वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 और चल दी! घमंड सर चढ़ के बोल रहा था दोनों भाई बहन के!

 मैं आगे बढ़ गया फिर! अपने कमरे के लिए!

'कमरे में आया मैं तो शर्मा जी बैठे हुए थे और फ़ोन पर बात कर रहे थे किसी से, बातें उनकी काफी लम्बी हुईं, और जब फ़ोन काटा तो मुझसे मुख़ातिब हुए!

 "क्या कह रही थी वो?" पूछा मुझे,

 "अंजाम! अंजाम की बात कर रही थी!" मैंने कहा!

 "कैसा अंजाम?" बोले वो,

 "उस श्रेष्ठ से भिड़ने का अंजाम!" बोला मैं!

 "अच्छा! अंजाम!" बोले वो!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "बाबा पूरब से नहीं पूछा आपके बारे में?" बोले वो,

 "यही कहा था मैंने!" मैंने कहा,

 "तो क्या बोली?" वे बोले,

 "बोली बाबा पूरब से पूछ लो श्रेष्ठ के बारे में!" मैंने कहा,

 ''अच्छा! कोई बात नहीं! चलो, पूछते हैं!" बोले वो!

 सलाह तो अच्छी थी!!

 "चलो! चलते हैं बाबा के पास!" मैंने कहा,

 और हम कमरे को ताला लगा, चल दिए बाबा पूरब के पास!

 अभी वहां जा ही रहे थे कि मेरी निगाह एक जगह पड़ी! वहाँ मेरी एक जानकार महिला चंदा खड़ी थी! मैं वहीँ के लिए चल पड़ा!

 चंदा ने मुझे देखा तो नमस्कार की!

 "कैसी हो चंदा?" पूछा मैंने!

 "कुशल से हूँ! आप, और शर्मा जी आप?" पूछा उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सब बढ़िया!" मैंने और शर्मा जी ने कहा!

 "यहां कैसे?" पूछा मैंने!

 "आज ही आई हूँ, कुछ काम था बाबा मैहर को यहां बाबा पूरब से!" बोली वो!

 "बाबा मैहर भी आये हैं क्या?" पूछा मैंने,

 "हाँ, आये हैं!" बोली वो!

 "कैसे हैं वो?" मैंने पूछा,

 "बढ़िया है!" बोली चंदा!

 फिर थोड़ी देर चुप्पी!

 "वो, वो कहाँ है? आई है क्या?" मैंने पूछा,

 वो मुस्कुराई!

 "याद है अभी वो?" बोली वो!

 "हाँ, क्यों नहीं!" बोला मैं!

 "हाँ, वो भी आई है!" बोली वो, छेड़छाड़ के लहजे से!

 "कहाँ है?" पूछा मैंने,

 "उधर, उधर गयी है, कक्ष में!" बोली वो!

 अब मैं तो भाग लिया वहाँ! श्रुति आई हुई थी! आज से दो बरस पहले मिला था उस से, उसके बाद नहीं मिल पाया था मैं कभी! कभी जाना ही नहीं हुआ उसके पास, नंबर बदल गया था उसका! मैं आया कमरे में! कमरा बंद था अंदर से, मैंने दरवाज़ा खटखटाया!

 एक बार!

 दो बार!

 और तब दरवाज़ा खुला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सामने खड़ी थी श्रुति! मैं तो देखता ही रह गया उसे! कितनी खूबसूरत लग रही थी वो! कहीं और मिलती तो शायद पहचान ही नहीं पाता उसको! उसके निचले होंठ के नीचे के काले तिल ने पहचान बता दी थी उसकी! उसके गुलाबी होंठ, जो मुझे बहुत पसंद थे, अभी भी वैसे ही थे!

 "श्रुति!" मैंने कहा!

 वो देखते ही रही!

 जैसे पहचाना नहीं मुझे!

 फिर मुस्कुराई!

 "आओ, अंदर आओ!" बोली वो!

 और मैं अंदर धड़धड़ाते हुए घुस गया! दरवाज़ा बंद कर दिया था उसने!

 "कैसी हो श्रुति?" मैंने पूछा!

 "आप वही हो न?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा!

