वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 नौ मूर्तियां!

 नव-मातंग!

 अंतिम हथियार उसका!

 अंतिम पड़ाव का अंतिम चरण आ पहुंचा था!

 "देख रहा है?" पूछा उसने!

 मैं हंस पड़ा फिर से!

 "देख! देख क्या हाल होगा तेरा!" बोला वो, हँसते हुए!

 ये शायद, आज उसकी अंतिम हंसी थी, या ज़िंदगी की अंतिम हंसी!

नव-मातंग! मातङ्गिकाएँ! महा-मातंगी की प्रधान महा-सहोदरियां! प्रचंड एवं भीषण महाशक्तियां! अब तक के, ताल-ठाल से मैंने जो जाना था वो ये, कि श्रेष्ठ के बस में नहीं था इनको सिद्ध करना! ये अवश्य ही श्रेष्ठ को उसके पिता जी ने ही सिद्ध करवाई होंगी! या, ये प्रदत्त होंगी! श्रेष्ठ बस नाम का ही श्रेष्ठ था! ये तो मैं अब तक जान गया था! उसने अपने पिता से कुछ सीखा था या नहीं, लेकिन, अपने पिता की तरह की सूझबूझ नहीं थी उसकी! बाबा धर्मेक्ष कभी द्वन्द नहीं करते! और बाबा ने इस श्रेष्ठ को मना भी कर दिया था द्वन्द करने के लिए, लेकिन माना नहीं था ये श्रेष्ठ! आज श्रेष्ठ की श्रेष्ठता दांव पर लगी थी! लानत है ऐसी औलाद पर, जो अपने पिता से हुक़्मतलफ़ी करे! कोई फ़ायदा नहीं ऐसी औलाद का! अब पता नहीं बाबा ने कैसे इसको नव-मातंग साधना करवा दी थी! कहिर, अब जो भी हो, अब नतीजा आने को ही था! बस कुछ देर और, कोई घंटा या डेढ़ घंटा! उसके बाद साबित हो जाना था कि द्वन्द की चुनौती देना किसे भारी पड़ने वाला था!

 अब श्रेष थे उस अलख के पास एक वृत्त खींचा! त्रिशूल के फाल से! उसका त्रिशूल भी काफी मज़बूत था, पूरा का पूरा ठोस था! और फाल अंदर को मुड़े थे उसके! ये अवश्य ही उड़ीसा का रहा होगा, वहीँ ऐसे ही त्रिशूल बना करते हैं! खैर, उसने वृत्त काढ़ लिया था! और उस वृत्त की रेखा पर, वो छोटी छोटी मूर्तियां रख दीं थीं एक समान दूरी पर! और अपने झोले में से कुछ सामग्री निकाली उसने, और रख दी सभी मूर्तियों के सामने! और अब हुआ खड़ा, पहुंचा अलख पर! ईंधन झोंका उसने अलख में! और हो गया शुरू महाजाप में! तो अब नव-मातंग ही अंतिम विकल्प था उसके पास!

 और मेरे पास क्या विकल्प था?


   
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श्रीशः उपदंडक
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 क्या काट थी इसकी!

 थी! थी इसकी काट, जिसके कारण मैंने श्रेष्ठ को कई बार समझाया था! लेकिन वो समझ ही नहीं पाया था! मातंग वायव्य कोण वासिनी है! ये नौ महाशक्तियां हैं, जो संयुक्त हो, एक अथाह, महा-विकराल महाशक्ति का सृजन किया करती हैं! और यही शक्ति, अत्यंत विध्वंसक है!

 "मूर्ख श्रेष्ठ?" बोला मैं,

 नहीं सुना उसने!

 दरकिनार किया उसने!

 "मूर्ख! अभी भी सम्भल जा!! समय है अभी शेष!" कहा मैंने!

 नहीं सुना!

 कोई प्रतिक्रिया नहीं!

 "श्रेष्ठ! सुन! आज का सूरज तेरे लिए क्या लाने वाला है, जानता है?" पूछा मैंने,

 नहीं सुना!

 लगा रहा जाप में!

