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वर्ष २०११ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बस अपने आंसुओं को उसने अपनी ऊँगली पर लिया और अंगूठे की मदद से नीचे फर्श पर फेंक दिया!

“देखो कल्पि, मेरी बात ध्यान से सुनो” मैंने कहा,

“मुझे कुछ नहीं सुनना, ठीक है, मैं रह लूंगी वहाँ” उसने कहा और लपक कर मेरे पास आयी, गिलास में मदिरा परोसी, इस से पहले कि पूरा भरती मैंने रोक लिया, और तब मैंने उसका पूरा सा भरा गिलास अपने गिलास में मदिरा डाल कर आधा कर दिया!

उसने जैसे ही गिलास उठाया मैंने उसका हाथ पकड़ लिया!

मुझे गुस्सा तो आया, लेकिन जज़्ब कर गया मैं गुस्सा!

“कल्पि, सुनो, ध्यान से सुनो, कोई और होता तो तुमको पड़े रहने देता वहीँ मतंगनाथ के पास, शोषण होता तुम्हारा बुरी तरह, ऐसे आज यहाँ न बैठी होतीं, जो मैंने सोचा था वहीँ मैं करूँगा, आगे तुम्हारी मर्जी” मैंने कहा,

उसने अपना गिलास उठाया और एक सुबकी भर गिलास खाली कर दिया!

“समझ गयीं न?” मैंने कहा,

“हाँ” उसने कहा,

भले ही झूठ कहा हो, लेकिन उसने हाँ ही कहा!

अब मैं उठा,

“ठीक है, अब मैं चलूँगा” मैंने कहा,

मदिरा की बोतल उठायी,

“कल्पि?” मैंने कहा,

“हाँ?” उसने उत्तर दिया मुझे बिना देखे,

“बुरा नहीं मानना” मैंने कहा,

कुछ न बोली,

“मैं कहाँ भिजवा रहा हूँ तुम्हारा” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने सारा सामान एक टेबल पर रखा और बाहर आ गया, सहायक के पास पहुंचा और उसको वहाँ खाना भेजने को कहा, अपने लिए भी कह दिया और फिर सीधा अपने कमरे में आ गया!

वहाँ शर्मा जी भी आराम आराम से मदिरा का आनंद ले रहे थे! मैं बैठ गया उनके पास!

“समझा दिया?” मैंने कहा,

“हाँ” मैंने कहा,

“उतार-चढ़ाव?” उन्होंने कहा,

“सब” मैंने कहा,

“परिपक्व है?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“ठीक है गुरु जी” वे बोले,

और फिर हम दोनों पीने लगे मदिरा धीरे धीरे! खाना आ गया था, सो साथ साथ खाना भी खाते रहे!

देर रात हुई! अब सोने के लिए तैयार हुए हम! अब कल करना था जो कुछ भी था! कल थी द्वन्द की तिथि! कल हो जाना था निर्णय!

 

प्रातःकाल आया! मैं उठा, छह बज चुके थे, शर्मा जी सोये हुए थे, मैं स्नान के लिए गया और दैनिक-कर्मों से फारिग हुआ, फिर अपने कक्ष में आया और शर्मा जी को जगाया, वे भी अब स्नानादि से फारिग होने चले गए, तब तक मैंने चाय-नाश्ता मंगवा लिया, जब तक शर्मा जी वापिस आये तब तक नाश्ता लग चुका था, हमने नाश्ता करना शुरू किया, उस से जब फारिग हुआ तो मैं कल्पि के कक्ष तक गया, दरवाज़ा खटखटाया उसका, उसने दरवाज़ा खोला, उसकी आँखों में नशे की खुमारी शेष थी! हालांकि वो स्नानादि से फारिग हो चुकी थी, उसने बिठाया मुझे, मैं बैठ गया!

