मैंने तो प्रकाश का प्रकाश को अंगीकार करना ही देखा था!
और हुई हुंकार!
प्रबल हुंकार!
ऐसी हुंकार,
कि हाथी भी गश खा जाए उस हुंकार से!
जैसे स्वयं बादल फट पड़े हों ज़मीन पर!
जैसे निर्वात फट पड़ा हो उस स्थान पर!
वे नौ स्थिर पिंड, अभी भी वहीँ थे! और फिर,
अचानक से वो लाल प्रकाश पीले रंग का हो गया!
घंटे से बजने लगे वहां!
तुमुल स्वर से गूंजे शंखनाद के!
चेकितान के से स्वर गूँज उठे!
और फिर प्रकाश का जैस एको बड़ा सा गोल फटा!
और देखते ही देखते,
वो नौ पिंड क्षण में लोप हो गए!
और मैं!
हा! हा! हा! हा!
मैंने अट्ठहास किया!
और अट्ठहास!
नव-मातंग समाप्त!
निकल गयी ये सिद्धि भी उसके हाथ से!
अब क्या बचा?
मात्र दम्भ!
और शेष कुछ नहीं!
कुछ नहीं!
और अब!
अब मैं भागा उस प्रकाश के नीचे!
और लेट गया!
नेत्र बंद हो गए मेरे अपने आप!
मेरे मुंह से, श्री रक्तज जी के ही मंत्र फूटते रहे!
मैं जैसे अपन आप खो रहा था!
प्रसन्न था और प्रसन्नता का मद मुझे समा गया था!
मैं किसी तरह से खड़ा हुआ!
हाथ जोड़ता हुआ! हाथ जोड़ता, आगे चला गया!
ऊपर देखा!
मेरा उद्देश्य पूर्ण हो चला था!
अब और कुछ नहीं चाहता था मैं!
कुछ नहीं!
मैंने फिर से एक मंत्र पढ़ा, जिसमे गान था श्री रक्तज जी के आशीर्वाद का!
और फिर,
वो प्रकाश लोप हुआ!
आकाश में लहर सी खाकर!
"रुरु?" मैं चिल्लाया!
"रुरु?" कहा मैंने!
और तभी मेरी लख भड़क उठी एकदम अपने आप!
वहीँ था रुरु और वे तीनों द्वारपाल!
मैं भागा पीछे अलख के पास!
और कपाल कटोरे में मदिरा परोसी!
रुरु का एक मंत्र पढ़ा और गटक गया मैं वो मदिरा!
अब बैठा अलख पर!
ईंधन झोंका मैंने!
और मेरा चेहरा लाल हा अब!
अब!
अब दंड देना था उस श्रेष्ठ को!
दण्ड भी ऐसा, जिसे मरते दम तक याद रखे वो!
अंतिम सांस तक याद रहे उसको वो दंड!
ऐसा दण्ड!
और दे दिया भोग अलख में!
मैंने अलख में ईंधन झोंका! और खड़ा हुआ! त्रिशूल उठाया अपना, और एक चिन्ह बनाया मैंने भूमि पर, एक त्रिकोण और उसके साथ में एक छोटा त्रिकोण! उसमे कुछ लिखा ऊँगली से अपनी! और इसके बीचोंबीच कपाल कटोरे में मदिरा परोस कर, उस छोटे त्रिकोण के बीच में रख दी! उठा, और अलख पर पहुंचा! ईंधन झोंका, रक्त के छींटें डाले, और तब अपनी साध्वी को देखा, मुस्कुराते हुए!
"आओ साधिके!" बोला मैं!
वो निकल आई उस चतुर्भुज से!
"बैठो यहां!" कहा मैंने,
बैठ गयी!
"ये लो! और दो भोग अलख में!" मैंने कुछ देते हुए कहा उसे!
उसने दे दिया अलख में भोग! और अलख उठी ऊपर कोई चार फ़ीट!
अब लड़ाई देख!
"श्रेष्ठ?" चीखा मैं!
श्रेष्ठ, बैठा हुआ था! चुपचाप! सिहरता हुआ! सामने देखता हुआ!
मुझे, दया सी आ गयी! न जाने क्यों!
पता नहीं क्यों!
मैं मुस्कुरा पड़ा, अलख में भोग नहीं डाला, रुरु का मंत्र भी नहीं पढ़ा!
"श्रेष्ठ?" कहा मैंने,
उसने देखा सामने!
"अभी भी समय है!" कहा मैंने!
पत्थर सा बैठा था, बैठ रहा!
"मैंने मना किया था श्रेष्ठ! मना किया था! अब क्या रहा तू?" पूछा मैंने,
रो पड़ा! बस बुक्का नहीं फाड़ा! आंसू निकल आये उसके!
"क्षमा मांग ले श्रेष्ठ!" कहा मैंने!
वो खड़ा हुआ!
आंसू पोंछे!