 और अब आया मुझे क्रोध!

 मैं बैठ गया अलख के पास!

 अलखनाद किया!

 औघड़नाद किया!

 और फिर, मुझे अब कोई कुकृत्य न हो जाए कहीं,

 गुरु से क्षमा भी मांग ली मैंने!

 और अब!

 अब बस एक ही उद्देश्य था, शत्रु को परास्त करना!

 और शत्रु कौन? वो श्रेष्ठ! यही था मेरा अब सबसे बड़ा शत्रु!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अलख में ईंधन झोंका और किया एक महामंत्र का जाप!

 "साधिके?" बोला मैं,

 आई वो!

 "भोग सजाओ! नौ दीप भी प्रज्ज्वलित करो!" मैंने कहा,

 वो करने लगी सबकुछ तैयार!

 पहले भोग सजाया, फिर दीप प्रज्ज्वलित करने हेतु, कड़वा तेल डाला, और हाथों से बाती बनाकर, अलख के दायें, जहां मैंने कहा था, वे दीप प्रज्ज्वलित कर दिए!

 "आओ साधिके!" मैंने कहा,

 और बिठा लिया अपने दायें उसे!

 और अब जाप किया मैंने उन नौ महावीरों का, जिनसे बड़ी से बड़ी शक्ति भी थर्रा जाती है! नाम नहीं बताऊंगा उनका, प्रतिबंधित हैं, नाम लिए भी नहीं जाते, मात्र मन में ही जपे जाते हैं! मात्र साधना समय ही उनके नाम लेने का विधान है! मैं उनको यहां नौ-वीर कहूँगा! हाँ, इतना बता सकता हूँ कि ये नौ-वीर श्री श्री श्री रक्तज जी के हैं! नमन है उन्हें मेरा यहां!

 मैंने आह्वान थामा अब!

 मंत्रों की आवाज़ें श्मशान में गूँज उठीं!

 श्मशान का सीना जैसे छलनी होने लगा!

 लकिन अन्तःमन में प्रसन्नता भर गयी उस श्मशान के!

 वे नौ-वीर, आज यहां प्रकट होने वाले थे, इसलिए!

 "साधिके?" बोला मैं!

 वो खड़ी हो गयी!

 "केड़िया, खेड़िया, गेड़िया और रुरु! प्रसाद लाओ उनका!" बोला में,

 ये चार, प्रहरी हैं!

 द्वारपाल उन नौ-वीरों के!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मदिरा ले आई वो!

 "यहाँ! यहाँ रखो!" बोला मैं,

 सामने रख दिया मेरे सामान वो!

 "खल्लज लाओ!" बोला मैं,

 ले आई खल्लज मेरे सामने, चार खल्लज!

 अब मैंने परोस दी मदिरा उन चार खल्लजों में!

 "लो! अलग लग चारों दिशाओं में रख दो!" बोला मैं,

 वो एक एक करके, रख आई चारों दिशाओं में सभी खल्लज!

 "एक एक दीया, रख दो उधर, उन्ही खललजों के सामने!" कहा मैंने!

 एक एक दीया, रख आई वो!

 "साधिके?" बोला मैं!

 "भुर्भुजा का भोग लाओ!" कहा मैंने!

 ले आई भोग!

 "मेरी पीठ के पीछे छुआ कर, इसको रख आओ उस पेड़ के नीचे!" मैंने पेड़ की तरफ इशारा करके बताया!

 रख आई वो भोग उस भुर्भुजा का!

 भुर्भुजा!

 हंकिनी!

 उन चारों द्वारपालों की हंकिनी!

 "आओ, बैठ जाओ!" बोला मैं!

 और अब हुआ भुर्भुजा का आह्वान!

 और कुछ ही देर में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उस भुर्भुजा का पेड़ के नीचे रखा भोग, उछला हवा में, और गायब! बस ठाल ही नीचे गिरा!

 मैंने अट्ठहास लगाया!

 "हंकिनी!" आ हंकिनी! आ!" बोला मैं!

 भम्म सी आवाज़ हुई, और फिर सब शांत!

