साधना हुआ करती है! पांच साध्वियां आवश्यक हैं, इक्कीस बलिकर्म द्वारा पूजित है, जब प्रकट होती है, तो साधक नेत्रहीन हो जाता है! और मैत्राक्ष प्रश्न और उद्देश्य पूछा करते हैं! उत्तर सटीक हुए, तो सिद्ध होती है, नहीं हुए, तो मृत्यु-वरण करना होता है! और जब मैत्राक्षी प्रकट हो जाती है, तो नेत्र सामान्य हो जाते हैं! ये मैत्राक्षी, कालप्रिया से कहीं अधिक शक्तिशाली है! पलाश वृक्ष की जड़ों में इसका वास रहता है, माँ में दो दिन, सरोवर स्नान किया आकृति यही, आयु में षोडशी सादृश्य और देह में रति समान हुआ करती है! काम सदैव जागृत रहता है इसका! यही है मैत्राक्षी!
मैंने इसका आह्वान किया तब!
मेरे पास बलिकर्म के लिए पीछे बंधे मेढ़े खड़े थे!
मैं पीछे गया!
भेरी उठायी, उसका पूजन किया!
और अलख के सामने रख दिया!
फिर सबसे कम उम्र के एक मेढ़े को लाया!
उसका भी पूजन किया!
भेरी पर रखा सर उसका!
और एक ही खड्ग के वार से गर्दन धड़ से अलग!
रक्त का फव्वारा छूट पड़ा!
श्रुति ने, मेरे कहे अनुसार, रक्त एकत्रित किया उसका, एक बड़े से पात्र में! और शेष बहता हुआ रक्त, मैंने दूसरे पात्र में रख लिया!
अब सर उठाया उसका!
और धड़ वहीँ छोड़ दिया!
आया अलख के पास, ओस र और वो रक्त-पात्र लेकर!
अपने शरीर पर रक्त पोता मैंने!
और हुआ अब आह्वान आरम्भ!
उस मेढ़े के सर से जीभ बार निकाल ली थी, काट लिया उसको.
खंजर आरपार किया उसके, और खंजर अलख के समीप गाड़ दिया!
और हुआ अब आरम्भ,
महा-आह्वान!
अब हुआ मैं लीन!
वहां!
जाप में मग्न था वो!
और कुछ ही देर में वहाँ,
मस्तक गिरने लगे!
कटे हुए मस्तक!
ये उस कालप्रिया की सेवकों द्वारा फेंके गए मस्तक थे!
सभी की आँखें निकाल ली गयीं थीं!
अट्ठहास सा लगाया उस श्रेष्ठ ने!
लगा कि मुझे अभिद एर है प्रकट करने में उस मैत्राक्षी को!
लेकिन ये नहीं जानता था वो कि,
मैत्राक्षी मात्र कुछ ही देर में प्रकट हो जाती है!
सबसे छोटा आह्वान है इस मैत्राक्षी का!
"कालप्रिया?"
"कालप्रिया?"
"मेरी महा-आराध्या?"
"मेरी प्राण-रक्षिणी!"
"प्रकट हो!"
"प्रकट हो!" बोला चिल्लाते चिल्लाते वो!
मेरी हंसी सी छूट पड़ती!
लेकिन मैं दबा गया हंसी अपनी!
और तभी!
तभी मेरे यहां जैसे आकश में से अनगिनत छेद हो गए!
पानी बरसने सा लगा था!
लेकिन ये पानी, गीला करने वाला नहीं था!
ये पानी, इस लोक का नहीं था!
वो कैसा जल था, अद्भुत जल!
यही है इस मैत्राक्षी के आगमन का सूचक!
हर तरफ शीतलता छा गयी थी!
हर तरफ!
धुंध सी छाने लगी थी!!
अजीब सी धुंध! पीले रंग की धुंध!
और तभी प्रकट हुए वो,
महाभट्ट मैत्राक्ष!
जैसे कई ब्रह्म-राक्षस एक साथ प्रकट हुए हों!
मैं खड़ा हुआ!
प्रणाम किया मैत्राक्षी को!
अंतिम मंत्र पढ़ा!
और भोग अर्पित कर दिया समक्ष!
झुका!
अलख के करीब!
और वो खंजर से बिंधी जीभ, उठा ली मैंने!
ये आवश्यक है बहुत!
यही विधान है! इस मैत्राक्षी का विधान!
