मुस्कुराया!
“तेरा खेल ख़तम!” उसने कहा,
मैं फिर मुस्कुराया!
“तू और ये! मरेंगे एक साथ!” वो बोला,
उसने मेरी साध्वी की तरफ इशारा किया था!
मैं फिर से मुस्कुराया!
अब उसने एडाल सुंदरी के लिए भोग सजाया, मेढ़ा चीर दिया गया था! उसके अंग थाल में सजा लिए गये थे! ये महाभोग था एडाल सुंदरी का!
“उसको यहाँ भेज दे! और जा!” वो बोला,
मैं फिर मुस्कुराया!
फिर अनाप शनाप बकता रहा!
गाली-गलौज!
उसके औघड़ सहायक दांत फाड़ते उसके एक एक वाक्य पर!
हरामज़ादे कहीं के! दोनों के दोनों!
“सुना नहीं तूने?” वो फिर चिल्लाया!
मैंने अनसुना किया!
“ले आ मेरे पास! मेरे चरण चाट ले!” उसने कहा,
मैं फिर मुस्कुराया!
घमंड सर चढ़ के बोल रहा था बैजू के!
“बैजू?” अब मैंने कहा,
“हाँ, बोल, आक थू!” वो बोला,
“डर गया है?” मैंने पूछा,
“थू!” उसने थूक फेंका!
“तभी गाल बजा रहा है!” मैंने कहा,
“तेरा काल हूँ मैं! समझा?” चिल्लाया बैजू!
“कौन किसका काल है, अभी निर्णय हो जाएगा! कुत्ते कहीं के!” मैंने अब गाली दी उसको!
उसने गुस्से में फरसा फेंक के मारा ज़मीन में!
अब मैं उठा!
त्रिशूल उखाड़ा! और फिर डमरू बजाया!
“बैजू! तुझे तेरी करनी का फल मिलेगा!” मैंने कहा,
“पहले प्राण बचा अपने!” उसने गुस्से में कहा,
गुस्से में फटने को तैयार वो!
उसने भी त्रिशूल उखाड़ लिया!
औघड़ खड़े हो गए!
उसने अपना चिमटा उठाया और खड़खड़ाया!
“प्राण बचा!” उसने कहा,
“हर के देख तो सही!” मैंने कहा,
“तू कट के गिरेगा!” उसने कहा,
“काट के तो दिखा!” मैंने कहा,
“तेरे बाद इसका मैं वो हाल करूँगा कि तेरी रूह भी काँप जाएगी!” उसने अब साध्वी के लिए कहा,
“रूह तो तेरी ही कांपने वाली है! आपने वाली तीन घटियों में ये द्वन्द समाप्त!” मैंने कहा,
“आरम्भ मैंने किया था, अंत मैं ही करूँगा!” उसने कहा!
“अब गाल न बजा बैजू! वार कर वार!” मैंने कहा,
उसने फिर से थूक फेंका और बैठ गया अपने आसन पर!
मैं भी बैठ गया और अब मैंने अर्जी लगा दी मोहम्म्दा वीर की!
द्वन्द आधे में आ चुका था!
अब क्या होगा? इसका रहस्य तो समय के पास ही था और समय वहाँ ठहरा हुआ था!
