बहुत खूबसूरत दिन था वो! अभी दिन की शुरुआत ही हुई थी। अक्टूबर के आसपास के दिन थे, इन दिनों में गर्मी, सुबह और शाम, उस खाल छीला गर्मी के कयूं में ढील दे दिया करती है! तो उस दिन भी ढील मिली हुई थी! मैं और शर्मा जी, टहलने के लिए उस स्थान से बाहर ही आये हुए थे! वहां अन्य स्थान भी थे! कुछ छोटे और कुछ बहुत ही बड़े! कुछ लोग गायों को हाँक रहे थे, कुछ लोग बकरियों को ले जा रहे थे। गायों के रम्भाने की आवाजें और बकरियों की मैं-मैं एक अलग ही साज देती थीं! हम आगे चलते गए! मैंने एक और बात गौर की, यहां की गायों का शरीर उत्तर भारत की गायों से बहुत छोटा हआ करता है। हम उस समय पश्चिम बंगाल के मालदा से भी आगे हबीबपुर के पास थे! और आज वापिस मालदा ही लौटना था, असली कार्यक्रम तो वहीं था, यहां तो हम किसी से मिलने आये थे, मिल लिए थे और आज रात ही वापिस भी थी, शाम तलक, वापिस हो जाना था! खैर, हम आगे बढ़े, रास्ता बहुत सुंदर था, बड़े बड़े पेड़ लगे थे! कई को मैं जानता था और कई को नहीं! कुछ जंगली पेड़ थे, नीले, और पीले फूलों से लदे पड़े थे! पक्षी नज़र तो नहीं आ रहे थे लेकिन शोर उनका ऐसा था जैसे हम किसी पक्षियों के स्टॉक-एक्सचेंज के सामने से गुजर रहे हों! इक्का-दुक्का पक्षी दिख जाता! लाल और हरे रंग के पंखों वाले, हरे, सफेद, नीली सी आभा वाले थे वे पक्षी! उनको देख कर लगता था की प्रकृति की तूलिका का कोई सानी नहीं। ऐसे
और क्या खूब रंग भरे थे उनमे तितलियाँ भी थी, ऐसी सुंदर तितलियाँ मैंने कभी नहीं देखी थीं! यहां भी प्रकृति की तूलिका को सर झुकाने का मन करता था! हम आगे बढ़ते चले गए! और एक जगह, वहाँ पत्थर पड़े थे, घास लगी थी, दो अच्छे से पत्थरों पर बैठ गए हम! हवा में ठंडक थी और सुबह का वो समय ऐसा था जैसे स्वर्ग से कुछ समय उधार लिया हो पृथ्वी
"कमाल की जगह है!" बोले शर्मा जी! "हाँ, कमाल की।" मैंने कहा, "वो देखो!" बोले वो। एक साही थी वो! शायद अभी किशोर अवस्था में थी, कुछ ढूंढ रही थी, कीड़े-मकौड़े, उसकी सुबह हई थी, तो पेट-पूजा का समय हो ही चला था उसका! यही तो जीवन है! जो कभी नहीं ठहरता! "हाँ, साही है!" मैंने कहा, "क्या खूबसूरत है!" वे बोले!
"हाँ, कंटीली खूबसूरती है इसकी! शेर भी नहीं पकड़ा इसको!"मैंने कहा, "हाँ, जख्मी कर देती है ये उसे!" बोले वो! "हाँ! यही बात है!" मैंने कहा, तभी पीछे से दो साइकिल सवार गजरे, टोकरे रखे थे उनकी साइकिल पर, शायद मछली आदि रही होगी। उन्होंने सर झुका कर नमस्ते की! अब चाहे भाषा कोई भी हो, नमस्ते का उत्तर तो देना ही होता है, हमने भी दिया! वो साही करीब आ गयी हमारे! शर्मा जी का जूता सूंघा उसने! और फिर टांग के बीच सी होती हई, मेरे जूते से चढ़ती हई, चली गयी आगे! वजन कोई चार सौ ग्राम रहा होगा उसका! "इतना बड़ा कीड़ा पसंद नहीं आया उसे!" मैंने शर्मा जो को कहा! "हाँ, कीड़े ने कपड़े जो पहने हैं!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! हम करीब चालीस मिनट बैठे वहाँ, और फिर
चले वापिस! आ गए अपनी उसी जगह! रात को बढ़िया खाना खाया था, इसीलिए नींद भी बढ़िया आई थी! अब बस चाय मिल जाए तो मजा आ जाए! और फिर चाय भी आ गयी! साथ बे ब्रेड-मक्खन आये थे! हमने तो जीम लिए! छाया भी बढ़िया थी, गाढ़ी गाढ़ी! मजा आ गया! और फिर हम बैठ गए आराम से! थोड़ी देर बाद, हमारे कमरे में, रूपा आई, रूपा भी हमारे साथ चलने वाली थी मालदा, पैंतीस वर्ष की रूपा, बेहद समझदार और कुशल साध्वी है। कई साधनाएं भी उसने पूर्ण की हैं। और मुझे उसका साथ पसंद है! जटिल से जटिल कार्य को अपनी सूझबूझ से हल कर ही देती है, इसीलिए उसकी सहायता की दरकार अक्सर रहा ही करती है। रूप के पिता जी एक प्रबल औघड़ थे! अब उन्ही का स्थान संभालती है वो! मेरी कोई पांच वर्षों से जानकार है रूपा! "आओ रूपा! कैसी सो?" मैंने पूछा, बोआई,और कर्सी पर बैठ गयी, "ठीक हैं! चाय पी ली?" पूछा उसने! "हाँ, अभी बस थोड़ी देर पहले" मैंने कहा, "अच्छा, और आज निकल रहे हो?" पूछा उसने, "हाँ, शाम को" मैंने कहा, "अच्छा" बोली वो, "तुम भी तो चल रही हो?" मैंने पूछा, "आज नहीं जा सकती, मैं दो दिन बाद आउंगी" बोली वो, "क्या हो गया?" पूछा मैंने,
"ऐसी ही, कोई आ रहा है" बोली वो! अब मैंने नहीं पूछा की कौन! और वैसे भी मालदा से हबीबपुर दूर नहीं कोई! घंटे भर में पहुँच जाते! "कोई बात नहीं!" मैंने कहा! "मालदा में कब तक रहोगे?" उसने पूछा, "एक दो दिन" मैंने कहा, "अच्छा, और उसके बाद, वहीं, बाबा पूरब नाथ के यहां?" पूछा उसने, "हाँ, वहाँ से पहले कोलकाता और फिर वहाँ!" मैंने कहा, "अच्छा" बोली वो!
और खड़ी हुई, "भोजन भिजवा दूँगी मैं, कोई बारह बजे!" बोली वो, "ठीक है" मैंने कहा,
और चली गयी फिर वो बाहर! "मालदा का रास्ता साला बुरा है बहत, कोलकाता तक!" बोले वो! "हाँ, थकाऊरास्ता है!" मैंने कहा, फिर दोपहर में भोजन किया हमने, शाम को, अपना सामान संभाला, रूपा से मिले, बाबा सूरज से मिले, और चल दिए हम वापिस मालदा के लिए! साधन मिला तो बैठ गए! और सवा घंटे में हम मालदा पहुँच गए! और वहाँ से सीधा बाबा वल्लभ के पास! उनको पता था कि हम आएंगे आज,तो हमें वहीं मिले। अब हमने आराम किया, और फिर थोड़ी देर बाद, बाबा वल्ल्भ के साथ ही, महफ़िल भी जमा ली! सब सामान था मदिरा के साथ! आनंद और
आनंद! रात को फन्ना के सो गए हम! सुबह हुई,
औ फिर कोई ग्यारह बजे, मुझे बुलाया वल्लभ बाबा ने, मैं पहुंचा, शर्मा जी वहीं कमरे में आराम कर रहे थे, उनका पेट ठीक नहीं था, रात के खाने से बवाल मच गया था पेट में उनके! इसीलिए आराम कर रहे थे वो! मैं पहंचा वहाँ! नमस्कार हुई, और बिठाया मुझे! "पूरब के यहां कब चलना है?" बोले वो, "आप बताइये?" मैंने पूछा, "कल कैसा रहेगा?" बोले वो, "हाँ, ठीक है" मैंने कहा,
"हाँ, ठीक है, गाड़ी से चलोगे या वाहन कर लें?" बोले वो!
