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वर्ष २०११ कोलकाता के पास के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बहुत खूबसूरत दिन था वो! अभी दिन की शुरुआत ही हुई थी! अक्टूबर के आसपास के दिन थे, इन दिनों में गर्मी, सुबह और शाम, उस खाल-छीला गर्मी के कर्फ्यू में ढील दे दिया करती है! तो उस दिन भी ढील मिली हुई थी! मैं और शर्मा जी, टहलने के लिए उस स्थान से बाहर ही आये हुए थे! वहां अन्य स्थान भी थे! कुछ छोटे और कुछ बहुत ही बड़े! कुछ लोग गायों को हाँक रहे थे, कुछ लोग बकरियों को ले जा रहे थे! गायों के रम्भाने की आवाज़ें और बकरियों की मैं-मैं एक अलग ही साज देती थीं! हम आगे चलते गए! मैंने एक और बात गौर की, यहां की गायों का शरीर उत्तर भारत की गायों से बहुत छोटा हुआ करता है! हम उस समय पश्चिम बंगाल के मालदा से भी आगे हबीबपुर के पास थे! और आज वापिस मालदा ही लौटना था, असली कार्यक्रम तो वहीँ था, यहां तो हम किसी से मिलने आये थे, मिल लिए थे और आज रात ही वापिस भी थी, शाम तलक, वापिस हो जाना था! खैर, हम आगे बढ़े, रास्ता बहुत सुंदर था, बड़े बड़े पेड़ लगे थे! कई को मैं जानता था और कई को नहीं! कुछ जंगली पेड़ थे, नीले, और पीले फूलों से लदे पड़े थे! पक्षी नज़र तो नहीं आ रहे थे लेकिन शोर उनका ऐसा था जैसे हम किसी पक्षियों के स्टॉक-एक्सचेंज के सामने से गुजर रहे हों! इक्का-दुक्का पक्षी दिख जाता! लाल और हरे रंग के पंखों वाले, हरे, सफ़ेद, नीली सी आभा वाले थे वे पक्षी! उनको देख कर लगता था की प्रकृति की तूलिका का कोई सानी नहीं! ऐसे और क्या खूब रंग भरे थे उनमे! तितलियाँ भी थी, ऐसी सुंदर तितलियाँ मैंने कभी नहीं देखी थीं! यहां भी प्रकृति की तूलिका को सर झुकाने का मन करता था! हम आगे बढ़ते चले गए! और एक जगह, वहाँ पत्थर पड़े थे, घास लगी थी, दो अच्छे से पत्थरों पर बैठ गए हम! हवा में ठंडक थी और सुबह का वो समय ऐसा था जैसे स्वर्ग से कुछ समय उधार लिया हो पृथ्वी ने!

 "कमाल की जगह है!" बोले शर्मा जी!

 "हाँ, कमाल की!" मैंने कहा,

 "वो देखो!" बोले वो!

 एक साही थी वो! शायद अभी किशोर अवस्था में थी, कुछ ढूंढ रही थी, कीड़े-मकौड़े, उसकी सुबह हुई थी, तो पेट-पूजा का समय हो ही चला था उसका! यही तो जीवन है! जो कभी नहीं ठहरता!

 "हाँ, साही है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "क्या खूबसूरत है!" वे बोले!

 "हाँ, कंटीली खूबसूरती है इसकी! शेर भी नहीं पकड़ा इसको!" मैंने कहा,

 "हाँ, ज़ख्मी कर देती है ये उसे!" बोले वो!

 "हाँ! यही बात है!" मैंने कहा,

 तभी पीछे से दो साइकिल सवार गुजरे, टोकरे रखे थे उनकी साइकिल पर, शायद मछली आदि रही होगी! उन्होंने सर झुका कर नमस्ते की! अब चाहे भाषा कोई भी हो, नमस्ते का उत्तर तो देना ही होता है, हमने भी दिया!

 वो साही करीब आ गयी हमारे! शर्मा जी का जूता सूंघा उसने! और फिर टांग के बीच सी होती हुई, मेरे जूते से चढ़ती हुई, चली गयी आगे! वजन कोई चार सौ ग्राम रहा होगा उसका!

 "इतना बड़ा कीड़ा पसंद नहीं आया उसे!" मैंने शर्मा जो को कहा!