अब द्वन्द आगे बढ़ा! बैजू ने क्रिया-कलाप करने आरम्भ किये और एडाल सुंदरी का आह्वान किया! यहाँ मैंने महासिद्ध मोहम्म्दा वीर की अलख उठायी! वे दोनों औघड़ अब तैयार हुए, उन्होंने अलख के चारों ओर नृत्य करना आरम्भ किया! और डामर मंत्र पढ़ने लगे! दोनों साध्वियां उसकी अचेत सी पड़ी थीं, और बैजू अपने आसन पर बैठा लगातार हाथ हिला हिला कर आह्वान करने में व्यस्त था! और मैंने यहाँ महासिद्ध मोहम्म्दा वीर की अलख में व्यस्त था! टकराव गम्भीर था, कुछ भी सम्भव था, यदि मैं चूका तो मेरी इहलीला समाप्त, यदि बैजू चूका तो बैजू की इहलीला समाप्त! द्वन्द ऐसे ही लड़ा जाता है, उसके तीन वार खाली चले गये थे, अभी भी समझ नहीं पाया था वो, न ही उसके औघड़! समझते भी कैसे, अपने आपको सम्पूर्ण समझने वालो का यही हश्र हुआ करता है! बैजू अपने आपको पूर्ण समर्थ औघड़ मानता था, खेवड़ ने उसको यही सिखाया होगा, जबकि गुरु का कार्य है अपने चेले को शालीनता सिखाना! उसको विनम्र बनाना, उसके दुर्गुणों को उसके समक्ष रखना और उसको सदैव जांचते रहना! परन्तु यहाँ ऐसा नहीं था! यहाँ तो उसके गुरु का भी पता चलता था! खेवड़ ने उसको मात्र अहंकार के अलावा और कुछ नहीं सिखाया था! अहंकार तो किसी का नहीं रहा! किसी नश्वर का अहंकार करना इस संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है! इस से बड़ी मूर्खता और कुछ नहीं! तीव्र वायु-प्रवाह से तो बड़े बड़े तने हुए वृक्ष भी जड़ समेत उखड़ जाया करते हैं! जल-धारा के कारण बड़े बड़े पहाड़ भी ढह जाया करते हैं! ज़रा सी धरती की करवट लेने से बड़े से बड़े नगर भी क्षण में धूल-धसरित हो जाया करते हैं! और ये मानवदेह! इसका तो कहना ही क्या! तो फिर अहंकार किसका? शक्तियों का? शक्ति कभी किसी की नहीं होती! वे तो साधी जाती हैं, यही तो है साधना! और इन शक्तियों को सही से साधने वाला ही साधक कहा जाता है! बैजू में तो इसके तनिक भी लक्षण नहीं थे!
वहाँ बैजू आह्वान में लीन था और यहाँ मैं अलख में ईंधन डाल उसको भड़काए जा रहा था! फातिमा-अलख भड़क उठी थी! यही थी मोहम्म्दा वीर की अलख! अब मुकाबला भयानक होता जा रहा था! खेवड़ ने क्या सिखाया था, ये भी पता चलने वाला था अब!
करीब बीस-पच्चीस मिनट बीते होंगे! कि मेरे यहाँ प्रकाश सा फ़ैल गया! सफ़ेद दूधिया प्रकाश, मजमुआ इत्र की सुगंध फैलने लगी! गुलाब की भीनी भीनी खुश्बू आने लगी नथुनों में! मोहम्म्दा
वीर की अलख जागृत हो गयी थी! किसी भी पल मेरे शरीर को एक ऊर्जा ग्रसित करने वाली थी! यही थी उस एडाल सुंदरी से भिड़ने की शक्ति! मैंने और केंद्रित होने के लिए मदिरा की बोतल उठायी और पांच-छह घूँट गटक गया!
वहाँ, बैजू के दोनों औघड़ पस्त हो अलख के पास बैठ गए थे और लगातार मंत्रोच्चार किये जा रहे थे! बैजू ने नेत्र खोले! और खड़ा हुआ! वे औघड़ भी खड़े हुए! बैजू सजे हुए थालों के पास गया! और एक थाल उठाया, फिर बोला, “ले सुंदरी ले!”
एडाल सुंदरी का आगमन होने को था!
“प्रकट हो सुंदरी, प्रकट हो!” बैजू चिल्लाया!
तभी वहाँ भूमि हिली! उन सभी ने अपना अपना संतुलन बनाया!
“आ! आ सुंदरी!” बैजू चिल्लाया!
यहाँ अचानक!
अचानक से मेरी अलख भड़क गयी! मेरे शरीर से भी ऊपर हो गयी! मैंने तभी नमन किया और एक मंत्र पढ़ा मोहम्म्दा वीर का! वीर जागृत हो चले थे! मैंने अलख में ईंधन डाला और फिर खड़ा हो गया! मैं तैयार था! और फिर अलख एकदम से झुकी, लेकिन मेरे शरीर से टकरायी और मुझे झुलसाया नहीं, बल्कि एक असीम सी शक्ति ने मुझे आ घेरा! ये डोरा था मोहम्म्दा वीर का! रक्षण-डोरा! और जिसकी रक्षा मोहम्म्दा वीर कर रहे हों उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता! मोहम्म्दा वीर की साधना अत्यंत सरल मानी गयी है, लेकिन नियम बहुत हैं, साधना कहीं भी की जा सकती है, कोई विशेष स्थान नहीं, कोई विशेष वस्तुएं भी नहीं! हाँ, जी पक्का और इरादा नेक होना चाहिए! मोहम्म्दा वीर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाया करते हैं! अनुचित कार्य करवाने के लिए, स्त्री-लाभ हेतु, धन-लाभ हेतु, भूमि-लाभ हेतु इनकी साधना नहीं की जानी चाहिए, साधना सफल ही नहीं होगी! हाँ, जीवन में चहुंदिश उन्नति हेतु, स्वास्थय लाभ हेतु, निरोगी काया हेतु इनकी सिद्धि की जानी चाहिए! कोई भी तंत्र-मंत्र इनके सिद्ध हो जाने से प्रभावी नहीं हो पाता! शत्रु आपके समक्ष ठहर नहीं पाएंगे! कोई षड़यंत्र नहीं रच पायेगा! आपको भविष्य की घटनाओं की भी अनुभूति होने लगेगी!