 "हाँ, वही, वो नदी किनारे का वो झोंपड़ा! बरसात का पानी चू रहा था! सर्दी का समय! हाँ! वही हूँ मैं!" मैंने कहा!

 हंस पड़ी! खिलखिलाकर! एक जानी-पहचानी सी हंसी!

 "यहां कैसे?" मैंने पूछा,

 "चंदा ने बताया होगा" बोली वो!

 "हाँ, बताया!" मैंने कहा,

 "और आप कैसे यहाँ?" पूछा उसने!

 "आया था किसी क्रिया के लिए!" बोला मैं!

 "अच्छा! निबट गयी?" पूछा उसने!

 "हाँ, निबट ही गयी! अच्छा, बैठो तो सही?" मैंने कहा,

 "आपने बिठाने को कहा ही नहीं!" बोली वो!

 "अरे बैठो न!" मैंने उसका हाथ पकड़ के बिठा लिया उसको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उसको देखा मैंने, उसका बदन! अवलोकन किया!

 "मोटी सी लग रही हो! वजन बढ़ गया है!" मैंने कहा,

 "हाँ! वजन तो बढ़ गया है!" बोली वो!

 "लेकिन हो अभी भी वैसी ही!" मैंने कहा,

 "कैसी?" बोली वो!

 "नींद उड़ाने वाली!" बोला मैं!

 "नहीं! ऐसी नहीं!" बोली वो!

 "हाँ, मानो!" मैंने कहा!

 "अच्छा? तो दो साल तक नींद आती रही आपको?" बोली वो!

 कहाँ से कहाँ ला पटका था उसने! शब्दों के खेल को केवल एक स्त्री ही जाने!

 "समय ही नहीं मिला!" बोला मैं!

 "ऐसा नहीं हो सकता!" बोली वो!

 "और तुम्हारा नंबर भी बदल गया!" मैंने कहा,

 "खो गया था फ़ोन" बोली वो,

 "तो मेरा नंबर नहीं था क्या?" पूछा मैंने,

 "नहीं, फ़ोन में ही था" बोली वो!

 "चलो, आज मिल ही गयीं तुम!" बोला मैं!

 "और, वहीँ हो?" पूछा उसने,

 "हाँ, और कहाँ जाना है!" मैंने कहा,

 "कब तक हो यहां?" उसने पूछा,

 "तुम कहो! कब तक ठहरूं!" मैंने कहा,

 "आपकी मर्ज़ी! फिर सो जाने वाले हो आप!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अरे नहीं!" मैंने कहा,

 "हाँ, जानती हूँ मैं!" बोली वो!

 आब इस बात से कहीं गड्ढा न खुद जाए, बात पलट दी मैंने!

 "शाम का क्या कार्यक्रम है?" पूछा मैंने,

 "कुछ नही" बोली वो!

 "तो आना मेरे पास!" मैंने कहा!

 "किसलिए?" पूछा मुस्कुराते हुए!

 "अब काम भी देख लेंगे! आओ तो सही!" मैंने कहा,

 अब मैंने कमरा बता दिया उसे अपना!

 और उसने हाँ कर दी! जानता था मैं वो मना नहीं करेगी!

 मैं बड़ा खुश था!!

 आ गया वापिस वहाँ से, कुलांचें भरता हुआ! सीधा शर्मा जी के पास!

 "मिल आये?" बोले वो!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "कैसी है?" पूछा उन्होंने!

 "बढ़िया! बहुत 'बढ़िया'!!" मैंने कहा!

 "वो तो मैं जानता ही था!" बोले वो!

 हंस पड़े! मैं भी हंसा!

 "और पूरब बाबा?" बोले वो!

 "अब जब बुलाएंगे तो चला जाऊँगा!" मैंने कहा,

 "आज तो जाने से रहे?" बोले वो,

 "क्यों?" बोला मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "श्रुति को बुलाया नहीं?" बोले वो!

 मैं हंसा!

 "हाँ, बुलाया है!" मैंने कहा!

 "अच्छा है!!" बोले वो!

 और अब मुझे इंतज़ार!

 शाम होने का! और सूरज महाराज, नीचे ही न ढलकेँ!!

