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वर्ष २०११ कोलकाता की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सिसकी ली उसने!

"मुझे भी दुखी करती हो, जब जाऊँगा तो तुम्हारी ही चिंता रहेगी मुझे, ऐसा न किया करो, रोया नहीं करो" मैंने कहा,

एक और सिसकी!

अब नहीं रहा गया मुझसे!

मैंने उसको गले में हाथ डाल कर अपनी छाती से लगा लिया,

लगते ही खुल के आंसू निकल आये!

जितना निकल जाएँ उतना अच्छा!

नहीं तो अवसाद बन जाया करते हैं ये आंसू!

पारे से भी भारी हो जाया करते हैं!

बहुत वजन होता है इनमे!

हटाया मैंने उसे!

आंसू पोंछे!

"मत रोया करो अनुष्का, मुझे दुःख होता है बहुत" मैंने कहा,

फिर से गरदन हिलाकर हाँ कहा,

"अब नहीं रोना" मैंने कहा,

फिर से हाँ, गरदन हिलाकर!

"अब चलूँगा मैं" मैंने कहा,

झट से हाथ पकड़ा मेरा उसने!

"मैंने कहा न, नहीं घबराओ" मैंने कहा,

उसने देखा मुझे!

"मत डरो!" मैंने कहा,

नहीं छोड़ा हाथ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अनुष्का?" मैंने कहा,

नहीं छोड़ा अब भी!

"सुनो, जब से तुम मेरे साथ हो, मुझ पर देख लगी है, दो बार, मैंने आज पता करना है कि कौन देख रहा है, कौन ढूंढ रहा है, अब समझो तुम" मैंने कहा,

हाथ ढीला किया!

लेकिन घबरा गयी!

मैं जान गया लेकिन!

"यहाँ तक कोई नहीं पहुँच पायेगा! निश्चिन्त रहो!" मैंने कहा,

अब मैं खड़ा हुआ,

वो भी खड़ी हुई!

समझ गयी थी!

"अब चलूँगा मैं" मैंने कहा,

मैं चलने लगा वापिस,

वो भी चली!

"शाम को बात करता हूँ" मैंने कहा,

चुप!

"अब कुछ कहो तो सही?" मैंने कहा,

कुछ नहीं कहा,

तेज क़दमों से वापिस चली गयी!

बड़ी मुसीबत थी!

समझाऊं तो क्या?

न समझाऊं तो क्या?

खैर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं लौट पड़ा वहाँ से!

वापिस हुआ!

और फिर सीधे शर्मा जी के पास पहुंचा,

बताया उन्हें अनुष्का के बारे में!

"ठीक है न वो?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"चलो ठीक है" वे बोले,

"शर्मा जी?" मैंने कहा,

"जी?" वे बोले,

"आज मैं देखूंगा कि कौन देख लड़ा रहा है हम पर" मैंने कहा,

"देख लीजिये" वे बोले,

"हाँ, ये ज़रूरी है" मैंने कहा,

फिर कुछ देर आराम!

हाँ,

थोड़ा परेशान था मैं, अनुष्का के लिए,

लाजमी था परेशान होना,

सोचा बहुत!

कुछ माना और कुछ दरकिनार किया!

फिर हुई शाम!

और फिर रात घिरी!

हम हुए तैयार!

अपनी महफ़िल सजाने के लिए,

सामान आदि लाये और फिर बैठे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जमा ली महफ़िल!

तभी फ़ोन बजा!

ये अनुष्का का था!

मैंने उठाया फ़ोन,

"अनुष्का?" मैंने कहा,

"हाँ" वो बोली,

"कैसी हो?" मैंने पूछा,

"ठीक हूँ" वो बोली,

गुस्से में थी!

पक्का गुस्से में थी!

"गुस्सा हो?" मैंने पूछा,

हंसी! हलकी सी!

"मैं कौन होती हूँ गुस्सा करने वाली?" उसने कहा,

मैं सुना,

सुनते ही मेरे दिल में दरार पड़ गयीं!

असंख्य दरार!

"ऐसा क्यों बोलती हो तुम?" मैंने पूछा,

"मैंने गलत कहा क्या?'' उसने कहा,

"हाँ, बहुत गलत" मैंने कहा,

"क्या गलत?" उसने पूछा,

"बहुत गलत" मैंने कहा,

"क्या गलत?" उसने पूछा,

"बहुत गलत" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या? क्या गलत?" उसने कहा,

"ऐसा क्यों कहा तुमने?" मैंने पूछा,

"सच नहीं कहा क्या?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"जो सच है मैंने कहा" उसने कहा,

"अब मत कहना" मैंने कहा,

फिर से हंसी! हल्की सी हंसी!