खैर,
वहाँ एडाल सुंदरी आने को थी! वे सबी विचलित थे! बैजू को तो जैसे अपने अहंकार का भोजन मिलने वाला था वो पिछले तीन बार से भूखा था!
“प्रकट हो!” वो बोला,
“प्रकट हो!” उसके औघड़ बोले!
और फिर वहाँ चीत्कार सी मच गयी! एडाल सुंदरी की उपसहोदरियां शून्य में से प्रकट हुईं और कुछ सेवक भी प्रकट हुए! वे सभी जैसे एक कतार में खड़े हो गए! सभी महाबलशाली और क्रूर!
“आ! आ एडाल सुंदरी आ!” बैजू अब अपने घुटनों पर बैठते हुए बोला, उसके दोनों औघड़ सहायक भूमि पर लेट गए!
और तब एक दिव्या-पुंज सा उभरा वहाँ! पीले रंग का और एक ध्वज सी लहरा गयी प्रकाश की! यही संकेत था कि एडाल सुंदरी का आगमन हो चुक है! बैजू लेट गया भूमि पर! और फिर कुछ मंत्र पढ़े! और तब एडाल सुंदरी वहाँ प्रकट हो गयी! कालीन सा बिछ गया प्रकाश का और एडाल सुंदरी भयानक मुद्रा में उसकी ओर उन्मुख हुई! अब मंत्र पढ़ते हुए खड़ा हुआ बैजू! और उसने अब हाथ जोड़ते हुए अपना उद्देश्य बता दिया! पल में ही वहाँ से लोप हो मेरे यहाँ प्रकट हुई!
उसके मेरे यहाँ प्रकट होने से प्रकाश में नहा गया मैं, वहाँ का स्थान और मेरी मूर्छित साध्वी! तभी मेरे अलकः और भड़की और उसमे से धौंकनी सी आवाज़ आने लगीं, जैसे उसको किसी ने बल दिया हो!
मैं खड़ा हुआ! एडाल सुंदरी और उसके सेवक और उपसहोदरियों के समक्ष मैंने घुटने के बल उनको नमन किया! मेरी अलख का अब रंग बदला, वो पीत-वर्ण से अब नीले वर्ण की हो गयी! मोहम्म्दा वीर की अलख मेरे बचाव हेतु जागृत हो चुकी थी! अपने भयानक अस्त्रों से सुसज्जित उसके सेवक और सेविकाएं वहीँ जड़ता को प्राप्त हो गए! मोहम्म्दा वीर के महावीर सूक्ष्म रूप में वहाँ आ डटे! युद्ध-विराम की सी स्थिति हो गयी वहाँ! और तब मैंने एडाल सुंदरी को नमन करते हुए उसके मंत्र पढ़े! मोहम्म्दा वीर का जाप किया और अगले ही पल!
अगले ही पल दोनों लोप हुए!
मेरी फातिमा-अलख शांत हुई, एकदम से धुआंरहित हो गयी!
एडाल सुंदरी के लोप होते ही वहाँ फिर से श्मशानी अन्धकार आ बरपा!
बस मेरी अलख की रौशनी चटकती रही!
मैं इस बार भी विजयी हुआ!
और उधर!!
उधर….
