"चलो अब" मैंने कहा!
"हाँ चलो" वो बोली,
बैग ले लिया था मैंने उसका!
और आ गए हम बाहर!
अब चले वापिस!
"तो श्रेष्ठ अब 'महा-श्रेष्ठ' बनने जा रहे हैं!" बोले शर्मा जी!
मैं हंस पड़ा! श्रुति भी!
"हाँ, महा-श्रेष्ठ!" मैंने कहा,
"और वो चुहिया!! उसको देखो!" बोले वो!
"भाड़ में जाने दो उसको अब!" मैंने कहा,
हम पहुँच गए वहाँ!
गीता जोगन जानती थी श्रुति को, मिल गया कक्ष!
और हम अपने अपने कक्ष में चले गए,
बैग, दे दिया था मैंने उसको उसका,
अपने कमरे में आया, तो बैठ गया!
उस श्रेष्ठ के शब्द आग उगल रहे थे मेरे सीने में!
''चाय मंगवाऊँ?" बोले शर्मा जी,
"मंगवा लो" मैंने कहा,
संध्या समय मैं श्रुति के के कक्ष की ओर गया, गया तो दरवाज़ा बंद था अंदर से, मैंने खटखटाया, और थोड़ी ही देर में, दरवाज़ा खुल गया! सामने मेरे श्रुति ही खड़ी थी! केश खुले थे उसके, बहुत सुंदर लग रही थी! मैं तो देखता ही रह गया था उसको! आँखें हटा ही न सका अपनी! पल भर में ही, पूरा का पूरा नाप लिया था उसको मैंने! ऐसे नापने में तो पुरुष नैसर्गिक रूप से पारंगत हुआ करते हैं , वो अलग बात है कि क्रियान्वन में कुछ गणित आगे पीछे हो जाए!
"अंदर नहीं आना क्या?" पूछा उसने!
मैं तन्द्रा से बाहर आया तभी के तभी!
"हाँ, हाँ!" कहते हुए अंदर चला आया!
लाल रंग का जयपुरिया कुरता पहना था उसने, बड़े बड़े छींटे थे उस पर, और नीचे सफेद रंग की सलवार! गज़ब की सुंदर लग रही थी श्रुति उसमे! और शायद स्नान भी थोड़ा समय पहले ही किया होगा उसने!
"श्रुति?" मैंने कहा!
"हाँ?" बोली वो,
बैठ गयी थी सामने कुर्सी पर!
"दिल मचल रहा है मेरा!" मैंने कहा,
"तो मचलने दो!" बोली वो!
"इन शब्दों से तो और मचल गया!" मैंने कहा!
हंस पड़ी खिलखिलाकर!
"ऐसे हँसोगी तो जाना होगा मुझे बाहर फिर!" बोला मैं,
"क्यों?" पूछा उसने!
"एक तो दिल मचल रहा है, ऊपर से तुम और घी झोंक रही हो!" बोला मैं!
"अच्छा ठीक है, नहीं हंसती!" बोली वो!
"हाँ, कुछ राहत तो पड़ेगी!" मैंने कहा,
"पूरी राहत लीजिये आप!" बोली वो,
"मन तो है वैसे!" मैंने कहा,
अब समझी वो, और फिर हंस पड़ी!
मैं भी हंस पड़ा उसकी हंसी में!
"तुम भर गयी हो पहले से!" मैंने कहा,
"ये अच्छा है या बुरा?" बोली वो!
"बहुत अच्छा है! बहुत अच्छा!" मैंने जोश से कहा!
"आपको अच्छा लगा?" बोली वो!
"हाँ, बहुत अच्छा!" मैंने कहा,
खड़ी हुई वो, पानी लिया गिलास में,
"पानी पियोगे?" पूछा उनसे!
"नहीं, कड़वा लगेगा!" मैंने कहा,
"कड़वा?" पूछा उसने!
"हाँ, अभी कुछ और पी रहा हूँ!" मैंने कहा,
पानी पीते पीते हंसी! फन्दा लग जाता गले में!
पानी पी लिया उसने, वापिस बैठ गयी!
"वैसे क्या पी रहे हो आप?" पूछा उसने,
"तुम जानती तो हो?" मैंने कहा!
"बताओ तो सही!" बोली वो!
"तुम्हारा रूप! काम-पात्र में अपने!" मैंने कहा,
"अच्छा?" बोली वो!
