"और हाँ, बाहर नहीं निकलना, मेरे पास तक भी नहीं आना, ज़रुरत हो तो फ़ोन कर देना, ठीक?" मैंने कहा,
"ठीक" वो बोली,
मैं उठा,
उसने हाथ पकड़ा मेरा,
बिठा लिया,
अब खुलने लगी थी मुझसे!
"बोलो?" मैंने कहा,
"मेरे साथ रहोगे न आप हमेशा?" उसने गम्भीरता से पूछा,
हमेशा?
हमेशा??
कैसे?
ये तो असम्भव है!
ये,
सम्भव नहीं!
क्या कहना चाह रही है अनुष्का?
कैसे हमेशा?
"हमेशा?" मैंने पूछा, जब खुद से उत्तर नहीं मिला तो,
"हाँ, हमेशा!" उसने कहा,
मैं हंसा!
फिर डरा!
हंसी अपने आप निकली थी!
कहीं उपहास न ले ले!
हंसी गायब!
क़तई गायब!
"मैं साथ हूँ तुम्हारे, जब तक तुम स्व्यं अपने आपको स्थायी नहीं कर लेतीं अपने जीवन में!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी!
मैं बचा!
बच गया!
निकल गया मुसीबत से!
"फिर?" उसने पूछा,
मैं जड़!
दो अक्षरों का शब्द लेकिन सामने समुद्र को रोके!
फिर फंसा!
"फिर?" उसने फिर से पूछा,
"फिर.....फिर देखेंगे!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी, नज़रें फेर कर!
छोटा सा दिल!
इतनी बड़ी धड़कन!
जो मुझे सुनायी दे!
जो मुझे विचलित करे!
बस!
"एक बात बताओ?" मैंने पूछा,
"क्या?" उसने पूछा,
"किसी बाबा बिंदेश्वर को जानती हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
अब,
मैं खड़ा हुआ!
"अब चलता हूँ" मैंने कहा,
वो भी खड़ी हुई,
"खाना भिजवाता हूँ अभी" मैंने कहा,
वो देखती रही!
हाथ के इशारे से मैंने कहा कि दरवाज़ा बंद कर लो!
दरवाज़ा बंद किया उसने अब, मुस्कुराते हुए!
ओह!
निकल गया!
निकल गया दमघोंटू नाल से बाहर!
मैंने खाना भिजवा दिया उसका उसके कक्ष में!
और अपना खाने पीने का सामान भी ले आया!
और हुआ हमारा दौर-ए-जाम शुरू!
अभी महफ़िल जवान होने को थी कि अनुष्का का फ़ोन बजा! उसने मुझे बुलाया, मैं गया, न जाने क्या बात है?
दरवाज़े पर दस्तक दी,
दरवाज़ा खुला,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"फ़ोन" उसने कहा,
फ़ोन आ रहे थे उस पर! वहीँ से!
"लाओ, मुझे दो" मैंने कहा, और फ़ोन ले लिए उस से उसका, और ले आया अपने कमरे में!
एक और पैग!
और फिर फ़ोन बजा!
मैंने उठाया,
"कौन?" मैंने पूछा,
"किशन" वो बोला,
"हाँ, बोल?" मैंने कहा,
"लड़की कहाँ है?" उसने पूछा,
"मेरे पास" मैंने कहा,
"बात कराओ मेरी" उसने कहा,
"सो गयी वो" मैंने कहा,
"जगाओ उसको" वो बोला,
"सुन बे? तेरे बाप की नौकरी की है मैंने? रख फ़ोन साले, माँ * *!" मैंने कहा!
उसने भी गाली दी!
अब मैंने उसको ऐसी ऐसी गालियों से परिचित करवाया कि लिखने बैठे तो एक पुस्तिका बन जाए पूरी!
फ़ोन कट गया!
हम फिर से शुरू हुए!
"अबके आये तो मुझे देना, इसकी माँ के * में क़ुतुब मीनार ठोकूंगा!" वे बोले,
मेरी हंसी छूटी!
थोड़ी देर हुई!
फिर फ़ोन बजा!