अब वाहन सुन मेरी कमर गाली दे दिया करती है मुझे! और रूह काँप जाती है। मुझे लम्बा सफर पसंद नहीं वाहन में, गाड़ी ही ठीक रहती है, कम से कम घूम-फिर तो सकते हैं, और भी सुख रहता है, जैसे प्राकृतिक-बुलावा! "गाड़ी ही ठीक है" बोला मैं! "ठीक है फिर बोले वो!
और फिर मैं चला आया वापिस! अपने कमरे में! "अरे शर्मा जी?" मैंने पूछा, "हँ?" बोले वो, कोहनी सर पर रखे हुए, "पेट ठीक नहीं अभी भी?" पूछा मैंने, "हाँ, दर्द है" बोले वो, "दवा ले लो?" बोला मैं, "ले ली" बोले वो, "ठीक" कहा मैंने,
और बैठ गया मैं फिर! "कब निकलना है?" पूछ उन्होंने, "कल, दोपहर या शाम को" मैंने कहा, "ठीक है फिर वे बोले, करवट बदली उन्होंने! लगता था पेट में ज़्यादा ही तमाशा खेल जा रहा था उनके! अगले दिन हम निकल लिए थे वहाँ से! हम कोई चार बजे बैठे थे वहां से, अब शर्मा जी का पेट सही था, मैंने रौसुख की पत्तियां उबाल कर दे दीर्थी उनको, चाय की तरह से पिया उन्होंने, तो दो बार पीने से ही ठीक हो गए थे! पेट में शीतलता प्रदान किया करती हैं ये पत्तियां! अगर चबा भी लो, तो भी तत्काल ही लाभ किया करती हैं। बस अब परहेज रखना था उन्हें! तो हम गाड़ी में चढ़ गए थे! जुगाड़ कर लिया था हमने सीटों का! हाँ, रूपा नहीं आई थी मालदा, वो वहीं अपने स्थान पर ही रह गयी थी! तो हमारी आठ घंटों की वो यात्रा, जिसमे रेलवे आठ घंटे की यात्रा कहता है, वो बारह घंटे की हो गयी थी। दरअसल हमारी गाड़ी ही फ़ास्ट-पैसेंजर निकली! जगह जगह रुक कर, यात्रा को महा-कष्टकारी बना दिया था उसने! और जब ये पता चला की वो पीछे से ही सात-आठ घंटे देरी से चल रही थी, तो पेट में मरोड़ सो उठ गयीं थी! तो अब उस बैल-गाड़ी का सफर करना मज़बूरी ही था! पहुँच गए जी हम! कमर धनुष बन चली थी! और टांगें सरकंडे! बाहर आये तो चैन आया! बाहर आ
कर, हमने चाय-नाश्ता किया, और कुछ हल्का-फुल्का सा खा भी लिया! अब यहां से बस पकड़ कर, हमें बाबा पूरब के पास जाना था, वहीं था वो महा-आयोजन जिसकी तैयारियां दो महीने से चल रही थीं। दूर दूर से औघड़ आने थे वहां! कुछ नए लोग, और कुछ जानकार। लोग! कुछ विद्याओं की जानकारी मिलती, और कुछ जानकारी हम भी देते दूसरों को! तो जी, अब यहां से बस पकड़ी। बस भी ऐसी कि जैसे लाहौर में चलती हैं। एक दड़बा सा होता है उनमे, बैठ जाओ, और अब हिलो नहीं, जैसे के बार टिक गए तो चिपक गए! और भीड़! भीड़ ऐसी कि जैसे आज शाम तक शहर खाली हो जाएगा लोगों से! बस चली जी! हम भी चले! बड़ी ही खौफनाक यात्रा रही वो! टांगें ऐसी हो गयीं जैसे उतरते ही बैसाखियाँ न मिलीं तो धड़ाम! और हम उतरे फिर! ओ हो! कैसा आनंद आया उसमे से उतरने के बाद! दड़बे से निकल लिए थे हम! अब मैंने बाबा से पूछा! "और कहाँ जाना है यहाँ से?" पूछा मैंने! "बस कोई पांच किलोमीटर और!" बोले वो। "पांच किलोमीटर? पैदल?" पूछा मैंने, मेरी तो पेट की पेटी ढीली हो चली थी!! कहीं पैदल बोल देते तो हालत
ऐसी जैसे गुब्बारे से हवा निकालने पर होती है! ऐसी हालत! "मिल जायेगी कोई सवारी" बोले वो!
और फिर मिल गयी सवारी! बैठ गए हम! और जा पहुंचे फिर! वहां पहुंचे तो माहौल बहुत बढ़िया था! जगह जगह कनातें लगी थीं! शामियाने लगे थे। जगह जगह लोग बैठे थे। हम बाबा के साथ साथ चल पड़े। कई लोग देख रहे थे हमें! हम उन्हें शायद मीडिया वाले लग रहे थे! खैर, हम जा पहंचे वहां, बाबा पूरब से मिले! बहुत प्रसन्न हए! हम कोई आधा घंटा ठहरे वहाँ! दरअसल हमसे बात ही न कर सके थे वो एक ही बार में, कभी कोई आता और कभी कोई! हमें एक सहायक ले गया अपने साथ! बाबा वहीं रह गए थे! सहायक एक कमरे में ले आया! हम दूर से आये थे तो हमें कमरा मिला, बाबा पूरब जानते हैं मुझे, नहीं तो किसी शामियाने में कोई दरी ही मिलती! कमरे में आये, सामान रखा, और धम्म से लेट गए बिस्तर पर! कब नींद आई.पता नहीं चला!