 "हाँ, कीड़े ने कपड़े जो पहने हैं!" बोले वो!

 मैं हंस पड़ा!

 हम करीब चालीस मिनट बैठे वहाँ, और फिर चले वापिस! आ गए अपनी उसी जगह! रात को बढ़िया खाना खाया था, इसीलिए नींद भी बढ़िया आई थी! अब बस चाय मिल जाए तो मजा आ जाए! और फिर चाय भी आ गयी! साथ बे ब्रेड-मक्खन आये थे! हमने तो जीम लिए! छाया भी बढ़िया थी, गाढ़ी गाढ़ी! मजा आ गया! और फिर हम बैठ गए आराम से!

 थोड़ी देर बाद, हमारे कमरे में, रूपा आई, रूपा भी हमारे साथ चलने वाली थी मालदा, पैंतीस वर्ष की रूपा, बेहद समझदार और कुशल साध्वी है! कई साधनाएं भी उसने पूर्ण की हैं! और मुझे उसका साथ पसंद है! जटिल से जटिल कार्य को अपनी सूझबूझ से हल कर ही देती है, इसीलिए उसकी सहायता की दरकार अक्सर रहा ही करती है! रूप के पिता जी एक प्रबल औघड़ थे! अब उन्ही का स्थान संभालती है वो! मेरी कोई पांच वर्षों से जानकार है रूपा!

 "आओ रूपा! कैसी सो?" मैंने पूछा,

 वो आई, और कुर्सी पर बैठ गयी,

 "ठीक हूँ! चाय पी ली?" पूछा उसने!

 "हाँ, अभी बस थोड़ी देर पहले" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "अच्छा, और आज निकल रहे हो?" पूछा उसने,

 "हाँ, शाम को" मैंने कहा,

 "अच्छा" बोली वो,

 "तुम भी तो चल रही हो?" मैंने पूछा,

 "आज नहीं जा सकती, मैं दो दिन बाद आउंगी" बोली वो,

 "क्या हो गया?" पूछा मैंने,

 "ऐसी ही, कोई आ रहा है" बोली वो!

 अब मैंने नहीं पूछा की कौन! और वैसे भी मालदा से हबीबपुर दूर नहीं कोई! घंटे भर में पहुँच जाते!

 "कोई बात नहीं!" मैंने कहा!

 "मालदा में कब तक रहोगे?" उसने पूछा,

 "एक दो दिन" मैंने कहा,

 "अच्छा, और उसके बाद, वहीँ, बाबा पूरब नाथ के यहां?" पूछा उसने,

 "हाँ, वहाँ से पहले कोलकाता और फिर वहाँ!" मैंने कहा,

 "अच्छा" बोली वो!

 और खड़ी हुई,

 "भोजन भिजवा दूँगी मैं, कोई बारह बजे!" बोली वो,

 "ठीक है" मैंने कहा,

 और चली गयी फिर वो बाहर!

 "मालदा का रास्ता साला बुरा है बहुत, कोलकाता तक!" बोले वो!

 "हाँ, थकाऊ रास्ता है!" मैंने कहा,

 फिर दोपहर में भोजन किया हमने, शाम को, अपना सामान संभाला, रूपा से मिले, बाबा सूरज से मिले, और चल दिए हम वापिस मालदा के लिए! साधन मिला तो बैठ गए! और सवा


   
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श्रीशः उपदंडक
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घंटे में हम मालदा पहुँच गए! और वहाँ से सीधा बाबा वल्लभ के पास! उनको पता था कि हम आएंगे आज, तो हमें वहीँ मिले! अब हमने आराम किया, और फिर थोड़ी देर बाद, बाबा वल्ल्भ के साथ ही, महफ़िल भी जमा ली! सब सामान था मदिरा के साथ! आनंद और आनंद! रात को फन्ना के सो गए हम!

 सुबह हुई,

 औ फिर कोई ग्यारह बजे, मुझे बुलाया वल्लभ बाबा ने, मैं पहुंचा, शर्मा जी वहीँ कमरे में आराम कर रहे थे, उनका पेट ठीक नहीं था, रात के खाने से बवाल मच गया था पेट में उनके! इसीलिए आराम कर रहे थे वो!

 मैं पहुंचा वहाँ! नमस्कार हुई, और बिठाया मुझे!

