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वर्ष २०११ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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कालकलिका!

कालकलिका!

एक महाशक्ति की प्रधान सहोदरी!

मित्रगण तैंतीस करोड़ की संख्या है जगत में, गिनेंगे तो उँगलियों पर आ जायेंगे आपके सब के सब! ये जो सहोदरियां हैं, ये भी उपदेवियां हैं! ये भी सम्मिलित हैं इन तैंतीस करोड़ में! इनका व्याख्यान इसीलिए नहीं मिलता क्योंकि कई इस तंत्र जगत से जुडी हुई हैं! श्री-महा औघड़ के जितने केश उतनी सहोदरियां इस संसार में विद्यमान हैं! जिनको मुख्य धारा से जोड़ दिया गया वो गिनती में आ गयीं, जिनको नहीं जोड़ा गया वो पृथक रहीं, लेकिन तंत्र नहीं भूला उन्हें! उनको साधक आज भी पूजते हैं!

उन्होंने में से एक है ये कालकलिका! जहां ये एक अनुपम सुंदरी है वहीँ महारौद्र, भीषण और महातामसिक है! चौंसठ उपसहोदरियों से सेवित हैं! एक एक उपसहोदरी इक्यासी इक्यासी उप-उपसहोदरियों से सेवित है! बौद्ध-तंत्र में इसका उल्लेख है, वहाँ इसको सहोदरी माना गया है! और तंत्र में भी!

कालकलिका की साधना चौंसठ दिन की है, इक्यावन बलिकर्म से पूजन है इसका! दैविक रूप में प्रकट हो दर्शन देती है, साधक के शरीर के साथ साथ प्राणों की भी की रक्षा करती है, शत्रु भेदन के लिए अमोघ और त्वरित है!

अब मैं उसके आह्वान में डट गया! “ह्रों ह्रों जू जू” से श्मशान छिद्रित हो गया उसी क्षण! मिट्टी से पठार उठने लगे! इतना प्रभाव है इसका!

वहाँ देख लड़ाई बैजू ने और उसको जैसे फालिज मारा! धम्म से नीछे गिरा वो अपने वृत्त में! दम्भी का दम्भ अभी भी न टूटा! वो चाहता तो मैं अभी भी आह्वान रोक सकता था, लेकिन नहीं! उसने तो जैसे मरना ही ठाना था! यही तो चाहता है दम्भ! इसके सर नहीं तो उसके सर! इस संसार में उसको कहीं भी आराम से आसरा मिल ही जाता है!

मैं अब गहन मंत्रोच्चार में डूबा!

बैजू की साँसें उखड़ने लगीं वहाँ!

मैंने अलख में ईंधन डाल और भड़का दिया, मेरी अलख ने ज़ोर पकड़ लिया! मैं तेजी से मंत्रोच्चार करने लगा! मेरी स्वास बढ़ने लगीं, ह्रदय तेज तेज धड़कने लगा! मैंने और ईंधन


   
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श्रीशः उपदंडक
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झोंका! अलख अपने चरम पर पहुंची! मंत्रोच्चार से मसान ने भी कन्नी काट ली! वो शांत हो छिप गया किसी कोने में!

वहाँ औघड़ कांपने लगे! लेकिन बैजू के कोप से बचने के लिए कांपते कांपते डटे रहे! क्या करते! उनको भी एक दम्भी का साथ देने के लिए दंड मिलने वाला था!

और तभी मेरी अलख एक ओर झुक गयी! वायु प्रवाह तीव्र हो गया अचानक से! शीतल वायु बहने लगी! समुद्र सा शोर उभरने लगा वहाँ! जैसे कोई झरना समीप ही गिर रहा हो रात्रि की शान्त चादर को फाड़ते हुए! मैं और गहन मंत्रोच्चार में डूबा! और गहन! तीव्र! और तीव्र!

और फिर अगले ही क्षण मेरा त्रिशूल लहरा के नीचे गिर गया!

मैं समझ गया!

कालकलिका का आगमन बस किसी भी पल होने को है!

वो प्रकट होती और प्रेषित हो जाता बैजू के खेल के अंत का सन्देश!

कुछ ही पल के उपरान्त!

कालकलिका अट्ठहास लगाती हुई वहाँ प्रकट हो गयी! उसकी सहोदरियां और सेवक सभी अट्ठहास लगा रहे थे! कानफोड़ू शोर था वो!

बैजू! तेरा खेल ख़तम!

किसी भी क्षण!