मैत्राक्ष खड़े थे! राजसिक वेशभूषा में! उनका रूप देखते ही बनता था! कैसे भीमकाय थे वो मैत्राक्ष! कैसे सजग! कुल आठ थे वो! हवा में खड़े हुए! मैंने उन्हें प्रणाम किया और फिर वे लोप हुए! ये आगमन था उस मैत्राक्षी का! और तभी, तभी मेरे यहां भूमि हिलने लगी! जैसे भूमि में खुदाई सी चल रही हो! एक जगह भूमि फटी और वहां से मिट्टी उड़ चली! सीधा ऊपर की ओर! अजीब सा नज़ारा था! और फिर प्रकाश फूटा वहाँ से, प्रकाश में कुछ आकृतियाँ दिखाई दीं! ये मैत्राक्षी नहीं थी! ये तो कालप्रिया का आगमन था! शत्रु-भंजन को आ पहुंची थी! और तभी पीला प्रकाश फूटा! आँखें मिचमिचा गयीं मेरी तो! मैंने झुक गया था नीचे! और तभी अट्ठहास हुआ! एक महा-अट्ठहास! पेड़ों से पत्ते झड़ने लगे थे! ये था अट्ठहास उस मैत्राक्षी का! घंटे से बज उठे! जैसे कूडल बज रहे हों आपस में टकराकर! अब हुआ मैं खड़ा! मैत्राक्षी को नहीं देख सका मैं, ऐसा तीव्र प्रकाश था उस समय! कालप्रिया उस प्रकाश को देखते ही लोप हो गयी थी! और अब मुक्त हो चली थी! अब नहीं थी वो उस श्रेष्ठ की सिद्ध! यही होता है, जब ऐसी कोई बड़ी शक्ति किसी और बड़ी शक्ति के सम्मुख लोप होती है, तो साधक के हाथों से छिन जाया करती है! तो अब कालप्रिया छिन गयी थी उस श्रेष्ठ! पता नहीं किस शक्ति का दम्भ था उसे! हाँ! उस नव-मातंग का दम्भ! बस! और कुछ नहीं! अब मैंने आगे बढ़ा,और भोग थाल रख लिया सर पर! मैंने मंत्र पढ़े, और वो कटी हुई जीभ फेंक दी आगे! जीभ में आग लग गयी थी उसी क्षण! और मंत्र जब मैं पढ़ रहा था, तभी अजीब सा शोर करते हुए, मैत्राक्षी लोप हुई! और वे मैत्राक्ष भी! बौद्ध तंत्र में, और मलय-तंत्र में मैत्राक्षी का एक अलग ही महत्व है! कभी जानकारी जुटाइए इस विषय में! जानकारी में इजाफ़ा हो होगा! जानकारी कभी सीमित नहीं रखनी चाहिए! इसको ले लेना चाहिए, चाहे कहीं से भी उपलब्ध हो! तो मैत्राक्षी लोप! और वो कालप्रिया भी लोप! अब? अब क्या करेगा वो श्रेष्ठ?
और तभी हूऊम की आवाज़ आई!
"आ! आ औंधिया आ!" कहा मैंने,
और चला अलख की तरफ!
रखा भोग-थाल नीचे!
"साधिके?" बोला मैं,
देखा उसने मुझे!
"मदिरा परोसो?" बोला मैं!
उसने कपाल कटोरे में मदिरा परोसी!
मैं बैठा और मदिरा भरा कटोरा, रख दिया कपाल पर!
"ले औंधिया! ले!" बोला मैं!
और कटोरा खाली!
"जा औंधिया! जा!" कहा मैंने!
चला गया औंधिया! वो कटोरा गिरा कर!
अब लड़ाई देख मैंने!
वो श्रेष्ठ!
अलख के पास बैठा था!
झोले से कुछ सामान निकाल रहा था!
क्या था वो?
कुछ अस्थियों के टुकड़े!
कुछ शिशु-रीढ़ के टुकड़े!
"श्रेष्ठ?" बोला मैं चीख कर!
"नहीं समझा अभी तक?" बोला मैं!
खड़ा हो गया वो!
और अपने हाथ से त्रिशूल उखाड़ लिया उसने!
गुस्से में भुनभुना रहा था!
बार बार अपने होंठों को चाटता था जीभ से अपनी!
"जा! लौट जा! लौट जा श्रेष्ठ!" कहा मैंने!
और हंसा!!
बहुत हंसा!
मज़ाक उड़ाता रहा उसका!
और वो,
गुस्से में बड़बड़ाता रहा!
पता नहीं क्या क्या!
"जा! अपने पिता की शरण में जा!" बोला मैं!
नहीं सुना उसने!
"जा श्रेष्ठ! जा!" बोला मैं!
और तभी गुस्से में उसने फेंक मारा अपना त्रिशूल आगे!
