मैं झटके से खड़ा हुआ!
"मैं चलता हूँ" मैंने कहा और जाने लगा,
"रुको?" उसने कहा,
मैं रुका,
रुकना पड़ा!
"बैठो?" उसने कहा,
मैं खड़े रहा!
"बैठो?" उसने फिर से कहा,
मैं बैठा!
"अनुष्का? मैंने बताया न, बहुत छोटी हो मुझसे तुम" मैंने कहा,
"तो?" उसने पूछा,
"मुझे शर्म आती है" मैंने कहा,
"किस से?" उसने पूछा,
"तुमसे" मैंने कहा,
फिर से हंसी!
अब वो क्या समझे!
अभी देखा ही कहाँ था उसने ये संसार!
क्या जाने इसकी रीत!
इसके रंग!
इसके ढंग!
क्या पता इसको!
भेड़ की खाल में भेड़िये घूमते हैं!
ये कहावत नहीं!
सच है!
क्या पता इसको!
अपनी छोटी सी बुद्धि से छोटे दायरे में सोच रही थी वो!
हो सकता है वो जाने ही न,
अपने कहे शब्दों का यथार्थ!
इसीलिए डर लग रहा था!
दूरी मुझे बनानी थी!
उसकी मैं नहीं जानता!
"मुझसे क्यों डर लगता है?" उसने पूछा,
मैं हंसा!
अपने आप पर!
क्या जवाब दूँ!
कभी कभी,
जवाब होता भी है पास तो कहा नहीं जाता!
चाह कर भी!
क्या समझाऊं!
कैसे समझाऊं!
मैं खड़ा हुआ,
उसने पकड़ा मुझे,
मैंने उसको देखा,
फिर से वही नज़र!
मैं कांपा!
सहमा!
"छोडो" मैंने कहा,
नहीं छोड़ा!
पलक देखे मुझे,
और मैं नज़रें चुराऊँ!
कहाँ फंसा मैं!
आज जैसे वो ज़िद में थी!
अड़ी हुई!
और मैं हद में!
अपनी हद में!
मर्यादा की हद में!
"छोडो" मैंने कहा,
नहीं छोड़ा!
मैंने देखा उसको!
नशा!
आँखों में नशा!
मेरी मदिरा से भी चार गुना नशा!
मैंने नज़रें हटायीं!
"हटो?" मैंने कहा,
नहीं हटी!
मैं बैठ गया!
उसने थामे रखा,
अब मैंने अपने हाथ से छुड़ाया उसको!
उसने छोड़ा,
और मेरा हाथ थामा!
गरम उसका हाथ!
मैं फुंका!
जला!
मैंने हाथ छुड़ाने को ज़ोर लगाया,
नहीं छोड़ा उसने!
"अनुष्का?" मैंने कहा,
वो देखे मुझे,
"अनुष्का?" मैंने फिर से कहा,
"हाँ?" उसने हलके से पूछा,
"छोड़ो?" मैंने कहा,
नहीं छोड़ा!
अब मुझे गुस्सा आया!
ये तो हद थी!
मैंने ज़बरन हाथ छुड़ा लिया,
मैं उठा,
मुझे फिर से पकड़ा!
मैंने छुड़ाया!
और बिन पीछे देखे निकल गया बाहर!
मैं डरा हुआ था!
सकपकाया हुआ!
क्या हुआ उसे?
अचानक?
क्यों?
ऐसे विचारों में में खो गया!
कमरे में पहुंचा,
शर्मा जी सो चुके थे!
मैं भी लेटा,
तभी फ़ोन बजा!
अनुष्का!
मैंने नहीं उठाया!
कट गया!
फिर बजा!
फिर नहीं उठाया,
बजता रहा!
फिर कटा!
और फिर बजा!
और मैंने बंद कर दिया अब!
बस!
बहुत हुआ!
और सो गया मैं फिर, झूलते हुए, विचारों में!
सुबह हुई!
नहाया-धोया!
शर्मा जी भी नहाये-धोये!
"अभी आया मैं" मैंने कहा और चला अनुष्का के पास!
दस्तक दी,
दरवाज़ा खुला!
मैं अंदर गया!
बैठ गया!
"चाय पियोगी?" मैंने पूछा,
"अभी नहीं" उसने कहा,
नज़रें नहीं मिलाईं!
शायद रात की बात याद थी उसको!
"अनुष्का?" मैंने कहा,
नहीं बोली कुछ!
नज़रें नीचे!
"सुनो?" मैंने कहा,
"हूँ?" वो बोली,
"सामने देखो?" मैंने कहा,
उसने देखा!
शर्म!
मैं मुस्कुराया!
उठा!
और उसके पास बैठा!
उसके सर पर हाथ रखा,
फिर माथे पर!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
कुछ नहीं बोली!
"अरे जाने दो न!" मैंने कहा,
ऊपर देखा!