अबकी बार शर्मा जी ने उठाया!
"हाँ बे? कौन है?" उन्होंने पूछा,
उसने गाली देकर बताया कि बाबा बिंदेश्वर बोल रहा है!
अब तो शर्मा जी ने उसको भारतीय उपमहाद्वीप में बोली जाने वाली सारी गालियों का हार चढ़ा दिया
अनुभव क्र ६० भाग ४
By Suhas Matondkar on Sunday, September 7, 2014 at 4:06pm
फ़ोन कट गया!
अब मैंने फ़ोन खोला और उसका सिम तोड़ डाला! न होगा बांस और न बजेगी बांसुरी!
और हम फिर से शुरू!
खाना खा लिया!
निबट गए हम!
और अब हुआ समय निकलने का!
सामान उठाया, और शर्मा जी बाहर खड़े हुए,
मैं गया अनुष्का के कमरे तक,
दस्तक दी,
दरवाज़ा खुला,
और वो भी तैयार थी!
अब मैंने उसका बैग उठाया!
और हम चल दिए,
मैं अपने परिचित से मिला और विदा ली,
स्टेशन पहुंचे,
और फिर गाड़ी पकड़ी!
फिर से ले-देकर सीटों का जुगाड़ किया, हो गया!
हम लेट गए!
उसको भी लिटा दिया!
बज गए साढ़े ग्यारह!
शर्मा जी सो गए,
जागे रहे मैं और वो!
"सो जाओ अब" मैंने कहा,
उसने करवट ली और सोने का प्रयास करने लगी!
मैंने भी आँखें बंद कर लीं,
थोड़ी देर में मेरी आँखें खुलीं,
वो मुझे ही देख रही थी!
"नींद नहीं आ रही?" मैंने पूछा,
उसने गरदन हिलाकर न कहा!
"आँखें बंद करो, आ जायेगी नींद!" मैंने कहा,
और करवट बदल के लेट गया!
फिर से करवट बदली!
फिर से जाग रही थी वो!
मुझे देख रही थी!
मैं मुस्कुराया!
रही सही नींद भी कुलांच मार भाग गयी!
मैं बैठ गया!
वो भी बैठ गयी!
मैंने पानी पिया,
"पानी पियोगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने पानी दिया उसको,
उसने पिया और बोतल मुझे दी, मैंने रख दी,
उठी,
और मेरे पास बैठ गयी!
खिड़की से आती हैलोजन का प्रकाश आता तो उसकी आँखें चमक पड़तीं!
"नींद नहीं आ रही?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"सुबह पहुँच जायेंगे हम वहाँ" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
"डर लग रहा है?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"सच में?" मैंने पूछा,
"हाँ, सच में" उसने कहा,
अब उसने अपना सर मेरे कंधे पर रखा!
मैंने उसके सर पर हाथ फिराना शुरू किया! हलके हलके!
वो ऐसे ही बैठे रही!
बहुत देर तक!
मैं बात करता तो हाँ, हूँ में जवाब देती!
बारह से ऊपर का समय था!
मैंने देखा उसको,
वो तो सो गयी थी!
अब मैंने उसको धीरे से लिटाया अपनी सीट पर! और खड़ा हो गया! उसके चेहरे से उसके केश हटाये, वो गहरी नींद सो चुकी थी!
फिर चादर से ढक दिया उसको!
और खुद उसकी सीट पर चला गया!
विश्वास!
कितना बड़ा होता है! कितना बड़ा!
ये प्रत्यक्ष था मेरे सामने!
मेरे सामने ये विश्वास अनुष्का बन लेटा हुए था!
मैं निहारता रहा उसको!
देखता रहा!
मित्रगण!
हम पहुँच गए हरिद्वार अगले दिन!
मैं सीधा अपने एक जानकार के पास पहुंचा, जहाँ पहले पहुंचा था, उनसे मिला, सब बताया और फिर दो कक्षों का प्रबंध कर लिया!
हमने सामान रखा वहाँ और मैं छोड़ के आया अनुष्का को उसके कक्ष में! उसका सामान रखा वहाँ!