त्रिशूल आगे जाकर, उस सरभंग को पार करता हुआ,
गिर पड़ा! और जैसे होश आया उसे!
भागा आगे! और पार करता उस सरभंग को, उठा लाया अपना त्रिशूल!
अब विक्षिप्तता के लक्षण दिखा रहा था ये श्रेष्ठ!
जैसे अपने आप में नहीं था!
बस उसका दम्भ ही, आगे खेता जा रहा था उसको!
वो फिर से अलख पर बैठा!
अस्थियों के टुकड़े भूमि पर बिछा दिए!
मंत्र पढ़ते हुए!
और अपनी उस अचेत साध्वी को बालों से पकड़ कर, उठाया,
लिटा दिया उधर उन टुकड़ों पर उसने उसे!
और अब खुद बैठ गया उसके सीने पर!
अब मैं समझ गया कि क्या मंशा है उसकी!
अभी तरकश भारी था उसका!
अब जो वो कर रहा था, वो आह्वान था, महा-विक्रालिका का!!
नहीं मान रहा था हार अपनी!
यही निशानी है एक जुझारू साधक की!
एक बार को तो मेरे मुंह से भी वाह निकल गया!
श्रेष्ठ!
ढहती मिट्टी वाले किनारों पर खड़ा था श्रेष्ठ!
और पाँव ठिकाना चाहता था!
कैसा मूर्ख था! कैसा मूर्ख!
"मूर्ख? प्राणों का भय नहीं?" बोला मैं!
"तू द्वन्द कर!" बोला वो!
"कर रहा हूँ!" बोला मैं,
"* जाएगा आज तू!" बोला वो!
मुझे हंसी आ गयी उसकी खोखली बातों पर!
"श्रेष्ठ! जा! अभी और सीखना है तुझे! जा!" कहा मैंने!
"बकवास बंद कर ****?" बोला वो!
मैं फिर से हंसा!
वो खिसिया रहा था!!
हंसी तो आती ही!
"श्रेष्ठ?" बोला मैं,
"नाम न ले मेरा *****?" बोला वो!
गुस्से से, फटता हुआ!
"जा! और सीख अभी!" बोला मैं!
"तू? तू जानता नहीं?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने!
"मैं नव-मातंग का साधक हूँ!" बोला बर्रा के वो!
दम्भ के मारे फूल गया था!!
"श्रेष्ठ?" बोला मैं!
"न ले नाम मेरा?" बोला वो!
"जा! पिता के पास जा!" कहा मैंने!
"क्यों?" बोला वो,
"तेरे बसकी नहीं पार पाना, और हाँ, इस धन्ना के पोते से!" कहा मैंने!
"तेरी ** ** * तू जानता नहीं न?" बोला वो!
मैं हंसा!!!
बहुत हंसा!
"अब देख तू!" बोला वो!
मैं फिर हंसा!!
"तेरे जैसे मैंने बहुत देखे! समझा?" बोला वो!
"देखे होंगे, मेरे जैसा आज देख रहा है तू!" कहा मैंने!
"चुप कर ***?" बोला चीख कर!
बालकों की तरह झुंझला कर!
मैं फिर हंसा!
"अब नहीं बचेगा तू!" चिल्ला के बोला वो!
और सामने रखा भोग का थाल, फेंक मारा सामने!
"श्रेष्ठ?" बोला मैंने!
नहीं सुना!
आँखें बंद उसकी!
और हुआ लीन!
उस महा-विक्रालिका के आह्वान के लिए!
"चल फिर! आगे बढ़!!" कहा मैंने!
और मैंने भी आरम्भ किया आह्वान!
एक महाशक्ति,
तुलजा का!!
कभी समय हो, तो पढ़िए तुलजा के विषय में!
महाशक्ति है ये!
मात्र तीन रात्रिकाल साधना है इसकी!
कोई बलिकर्म नहीं!
कोई अलख नहीं!
कोई मंत्र नहीं!
बस इसका शक्ति यंत्र!
उसको धारण करें,
और किसी नदी के किनारे किसी ठूंठ पेड़ के नीचे,
स्थान साफ़ कर, साधना स्थल बनायें!
कोई आसन नहीं!
कोई सामग्री नहीं!
मात्र इसका एक रात्रि में चौरासी बार नाम लेना है!
और फिर देखिये आप!
संसार न बदल जाए तो कहें!
तुलजा अत्यंत रौद्र है! अत्यंत रौद्र!
एक सहस्त्र कोवितों द्वारा सेवित है!
कोवित, अर्थात कंकाल-कपालिनी सहोदरियों द्वारा!
मात्र, इतने से ही ये तुलजा प्रकट हो जाती है!