उधर तो जैसे त्राहि त्राहि मच गयी! बैजू को काटो तो खून नहीं! जैसे किसी को अपना काल सामने आता दीख रहा हो, ऐसा बैजू खड़ा वहाँ! गुस्से में अनाप-शनाप बकता अपने औघड़ों पर गाली-गलौज करता बैजू अब नियंत्रण से बाहर था! उसने वहाँ की सामग्री में लात मारनी शुरू कर दी! कोई उसके काम नहीं आ रहा था! उसके अहंकार ने उसको अँधा कर दिया था! वो अब भी नहीं समझा था! मैं उसको अभी भी क्षमा कर सकता था यदि वो क्षमा मांग लेता! लेकिन नहीं! बहुत दम्भ था बैजू को अपने आप पर! बैजू चीला रहा था वहाँ, गाली-गलौज कर रहा था, मांस को इधर उधर फेंक रहा था और उसकी इस अवस्था को देख वे दोनों सहायक औघड़ काँप रहे थे! उनको पता था, यदि बैजू गिरा तो वो भी खोखले हो जायेंगे!
अब मैं खड़ा हुआ!
अट्ठहास लगाया!
अपना त्रिशूल उठाया और अपनी साध्वी के पास आया, उसकी साँसें चल रही थीं! बस वो मूर्छित पड़ी थी!
“बैजू?” मैंने कहा,
उसने आकाश को देखा!
जैसे कोई आकाशवाणी हुई हो!
“बैजू?” मैंने कहा,
वो भागा और अपना त्रिशूल उखाड़ा लिया, वार करने की मुद्रा में आ गया!
“बैजू?” मैंने फिर से कहा,
“कहाँ है तू?” उसने पूछा!
ये विक्षिप्तता के प्रथम चिन्ह थे!
“मैं यहीं हूँ” मैंने कहा,
“सामने आ मेरे?” वो चिल्लाया,
अब मैंने अट्ठहास लगाया!
“खामोश!” वो चीखा!
मेरा अट्ठहास उसकी रीढ़ की हड्डी को जड़ कर गया था!
“अभी भी समय है बैजू!” मैंने कहा,
उसने कोई उत्तर नहीं दिया, बस त्रिशूल से ऐसे वार किया जैसे मैं उसके समक्ष खड़ा हूँ!
“क्षमा मांग ले बैजू” मैंने कहा,
“कभी नहीं **” उसने गाली देते हुए कहा!
“मारा जाएगा” मैंने कहा,
“हा! हा! हा! हा!” उसने अब अट्ठहास लगाया!
खोखला अट्ठहास!
मैं जानता था!
ये खोखला अट्ठहास था!
“मान जा बैजू!” मैंने कहा,
“कभी नहीं ** ***” उसने फिर से गाली देते हुए जवाब दिया!
“मूर्ख! अभी भी समय है! मान जा! क्षमा मांग ले और अपने पथ पर आगे बढ़ जा! इसको सीख मान!” मैंने कहा,
“हा! हा! हा! तू देगा मुझे सीख? तू?” उसने कहा,!
दम्भी!
“क्या समझता है? तू जीता जाएगा? अभी देखता हूँ तुझे!” वो चिल्लाया और अपने औघड़ों को कुछ निर्देश दिए! और आसन पर जम बैठा!
कुछ मंत्रोच्चार किये उसने!
और फिर अपनी जिव्हा को छेद डाला उसने! रक्त इकठ्ठा किया उसने अपने अंजुल में और अलख में झोंक दिया!
तभी कर्ण-पिशाचिनी का स्वर मेरे कानों में गूंजा ‘तृंगगणिका’!
तृंगगणिका! पूर्ण सिद्धि प्राप्त था ये बैजू! यदि उसने तृंग को सिद्ध किया था तो सच में वो एक शक्तिशाली औघड़ था! निःसंदेह! पहली बार मेरे हृदय में उसके लिए मान सा बढ़ा! लेकिन मान क्षीण हो गया कि ऐसा महा-औघड़ ऐसे कर्म करने पर आमादा है! वो ऐसा नहीं करता तो बहुत दूर तक पहुँचता! अफ़सोस! उसके कदम बहक गए थे! उसका मस्तिष्क कुंद हो गया था शक्ति के उन्माद से!
तृंगगणिका! ये एक महाशक्ति है, गण कुल से सम्बन्ध रखती है, महापाशरुदनि नाम से तंत्र जगत में विख्यात है! इसकी साधना चौरासी दिनों की है, सूर्या का प्रकाश नहीं देखना है, आँखों पर पट्टी बांधनी है अथवा एकांत वास करना है, सूर्य प्रकाश देखते ही सिद्धि-कर्म नष्ट हो जाता है! महाश्मशान में सिद्ध की जाती है ये! अतुलित बलशाली! परम शक्तिशाली! शत्रु भेदन में अचूक प्रहार करने वाली होती है ये तृंगगणिका, अथवा त्रिंगा!