“कैसी बीती रात!” मैंने पूछा,

“बढ़िया!” उसने कहा,

“बढ़िया?” मैंने पूछा आश्चर्य से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ, नींद ऐसी आयी कि सुबह ही खुली!” उसने हंसके बताया!

उसको हँसते देखा तो मन में आया कि ऐसे ही हंसती रहे ये कल्पि! हंसती थी तो बहुत सुंदर लगती थी! सच में बहुत सुंदर!

“नाश्ता किया?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“क्यों?” मैंने पूछा,

“आपकी प्रतीक्षा थी” उसने कहा,

“ठीक है, मैं लेकर आता हूँ” मैंने कहा,

“बैठिये न?” उसने पकड़ के बिठा लिया मुझे!

उसकी ये पकड़-धकड़ मुझे पसंद न थी, लेकिन विवश था!

“मैं नाश्ता कर चुका हूँ कल्पि, तुम पहले नाश्ता कर लो, उसके बाद बात करते हैं” मैंने कहा और बाहर चला गया, सहायक के पास, उसको कहा और नाश्ता मंगवा लिया, उसने कमरे में रख दिया!

“लो, अब नाश्ता करो पहले” मैंने कहा,

इस से पहले कुछ कहती तो मैंने टोका उसके और नाश्ता करने के लिए कहा,

वो नाश्ता करने लगी!

साथ साथ हम बात भी करने लगे!

“कल्पि, यहाँ मेरी एक साध्वी है मेहुल, जिसका मैंने उल्लेख किया था, अगर चाहो तो मिल सकती हो उस से, वो समझा देगी नियमावली आदि” मैंने कहा,

“कोई आवश्यकता नहीं” उसने टका सा जवाब दिया!

“तुम्हारी इच्छा!” मैंने कहा,

और मैं चुप हो गया!

उसने नाश्ता कर लिया था! वो हाथ मुंह धोने चली गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वापिस आयी, बैठ गयी!

खुश!

मैंने उसको गौर से देखा! कितनी अनभिज्ञ थी वो उस स्थिति से! वो स्थिति जो आने वाली थी आज रात्रि! उसकी ये अनभिज्ञता मुझ पर और दबाव बढ़ा रही थी! उसका मासूम चेहरा और मासूम आँखें जैसे मुझे दाग़े जा रही थीं!

“जानती हो कल्पि?” मैंने कहा,

“क्या?” उसने पूछा,

“तुम मुझे चाहती हो! है न?” मैंने कहा,

शरमा गयी! चेहरे पर रंगत बदल गयी उसके!

“ये चाहत ही है जिसके लिए मैं यहाँ रुका, केवल इस चाहत की वजह से” मैंने कहा,

वो चुप! बेचैन सी!

“लेकिन ये चाहत……….” मैंने कहा तो उसने टोक दिया,

“आप?” उसने पूछा,

मैं मुस्कुराया!

“वही कह रहा था मैं! ये चाहत मेरे लिए फ़र्ज़ लेकर आयी है, यही सोचा है मैंने और इसीलिए ये बीड़ा उठाया मैंने!” मैंने कहा,

मेरे शब्द समझ नहीं पायी वो कल्पि!

अच्छा था! व्याख्या करने से मैं स्वतः ही फंस जाता! शब्द-जाल में! खुद के ही!

“तो आज संध्या समय! आज संध्या समय मेरे साथ चला उधर!” मैंने कहा,

उसने हाँ कहा गर्दन हिलाकर!

“शेष कार्य वहीँ होंगे!” मैंने कहा,

उसने फिर से हामी भरी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“ठीक है, अब मैं चलता हूँ, अब मुझे रात्रि समय के लिए शक्ति-संचरण करना है, अब मैं तुमसे मध्यान्ह पश्चात ही मिल सकूंगा” मैंने कहा,

मैं उठा और निकल गया कक्ष से!

सीधा पहुंचा क्रिया-स्थल!