 बड़ी बेसब्री से समय काटा! और शाम हुई!

 मैं तैयार! खुश!

साँझ हुई थी! और लगी थी ज़ोरदार हुड़क! आज की हुड़क बहुत कड़क थी! उस हुड़क में श्रुति के जकारण, काम का तड़का लगने वाला था! और तड़का लगाने वाला था मैं! अब मैं क्या करता! श्रुति को देख कर, मेरे अंदर, अपने आप ही लपटें उठ जाती थीं! आपसे सच कह रहा हूँ, सच में, मैं उसका देह-पान करना चाहता था! ये ही इच्छा थी मेरे मन में उस समय! उसके साथ बिताये वो चंद दिन, मैं भूल नहीं पाया था! और जब अवसर मिला था, तो मेरी समस्त इन्द्रियाँ मेरे विवेक को सरेआम पीट रही थीं! कभी कभार, विवेक को सुला दें पड़ता यही, तो आज मैंने सुला दिया था अपने विवेक को, और काम को जगा दिया था! अब या तो काम ही जागता यही, या फिर विवेक! और कुछ ही देर बाद, आ गयी थी मेरी लाल कचनार की कली!

 ''आओ श्रुति!" मैंने कहा,

 वो मुस्कुराई! मुझे देखा, जैसे मेरे विचार मेरे चेहरे पर छप गए हों!

 "बैठो न?" मैंने कहा,

 नहीं बैठी!

 "बैठो न?" मैंने कहा,

 "बिठाओ?" बोली वो!

 तो साहब! मैं पकड़ा हाथ! और खींच लिया उसको!

 मेरे ऊपर आ गिरी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब ऊपर आई, तो मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे!

 दो साल बाद की बर्फ, पिघलने को लगी!

 "नहीं बदली तुम!" मैंने कहा!

 "देख रही थी!" बोली वो!

 और तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई!

 मैं उठा, दरवाज़ा तक गया! खोला!

 तो सहायक था!

 "हाँ?" बोला मैं,

 "वो बाबा पूरब ने बुलाया है" बोला वो,

 अब इस वक़्त?

 ऐसे वक़्त पर?

 मन कसोस उठा!!

 "ठीक है, आता हूँ" मैंने कहा,

 मीठे में खट्टा आ गया था!

 "आना मेरे साथ?" बोला मैं,

 "कहाँ?" पूछा उसने!

 "आओ तो सही?" मैंने कहा,

 "चलो" बोली वो,

 और हम चल पड़े, बाबा पूरब की ओर!

 जा पहुंचे उधर! कमरे में वो श्रेष्ठ और उसकी बहन, युक्ता दोनों भी थे!

 और मेरे साथ श्रुति! श्रुति मेरी कोई कम न थी उस से! युक्ता से तो, कहीं बेहतर थी मेरी श्रुति!

 मेरी श्रुति?


   
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श्रीशः उपदंडक
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 यही लिखा मैंने?

 अब लिखा तो लिखा!

 हाँ! मेरी श्रुति!

 मैं बैठा वहां!

 श्रुति युक्ता को देखे, और युक्ता उसे!

 दोनों ही तलवार, दुधारी थीं!

 "हाँ बाबा?" मैंने कहा,

 "श्रेष्ठ के साथ आपने जो किया, वो अनुचित था!" बोले वो!

 "और इसने जो किया?" मैंने पूछा,

 "क्या किया?" पूछा,

 "आपके कान सही हैं न बाबा?" मैंने गुस्से में कहा,

 "क्या कह रहे हो?" बोले वो!

 "सुनो बाबा, मैं ऐसे कई श्रेष्ठों से मिल चुका हूँ! ये अपने बाप के बपौती खाते हैं!" बोला मैं!

 "चुप कर?" बोला श्रेष्ठ!

 "ओये, जब मैं बाबा से बात करूँ , तो तू अपना ये सियार सा चेहरा बीच में न लाया कर!" मैंने कहा,

 बस फिर क्या था!

 झपट पड़ा मुझ पर!

 मैंने भी साले के पेट में, दो तीन लात जमा दीं!

 बवाल खड़ा हो गया!