 "पूरब के यहां कब चलना है?" बोले वो,

 "आप बताइये?" मैंने पूछा,

 "कल कैसा रहेगा?" बोले वो,

 "हाँ, ठीक है" मैंने कहा,

 "हाँ, ठीक है, गाड़ी से चलोगे या वाहन कर लें?" बोले वो!

 अब वाहन सुन मेरी कमर गाली दे दिया करती है मुझे! और रूह काँप जाती है! मुझे लम्बा सफर पसंद नहीं वाहन में, गाड़ी ही ठीक रहती है, कम से कम घूम-फिर तो सकते हैं, और भी सुख रहता है, जैसे प्राकृतिक-बुलावा!

 "गाड़ी ही ठीक है" बोला मैं!

 "ठीक है फिर" बोले वो!

 और फिर मैं चला आया वापिस! अपने कमरे में!

 "अरे शर्मा जी?" मैंने पूछा,

 "हूँ?" बोले वो, कोहनी सर पर रखे हुए,

 "पेट ठीक नहीं अभी भी?" पूछा मैंने,

 "हाँ, दर्द है" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "दवा ले लो?" बोला मैं,

 "ले ली" बोले वो,

 "ठीक" कहा मैंने,

 और बैठ गया मैं फिर!

 "कब निकलना है?" पूछ उन्होंने,

 "कल, दोपहर या शाम को" मैंने कहा,

 "ठीक है फिर" वे बोले,

 करवट बदली उन्होंने! लगता था पेट में ज़्यादा ही तमाशा खेल जा रहा था उनके!

अगले दिन हम निकल लिए थे वहाँ से! हम कोई चार बजे बैठे थे वहां से, अब शर्मा जी का पेट सही था, मैंने रौसुख की पत्तियां उबाल कर दे दी थीं उनको, चाय की तरह से पिया उन्होंने, तो दो बार पीने से ही ठीक हो गए थे! पेट में शीतलता प्रदान किया करती हैं ये पत्तियां! अगर चबा भी लो, तो भी तत्काल ही लाभ किया करती हैं! बस अब परहेज रखना था उन्हें! तो हम गाड़ी में चढ़ गए थे! जुगाड़ कर लिया था हमने सीटों का! हाँ, रूपा नहीं आई थी मालदा, वो वहीँ अपने स्थान पर ही रह गयी थी! तो हमारी आठ घंटों की वो यात्रा, जिसमे रेलवे आठ घंटे की यात्रा कहता है, वो बारह घंटे की हो गयी थी! दरअसल हमारी गाड़ी ही फ़ास्ट-पैसेंजर निकली! जगह जगह रुक कर, यात्रा को महा-कष्टकारी बना दिया था उसने! और जब ये पता चला की वो पीछे से ही सात-आठ घंटे देरी से चल रही थी, तो पेट में मरोड़ सो उठ गयीं थी! तो अब उस बैल-गाड़ी का सफर करना मज़बूरी ही था! पहुँच गए जी हम! कमर धनुष बन चली थी! और टांगें सरकंडे! बाहर आये तो चैन आया! बाहर आ कर, हमने चाय-नाश्ता किया, और कुछ हल्का-फुल्का सा खा भी लिया! अब यहां से बस पकड़ कर, हमें बाबा पूरब के पास जाना था, वहीँ था वो महा-आयोजन जिसकी तैयारियां दो महीने से चल रही थीं! दूर दूर से औघड़ आने थे वहां! कुछ नए लोग, और कुछ जानकार लोग! कुछ विद्याओं की जानकारी मिलती, और कुछ जानकारी हम भी देते दूसरों को! तो जी, अब यहां से बस पकड़ी! बस भी ऐसी कि जैसे लाहौर में चलती हैं! एक दड़बा सा होता है उनमे, बैठ जाओ, और अब हिलो नहीं, जैसे के बार टिक गए तो चिपक गए! और भीड़! भीड़ ऐसी कि जैसे आज शाम तक शहर खाली हो जाएगा लोगों से! बस चली जी! हम भी चले! बड़ी ही खौफनाक यात्रा रही वो! टांगें ऐसी हो गयीं जैसे उतरते ही बैसाखियाँ न मिलीं तो धड़ाम! और हम उतरे फिर! ओ हो! कैसा आनंद आया उसमे से उतरने के बाद! दड़बे से निकल लिए थे हम! अब मैंने बाबा से पूछा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "और कहाँ जाना है यहाँ से?" पूछा मैंने!