और जब नींद खुली, तो चार घंटे बीत चुके थे। मैं उठा, शर्मा जी को उठाया, वे उठे, पेट ठीक था उनका अब! दवा ने असर कर दिया था! अब इकारें भी नहीं आ रही थीं! "मैं स्नान कर आऊँ"मैंने कहा, "हाँ" बोले वो, तो मैं अपने वस्त्र ले गया और कुछ ही देर में स्नान कर आया! स्नान किया तो आनंद आया
बहुत! थकावट निकल गयी थी! मैं आया तो वे भी चले गए स्नान करने! आये तो अपने बाल बनाये, दाढ़ी भी बना ली, मैंने भी दाढ़ी बना ली अपनी! "भूख लगी है?" पूछा मैंने, "हाँ लगी तो है" बोले वो! "आओ फिर मैंने कहा, और हम चल पड़े बाहर, भोजन करने! वहां पहुंचे ही थे कि मेरा एक जानकार मिल गया! वो इलाहबाद से आया था! नाम था रूपेश! खुश हुआ! मैंने उसके गुरु के विषय में पूछा तो वे सही हैं बताया उसने! और उसके गुरु भी आये ही हुए थे वहाँ! फिर रूपेश ने भोजन करवाया हमें, दाल चावल,रोटियां और दही, अच्छा खाना था! हम लौट आये! आयोजन तीन दिन चलना था और ऐसा आयोजन वर्ष में एक बार ही हआ करता है। कई डेरे मिल कर ऐसा आयोजन करते हैं। अगले दिन, मैं और शर्मा जी बाबा पूरब के यहाँ बैठे थे! कि एक स्त्री अंदर आई! सफेद रंग का करता और सफेद रंग की ही चुस्त-पाजामी पहने! चुन्नी या दुपट्टा नहीं लिया था उसने, बटन लगे थे ऊपर गले तक, लेकिन थी बहुत सुंदर! केश लम्बे थे उसके, उनको उसने एक पीले रंग के रबर के छल्ले से बाँधा हुआ था! बाबा ने उसका नाम, युक्ता लिया! मैं कनखियों से उसका बदन देख रहा था! झूठ नहीं बोलूंगा! उसका उन्नत वक्ष बेहद ही आकर्षक था! कमर पतली और वो कुरता नहीं संभाल पा रहा था उसकी देह को! पुष्ट देह थी उसकी! उसका कद कोई पांच फीट नौ या दस इंच रहा होगा! आयु में कोई सत्ताईस या अट्ठाइस बरस की होगी! उसकी बाबा से बात हुई, किसी श्रेष्ठ के बारे में! श्रेष्ठ कौन था, मुझे मालूम नहीं था! और जब वो लौट के चली तो मेरी नज़रें उसकी झूमती हई चाल पर चली गयी! मदमस्त चाल थी उसकी! कोई देखे, तो देखता ही रह जाए! ऐसी चाल थी! अब बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना! मुझे क्या ज़रूरत थी उसके बारे में पूछने की! वैसे मन में इच्छा ज़रूर थी! तो बाबा
पूरब से हमारी बातें हुईं। काफी बातें, कई नए लोगों से मिला मैं, ऊंचे ऊंचे दर्जे प्राप्त औघड़ थे वहाँ! तो वो दिन भी ऐसे ही गुजर गया! रात्रि को पूजन होता तो हम सभी जाते थे वहाँ! ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित होता और पूजन आरम्भ! ऐसे करते करते, तीसरा दिन भी आ गया! और तीसरे दिन, मुझे वो युक्ता दिखी! हाथ में कुछ किताबें सी थीं उसके पास! और वहाँ खड़े लोग, उसको ही देखे जा रहे थे! एक अनार और सौ बीमार! आ रही थी सामने से ही! मैं भी रुक गया था! और जैसे ही आई सामने मेरे, मैंने देखा उसे! उसने भी देखा!,जैसे ही गुजरी, तो मैंने कहा कुछ! "सुनो?" बोला मैं,
वो रुकी! पीछे देखा, मुझे देखा! ऊँगली के इशारे से पूछा उसने कि मैं? "हाँ" मैंने कहा, आई वापिस! "जी?" बोली वो! "आप कहाँ से हैं?" मैंने पूछा, "यहीं से, कोलकाता से" बोली वो, "किस डेरे से?" पूछा मैंने, मुझे अजीब सी निगाह से देखा उनसे! "बाबा धर्मेक्ष का नाम तो सुना ही होगा आपने?" बोली वो, मैं जानता था बाबा को! "हाँ, सुना है!" मैंने कहा, "उन्ही की पुत्री हूँ" बोली वो, "अच्छा! धन्यवाद!" मैंने कहा, "और आप?" उसने पूछा, "मैं दिल्ली से!" मैंने कहा, "बड़ी दूर से!" बोली वो! "हाँ, दूर तो है" मैंने कहा, "तो कल वापिस?" बोली वो! "हाँ" मैंने कहा, "अच्छा लगा आपसे मिलके" बोली वो, "मुझे भी!" मैंने कहा,
और वो मुस्कुरा के चल पड़ी वापिस! मेरी बेईमान निगाहें पीछा करने लगीं उसका शर्मा जी वहीं खड़े थे, मेरा आशय भांपते देर नहीं लगती उन्हें! "बाबा धर्मेक्ष!" बोले वो! "हाँ! वही!" मैंने कहा, "तभी ऐसे घम रही है ये!" बोले वो!
"हाँ! इसीलिए!" मैंने कहा, "बाबा धर्मेक्ष पहुंचे हए हैं!!" बोले वो! "हाँ! सच!" मैंने कहा! "लेकिन ये तो साध्वी नहीं लगती?" बोले वो! "तभी पूछा था मैंने उस से!" मैंने कहा! "अच्छा !" बोले वो! "आना ज़रा?" मैंने कहा, "चलो" बोले वो, कमरे को ताला लगा दिया हमने! और चल पड़े! हम पहंचे रूपेश के पास! मिला हमसे! "रुपेश? बाबा धर्मेक्ष आये हैं क्या?" पूछा मैंने, "नहीं, लेकिन उनका बेटा श्रेष्ठ आया है!" बोला वो!
अच्छा। अब समझा! "ये कोलकाता से हैं?" मैंने पूछा, "नहीं" बोला वो! "फिर??" मैंने चौंक के पूछा, "सियालदाह के पास से" बोला वो! "अच्छा!" मैंने कहा, "कोई बात हुई क्या?" उसने पूछा, "नहीं। कोई बात नहीं!" मैंने कहा। तीसरीरात भी आई, और महा-पूजन हुआ! आज निबट गया था महा-आयोजन! सैंकड़ो लोग आये थे, हर जगह छलफल थी! साध्वियां और औघड़, सभी अपने अपने में मस्त थे! हम भी मस्त थे! मदिरा के नशे में झूम रहे थे! आज अंतिम रात्रि थी तो सबकी लगाम छूट चुकी थीं! रूपेश, मैं, शर्मा जी, चार साध्वियां, हम सब मस्त थे! कभी कभी तो कोई गिर भी पड़ता था! हँसता था और फिर से खड़ा हो जाता था! शर्मा जी का पेट अब सही था, खूब खाया पिया उन्होंने भी! और हम उस रात कोई दो बजे थे घल्लड़ काटते रहे! साध्वियां तो अचेत ही हो चली थीं! और कुछ नए लोग आ बैठे थे वहां। तभी मेरी नज़र कोने में पड़ी एक जगह, किसी व्यक्ति को चालीस के आसपास लोगों ने घेर रखा था! अब होगा कोई, मैंने गौर नहीं किया! हम तो बस अपनी
मदिरा में ही डूबे रहे! कोई तीन बजे लड़खड़ाते हुए हम अपने कमरे में पहुंचे! हाल बहुत खराब था! नशे के मारे हर वस्तु दो दो दिखाई दे रही थी! हम तो बस अपने जूते खोल लेट गए बिस्तर पर! जुराब भी नहीं उतार सके! ऐसा भयंकर नशा था!
सुबह हुई, हम देर से जागे! नौ बज चुके थे, मेरा सर तो फटा जा रहा था दर्द के कारण! मुंह में अभी भी शराब की गंध थी, साँसों में भी तीखी गंध आ रही थी, मैं चला दातुन करने! और फिर स्नानादि से निवृत हो गया! फिर शर्मा जी भी निवृत हो आये! बैठ गए, सर पकड़ कर! "क्या हुआ?" मैंने पूछा, "घुमेर आ रही हैं!" वे बोले, मैं हंस पड़ा! "मेरा भी यही हाल है!" मैंने कहा, "आओ, देखते हैं दही मिल जाए तो बोले वो, "चलो" मैंने कहा, पहुँच गए वहाँ! दो तीन महिलायें थीं वहाँ, एक को बुलाया, उस से दही के बारे में पूछा, तो पता चला दही नहीं है। हाँ, छाछ मिल जायेगी! फिर क्या था, नमक और मिर्च मिलाकर, दो दो गिलास खींच मारे! और जब दिमाग ठंडा किया छाछ ने, तो आँखों की सुईयां अपनी जगह आयीं! नहीं तो काँप रही थीं आँखों की वो सुईयां! हम लौट आये अपने कमरे में! और लेट गए! डकार आती तो साथ में शराब की भी आती, जी मिचला जाता लगता, अभी बाहर
और अभी बाहर! "ज़्यादा हो गयी रात को!" बोले वो, "हाँ!" मैंने कहा, "आप ज़िद करते हो न!" बोले वो! "मैंने सोचा, कहाँ आता यही ऐसा मौका फिर! लगा दो टॉप-गियर!" मैंने कहा, "हाँ और अब हुईं गरारियां फेल!" बोले वो! मैं हंस पड़ा तभी! "अब अगर बोतल देख लूँन अगर, तो आँतों का पानी भी निचुड़जाए!" बोले वो! "उलटी कर?" मैंने पूछा! "हाँ! ऐसी धार छूटेगी कि मैं पीछे गिरूंगा!" बोले वो! मेरी हंसी छूटी! तभी उन्हें इकार आई! और एक भद्दी सी गाली दी उस इकार को उन्होंने "इकार पे गुस्सा निकाल रहे हो?" मैंने पूछा, "हाँ, साली अभी तक चढ़ी हुई है!" बोले वो! "अब पी है तो चढ़ेगी नहीं क्या?" मैंने पूछा! "हाँ जी! अब जब फटने को है तो मैं क्या करूँ!" वे बोले! मेरी हंसी छूटी फिर से!