"हाँ!" मैंने कहा!
"पेट भर गया तो?" बोली वो!
"नहीं भरने वाला ये पेट!" मैंने कहा!
तभी मेरा फ़ोन घनघना गया! साला मेरा फ़ोन तभी बजना था!
"एक मिनट!" मैंने कहा,
"कोई बात नहीं" वो बोली,
मैं बाहर चला आया, काशी से फ़ोन था किसी जानकार का, कुछ 'विशेष' सामग्री उपलब्ध करवाता है वो! उस से बात हुई! और मैं अंदर चला आया फिर! दरवाज़ा बंद किया मैंने! श्रुति वहीँ बैठी थी!
"हाँ, तो हम कहाँ थे?" मैंने पूछा,
"वो काम-पात्र पर!" बोली वो! मुस्कुराकर!
मैं हंस पड़ा!!
"सुनो, श्रुति?" मैंने कहा,
"बोलो?" बोली वो,
"क्या मदिरापान करती हो अभी भी?" पूछा मैंने,
"अभी भी? नहीं, कभी नहीं" बोली वो!
"तो क्या अकेला मैं ही झुलसुंगा?" मैंने पूछा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"मैं अकेला पियूँगा तो कैसे मजा आएगा?" पूछा मैंने,
"आपके लिए झुलस लूंगी मैं भी!" बोली वो!
उसने ऐसा बोला, और मैंने काम-कूप में डुबकी मारी!
"तो मैं आया अभी!" बोला मैं,
और भाग कमरे में अपने! बैग खोला और ले आया बोतल निकाल कर!
शर्मा जी को समझा ही दिया था सबकुछ!
सामान भी ले आया था मैं सारा!
और अब हुई शुरू जंग मदिरा के संग!
उस रात मैंने जम कर पी! दरअसल, मदिरा गाढ़ी हो गयी थी श्रुति के हुस्न के संग!
और मित्रगण!
मेरा प्रणय हुआ उस से उस रात्रि!
वो मेरी साध्वी भी थी, और मेरी प्रेमिका भी! कुछ भी समझिए!
अगली सुबह,
बाबा मैहर आ गए थे! उनसे मिला मैं!
"कुछ खबर?" मैंने पूछा,
"अभी तो कुछ नहीं" बोले वो,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सोच रहे हैं कि बात द्वन्द तक न ही पहुंचे" बोले वो,
"वो नहीं मानने वाला!" मैेने कहा,
"नहीं मानेगा तो पछतायेगा!" बोले बाबा!
"अच्छा, बाबा, स्थान का प्रबंध करना होगा!" मैंने कहा,
"वो मैं करवा दूंगा!" बोले बाबा!
एक वो बाबा थे पूरब!
और एक ये बाबा मैहर! मेरे दादा श्री के शिष्य रहे हैं!
"आप तसल्ली से रहें, मैं खबर पहुंचा दूंगा!" बोले वो!
"ठीक बाबा!" मैंने कहा,
उन्होंने कुछ और भी बताया मुझे उस श्रेष्ठ के बारे में!
"तो बाबा पूरब भी वहीँ होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही लगता है!" बोले वो!
"ओह..." मैंने कहा,
"घबराओ नहीं!! मैं संग हूँ आपके!" बोले वो!
बहुत राहत पड़ी! बहुत राहत!
फिर बाबा चले गए! और शर्मा जी आ बैठे संग!
"वो नहीं मानेगा!" बोले वो!
"जानता हूँ!" मैंने कहा,
तभी श्रुति भी आ गयी मेरे पास!
"बैठो" मैंने कहा,
बैठ गयी वो!
"तो बाबा पूरब भी संग होंगे उसके!" मैंने कहा!
"वो तो दामाद है उनका!!" बोले शर्मा जी!
मैं हंस पड़ा!!!
मैंने ही तो कहा था ऐसा!!
"देखो, क्या होता है!" बोले वो!
"हाँ, अब तो देखना ही पड़ेगा!" मैंने कहा!
"स्थान?" बोले वो!
"वो बाबा मैहर करवा देंगे!" मैंने कहा,
"अरे वाह!" वो बोले!
तभी श्रुति का फ़ोन बजा!
फ़ोन चंदा का था, चंदा ने बुलाया था उसको!
श्रुति ने मुझे बताया!
"चलो, चलते हैं हम, छोड़ आते हैं" बोला मैं,
और हम चल दिए!
