वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 "आपके पास समय है?" पूछा उन्होंने,

 "हाँ, कहिये?" बोले वो,

 "एक महा-घाड़ क्रिया है, आप सम्मिलित होंगे?" पूछा उन्होंने!

 महा-घाड़ क्रिया! कौन नहीं सम्मिलित होगा उसमे!

 "हाँ, अवश्य ही" मैंने कहा,

 "ठीक है फिर" बोले वो,

 "कब है क्रिया?" मैंने पूछा,

 "चार दिन बाद" बोले वो,

 "यहीं?" पूछा मैंने,

 "आद्य-श्मशान में" बोले वो,

 "वो कहाँ है?" पूछा मैंने,

 "है इधर ही" बोले वो,

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 "इसमें कुल नौ लोग है सम्मिलित, आपका परिचय करवा दूंगा, कल या परसों में उनसे!" वे बोले,

 "जी" मैंने कहा!

 और मैं उठ लिया वहां से, आया शर्मा जी के पास!

 "किसलिए बुलाया था?" पूछा उन्होंने,

 "एक क्रिया है" मैंने कहा,

 "कौन सी क्रिया?" पूछा उन्होंने,

 "महा-घाड़ क्रिया!" मैंने कहा,

 वे चौंके! उठ गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "महा-घाड़?" वे बोले,

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "वही दो शवों वाली?" बोले वो!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "अच्छा!" वे बोले!

 महा-घाड़ क्रिया! दो शवों के साथ की जाती है! इस से सिद्धि-मार्ग प्रशस्त हो जाता है! और सर्व-बाधा शमन हो जाता है! इसीलिए औघड़ इसको किया करते हैं! जो खर्चा आता है, वो आपस में बंट जाता है! इसीलिए बुलाया था उन्होंने मुझे!

 "और कब है ये क्रिया?" बोले वो,

 "चार दिन बाद" मैंने कहा,

 "अच्छा!" बोले वो!

 "हाँ, बढ़िया है न!" मैंने कहा,

 "और है कहाँ?" उन्होंने पूछा,

 "यहीं है कहीं!" बोला मैं!

 "आसपास ही होगा?" बोले वो!

 "हाँ, शायद" मैंने कहा,

 "ठीक है" बोले वो!

 उस रात शर्मा जी ने दारु नहीं ली! मैं ही मढ़ा रहा बस! शर्मा जी को हीक चढ़ी हुई थी उसकी!

 अगली सुबह हुई, फिर दोपहर!

 मेरे पास फिर से बुलावा आया!

 मैं गया! बाबा पूरब के पास!

 बैठा, नमस्कार हुई सबसे!

 "कैसे हो?" पूछा बाबा ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "बढ़िया!" मैंने कहा,

 और फ्री एक एक करके उन्होंने सभी से परिचय करवाया मेरा! और एक व्यसक्ति से परिचय समय, मेरी नज़रें अटक गयीं आपस में! वो था श्रेष्ठ! कोई चालीस या बयालीस वर्ष का होगा वो! अच्छी खासी देह थी उसकी! माथे पर भस्म लपेटता था वो हमेशा! मेरा परिचय हुआ, तो उसने मुंह फेरा ज़रा!! मुझे कुछ खटका उसका नज़रिया!

 "आप दिल्ली वाले हैं न?" पूछा उसने,

 "हाँ, वही हूँ, आपको कैसे पता?" बोला मैं!

 "युक्ता ने बताया!" बोला वो!

 "अच्छा! आपकी बहन!" मैंने कहा,

 "हाँ! बहन!" बोला वो!

 "हाँ, मिला था मैं उनसे!" मैंने कहा,

 मुंह फेर लिया उसने!

 मैं समझ गया था कि उसको आपत्ति थी मेरे उसकी बहन से मिलने से!

 "तो आप सभी, तीन दिन बाद, यहीं मिलें सब!" बोले बाबा पूरब!

 मैं लौट आया वापिस,

 सीधा कमरे में अपने!