 "बस कोई पांच किलोमीटर और!" बोले वो!

 "पांच किलोमीटर? पैदल?" पूछा मैंने,

 मेरी तो पेट की पेटी ढीली हो चली थी!! कहीं पैदल बोल देते तो हालत ऐसी जैसे गुब्बारे से हवा निकालने पर होती है! ऐसी हालत!

 "मिल जायेगी कोई सवारी" बोले वो!

 और फिर मिल गयी सवारी! बैठ गए हम! और जा पहुंचे फिर! वहां पहुंचे तो माहौल बहुत बढ़िया था! जगह जगह कनातें लगी थीं! शामियाने लगे थे! जगह जगह लोग बैठे थे! हम बाबा के साथ साथ चल पड़े! कई लोग देख रहे थे हमें! हम उन्हें शायद मीडिया वाले लग रहे थे! खैर, हम जा पहुंचे वहां, बाबा पूरब से मिले! बहुत प्रसन्न हुए! हम कोई आधा घंटा ठहरे वहाँ! दरअसल हमसे बात ही न कर सके थे वो एक ही बार में, कभी कोई आता और कभी कोई! हमें एक सहायक ले गया अपने साथ! बाबा वहीँ रह गए थे! सहायक एक कमरे में ले आया! हम दूर से आये थे तो हमें कमरा मिला, बाबा पूरब जानते हैं मुझे, नहीं तो किसी शामियाने में कोई दरी ही मिलती! कमरे में आये, सामान रखा, और धम्म से लेट गए बिस्तर पर! कब नींद आई, पता नहीं चला!

 और जब नींद खुली, तो चार घंटे बीत चुके थे! मैं उठा, शर्मा जी को उठाया, वे उठे, पेट ठीक था उनका अब! दवा ने असर कर दिया था! अब डकारें भी नहीं आ रही थीं!

 "मैं स्नान कर आऊँ" मैंने कहा,

 "हाँ" बोले वो,

 तो मैं अपने वस्त्र ले गया और कुछ ही देर में स्नान कर आया! स्नान किया तो आनंद आया बहुत! थकावट निकल गयी थी! मैं आया तो वे भी चले गए स्नान करने! आये तो अपने बाल बनाये, दाढ़ी भी बना ली, मैंने भी दाढ़ी बना ली अपनी!

 "भूख लगी है?" पूछा मैंने,

 "हाँ लगी तो है" बोले वो!

 "आओ फिर" मैंने कहा, और हम चल पड़े बाहर, भोजन करने! वहां पहुंचे ही थे कि मेरा एक जानकार मिल गया! वो इलाहबाद से आया था! नाम था रूपेश! खुश हुआ! मैंने उसके गुरु के


   
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श्रीशः उपदंडक
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विषय में पूछा तो वे सही हैं बताया उसने! और उसके गुरु भी आये ही हुए थे वहाँ! फिर रूपेश ने भोजन करवाया हमें, दाल चावल, रोटियां और दही, अच्छा खाना था! हम लौट आये! आयोजन तीन दिन चलना था और ऐसा आयोजन वर्ष में एक बार ही हुआ करता है! कई डेरे मिल कर ऐसा आयोजन करते हैं!

 अगले दिन, मैं और शर्मा जी बाबा पूरब के यहाँ बैठे थे! कि एक स्त्री अंदर आई! सफेद रंग का कुरता और सफेद रंग की ही चुस्त-पाजामी पहने! चुन्नी या दुपट्टा नहीं लिया था उसने, बटन लगे थे ऊपर गले तक, लेकिन थी बहुत सुंदर! केश लम्बे थे उसके, उनको उसने एक पीले रंग के रबर के छल्ले से बाँधा हुआ था! बाबा ने उसका नाम, युक्ता लिया! मैं कनखियों से उसका बदन देख रहा था! झूठ नहीं बोलूंगा! उसका उन्नत वक्ष बेहद ही आकर्षक था! कमर पतली और वो कुरता नहीं संभाल पा रहा था उसकी देह को! पुष्ट देह थी उसकी! उसका कद कोई पांच फ़ीट नौ या दस इंच रहा होगा! आयु में कोई सत्ताईस या अट्ठाइस बरस की होगी! उसकी बाबा से बात हुई, किसी श्रेष्ठ के बारे में! श्रेष्ठ कौन था, मुझे मालूम नहीं था! और जब वो लौट के चली तो मेरी नज़रें उसकी झूमती हुई चाल पर चली गयी! मदमस्त चाल थी उसकी! कोई देखे, तो देखता ही रह जाए! ऐसी चाल थी! अब बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना! मुझे क्या ज़रूरत थी उसके बारे में पूछने की! वैसे मन में इच्छा ज़रूर थी! तो बाबा पूरब से हमारी बातें हुईं! काफी बातें, कई नए लोगों से मिला मैं, ऊंचे ऊंचे दर्जे प्राप्त औघड़ थे वहाँ!

