!" बोला अरुण!

 मैं हंस पड़ा! बहुत तेज!

 दरअसल हम कुछ चुनिंदा लोग ही ये शब्द 'जम्पर जोड़ना' प्रयोग करते हैं!

 "कहाँ यार! अब तो बाद में!" मैंने कहा,

 "वैसे एक बात है!" बोला वो!

 "क्या?" मैंने पूछा,

 "लम्बे कद का फायदा ही फायदा है!" बोला वो!

 "कैसे?" पूछा मैंने,

 मैं जानता था, वो कुछ शैतानी तो करेगा ही!

 "अरे हमें देखो! साढ़े पांच फ़ीट तक ही रुक गए! अब क्या करें!" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "तो?" पूछा मैंने,

 "अरे भाई! टक्कर बराबर की ही न हो तो क्या फायदा!" बोला वो!

 मैं हंस पड़ा फिर से!

 और कोई बीस मिनट में सामान आ गया! तड़केदार! वैसे ये तड़केदार तो नहीं था, तला हुआ था, चार मछलियाँ थीं, मोटी मोटी, देखने से ही बेहतरीन लग रही थीं!

 "देसू?" बोला वो,

 "पानी भिजवा दे कमरे में" बोला वो,

 "अरे सुन अरुण? साथ ले न हमारे?" मैंने कहा,

 "मुझे क्यों पीसते हो, मैं क्या करूँगा?" बोला वो!

 ''अबे शर्मा जी और मेरे साथ!" मैंने कहा,

 "अच्छा! हाँ ठीक है फिर" मैंने कहा,

 "देसू, ये दोनों सामान और भिजवा देना अंदर, वो उस कमरे में!" बोला वो!

 "हाँ, भिजवाता हूँ" बोला वो!

 हम उठ चले, अरुण ने सामान पकड़ा और चला,

 "कह दो भाई अंदर!" बोला वो!

 "अच्छा, हाँ!" मैंने कहा,

 और चला गया अंदर श्रुति के कमरे में! बत्ती थी नहीं, मोमबत्ती जल रही थी!

 "वो मैं, अरुण और शर्मा जी के साथ हूँ कमरे में!" मैंने कहा,

 "और जो मैं डर गयी तो?" बोली वो!

 मज़ाक में!

 "तुम और डर जाओ!" मैंने कहा,

 मुस्कुरा पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "बरसात तेज यही, है न?" बोली वो,

 "हाँ, चादर चाहिए?" मैंने पूछा,

 "नहीं, ज़रूरत नहीं!" बोली वो!

 "ठीक है, आता हूँ फिर" मैंने कहा,

 "अच्छा, जाओ!" बोली वो,

 "दरवाज़ा बंद कर लो!" मैंने कहा,

 उसने दरवाज़ा बंद किया और मैं चला वहां से, चंदा आ रही थी, श्रुति के पास के लिए, मुस्कुराई और गुजर गयी!

 मैं कमरे में आ गया!

 चार चार मोमबत्तियां जलवायीं थीं शर्मा जी ने!

 सामान तैयार था ऊपर से!

 "आओ!" बोले शर्मा जी!

 मैं बैठ गया!

 और हम हो गए शुरू!

 "ये जो श्रेष्ठ है, ये धर्मेक्ष का ही पुत्र है न?" बोला अरुण,

 "हाँ" मैंने कहा,

 "अच्छा! साला ऐसा बना गया अब!" बोला वो!

 "ऐसा? मतलब?" बोला मैं,

 "पहले गिण था साला!" बोला वो!

 "गिण?" मैंने कहा,

 "हाँ, गिण! कपाल बेका करता था!" बोला वो!

 "अच्छा?" मैंने हैरत से पूछा,


   
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