वहाँ मुझे मेरा जानकार मेवाती मिला, मैंने उस से क्रिया-स्थल में साफ़-सफाई के लिए कहा और मैं स्वयं जा पहुंचा बाबा के पास!

वे अपने कक्ष में ही थे!

मैंने नमस्कार की, उन्होंने स्वीकार की, और मुझे बिठा लिया! मैं बैठ गया!

“सब तैयार है?” उन्होंने पूछा,

“हाँ बाबा!” मैंने कहा,

“जाने से पहले एक बार मुझसे मिल लेना” वे बोले,

“अवश्य बाबा” मैंने कहा,

“ठीक है” वे बोले,

नमस्कार की मैंने अब!

और वहाँ से निकल आया!

क्रिया-स्थल पहुंचा, साफ़ सफाई हो चुकी थी! अब मैंने वहाँ पर शक्ति-संचरण करने हेतु मंत्र जागृत किये! एक एक करके मैंने सभी मंत्र जागृत कर लिए!

सामग्री के लिए बाबा ने कह ही दिया था! हाँ, जाने से पहले उनसे मिलना था! ये आवश्यक था!

मंत्र जागृत करने के पश्चात अब मैंने अपनी वस्तुएं और तन्त्राभूषण सँवारे! आज यही ढाल थे और यही तलवार!

और फिर आज रात!

रात आने में कुछ ही घटियां बाकी थीं!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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जिस समय मैं क्रिया-स्थल से बाहर आया उस समय तीन बज चुके थे, अब ढाई घटी का मौन-व्रत था, सो मैं वहीँ एकांतवास करने हेतु एक कुटिया में चला गया और चादर बिछा लेट गया, जागना था, अतः पिछले हुए द्वंदों के विषय में सोच विचार करने लगा, क्या उचित था और क्या अनुचित! सभी पर विचार किया! करवटें बदलता रहा और फिर मेरे सामने आ कर खड़ी हो जाती कल्पि! ये उसका भाग्य निर्धारित करने वाला था, खेवड़ कभी नहीं चाहता कि उसका सबसे प्रिय चेला बैजनाथ कोई द्वन्द हारे! और खेवड़ की भी पूरी निगाह थी इस द्वन्द पर! कुछ ऐसे ही विचार उमड़ते-घुमड़ते और मैं इन विचारों में कसता जाता!

एक घंटा किसी प्रकार बीता! मैं सीधा स्नान करने चला गया! और वहाँ से सीधा अपने कक्ष में आ गया! शर्मा जी भी लेटे हुए थे, मुझे देख खड़े हो गए!

“निबट लिया गुरु जी?” उन्होंने पूछा,

“हाँ शर्मा जी” मैंने कहा,

“बाबा से मिल लिए?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“गुरु जी, आज इस बैजू को ऐसा सबक देना कि साल ज़िंदगी भर याद रखे कि किस से भिड़ा था वो!” उन्होंने कहा,

“हाँ शर्मा जी, ऐसा ही होगा!” मैंने कहा,

“और हाँ वो मतंगनाथ, वो अगर बीच में आये तो साले का पुलिंदा बना देना!” वे गुस्से से बोले!

“ज़रूर! वैसे वो आएगा नहीं” मैंने कहा,

“यदि आये तो” वे बोले,

“तब उसकी भी नहीं बख्शूंगा!” मैंने कहा,

अब मैंने अपना बैग खोला, एक छोटा बैग निकाला और उसको ऊपर रख लिया, इसका बहुत महत्त्व था, अर्थात इसकी तंत्र सामग्रियों का! इसमें चन्दन, केसर, चिता-भस्म आदि थीं! इसमें श्रृंगार की वस्तुएं थीं! तंत्राभूषण मैं पहले ही संवार चुका था!