वहां पहुंचे,
और छोड़ आये उसको!
हम आ गए वापिस! कमरे में ही! पानी पिया!
और चाय आ गयी फिर, चाय पी!
"क्या लगता है आपको ये श्रेष्ठ?" पूछा उन्होंने,
"है तो खैर प्रबल ही!" मैंने कहा,
"नव-मातंग से?" बोले वो!
"हाँ, उस से पहले ये कि उसको बाबा धर्मेक्ष का सरंक्षण है!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो!
"और यहीं हमें थाह लेनी होगी श्रेष्ठ की!" मैंने कहा,
"तो बाबा मैहर से पूछें?" बोले वो,
"हाँ, वो खुद ही बता देंगे!" मैंने कहा!
"एक चिंता है!" मैंने कहा!
"क्या?" बोले वो,
"कहीं बाबा धर्मेक्ष न दें साथ उसका!" मैंने कहा,
"अरे...." बोले वो!
"बस यही चिंता है!" मैंने कहा!
"समझ गया" बोले वो!
"धर्मेक्ष बाबा को जानता हूँ मैं! प्रबल नहीं महाप्रबल हैं वो!" मैंने कहा!
"समझ गया!" बोले वो!
मैंने फिर से पानी पिया!
"अगर साथ दिया तो?" पूछा उन्होंने,
"तो हमने भी किसी को लाना होगा!" कहा मैंने,
"किसको?" बोले वो!
"बाबा खम्मट नाथ को!" मैंने कहा,
"वो, सियालदाह वाले?" बोले वो!
"वाह!! वाह!!" वे बोले,
"बस मान जाएँ!!" मैंने कहा,
"मान जाएंगे!" बोले वो!
"मान जाएँ तो ये द्वन्द, द्वन्द नहीं, महा-द्वन्द होगा फिर!" मैंने कहा!
इस तरह एक और दिन बीत गया! मेरी बात अभी श्री श्री श्री से नहीं हुई थी, मुझे आज्ञा लेनी थी उनसे! और फिर वो मार्गदर्शन देते! और मैं आगे बढ़ता! मुझे सबकुछ देखना था, सबकुछ कुछ प्रबंध भी करने थे! हालांकि बाबा मैहर मदद कर ही रहे थे, लेकिन केवल उन्ही पर बोझ डालना भी उचित नहीं था, इस स्थान पर मेरी वाक़फ़ियत मेरी सिर्फ बाबा पूरब से थी, लेकिन बाबा पूरब तो अब पछां के हो गए थे! मैं घड़ी के छह पर खड़ा था और वो, वो बारह पर, मैं तीन पर तो वो नौ पर! ऐसा आंकड़ा हो चला था उनका और मेरा! बाबा पूरब को कोई लालच था या कोई स्वार्थ उस श्रेष्ठ से, समझ नहीं आ रहा था! एकाएक उनका रुख बदल गया था! ये ठीक था कि श्रेष्ठ एक पहुंचे हुए बाबा धर्मेक्ष का पुत्र था, लेकिन उनके इस पुत्र में उनकी तरह शालीनता नहीं थी! बाबा धर्मेक्ष इस तरह के न थे, वे शांत और शालीन थे, अक्सर ऐसे चक्करों से दूर ही रहते थे, इसीलिए उन्होंने युक्ता और उस श्रेष्ठ को इस आयोजन में भेजा था, स्वयं नहीं आये थे! ये भी मेरा भाग्य था कि मुझे श्रुति मिल गयी थी, नहीं तो कोई साधिका ढूंढनी पड़ती मुझे, और इसके लिए मुझे वापिस कोलकाता जाना पड़ता! तो श्रुति के आने से, ये समस्या तो हल हो गयी थी! वो मेरे साथ साधनारत रह चुकी थी! वो प्रखर थी, भयहीन थी और अपने साधक के प्रति, पूर्ण रूप से समर्पित! अब इंतज़ार था तो बस उस द्वन्द की तिथि का! तिथि मिले और फिर तैयारियां आरम्भ हों! मैं इसी इंतज़ार में था! अगले दिन शाम को, मुझे श्रुति से एक खबर मिली! बाबा पूरब ने बाबा धर्मेक्ष से बात की थी, लेकिन बाबा धर्मेक्ष स्वास्थय के ठीक न रहते हुए, इस द्वन्द से बाहर थे, और उन्होंने बाबा पूरब से भी मना किया था कि श्रेष्ठ किसी भी द्वन्द में न उतरे! ये मेरे लिए मेरी जीत की पहली निशानी थी! यदि ऐसा था, तो ये श्रेष्ठ अपने जीवन का श्रेष्ठतम सबक सीखने वाला था! श्रुति बहुत खुश थी, और मैं भी! मैं गया तभी शर्मा जी के पास और उनको ये खबर कह सुनाई! वे भी बहुत खुश हुए!