नज़रें मिलीं!
"जाने दो!" मैंने कहा,
शर्म!
अब हाथ लिया उसका मैंने अपने हाथ में!
पतली पतली उंगलियां!
और ठंडा हाथ!
"अनुष्का?" मैंने कहा,
"हूँ?" वो बोली,
"चाय पीनी है?" मैंने पूछा,
मुस्कुरा गयी!
"पियोगी?" मैंने पूछा,
"ठीक है" वो बोली,
और फिर मैं चाय बोलने चला गया!
और वापिस आया!
बैठा!
चाय आयी, मैंने शर्मा जी के लिए भिजवा दी और हमने पी!
"आज का दिन और, और फिर हम चलते हैं कल दिल्ली!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गयी!
फिर मैं भी उठा!
और बाहर आ गया!
सीधा अपने कमरे में!
मित्रगण!
उस दिन कुछ नहीं हुआ!
न कुछ देख और न ही कुछ पकड़!
सब सही था!
फिर हुई रात!
रात को भी कुछ नहीं!
सब सही था!
वहाँ से कोई प्रतिक्रिया नहीं थी! ये अच्छी बात थी!
अगला दिन आया!
हमने चाय-नाश्ता कर लिया था, अनुष्का साथ ही थी मेरे उस समय, नाश्ता साथ ही किया था!
"आज निकलते हैं यहाँ से" मैंने कहा शर्मा जी से,
"चलिए" वे बोले,
"अनुष्का, अपना सामान तैयार कर लो" मैंने कहा,
"अभी करती हूँ" वो बोली और चली गयी,
यहाँ मैंने सभी सामान बाँध लिया,
अब कोई औचित्य शेष नहीं था यहाँ रुकने का!
सब सामान बाँध लिया,
अनुष्का आ गयी!
और फिर मैं अपने परिचित से मिला,
और उनको धन्यवाद कर विदा ली,
बस-अड्डे पहुंचे और वहाँ से फिर दिल्ली की बस ले ली!
हम चल पड़े दिल्ली!
दिल्ली पहुंचे!
सीधे अपने स्थान गए!
शर्मा जी भी साथ ही थे!
अब वहाँ पहुँच गए थे!
शर्मा जी ने विदा ली और चले गए घर अपने!
रह गये मैं और अनुष्का वहाँ!
"ये मेरा स्थान है अनुष्का!" मैंने कहा,
"बढ़िया है" वो बोली,
खाना खाया, और फिर आराम किया!
तीन दिन वो मेरे साथ रही वहाँ!
तीन दिन बाद शर्मा जी ने उसके रहने का प्रबंध कर दिया, एक पी.जी हाउस में! अब मैं निश्चिन्त था!
मैं छोड़ने गया उसको, ये मेरे निवास के पास ही था! तो अक्सर रोज ही मिल लेता था उस से! उसने पढ़ाई ज़ारी रखी!
हरिद्वार से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई!
वे थक-हार कर बैठ गये थे!
अनुष्का की नौकरी लगवा दी गयी एक निजी विद्यालय में, पैसे हाथ आये तो पढ़ाई आदि में मदद मिली! अब अनुष्का खुश थी! हाँ, उस से रोज मिलना मेरी विवशता थी! जिस रोज नहीं मिलता, गुस्सा करती थी बहुत! बहुत मनाया करता था उसको मैं!
समय बीतता गया!
अनुष्का ने नौकरी आदि के लिए फॉर्म भरने शुरू किये, मेहनत रंग लायी! और वो सफल हुई, आज एक उच्च सरकारी पद पर कार्यरत है! मैं बहुत खुश हुआ! बहुत खुश! उस दिन मेरी आँखें भर आयीं जिस दिन वो पहली बार नौकरी करने गयी! मैं छोड़ने गया था उसको!
मुझसे सब याद है!
आज वो सुखी है!
और उस से अधिक मैं!
मिलना मेरी विवशता है!
मैं जाता हूँ उसके आवास पर मिलने उस से!
वो अनुष्का जो मुझे कोलकाता में मिली थी, और ये अनुष्का मेरे लिए बहुत मायने रखती है! उस लड़की का भाग्य बदल गया! दलदल से निकल कर आज सुसंस्कृत समाज का हिस्सा बन गयी! जब मैंने ये घटना लिखी तो अपने और मेरे वक्तिगत क्षणों को लेकर वो बहुत हंसी!
हंसी!
उसकी हंसी मेरे लिए बहुत मायने रखती है!
वो सदा ही खुश रहे! यही चाहता हूँ मैं!
बस यही!
एक अनुष्का तो निकल गयी! अभी बहुत अनुष्का हैं, जो फंसी हैं दलदल में! मुझे पता चला तो नहीं हटूंगा पीछे! मैं सदैव तैयार हूँ!
सदैव!
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