 हो गयी थी हंकिनी मुस्तैद!

 अब उन चारों का आह्वान आरम्भ हुआ!

 नव-मतंग में अभी समय था!

 उसके बाद पूजन भी था उनका!

 फिर उद्देश्य आदि!

 इसीलिए मैं यहाँ सजग बैठा था! पल पल में,

 वाचाल संकेत दे देता था!

 मैं गहन आह्वान में डूब चला!

 भूल गया अपने आपको भी!

 बस मंत्र! और मंत्र! बस!

 मैं झूम झूम के मंत्र पढ़ता! बैठ बैठे!

 कभी तेज, कभी धीरे!

 और अलख में ईंधन झोंक देता!

 वहाँ!

 भोग सजा हुआ था!

 फूल आदि सब तैयार थे!

 सारी सामग्री तैयार थी!

 और मंत्र ही मंत्र!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सत्ता की लड़ाई थी!!

 सत्ता! उसके लिए! मेरे लिए, उस श्रेष्ठ को दिखाना, कि,

 धन्ना ने क्या सिखाया था मुझे!

 क्या सीखा मैंने!

 ये सब दिखाना था इस श्रेष्ठ को!

 एक तो देख चुका था!

 वो धराशायी हो, अचेत था!

 रक्त बहे जा रहा था, मांस को कीड़े नोंच रहे थे!

 और इसके बाद भी ये श्रेष्ठ,

 नहीं माना था! नहीं सीखा था अपने पिता से कुछ भी!

 मैंने लम्बे लम्बे मंत्र पढ़े!

 और तभी!

 तभी प्रसाद के खल्लज ऊपर उठे!

 और नीचे गिरे!

 आन पहुंचे थे वे चारों!

 प्रसाद भी स्वीकार कर लिया था!

 लेकिन वे सब अदृश्य ही रहते हैं! प्रत्यक्ष नहीं आते कभी!

 हाँ, रुरु कभी-कभार दिख जाता है!

 भीमकाय देहधारी है, वर्ण काला है उसका,

 लौह-दंड रहता है हाथ में,

 और भुजाओं में सर्प लिपटे रहते हैं!

 केश रुक्ष हैं, नेत्र लाल हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और देह, पाषाण जैसी होती है!

तो वे चारों द्वारपाल और हंकिनी आ चुके थे! आमद हो चुकी थी उनकी! ये महाभट्ट वीर हैं, इनकी आज्ञा लिए बिना आगे का मार्ग नहीं खुल सकता! कुल वीर श्री श्री श्री श्री रक्तज जी के चौंसठ हैं, ये नौ-वीर, अत्यंत ही क्रूर, कालकूटपूर्ण, यमभट्ट और महासंत्रासक महावीर हैं! उन चार द्वारपालों में रुरु ज्येष्ठ हैं, अतः रुरु का भी आह्वान करना पड़ता ही है, वे ही बाकी तीनों द्वारपालों को लाते हैं साथ! हंकिनी संग होती हैं इनके! ये ही हांकती है इन चारों को, यही कार्यभार है इस हंकिनी का! तो हंकिनी और वे चारों द्वारपाल आ चुके थे यहां, और मुस्तैद थे, वे ही मार्ग प्रशस्त किया करते हैं उन नौ महावीरों का!

 भाल, चंद, ताम, तूम्ब आदि आदि शब्दों से श्रेष्ठ ने श्मशान को जगाया हुआ था! कोई कसर नहीं छोड़ रहा था! नव-मातंग साधना है ही ऐसी क्लिष्ट! वो उठा, और कर दिया हलाक़ एक बकरा, रक्त इकठ्ठा किया उसका, और ले आया अलख पर! रक्त के छींटे दिए उसने अलख में, और फिर अपना श्रृंगार किया, नौ जगह श्रृंगार आवश्यक है, अन्यथा कुछ न कुछ बाधा आयेगीही आएगी, या तो वो कट के गिर जाएगा या फिर सुन्न पड़ जाएगा! इसी कारण से ये श्रृंगार किया जाता है! उसे श्रृंगार किया! और फिर अलख को नमन किया उसने! खड़ा हुआ, खंजर उठाया और अपना अंगूठा चीर लिया! टपका दिया लहू अलख में! अलख चटमटा गयी! पीछे लौटा, सामग्री उठायी, महामंत्र का जाप किया और झोंक दी सामग्री अलख में! और जा बैठा फिर! मांस काट रहा था खंजर से वो श्रेष्ठ! भोग आदि के लिए! लगा ही हुआ था अपने क्रिया-कलाप में!