“मेरे लिए क्या आदेश है?” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कुछ नहीं शर्मा जी, आप यहीं रहना!” मैंने कहा,

“जैसी आज्ञा” वे बोले,

“मैं शाम सात बजे यहाँ से निकल जाऊँगा, तेली-डाला की तरफ, उसके बाद अंत में मैं वापिस आउंगा, यदि किसी कारण मैं चार बजे तक नहीं आ सका तो पौ फटते आप वहाँ आ कर निरीक्षण कर लेना!” मैंने कहा,

“आप उस से पहले ही बृह्म-मुहूर्त में आ जायेंगे वापिस! मुझे विश्वास है!” वे बोले,

मैं मुस्कुरा गया!

अब मैं उठा वहाँ से और पहुंचा कल्पि के कक्ष की ओर!

दरवाज़ा खटखटाया,

दरवाज़ा खुला!

मैं अंदर चला गया!

“तैयार हो कल्पि?” मैंने पूछा,

“हाँ!” उसने कहा,

जोश से!

बस!

ये जोश ही था जो इस समय ईंधन का कार्य करता!

“शाम सात बजे मेरे साथ यहाँ से चलना, अब पांच का समय है लगभग! जहां जिस से बात करनी है कर लो!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा,

“मुझे किसी से कोई बात नहीं करनी” उसने कहा,

“रमा से भी नहीं?” मैंने पूछा,

“अभी बात हो गयी” उसने कहा,

“क्या बात हुई?” मैंने पूछा,

“समझा रही थीं, कि जैसा वो कहें वैसा करना!” वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“वैसा ही करोगी न?” मैंने मुस्कुरा के पूछा,

“हाँ!” उसने भी हंस के उत्तर दिया!

“ठीक है कल्पि, छह बजे स्नान कर लेना, मैं यहाँ पौने सात बजे आउंगा, तुम्हे लेने” मैंने कहा,

“मैं तैयार मिलूंगी” उसने कहा,

“ठीक है” मैंने कहा और वहाँ से निकला,

अब जाना था मुझे बाबा के पास!

वहाँ पहुंचा!

बाबा मिले!

नमस्कार हुई!

“देखो, वो अलमारी खोलो” उन्होंने एक अलमारी की तरफ इशारा करते हुए कहा,

मैंने खोला, वहाँ एक काले रंग का थैला था,

“इसको उठाओ, मेरे पास लाओ” वे बोले,

मैंने उठाया और उनके पास ले आया,

उन्होंने अपने वृद्ध हाथों से उसकी गाँठ खोली, और उसमे से एक कपाल निकाला! बड़ा अजीब सा कपाल था! बड़ा सा कपाल!

“ये लो” उन्होंने उसको वापिस थैले में डालते हुए कहा,

मैंने ले लिया,

“ये गोरखी-कपाल है” वे बोले,

“गोरखी-कपाल! महासिद्ध कपाल!” मेरे मुंह से निकला!

“हाँ, ये मेरे गुरु का महासिद्ध कपाल है, उन्होंने ये मुझे दिया था, आज इसको तुमको आवश्यकता है! इसको रख लो!” वे बोले,

मैं तो जैसे धन्य हो गया! जैसे ब्रह्मास्त्र हाथ लग गया!

मैंने तभी पाँव पड़े उनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सर टिका दिया उनके चरणों में!

उन्होंने मुझे एक मंत्र पढ़ते हुए आशीर्वाद दिया!

मैं हंसी-ख़ुशी वहाँ से चला आया!

अब जैसे नव-ऊर्जा का समावेश हो गया था मुझमे!

अब मैं भिड़ने को तैयार था, एक महासिद्ध गोरखी-कपाल था मेरे पास! अब द्वन्द का आनंद आने वाला था!

सच में ही द्वन्द-आनंद!