 "हुआ परिचय?" पूछा शर्मा जी ने!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "कैसे हैं सब?" पूछा,

 "एक के अलावा सब बढ़िया!" बोला मैं!

 "किस एक के अलावा?" पूछा,

 "वो श्रेष्ठ!" मैंने कहा!

 "कौन श्रेष्ठ?" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "वो, युक्ता का भाई!" मैंने कहा,

 "अच्छा!!" वे सब समझ गए!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "तो क्या हुआ? क्रिया करो और उठो?" बोले वो!

 "हाँ, लेकिन कुछ गड़बड़ हुआ, तो सब गड़बड़ हो जाएगा!" मैंने कहा,

 "मतलब?" पूछा उन्होंने!

 "एक गड़बड़! और सब राख!" मैंने कहा,

 "वो साला क्यों करेगा ऐसा?" बोले वो!

 "नाम नहीं सुना उसका आपने? श्रेष्ठ!" मैंने कहा,

 "हाँ, समझ गया!" वे बोले,

 "तो साला तुनक क्यों रहा है, बात करता?" बोले वो!

 "करेगा बात वो!" मैंने कहा,

 "कैसे?" पूछा उन्होंने!

 "आप देखते जाओ!" मैंने कहा!

 "कैसे?" बोले वो!

 "युक्ता!" मैंने कहा,

 "समझ गया!" बोले वो!

 हंस पड़े थे वो!

 अगले दिन, मेरी आँखें ढूंढ रही थीं उस युक्ता को! और मिल गयी मुझे वो! एक लड़की के साथ बैठी थी एक जगह! मैं वहीँ के लिए चल पड़ा!

 वहां पहुंचा!

 उसने देखा, मैंने भी देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "नमस्कार युक्ता!" मैंने कहा,

 "नमस्ते!" बोली वो!

 "अभी यहीं हो?" पूछा मैंने,

 "हाँ, यहीं हूँ!" बोली वो!

 "गयी नहीं?" मैंने पूछा,

 दरअसल मैं पींगें बढ़ा रहा था उस से!

 "अभी नहीं" बोली वो!

 "वापिस सियालदाह?" मैंने पूछा,

 "नहीं, कोलकाता!" बोली वो!

 "अच्छा!" मैंने कहा!

 "आप नहीं गए?" पूछा उसने!

 "नहीं, आपके भाई के संग के क्रिया है!" मैंने कहा,

 वो थोड़ा सा सकपकाई!

 "अच्छा!" वो बोली,

 तब वो लड़की जो, साथ बैठी थी उसके, खड़ी हो गयी!

अब वहां मैं और युक्ता ही थे, वो लड़की जा चुकी थी वहाँ से, कहाँ गयी थी पता नहीं, हाँ, इक्का-दुक्का औरतें थीं वहां, वे भी वहीँ बैठी थीं, कोई अपने काम में लगी थी तो कोई किसी के संग बात कर रही थी, मैं जानबूझकर आया था यहां, युक्ता से बात करने! कुछ उद्देश्य निहित था इसमें! युक्ता मुझसे बात करने में थोड़ा संकुचायी सी लग रही थी, जैसे उसको मना किया गया हो यहां किसी से भी बात करने में! उसके पास कुछ किताबें थीं, वो किताबें समाजशास्त्र के विषय पर लगती थीं, शायद अध्ययन कर रही थी उनका वो!

 "आप पढ़ाई कर रही हो?" मैंने पूछा,

 "हाँ" बोली वो,

 "अच्छी बात है" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "आप, बैठ जाइए?" बोली वो,

 "कोई बात नहीं, टहल रहा था कि आप नज़र आये" मैंने कहा,

 ''अच्छा" बोली वो!

 और तभी वो लड़की उस श्रेष्ठ के संग आ गयी वहाँ! श्रेष्ठ गुस्से में लगता था, नथुने फड़क रहे थे उसके! मुझे अच्छा लगा उसका यूँ बिदकना!