 तो वो दिन भी ऐसे ही गुजर गया! रात्रि को पूजन होता तो हम सभी जाते थे वहाँ! ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित होता और पूजन आरम्भ! ऐसे करते करते, तीसरा दिन भी आ गया! और तीसरे दिन, मुझे वो युक्ता दिखी! हाथ में कुछ किताबें सी थीं उसके पास! और वहाँ खड़े लोग, उसको ही देखे जा रहे थे! एक अनार और सौ बीमार! आ रही थी सामने से ही! मैं भी रुक गया था! और जैसे ही आई सामने मेरे, मैंने देखा उसे! उसने भी देखा!,जैसे ही गुजरी, तो मैंने कहा कुछ!

 "सुनो?" बोला मैं,

 वो रुकी!

 पीछे देखा,

 मुझे देखा!

 ऊँगली के इशारे से पूछा उसने कि मैं?

 "हाँ" मैंने कहा,

 आई वापिस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "जी?" बोली वो!

 "आप कहाँ से हैं?" मैंने पूछा,

 "यहीं से, कोलकाता से" बोली वो,

 "किस डेरे से?" पूछा मैंने,

 मुझे अजीब सी निगाह से देखा उनसे!

 "बाबा धर्मेक्ष का नाम तो सुना ही होगा आपने?" बोली वो,

 मैं जानता था बाबा को!

 "हाँ, सुना है!" मैंने कहा,

 "उन्ही की पुत्री हूँ" बोली वो,

 "अच्छा! धन्यवाद!" मैंने कहा,

 "और आप?" उसने पूछा,

 "मैं दिल्ली से!" मैंने कहा,

 "बड़ी दूर से!" बोली वो!

 "हाँ, दूर तो है" मैंने कहा,

 "तो कल वापिस?" बोली वो!

 "हाँ" मैंने कहा,

 "अच्छा लगा आपसे मिलके" बोली वो,

 "मुझे भी!" मैंने कहा,

 और वो मुस्कुरा के चल पड़ी वापिस!

 मेरी बेईमान निगाहें पीछा करने लगीं उसका!

 शर्मा जी वहीँ खड़े थे, मेरा आशय भांपते देर नहीं लगती उन्हें!

 "बाबा धर्मेक्ष!" बोले वो!


   
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 "हाँ! वही!" मैंने कहा,

 "तभी ऐसे घूम रही है ये!" बोले वो!

 "हाँ! इसीलिए!" मैंने कहा,

 "बाबा धर्मेक्ष पहुंचे हुए हैं!!" बोले वो!

 "हाँ! सच!" मैंने कहा!

 "लेकिन ये तो साध्वी नहीं लगती?" बोले वो!

 "तभी पूछा था मैंने उस से!" मैंने कहा!

 ''अच्छा!" बोले वो!

 "आना ज़रा?" मैंने कहा,

 "चलो" बोले वो,

 कमरे को ताला लगा दिया हमने! और चल पड़े! हम पहुंचे रूपेश के पास! मिला हमसे!

 "रूपेश? बाबा धर्मेक्ष आये हैं क्या?" पूछा मैंने,

 "नहीं, लेकिन उनका बेटा श्रेष्ठ आया है!" बोला वो!

 अच्छा! अब समझा!

 "ये कोलकाता से हैं?" मैंने पूछा,

 "नहीं" बोला वो!

 "फिर??" मैंने चौंक के पूछा,

 "सियालदाह के पास से" बोला वो!

 "अच्छा!" मैंने कहा,

 "कोई बात हुई क्या?" उसने पूछा,

 "नहीं! कोई बात नहीं!" मैंने कहा!