प्रकट होते ही, साधक के शरीर के हर छिद्र से रक्त बहने लगता है!
प्रश्न का उत्तर सही हुआ, तो आपकी हुई तुलजा!
अन्यथा प्राण, उसके हुए!
सबकुछ प्रदान करने में सक्षम है ये तुलजा!
आयु, यश, निरोग, धन, काम, कीर्ति, मान सबकुछ!
बस, इसको साधना होता है, छह माह में एक बार, इसका आह्वान करना होता है सिद्ध होने के पश्चात!
कल मैंने आपको तुलजा के विषय में जानकारी दी थी, तुलजा अति-रौद्र रूप में आये तो आपको किसी भी स्थान पर तबाही का मंजर दिखाई दे जाएगा! साधना छोटी है इसकी बहुत, लेकिन यदि छह मास में इसको जागृत नहीं किया जाए तो आपको इसकी सिद्धि पुनः करनी पड़ेगी! तुलजा विंध्याचल में पूज्य भी है कई जनजातियों में, इसका पूजन आज भी होता है! और ये प्रत्यक्ष भी दर्शन दे देती है! वो श्रेष्ठ महा-विक्रालिका का जाप कर रहा था! चुन चुन कर, अपनी एक से एक सिद्धियां आगे ला रहा था! लेकिन बेचारे की पार नहीं पड़ रही थी! अब तक के सभी वार व्यर्थ ही गए थे! एक दो सिद्धियां हाथ से निकल भी गयीं थीं! अब बस किसी चमत्कार के ही इंतज़ार में था वो श्रेष्ठ! मुझे लगा था कि अच्छी टक्कर दे सकता है ये श्रेष्ठ, लेकिन अभी तक तो उसके सभी हथियार भोथरे ही निकले थे! और तो और, वो प्रपंची सरभंग अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा था अचेतावस्था में! हाँ, कीड़े-मकौड़े मेरा धन्यवाद अवश्य ही कर रहे
थे! टूट के पड़ रहे थे उसके ज़ख्मों पर! और फिर मैं खड़ा हुआ! उस मेढ़े को चीरा और निकाल लिए कुछ अंग अंदर से, इनकी आवश्यकता पड़ती है, ऐसे आह्वान में, इसीलिए ले आया था मैं वे अंग!
"साधिके?" बोला मैं,
देखा मुझे! अपनी मोटी मोटी आँखों से!
आँखें बहुत संदर हैं श्रुति की! किसी छोटी बछिया जैसी!
पलकों के बाल, घुमावदार हैं! सुनहरे से चमकते हैं! एक बार नज़र लड़ जाए तो हटाई नहीं जाती!
खैर, कटोरा भर दिया था उसने मदिरा से,
मैंने लिया और गटक लिया, एक ही बार में,
और हुआ फिर खड़ा! थोड़ा लड़खड़ा गया था मैं!
नशा गहरा हो चला था तब तक!
अब लड़ाई देख!
तो अपने दोनों हाथों को नचा रहा था श्रेष्ठ! आह्वान में! मंत्र लगातार फूट रहे थे उसके मुंह से! आँखें बंद करता और कभी आँखें खोल लेता, फिर अलख में ईंधन झोंकता और फिर से हाथ नचाता अपने!
मैं बैठ गया नीचे!
और अब डूबा गहन मंत्रोच्चार में!
हुआ तल्लीन और प्रखर!
चढ़ता चला गया मन्त्र-दीर्घा!
कोई बीस मिनट बीते होंगे, कि मेरे स्थान पर, लाल रंग के फूल गिरे! हवा में तैरते हुए! मैं समझ गया! जान गया, तुलजा का आगमन होने को है! और तभी वाचाल के स्वर गूंजे! एक शब्द बोला उसने, और मैंने अपनी आँखें बंद कीं!
वहाँ, वहाँ सफ़ेद फूल गिरने लगे थे! ढेर के ढेर! और श्रेष्ठ, विक्षिप्त की तरह से हाथ नचाये जा रहा था! फूंक मारता जा रहा था बार बार अलख में!
और तभी उसकी अलख चौंध पड़ी!
अलख में से सफ़ेद रंग का आग का गोला फूट पड़ा!
वो खड़ा हुआ!
अट्ठहास किया! और झूम पड़ा!
"देख रहा है *?" चीखा वो!
हाँ! देख रहा था मैं!
"अब क्या करेगा? क्या करेगा तू?" बोला दांत भींच कर!
मैंने कुछ नहीं कहा!
आँखें खोल दीं!
और हुआ मंत्रों में लीन!
अब मंत्र हुए भीषण मेरे!