 "युक्ता?" बोला वो, चीख कर!

 युक्ता ने देखा उसको डरते हुए!

 "खड़ी हो?" बोला वो!

 खड़ी हो गयी वो, और चल दी वहाँ से! जानती थी कि श्रेष्ठ के आगे के वाक्य क्या होंगे!

 "तुम क्या कर रहे हो यहां?" पूछा उसने,

 "कुछ नहीं, मैं गुजर रहा था यहाँ से, युक्ता दिख गयी, तो बात करने चला आया!" मैंने कहा,

 "क्या बात? क्या विषय?" पूछा उसने!

 "समाजशास्त्र!" मैंने कहा,

 कड़वी से नज़र से देखा उसने मुझे!

 "अब नहीं बात करना उस से!" बोला वो!

 "क्यों? मैंने कुछ गलत कहा क्या?" मैंने पूछा,

 "बस नहीं करनी बात!" बोला वो,

 "मुझे बताओ पहले, क्या युक्ता ने ऐसा कुछ कहा?" पूछा मैंने,

 "मैंने कहा न? बस?" बोला वो!

 "सुनो! ऐसे ही मुझ पर तोहमत न लगाओ, मुझे बताओ पहले" मैंने कहा,

 "मना कर दिया न? समझा नहीं क्या?" बोला वो!

 "नहीं समझा मैं!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चल, जा यहाँ से, अब देख न लूँ तुझे!" अब बोला वो!

 अब मान-सम्मान भी भूल गया था वो!

 "पहले ये बता, युक्ता ने कुछ कहा क्या?" मैंने भी उसी तर्ज़ में बात की उस से!

 "बकवास न कर, समझा?" बोला वो!

 "बकवास तू न कर, समझा? जितना है, जितने में है, उतना रह, उतने में रह!" मैंने कहा,

 "क्या समझ रहा है तू अपने आपको?" बोला वो,

 "और तू? तू क्या समझ रहा है?" मैंने कहा,

 "अगर अबकी बार देख लिया बात करते हुए तो अंजाम तू ही जाने!" बोला वो!

 "देख लूँगा! देख लूँगा तू क्या अंजाम दिखायेगा मुझे, अब निकल यहां से!" मैंने कहा,

 मुझे देखा हेय-दृष्टि से उसने, पलटा और अपना गमछा गले में लपेटता चला गया वहां से!

 अब युक्ता का सकपकाना समझ आ गया था मुझे! उसने बताया होगा मेरे बारे में कि मैंने उस से बातें की थीं! और ये श्रेष्ठ पसंद नहीं करता था कि कोई उसकी बहन से बातें करे! छोटी मानसिकता वाला था ये श्रेष्ठ, या घमंड था उसे बाबा धर्मेक्ष का! यही दो कारण थे! छोटी सी बात का बतंगड़ बना दिया था उसने! खैर, मैं लौटा वापिस, अपने कमरे में आ गया! और शर्मा जी को अभी था जो हुआ था, हवाला दे दिया! उनको भी गुस्सा आ गया!

 "अबे इतनी ही परेशानी है तो लाया ही क्यों संग उसे?" बोले वो!

 "पता नहीं!" मैंने कहा!

 "चलो मरने दो, क्रिया करो और निकलो यहां से!" वे बोले,

 "हाँ, यही ठीक है" मैंने कहा,

 और मैं लेट गया फिर! आँखें बंद कर लीं! और आ गयी झपकी!