तो वो उसका आह्वान कर रहा था! खेवड़ ने सही दिशा दी थी उसको लेकिन दोनों ही शक्ति मद में चूर थे, भला बुरा कुछ भी सोचने में सक्षम नहीं थे!
अब मुझे भी उसकी काट करनी थी और उसके लिए भामा सहोदरी उपयुक्त थी! ये भी परम शक्तिशाली, महारौद्र और महातामसिक शक्ति है! एक सौ इक्कीस रात्रि की इसकी साधना है, ये भी महाश्मशान में सिद्ध की जाती है! इक्कीस मेढ़ा-बलिकर्म से सिद्ध होती है! इसको सिद्ध करने के बाद साधका एक माह एकांतवास करता है, क्योंकि इसकी शक्ति से शरीर को सींचना होता है! एक माह तक शक्ति संचरण होता है! क्लिष्टतम साधनाओं में से एक है इसकी साधना! इसके लिए एक साध्वी की आवश्यकता होती है, एक सौ इक्कीस रात्रि तक एक ही साध्वी चाहिए होती है! साधक उस साध्वी के साथ सिद्धि पूर्ण होने तक भार्या रूप से उसको रखता है, तब कहीं जाकर इसकी सिद्धि पूर्ण होती है, अन्य बाधाएं हैं सो अलग!
अब मैं भी अपनी साधना में बैठा! और गहन मंत्रोच्चार में लीन हुआ! वहाँ बैजू भी लीन था! उन दोनों औघड़ों ने वहाँ एक चूल्हा बना लिया था, मांस भूनने के लिए, भुने हुए मांस की गंध से ही तृंगगणिका का आह्वान होता है! वो वैसा ही कर रहे थे! ये बैजू का निर्देश जो था! बैजू एक उच्च साधक था! ये मैं अब मान गया था! कोई और होता तो मैदान छोड़ भाग गया होता या शरण ले लेता अन्यत्र कहीं और! लेकिन बैजू टिका हुआ था! मैदान में बना हुआ था!
दोनों ही अपनी अपनी आराध्य को प्रसन्न और आह्वानित करने हेतु अग्रसर हो चले थे! द्वन्द तीन चौथाई पूर्ण हो चुका था!
अब मैंने कुछ क्रिया आरम्भ की, और वहाँ उस बैजू ने!
संग्राम कुछ पल ही दूर था अब!
दोनों ओर महामंत्र पढ़े जा रहे थे! एक दूसरे के प्रबल शत्रु! परन्तु अब मैं बैजू को शत्रु नहीं मान रहा था, वो नासमझ था, उसका विवेक उसका साथ छोड़ चुका था! वो भीरु था, अपने अंजाम से भीरु! यही था रहस्य! अब उसको अंदर ही अंदर ये डर सताने लगा था! वो समझ गया था कि खौलते हुए तेल की कड़ाही में हाथ डाल दिए थे उसने पानी समझ के! उसके पास अभी भी वापिस करने का अवसर था! वो त्रिशूल नवाता और दोनों हाथों से क्षमा मांगता! मैं क्षमा कर देता उसको! उसी क्षण क्षमा कर देता! लेकिन वो अब इस से बहुत आगे निकल गया था, क्षमा माँगना न उसने सीखा था और न ही सिखाया गया था उसको! मान-सम्मान आदि बातें उसके लिए महज़ किताबी बातें ही थीं! किसी स्त्री का सम्मान सर्वोपरि होता है, उसका कभी भी निरादर नहीं होना चाहिए! करने की तो सोचिये ही मत! उसमे शक्ति का कण समाहित है! जिस समय वो जाग गया समझिये उसके सामने कोई नहीं ठहरने वाला! भस्म हो जाएगा कोई लौह-तत्व भी हो तो उसके समक्ष! उसका सम्मान कीजिये! निरादर नहीं! लेकिन बैजू ने ये सब भुला दिया था, वो भूल गया था कि शक्ति के स्तम्भ पर ही सम्पूर्ण तंत्र टिका हुआ है! शक्ति किसी भी साधक की चूल हिला सकती है! ये सब भुला दिया था बैजू ने!
खैर!
आगे बढ़ते हैं!