और हम बैठ गए!
"लो पहुँच गए" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोली,
"चाय पीनी है?" मैंने पोछा,
"अभी नहीं" उसने कहा,
"अब आराम करो, मुझे और भी काम हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
और मैं फिर अपने कमरे में आ गया,
लेटा, थोड़ा आराम किया!
फिर चाय मंगवा ली,
और हम चाय पीने लगे!
उसके बाद मैं पहुंचा अपने जानकार के पास!
उनसे मिला,
और बताया उनको बाबा बिंदेश्वर के बारे में!
"बिंदेश्वर?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"यहाँ तो कोई नहीं" वे बोले,
"हो सकता है कहीं और से आया हो?" मैंने पूछा,
"सम्भव है" वे बोले,
"मुझे कुछ सामग्री आदि चाहियें, और एक भल्ल-स्थान भी" मैंने कहा,
"मिल जाएगा" वे बोले,
"ये ठीक रहेगा" मैंने कहा,
अब मैं उठा,
और वापिस अपने कक्ष में आया! फिर गया वहाँ से अनुष्का के कक्ष में! दस्तक दी, दरवाज़ा खुला और मैं सीधा अंदर गया!
बैठा!
"ये लो" मैंने कहा,
ये उसका फ़ोन था, मैंने अपना एक नंबर डाल दिया था उसमे, ताकि वो और मैं बात कर सकें एक दूसरे से, या कोई आवश्यकता हो उसको तो, इसीलिए दिया था!
उसने रख लिया!
"आज मैं जांचूंगा कि क्या हो रहा है उधर" मैंने कहा,
"ठीक है" उसने कहा,
"कुछ खाना-पीना है क्या?" मैंने पूछा,
"अभी भूख नहीं है" उसने कहा,
"लगे तो बता देना मुझे" मैंने कहा,
'हाँ" वो बोली,
मैंने पानी पिया वहाँ रखा,
और फिर बैठ गया!
कुछ सोचा!
"दिल्ली चलोगी मेरे साथ?" मैंने पूछा,
"कब?" उसने कहा,
"यहाँ से तुमको मुक्त करा दूँ, उसके बाद" मैंने कहा,
"हाँ, चलूंगी" वो बोली,
"ठीक है, वहीँ पढ़ना-लिखना फिर" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
"ले चलूँगा" मैंने कहा,
अब कमर पीछे लगायी मैंने,
और अंगड़ाई ली!
"अनुष्का?" मैंने कहा,
उसने देखा मुझे!
"दिल्ली ले जा रहा हूँ तुमको, जानती हो क्यों?" मैंने पूछा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"सच कहूं?" मैंने कहा,
"हाँ, सच कहो" उसने कहा,
"मुझे लगाव हो गया है तुमसे, पता नहीं कैसे? मैं चाहता हूँ मेरी नज़रों में रहो तुम, जब तक तुम खुद क़ाबिल नहीं हो जातीं" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी!
"मुझे भी लगाव हो गया है आपसे, कौन करता है किसी के लिए इतना?" उसने पूछा,
"ऐसा मैंने कुछ भी नहीं किया, मुझ से तुम्हारा दुःख देखा नहीं गया, बस" मैंने कहा,
"लगाव कहते हैं इसको?" उसने सवाल दाग़ा!
"मुझे तो लगता है" मैंने कहा,
वो फिर से मुस्कुरायी!
"तुम हंसी-ख़ुशी रहोगी तो मुझे सुकून मिलेगा" मैंने कहा,
"सच में?" उसने पूछा,
"सच में" मैंने कहा,
फिर से मुस्कुरायी!
"तुम्हे दूर रखता तो एक आँख वहीँ रहती सदा और एक पाँव भी, कभी वहाँ कभी दिल्ली!" मैंने कहा,
फिर से मुस्कुरायी!
"मेरी इतनी चिंता क्यों कर रहे हो आप?" उसने पूछा,
ये कैसा सवाल?
पल में कड़वा और पल में मीठा?
क्या जवाब दूँ?