कुछ पल शान्ति!

"क्या कर रहे हो?" उसने पूछा,

"वही" मैंने कहा,

"सुरूर?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"बनाइये" उसने कहा,

"सुनो, सुबह करता हूँ बात" मैंने कहा,

"आओगे नहीं?" उसने पूछा,

फिर से मची खलबली!

फिर से खायी खुली!

"हाँ, जाने से पहले मिलूंगा" मैंने कहा,

"ठीक है" वो बोली,

और फ़ोन कटा!

अब हम हुए शुरू!

आनद लिया मदिरा का!

और फिर करीब दो घंटे के बाद हम फारिग हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं चला क्रिया-स्थल की तरफ!

वहाँ पहुंचा!

बैठा,

नमन किया!

और डामरी खींची!

देख लड़ाई!

देख टकरायी!

मैं जान गया!

ये आयी थी वहीँ से!

वहीँ हरिद्वार से!

अब मैंने अपना कारिंदा हाज़िर किया! कारिंदा हाज़िर हुआ! और फिर वो रवाना हुआ खोज करने को! उड़ गया मेरा खोजी!

करीब दस मिनट में पहुँच गया वापिस!

बिंदेश्वर!

बिंदेश्वर बाबा ने लगायी थी ये देख!

वो मुझे जान गया था इस से और मैं उसको!

अब!

अब होना था टकराव! टकराव कैसा होगा! ये मात्र भविष्य ही जानता था! हां, मैंने कल बात करनी थी अनुष्का से, क्या पता उसको पता हो? मदद मिल सकती थी!

 

अब मैं उठा वहाँ से!

चला आया वापिस!

शर्मा जी के पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आया, तो सब बता दिया उनको!

"अच्छा! तो हरिद्वार से लगी है देख!" वे बोले,

""हाँ!" मैंने कहा,

"चलो, इनको भी देखते हैं" वे बोले,

"देखना ही पड़ेगा!" मैंने कहा,

"हाँ, तभी पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगी वो लड़की!" वे बोले,

"ये तो है ही!" मैंने कहा,

अब मैं लेटा,

और फिर वे भी लेटे,

और हम सो गये!

नींद आ गयी फौरन ही!

सुबह हुई!

नहाये-धोये, जैसे ही मैं वस्त्र पहनने लगा कि फिर से देख लड़ी! मैंने डामरी चलायी और देख रोकी! अब तो बढ़ती ही जा रही थी ये देख! लाजमी था, अनुष्का भी चपेट में ही हो इसके, नहीं तो कोई प्रेत-बाधा ही करा दें? तब तो मुसीबत हो जायेगी, अब क्या किया जाए? दिमाग जाम हो गया! साथ रखने में परेशानी थी, कहाँ कहाँ छोड़ता मैं उसको? चलो मैं तो खानाबदोश सही लेकिन वो कहाँ कहाँ भटकेगी? मुंह से नहीं कहेगी, मैं जानता हूँ, लेकिन ये मुनासिब नहीं, क्या किया जाए?

तभी एक विचार कौंधा!

उसको क्रिया द्वारा सुरक्षित किया जाए! ये सही रहेगा! लड़की उनके लिए तो गयी, हाथ आये तो ठीक नहीं तो उसका अहित तो करने की सोचेंगे ही वो!

मैं बाहर गया, अनार की एक डंडी तोड़ी और उसको लेकर शीघ्रता से क्रिया-स्थल में पहुंचा, एक मंत्र पढ़ा और उस लकड़ी को अभिमंत्रित किया, फिर एक काले रंग के धागे से उसको ढक कर एक धागे का रूप दे दिया, ये रक्षा-सूत्र बन गया था, अब ये हाथ में बांधना था उसके!

ग्यारह बजे करीब मैं सीधा पहुंचा अनुष्का से मिलने, बिना फोन किये, उसको बुलाया गया, वो मुझे देख हैरान हुई और फिर मुस्कुरायी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,

और मैं उसको एक खाली जगह पर ले गया,

"हाथ आगे करो अपना बायां" मैंने कहा,

उसने किया,

अब मैंने उसके हाथ में वो धागा बाँध दिया!

एक चिंता ख़तम!