 इस तरह से वो दिन आ गया, जब हमें वहाँ उस आद्य-श्मशान जाना था, हम कुल नौ लोग थे! सबसे पहले हम बाबा पूरब के पास पहुंचे थे, सभी तैयार थे वहां, और तभी श्रेष्ठ ने मुझे देखा, कुटिल दृष्टि से! मैंने भी देखा, न हटाईं नज़रें उस से! हम दोनों बरबस ही एक दूसरे को देख लिया करते थे! नज़रों में उसकी घमंड था और मैं उसको भी, इसी दृष्टि से देखा करता था! सारी तैयारियां हो चुकी थीं, बस हमें उस श्मशान में जाना था, जहां वो दोनों घाड़ मंगवाए गए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ उनका पूजन करना था और फिर क्रिया में बैठ जाना था! ये क्रिया, रात्रि ग्यारह से कोई तीन बजे तक चलनी थी! हम सभी को आदेश हुआ, कि ठीक दस बजे हम पहुँच जाएँ यहां, और फिर यहां से निकलना था उस आद्य-श्मशान के लिए! मैं अपने कक्ष में लौट आया था! सामना आदि जांचा मैंने, जो ज़रूरी था, वो ले लिया था, शर्मा जी यहीं रुकने वाले थे, मैंने समझा दिया था उन्हें कि वो आराम से रहें, खाएं-पियें, मैं सुबह तक आ जाऊँगा वापिस!

 और इस तरह हम लोग दस बजे ठीक आ गए बाबा पूरब के यहां! वहाँ एक बार फिर से मंत्रणा हुई! कुछ नियम आदि फिर से दोहराये गए, जो अभी भी लौटना चाहता था, लौट सकता था! कोई नहीं लौटा! और इस प्रकार, हम बाबा पूरब के साथ निकल पड़े! वो श्रेष्ठ, बाबा पूरब के संग ही चल रहा था, मैं एक और साधक अजंग के संग था और उसी से बातें करते हुए चल रहा था! हम करीब आधा घंटा चले! और फिर आ गए एक श्मशान में! ये श्मशान बड़ा नहीं था, लेकिन छोटा हो, ऐसा भी नहीं था! उस श्मशान में दो कक्ष बने थे! एक दो चिताएं जल रही थीं वहाँ, उन्ही का प्रकाश था वहाँ बस! अब बाबा पूरब हमें ले गए एक कक्ष में, कक्ष लकड़ी से बना था सारा, जैसे कोई बड़ा सा लकड़ी का कारखाना! वहीँ नीचे दो शव रखे थे, लालटेन जली थीं वहाँ, लालटेन भी मुझे पुराने ज़माने की ही लगीं! चार लालटेन थीं वहाँ, और चार ही सहायक! सहायकों ने उन शवों को स्नान करवा दिया था! अब बाबा पूरब ने, उन शवों की जांच की, हाथ-पाँव जाँचे गए, पूरा शरीर जांचा गया, कोई दोष न हो, इसलिए! इसमें कोई बीस मिनट लगे! अब धमल-क्रिया शुरू हुई! उनको जागृत करने की! लेकिन धमल-क्रिया में, कोई त्रुटि थी! एक घंटे के बाद भी वे जागृत न हुए थे! बाबा पूरब को चिंता हुई! लेकन समझ न सके वे! बार बार मंत्र पढ़ते, और बार बार मंत्र विफल! अब खड़ा हुआ श्रेष्ठ! अब उसने कमान संभाली! आरम्भ की धमल-क्रिया! और फिर से कुछ न हुआ!

 "किसी ने सौंगड़ लड़ाया है!" बोला वो!

 सौंगड़?

 सभी खड़े हो गए!

 अपना अपना सामान नीचे रख दिया! मैंने भी!

 "किसने लड़ाया है?" पूछा उसने!

 कोई कुछ न बोले!

 अब किसी ने लड़ाया हो तो कोई बोले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और तब एक वृद्ध से साधक आगे आये! और एक मंत्र पढ़ा! फिर बाबा पूरब के पास गए वो! धेमज बाबा नाम है उनका! उड़ीसा के साधक हैं!

 "क्या मैं प्रयास करूँ?" बोले वो!

 "हाँ, अवश्य!" बोले बाबा पूरब!

 अब बाबा धेमज बैठे नीचे! और किया मंत्रोच्चार! हम सब खड़े थे कि अचानक ही, हूँ! हूँ! की आवाज़ आने लगी उन शवों से! बाबा धेमज सफल हुए थे! किसी ने सौंगड़ नहीं लड़ाया था! जो त्रुटि थी, बाबा धेमज ने सुधार दी थी!