"साला खोपड़ी में ऐसा दर्द है जैसे फुटबॉल खेली जा रही हो सर के अंदर!" सर पकड़ के बोले
वो!
मैं हंसा फिर से! "पेट तो सही है?" मैंने पूछा, "हाँ, बस पेट ही सही है, नहीं तो सब ढीला है!" बोले वो। हंस हंस के मेरा पेट दुखने लगा था!
तभी सहायक आया! चाय लाया था! हम उठ बैठे! "आजा यार आजा! बहुत सख्त ज़रूरत है इसकी!" बोले वो!
सहायक ने चाय दे दे, दो कप और साथ में कचौड़ियां थीं, आलू की! उसने रख दी, और चला
गया!
अब शर्मा जी ने घुट भरा! "साली चाय भी दारु की तरह लग रही है। बास मार रही है चाय में से दारु की!" बोले वो! मुझे फिर से हंसी आई! चाय रखनी पद गयी एक तरफ! "अब आराम से पी लो चाय!" मैंने हँसते हए कहा, "आराम से ही पी रहा हूँ जी!!" बोले वो!
अब मैंने भी पीनी आरम्भ की चाय! "चलो कुछ राहत तो देगी!" मैंने कचौड़ी खाते हुए कहा, "हाँ, कुछ तो नशा खत्म होगा!" बोले वो! हमने चाय खत्म की और फिर से लेट गए। सर पकड़ कर दोनों ही! "डिस्प्रिन है क्या?" मैंने पूछा, "क्या हुआ?" बोले वो! "सर फट रहा है!" मैंने कहा, "और मैं क्या फ़ारसी बोल रहा था! सर के साथ साथ बहुत कुछ फट रहा है! एक चीज़ हो तो बताऊँ!" बोले वो! हंसी छूटी मेरी फिर से!!
वो गए अपने बैग तक, लड़खड़ा गए। "तेरी माँ की!!" बोले वो! "क्या हुआ?" मैंने पूछा, "नशा!" बोले वो! "आप गोली निकालो यार!" मैंने कहा,
"निकला तो रहा हूँ!" बोले वो!
और कुछ देर टटोला-टटोली के बाद, निकाल ली चार गोलियां, पत्ते से फाड़ ली थीं! आये मेरे पास, गिलास और जग ले कर! दे दी मुझे दो गोलियां! "पानी देना?" मैंने कहा, पानी दे दिया, मैंने आधा गिलास पानी में, दो गोलियां डाल दी! और पी गया फिर! फिर शर्मा जी ने भी ऐसा ही किया! पानी रखा, और लेट गए! अब दर्द के मारे नींद न आवे! "बहन**! पानी से भी दारु की बास मार रही थी!" बोले वो! "अरे साँसों में है ये बास!" मैंने कहा, "ये बंगाली शराब ही खराब है!" बोले वो! "शराब तो बढ़िया थी!" मैंने कहा, "तभी तो कितने बढ़िया हैं हम आज!" बोले वो! एक कराह सी निकालते हुए! मेरी हंसी छूट पड़ी! कोई आधे घंटे में दर्द बंद हआ! असर कर दिया था गोली ने! मैं उठा और जा बैठा कुर्सी पर! अब ज़रा होश आया था! बदन ठंडा ठंडा लगने लगा था! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "हाँ जी?" बोले वो! "अब दर्द बंद है?" पूछा मैंने, "हाँ, आराम है अब" बोले वो! "तो हो जाओ खड़े?" मैंने पूछा, "क्यों?" बोले वो! "भोजन कर लें?" मैंने कहा, "कर लेंगे!" बोले वो! "मैं कह कर आता हूँ" मैंने कहा, "ठीक है" वे बोले,
और मैं निकल आया बाहर! पहुंचा उस भोजनालय में सहायक को कह दिया भोजन के लिए! और लौटा! जैसे ही अपने कमरे के पास आया! मेरी नज़र युक्ता पर पड़ी! साड़ी पहने तो वो बवाल मचाने वाली थी उस डेरे में! मेरे पास से गुजरी! मुझे देखा!
"नमस्ते!" मैंने कहा, "नमस्ते!" बोली वो! "कैसी हो?" पूछा, "बढ़िया, आप?" उसने पूछा, "ठीक सब!" मैंने कहा, "रात नज़र नहीं आये?" पूछा उसने! "हम तो वहीं थे?" मैंने कहा, "भीड़ भी तो बहत थी" बोली वो! "हाँ! भीड़ तो बहत थी!" मैंने कहा, तभी एक लड़की आई, उस से मिली, और फिर वे दोनों, चली गयीं आगे! मैं सीधा अपने कमरे में चला आया! सहायक भोजन दे गया था, और हमने भोजन कर भी लिया था और फिर उसके बाद हम आराम कर रहे थे! अब वहां से चलने की तैयारी ही थी! कल या परसों में निकलना था वहाँ से! तभी कोई दो बजे के आसपास मेरे पास बाबा पूरब का बुलावा आया, मैं चल पड़ा उनके पास! वहां तीन और लोग बैठे थे, उन सभी से प्रणाम हई, तो बाबा पूरब ने मेरा परिचय दिया उनको! और उनका परिचय मुझे दिया! वे सभी प्रबल औघड़ थे। एक से एक! बाबा ने
अब मुझसे मुख्य विषय पर बात करनी शुरू की! "आपके पास समय है?" पूछा उन्होंने, "हाँ, कहिये?" बोले वो, "एक महा-घाड़ क्रिया है, आप सम्मिलित होंगे?" पूछा उन्होंने! महा-घाड़ क्रिया! कौन नहीं सम्मिलित होगा उसमे! "हाँ, अवश्य ही मैंने कहा, "ठीक है फिर" बोले वो, "कब है क्रिया?" मैंने पूछा, "चार दिन बाद" बोले वो, "यही?" पूछा मैंने, "आद्य-श्मशान में" बोले वो, "वो कहाँ है?" पूछा मैंने, "है इधर ही" बोले वो,
"ठीक है!" मैंने कहा, "इसमें कुल नौ लोग है सम्मिलित, आपका परिचय करवा दूंगा, कल या परसों में उनसे!" वे बोले, "जी' मैंने कहा।
और मैं उठ लिया वहां से, आया शर्मा जी के पास! "किसलिए बुलाया था?" पूछा उन्होंने, "एक क्रिया है" मैंने कहा, "कौन सी क्रिया?" पूछा उन्होंने, "महा-घाड़ क्रिया!" मैंने कहा, वे चौंके! उठ गए! "महा-घाइ?" वे बोले, "हाँ!" मैंने कहा, "वही दो शवों वाली?" बोले वो! "हाँ!" मैंने कहा, "अच्छा !" वे बोले! महा-घाड़ क्रिया! दो शवों के साथ की जाती है! इस से सिद्धि-मार्ग प्रशस्त हो जाता है! और सर्व-बाधा शमन हो जाता है। इसीलिए औघड़ इसको किया करते हैं। जो खर्चा आता है, वो आपस में बंट जाता है! इसीलिए बुलाया था उन्होंने मुझे! "और कब है ये क्रिया?" बोले वो, "चार दिन बाद" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो! "हाँ, बढ़िया है न!" मैंने कहा, "और है कहाँ?" उन्होंने पूछा, "यहीं है कहीं!" बोला मैं! "आसपास ही होगा?" बोले वो! "हाँ, शायद" मैंने कहा, "ठीक है" बोले वो! उस रात शर्मा जी ने दारु नहीं ली! मैं ही मढ़ा रहा बस! शर्मा जी को हीक चढ़ी हुई थी उसकी! अगली सुबह हुई, फिर दोपहर! मेरे पास फिर से बुलावा आया!