अब किसी भी बाधा से दूर थी वो!

"ये किसलिए?" उसने पूछा,

"सुरक्षा के लिए" मैंने कहा,

"ओह!" उसने कहा,

"आइये मेरे साथ" वो बोली,

मुझे वहीँ, उसी किताबघर ले गयी!

हम बैठे वहाँ,

"आज मैं जाऊँगा यहाँ से" मैंने कहा,

जैसे कोई कली कुम्हलाई!

"मुझे जाना ही होगा, तुम्हारे लिए" मैंने कहा,

और अब उसको सारी बात बताई मैंने!

"चिंता नहीं करना, मैं लौटूंगा! वापिस तुम्हारे पास!" मैंने कहा,

"मैं चलूँ?" उसने धीमे से कहा,

मैं मुस्कुराया,

"कहाँ चलोगी?" मैंने पूछा,

"जहां आप जाओगे" उसने कहा,

"नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्यों?" उसने पूछा,

"मैं पता नहीं कहाँ कहाँ जाऊँगा, रात-बेरात कहाँ कहाँ रुकुंगा, कुछ पता नहीं, इसलिए" मैंने कहा,

"मैं रह लूंगी" उसने कहा,

भोला चेहरा!

अप्रत्याशित उत्तर ढूंढती हुईं आँखें!

"नहीं" मैंने कहा,

अपना दुपट्टा अपने होठों के बीच लिया उसने,

होंठ भींचे उसने,

वो गीला हुआ,

मैंने खींच लिया,

नाक और होंठ के बीच पसीने छलछला गए!

मैंने दुपट्टे से साफ़ किये!

"मैं लौटूंगा, ज़रूर लौटूंगा!" मैंने कहा,

मुझे देखा,

और मेरा जैसे वाष्पीकरण हुआ उन आँखों की उन नज़रों से!

मिला कर नहीं रख सका,

हटा लीं आँखें,

हिम्मत जवाब दे गयी मेरी!

मैंने कनखियों से देखा,

वही नज़रें,

वही अपलक आँखें,

मैंने फिर से देखा,

आँखों में फिर से नन्ही नन्ही बूँदें छलकीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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आंसू बनीं,

और गालों पर लुढ़कीं,

ह्रदय विदीर्ण हो गया,

सूराख हो गए,

गुजरती हवा दुःख देने लगी,

सांस भारी हो गयी,

"अनुष्का? मैंने कहा न? मत रोया करो?" मैंने दुपट्टे से आँखें पोंछते हुए कहा,

और फिर,

फिर,

फिर उसने मेरी छाती से सर लगा दिया,

उसके केश मेरे नथुनो से टकरा गए,

अब मैंने उसको उसकी कमर से हाथ डालकर लगाया सीने से,

वो सुबके,

और मैं पिघलूँ,

मोम की मानिंद!

अकेलापन!

सबसे बड़ा शत्रु!

अपना ही सबसे बड़ा शत्रु!

मैं जानता हूँ!

बस उसको यक़ीन दिलाने में लगा था कि वो अकेली नहीं है!

मैं हूँ साथ में!

"अनुष्का?" मैंने कहा,

कुछ नहीं बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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न ही हटी!

"सुनो, चिंता न करो, कुछ नहीं होगा, अपना दुःख ख़तम समझो, कोई नहीं ले जा सकता तुमको कहीं भी, जब तक मैं बैठा हूँ, कोई नहीं!" मैंने कहा,

"मुझे साथ ले चलो, मैं नहीं रह सकती" वो बोली,

दुविधा!

अब क्या करूँ?

"ले जाता हूँ, उसके बाद?" मैंने कहा,

वो हटी!

नम आँखों से मुझे देखे!

"नहीं समझीं?" मैंने पूछा,

गरदन हिलाकर न कहा!

"ले जाता हूँ, काम ख़तम भी हो जाएगा, कोई नहीं आएगा तुम्हारे रास्ते में, उसके बाद? यहाँ नहीं रहोगी?" मैंने पूछा,

"तब रह लूंगी" उसने कहा,

भय!

उसको भय था!

मेरे साथ उसको सरंक्षण मिलता था!

भय मिट जाता था!

अब समझा मैं!

"ठीक है, ले चलता हूँ" मैंने कहा,

"कहाँ जायेंगे?" उसने पूछा,

"हरिद्वार!" मैंने कहा,

वो चौंकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"डर गयीं?" मैंने पूछा,

नहीं! गरदन हिलाकर!