 मैं भी जाप में लगा था! मैं अलख में भोग झोंकता जाता था! और मंत्र पढ़े जाता था!

 "साधिके?" बोला मैं!

 वो खड़ी हो गयी,

 "नौ दीये और प्रज्ज्वलित करो!" कहा मैंने,

 उसने नौ दीये लिए,

 कड़वा तेल डाला उनमे!

 और फिर हाथों से बाती बनायी उनकी,

 और रख दी उन दीयों में!

 फिर मैंने अलख की अग्नि से उनको प्रवज्जलित कर लिया


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "लो साधिके! दो दो दीये चारों दिशाओं में रख आओ!" बोला मैं,

 और दीये उसके हाथों में रख दिए मैंने, दो दो करके,

 वो रखने लगी, और फिर रख आई!

 "ये एक दीया, मेरे सामने, वहाँ, दूर रख दो!" कहा मैंने!

 वो उठी और चल पड़ी सामने, और रख आई दीया!

 "आओ साधिके!" कहा मैंने,

 अब उस साधिका की कोमल देह को रक्षित करना था, अन्यथा, कोई बाधा लग ही जाती!

 "यहाँ लेट जाओ!" कहा मैंने,

 वो लेट गयी, कमर के बल,

 अब उसके अंगों पर पुनः चिन्ह बनाये रक्त से,

 माथा, वक्ष, उदर, योनि, जंघाएँ, पिंडलियाँ और पाँव,

 "अब जो मैं बोलूंगा, दोहराना उसे" कहा मैंने,

 और अब उसे उल्टा लिटा दिया, पेट के बल,

 और फिर से उसकी देह पर चिन्ह बनाये,

 "खड़ी हो जाओ" बोला मैं,

 खड़ी हो गयी,

 "जाओ, वहां बैठो" कहा मैंने,

 बैठ गयी वहाँ वो,

 और अब मैंने अपना श्रृंगार किया,

 मंत्र जपता जाता और श्रृंगार करता जाता!

 और फिर दिया अलख में ईंधन!

 अलख उठी ऊपर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और अब महाभीषण मंत्र पढ़े!

 और खड़ा हुआ!

 त्रिशूल उठाया अपना,

 एक चतुर्भुज बनाया भूमि पर,

 और उस चतुर्भुज में एक ही अस्थि के ग्यारह टुकड़े रखे!

 "साधिके?" कहा मैंने,

 खड़ी हो गयी वो!

 "इधर आओ" कहा मैंने,

 आ गयी वो,

 "इसमें जा बैठो" बोला मैं,

 उसमे बैठ गयी!

 "सुनो साधिके?" बोला मैं,

 "अब चाहे कुछ भी हो, चाहे मैं गिरुं, या न गिरुं, तुम्हे इस से बाहर नहीं आना है, समझी?" चेताया मैंने!

 उसने सर हिलाकर हाँ कही!

 और फिर मैं जा बैठा अलख पर!

 और किया मंत्रोच्चार!

 सहसा ही हवा चली ज़ोरों से!

 दीयों की रौशनी भरभरा सी गयी!

 ज़मीन चाटने लगी थीं लौ उनकी!

 और फिर,

 पल भर में ही सब शांत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 बस अलख की ही आवाज़! और कुछ नहीं!

 मेरे मंत्र फिर से आरम्भ हुए!

 और तभी वातावरण में ताप बढ़ने लगा!

 पसीना छूटने लगा शरीर से!

 लेकिन श्रुति ठीक थी!

 वो ऐंद्राक घेरे में सुरक्षित थी!

 उसको पसीना नहीं आया था!