बैजू मंत्रोच्चार में मगन था, यहाँ मैं भी! और तभी बैजू उठा! गुस्से में! और अपनी साध्वी के पास गया, उसको लात मारकर उठाया, वो उठी, और हाथ जोड़ बैठ गयी! बैजू बैठा नीचे, मंत्र पढ़ा और एक मांस का टुकड़ा उसके मुंह में ठूंस दिया, वो निगल गयी!
अब अट्ठहास किया बैजू ने!
यहाँ मैं भी खड़ा हो गया! महासिद्ध कपाल उठाया और अपने सर से छुआ कर आसन पर रख दिया!
“औघड़!” वो चिल्लाया,
मैंने सुना!
“तेरी इहलीला अब समाप्त!” वो चिल्लाया!
मुझे हंसी आ गयी!
“औघड़! आज और अब तेरा अंत होगा!” वो गाल बजा कर बोला!
“किसका अंत होगा ये तो अभी पता चल जाएगा बैजनाथ!” मैंने कहा,
उसने फिर से एक ज़ोर का अट्ठहास लगाया!
“अब तक तू सब सम्भालता रहा! अब नहीं सम्भाल पायेगा!” उसने हंस के कहा,
पागल हो गया था बैजू! या होने ही वाला था!
“मूर्ख! वार कर!” मैंने कहा,
“करूँगा! अचूक वार करूँगा!” उसने कहा,
“आगे बढ़!” मैंने कहा,
उसने फिर से अट्ठहास लगाया!
खोखले अट्ठहास!
उसने अपनी साध्वी को खड़ा किया! वो खड़ी हुई! उस पर मंत्रोच्चार किया और उसने अब आँखें फाड़ीं अपनी! किसी की सवारी हुई उस पर!
अट्ठहास लगाया बैजू ने ये देख!
“ये देख? रूद्रा!” उसने कहा,
“देख लिया!” मैंने कहा,
“अब कोई जगह शेष नहीं औघड़! तेरा रक्त पी प्यास बुझाउंगा मैं!” वो गर्राया!
अब मुझे एक युक्ति सूझी!
मैं फ़ौरन दौड़ा अपनी साध्वी के पास!
“कल्पि?” मैंने पुकारा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
“कल्पि?” मैंने फिर से पुकारा उसका नाम!
कोई उत्तर नहीं!
वो अचेत ही थी!
मैंने उसको जस का तस छोड़ा!
रूद्रा! यही कहा था उसने!
मैंने अपना महासिद्ध कपाल उठाया, उसके सर पर एक दीपक रखने के लिए अलख के पास रखा और दीपक रख दिया, खंजर से एक मांस के टुकड़े के पांच टुकड़े किये और अलग अलग दिशा में फेंक दिए, कुल चार टुकड़े, और एक टुकड़ा मुंह में रख लिया, नेत्र बंद किये और कपाल को ले कर मैं अपनी गोद में, आसन पर बैठ गया!
मैंने जैसे ही मंत्र पढ़े, वहाँ उसकी साध्वी चिल्ला उठी! उसने उल्टियां शुरू कर दीं! वो नीचे गिरी, फिर उठी, फिर गिरी! मैंने रूद्रा का मार्ग अवरुद्ध कर दिया! और जब तक वो कुछ करता साध्वी उठी और चिल्लाते हुए दूर अँधेरे में भाग गयी!
अब मैंने अट्ठहास लगा!
बैजू क्रोध के मारे उबल पड़ा!
“कायर?” उसने कहा,
“कौन है कायर ये तू बखूबी जानता है बैजू!” मैंने कहा,
“तुझे देख लूँगा!” वो गुस्से से बोला!
“देख लेना! अब वार कर बैजू!” मैंने उकसाया उसको!
रूद्रा का मार्ग अवरुद्ध था! सो उसने अब अपने एक औघड़ सहायक को बुलाया वहाँ, नीरेश दिया उसको सामने बैठने का! और फिर मंत्र पढ़े उसने! औघड़ चिल्लाने लगा! कभी हँसता, कभी रोता! उसने सवार कर दिया उसको नेतपाल! तृंगगणिका का प्रहरी! एक महाप्रेत! अब द्वन्द और भीषण हुआ!
यहाँ, मैं अपने भामा के मंत्रोच्चार में लीन हुआ! बस कुछ पल की देरी थी और भामा वहाँ प्रकट हो जाने वाली थी!