हरे-नीले प्रकाश में लिपटी कालकलिका सच में ही काल का अवतरण लग रही थी! भयानक अस्थि-आभूषण धारण किये और विशाल देहधारी कालकलिका मेरे आह्वान पर मन्त्रों में बंधी आ गयी थी मेरे समक्ष! मई तत्क्षण ही नतमस्तक हुआ! फिर बैठा और भोग-थाल अर्पित किया! कालकलिका के सेवक औए सेविकाएं शांत हुए, मैंने प्रशंसा-मंत्र पढ़े और निरंतर जाप किया उनका!

कालकलिका मेरी ओर उन्मुख हुई! और उसी क्षण मैंने अपना उद्देश्य बता दिया, प्राण नहीं हरना उसके! मैंने याचना कर डाली!

और उसी क्षण द्रुत गति से मदमाती हुई वो और वे सभी वहाँ से लोप हुए!

खिंच गयी तस्वीर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बंद हो गया भाग्य बैजू का उसी क्षण!

और अगले ही क्षण वहाँ बैजू के समख प्रकट हो गए वे सब! शिखर पर सी बैठी हुई कालकलिका ने अट्ठहास किया! उसके सेवक और सेविकाओं ने भी अट्ठहास किया! श्मशान काँप गया पूरा!

बैजू जैसे हिम में जड़ गया! बोलती बंद हो गयी उसकी! पसीने छलछला गए बदन पर उसी क्षण! औघड़ भूमि पर लेट गए!

लेकिन देखिये!

देखिये मित्रगण!

वो मूर्ख! मूर्ख बैजू खड़ा हो गया! अपना त्रिशूल उखाड़ा और तत्पर हो गया भिड़ने को! मति मारी गयी उसकी! विवेक जो अब तक दूर खड़ा था, अब भाग खड़ा हुआ!

कहाँ है रे मतंगनाथ?

कहाँ है रे तू दम्भी खेवड़? खेवड़ बाबा!

और मित्रगण तभी!

तभी जैसे तूफ़ान सा चला!

दो सेवक आगे बढ़े!

धूल-ढंगार हो गया वहाँ!

लगा जैसे कई सारे मवेशी भाग छूटे हों!

और अगले ही पल वो दोनों औघड़ हवा में उछलते दिखायी दिए!

चिल्लाते हुए! रोते हुए और कराहते हुए! जितने शब्द थे उनके पास सब चुक गए! हा-हाकार सा मच गया!

और बैजू?

उसका क्या हुआ?

अट्ठहास से गूंजे!

और वे कालकलिका के सेवक और सेविकाएं वापिस हुईं वहाँ से! मेरे यहाँ प्रकट हुई! मैंने झट से नीचे गिर गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लक्ष्य-भेदन हो गया था!

मैंने अब उन्ने मंत्र पढ़े और अगले ही पल वे सभी के सभी लोप हो गए!

आंधी की तरह से आये चक्रवात की तरह से गुजरे, तूफ़ान की तरह से गुजर गए!

मैंने देख लड़ाई!

मेरा वाचाल महाप्रेत ठहाके लगा कर हंस पड़ा!

उसने अट्ठहास किया!

कारण-पिशाचिनी ने भी अट्ठहास किया!

ये मेरी विजय का सूचक था!

लेकिन बैजू का क्या हुआ?

देख लड़ाई मैंने!

बीच में अलख के पास वे दोनों साध्वियां मूर्छित पड़ी थीं और उनसे थोड़ी दूर खून से लथपथ बैजू पड़ा था! लग रहा था जैसे अंतिम साँसें ले रहा हो! उसने दोनों हाथ उखाड़ फेंके थे एक कोहनी के पास से और एक बाजू के ऊपर से, उसके कटे हुए हाथ वहीँ पड़े थे!

कुचले हुए, छेद हुए हुए! उसने असरों से बचाव किया होगा अपना, सम्भवतः, दोनों टांगें उखाड़ फेंकी थीं उसकी, टांगें कहाँ थीं, नहीं दिखीं मुझे! वहाँ मौत का सन्नाटा बरपा पड़ा था, अलख शांत पड़ी थी!

मैं उसी क्षण आंसू बहता हुआ चिल्ला पड़ा! दुःख तो मुझे भी हुआ लेकिन मैं कर क्या सकता था!

मैंने औघड़ मद में और मदिरा पी ली! पूरी की पूरी सुड़क गया खड़े खड़े! सामने देखा! सामने कल्पि पड़ी थी! मैंने अपना त्रिशूल उठाया और झूमता हुआ कल्पि तक गया, धम्म से नीचे बैठा!