 मैंने देख लड़ाई!

 और वहां!

 चीख रहा था बार बार नाम लेकर उन नौ के नौ का बार बार!

 "आद्रा!"

 "कुञ्चिका!"

 "त्रिहरना!"

 "भूषणा!" आदि आदि!

 वो भी अंतिम चरण में था और मैं भी!

 फिर खड़ा हुआ वो! रक्त का पात्र अपने सर पर उलट लिया उसने!

 और फिर बैठ गया मंत्रोच्चार में!

 मैं भी यहां घोर मंत्रोच्चार में डूबा था!

 और तभी मेरे यहां पर,

 छोटे छोटे सांप रेंगते दिखाई देने लगे!

 काले काले, छोटे छोटे सांप!

 कोई उधर भाग रहा था, तो कोई उधर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 फिर इकठ्ठा होते, फिर बिखर जाते!

 और फिर लोप होते!

 ये चिन्ह था!

 रुरु का चिन्ह!

 रुरु बस, खोलने ही वाला था द्वार उनका!

 मैं एक बार फिर खड़ा हुआ!

 "श्रेष्ठ?" बोला मैं!

 उसने देखा एक नज़र!

 "अभी भी कुछ समय शेष है!" बोला मैं!

 थूका उसने!

 "मान जा श्रेष्ठ!" बोला मैं!

 हंसा वो!

 अपनी जांघ पर हाथ मारकर, हंसा वो!

 ये श्रेष्ठ नहीं हंस रहा था!

 ये उसका दम्भ हंस रहा था!

 अंत की ओर अग्रसर था उसका दम्भ!

 और दम्भ का यही तो गंतव्य है!

 अंत!

 और अंत भी ऐसा,

 कि पुनः कुछ आरम्भ ही न हो!

 प्रायश्चित भी न हो!

 ऐसा अंत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "श्रेष्ठ?" मैंने फिर से कहा!

 उसने फिर से धिक्कारा मुझे!

 मैं हंसने लगा!

 उसकी मूर्खता पर!

 "अपने पिता की सोच श्रेष्ठ?" कहा मैंने,

 नहीं बोला कुछ!

 और ज़ोर से, ईंधन झोंका उसने अलख में!

 "कुञ्चिका!" बोला वो!

 आरम्भ हो गया था उसका आह्वान!

 और मैं नीचे बैठ गया!

 अलख के पास!

 सामग्री उठायी और,

 झोंक दी अलख में!

 और अंतिम मंत्र, अब पढ़ने लगा मैं!

 बस कुछ देर और,

 और उसके बाद, ये श्रेष्ठ, श्रेष्ठ नहीं रहने वाला था!

 आ जाना था यथार्थ में, जिसके लायक ही था वो श्रेष्ठ!

मैंने नेत्र बंद किये अपने! और समापन की ओर बढ़ चला! करीब दस मिनट बाद, मेरे नेत्र खुले, और तभी एक चटख लाल रंग का सा प्रकाश, हल्का सा प्रकाश उभरा वहां! श्रुति ने भी देखा उसे गौर से, वो चतुर्भुज में थी, इसीलिए देख पायी, अन्यथा नहीं देख पाती वो! वो लाल रंग का धुआं सा, पूरे स्थान पर फ़ैल गया था! अब तो निश्चित ही हो चला था कि उन नौ वीरों की सवारी बस आने को ही है! मैं अलख पर बैठा हुआ था, अलखनाथ का मंत्र पढ़ा और झोंक दिया ईंधन! अलख लपलपाई ऊपर की तरफ! अब लड़ाई देख मैंने! और जो देखा तो अचम्भा हुआ! पूरा स्थान प्रकाश से कौंध रहा था! प्रकाश ही प्रकाश था वहां! ऐसा प्रकाश की आँखें चुंधिया


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाएँ! और उस प्रकाश में ही वो श्रेष्ठ, पढ़े जा रहा था मंत्र! और फिर वो खड़ा हुआ! भोग-थाल उठा लिया सर पर और जपने लगा मंत्र! बस, कुछ ही क्षणों में नव-मातंग प्रकट होने ही वाली थीं! तड़ातड़ बिजलियाँ सी कौंध रही थीं, नीली नीली! आँखें फाड़, गले से तेज तेज पढ़े जा रहा था वो मंत्र! फिर उठा अलख से, और जा बैठा एक स्थान पर, भोग-थाल रखा, हाथ जोड़े, और चिल्लाने लगा!

