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वर्ष २०११ कोलकाता की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वर्ष २०११ कोलकाता की एक घटना दोपहर का वक़्त था, मौसम बहुत बढ़िया था उस दिन, न सर्दी ही और न गर्मी ही! मैं और शर्म अजी भोजन कर के आ रहे थे उस समय, कोई आयोजन था वो और सभी इकट्ठे हुए थे वहाँ! बहुत लोग थे, मेरे चित-परिचित और कुछ नए भी, कइयों से मित्रता हुई थी, अपने अपने कार्य-क्षेत्र के बारे में बातें हुईं थीं! भोजन कर लिया था, अब मैं और शर्मा जी एक खुले स्थान पर बिछी दरी पर आ बैठे थे, हवा शीतल थी, आँख बंद करो तो नींद का झटका आये, ऐसी! जिस जगह हम बैठे थे वो जगह भी बहुत खूबसूरत थी, हरी घास और पेड़ पौधे! फूल डालों पर झूल रहे थे! तितलियों में जैसे भगदड़ सी मची थी! कि कौन पहले किस फूल पर बैठे! पक्षी अपने अपने स्वर में गा रहे थे! गिलहरियां उछल-कूद रही थीं! बर्रे और भौंरे अपना अपना स्थान त्याग कर दूसरे के फूल पर ज़ोर-ज़बरदस्ती करते थे! हम लेट गये थे! अपने अपने रुमाल अपने चेहरे से ढक कर! मदहोशी सी आने लगी थी! कोई आधा घंटा बीता होगा कि मुझे कुछ हंसने की आवाज़ें आयीं, मैंने रुमाल हटाया तो देखा मेरे दाईं तरफ कुछ लडकियां बैठी थीं, नव-यौवनाएं! वहीँ हंसी-ठठोली में मस्त थीं, मैंने फिर से रुमाल रख लिया चेहरे पर और फिर से आँखें बंद कर लीं!

आँख लगी!

और नींद आ गयी!

शर्मा जी भी सो गए थे!

मैंने करवट बदली, ताकि उनकी हंसी से नींद में ख़लल न पड़े! और फिर से सो गया!

करीब घंटा बीत गया!

मैं उठ गया!

वो नव-यौवनाएं अब जा चुकी थीं वहाँ से! मैंने अब शर्मा जी को उठाया, वे उठे और हम अपने कक्ष की ओर चले!

वहाँ पहुंचे,

और कक्ष खोला,

और फिर से सो गए!

बदन बोझिल था बहुत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाते ही बिस्तर पर गिरे और सो गए!

जब आँख खुली तो तीन घंटे बीत चुके थे!

मैंने शर्मा जी को जगाया,

वे जागे,

"आओ, चाय पीने चलते हैं" मैंने कहा,

"चलिए" वे जम्हाई लेते हुए बोले,

मैंने जूते पहने और चल दिए बाहर वहाँ से!

चाय ली और चाय पी,

वहाँ और भी लोग थे! काफी लोग!

हम वापिस चले,

वहीँ एक छोटी सी बगिया में बैठ गए हम! हवा बढ़िया थी, मौसम अच्छा था, घटाएं छायी हुईं थीं, कभी भी बारिश हो सकती थी, सम्भावना थी ऐसी! और अगर न बरसे, तो न बरसे!

बहुत देर बैठे वहाँ हम,

और फिर चले,

हम एक गलियारे से होकर गुजर रहे थे, कि तभी एक दरवाज़े से कोई सामने आ गया, मैं टकरा गया उस से, ये एक लड़की थी, गिर गयी थी, उसको उठाया मैंने,

"क्षमा कीजिये" मैंने कहा,

उसने काटने वाली निगाह से मुझे देखा,

फिर खुद को झाड़ा उसने,

तभी कमरे से एक औरत बाहर आयी,

उसने मुझे देखा,

गुस्से से!

"गलती हो गयी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"देख के तो चला करो?" वो बोली,

''अचानक से सामने आ गयी ये" मैंने कहा,

"हूँ?" उसने बोला ऐसे,

और मैं आगे चल पड़ा,

"बताओ जी, देखके खुद नहीं चलते और डांट हमे रही है!" वे बोले,

"ऐसा ही होता है, छोडो खैर!" मैंने कहा,

हम अपने कमरे में आ गए!

उस रात हमने आनंद उठाया मदिरा का, अभी आयोजन में और शेष सात-आठ दिन थे! यही क्रिया-कलाप था!

अगले दिन की बात है,

हम वहीँ कोई ग्यारह बजे उसी जगह जा बैठे जहां हम आराम से दरी पर लेटे थे, भोजन करने में अभी देर थी!