 लोग आ गए! बीच बचाव हुआ!

 "सुन ओये, उस धर्मेक्ष की औलाद, कभी अपने बाप की सुनी?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा पूरब बीछ बचाव कराएं!

 "ओ चुप का ****! बोला वो!

 "बहन के ** तेरी माँ की **! अब अगर बोला तो साले यहीं गाड़ दूंगा तुझे!" मैंने कहा,

 वो आया मेरे पास! मेरा गिरेबान पकड़ा! और गिर दिया मुझे!

 और हो गयी गुत्थमगुत्था!

 चीख-पुकार सी मच गयी!

 और तब मैंने, उस श्रेष्ठ को, ऐसा मारा, ऐसा मारा कि साला इंसान होगा तो याद रखेगा!

 बीच-बचाव हुआ!

 और फिर बाबा पूरब ने, मुझे सुना दिया फरमान!

 "कल सुबह, यहाँ से निकल जाओ!" बोले वो!

 "तो कौन रहता है यहां?" बोला मैंने!

 युक्ता!

 युक्ता! आँखें फाड़ फाड़ देखे मुझे!

 मैं खड़ा हुआ!

 "युक्ता! समझा ले इसे!" मैंने कहा,

 "जाओ, जाओ यहाँ से?" बोले पूरब बाबा!

 और तभी बाबा मैहर आये वाह!

 मैंने पाँव पड़े!

 "क्या बात है?" बोले वो!

 मैं बात बताई!

 "अब आप छोडो सबकुछ! बोले वो!

 "लेकिन ये हराम का कुत्ता माने तो सही!" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 रोक लिया!

 उस युक्ता ने रोक लिया उसे!

"तो काट ली न रात?" बोली वो!

 "हाँ! कट ही गयी!" मैंने कहा,

 "बढ़िया है!" बोली वो!

 "ख़ाक़ बढ़िया! सब सत्यानाश कर दिया उस कमीने ने!" मैंने कहा,

 हंस पड़ी वो! मैं भी हंसा! ऐसी स्थिति में तो बस हंस ही सकते थे!

 "और बाबा मैहर ने बात की बाबा पूरब से?" पूछा मैंने,

 "हाँ, बुला लेंगे आपको वो" बोली वो,

 "देखते हैं" मैंने कहा,

 "भोजन किया?" पूछा उसने!

 "बस करूँगा, तुमने किये?" पूछा मैंने,

 "हाँ, करके ही आई थी" बोली वो!

 और तभी मेरा फ़ोन बजा! मैंने उठाया, बाबा मैहर थे ये, बोले कि दो बजे आ जाओ वहाँ, मामला निबटा लेते हैं, ऐसी दुश्मनी अच्छी नहीं! मैंने भी हाँ कर दी, कि निबट जाए मामला आराम से तो कोई बात बने! और काट दिया फ़ोन!

 "आ गया बुलावा!" मैंने कहा,

 "मैंने कहा था न!" बोली वो,

 "हाँ, वही हुआ" मैंने कहा!

 "कितने बजे जाओगे वहाँ?" पूछा उसने,

 "दो बजे" मैंने कहा,

 "अब आराम से रहना, ताव नहीं खाना!" बोली वो!

 "हाँ, ठीक, साथ तो चलोगी मेरे?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "हाँ, चलूंगी" बोली वो!

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 मैंने भोजन कर लिया था तब, श्रुति ने नहीं खाया था भोजन, वो पहले से ही खा कर आई थी! थोड़ी बहुत पुरानी बातें कीं हमने, और फिर कोई डेढ़ बजे, मैं, श्रुति और शर्मा जी, चल पड़े उधर ही, बाबा पूरब के पास!

 जा पहुंचे हम वहाँ, ठीक दो बजे ही! सीधे ही उनके कक्ष की ओर चले, तो सामने से युक्ता आती दिखाई दी! दम्भ से फूली वो युक्ता, ऐसे देख रही थी जैसे वो कोई छिपकली है और मैं कोई कीड़ा! मैंने नज़रें नहीं हटाईं अपनी, बल्कि श्रुति की कमर में हाथ और डाल लिया! नथुने फुलाती हुई, निकल गयी वहां से! शायद आज मना कर दिया था उसको वहाँ बैठने से!