एक एक करके मैं आगे बढ़ता रहा, और अंत में 'फट्ट' पर अंत किया मंत्र का!
और झोंक दिया ईंधन अलख में!
डाल दिए कुछ अंग उस मेढ़े के अलख में!
और एक और मंत्र पढ़ा!
और फिर, "प्रकट हो!" कहा मैंने!
तभी मेरे बदन में ताप बढ़ने लगा!
मैंने अपनी साध्वी को वहां से हटने को कहा,
वो हट गयी और अलख के बाएं, थोड़ा दूर जा बैठी!
और तभी, तभी आकाश से स्वर्णिम रेखाएं फूट पड़ीं!
घूमते हुए, लहराते हुए वे पृथ्वी की ओर बढ़ीं!
भूमि से स्पर्श करते ही, फिर से ऊपर उठीं!
तभी एक हुंकार सी गूंजी! कोई था नहीं वहाँ!
सहसा ही वाचाल ने संकेत दिया मुझे!
आ पहुंची थी महा-विक्रालिका की सहोदरियां वहां!
मैं भागा अलख पर! ईंधन झोंका और चिल्ला पड़ा!
"तुलजा?"
"तुलजा?"
"तुलजा? प्रकट हो!" मैंने कहा,
मैंने कहना था और प्रकाश का गोला जैसे फूट पड़ा!
रंग बिरंगा प्रकाश छलकता रहा!
और मैं प्रसन्न हुआ!
महा-विक्रालिका की सहोदरियां गंध लेते ही तुलजा की,
क्षण भर में ही हों गयी लोप!
और मैं भाग लिया अपनी प्राण-रक्षक तुलजा के समक्ष लेटने को! प्रणाम करने को! लेकिन तुलजा प्रकट नहीं हुई थी, उसकी उप-सहोदरियां थीं वहां, दो, हालांकि तुलजा उप-सहोदरियां आदि नहीं लाती संग! लेकिन ये विषय दूसरा है! सिद्धि का विषय दूसरा! और फिर, मैंने आज पहली बार तुलजा का आह्वान किया था किसी द्वन्द में!
मैं खड़ा हुआ!
और पढ़े मंत्र तुलजा के!
एक प्रकार से उसका धन्यवाद किया!
मेरी प्राण-रक्षिका थी वो!
इसीलिए प्रणाम किया!
और फिर, प्रकाश जैसे अवशोषित हुआ, और तुलजा लोप!
मैं हंसा पड़ा!
अट्ठहास सा लगाया मैंने!
ख़ुशी का अट्ठहास!
भागा पीठे, त्रिशूल उठाया, और नाचने लगा!
झूमने लगा!
अब मद चढ़ा था! विजय का मद!
उस श्रेष्ठ को चित्त करने का मद!
अब लड़ाई देख!
श्रेष, भयातुर सा बैठा था अलख के पास!
दोनों हाथ पीछे किये हुए!
"श्रेष्ठ ******?" मैंने गुस्से से कहा!
आँखें फाड़ के देखे वो सामने!
"गयी?" बोला मैं!
चुप!
"गयी न?? हा! हा! हा! हा!" बोला मैं!
चली गयी थी महा-विक्रालिका उसके सिद्धि-पात्र से!
अब धीरे धीरे रिक्त हुए जा रहा था उसका सिद्धि-पात्र!
जैसे छिद्र हो गया हो पेंदे में उसके!
"मान जा! अभी भी समय है!" बोला मैं!
खड़ा हुआ वो!
अलख में से एक जलती लकड़ी उठायी!
और फेंक मारी सामने!
ये खीझ थी उसकी!
खीझ! हार की गंध! पराजय की आहट!
जो अब उसे, सुनाई देने लगी थी!
लेकिन!
वो अभी भी डटा था मैदान में!
क्यों न डटता!!
आखिर दम्भ में अँधा था!
"श्रेष्ठ?" मैं फिर से चिल्लाया!
अवाक खड़ा था!
"मान जा! मैं क्षमा कर दूंगा तुझे!" बोला मैं!
"क्षमा??" बोला वो!
हँसते हुए!
"क्षमा तू मांग ले! तू!" बोला वो!
मैं हंसा! उसकी मूर्खता पर!
"तू अब देखना?" बोला वो!
मैं हँसता रहा!
"अब देखना तू?" बोला वो!
और बैठ गया अलख पर!
साध्वी को खींच कर अलग कर दिया था वहाँ से उसने!
"अब देख!" बोला वो!
और लिया अपना सामान उसने!
और निकाली उसमे से, कुछ छोटी छोटी मूर्तियां!
कुल नौ!