नेतपाल हंकार गया! उसने फ़ौरन ही भूमि को चाटना आरम्भ किया और फिर अलख के चारों ओर चक्कर लगाने लगा! फिर गिर गया, और औघड़ नीचे गिरा और उसका बदन ऐंठा, धनुषाकार हो गया पीछे के तरफ और फिर झम्म से सीधा हो गया! नेतपाल प्रहरी आह्वान का सूचक होता है! अर्थात तृंगगणिका बस किसी भी पल आने वाली थी! दूसरे औघड़ ने फ़ौरन ही
भोग सजाना आरम्भ किया! और अलख के पास ले आया! और फिर अन्तिम मंत्र पढ़ने आरम्भ किये बैजनाथ ने!
यहाँ!
यहाँ मैंने भामा का मंत्रोच्चार क्लिष्ट कर दिया था, पल पल मुझे एहसास होता था कि भामा आने ही वाली है! ऐसा तल्लीन था मैं उस मंत्रोच्चार में! और तभी ‘तड़-तड़-तड़’ की आवाज़ें आने लगीं! मैं खड़ा हो गया और फिर उस स्थान पर ज्योति-पिंड शून्य में से प्रकट हो चक्कर काटने लगे! मुझे पता लग गया! भामा का आगमन होने को है, मैंने फ़ौरन ही मंत्र पढ़ते हुए थाल सजाना आरम्भ किया!
वहाँ!
बैजू खड़ा हो गया! अपना अस्थिमाल चूमा उसने और फिर एक ब्रह्म-मंत्र पढ़ा! आगे बढ़ा और थाल उठाया! घुटनों के बल बैठा, थाल माथे से लगाया और फिर बोला, “प्रकट हो! प्रकट हो!”
दामिनी सी कौंध गयी वहाँ!
पेड़ पौधे और वो स्थान रौशनी से नहा गया एक पल को तो!
“तृंगा! खड़-देवी! प्रकट हो!” वो चिल्लाया!
और फिर वहाँ ज्योति-पिंड उतपन्न हो गया! पीत आभा वाला पिंड! और देखे ही देखते इस ऊर्जा पिंड एक स्त्री देह में परिवर्तित हो गया! भीषणकाय देह! देह पर हर स्थान पर अस्थियों के आभूषण! कोई देख ले तो मृत्यु को तत्क्षण प्राप्त हो!
बैजू लेट गया! और रोने लगा! हाँ! रोने लगा वो! क्यों रोया आप जान ही सकते हैं! सम्भवतः ये उसकी अंतिम आस थी! उसने अपनी सर्वोच्च सिद्धि दांव पर लगा दी थी इस संग्राम में! उसने रोते रोते उद्देश्य कहा अपना और भोग अर्पित किया! तृंगा अपनी भृकुटियां तान वहाँ से रवाना हुई!
भायनक शोर करती हुई वो मेरे यहाँ प्रकट हुई, लेकिन! तब तक भामा का परजा-क्षेत्र अपना स्थान ले चुका था और उसी क्षण भामा भायनक क्रंदन करती हुई वहाँ प्रकट हो गयी! भामा को प्रकट होते देख तृंगा उसी क्षण अवशोषित हुई और फिर लोप!
मैं लेट गया! अपनी प्राण देने वाली आराध्य के नमन के लिए लेट गया! मैंने भोग अर्पित किया, मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया था, मैंने उसका नमन किया और शाष्टांग नमन करते हुए मैंने उसके मंत्र पढ़े! और अगले ही क्षण वो लोप हुई!
मैं भूमि पर लेटे लेटे ही हंस पड़ा! मेरे श्वास के कारण उछली मिट्टी मेरे मुंह में घुस गयी, कुछ नथुनों में भी! मुझे खांसी आ गयी और फिर हंसी! मैं पेट पकड़ कर हंसने लगा! बहुत तेज! बहुत तेज!
“कल्पि?” मैंने हँसते हँसते पुकारा!
फिर हंसा!
“ओ कल्पि?” मैंने फिर कहा!
और फिर हंसा!
पेट दुःख गया मेरा लेकिन हंसी न बंद हुई मेरी!
“अरे कल्पि देख!” मैंने फिर से कहा,
फिर हंसा!
हंसी रुके ही न!
मैं किस पर हंस रहा था! अपनी विजय पर अथवा उस बैजनाथ की शोचनीय दशा पर! पता नहीं!
मैं उठा, और सीधा अपने आसन पर पहुंचा!
बैठा वहाँ!
और त्रिशूल उखाड़ा!
फिर खड़ा हुआ!