हम लेट गए!

बारिश नहीं हुई थी, हाँ, घटाएं बनी हुई थीं!

रुमाल अपने चेहरों पर ढक लिया और बातें करते रहे,

तभी,

तभी मेरे रुमाल से कुछ टकराया,

मैंने रुमाल हटाया,

देखा तो ये निबौरी जैसा कुछ था, किसी जंगली पेड़ का फल!

अब सर के ऊपर तो कोई पेड़ था नहीं ऐसा?

फिर ये कहाँ से आया?

किसी पक्षी के मुंह से गिरा क्या?

तभी मुझे हंसने की आवाज़ आयी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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दायें-बाएं देखा तो कोई नहीं था,

सामने भी कोई नहीं,

मैंने फिर अपने सर के पीछे देखा,

कुछ नव-यौवनाएं जा रही थीं!

क्या उन्होंने मारा?

नहीं!

वो क्यों मारेंगी?

खैर जी,

लेट गया मैं फिर से!

कुछ देर बाद हम भोजन करने के लिए चले गए!

भोजन किया और वापिस आये!

वहीँ उसी गलियारे से होकर गुजरे,

वहीँ दरवाज़ा आया,

और देखिये, फिर से वही लड़की बाहर आयी!

इस बार मैं रुक गया था!

हमारी नज़रें मिलीं!

उसने कड़वी सी निगाह से मुझे देखा,

और चली गयी पाँव पटकते हुए!

हम आगे बढ़ गए!

"हो जाती टक्कर!" मैंने हंस कर कहा,

"हाँ, देख रहा था मैं!" वे बोले,

हम फिर से अपने कक्ष में आ गए!

आये तो आराम किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और सो गए!

कोई और काम था नहीं,

खाओ, पियो और सो जाओ!

बस!

चार बजे करीब चाय की हुड़क लगी!

हम चले चाय पीने!

वहाँ गए तो चाय ले ली!

सामने देखा तो वही लड़की खड़ी थी!

नज़रें मिलीं!

उसने घूरा!

सिलेटी रंग के कुर्ते और सलवार में! बाल बाँध रखे थे उसने! कद-काठी अच्छी थी उसकी! रंग भी गेंहुआ था, नैन-नक्श भी तीखे ही थे! मैंने सोचा कहीं अंट-शंट न सोचे तो मैं घूम कर खड़ा हो गया!

अब चाय ख़तम की, और कप रखा वहाँ, और चले वहाँ से! तभी वो लड़की धड़धड़ाते हुए हमसे आगे निकल गयी! पीछे देखते हुए!

"ये वही है न?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

हम चले वापिस अपने कमरे की ओर!

फिर से वही गलियारा!

और वही कमरा!

मैं जैसे ही गुजरा, मेरे पाँव पर पानी आकर गिरा! किसी ने फेंका था बाहर! मैं रुक गया! ये वही लड़की थी!

नज़रें मिलीं!

वो हंसी!

मुझे गुस्सा आया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर जज़्ब किया!

और आगे बढ़ गया!

"अब किसकी गलती?" वे बोले,

"छोड़िये!" मैंने कहा,

फिर रात हुई और फिर से वही सब!

अगला दिन!

सुबह सुबह की बात होगी, हम नहा-धोकर घूमने निकले बाहर, वहीँ पहुंचे, वहाँ वही लड़की बैठी थी! अपनी सखियों के साथ!

मैंने देखा,

"यहाँ नहीं" मैंने कहा,

"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"पीछे देखो" मैंने कहा,

उन्होंने देखा,

"तो क्या हुआ?" वे बोले,

खैर,

बैठ गए हम!

मैं कमर उसकी तरफ घुमा कर बैठ गया!

हम बातें करते रहे!

और तभी मेरी कमर पर कल जैसा ही फल आके लगा!

मैंने उठाया,

वैसा ही फल!

मैंने पीछे देखा,

उसने भी देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर फल मैंने वहीँ फेंक दिया!

अब समझ आया कि कल किसने फेंका था!

और तभी वो लड़की हमारे पास से गुजरी धीरे धीरे चलते हुए! मेरे कंधे पर फिर से वो फल मारते हुए!

मुझे हंसी आ गयी!

अल्हड़ता पर उसकी, हंसी आ गयी!

"पागल लड़की!" मैंने कहा,

शर्मा जी भी हंसने लगे!

हम उठे और फिर अपने कक्ष में आ गए!

थोड़ी देर लेटे, बातें कीं,

फिर हुई दोपहर!