उसके चेहरे को अपनी ओर खींचा!

“कल्पि? कल्पि? जाग, जाग कल्पि?” मैंने कहा,

वो नहीं जागी!

“कल्पि? हम जीत गए! हम जीत गए कल्पि!” मैंने फिर से कहा,

वो नहीं जागी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने उसको हलके हलके थप्पड़ भी लगाए!

तभी मुझे ध्यान आया पाने त्रिशूल का! मैंने त्रिशूल की फाल को अभिमंत्रित किया और उसको कल्पि के सर से छुआ दिया!

भड़भड़ा के कल्पि उठी! इस से पहले कि वो कुछ समझ पाती मैं उसके सीने से लग कर ढेर हो गया!

उसके बाद क्या हुआ, मुझे नहीं पता!

जब आँख खुली तब मैं अपने कक्ष में था, वहाँ बाबा और शर्मा जी, कल्पि खड़े थे! मुझे लगा कि मैं नींद से जाग हूँ, मदिरा के मारे सर में भयानक दर्द था! मैंने सभी को देखा!

“जागो!” बाबा ने आदेश दिया!

मैं जाग तो गया था, अब बैठने की कोशिश करने लगा,

नहीं बैठ पाया,

कल्पि ने मुझे सहारा देकर उठाया!

“जीत गए तुम!” बाबा ने बताया!

जीत गया?? अच्छा! अच्छा! हाँ! याद आ गया! बैजू के संग द्वन्द! हाँ! मैं जीत गया! सारी बातें याद आ गयीं!

“उठो अब” बाबा ने कहा,

मैं उठा,

“जाओ, रूपक-स्नान कर लो” वे बोले,

बोले क्या आदेश दिया था उन्होंने!

मैं किसी तरह से हिलता-डुलता स्नानघर पहुंचा, वहाँ सामग्री रखी थी, मैंने उसका लेप किया और फिर स्नान, अब जाकर कुछ बदन काबू में आया!

मैं फिर वापिस आया! कक्ष में! बाबा नहीं थे वहाँ! वे जा चुके थे, खबर देने आये थे मुझे!

और तभी कल्पि से रहा नहीं गया! लिपट गयी मुझसे! बुरी तरह से रोई! बहुत बुरी तरह से!

“कल्पि, हम जीत गए!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने मुझे नहीं छोड़ा!

बालकों की तरह से चिपक गयी थी!

“कल्पि?” क्या हुआ कल्पि?” मैंने पूछा,

वो नहीं मानी, चिपके रही!

“कल्पि, तुमने मेरा बहुत साथ दिया! मैं तुम्हारा ऋणी हूँ! जब भी मेरी आवश्यकता हो, कह देना, मैं दौड़ा चला आउंगा!” मैंने कहा,

मैंने उसको हटाया, उसकी आँखों में देखा, आँखें सुजा ली थीं उसने रो रो के! मैंने उसके आंसू पोंछे!

“शर्मा जी, हम यहाँ से बारह बजे चलेंगे, मतंगनाथ के यहाँ” मैंने कहा,

“जैसी आज्ञा!” वे बोले,

अब मैं बैठ गया, मेरे संग बैठ गयी कल्पि!

और शर्मा जी चले गए बाहर, कुछ खाने का प्रबंध करने!

आज बारह बजे जाना था हमे मतंगनाथ से मिलने! जानने कि कौन सही था और कौन गलत!

खाना आ गया, मैंने और उन दोनों ने भी खाना खाया, और फिर मैं लेट गया था, कमर में भयानक दर्द था, मंत्रोच्चार में बैठे बैठे कमर पर बोझ पड़ता है बहुत! इसीलिए लेटा मैं!

और फिर बजे बारह!

मैं और कल्पि चले गए बाबा से आज्ञा लेने! बाबा ने कुछ निर्देश दिए और हमे अनुमति दे दी! हम अब शर्मा जी के साथ चल पड़े बाबा मतंगनाथ के डेरे के तरफ! हम वहाँ पहुंचे! सन्नाटा सा पसरा था वहाँ! सभी को खबर थी! शर्मा जी ने दरवाज़ा खुलवाए! कल्पि के कारण दरवाज़ा खुल गया! और हम अंदर चले गए!

अंदर पहुंचे तो जो हमे देखता वही खड़ा हो जाता वहीँ जम कर! लगता था सभी को द्वन्द के बारे में जानकारी थी! तभी मुझे सुर्रा और नागल दिखायी दिए, वे दौड़ के मेरे पास आये, मेरे पांवों में पड़ गए, मैंने उठाया उनको!