 

वर्ष २०११ काशी की एक घटना – Part 2

Posted on November 28, 2014 by Rentme4nite

और फिर बजे सात! मेवाती को मैंने वहाँ तेली-डाला में आवश्यक सामान रखने के लिए कह दिया था, वो रख कर आया और मुझे सूचित किया और अब मैंने अपना सारा सामान उठाया, शर्मा जी को सब समझाया और फिर कल्पि के कक्ष की ओर बढ़ा, दरवाज़ा खुला था, मैंने उसको आवाज़ दी, वो बाहर आयी, उसने मुझे देखा और मुस्कुरायी, मैं भी मुस्कुराया!

“चलो कल्पि!” मैंने कहा,

“चलिए” उसने कहा और एक छोटा बैग मुझ से ले लिया,

अब मैं आगे आगे और वो पीछे पीछे!

श्मशान को पार कर हम उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ हमने कल साफ़-सफाई की थी, तेली-डाला! सामान वहीँ एक पेड़ के नीचे रखा था! अब मैंने अपना बैग खोला, और फिर सीमांकन किया! सारा सामान निकाला और फिर पीली सरसों से दिशा-कीलन किया! दिक्पाल-पूजन किया! आज्ञा ली! भूमि और आकाश का पूजन किया! अब यही सरंक्षक थे मेरे! अब मैंने अलख उठाने के लिए अलख निर्माण किया, अलख बना ली गयी, अलख पूजन किया और फिर अलख मी ईंधन को प्रणाम किया और अलख भड़क उठी! अब गुरु नमन किया और फिर अघोर-पुरुष वंदना आरम्भ की! कल्पि वहीँ खड़ी थी, मैंने बिठा लिया उसको वहाँ, और वो छोटा बैग खोलने को कहा, उसने बैग खोला, मुझे दिया, मैंने सारा सामान और वस्तुएं बाहर निकाल लीं उसमे से, फिर अपना अभिमंत्रित खंजर भी निकाल लिया अलख के ईशान कोण पर उसको भूमि में


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ दिया! अब मैंने अपने तमाम वस्त्र और केश खोले, फिर भस्म-स्नान किया, स्नान करते करते मैं महामंत्र पढ़ते जा रहा था! फिर मैंने बड़े बैग से निकाल कर पांच थाल सजाये, उनमे मेवाती द्वारा लाया गया मांस और मदिरा सजा दिया! अलख भड़क उठी थी, मैं उसमे ईंधन डाले जा रहा था! यही थी मेरी और कल्पि की संजीवनी! मैंने महासिद्ध गोरखी-कपाल निकाला, एक काले वस्त्र पर उसको रख दिया, उसके सर पर तीन फूल रख दिए, फिर मैंने दो अन्य कपाल वहाँ सुसज्जित किये और अपना त्रिशूल मन्त्र पढ़कर अलख के दायें गाड़ दिया! फिर अपना चिमटा भी निकाल कर वहाँ रख दिया! और फिर मंत्र पढ़ते हुए अपना आसान वहाँ बिछा दिया, और स्वयं आसान पर विराजित हो गया!

अब मैंने कल्पि को देखा, जो हैरानी से मुझे देख रही थी! मैंने उसको इशारे से वहाँ बुलाया, और फिर उसको बैठने को कहा, वो मंत्र-मुग्ध सी वहाँ बैठ गयी!

“अपने वस्त्र उतारो साधिके!” मैंने कहा,

उसने अपने वस्त्र उतारने आरम्भ किये,

उसने समस्त वस्त्र उतार दिए,

अब मैंने उसके शरीर पर चिन्ह अंकित किया, कुछ आवश्यक शक्ति यन्त्र! ये अत्यंत आवश्यक होता है, इस से यूँ कहिये कि किसी भी शक्ति को भान हो जाता है कि यही शरीर है जिसको अर्पित किया गया है! मैंने उसके शरीर में चौदह यन्त्र अथवा चिन्ह स्थापित किया, फिर उसके शरीर को खंजर की सहायता से पांच जगह कीलित किया, काटना, इसको काटना कहते हैं, कुछ आड़ी रेखाएं और फिर उनको काटती कुछ सीधी रेखाएं! अब मैंने दो कपाल-कटोरे लिए, और मंत्र पढ़ते हुए उनमे मदिरा परोसी! एक कटोरा उसको दिया और एक खुद ने, अब एक महामंत्र पढ़ते हुए हमने वो कटोरे खाली कर दिए! फिर मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये, अस्थिमाल आदि धारण किये, और कल्पि को भी धारण करवा दिए!