   
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तीसरी रात भी आई, और महा-पूजन हुआ! आज निबट गया था महा-आयोजन! सैंकड़ो लोग आये थे, हर जगह छलफल थी! साध्वियां और औघड़, सभी अपने अपने में मस्त थे! हम भी मस्त थे! मदिरा के नशे में झूम रहे थे! आज अंतिम रात्रि थी तो सबकी लगाम छूट चुकी थीं! रूपेश, मैं, शर्मा जी, चार साध्वियां, हम सब मस्त थे! कभी कभी तो कोई गिर भी पड़ता था! हँसता था और फिर से खड़ा हो जाता था! शर्मा जी का पेट अब सही था, खूब खाया पिया उन्होंने भी! और हम उस रात कोई दो बजे थे घल्लड़ काटते रहे! साध्वियां तो अचेत ही हो चली थीं! और कुछ नए लोग आ बैठे थे वहां! तभी मेरी नज़र कोने में पड़ी एक जगह, किसी व्यक्ति को चालीस के आसपास लोगों ने घेर रखा था! अब होगा कोई, मैंने गौर नहीं किया! हम तो बस अपनी मदिरा में ही डूबे रहे! कोई तीन बजे लड़खड़ाते हुए हम अपने कमरे में पहुंचे! हाल बहुत खराब था! नशे के मारे हर वस्तु दो दो दिखाई दे रही थी! हम तो बस अपने जूते खोल लेट गए बिस्तर पर! जुराब भी नहीं उतार सके! ऐसा भयंकर नशा था!

 सुबह हुई, हम देर से जागे! नौ बज चुके थे, मेरा सर तो फटा जा रहा था दर्द के कारण! मुंह में अभी भी शराब की गंध थी, साँसों में भी तीखी गंध आ रही थी, मैं चला दातुन करने! और फिर स्नानादि से निवृत हो गया! फिर शर्मा जी भी निवृत हो आये! बैठ गए, सर पकड़ कर!

 "क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "घुमेर आ रही हैं!" वे बोले,

 मैं हंस पड़ा!

 "मेरा भी यही हाल है!" मैंने कहा,

 "आओ, देखते हैं दही मिल जाए तो" बोले वो,

 "चलो" मैंने कहा,

 पहुँच गए वहाँ! दो तीन महिलायें थीं वहाँ, एक को बुलाया, उस से दही के बारे में पूछा, तो पता चला दही नहीं है! हाँ, छाछ मिल जायेगी! फिर क्या था, नमक और मिर्च मिलाकर, दो दो गिलास खींच मारे! और जब दिमाग ठंडा किया छाछ ने, तो आँखों की सुईयां अपनी जगह आयीं! नहीं तो काँप रही थीं आँखों की वो सुईयां! हम लौट आये अपने कमरे में! और लेट गए! डकार आती तो साथ में शराब की भी आती, जी मिचला जाता लगता, अभी बाहर और अभी बाहर!

 "ज़्यादा हो गयी रात को!" बोले वो,


   
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तीसरी रात भी आई, और महा-पूजन हुआ! आज निबट गया था महा-आयोजन! सैंकड़ो लोग आये थे, हर जगह छलफल थी! साध्वियां और औघड़, सभी अपने अपने में मस्त थे! हम भी मस्त थे! मदिरा के नशे में झूम रहे थे! आज अंतिम रात्रि थी तो सबकी लगाम छूट चुकी थीं! रूपेश, मैं, शर्मा जी, चार साध्वियां, हम सब मस्त थे! कभी कभी तो कोई गिर भी पड़ता था! हँसता था और फिर से खड़ा हो जाता था! शर्मा जी का पेट अब सही था, खूब खाया पिया उन्होंने भी! और हम उस रात कोई दो बजे थे घल्लड़ काटते रहे! साध्वियां तो अचेत ही हो चली थीं! और कुछ नए लोग आ बैठे थे वहां! तभी मेरी नज़र कोने में पड़ी एक जगह, किसी व्यक्ति को चालीस के आसपास लोगों ने घेर रखा था! अब होगा कोई, मैंने गौर नहीं किया! हम तो बस अपनी मदिरा में ही डूबे रहे! कोई तीन बजे लड़खड़ाते हुए हम अपने कमरे में पहुंचे! हाल बहुत खराब था! नशे के मारे हर वस्तु दो दो दिखाई दे रही थी! हम तो बस अपने जूते खोल लेट गए बिस्तर पर! जुराब भी नहीं उतार सके! ऐसा भयंकर नशा था!