 "प्रकट! मतंगा! प्रकट!"

 बार बार हाथों को नचाता!

 बैठता घुटनों पर, हाथ जोड़ता,

 और फिर से पढ़ने लगता मंत्र!

 और तभी धुंए का बवंडर सा उठा!

 और उस बवंडर में से, कुछ आकृतियाँ नज़र आने लगीं!

 जैसे छाया! बड़ी बड़ी छाया!

 खड़ा हुआ वो!

 "मतंगा! मतंगा!" चिल्लाया वो!

 चिल्लाते चिल्लाते, रो ही पड़ा!

 "मतंगा! मतंगा! रक्षा! रक्षा!" रोते रोते बोला वो!

 इधर मेरे यहां प्रचंड वायु चलने लगी!

 सामग्री उड़ने लगी!

 दीये बुझने लगे!

 अलख ज़मीन को प्रणाम करने लगी!

 मेरे केश उड़ कर मेरे मुंह पर आ गए!

 मेरी मालाएं उड़ने लगीं!

 मनके बजने लगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 लेकिन श्रुति, श्रुति पर कोई असर नहीं!

 वो जस की तस बैठी थी!

 रुरु के आबंध में थी, इसीलिए!

 मैं भी संतुलन बनाये खड़ा रहा किसी तरह!

 और अचानक ही सब शांत!

 धम्म धम्म की आवाज़ें आने लगीं!

 जैसे ज़मीन पर बड़े बड़े घन गिर रहे हों आकाश से!

 ये क्या था!

 शायद लौह-दण्ड के प्रहार!

 या फिर दबाव! भूमि पर किसी शक्ति का दबाव!

 मैंने जिनका आह्वान किया था, वही प्रकट होने वाले थे!

 प्रत्यक्ष तो नहीं, अदृश्य रूप में ही! हाँ, वे हैं वहां,

 अब महसूस किया जा सकता था!

 वातावरण में गर्मी फ़ैल गयी थी बुरी तरह से,

 मेरी अलख की आंच ऐसी लग रही थी जैसे कोई चिता,

 जैसे मैं संग ही बैठा हूँ उसके!

 और हुंकार उठी!

 हुंकार!

 सीना फाड़ने वाली हुंकार!

 ऐसी हुंकार कि,

 प्रेत तो जा छिपें जहां जगह मिले उनको!

 दूसरी शक्तियां सम्मुख ही न आएं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब मैंने श्री रक्तज जी के मंत्र पढ़ने आरम्भ किया!

 और अगले ही पल, बड़े बड़े पत्ते से हवा में बहने लगे!

 हवा फिर से चलने लगी थी!

 पत्ते भी ऐसे थे, जैसे काठगूलर के होते हैं!

 पत्ते भूमि पर गिरते और लोप हो जाते!

 अद्भुत सा नज़ारा था ये सब!

 और तभी, बिजली सी कड़की!

 मित्रगण!

 मुझे अट्ठहास सुनाई पड़ा!

 अट्ठहास उस श्रेष्ठ का!

 हर दिशा से, हर दिशा से! शायद,

 नव-मातंग आ पहुंची थीं वहाँ!

 और अगले ही पल, प्रकाश फूटा!

 नौ पिंड दिखाई दिए!

 यही तो हैं नव-मातंग!

 लेकिन!

 लेकिन!

 वे पिंड, जस के तस वहीँ स्थिर हो गए थे!

 मैं झुक गया था उस प्रकाश की चौंध से!

 और अब खड़ा हुआ धीरे धीरे!

 और उस अद्भुत नज़ारे को देखने लगा था मैं!

 प्रकाश से प्रकाश कैसे कटता है, देख रहा था मैं!


   
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