"चलो फिर!" मैंने कहा,

खुश हो गयी!

जैसे चाबी वाले खिलौने में चाबी भर दी जाए तो बालक खुश हो जाता है!

"चलो!" मैंने कहा,

मैं सीधा विमला जी के पास गया,

सारी बात बतायी,

और फिर मैं उसको लेकर चल दिया अपने डेरे पर!

वहाँ पहुंचा,

और अपने कक्ष में लाया,

शर्मा जी से नमस्कार की उसने!

शर्मा जी ने हाल-चाल पूछा!

उसके बाद मैंने शर्मा जी को बताया कि हम चलेंगे यहाँ से वापिस हरिद्वार! वे भी तैयार हो गए! भोजन किया और उसके बाद आराम! गाड़ी रात की थी!

कक्ष करवा ही दिया था मैंने उसके लिए!

शाम हुई!

मैं पहुंचा अनुष्का के कमरे की ओर!

दरवाज़ा खटखटाया!

दरवाज़ा खुला!

सामने ही खड़ी थी!

मैं अंदर बैठा,

उसको भी बिठाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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किताब पढ़ रही थी कोई!

मैंने देखा तो ये कोई प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में थी! मेरे समझ नहीं आया कुछ भी, रख दी जस की तस!

"रात को जाना है न?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"ठीक है" वो बोली,

"सो मत जाना, गाड़ी में ही सो जाना!" मैंने कहा,

"नहीं नहीं!" वो बोली और हंसी!

"कितनी अच्छी लगती हो हंसते हुए!" मैंने कहा,

"अच्छा?" उसने पूछा,

"हाँ! हंसती रहा करो!" मैंने कहा,

"ऐसे ही?" उसने पूछा,

"हाँ, ऐसे ही!" मैंने कहा,

वो फिर हंसी!

मैं भी मुस्कुराया!

"कुछ खाओगी?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"भूख नहीं?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

और तभी उसका फ़ोन बजा!

उसने देखा,

चौंकी!

ये किशन का फ़ोन था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फ़ोन मैंने लिया हाथ में!

चालू किया!

"कौन?" मैंने पूछा,

"तुम कौन?" उसने पूछा,

"वही जो ले गया था अनुष्का को" मैंने कहा,

"लड़की कहाँ है?" उसने पूछा,

"मेरे पास" मैंने कहा,

"मेरी बात कराओ" उसने कहा,

"भाड़ में जा!" मैंने कहा,

"अच्छा नहीं होगा ये..." वो बोला और पीछे से आवाज़ गूंजी 'मुझे दो' और फ़ोन किसी और ने ले लिया हाथ में,

"कौन?" उसने पूछा,

"किशन से पूछ ले" मैंने कहा,

"अच्छा वही" वो बोला,

"हाँ वही" मैंने कहा,

"लड़की कहाँ है?" उसने पूछा,

"मेरे पास! बाबा बिंदेश्वर!" मैंने कहा,

वो चौंका!

हंसा!

"आराम से मानेगा या फिर खेल दिखाना पड़ेगा!" उसने कहा,

"खेल दिखाता है तू? वाह! आ रहा हूँ वहीँ खेल देखने! कल आता हूँ वहाँ!" मैंने कहा,

"आजा चल!" वो बोला,

फ़ोन कट गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खेल शुरू होने वाला था!

अब हुई शाम!

घिरी रात!

हुड़क लगी!

क्या किया जाए?

अनुष्का यहाँ है!

पहले बात की जाए!

मैं गया उसके पास!

दरवाज़ा बंद था, खटखटाया, खुला, सामने खड़ी थी अनुष्का! प्याजी रंग के सूट-सलवार में अभूत सुंदर लग रही थी! आँखें ऐसी सुंदर कि पूछो मत! सच में, बहुत सुंदर है वो! मैं अंदर चला गया,

बैठा!

उसको भी बिठाया!

बैठ गयी!

"आज तो सुंदर लग रही हो बहुत!" मैंने कहा,

"आपकी पसंद का सूट है न!" उसने जवाब दिया!

मैं मुस्कुरा गया!

"अच्छा सुनो, हम वो ज़रा....ज़रा....." मैंने कहा,

"वो ज़रा सुरूर?" उसने कहा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"मैं समझ गयी थी!" उसने कहा,

"तो फिर मैं खाना भिजवाता हूँ, खा लो अभी" मैंने कहा,

उसने सर हिलाकर हाँ कहा,


   
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