"वाह! ये हुई कुछ बात!" बोले वो!
"हाँ, ये अच्छी बात हुई!" मैंने कहा,
और तभी बाबा मैहर भी आ गए! उनके साथ एक स्त्री भी थी!
"आओ बाबा! बैठिये!" मैंने कहा,
बैठ गए वो दोनों!
"मुझे श्रुति ने कुछ बताया बाबा!" मैंने कहा,
"हाँ, सही बताया है!" बोले वो!
"क्या बाबा धर्मेक्ष ने मना किया है उसको?" पूछा मैंने,
"हाँ, मेरे सामने ही बात हुई थी!" बोले वो!
"क्या बात हुई थी?" पूछा मैंने,
"बताया था कि धन्ना बाबा का मसला है! बस, समझ गए थे, आपको तो जानते ही हैं वो! आपसे मिले भी थे?" बोले वो!
"हाँ, जानता हूँ मैं उन्हें अच्छी तरह से!" मैंने कहा,
"लेकिन एक बात समझ नहीं आई?" मैंने कहा,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने!
"इस श्रेष्ठ को हुआ क्या? मैंने कोई बदतमीज़ी नहीं की उसकी बहन के साथ?" मैंने कहा,
"मानता हूँ, लेकिन युक्ता ने कुछ बढ़ा-चढ़ा के बताया हो, हो नहीं सकता क्या?" बोले वो,
"हाँ! ये हो सकता है!" मैंने कहा!
"इसका मतलब, श्रेष्ठ कोई सच्चाई नहीं मालूम?" शर्मा जी बोले,
"मालूम भी हो, तो अब बात आगे बढ़ चुकी है! हाथापाई जो हुई थी!" मैंने कहा!
"और वो सौंगड़ भी!" बाबा बोले!
"हाँ!" मैंने कहा,
तभी चाय आ गयी, और हम चाय पीने लगे!
"ये कौन हैं?" मैंने पूछा, उस महिला की तरफ इशारा करते हुए,
"ये दीपा हैं, यहीं रहती हैं" बोले वो,
"अच्छा!" मैंने मुस्कुरा के कहा,
"अच्छा, आपको नव-मातंग के विषय में जानकारी है?" बोले बाबा,
"हाँ, पूर्ण जानकारी है" मैंने कहा,
"फिर तो बढ़िया! नहीं तो दीपा इसीलिए आयीं थीं यहां!" बोले वो!
"आपका शुक्रिया!" मैंने दीपा से कहा,
"बस, वो इसी पर दम भर रहा है!" बोले बाबा!
"भरने दो उसको दम!" मैंने कहा!
चाय पी ली थी, और उसके बाद बाबा और वो दीपा, चले गए! मैं आ गया फिर श्रुति के कमरे में, लेकर उसको!
"देखा इस युक्ता को!" बोला मैं!
"पींगें भी तो आपने ही बढ़ायीं थीं!" बोली वो!
"मैंने तो उसके बारे में पूछा था बस!" मैंने कहा,
"हाँ, पूछा होगा! लेकिन उसने श्रेष्ठ ने बारह के बत्तीस बताये होंगे!" बोली वो!
"यही बात है" मैंने कहा,
"अब छोडो! देखो अब होता क्या है?" बोली वो!
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
"क्या कहती हो, कुछ सोचेगा वो?" पूछा मैंने,
"नहीं, नहीं सोचेगा!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"तेवर नहीं देखे उसके?" बोली वो!
"हाँ!!" मैंने कहा,
"अब छोडो भी!" बोली और खड़ी हुई!
एक मदमस्त सी अंगड़ाई ली उसने!
मेरी तो नज़रें जा भिड़ीं उसके बदन की उस अंगड़ाई पर!
कैसे किसी मूर्ति की तरह से मुद्रा में आई थी वो!