और अपना त्रिशूल उखाड़ लिया भूमि से!
और हो गया तत्पर किसी से भी भिड़ने को!
मन ही मन कुछ पढ़े, लेकिन शब्द बाहर न आएं गले से, मुंह से!
नहीं माना वो!
मैंने तभी अलख में भोग दिया!
और पढ़ डाला मंत्र रुरु का!
और बता दिया उद्देश्य!
रूर, हवा की गति से निकला वहां से! वायु वेग के संग!
और जा पहुंचा उधर!
वायु ऐसी चली, कि खड़ा होना मुश्किल हो गया उस श्रेष्ठ का!
चेहरे पर भय, शरीर में कम्पन्न!
गिर पड़ा!
फिर उठा!
त्रिशूल उठाया!
और जैसे किसी ने उसको उसकी गर्दन से पकड़ कर फेंका पीछे!
त्रिशूल छूटा हाथ से उसने! बहुत तेज खन्न की आवाज़ हुई!
पत्थर पड़े थे वहां!
श्रेष्ठ फिर से फिंका हवा में, और जा गिरा कोई पचास फ़ीट आगे!
मुंह से आह या कोई कराह भी न निकली!
अगले ही पल,
उसका एक हाथ उखड़ा, हवा में फेंक दिया गया!
मांस के लोथड़े बिखर गए वहाँ!
रक्त ही रक्त!
और तब चीख निकली थी श्रेष्ठ की!
फिर से हवा में उछला,
और गिरा नीचे! घसीट लिया किसी ने उसको!
हवा में उठा और एक टांग घुटने से तोड़ डाली, फेंक दी अन्धकार में!
खूनमखान हो गया था श्रेष्ठ!
"क्षेवांद! क्षेवांद रुरु! क्षेवांद!" कहा मैंने!
मांस के पिंड सा, एक बड़े से पिंड सा पड़ा हुआ था श्रेष्ठ वहां!
और अगले ही पल,
उसके केशों में आग सुलग उठी!
हो गया खाली, सदा सदा के लिया!
पात्र टूट गया!
सब खत्म!
सब खत्म!
और रुरु वापिस!
मैंने अल्वेक्षण मंत्र पढ़ा!
नौ बार!
एक एक वीर का धन्यवाद किया!
और प्रणाम किया!
तत्क्षण ही, वायुवेग बंद हो चला!
रुरु चला गया था वापिस! अपने तीनों ही द्वारपालों के संग!
मैं भागा पीछे!
अपनी साध्वी से जा लिपटा!
"हम विजयी हुए! हम विजयी हुए!" लिपटे लिपटे कहा मैंने!
उसने भरा मुझे बाजुओं में, और मेरा चेतना अब लोप होने लगी!
आँखें बंद होने लगीं,
और मैं अचेत हो गया!
फिर क्या हुआ, कुछ नहीं पता! कुछ भी नहीं!
सुबह जब में आँख खुली, तो मुझे सुबह ही लगी वो!
लेकिन तब तक चार बज चुके थे!
सभी बैठे थे वहाँ! शर्मा जी, चिंतित से! बाबा मैहर, चंदा और वो श्रुति, मेरे पांवों के पास बैठी थी! मैं मुस्कुरा पड़ा शर्मा जी को देखकर! वो उठे, और आ गए मेरे पास! मैं बैठ चुका था तब तक! मुझे गले से लगा लिया! बाबा मैहर ने भी गले से लगाया!
मित्रगण!
सरभन आठ दिन जिया और उसके बाद उसके जीवन ने प्रपंच किया उसके साथ ही! उसको हृदयघात हुआ, और मृत्यु हो गयी उसकी!
श्रेष्ठ, एक भुजा, और एक टांग गंवा बैठा था, उसकी एक आँख भी चली गयी थी, वर्ष २०१३ की सर्दियों में, उसकी भी मृत्यु हो गयी! मैं बाबा धर्मेक्ष से और उस युक्ता से कभी नहीं मिला फिर! आज तक नहीं! हाँ, न मुझ तक बाबा धर्मेक्ष की कोई खबर ही आई आज तक!
हाँ! श्रुति में संग ही रही! दो महीने तक, संग ले आया था उसे! आज भी संग ही है मेरे, सशरीर भले ही न हो, लेकिन मेरे मन में! सदा ही रहेगी!
मित्रगण! दम्भ खोखला होता है, बुलबुला, पानी का बुलबुला! ताव तो बहुत देता है, लेकिन घाव भी बहुत देता है! घाव ऐसा, जो रिसता ही रहता है! कभी नहीं भरता!
हाँ, एक बात और, मुझे उस सरभंग का कोई अफ़सोस नहीं, लेकिन उस श्रेष्ठ का है, तिल का ताड़ बना दिया था उसने! क्या मिला? कुछ नहीं!
इसीलिए, दम्भ जब भी चढ़े, तो खुद को छलनी कर लो विवेक की तलवार से!
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