मैं गया! बाबा पूरब के पास! बैठा, नमस्कार हुई सबसे! "कैसे हो?" पूछा बाबा ने। "बढ़िया!" मैंने कहा,
और फ्री एक एक करके उन्होंने सभी से परिचय करवाया मेरा! और एक व्यसक्ति से परिचय समय, मेरी नज़रें अटक गयीं आपस में! वो था श्रेष्ठ! कोई चालीस या बयालीस वर्ष का होगा वो! अच्छी खासी देह थी उसकी! माथे पर भस्म लपेटता था वो हमेशा! मेरा परिचय हुआ, तो उसने मुंह फेरा ज़रा!! मुझे कुछ खटका उसका नज़रिया! "आप दिल्ली वाले हैं न?" पूछा उसने, "हाँ, वही हूँ, आपको कैसे पता?" बोला मैं! "युक्ता ने बताया!" बोला वो! "अच्छा। आपकी बहन!" मैंने कहा, "हाँ! बहन!" बोला वौ! "हाँ, मिला था मैं उनसे!" मैंने कहा, मुंह फेर लिया उसने! मैं समझ गया था कि उसको आपत्ति थी मेरे उसकी बहन से मिलने से! "तो आप सभी, तीन दिन बाद, यहीं मिलें सब!" बोले बाबा पूरब! मैं लौट आया वापिस, सीधा कमरे में अपने "हुआ परिचय?" पूछा शर्मा जी ने "हाँ!" मैंने कहा, "कैसे हैं सब?" पूछा, "एक के अलावा सब बढ़िया!" बोला मैं! "किस एक के अलावा?" पूछा, "वो श्रेष्ठ!" मैंने कहा! "कौन श्रेष्ठ?" बोले वो! "वो, युक्ता का भाई!" मैंने कहा, "अच्छा !!" वे सब समझ गए! "हाँ!" मैंने कहा, "तो क्या हुआ? क्रिया करो और उठो?" बोले वो!
"हाँ, लेकिन कुछ गड़बड़ हआ, तो सब गड़बड़ हो जाएगा!"मैंने कहा, "मतलब?" पूछा उन्होंने! "एक गड़बड़! और सब राख!" मैंने कहा, "वो साला क्यों करेगा ऐसा?" बोले वो! "नाम नहीं सुना उसका आपने? श्रेष्ठ!" मैंने कहा, "हाँ, समझ गया!" वे बोले, "तो साला तुनक क्यों रहा है, बात करता?" बोले वो! "करेगा बात वो!" मैंने कहा, "कैसे?" पूछा उन्होंने! "आप देखते जाओ!" मैंने कहा! "कैसे?" बोले वो! "युक्ता!" मैंने कहा, "समझ गया!" बोले वो! हंस पड़े थे वो!
अगले दिन, मेरी आँखें ढूंढ रही थीं उस युक्ता को! और मिल गयी मुझे वो! एक लड़की के साथ बैठी थी एक जगह ! मैं वहीं के लिए चल पड़ा! वहां पहुंचा। उसने देखा, मैंने भी देखा! "नमस्कार युक्ता!" मैंने कहा, "नमस्ते!" बोली वो! "अभी यहीं हो?" पूछा मैंने, "हाँ, यहीं हूँ!" बोली वो! "गयी नहीं?" मैंने पूछा, दरअसल मैं पींगें बढ़ा रहा था उस से! "अभी नहीं" बोली वो! "वापिस सियालदाह?" मैंने पूछा, "नहीं, कोलकाता!" बोली वो! "अच्छा!" मैंने कहा! "आप नहीं गए?" पूछा उसने! "नहीं, आपके भाई के संग के क्रिया है!" मैंने कहा.
वो थोड़ा सा सकपकाई! "अच्छा!" वो बोली, तब वो लड़की जो, साथ बैठी थी उसके,खड़ी हो गयी! अब वहां मैं और युक्ता ही थे, वो लड़की जा चुकी थी वहाँ से, कहाँ गयी थी पता नहीं, हाँ, इक्का-दुक्का औरतें थीं वहां, वे भी वहीं बैठी थीं, कोई अपने काम में लगी थी तो कोई किसी के संग बात कर रही थी, मैं जानबूझकर आया था यहां, युक्ता से बात करने! कुछ उद्देश्य निहित था इसमें! युक्ता मुझसे बात करने में थोड़ा संकुचायी सी लग रही थी, जैसे उसको मना किया गया हो यहां किसी से भी बात करने में! उसके पास कुछ किताबें थीं, वो किताबें समाजशास्त्र के विषय पर लगती थीं, शायद अध्ययन कर रही थी उनका वो! "आप पढ़ाई कर रही हो?" मैंने पूछा, "हाँ बोली वो, "अच्छी बात है" मैंने कहा, "आप, बैठ जाइए?" बोली वो, "कोई बात नहीं, टहल रहा था कि आप नज़र आये" मैंने कहा, "अच्छा" बोली वो!
और तभी वो लड़की उस श्रेष्ठ के संग आ गयी वहाँ! श्रेष्ठ गुस्से में लगता था, नथुने फड़क रहे थे उसके! मुझे अच्छा लगा उसका यूँ बिदकना! "युक्ता?" बोला वो, चीख कर! युक्ता ने देखा उसको डरते हुए। "खड़ी हो?" बोला वो!
खड़ी हो गयी वो, और चल दी वहाँ से! जानती थी कि श्रेष्ठ के आगे के वाक्य क्या होंगे! "तुम क्या कर रहे हो यहां?" पूछा उसने, "कुछ नहीं, मैं गुजर रहा था यहाँ से, युक्ता दिख गयी, तो बात करने चला आया!" मैंने कहा, "क्या बात? क्या विषय?" पूछा उसने! "समाजशास्त्र!" मैंने कहा, कड़वी से नज़र से देखा उसने मुझे! "अब नहीं बात करना इस से!" बोला वो! "क्यों? मैंने कुछ गलत कहा क्या?" मैंने पूछा, "बस नहीं करनी बात!" बोला वो, "मुझे बताओ पहले, क्या युक्ता ने ऐसा कुछ कहा?" पूछा मैंने,
"मैंने कहा न? बस?" बोला वो! "सुनो! ऐसे ही मुझ पर तोहमत न लगाओ, मुझे बताओ पहले" मैंने कहा, "मना कर दिया न? समझा नहीं क्या?" बोला वो! "नहीं समझा मैं!" मैंने कहा, "चल, जा यहाँ से, अब देख न लूँ तुझे!"अब बोला वो! अब मान-सम्मान भी भूल गया
था वो! "पहले ये बता, युक्ता ने कुछ कहा क्या?" मैंने भी उसी तर्ज़ में बात की उस से! "बकवास न कर, समझा?" बोला वो! "बकवास तू न कर, समझा? जितना है, जितने में है, उतना रह, उतने में रह!" मैंने कहा, "क्या समझ रहा है तू अपने आपको?" बोला वो, "और तू? तू क्या समझ रहा है?" मैंने कहा, "अगर अबकी बार देख लिया बात करते हुए तो अंजाम तू ही जाने!" बोला वो! "देख लूँगा! देख लूँगा तू क्या अंजाम दिखायेगा मुझे, अब निकल यहां से!" मैंने कहा, मुझे देखा हेय-दृष्टि से उसने, पलटा और अपना गमछा गले में लपेटता चला गया वहां से! अब युक्ता का सकपकाना समझ आ गया था मुझे! उसने बताया होगा मेरे बारे में कि मैंने उस से बातें की थीं और ये श्रेष्ठ पसंद नहीं करता था कि कोई उसकी बहन से बातें करे! छोटी मानसिकता वाला था ये श्रेष्ठ, या घमंड था उसे बाबा धर्मेक्ष का! यही दो कारण थे! छोटी सी बात का बतंगड़ बना दिया था उसने! खैर, मैं लौटा वापिस, अपने कमरे में आ गया। और शर्मा जी को अभी था जो हुआ था, हवाला दे दिया! उनको भी गुस्सा आ गया! "अबे इतनी ही परेशानी है तो लाया ही क्यों संग उसे?" बोले वो! "पता नहीं!" मैंने कहा! "चलो मरने दो, क्रिया करो और निकलो यहां से!" वे बोले, "हाँ, यही ठीक है मैंने कहा,