क्या हो सकता है इसका जवाब?
"बताइये?" उसने फिर से सवाल उछाला,
"बहुत छोटी हो मुझसे तुम! बहुत छोटी!" मैंने सटीक उत्तर दे दिया!
इस से सटीक कोई उत्तर नहीं था मेरे पास!
आँखें नीचे कर लीं उसने!
मैंने भी नहीं देखा,
सामने दीवार पर लटके चित्र को देखा, पानी भरते औरतें! और सर पर रखती हुईं अपने मटकों को!
फिर मैं उठा!
"अब चलता हूँ मैं" मैंने कहा,
वो भी खड़ी हुई,
दुपट्टा ढलका,
उसने सही किया,
फिर से ढलका,
अब मैंने सही किया,
फंसा दिया गले की किनारी सी!
उसने उस समय मेरे हाथ को देखा!
मैं अंदर ही अंदर जमा!
हिम जैसा जमा!
मैंने हाथ हटा लिया!
कोई उल्लंघन न हो इसलिए!
"चलो, आराम करो अब तुम" मैंने कहा,
और मैं मुड़ा,
मुड़ा तो मेरा कन्धा पकड़ा उसने!
मैं रुका,
उसको देखा,
लिपट गयी मुझसे!
ये क्या?
मैं सहम गया,
डर गया,
चौंक पड़ा,
किंकर्तव्यविमूढ़ सादृश!
मैंने हटाने की कोशिश की उसे,
नहीं हटी!
वृक्ष पर लिपटी शाख सी वो!
और मैं वो वृक्ष!
जिसकी शाखें मुड़ भी नहीं सकतीं!
मैं खड़ा रहा,
वैसा का वैसा ही,
नहीं आलिंगन में लिया उसको!
ये गलत था!
वो कच्ची मिट्टी थी,
ढाली जा सकती थी किसी भी तरह, फिर थोड़ा सा ताप और वो पक्की हो जाती तपकर! ऐसा सम्भव था!
लेकिन नहीं!
नहीं!
गलत!
बहुत गलत!
तभी!
तभी उसके आंसुओं से मेरी कमीज़ गीली हुई,
मैंने देखा,
वो रो रही थी,
मैंने उठाया चेहरा उसका!
आँखों में लबालब आंसू!
मैंने आंसू पोंछे उसके!
आँखों से आँखें मिलीं,
उसके होठों पर छलकते हुए आंसू पींछे मैंने,
नाक के पास से भी,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
फिर से रोई,
"क्या हुआ अनुष्का?'' मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं!
उसके चेहरे पर मेरी ऊँगली रखी ऐसी दिखी जैसे सोने में लोहे का टांका! मैंने हटाया उसको! वो हटी!
मैं बैठा!
उसको बिठाया!
"क्या बात है?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" उसने कहा,
"कोई है ऐसी बात जो तुमको साल रही है अनुष्का, मुझे बताओ कि क्या है वो बात?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" उसने कहा,
तक़िया-कलाम!
मैं मुस्कुराया!
"ये वही लड़की है, जिसने वो फल मारे थे फेंक कर?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुरायी!
"देखो! कितनी अच्छी लगती हो मुस्कुराते हुए तुम!" मैंने कहा,
फिर से हलकी सी मुस्कुराहट!
"मुस्कुराती रहा करो हमेशा!" मैंने कहा,
फिर से देखा मुझे,
अपलक!
"ऐसे मत देखा करो!" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा, संयत होते हुए,
"नहीं, ऐसे नहीं" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने मेरी भुजा थामते हुए पूछा,
"मैं डोलने लगता हूँ, अन्तर्द्वन्द में उलझ जाता हूँ" मैंने सच कहा,
वो हंसी!
"सच कहता हूँ!" मैंने कहा,
"कैसा अंतर्द्वंद?" उसने पूछा,
"तुम नहीं समझोगी" मैंने कहा,
"समझा नहीं सकते?" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"तो ख़तम हुआ न अंतर्द्वंद?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"और बढ़ गया!" मैंने कहा,
उसे क्या पता!
