वर्ष २०११ कोलकाता क...
 
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वर्ष २०११ कोलकाता की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मानस हूँ! बहुत कमज़ोर हूँ! किसी तरह से सम्भालता हूँ मैं! कैसे? ये तो मैं ही जानूं! उसके कैसे बताऊँ? कैसा होता है ऐसा अंतर्द्वंद?

कैसी होती है ऐसी कमज़ोरी!

भौंरा तो बस रस चाहे!

फूल कैसा भी हो!

भूखा कोई नहीं रहना चाहता!

कौन चाहता है?

सच बताइये मित्रगण? क्या आप?

ये था अंतर्द्वंद!

उसको कैसे समझाऊं?

कली है, तीव्र प्रवाह से ही टूट जायेगी!

वो फिर से हंसी!

और मैं भी हंसा!

बात घुमाना चाहता था!

घुमा लिया आखिर!

हो गया कामयाब!

कमज़ोरी को दबा दिया विवेक ने!

"अब चलता हूँ" मैंने कहा,

और निकल आया बाहर!

सांस आयी मुझ में जैसे!

 

मैं वापिस आया अपने कक्ष में!

विचारों में उलझा हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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पहुंचा वहाँ!

और लेट गया!

मन नहीं था कुछ बात करने का,

सो गया!

दो घंटे सोया, तो भोजन करना था, मैं गया भोजन का प्रबंध करने, अपने लिए, शर्मा जी के लिए और अनुष्का के लिए,

सहायक को लाया अपने साथ, अनुष्का का दरवाज़ा खुलवाया और भोजन रखा अंदर! और फिर अपना खाना भी रखवा लिया वहीँ! शर्मा जी के लिए वो लेकर चला गया!

"लो अनुष्का, भोजन करो" मैंने कहा,

अब हमने खाना खाया,

और हाथ-मुंह धो लिए,

वक़्त आगे खिसका,

"अनुष्का? आज शाम मैं व्यस्त रहूँगा, कुछ सुरूर में और कुछ क्रिया में, आज नहीं मिल सकूंगा" मैंने कहा,

मुंह बना लिया!

मैं भांप गया!

मुझे हंसी आ गयी!

"अच्छा, आ जाऊँगा जाने से पहले" मैंने कहा,

अब सामान्य भाव हुए!

"अनुष्का, तुम्हारा ख़याल नहीं रखूँगा तो अपना भी नहीं रख पाउँगा, समझीं?" मैंने कहा,

मुझे देखा!

"फिर से?" मैंने कहा,

हंस पड़ी!

"हंसती रहा करो!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से हंसी!

वो हंसती थी तो जैसे मेरे अंदर कोई रिक्त-स्थान भर जाता था!

सच में!

"आज जाऊँगा मिलने किशन से" मैंने कहा,

वो घबरायी!

आँखें फ़ैल गयीं!

"वहाँ जाओगे?" उसने पूछा,

"हाँ?" मैंने कहा,

"नहीं नहीं!" वो बोली,

"जाना तो पड़ेगा?" मैंने कहा,

"नहीं, मैं नहीं जाने दूँगी" वो बोली,

"क्यों?'' मैंने पूछा,

"वो खतरनाक हैं बहुत" वो बोली,

''तो? डर जाएँ?" मैंने पूछा,

"मैं भी चलूंगी" उसने कुछ सोच कर कहा,

"तुम्हे नहीं ले जाऊँगा मैं!" मैंने कहा,

"नहीं तो फिर वहाँ नहीं जाना" उसने कहा,

"मैं जाऊँगा और वापिस भी आउंगा, मेरी चिंता न करो!" मैंने कहा,

"नहीं" वो बोली,

"नहीं डरो!" मैंने कहा,

"नहीं" वो बोली,

"अरे? नहीं डरो?" मैंने कहा,

ले लिया निर्णय!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं पता चलना चाहिए अनुष्का को!

"ठीक है, बाहर बुला लेता हूँ" मैंने कहा,

"यहाँ बुला लो" उसने कहा,

"मेरे लिए हरिद्वार घर जैसा है, मैंने बताया था न?" मैंने कहा,

"हाँ, लेकिन....." वो बोली,

"कोई लेकिन नहीं" मैंने कहा,

चुप किया मैंने उसको!

कुछ तर्क-वितर्क में उलझा कर!

"अब चलता हूँ कुछ काम है मुझे" मैंने कहा,

"ठीक है" वो बोली,

अब मैं निकल आया वहाँ से!

अधिक बतियाना सही नहीं था! वो फिर से ज़िद करती!