 "चलो" बोले बाबा पूरब!

 और हम अब चल पड़े बाहर!

 बाहर, जहां उनके लिए चिताएं सजी थीं!

 लेकिन जैसे ही उनको उठाया! वे दोनों शव, फटने लगे! उनमे छेद होने लगे! खोपड़ी फूट गयी उनकी! छाती फट गयी! पेट फट गया, आंतें बाहर आ गयीं सारी की सारी! जोड़ टूट गए उनके! और वे शव, अब लोथड़े बन गए! क्रिया! असफल!!

 अब वहां ठहरने का कोई औचित्य नहीं था! अतः, मैं और अजंग, वहाँ से बाबा पूरब की आज्ञा लेकर, चल दिए वापिस, अब उन दोनों शवों का दाह-संस्कार करना था! वे बाबा पूरब ही करते! अपशकुन तो धमल-क्रिया में ही हो गया था! अब किसी ने सौंगड़ लड़ाया हो या न लड़ाया हो! क्रिया असफल हो गयी थी!

 हम वापिस आ रहे थे दोनों! अजंग काशी के हैं!

 "ऐसा क्या हुआ?" मैंने पुछा,

 "पता नहीं, शायद सौंगड़ की वजह से" बोले वो,

 "लेकिन सौंगड़ लड़ायेगा कौन?" मैंने पूछा,

 "कह नहीं सकता" बोले वो!

 "अब पता नहीं कब मौक़ा आये" मैंने कहा,

 "मैं तो कल निकल जाऊँगा" वो बोले,

 "मैं भी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "चलो यही ठीक है" बोले वो,

 "हाँ, और क्या" बोला मैं,

 और तभी पीछे से हमें किसी ने आवाज़ दी,

 हमने पीछे देखा, एक सहायक था वो! आया हमारे पास!

 "क्या हुआ?" पूछा मैंने,

 "वो बुला रहे हैं आपको" हाँफते हाँफते बोला वो,

 "कौन?" पूछा मैंने,

 "बाबा पूरब" बोला वो,

 "किसलिए?" मैंने पूछा,

 "पता नहीं" बोला वो,

 घड़ी देखी मैंने, एक बजने को था तब!

 "चलें वापिस?" मैंने अजंग से पूछा,

 "चलो फिर" बोले वो,

 "चलो" मैंने कहा,

 और हम दोनों, फिर से चल दिए वापिस!

 बाबा पूरब के पास! पता नहीं किया बात थी! क्या हुआ था वहाँ!

 और हम, जा पहुंचे वहाँ!

हम दोनों वहाँ पहुंचे उस सहायक के साथ, वहां तो सभी हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे जैसे! हमें देख बाबा पूरब खड़े हो गए, मैंने देखा, वो दोनों शव जो अब लोथड़े हो चुके थे, उठा लिए गए थे, और शायद अब उनका दाह-संस्कार चल रहा था बाहर! अब श्रेष्ठ भी उठ गया था बाबा पूरब के साथ! बाबा पूरब आये मेरे पास,

 "आओ इधर, बैठो" बोले मुझसे,

 मैं बैठ गया नीचे, उस दरी पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "आप चले क्यों गए?" पूछा उन्होंने,

 "ऐसे ही, आपसे पूछ कर ही तो गया था?" बोला मैं,

 "ये श्रेष्ठ कुछ कहना चाहते हैं" बोले वो,

 "जानता हूँ क्या कहना चाहते हैं!" मैंने कहा,

 "क्या?" बोले वो,

 "यही कि सौंगड़ मैंने लड़ाया! यही न!" मैंने पूछा,

 "हाँ, क्या ऐसा ही है?" बोले वो,

 "नहीं" मैंने कहा,

 "फिर ये क्यों कह रहे हैं?" बोले वो,

 "वो तो ये ही जाने!" मैंने कहा,

 तभी बाबा धेमज उठे! और आये मेरे पास!