“अब लेट जाओ” मैंने कहा,

वो लेट गयी,

मैंने उसकी नाभि को एक शक्ति के संचार से रोपा! लेप और उसके उदर में शूल उठा, लेकिन उसने सहन किया, कुछ देर में शूल शांत हुआ और उसके नथुने फड़क उठे! श्मशान की विद्या जागृत हो उठी उसके अंदर!

अब वो कल्पि नहीं थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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न मेरे लिए, न अपने लिए ही!

अब वो अर्पण था!

शक्ति के लिए अर्पित शरीर!

वो लेती हुई थी, आँखें बंद किये, केवल अपने साधक की ही बातें सुन सकती थी, जैसा मैं कहता वैसा ही वो करती! नहीं तो उसका भी अहित होता और मेरा भी, मेरा मस्तक फट सकता था अथवा उसका उदर!

अब मुझे अपनी देख लगानी थी और इसके लिए मुझे वाचाल महाप्रेत का आह्वान करना था, अब मैंने अलख को घूरते हुए और कुछ मांस-पिंडों को हाथ में लेते हुए उसका आह्वान किया, करीब पंद्रह मिनट में अटटहास करता हुआ वाचाल महाप्रेत वहाँ प्रकट हुआ! उसके आगमन से मेरी देख चालू हो गयी! बस उसको अब अपनी तरफ मोड़ना था! अब मुझे कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान करना था, यही थी वो जो पल पल का आंकड़ा आपको देती है! पल पल की खबर! शत्रु के कलापों की पल पल की खबर! अब मैंने उसका आह्वान किया! इसका आह्वान दुष्कर होता है, बदन में पीड़ा हो उठती है, कंधे जैसे शरीर से अलग हो जाने की ज़िद पकड़ लेते हैं! उनको सम्भालना पड़ता है! जिव्हा में शूल गड़ जाता है, कोई कोई साधक तो इसका ही शिकार हो जाता है! इसको साधना अत्यंत क्लिष्ट एवं दुष्कर कार्य है!

मैंने आह्वान आरम्भ किया!

महाभोग सम्मुख रखा!

महाप्रसाद सम्मुख रखा!

महासिद्ध कपाल उठाया!

अपनी चिबुक के नीचे रखा,

नेत्र बंद किये और,

फिर आह्वान आरम्भ किया!

करीब आधा घंटा बीता, मेरे हाथ कांपे! लगा कपाल हाथ से निकल जाएगा! मैंने थामे रखा और फिर भयानक अटटहास करती हुई कर्ण-पिशाचिनी प्रकट हुई! दुर्गन्ध फ़ैल गयी वहाँ! लगा जैसे शरीर पर असंख्य कीड़े रेंगने लगे जो अभी समय मिलते ही शरीर में छेद कर घुस जायेंगे अंदर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने नमन किया और फिर वो लोप हुई पुंज रूप में और मेरे चारों ओर मुस्तैद हो गयी! अब मैंने मदिरा का एक और कटोरा भरा और कंठ के नीचे उतार दिया! श्री महा-औघड़ का महानाद किया और अब द्वन्द के लिए देख दौड़ायी!

वहाँ!

वहाँ वे कुल तीन थे, दो साध्वियां, वे अभी कलाप में मशगूल थे, मेरी देख लगते ही बैजनाथ ने ठहाका मारा और मदिरा का एक प्याला डकोस गया! बैजनाथ को पहचाना, वे दो कौन? कोई सहायक औघड़?

खेवड़ नहीं था उसमे! वाचाल ने बाताया!