और मैं लेट गया फिर! आँखें बंद कर ली! और आ गयी झपकी! इस तरह से वो दिन आ गया, जब हमें वहाँ उस आदय-श्मशान जाना था, हम कुल नौ लोग थे। सबसे पहले हम बाबा पूरब के पास पहुंचे थे, सभी तैयार थे वहां, और तभी श्रेष्ठ ने मुझे देखा, कुटिल दृष्टि से! मैंने भी देखा, न हटाईं नज़रें उस से! हम दोनों बरबस ही एक दूसरे को देख लिया करते थे! नज़रों में उसकी घमंड था और मैं उसको भी, इसी दृष्टि से देखा करता था! सारी तैयारियां हो चुकी थीं, बस हमें उस श्मशान में जाना था, जहां वो दोनों घाड़ मंगवाए गए थे! वहाँ उनका पूजन करना था और फिर क्रिया में बैठ जाना था! ये क्रिया,
रात्रि ग्यारह से कोई तीन बजे तक चलनी थी! हम सभी को आदेश हआ, कि ठीक दस बजे हम पहँच जाएँ यहां, और फिर यहां से निकलना था उस आद्य-श्मशान के लिए! मैं अपने कक्ष में लौट आया था। सामना आदि जांचा मैंने, जो ज़रूरी था, वो ले लिया था, शर्मा जी यहीं रुकने वाले थे, मैंने समझा दिया था उन्हें कि वो आराम से रहें, खाएं-पियें, मैं सुबह तक आ जाऊँगा वापिस! और इस तरह हम लोग दस बजे ठीक आ गए बाबा पूरब के यहां! वहाँ एक बार फिर से मंत्रणा हुई! कुछ नियम आदि फिर से दोहराये गए, जो अभी भी लौटना चाहता था, लौट सकता था! कोई नहीं लौटा! और इस प्रकार, हम बाबा पूरब के साथ निकल पड़े! वो श्रेष्ठ, बाबा पूरब के संग ही चल रहा था, मैं एक और साधक अजंग के संग था और उसी से बातें करते हुए चल रहा था! हम करीब आधा घंटा चले! और फिर आ गए एक श्मशान में ये श्मशान बड़ा नहीं था, लेकिन छोटा हो, ऐसा भी नहीं था। उस श्मशान में दो कक्ष बने थे! एक दो चिताएं जल रही थीं वहाँ, उन्ही का प्रकाश था वहाँ बस। अब बाबा पूरब हमें ले गए एक कक्ष में, कक्ष लकड़ी से बना था सारा, जैसे कोई बड़ा सा लकड़ी का कारखाना! वहीं नीचे दो
शव रखे थे, लालटेन जली थीं वहाँ, लालटेन भी मुझे पुराने ज़माने की ही लगी! चार लालटेन थीं वहाँ, और चार ही सहायक! सहायकों ने उन शवों को स्नान करवा दिया था! अब बाबा पूरब ने, उन शवों की जांच की, हाथ-पाँव जाँचे गए, पूरा शरीर जांचा गया, कोई दोष न हो, इसलिए! इसमें कोई बीस मिनट लगे! अब धमल-क्रिया शुरू हुई। उनको जागृत करने की! लेकिन धमल-क्रिया में, कोई त्रुटि थी! एक घंटे के बाद भी वे जागृत न हुए थे! बाबा पूरब को चिंता हुई! लेकन समझ न सके वे! बार बार मंत्र पढ़ते, और बार बार मंत्र विफल! अब खड़ा हुआ श्रेष्ठ! अब उसने कमान संभाली! आरम्भ की धमल-क्रिया! और फिर से कुछ न हुआ! "किसी ने सौंगड़ लड़ाया है!" बोला वो! सौंगड़ा सभी खड़े हो गए! अपना अपना सामान नीचे रख दिया। मैंने भी! "किसने लड़ाया है?" पूछा उसने। कोई कुछ न बोले! अब किसी ने लड़ाया हो तो कोई बोले!
और तब एक वृद्ध से साधक आगे आये! और एक मंत्र पढ़ा! फिर बाबा पूरब के पास गए वो! धेमज बाबा नाम है उनका! उड़ीसा के साधक हैं!
"क्या मैं प्रयास करूं?" बोले वो! "हाँ, अवश्य!" बोले बाबा पूरब! अब बाबा धेमज बैठे नीचे और किया मंत्रोच्चार! हम सब खड़े थे कि अचानक ही, हूँ! हूँ! की आवाज़ आने लगी उन शवों से! बाबा धेमज सफल हुए थे। किसी ने सौंगड़ नहीं लड़ाया था! जो त्रुटि थी, बाबा धेमज ने सुधार दी थी! "चलो" बोले बाबा पूरब!
और हम अब चल पड़े बाहर! बाहर, जहां उनके लिए चिताएं सजी थीं! लेकिन जैसे ही उनको उठाया! वे दोनों शव, फटने लगे। उनमे छेद होने लगे! खोपड़ी फूट गयी उनकी! छाती फट गयी! पेट फट गया, आंतें बाहर आ गयीं सारी की सारी! जोड़ टूट गए उनके और वे शव, अब लोथड़े बन गए! क्रिया! असफल!! अब वहां ठहरने का कोई औचित्य नहीं था। अतः,मैं और अजंग, वहाँ से बाबा पूरब की आज्ञा लेकर, चल दिए वापिस, अब उन दोनों शवों का दाह-संस्कार करना था! वे बाबा पूरब ही करते! अपशकुन तो धमल-क्रिया में ही हो गया था! अब किसी ने सौंगड़ लड़ाया हो या न लड़ाया हो! क्रिया असफल हो गयी थी! हम वापिस आ रहे थे दोनों! अजंग काशी के हैं। "ऐसा क्या हुआ?" मैंने पुछा, "पता नहीं, शायद सौंगड़ की वजह से" बोले वो, "लेकिन सौंगड़ लड़ायेगा कौन?" मैंने पूछा, "कह नहीं सकता" बोले वो! "अब पता नहीं कब मौक़ा आये" मैंने कहा, "मैं तो कल निकल जाऊँगा" वो बोले, "मैं भी" मैंने कहा, "चलो यही ठीक है" बोले वो, "हाँ, और क्या" बोला मैं,
और तभी पीछे से हमें किसी ने आवाज़ दी, हमने पीछे देखा, एक सहायक था वो! आया हमारे पास! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "वो बला रहे हैं आपको हॉफते हॉफते बोला वो, "कौन?" पूछा मैंने,
"बाबा पूरब" बोला वो, "किसलिए?" मैंने पूछा, "पता नहीं" बोला वो, घड़ी देखी मैंने, एक बजने को था तब! "चलें वापिस?" मैंने अजंग से पूछा, "चलो फिर" बोले वो, "चलो" मैंने कहा,
और हम दोनों, फिर से चल दिए वापिस! बाबा पूरब के पास! पता नहीं किया बात थी! क्या हआ था वहाँ!