“कहाँ है मतंगनाथ?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आइये” सुर्रा ने कहा,

उसका नाम सुरेश था, लेकिन बोली में उसका नाम सुर्रा हो गया था!

हम चले उसके पीछे!

वो हमे ले गया एक कक्ष की और और वहाँ जाकर रुक गया!

“यहाँ” वो बोला,

अब मैंने कल्पि का हाथ पकड़ा! और अंदर चला! साथ में शर्मा जी भी थे! हम पर्दा हटा कर अंदर गए!

और अंदर बैठा था मतंगनाथ! और साथ में खेवड़!

दोनों मुझे देख उठ गए! चेहरे की रंगत उड़ गयी! खेवड़ भाग वहाँ से! मैंने नहीं रोका! और मतंगनाथ कांपा अब!

“ब…ब…बैठिये” वो बोला,

हम बैठ गए!

“हाँ मतंगनाथ! कहाँ है वो बैजू?” मैंने हंस के पूछा,

“वो तो बेकार हो गया जी” वो बोला,

“होना ही था!” मैंने कहा,

“मैंने समझाया था उसको, आखिरी दिन, नहीं समझा!” वो बोला,

अब उसने पलड़ा पलटा!

“तू बच गया मतंगनाथ!” मैंने कहा,

झेंप गया वो!

“कैसा ही बैजू? मरेगा तो नहीं?” मैंने पूछा,

“कहा नहीं जा सकता, बेहोश है अभी तक अस्पताल में” वो बोला,

“वो नहीं मरेगा!” मैंने कहा,

उसके बाद मैंने मतंगनाथ को बहुत उलटी-सीधी समझायी! वो हाँ में हाँ मिलाता रहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ मतंगनाथ! तूने कहा था कि रमा भी यहाँ नहीं रहेगी, बुला उसे मैं लेकर जा रहा हूँ उसे भी!” मैंने कहा,

अब वो और झेंपा!

“सुनिये, सुनिये तो सही! देखिये बात ये है कि गलती मैंने मान ली, ये भी मेरी बेटी समान है और वो भी, ये जब रहें, रह सकती हैं” वो बोला,

“फिर किसी ने तंग किया तो?” मैंने पूछा,

“मतलब ही नहीं! आप हैं न!” वो बोला!

“ऐसे नहीं, आज से रमा यहाँ की उपसंचालक होगी, साध्वी नहीं, और कल्पि मुक्त है वो कहीं भी जाए, कुछ भी करे कोई ज़ोर नहीं” मैंने कहा,

“मंजूर है” वो बोला,

अब मैं उठा वहाँ से!

सभी उठे!

“हाँ, सुनो, अगर खेवड़ ने कभी मेरे रास्ते में आने की कोशिश की तो मतंगनाथ तू भी नहीं बचेगा!” मैंने धमका दिया उसे!

उसने थूक गटका!

अब मैं चला वहाँ से रमा के पास, पहुंचा और सारी बात बता दी! वो भी खुश हो गयी! एक नई आज़ादी मिली थी उसको!

मित्रगण!

उसके बाद मैं कल्पि से तीन दिन और मिला, उसने मुझे बहुत रोका, मैं नहीं रुक सकता था! मैंने समझाया! बड़ी मुश्किल से!

वो वहीँ है आज भी!

आज भी उसके फ़ोन आते हैं रोज! मैं बात करता हूँ, अपनी ज़िंदगी का कुछ समय किसी को दिया जाए और वो खुश हो तो इसमें बुराई क्या!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज कल्पि खुश है! आगे पढ़ाई की है उसने! दिल्ली आती रहती है मुझसे मिलने! वही छेड़छाड़ और वही हठ! लेकिन अब वो मेरी मंशा जान गयी है!

कल्पि जैसी न जाने कितनी हैं ऐसे अँधेरे में!

जितना सम्भव हुआ, उन्हें उजाले में लाऊंगा!

इस बहाने पुण्य का कुछ अंश ही सही!

हाँ, बैजू आज बेकार है, उसकी बोलने की शक्ति चली गयी है, चल-फिर नहीं सकता, एक ज़िंदा लाश है जो पड़ी हुई है खेवड़ के डेरे पर!

वे दोनों औघड़ बच गए, अब सहायक हैं! मतंगनाथ के यहाँ! शीघ्र ही मैं जाने वाला हूँ कल्पि से मिलने, मैंने बता दिया है उसको!

साधुवाद!


   
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