"अब बैठ जाओ!" मैंने कहा,
"क्या करूंगी?" बोली वो!
"कुछ नहीं करना, बैठ जाओ!" मैंने कहा,
"आओ, साथ आओ मेरे" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"सवाल बहुत करते हो!" बोली!
"चलो" मैंने कहा,
और हम चले बाहर की तरफ!
बाहर आये तो साँझ ढल चुकी थी!
मौसम में कुछ ठंडक थी!
एक जगह एक तख्त पड़ा था, वहीँ जा बैठे हम!
"अब यहाँ क्या?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" बोली,
"तो यहां किसलिए?" मैंने पूछा,
"अरे वैसे ही?" बोली वो!
"ठीक है!" मैंने घुटने टेके!
हम बैठ रहे वहीँ कोई घंटा भर!
"अब चलो" मैंने कहा,
"चलो" बोली वो!
"एक घंटा बेकार करवा दिया!" मैंने कहा,
"कमरे से अच्छा नहीं लगा यहां?" पूछा,
"क्या अच्छा, मच्छरों ने नाम पता सब पूछ लिया!" मैंने कहा!
हंस पड़ी श्रुति!
आ गए कमरे में हम!
"अंदर बैठो, मैं आया" मैंने कहा,
और मैं सहायक से कह आया सामान के लिए,
खुद ले आया अपना सामान!
सामान आ गया, सारा सामान!
"लोगी?" पूछा मैंने!
"नहीं" बोली वो!
"क्यों?" पूछा,
"नहीं, मन नहीं" वो बोली,
"ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
और तभी बाबा मैहर का फ़ोन आ गया!
मैंने फ़ोन उठाया! बात हुई!
और पता लगा कि तिथि का निर्धारण कल हो जाएगा!
ये अच्छी बात थी, अब जो हो, जल्दी हो!
बता दिया श्रुति को मैंने सबकुछ फिर!
"आज है चतुर्थी, इसका अर्थ, तेरस या चौदस!" मैंने कहा,
"हाँ, यही होगा!" बोली वो!
"कोई बात नहीं, मुझे पांच दिन चाहियें बस!" मैंने कहा,
"हाँ, पता है!" बोली वो!
और मेरा गिलास भर दिया उसने!
"लाओ!" कहा मैंने और,
खींच गया एक ही बार में!!
और खाया कुछ साथ में उसके! पैग बहुत बड़ा बना दिया था उसने!
तो इस तरह से वो रात भी गुजर गयी! सुबह हुई, और हम सभी नहा-धोकर, तैयार हो गए थे! बाबा मैहर की खबर आती भी तो शाम तक ही, अब वहाँ बैठे बैठे भी समय नहीं काटे कट रहा था, सोचा कोलकाता ही चला जाए! थोड़ा समय भी कट जाएगा और आराम से दिमाग भी ठंडा हो जाएगा! इस श्रेष्ठ ने वैसे ही मेरे दिमाग में जलेबियाँ बनायीं हुईं थीं और अभी भी तले ही जा रहा था! शर्मा को को मेरी सलाह अच्छी लगी, तो मैं वापिस श्रुति के कमरे में आ गया, चाय पी चुकी थी वो, हमने नहीं पी थी अभी तक,
"आओ, बैठो!" बोली वो!
मैं बैठ गया वहीँ!
"सुनो, मैंने सोचा है कि यहां पड़े पड़े तो और दिमाग में जंग लगे जा रहा है, क्यों न कोलकाता चला जाए, बाबा देवज के पास?" मैंने कहा,
"आप जा रहे हो?" पूछा उसने,
"मैं और शर्मा जी" बोला मैं,
"अच्छा" बोली वो,
"अब चलना हो तो बताओ?" मैंने कहा,
"ले जा रहे हो तो बताओ?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं?" मैंने कहा,
"कब चलना है?" पूछा उसने,
"आज ही चलते हैं, ढाई घंटे में पहुँच जाएंगे" बोला मैं,
"ठीक है" बोली वो,
"तुम तैयार हो जाओ, मैं आता हूँ" बोला मैं,
और बाहर आ गया!
शर्मा जी को भी तैयार होने को कहा, और खुद भी तैयार हो गया!
कोई आधे घंटे बाद, गीता जोगन से कह, हम निकल गए कोलकाता, बाबा देव्ज के पास, नाम वैसे देवराज है उनका, मेरे से बहुत निभती है उनकी! उनका एक पुत्र है, अरुण, मित्र जैसा ही है! वो मिला तो फिर तो कोई बात ही नहीं!