पहुंचा सीधा शर्मा जी के पास!

"भोजन हो गया?" मैंने पूछा,

"कब का!" पेट पर हाथ मारते हुए बोले,

"चलो फिर" मैंने कहा,

"वहीँ?" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

उन्हें मालूम था! कि कोई नहीं बिगाड़ पायेगा हमारा कुछ भी वहाँ! जायेंगे, बात करेंगे और आ जायेंगे! कुछ हुआ, तो देख लेंगे!

हम चल दिए!

और फिर वहाँ पहुँच गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लिखत-पढ़त हुई!

अंदर गए!

और सीधा चले!

खलबली मच गयी वहाँ!

सभी हमे देखें!

लेकिन कुछ दूरी से!

पिछली घटन याद थी उन्हें!

हम पहुंचे और एक वृद्ध सा साधू आ गया वहाँ!

किशन के साथ, किशन के साथ कोई चालीस आदमी वहाँ!

"लड़की कहाँ है?" वो बोला,

"यहीं बात करोगे या कहीं बैठ कर करें?" मैंने पूछा,

"आओ" वो बोला,

हम चले! साथ साथ लुंगी-धारियों का हुजूम! कोई त्रिशूल उठाये, कोई लाठी-डंडा उठाये और कोई चिमटा उठाये!

हमे एक जगह लाया गया! ये बारामदा था, बड़ा सा!

"हाँ, लड़की कहाँ है?" उसने पूछा,

"मरे पास है, सुरक्षित" मैंने कहा,

"साथ क्यों नहीं लाये?" उसने पूछा,

"वो नहीं आयी" मैंने कहा,

"हमे बताओ, हम ले आयेंगे" वो बोला,

"वो नहीं आएगी" मैंने कहा,

"हम समझा लेंगे" वो बोला,

"नहीं समझेगी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमे ले चलो" उसने कहा,

"नहीं ले जाऊँगा" मैंने कहा,

"ज़िंदा नहीं जाओगे यहाँ से!" वो साधू बोला,

"अच्छा?" मैंने कहा,

और अब सभी ने हमको घेरा!

मैंने सभी को देखा!

"मेरा रास्ता आराम से छोड़ोगे या अपना रास्ता खुद बनाऊँ?" मैंने कहा,

"लड़की दे दो, और जाओ" वो बोला,

"तुम कौन हो?" मैंने पूछा,

"बिंदेश्वर!" वो बोला,

क्रोध में!

"बुज़ुर्ग हो, इसीलिए कुछ नहीं कहूंगा तुम्हे, लेकिन इनको बोलो, जो जहां है वहीँ हट जाए पीछे, नहीं तो कोई भी अपनी टांगों से चलता नहीं जाएगा, बता देता हूँ" मैंने कहा,

"अच्छा! इतनी अकड़?" उसने कहा,

अब मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ा!

वे समझ गए!

हम खड़े हो गए!

और अब कुछ होने को था! या तो हम पिटने वाले थे, या फिर वहाँ अब हवाबाजी का खेल होने वाला था!

"रास्ता छोड़ोगे?" मैंने पूछा,

"लड़की!" उसने कहा!

और मित्रगण!

हुआ धमाल शुरू!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ अचानक से जैसे हवा चली! क्षण में ही ताप बढ़ा!

और!

बिंदेश्वर को पकड़ के फेंका किसी ने सामने! वो गिरा जाकर बारामदे में रखे अनाज के बोरों पर, किशन पड़ा जाकर बाहर! और वे सारे आदमी टकराए एक दूसरे से! कोई छत पर लगा, पंखों की पंखड़ियाँ मुड़ीं! कोई बाहर फिंका, कोई नीचे बैठा, कोई किसी के ऊपर गिरा, कोई चिल्लाये! कोई भागे, लाठी-डंडे छूटे हाथों से! और मैदान साफ़! किसी का सर फटा! किसी का पाँव टूटा, किसी की पसलियां टूटीं! मची भगदड़! शोर! बेहोश हो होकर गिरने लगे लोग, ऊपर से नीचे!

रह गए हम दो वहाँ!

इबु ने कहर मचा दिया था वहाँ!

गुस्से में हवा में खड़ा इबु देख रहा था, कि किसकी नज़र मिले मुझ से और करे उसकी वहीँ सेवा!

जब मैंने हाथ पकड़ा था शर्मा जी का, तभी शाही-रुक्का पढ़ दिया था मैंने! और अब परिणाम सामने था!

बोरों पर गिरे बिंदेश्वर बाबा के पास गया मैं!

उसको उठाया!

साँसें ले रहा था!