भोजन करने चले हम!

भोजन किया!

और वापिस आये,

चार बजे करीब हम चाय पीने चले!

वहाँ पहुंचे,

वो भी वहीँ थी!

मुझसे नज़रें मिली!

मुंह पर हाथ रखकर हंसी और पीछे मुड़ गयी!

चलो लूत कटी!

हमने चाय ली, और बैठ गए वहीँ!

मेरी बायीं ओर वो बैठी थी, एक लड़की के साथ!

चाय पी हमने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम चले बाहर!

तभी वे दोनों भी, हमारे साथ से निकलीं, और आगे हो गयीं!

"जाने दो इनको पहले!" मैंने कहा,

हम रुक गए!

आगे जाकर रास्ता मुड़ता था, वो दायें मुड़ गयीं!

अब हम चले!

वहीँ गलियारा और फिर से वही कक्ष!

मैं रुका,

आराम से आगे बढ़ा!

उस से नज़रें मिलीं, वो एक कुर्सी पर बैठी थी!

हम आये आगे और पीछे से हंसी आयी!

मुझे भी हंसी आ गयी!

खैर, हम आ गए अपने कक्ष में!

 

फिर से रात और फिर से वही सब!

हुई सुबह अब!

नहा-धोकर हम पहुंचे वहीं!

देखा तो वो भी वहीँ थी!

अब सोचा कि यहाँ नहीं बैठा जाए, कहीं और चला जाए! तो हम थोड़ा दूर जाकर बैठ गए! वहाँ जा बैठे! और बातें करनी शुरू कीं,

अचानक से,

फिर से वही फल गिरा!

अब मैंने वहीँ देखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों हंस रही थीं!

मैं उठा!

और चला उनकी तरफ वो फल लेकर!

वहाँ पहुंचा,

दोनों ही हंस रही थीं!

"ये किसने फेंका है?" मैंने पूछा,

"मैंने" वही लड़की बोली,

"क्यों फेंका है?" मैंने उसी से पूछा,

"मेरी मर्जी" वो बोली,

"ये कैसी मर्जी है?" मैंने पूछा,

फिर से हंस पड़ी!

"जवाब दो?" मैंने पूछा,

कोई जवाब नहीं!

नाक पर हाथ रख कर हंसती रही!

"मैं शिकायत करूँगा तुम्हारी माता जी से" मैंने कहा,

"वो मेरी माता नहीं हैं" वो बोली,

मैं कौन सा जाने वाला था वहाँ! बस डराया था!

वो फिर से हंस पड़ी!

"ये अच्छा लगता है?" मैंने पूछा,

फिर से हंसी!

"अब नहीं करना" मैंने कहा, और वो फल वहीँ गिरा दिया,

और चला आया वापिस!

फिर से बैठा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी ने पूछा तो मैंने बता दिया उनको!

कोई दस मिनट बीते!

फिर से वही फल गिरा!

मैंने फल उठाया,

और उसको देखा,

वो हंस रही थीं दोनों!

अब मैंने वो फल उनकी तरफ फेंक दिया!

उसने उठाया, और मेरी तरफ फेंक दिया!

हद हो गयी!

"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,

हम उठे,

और चल पड़े वापिस!

पीछे से कई फल फेंके उन्होंने!

अब कोई क्या कहे इसको?

अल्हड़ता? हाँ यही!

क्या कहता मैं उसको!

चुपचाप आ गया वापिस!

हम बैठे अपने कमरे में!

दरवाज़ा खुला था ही!

वे वहाँ से गुजरीं और कई फल अंदर फेंक दिए!

मेरी और शर्मा जी की हंसी छूट पड़ी!

मैं भागा बाहर!

उनको देखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो खड़ी हुई थीं!

मुझे देखा दौड़ लगा दी!

मुझे भी हंसी आ गयी!

अब वे फल मैंने बाहर फेंक दिए! सभी के सभी!

दोपहर में भोजन किया!

और फिर आराम!

फिर चार बजे चाय पीने गये!

वे दोनों वहीँ थीं! जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रही हों! हंसने लगीं!

न चाहते हुए भी मुझे भी हंसी आ गयी!

हम बैठ गए, चाय आ गयी! हम चाय पीने लगे!

वे हमे देखते रहीं और मैं उसको!

फिर एक पल मेरी उस से आँखें भिड़ीं! मैंने देखा, ये शरारत नहीं थी! ये एक गम्भीर भाव था! और था बहुत गलत! बहुत गलत!

मैंने हाथ के इशारे से उसको बुलाया,

वो घबरायी!