मतंगनाथ भी नहीं था!

हाँ, तब बैजनाथ ने अपने पास बने दोनों गड्ढों में अपने दोनों सहायक औघड़ों को कमर तक गड़े रहने का आदेश दिया!

समझ में आ गया! वो त्रिकाल-क्रिया से ये सम्पूर्ण करना चाहता था! अर्थात यन्त्र-क्रिया से!

चपल था! ये समझ आ गया मुझे उसी क्षण!

मित्रगण!

यांत्रिक-क्रिया अत्यंत विशिष्ट हुआ करती है, यंत्रों में तीक्ष्ण शक्ति का समावेश रहता है! उसको कहाँ मोड़ना है, कहाँ जोड़ना है ये केवल एक समर्थ साधक ही कर सकता है! और यही जताया था मुझे बैजू ने!

उसने सामने रखे कपाल पर अपना त्रिशूल छूआ, फिर अपने मस्तक से लगाया और एक महानाद किया! फिर उसने अपने खंजर से अलख-नाप की, फिर खड़ा हुआ! अपना त्रिशूल उठाया और मेरी ओर देखते हुए थूक दिया! फिर अपना त्रिशूल लहरा कर उसने भूमि में गाड़ दिया! स्पष्ट था, वो तैयार था!

वो बैठा, और अपना चिमटा खड़खड़ाया!

हो गया द्वन्द आरम्भ!

यहाँ मैंने भी अपना चिमटा खड़खड़ाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने अपने सहायक औघड़ों को कुछ आदेश दिया! औघड़ वहीँ लेट गए, आधे गड्ढे में और आधे बाहर!

अब मैंने अपने यहाँ अपनी मुद्रा सम्भाली! मैंने अपनी साध्वी को देखा, वो लेटी हुई थी, मैंने अब एक मंत्र पढ़ा! और फिर मदिरा को अभिमंत्रित कर उसके ऊपर फेंक दिया!

“साध्वी?” मैंने पुकारा!

वो झट से खड़ी हुई!

मुझे देखा और फिर गर्दन आगे झुका ली उसने, उसके केश उसके माथे से आगे आ गए!

झट से तभी उकडू मुद्रा में बैठ गयी! मंत्र ने भेद डाला था उसको!

“साध्वी?” मैंने पुकारा,

“हूँ?” उसने कहा,

“साध्वी??” मैंने चिल्ला के कहा,

उसने मुझे देखा, घूरा! मसानी ने घेर लिया उसको अब!

“साध्वी?” मैंने कहा,

उसने मुझे देखा और थूका!

मैंने अपना खंजर उठाया और एक मंत्र पढ़ते हुए अपना अंगूठा छेदा और रक्त के छींटे बिखेर दिए उसपर! वो धम्म से पीछे गिर गयी! बदन ऐसा ऐंठा कि जैसे मिर्गी पड़ी हो! फिर शांत हो गयी! मुट्ठियां बांध गयीं, पाँव कस गये! अब वो मेरे पाश में थी! इस से पहले कि मैं उठकर उसको देखता तभी वहाँ अंगार बरस पड़े! मुझे ठहाके सुनायी दिए! बैजू के ठहाके! मैंने फ़ौरन ही जामुष्-मंत्र पढ़ डाला, अंगार शांत हुए!

बैजू तो आरम्भ हो चुका था और मैं अभी यहाँ रूप-रेखा बनाने में लगा था! मुझे अपनी कच्ची साधिका की चिंता थी!

अब मैं उठा, और कल्पि को उसके पाँव से पकड़ के खींचा, उसको पेट के बल लिटाया, वो बड़बड़ाई लेकिन मैंने कोई परवाह न की, और उसके ऊपर कमर पर चढ़ गया! अब मैंने महानाद किया और बैठ गया!