आँखें खुली थीं उसकी!

हाँ, उसकी गरदन की हँसलियां टूट चुकी थीं!

"मेरा पीछा नहीं करना, नहीं तो अगली बार तेरा वो हाल करूँगा कि ये डेरे वाले भी रखने से मना कर देंगे तुझे!" मैंने कहा,

अब हम निकले बाहर!

इबु की सरपरस्ती में!

किशन का सर फट गया था! वो भागा वहाँ से! कुत्ते की तरह!

केवल औरतें देख रही थीं हमे बस!

मर्द एक न था!

सब घुस गए थे अपने अपने दड़बे में जाकर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम!

आराम से निकल आये वहाँ से!

जो समझाना था समझा दिया था!

अब मैंने फिर से रुक्का पढ़ा और इबु वापिस हुआ! तातार होता तो हत्याएं हो चुकी होतीं वहाँ अब तक तो! वो तो फाड़ ही देता! चीर देता!

हम आये वापिस,

सीधा अपने डेरे में!

फिर कक्ष में!

"मजा आ गया!" वे बोले,

मैं भी हंसा!

"साले फ़ौज तैयार करके बैठे थे!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"बिंदेश्वर को क्या फेंका उसने! साले की गरदन टूटते टूटते बची, बोरे में घुस गया था, बोरे न होते तो आज मर गया होता साला, हरामज़ादा!

"हाँ!" मैंने कहा,

"कहर ढ़ा दिया आज तो!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"ये साला बिंदेश्वर मुझे तो चिमटा-बजाऊ लगा, बस कि कुछ नहीं!" वे बोले,

"जानता होगा थोड़ा बहुत!" मैंने कहा,

"हाँ जी, बंदर के हाथ हल्दी की गाँठ लगी तो पंसारी बन बैठा!" वे बोले,

"भाड़ में जाने दो साले को!" मैंने कहा,

अब मैं उठा!

और चला अनुष्का के कमरे की तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ पहुंचा,

दस्तक दी,

चिटकनी खुली,

और फिर दरवाज़ा!

सामने खड़ी थी वो!

मैं अंदर चला गया!

बैठा!

मैं मुस्कुराया!

वो नहीं!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"कहाँ गये थे?" उसने पूछा,

"यहीं पास में" मैंने कहा,

"सच कहो?" उसने कहा,

"हाँ, हाँ पास में" मैंने कहा,

"वो आये?" उसने पूछा,

बताऊँ?

या नहीं?

बता ही देता हूँ!

नहीं!

नहीं बताना चाहिए!

और मैंने नहीं बताया उसको!

"वो नहीं आयेंगे अब!" मैंने कहा,

"क्यों?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उनको समझा दिया जाएगा, खुल कर!" मैंने कहा,

"कौन समझायेगा?" उसने पूछा,

"यहाँ के लोग!" मैंने कहा,

"सच में?" उसने पूछा,

"मैं झूठ क्यों बोलूंगा?" मैंने कहा,

वो भोली लड़की मेरी बातों में आ गयी!

विश्वास कर लिया उसने मेरी बात पर!

फिर मुस्कुरायी वो!

"मैंने क्या कहा था! तुम सुरक्षित हो! हर जगह! कहीं भी!!" मैंने कहा,

खड़ी हुई!

मुझे देखा!

मैंने भी देखा!

फिर बैठी!

फिर से देखा!

मैंने भी देखा!

फिर मुस्कुरायी!

 

"फिर से?" मैंने कहा,

अबकी बार वो ज़ोर से हंसी!

चिंता मुक्त!

मुझे बहुत ख़ुशी हुई!

उसको हँसता देखा जैसे मुझे सुकून मिलता था! बहुत सुकून! ऐसा सुकून जिसे मैं बयान नहीं कर सकता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब चिंता न करो, ठीक?" मैंने कहा,

"ठीक" वो बोली,

"अब शाम हो चुकी है, अपने कक्ष में ही रहना, जानती हो न?" मैंने कहा,

"हाँ! जानती हूँ!" हंसते हुए बोली,

"अब चलता हूँ" मैंने कहा,

"ठीक है" वो बोली,

और मैं उठ गया वहाँ से!

बाहर आया और चला सीधे अपने कक्ष की ओर!

वहाँ पहुंचा,

शर्मा जी फ़ोन पर बात कर रहे थे किसी से,

बैठ गया!

बात ख़त्म हुई उनकी!

"क्या विचार है?" मैंने पूछा,

"होते हैं शुरू" वे बोले,

और चले बाहर,

खाने पीने का सामान लेने!