 सुबह हुई, हम देर से जागे! नौ बज चुके थे, मेरा सर तो फटा जा रहा था दर्द के कारण! मुंह में अभी भी शराब की गंध थी, साँसों में भी तीखी गंध आ रही थी, मैं चला दातुन करने! और फिर स्नानादि से निवृत हो गया! फिर शर्मा जी भी निवृत हो आये! बैठ गए, सर पकड़ कर!

 "क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "घुमेर आ रही हैं!" वे बोले,

 मैं हंस पड़ा!

 "मेरा भी यही हाल है!" मैंने कहा,

 "आओ, देखते हैं दही मिल जाए तो" बोले वो,

 "चलो" मैंने कहा,

 पहुँच गए वहाँ! दो तीन महिलायें थीं वहाँ, एक को बुलाया, उस से दही के बारे में पूछा, तो पता चला दही नहीं है! हाँ, छाछ मिल जायेगी! फिर क्या था, नमक और मिर्च मिलाकर, दो दो गिलास खींच मारे! और जब दिमाग ठंडा किया छाछ ने, तो आँखों की सुईयां अपनी जगह आयीं! नहीं तो काँप रही थीं आँखों की वो सुईयां! हम लौट आये अपने कमरे में! और लेट गए! डकार आती तो साथ में शराब की भी आती, जी मिचला जाता लगता, अभी बाहर और अभी बाहर!

 "ज़्यादा हो गयी रात को!" बोले वो,


   
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 "हाँ!" मैंने कहा,

 "आप ज़िद करते हो न!" बोले वो!

 "मैंने सोचा, कहाँ आता यही ऐसा मौक़ा फिर! लगा दो टॉप-गियर!" मैंने कहा,

 "हाँ और अब हुईं गरारियां फेल!" बोले वो!

 मैं हंस पड़ा तभी!

 "अब अगर बोतल देख लूँ न अगर, तो आँतों का पानी भी निचुड़ जाए!" बोले वो!

 "उलटी कर?" मैंने पूछा!

 "हाँ! ऐसी धार छूटेगी कि मैं पीछे गिरूंगा!" बोले वो!

 मेरी हंसी छूटी! तभी उन्हें डकार आई! और एक भद्दी सी गाली दी उस डकार को उन्होंने!

 "डकार पे गुस्सा निकाल रहे हो?" मैंने पूछा,

 "हाँ, साली अभी तक चढ़ी हुई है!" बोले वो!

 "अब पी है तो चढ़ेगी नहीं क्या?" मैंने पूछा!

 "हाँ जी! अब जब फटने को है तो मैं क्या करूँ!" वे बोले!

 मेरी हंसी छूटी फिर से!

 "साला खोपड़ी में ऐसा दर्द है जैसे फुटबॉल खेली जा रही हो सर के अंदर!" सर पकड़ के बोले वो!

 मैं हंसा फिर से!

 "पेट तो सही है?" मैंने पूछा,

 "हाँ, बस पेट ही सही है, नहीं तो सब ढीला है!" बोले वो!

 हंस हंस के मेरा पेट दुखने लगा था!

 तभी सहायक आया! चाय लाया था! हम उठ बैठे!

 "आजा यार आजा! बहुत सख्त ज़रूरत है इसकी!" बोले वो!


   
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सहायक ने चाय दे दे, दो कप और साथ में कचौड़ियां थीं, आलू की! उसने रख दी, और चला गया!

 अब शर्मा जी ने घूँट भरा!

 "साली चाय भी दारु की तरह लग रही है! बास मार रही है चाय में से दारु की!" बोले वो!

 मुझे फिर से हंसी आई! चाय रखनी पद गयी एक तरफ!

 "अब आराम से पी लो चाय!" मैंने हँसते हुए कहा,

 "आराम से ही पी रहा हूँ जी!!" बोले वो!

 अब मैंने भी पीनी आरम्भ की चाय!

 "चलो कुछ राहत तो देगी!" मैंने कचौड़ी खाते हुए कहा,

 "हाँ, कुछ तो नशा खत्म होगा!" बोले वो!