हम कोई तीन बजे पहुँच गए थे बाबा देवज के डेरे पर! वहां बाबा भी मिले और अरुण भी! और सबसे बढ़िया बात कि आज वहां भेषज-क्रिया थी! क्रिया में बैठने का मुझे भी आमंत्रण मिला! ये तो बहुत बढ़िया हुआ था! हमको कक्ष दे दिए गए, दो कक्ष, एक हमारा, मेरा और शर्मा जी का, और एक श्रुति का, आज उसको अकेले ही रहना था, मैं तो क्रिया में ही रहता आज रात, प्रातःकाल ही आ सकता था वापिस! समझा दिया था उसको मैंने!
मैं संध्या समय साथ ही रहा श्रुति के! बाबा मैहर की कोई खबर नहीं आई थी अभी तक, शायद तिथि-निर्धारण नहीं हुआ अभी तक, खैर, हो जाना था वो भी!
रात को नौ बजे, मैं चला वहां से, शर्मा जी और श्रुति को समझा ही दिया था! और पहुँच गया क्रिया-स्थल पर, वहां कोई बारह औघड़ थे, अरुण भी वहीँ था, और बाबा देवज भी, समस्त वंदन करने के पश्चात, श्रृंगार किया हमनें! आसन लगाए अपने अपने और क्रिया आरम्भ हुई! कोई एक घंटे के बाद नौ या दस साधिकाएं भी पहुंच गयी थीं वहाँ! और फिर क्रिया आगे बढ़ी! इस क्रिया से बल मिलता है! सिद्धि-बल! वाक्-शक्ति बढ़ जाती है, केंद्रीकरण हो जाता है, शक्ति प्राप्त हो जाती है! औघड़ अक्सर ये भेषज-क्रिया किया करते हैं! इसे आप एक औषधि भी कहें तो कोई गलत न होगा! इस से काम-शक्ति, मुद्रा-शक्ति, त्वर-शक्ति आदि प्राप्त हो जाती है! क्रिया चार बजे तक चली! कई औघड़ और कई साधिकाएं वहीँ ढेर हो चले थे! मैंने कोई काम-तंत्र नहीं किया था वहाँ! हालांकि साधिकाएं आयीं इसीलिए थीं, लेकिन नहीं किया था मैंने, उस समय मेरी साध्वी मेरे संग थी, भले ही यहां नहीं, दूर सही, लेकिन थी वही, तो उसके अतिरिक में उस समयावधि में पर-स्त्री संसर्ग नहीं कर सकता था, ऐसा नहीं कि कोई नियम है ये, बस इच्छा नहीं की मेरी! अब कलाकंद खाते व्यक्ति को भला मोतीचूर का लड्डू कैसे अच्छा लगता! बस यही कारण था, और कुछ नहीं!
तो क्रिया का समापन हुआ, और फिर मैं स्नान करने के बाद, चला वापिस! सीधा श्रुति के पास, उक्सो जगाया, और सो गया! आँखों में नींद ही नींद थी! ऐसा सोया कि सुबह ग्यारह बजे ही उठा! नहाया धोया, फारिग हुआ और फिर आया गुसलखाने से वापिस, बैठा वहाँ!
"कैसी रही क्रिया?" पूछा श्रुति ने,
"बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,
"हाँ, वो तो रात को पता चल रहा था!" बोली वो!
"अरे नहीं! तुम हो तो कोई और नहीं!" मैंने कहा,
''सच?" पूछा उसने!
"झूठ बोलने से क्या होगा?" मैंने कहा!
"चाय पीनी है?" पूछा उसने,
"हाँ" मैंने कहा,
"कहती हूँ मैं" बोली वो,
"रुको, मैं जाता हूँ" मैंने कहा,
"आराम करो अभी" बोली वो,
और चली गयी!
कह आई थी वो चाय के लिए, चाय आई तो मैंने पी,
"खाना साथ ही लोगे?" पूछा उसने,
"हाँ" मैंने कहा,
चाय पी ली थी अब तक,
"मैं आया ज़रा" बोला मैं,
और आ गया बाहर,
शर्मा जी के पास पहुंचा,
"हो गयी क्रिया?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" मैंने कहा,
"कैसी रही?" पूछा उन्होंने!