वहाँ!
अपने तुरुप का इक्का पिटते देखा जैसे मुंह फटा रहा गया बैजू का! उसके औघड़ों ने अब उस से फांसला बना लिया! वे कभी भी, किसी भी पल वहाँ से भाग सकते थे!
और बेचार बैजू!
थका-पिटा सा, लाचार, उजड़ा सा और पागल सा बैठा था वहाँ अलख के साथ! सब हथियार व्यर्थ हो गए थे उसके!
“बैजू!” मैंने कहा,
उसने ऊपर देखा!
फिर पीछे देखा, फिर सामने!
“बैजू! अभी भी समय है!” मैंने उसको याद दिलाया!
उसने मुझे गालियां दीं! लम्बी-चौड़ी!
काश कि वो खाली हो गया होता तो उसका वो हश्र नहीं होता जो हुआ! क्योंकि खाली पर कभी शक्ति-प्रहार नहीं किया जाता! लेकिन वो खाली नहीं था!
“बैजू? बैजनाथ?” मैंने कहा,
और अट्ठहास किया!
बैजू गुस्से में उबल पड़ा! उसको भयानक गुस्सा! उसके समक्ष मैं होता तो मेरा क़त्ल ही कर देता वो उस समय!
“बैजू! तेरा समय बीत गया! अब मैं वार करूँगा! बच गया तो मैं चला जाऊँगा यहाँ से, मुंह नहीं दिखाऊंगा तुझे कभी भी!” मैंने कहा,
और तब!
तब बैजू खड़ा हुआ!
किसी अनिष्ट की आशंका से!
और मैंने सम्भाला अब अपना आसन!
अब मेरा वार होने वाला था!
और सामने था वो औघड़ बैजू! बैजनाथ बाबा! खेवड़ का चेला!
मैंने आसन सम्भाला! और मैंने अब तक जायज़ा ले लिया था बैजू का! उसने अपना सबसे कामयाब हथियार गँवा दिया था और यही हद थी उसकी! अब मैं उसको जो दिखाने वाला था वो उसने कभी सोचा भी नहीं था, क्यूंकि आज के बाद नींद कभी उसको एक बार में नहीं आने वाली थी! ज़िंदगीभर!
मैंने महासिद्ध कपाल उठाया, उसको चूमा और फिर अपना त्रिशूल उखाड़ा! फिर मैंने अपना चिमटा खड़खड़ाया!
“बैजू! बच सके तो बच ले!” मैंने कहा,
और ये कहते ही कपाल कटोरे में मदिरा परोस दी! और सारी की सारी गटक गया मैं, अब मुझमे ऊर्जा आ गयी थी! नयी ऊर्जा! अब इस दम्भी बैजू को पाठ पढ़ाना था! मुझे कल्पि का रुआंसा चेहरा याद आया, मतंगनाथ का मोह याद आया और बैजू के तीक्ष्ण बाण याद आये! मन घृणा से भर गया!
वहाँ बैजू अपनी रक्षा हेतु ज़मीन पर वृत्त काढ़ रहा था! सोच रहा था कि कोई उसको भेद नहीं सकता! हाँ, हांफ रहा था अब! तेज तेज! जैसे प्राण छूटने वाले हों उसकी देह से! वे दोनों औघड़ भीरु थे, छिपे पड़े थे बैजू के पीछे! शायद अब अंजाम उन्हें ज्ञात था! बैजू ने वृत्त काढ़ लिया और गुस्से में सारी मदिरा डकोस गया एक ही बार में!
“बैजू!” अब मैंने कहा,
और उसने सुना!
“बैजू!” मैंने कहा,
और उसने फिर सुना!
अब न गाली ही दी और न कुछ कहा!
“बैजनाथ! तेरे घंड का फल तुझे मिलने को है! याद है ये साध्वी? याद है?” मैंने कहा,
उसने सुना और कोई प्रतिक्रिया नहीं की!
कैसे करता!
अर्ध-जीवित था अब!
“बैजनाथ! एक मौका और देता हूँ! सम्भल जा! क्षमा मांग ले! जीवन बचा अपना!” मैंने कहा,
उसने कुछ नहीं कहा, बस कोहनी उठाकर मेरी बात को आई-गयी कर दिया!
ये हार की निशानी थी!
वो हार के पथ पर बढ़ चला था!
अब मैं चुप हुआ!
और मैंने अब एक महाशक्ति का संधान किया!