 "सच कहिये आप, क्या ऐसा ही है?" बोले वो,

 "अरे बाबा! आप भी! ऐसा कुछ नहीं है!" मैंने कहा,

 बाबा धेमज मेरी सच्चाई भांप गए थे, इसीलिए बाबा पूरब से कह दिया कि मैंने नहीं लड़ाया सौंगड़!

 "सौंगड़ लड़ा तो है!" बोला श्रेष्ठ!

 "अपने बारे में क्या विचार है?" मैंने पूछा, खड़े होते हुए!

 मैंने ऐसा कहा, तो सभी चौंक पड़े!

 "क्या कह रहे हैं आप ये?" बोले बाबा पूरब!

 "क्यों? ये नहीं लड़ा सकता?" मैंने पूछा,

 "नहीं, हरगिज़ नहीं!" बोले वो!

 "लड़ा सकता है! और लड़वा भी सकता है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "क्या?" बोला श्रेष्ठ!

 "सुना नहीं, तूने नहीं लड़ाया होगा तो तेरे तो यहां गुट्टे भी बहुत हैं!" माने कहा!

 भुनभुना गया मेरे जवाब से वो!

 "जुबान संभाल कर बात कर, सुना?" बोला वो!

 "धमकी समझूँ इसे?" बोला मैं!

 "जो मर्ज़ी समझ!" बोला वो!

 मेरे पास आ गया था वो, ये कहते कहते!

 मैंने तभी, खींच के एक मारा झापड़ साले के सीधे कान पर! सम्भल नहीं सका! गिर गया! उठा! गाली-गलौज करता हुआ और लिपट गया मुझसे, मेरे और उसके बीच गुत्थमगुत्था हो गयी! सभी छुड़ाने के प्रयास करें! मैंने साले की नाक पर ऐसे घूंसे बरसाए कि नाक तो घायल हुई ही, खून और बह चला! कद में नीचे है मुझे, मुझे इसका लाभ मिला था! अगर मेरे हाथ में खंजर या त्रिशूल होता तो उस हरामज़ादे की आतें निकाल कर, उसके गले में माला की तरह डाल देता! हमें अलग कर दिया गया था! वो बार बार गालियां दे रहा था, और मैं भी! वो भी छूटने का प्रयास करता और मैं भी! आखिर में बाबा पूरब ने डांटा दोनों को! और करा दिया चुप! दे दीं हिदायतें!

 मुझे बाबा धेमज के साथ वापिस भेजा गया, अंगज भी मेरे साथ था, हम कुल चार आदमी वापिस चल दिए थे वहां से, उस गुत्थमगुत्था में, मेरी गर्दन पर कुछ चोट आई थी, अब हाथ लगा के देखा तो खून निकला हुआ था, शायद नाख़ून लग गए थे उसके!

 "किसी ने तो लड़ाया ही था वो सौंगड़" बोले बाबा धेमज!

 "हाँ, यही लग लढ़ा है" अंगज बोला,

 "अरे ये साला वही है, वही!" मैंने कहा!

 "लेकिन वो क्यों करेगा ऐसा?" पूछा अंगज ने!

 "उसका इसमें कुछ लगा है क्या?" पूछा मैंने,

 "लगा होगा" बोला अंगज,

 "नहीं, नहीं लगा" बोले बाबा धेमज!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर?" अंगज ने पूछा,

 "ये आद्य-श्मशान उसी के जानकार का है" बोले बाबा धेमज!

 "अब तो पक्का वही है ये!" मैंने कहा,

 "हो सकता है" बोले बाबा धेमज!

 "लेकिन आपसे क्यों भिड़ गया वो?" पूछा नगज ने!

 और तब मैंने सारी बात बता दी उन सभी को!

 सभी ने गौर से सुनी मेरी बात!

 "तो इसमें क्या गलत कर दिया?" बोला अंगज!

 "बाबा धर्मेक्ष की बेइज़्ज़ती कर दी मैंने!" बोला मैं,

 "अरे छोड़िये!" बोला अंगज!