और हम, जा पहुंचे वहाँ! हम दोनों वहाँ पहुंचे उस सहायक के साथ, वहां तो सभी हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे जैसे! हमें देख बाबा पूरब खड़े हो गए, मैंने देखा, वो दोनों शव जो अब लोथड़े हो चुके थे, उठा लिए गए थे, और शायद अब उनका दाह-संस्कार चल रहा था बाहर! अब श्रेष्ठ भी उठ गया था बाबा पूरब के साथ! बाबा पूरब आये मेरे पास, "आओ इधर,बैठो बोले मुझसे, मैं बैठ गया नीचे, उस दरी पर, "आप चले क्यों गए?" पूछा उन्होंने, "ऐसे ही, आपसे पूछ कर ही तो गया था?" बोला मैं, "ये श्रेष्ठ कुछ कहना चाहते हैं" बोले वो, "जानता हूँ क्या कहना चाहते हैं!" मैंने कहा, "क्या?" बोले वो, "यही कि सौंगड़ मैंने लड़ाया! यही न!" मैंने पूछा, "हाँ, क्या ऐसा ही है?" बोले वो, "नहीं" मैंने कहा, "फिर ये क्यों कह रहे हैं?" बोले वो, "वो तो ये ही जाने!" मैंने कहा, तभी बाबा धेमज उठे। और आये मेरे पास! "सच कहिये आप, क्या ऐसा ही है?" बोले वो, "अरे बाबा! आप भी! ऐसा कुछ नहीं है!" मैंने कहा, बाबा धेमज मेरी सच्चाई भांप गए थे, इसीलिए बाबा पूरब से कह दिया कि मैंने नहीं लड़ाया
सौंगड़! "सौंगड़ लड़ा तो है!" बोला श्रेष्ठ! "अपने बारे में क्या विचार है?" मैंने पूछा, खड़े होते हुए! मैंने ऐसा कहा, तो सभी चौंक पड़े। "क्या कह रहे हैं आप ये?" बोले बाबा पूरब! "क्यों? ये नहीं लड़ा सकता?" मैंने पूछा, "नहीं, हरगिज़ नहीं!" बोले वो! "लड़ा सकता है! और लड़वा भी सकता है!" मैंने कहा, "क्या?" बोला श्रेष्ठ! "सुना नहीं, तूने नहीं लड़ाया होगा तो तेरे तो यहां गुट्टे भी बहुत हैं!" माने कहा! भुनभुना गया मेरे जवाब से वो! "जुबान संभाल कर बात कर, सुना?" बोला वो! "धमकी समझू इसे?" बोला मैं! "जो मर्जी समझ!" बोला वो! मेरे पास आ गया था वो, ये कहते कहते! मैंने तभी, खींच के एक मारा झापड़ साले के सीधे कान पर! सम्भल नहीं सका! गिर गया! उठा! गाली-गलौज करता हुआ और लिपट गया मुझसे, मेरे और उसके बीच गुत्थमगुत्था हो गयी! सभी छुड़ाने के प्रयास करें! मैंने साले की नाक पर ऐसे चूंसे बरसाए कि नाक तो घायल हुई ही, खून और बह चला! कद में नीचे है मुझे, मुझे इसका लाभ मिला था। अगर मेरे हाथ में खंजर या त्रिशूल होता तो उस हरामज़ादे की आतें निकाल कर, उसके गले में माला की तरह डाल देता! हमें अलग कर दिया गया था! वो बार बार गालियां दे रहा था, और मैं भी! वो भी छूटने का प्रयास करता और मैं भी! आखिर में बाबा पूरब ने डांटा दोनों को!
और करा दिया चुप! दे दी हिदायतें! मुझे बाबाधेमज के साथ वापिस भेजा गया, अंगज भी मेरे साथ था, हम कुल चार आदमी वापिस चल दिए थे वहां से, उस गुत्थमगत्था में, मेरी गर्दन पर कुछ चोट आई थी, अब हाथ लगा के देखा तो खून निकला हुआ था, शायद नाखून लग गए थे उसके। "किसी ने तो लड़ाया ही था वो सौंगड़" बोले बाबा धेमज! "हाँ, यही लग लढ़ा है" अंगज बोला, "अरे ये साला वही है, वही!" मैंने कहा! "लेकिन वो क्यों करेगा ऐसा?" पूछा अंगज ने!
"उसका इसमें कुछ लगा है क्या?" पूछा मैंने, "लगा होगा" बोला अंगज, "नहीं, नहीं लगा" बोले बाबा धेमज! "फिर?" अंगज ने पूछा, "ये आद्य-श्मशान उसी के जानकार का है" बोले बाबा धेमज! "अब तो पक्का वही है ये!" मैंने कहा, "हो सकता है" बोले बाबा धेमज! "लेकिन आपसे क्यों भिड़ गया वो?" पूछा नगज ने!
और तब मैंने सारी बात बता दी उन सभी को! सभी ने गौर से सुनी मेरी बात! "तो इसमें क्या गलत कर दिया?" बोला अंगज! "बाबा धर्मेक्ष की बेइज्जती कर दी मैंने!" बोला मैं, "अरे छोड़िये!" बोला अंगज! "उसको तो यही लगा!" मैंने कहा, "गलत बात है ये" बोले बाबा धेमज! "उसे ऐसा नहीं लगता न?" मैंने कहा, "मैं समझाऊंगा उसे!" बोले वो, "नहीं समझने वाला वो!" मैंने कहा, "समझा दूंगा आप देखते रहें" बोले वो, "ठीक है" मैंने कहा, हाँ, समझ जाए तो इस से भला क्या! तो हम आ गए थे वापिस, बाबा पूरब के डेरे पर! मैंने उन सभी को प्रणाम किया और चला आया कमरे में अपने! सामान रखा, और बैठ गया! जाग गए शर्मा जी! "पूर्ण हुई क्रिया?" बोले वो, "अरे कहाँ?" मैंने कहा, "क्या हुआ?" पूछा,
अब सारा हाल बयान किया मैंने! उन्होंने चोट देखी मेरी, ज्यादा नहीं थी, लेकिन फिर भी एक बैंड-ऐड चिपका दी वहाँ! "साले की इतनी हिम्मत?" बोले वो! "साला, कुत्ता वो पूरब बाबा के ऊपर अकड़ता है!" मैंने कहा,
"तो पूरब बाबा को नहीं सुनाई आपने?" बोले वो, "अब क्या कहता?" मैंने कहा, "सुनाते तो सही?" बोले वो, "क्या सुनाता!" मैंने कहा, "कि ऐसा करते हो यहां बुला के? ऐसा अपमान?" बोले वो, "अब कल ही होंगी ऐसी बातें!" मैंने कहा, "मुझे ले चलना" बोले वो, "ठीक है!" मैंने कहा, मैं फिर स्नान करने चला गया! और फिर सो गया आराम से! सुबह उठे। नहाये-धोये! और फिर चाय पीने चले! तभी युक्ता नज़र आ गयी!
आ रही थी सामने से। आई,और गुजर गयी! एक नज़र भी न देखा! "बता दिया होगा इसको उस कुत्ते ने!" बोले वो! "हाँ, तभी नहीं बात की इसने!" मैंने कहा, "जाने दो!" बोले वो! "हाँ, भाड़ में जाए ये दोनों!" मैंने कहा! मुझे कुछ लेना-देना तो था नहीं उस से, बात करे या नहीं, कोई लाभ नहीं! हमने चाय पी फिर!
और जैसे ही लौटे, युक्ता फिर से दिखाई दी! आ रही थी! मैं रुक गया! शर्मा जी, आगे बढ़ गए! "नमस्ते!" मैंने कहा, रुक गयी वो! लेकिन नमस्ते का जवाब नहीं दिया उसने! गुस्से में लगती थी! "रात क्या बात हुई?" पूछा उसने! "भाई ने नहीं बताया?" मैंने पूछा, "बताया" बोली वो, "तो समझी कुछ?" मैंने कहा, "आपने हाथ उठाया उन पर?" बोली वो! "हाँ, उठाया!" मैंने कहा,
"अंजाम जानते हो इसका?" बोली वो! "अंजाम?" मैंने पूछा, "हाँ, अंजाम!" बोली वो! "कैसा अंजाम?" पूछा मैंने! "अब सामने न पड़ना भाई के" बोली वो, "युक्ता! मुझे जानती हो? शायद नहीं! जानती हो?" पूछा मैंने, "नहीं जानना मुझे" बोली वो! "बाबा पूरब से ज़रा पूछना! फिर अंजाम जैसे शब्द क्या होते हैं, जान जाओगी!" बोला मैं! "श्रेष्ठ भाई के बारे में पूछना उनसे, जान जाओगे!" बोली वो!