 "नखरे देखे इसके?" मैंने श्रुति से कहा!

 "हाँ, देखे!" बोली वो!

 "अभी नयी है शायद, पता चल जाएगा आगे आगे!" मैंने कहा,

 अब न बोली कुछ श्रुति!

 और अब हम आ गए कक्ष के पास! अंदर बैठे थे सभी, करीब दस लोग, वो श्रेष्ठ अपने गुर्गों के संग, बैठा था कुर्सी पर!

 "आओ, बैठो" बोले बाबा मैहर!

 हम बैठे वहां, और तभी वो युक्ता भी आ गयी अंदर! जा बैठी एक तरफ! उसके साथ दो महिलायें और थीं!

 "देखो, आपस में मनमुटाव अच्छा नहीं, हम चाहते हैं कि सब सामान्य हो, श्रेष्ठ आपसे उम्र में बड़े हैं, आपको क्षमा मांगने में कोई आपत्ति तो नहीं?" बोले बाबा मैहर!

 "क्षमा? कैसी क्षमा? ऐसा कौन सा पाप कर दिया मैंने?" पूछा मैंने,

 "आपने मार-पीट की श्रेष्ठ के साथ" बोले वो!

 "मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा था कि मैं मार-पीट करूँ इसके साथ?" मैंने कहा,

 "लेकिन आपने की" बोले वो,

 "हाँ की!" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "क्यों?" पूछा उन्होंने,

 "इसने सौंगड़ लड़ाया, नाम मेरा लगाया! क्रिया नष्ट हो गयी, वो घाड़ भी दोनों, फिर इसने वहां मेरे से हाथापाई की, दुबारा यहां की, गलती किसकी?" मैंने पूछा,

 "सौंगड़ किसने लड़ाया ये मैं जान गया हूँ" बोले बाबा पूरब!

 "किसने?" पूछा मैंने,

 "आपने ही" बोले वो!

 मैं सन्न!

 "यहाँ मुझे समझौते के लिए बुलाया है या फिर राड़ के लिए?" मैंने पूछा,

 "आप क्षमा मांगो श्रेष्ठ से!" बोले बाबा पूरब!

 ये सुन, युक्ता मुझे देखे! जैसे वो क़ाज़ी हो और मैं गुनाहगार! जाइए उसको अदालत में लाया गया था मुझे!

 "क्षमा!" मैंने कहा,

 "हाँ, क्षमा!" बोला श्रेष्ठ!

 अब उसको देखा मैंने!

 दम्भ से फूला हुआ, ठट्ठेबाजी में लगा था!

 "क्षमा कर दूंगा! लौट के न आना कभी! और कभी मैं दिख जाऊं, तो ये पाँव पड़ लेना!" बोला वो!

 मैं हंसा! वो हैरान हुआ! युक्ता भी हैरान!

 "अब पाँव! पाँव तो अब मैं तेरे बाप के भी न पडूँ ज़लील इंसान! और क्षमा, तुझसे? तेरी औक़ात है क्या?" मैं खड़ा हो गया था! शर्मा जी भी! और उसके गुर्गे, उसको घेर के खड़े हो गए थे!

 "बस! बस! तू मुझे जानता नहीं है शायद!" बोला वो!

 "तू जानता है मुझे? नहीं न? नहीं तो तेरा कलेजा तेरे हलक़ में आ गया होता! जा, पूछ बाबा पूरब से, कौन हूँ मैं?" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो बिफर पड़ा! मेरा अपमान हुआ है, मुझे पसंद नहीं, समझा लो इसे, नहीं तो टुकड़े टुकड़े कर दूंगा इसके ये, वो और न जाने क्या क्या!!

 "अब इसका फैंसला कैसे होगा?" बोले बाबा पूरब!

 "जैसा ये चाहे!" मैंने कहा,

 "क्षमा मांग ले?" बोला श्रेष्ठ!

 "इसके अलावा कोई रास्ता बता?" कहा मैंने,

 "तो एक ही रास्ता है फिर!" बोला वो!

 "और वो क्या?" पूछा मैंने!