 हमने चाय खत्म की! और फिर से लेट गए! सर पकड़ कर दोनों ही!

 "डिस्प्रिन है क्या?" मैंने पूछा,

 "क्या हुआ?" बोले वो!

 "सर फट रहा है!" मैंने कहा,

 "और मैं क्या फ़ारसी बोल रहा था! सर के साथ साथ बहुत कुछ फट रहा है! एक चीज़ हो तो बताऊँ!" बोले वो!

 हंसी छूटी मेरी फिर से!!

 वो गए अपने बैग तक, लड़खड़ा गए!

 "तेरी माँ की!!" बोले वो!

 "क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "नशा!" बोले वो!

 "आप गोली निकालो यार!" मैंने कहा,

 "निकला तो रहा हूँ!" बोले वो!


   
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 और कुछ देर टटोला-टटोली के बाद, निकाल लीं चार गोलियां, पत्ते से फाड़ ली थीं! आये मेरे पास, गिलास और जग ले कर! दे दीं मुझे दो गोलियां!

 "पानी देना?" मैंने कहा,

 पानी दे दिया,

 मैंने आधा गिलास पानी में, दो गोलियां डाल दीं! और पी गया फिर! फिर शर्मा जी ने भी ऐसा ही किया! पानी रखा, और लेट गए! अब दर्द के मारे नींद न आवे!

 "बहन**! पानी से भी दारु की बास मार रही थी!" बोले वो!

 "अरे साँसों में है ये बास!" मैंने कहा,

 "ये बंगाली शराब ही खराब है!" बोले वो!

 "शराब तो बढ़िया थी!" मैंने कहा,

 "तभी तो कितने बढ़िया हैं हम आज!" बोले वो!

 एक कराह सी निकालते हुए!

 मेरी हंसी छूट पड़ी!

 कोई आधे घंटे में दर्द बंद हुआ! असर कर दिया था गोली ने! मैं उठा और जा बैठा कुर्सी पर! अब ज़रा होश आया था! बदन ठंडा ठंडा लगने लगा था!

 "शर्मा जी?" मैंने कहा,

 "हाँ जी?" बोले वो!

 "अब दर्द बंद है?" पूछा मैंने,

 "हाँ, आराम है अब" बोले वो!

 "तो हो जाओ खड़े?" मैंने पूछा,

 "क्यों?" बोले वो!

 "भोजन कर लें?" मैंने कहा,

 "कर लेंगे!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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 "मैं कह कर आता हूँ" मैंने कहा,

 "ठीक है" वे बोले,

 और मैं निकल आया बाहर!

 पहुंचा उस भोजनालय में! सहायक को कह दिया भोजन के लिए! और लौटा!

 जैसे ही अपने कमरे के पास आया! मेरी नज़र युक्ता पर पड़ी! साड़ी पहने तो वो बवाल मचाने वाली थी उस डेरे में! मेरे पास से गुजरी! मुझे देखा!

 "नमस्ते!" मैंने कहा,

 "नमस्ते!" बोली वो!

 "कैसी हो?" पूछा,

 "बढ़िया, आप?" उसने पूछा,

 "ठीक सब!" मैंने कहा,

 "रात नज़र नहीं आये?" पूछा उसने!

 "हम तो वहीँ थे?" मैंने कहा,

 "भीड़ भी तो बहुत थी" बोली वो!

 "हाँ! भीड़ तो बहुत थी!" मैंने कहा,

 तभी एक लड़की आई, उस से मिली,

 और फिर वे दोनों, चली गयीं आगे!

 मैं सीधा अपने कमरे में चला आया!

सहायक भोजन दे गया था, और हमने भोजन कर भी लिया था! और फिर उसके बाद हम आराम कर रहे थे! अब वहां से चलने की तैयारी ही थी! कल या परसों में निकलना था वहाँ से! तभी कोई दो बजे के आसपास मेरे पास बाबा पूरब का बुलावा आया, मैं चल पड़ा उनके पास! वहां तीन और लोग बैठे थे, उन सभी से प्रणाम हुई, तो बाबा पूरब ने मेरा परिचय दिया उनको! और उनका परिचय मुझे दिया! वे सभी प्रबल औघड़ थे! एक से एक! बाबा ने अब मुझसे मुख्य विषय पर बात करनी शुरू की!


   
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