और चल दी! घमंड सर चढ़ के बोल रहा था दोनों भाई बहन के! मैं आगे बढ़ गया फिर! अपने कमरे के लिए! 'कमरे में आया मैं तो शर्मा जी बैठे हुए थे और फ़ोन पर बात कर रहे थे किसी से, बातें उनकी काफी लम्बी हुईं, और जब फ़ोन काटा तो मुझसे मुखातिब हुए! "क्या कह रही थी वो?" पूछा मुझे, "अंजाम! अंजाम की बात कर रही थी!" मैंने कहा! "कैसा अंजाम?" बोले वो, "उस श्रेष्ठ से भिड़ने का अंजाम!" बोला मैं! "अच्छा! अंजाम!" बोले वो! "हाँ!" मैंने कहा, "बाबा पूरब से नहीं पूछा आपके बारे में?" बोले वो, "यही कहा था मैंने!" मैंने कहा, "तो क्या बोली?" वे बोले, "बोली बाबा पूरब से पूछ लो श्रेष्ठ के बारे में!" मैंने कहा, "अच्छा! कोई बात नहीं! चलो, पूछते हैं!" बोले वो! सलाह तो अच्छी थी!! "चलो! चलते हैं बाबा के पास!" मैंने कहा,
और हम कमरे को ताला लगा, चल दिए बाबा पूरब के पास! अभी वहां जा ही रहे थे कि मेरी निगाह एक जगह पड़ी! वहाँ मेरी एक जानकार महिला चंदा खड़ी थी! मैं वहीं के लिए चल पड़ा! चंदा ने मुझे देखा तो नमस्कार की!
"कैसी हो चंदा?" पूछा मैंने! "कुशल से हूँ! आप, और शर्मा जी आप?" पूछा उसने "सब बढ़िया!" मैंने और शर्मा जी ने कहा! "यहां कैसे?" पूछा मैंने! "आज ही आई हूँ, कुछ काम था बाबा मैहर को यहां बाबा पूरब से!" बोली वो! "बाबा मैहर भी आये हैं क्या?" पूछा मैंने, "हाँ, आये हैं!" बोली वो! "कैसे हैं वो?" मैंने पूछा, "बढ़िया है!" बोली चंदा! फिर थोड़ी देर चुप्पी! "वो, वो कहाँ है? आई है क्या?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुराई! "याद है अभी वो?" बोली वो! "हाँ, क्यों नहीं!" बोला मैं! "हाँ, वो भी आई है!" बोली वो, छेड़छाड़ के लहजे से! "कहाँ है?" पूछा मैंने, "उधर, उधर गयी है, कक्ष में!" बोली वो! अब मैं तो भाग लिया वहाँ! श्रुति आई हुई थी! आज से दो बरस पहले मिला था उस से, उसके बाद नहीं मिल पाया था मैं कभी! कभी जाना ही नहीं हुआ उसके पास, नंबर बदल गया था उसका! मैं आया कमरे में! कमरा बंद था अंदर से, मैंने दरवाजा खटखटाया!
एक बार! दो बार!
और तब दरवाज़ा खुला! सामने खड़ी थी श्रुति! मैं तो देखता ही रह गया उसे! कितनी खूबसूरत लग रही थी वो! कहीं
और मिलती तो शायद पहचान ही नहीं पाता उसको! उसके निचले होंठ के नीचे के काले तिल ने पहचान बता दी थी उसकी! उसके गुलाबी होंठ, जो मुझे बहुत पसंद थे, अभी भी वैसे
ही थे!
"श्रुति!" मैंने कहा! वो देखते ही रही! जैसे पहचाना नहीं मुझे!
फिर मुस्कुराई! "आओ, अंदर आओ!" बोली वो!
और मैं अंदर धड़धड़ाते हए घुस गया। दरवाज़ा बंद कर दिया था उसने! "कैसी हो श्रुति?" मैंने पूछा! "आप वही हो न?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा! "हाँ, वही, वो नदी किनारे का वो झोंपड़ा! बरसात का पानी चू रहा था! सर्दी का समय! हाँ! वही हूँ मैं!" मैंने कहा! हंस पड़ी!
खिलखिलाकर! एक जानी-पहचानी सी हंसी! "यहां कैसे?" मैंने पूछा, "चंदा ने बताया होगा" बोली वो! "हाँ, बताया!" मैंने कहा, "और आप कैसे यहाँ?" पूछा उसने! "आया था किसी क्रिया के लिए!" बौला मैं! "अच्छा! निबट गयी?" पूछा उसने! "हाँ, निबट ही गयी! अच्छा, बैठो तो सही?" मैंने कहा, "आपने बिठाने को कहा ही नहीं!" बोली वो! "अरे बैठो न!" मैंने उसका हाथ पकड़ के बिठा लिया उसको! उसको देखा मैंने, उसका बदन! अवलोकन किया। "मोटी सी लग रही हो। वजन बढ़ गया है।" मैंने कहा, "हाँ! वजन तो बढ़ गया है!" बोली वो! "लेकिन हो अभी भी वैसी ही!" मैंने कहा, "कैसी?" बोली वो! "नींद उड़ाने वाली!" बोला मैं! "नहीं। ऐसी नहीं!" बोली वो! "हाँ, मानो!" मैंने कहा! "अच्छा? तो दो साल तक नींद आती रही आपको?" बोली वो! कहाँ से कहाँ ला पटका था उसने! शब्दों के खेल को केवल एक स्त्री ही जाने "समय ही नहीं मिला!" बोला मैं! "ऐसा नहीं हो सकता!" बोली वो! "और तुम्हारा नंबर भी बदल गया!" मैंने कहा,
"खो गया था फ़ोन" बोली वो, "तो मेरा नंबर नहीं था क्या?" पूछा मैंने, "नहीं, फ़ोन में ही था" बोली वो! "चलो, आज मिल ही गयीं तुम!" बोला मैं! "और, वहीं हो?" पूछा उसने, "हाँ, और कहाँ जाना है!" मैंने कहा, "कब तक हो यहां?" उसने पूछा, "तुम कहो! कब तक ठहरूं!" मैंने कहा, "आपकी मर्जी! फिर सो जाने वाले हो आप!" बोली वो! "अरे नहीं!" मैंने कहा, "हाँ, जानती हूँ मैं!" बोली वो!
आब इस बात से कहीं गड्ढा न खुद जाए, बात पलट दी मैंने! "शाम का क्या कार्यक्रम है?" पूछा मैंने, "कुछ नही' बोली वो! "तो आना मेरे पास!" मैंने कहा! "किसलिए?" पूछा मुस्कुराते हुए! "अब काम भी देख लेंगे! आओ तो सही!" मैंने कहा,
अब मैंने कमरा बता दिया उसे अपना!
और उसने हाँ कर दी! जानता था मैं वो मना नहीं करेगी! मैं बड़ा खुश था!!
आ गया वापिस वहाँ से, कुलांचे भरता हुआ! सीधा शर्मा जी के पास! "मिल आये?" बोले वो! "हाँ!"मैंने कहा, "कैसी है?" पूछा उन्होंने! "बढ़िया! बहुत बढ़िया'!!" मैंने कहा। "वो तो मैं जानता ही था!" बोले वो! हंस पड़े! मैं भी हंसा! "और पूरब बाबा?" बोले वो! "अब जब बुलाएंगे तो चला जाऊँगा!" मैंने कहा, "आज तो जाने से रहे?" बोले वो,
हु
"क्यों?" बोला मैं! "श्रुति को बुलाया नहीं?" बोले वो! मैं हंसा! "हाँ, बुलाया है!" मैंने कहा! "अच्छा है!!" बोले वो!
और अब मुझे इंतज़ार! शाम होने का! और सूरज महाराज, नीचे ही न ढलकें!! बड़ी बेसब्री से समय काटा! और शाम हुई! मैं तैयार! खुश! साँझ हुई थी! और लगी थी ज़ोरदार हुड़क! आज की हुड़क बहुत कड़क थी! उस हुड़क में श्रुति के जकारण, काम का तड़का लगने वाला था! और तड़का लगाने वाला था मैं! अब मैं क्या करता! श्रुति को देख कर, मेरे अंदर, अपने आप ही लपटें उठ जाती थीं। आपसे सच कह रहा हूँ, सच में, मैं उसका देह-पान करना चाहता था! ये ही इच्छा थी मेरे मन में उस समय! उसके साथ बिताये वो चंद दिन, मैं