उसने वहीँ खड़े खड़े इशारे से पूछा कि मैं?

मैंने हाँ कहा, गरदन हिलाकर!

वो आ गयी हमारे पास!

बड़ी हिम्म्त दिखायी उसने!

"बैठो" मैंने कहा,

"आप कहिए?" उसने कहा,

"बैठो तो सही?" मैंने कहा,

"नहीं" वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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आसपास देखा,

किसी से डर रही थी वो!

:क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,

''अनुष्का" वो बोली,

"कहाँ से आयी हो?" मैंने पूछा,

"हरिद्वार से" उसने बताया,

"अच्छा! शुक्रिया!" मैंने कहा,

और वो चली गयी!

कनखियों से कभी कभी नज़र मिला लेती!

चाय खतम हुई! और हम चले अब! मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, मुझे पता था वो आ जाएंगी आगे हमारे!

लेकिन,

वो नहीं आयीं!

मैंने पीछे मुड़कर देखा!

वो पीठ करके खड़ी थी!

खैर,

हम अपने कमरे में आ गए!

आराम करने लगे!

संध्या हुई,

मैं पानी लेने बाहर गया,

वहीँ जहां चाय पीते थे हम,

देखा तो वो भी खड़ी थी!

नज़रें मिलीं तो मैं मुस्कुराया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी लिया और वापिस हुआ!

फिर से वही रात्रि का क्रिया-कलाप!

सुबह!

फिर से हम चले घूमने,

वे वहीँ थीं!

हम बैठ गए!

उसने देखा मुझे, मैंने भी,

उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की!

मैंने भी नमस्ते की!

और हम बैठ गए!

तभी अनुष्का आयी मेरे पास,

मैंने देखा,

"आओ अनुष्का, बैठो" मैंने कहा,

वो नहीं बैठी!

"आपका क्या नाम है?" उसने पूछा,

मैंने नाम बता दिया,

"कहाँ से आये हैं?" उसने पूछा,

"दिल्ली से" मैंने कहा,

"अच्छा!" वो बोली,

"किसके साथ आयी हो?" मैंने पूछा,

"अपनी मामी के साथ" वो बोली,

"अच्छा, और माता-पिता?" मैंने पूछा,

वो गम्भीर हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेरे माता-पिता का देहांत हो चुका है" वो बोली,

"ओह....क्षमा कीजिये" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं" वो बोली,

"कब तक हो यहाँ?" मैंने पूछा,

"हैं अभी, एक हफ्ते तक" वो बोली,

"अच्छा" मैंने कहा,

"बैठ जाओ?" मैंने कहा,

"नहीं बैठ सकती" वो बोली,

मैं समझ गया था, उसको मनाही थी किसी से बात करने की! सही भी था!

"पढ़ाई करती हो?" मैंने पूछा,

"हाँ, कर रही हूँ" वो बोली,

"बहुत अच्छा!" मैंने कहा,

कुछ पल शान्ति!

"जाओ अनुष्का, तुम्हारी सखी परेशान हो रही है" मैंने कहा,

उसने देखा,

और चली गयी!

वहीँ बैठ गयी जाकर!

"अपनी मामी के साथ रहती है" मैंने कहा,,

"हाँ, माँ-बाप नहीं हैं इसके, बेचारी" वे बोले,

दिल पसीजा उनका!

फिर हम उठे!

और चले वापिस!

हमारे चलते ही वो भी उठ गयीं दोनों! और आने लगी हमारे पीछे पीछे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम गलियारे में आये और अपने कक्ष में चले आये!

वे गुजरीं वहाँ से!

अनुष्का मुस्कुराते हुए चली गयी!

मैंने भी मुस्कुराया!

फिर हुई दोपहर!

 

और फिर बजे चार! हम चले चाय पीने के लिए!

वहाँ पहुंचे!

आज वो नहीं आयी थीं!

पता नहीं क्यों!

खैर, चाय पी हमने वहीँ बैठकर! और चले वहाँ से वापिस,

नहीं आयीं थी वो!

होगा कोई काम!

किसी ने शिकायत कर दी होगी,

देख लिया होगा हमसे बातें करते हुए!

फिर वही गलियारा,

और फिर से वही कक्ष!

आज दरवाज़ा बंद था कक्ष का!

हम आ गए अपने कमरे में!

फिर हुई रात!

और मैं गया पानी और कुछ सामान लेने!

जब वापिस आया तो अनुष्का आ रही थी! गुमसुम सी! मैं रुका, उसने मुझे देखा, मैंने उसको, उसने नमस्ते की, मैंने भी की,


   
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