 "द्वन्द!" बोला वो!

 द्वन्द!

 ये तो मैं जानता ही था!! मालूम था मुझे!

 जैसे ही उसने द्वन्द कहा,

 बाबा मैहर मुस्कुरा गए! और बाबा पूरब, मुरझा गए! बाबा पूरब को पता थी मेरी सिद्धहस्तता द्वन्द में! जानते थे वो कि बाबा धन्ना से कोई नहीं जीता द्वन्द में! और मेरी रगों में उसी बाबा धन्ना का लहू बह रहा है!

 "ठीक है! द्वन्द ही सही!" बोला मैं!

 "हाँ, द्वन्द!" बोला वो!

 'एक बार सोच ले फिर! बाबा पूरब से जान लेना मेरे बारे में एक बार!" कहा मैंने!

 "चल? निकल यहां से?" बोला वो!

 "तमीज़ से बात कर, कहीं द्वन्द के अंत में तेरी बहन तेरे सिर्फ तेरे पुर्ज़े चुनने आये!" मैंने कहा!

 "अरे जा! आया तू!" बोला वो!

 "चलो शर्मा जी, श्रुति, चल!" मैंने कहा,

 मैं गुस्से में आगबबूला था बहुत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 इसको मैं ऐसी सजा दूंगा, कि ये ज़िंदगीभर, द्वन्द के नाम सुनते ही कपड़े गीले करता रहेगा! यही सोचा था मैंने उस समय!

 "चलो" बोले शर्मा जी!

 हम आ गए बाहर,

 चले वापिस!

 "इस कुत्ते से यही आशा थी!" बोले शर्मा जी!

 "हाँ, मुझे भी यही लगा था!" मैंने कहा,

 "श्रुति?" मैंने कहा!

 "हाँ?" बोली वो!

 "शायद इसीलिए मिलीं तुम मुझे!" मैंने कहा!

 मुस्कुराई! मेरी बाजू पकड़ी!

 "मैं साथ हूँ तुम्हारे! बुलाते तो भी आ जाती!" बोली वो!

 "जानता था!" मैंने कहा!

 "मैं तैयार हूँ!" वो बोली!

 "अच्छा, अब कहाँ चलना है, मेरे संग या यहीं रहोगी?" पूछा मैंने,

 "आपके संग!" बोली वो!

 और तभी बाबा मैहर आ ये वहां! श्रुति ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी थी!

 "मैं तिथि के विषय में सूचित करूँगा आपको!" बोले वो!

 "हाँ बाबा!" मैंने कहा!

 "और हाँ, गीता के पास जब तक चाहो रहो, कोई चिंता नहीं" बोले वो!

 "धन्यवाद" मैंने कहा!

 अब हम चल पड़े वापिस, यहीं गीता जोगन के पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और तभी वो युक्ता दिखी! हंसती हुई! खिलखिलाती हुई!

 रहा न गया मुझसे!

 चल पड़ा उसकी तरफ ही!

 रोक मुझे श्रुति और शर्मा जी ने, लेकिन न रुका मैं!

 जा पहुंचा!

 "ये हंसी सभाल कर रखना!" मैंने कहा!

 चौंक पड़ी वो!

 "अपने आपको संभाल के रखो अब!" बोली वो!

 "संभाल लो, अभी भी वक़्त है!" मैंने कहा,

 "श्रेष्ठ क्या है, जान जाओगे तुम!" बोली वो!

 "और तुम्हारे पिता! अफ़सोस! क्या गुजरेगी उन पर अब!" बोला मैं!

 और आ गया वापिस!

 "क्या कह रही थी?" पूछा शर्मा जी ने,

 "वही, वही श्रेष्ठ-लीला!" मैंने कहा,

 "अच्छा! बहन है आखिर!" बोले वो!

 "श्रुति?" मैंने कहा,

अनुभव क्र. ७७ भाग २

By Suhas Matondkar on Monday, October 6, 2014 at 9:47pm

 "हाँ, कहो?" बोली वो,

 "कपड़े ले आओ अपने" मैंने कहा!

 "लाती हूँ अभी" बोली वो!

 कुछ ही देर में, बैग ले आई अपना!


   
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