 "उसको तो यही लगा!" मैंने कहा,

 "गलत बात है ये" बोले बाबा धेमज!

 "उसे ऐसा नहीं लगता न?" मैंने कहा,

 "मैं समझाऊंगा उसे!" बोले वो,

 "नहीं समझने वाला वो!" मैंने कहा,

 "समझा दूंगा आप देखते रहें" बोले वो,

 "ठीक है" मैंने कहा,

 हाँ, समझ जाए तो इस से भला क्या!

 तो हम आ गए थे वापिस, बाबा पूरब के डेरे पर! मैंने उन सभी को प्रणाम किया और चला आया कमरे में अपने! सामान रखा, और बैठ गया! जाग गए शर्मा जी!

 "पूर्ण हुई क्रिया?" बोले वो,

 "अरे कहाँ?" मैंने कहा,


   
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 "क्या हुआ?" पूछा,

 अब सारा हाल बयान किया मैंने! उन्होंने चोट देखी मेरी, ज़्यादा नहीं थी, लेकिन फिर भी एक बैंड-ऐड चिपका दी वहाँ!

 "साले की इतनी हिम्मत?" बोले वो!

 "साला, कुत्ता वो पूरब बाबा के ऊपर अकड़ता है!" मैंने कहा,

 "तो पूरब बाबा को नहीं सुनाई आपने?" बोले वो,

 "अब क्या कहता?" मैंने कहा,

 "सुनाते तो सही?" बोले वो,

 "क्या सुनाता!" मैंने कहा,

 "कि ऐसा करते हो यहां बुला के? ऐसा अपमान?" बोले वो,

 "अब कल ही होंगी ऐसी बातें!" मैंने कहा,

 "मुझे ले चलना" बोले वो,

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 मैं फिर स्नान करने चला गया! और फिर सो गया आराम से!

 सुबह उठे! नहाये-धोये! और फिर चाय पीने चले!

 तभी युक्ता नज़र आ गयी!

 आ रही थी सामने से!

 आई, और गुजर गयी! एक नज़र भी न देखा!

 "बता दिया होगा इसको उस कुत्ते ने!" बोले वो!

 "हाँ, तभी नहीं बात की इसने!" मैंने कहा,

 "जाने दो!" बोले वो!

 "हाँ, भाड़ में जाए ये दोनों!" मैंने कहा!


   
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 मुझे कुछ लेना-देना तो था नहीं उस से, बात करे या नहीं, कोई लाभ नहीं!

 हमने चाय पी फिर!

 और जैसे ही लौटे, युक्ता फिर से दिखाई दी! आ रही थी! मैं रुक गया!

 शर्मा जी, आगे बढ़ गए!

 "नमस्ते!" मैंने कहा,

 रुक गयी वो!

 लेकिन नमस्ते का जवाब नहीं दिया उसने! गुस्से में लगती थी!

 "रात क्या बात हुई?" पूछा उसने!

 "भाई ने नहीं बताया?" मैंने पूछा,

 "बताया" बोली वो,

 "तो समझीं कुछ?" मैंने कहा,

 "आपने हाथ उठाया उन पर?" बोली वो!

 "हाँ, उठाया!" मैंने कहा,

 "अंजाम जानते हो इसका?" बोली वो!

 "अंजाम?" मैंने पूछा,

 "हाँ, अंजाम!" बोली वो!

 "कैसा अंजाम?" पूछा मैंने!

 "अब सामने न पड़ना भाई के" बोली वो,

 "युक्ता! मुझे जानती हो? शायद नहीं! जानती हो?" पूछा मैंने,

 "नहीं जानना मुझे" बोली वो!

 "बाबा पूरब से ज़रा पूछना! फिर अंजाम जैसे शब्द क्या होते हैं, जान जाओगी!" बोला मैं!

 "श्रेष्ठ भाई के बारे में पूछना उनसे, जान जाओगे!" बोली वो!


   
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