और मैंने बोतल निकाल कर तैयारी की!

वे आये,

सामान ले आये थे,

और हम हो गए शुरू!

"आज तो मजा बाँध दिया इबु ने!" वे बोले,

मैं हंसा!

"सच में! क्या भांजा है उनको, याद करेंगे साले!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, करेंगे" मैंने कहा,

"साले ऐसे खड़े थे हथियार ले कर जैसे क़लम करेंगे सर हमारा! इबु ने ऐसा झंडा गाड़ा कि तोते उड़ गए हरामजादों के!" वे बोले!

"तभी तो गए थे हम वहाँ!" मैंने कहा,

"सही समझाया आपने उसको!" वे बोले,

"समझाना ज़रूरी था!" मैंने कहा,

"अब नहीं करेंगे हिम्मत की तो इनकी मैय्या ** फिर!!" वे बोले,

मैं हंसा!

"क्या कहते हो? मान जायेंगे?" मैंने पूछा,

"हाँ, मानेंगे क्यों नहीं?" वे बोले,

"कमीन है साले, नहीं मानेंगे!" मैंने कहा,

"तो देख लेंगे फिर उनको! अबकी इनकी *** में घुसेड़ दिया जाएगा खंजर पैना करके!" वे बोले,

"हाँ सो तो है ही" मैंने कहा,

हम खाते-पीते रहे!

कुछ और बातें,

कभी यहाँ की और कभी वहाँ की!

और हुए हम अब फारिग!

आँखें हुई भारी!

तभी याद आया कि खाना खिलाना है अनुष्का को! तो मैं चला उसके लिए भोजन का प्रबंध करने! वहाँ पहुंचा, भोजन लिया उसके लिए और उसके कमरे पर पहुंचा! दस्तक दी, चिटकनी खुली, और फिर दरवाज़ा!

सामने खड़ी थी!

मैंने थाली दी उसको!

"खाओ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अंदर नहीं आओगे?" उसने पूछा,

"अब नहीं" मैंने कहा,

"आओ न?" उसने कहा,

"नहीं, अब नहीं" मैंने कहा,

"आओ तो सही?" उसने कहा,

जाना पड़ा!

अंदर गया,

और बैठ गया,

"बोलो?" मैंने कहा,

"मेरे खाना खाने तक यहीं नहीं बैठ सकते?" उसने पूछा,

"बैठ सकता हूँ" मैंने कहा,

"बैठो फिर" उसने कहा,

"खाना खाओ फिर" मैंने कहा,

उसने खाना आरम्भ किया,

मैं बैठा रहा!

नशे की झोंक!

गर्मी लगे!

लेकिन बैठना ज़रूरी था!

आखिर उसने भोजन किया,

हाथ-मुंह धोने गई,

तौलिये से हाथ मुंह साफ़ किये,

और बैठ गयी!

"अब जाऊं मैं?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्यों?" उसने पूछा,

"नींद आ रही है" मैंने कहा,

मुस्कुराने लगी!

"यहीं सो जाओ!" उसने कहा,

हंसते हुए!

मैंने बताया न, मुझसे खुलने लगी थी वो अब!

"नहीं, यहाँ नहीं" मैंने कहा,

"क्यों?" उसने पूछा,

"अब हर क्यों का जवाब नहीं होता" मैंने कहा,

"डर लगता है?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"मुझसे?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"फिर?" उसने पूछा,

"अपने आप से" मैंने कहा,

सच कहा था मैंने!

सच में डर लग रहा था अपने आप से!

हंस पड़ी वो!

"अपने आपसे भी कोई डरता है!" उसने कहा,

"हाँ, मैं डरता हूँ" मैंने कहा,

फिर से हंसी!

वो तो हंस रही थी!

मैं फंस रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अल्हड़ता!

पूरी अल्हड़!

"चलता हूँ" मैंने कहा,

"अभी नहीं" उसने कहा,

फंस गया!

क्या करूँ?

"सोना ही तो है?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"यहाँ सो जाओ?" उसने कहा,

अब क्या कहूं उसे!

कैसे नींद आएगी?

सारी रात भीगी बिल्ली सा बना रहूँगा!

नहीं!

"नहीं" मैंने कहा,

मुस्कुरायी!

उठी!

मेरे पास आ बैठी!

डर लगा मुझे!

मुझे जम्हाई आयी!

"देखा? नींद आ रही है मुझे" मैंने कहा,

अब उसने मुझे मेरा हाथ पकड़ा कर खींचा!

मैं घबराया!

"आओ, मैं सुलाती हूँ" उसने कहा,


   
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