अपनी देख दौड़ाई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ बैजनाथ अपनी एक साधिका के वक्ष-स्थल पर बैठा मंत्रोच्चार कर रहा था, वे औघड़ वैसे ही लेटे थे!

तभी मेरे कानों में ध्वनि पड़ी!

जम्बूख!

ओह! तो वो जम्बूख का आह्वान कर रहा था! महाडाकिनी जम्बूख! भूलोक में प्रत्येक सक्रांति को श्मशान में पूजी जाती है! विडालरूप सा होता है इसका रूप! पूर्ण तो कभी नहीं दिखायी देती! भूमि को पल में फाड़ देने वाली, मानवदेह को क्षण में कृशकाय कर देने वाली जम्बूख महाडाकिनी! ये अवश्य ही उसको खेवड़ ने ही सुझाया होगा!

मैंने यहाँ उसकी समकक्ष कालरूढा का आह्वान किया! उसका आह्वान एक पाँव पर खड़े होकर और अपना एक नथुना बंद करके होता है! कालरूढा अत्यंत भीषण बलशाली और काल सादृश होती है! वज्रा जैसा प्रहार करती है! जहां जम्बूख अपने सोलह हाथों से, कहना चाहिए सोलह हाथ नहीं, सोलह शक्तियों का एक साथ प्रयोग करने वाई जम्बूख, ये आठ हाथ या बारह हाथ ये ऐसी ही शक्तियों के द्योतक हैं! अब आप समझ गए होंगे कि क्यों तस्वीरों, मूर्तियों में चार, आठ, बारह आदि हाथ दिखाए जाते हैं! हाँ, जहां कम्बुख जहां सोलह शक्तियां एक साथ प्रयोग करती है वहीँ कालरूढा सोलह शक्तियों का एक साथ भक्षण कर सकती है! इसी कारण से मैंने कालरूढा का आह्वान किया था! तभी उसके यहाँ वे साध्वियां रोने लगीं! औघड़ आँखें फाड़ सर धुनने लगे! स्पष्ट था, जम्बूख प्रकट होने को है!

यहाँ मैंने महामन्त्रोच्चार ज़ारी कर रखा था! और तभी मेरे यहाँ कटे हुए अंग गिरने लगे! वे गिरते और लोप होते! गिरते और लोप होते! कालरूढा प्रकट होने वाली थी!

तभी बैजू चिल्लाया, “लक्ष्य! लक्ष्य!”

और भी भी चिल्लाया, “भक्षण! भक्षण!”

मेरी साध्वी कराह उठी! मैं चिंतित हुआ! हट सकता नहीं था! हटता तो अनिष्ट होना था! इसीलिए मैंने और भीषण किया मंत्रोच्चार! खः खः और ठह ठह की मन्त्रध्वनि ने शमशान में चार चाँद लगा दिए!

समय जैसे ठहर गया!

बैजू और मैं अपने पहले चरण में पहुँच चुके थे!

उधर जम्बूख प्रकट हुई और यहाँ कालरूढा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो खड़ा हुआ और मैं भी!

उसने भी नमन किया और मैंने भी!

अपनी अपनी आराध्या को!

बैजू ने उद्देश्य बताया! और चल पड़ी मदमाती जम्बूख वहाँ से, जैसे कोई उड़ता हुआ कपडा! जैसे आंधी में उड़ता कोई कपडा! मदमाती, अटटहास करती! वो चल पड़ी मेरी ओर!

और यहाँ!

यहाँ मैंने नमन किया! भोग अर्पित कर ही रहा था कि भन्न से जम्बूख वहाँ प्रकट हो गयी! कालरूढा के दायें, अपनी ज्वाल-नेत्रों से उसने जम्बूख को देखा! जम्बूख ने उसे! और पल में ही जम्बूख लोप हुई चीत्कार करते हुए!

मैंने कालरूढा की श्लाघा पढ़ी! और कालरूढा मेरे प्राण बचाती हुई लोप हुई! मैं झट से अपनी साध्वी के पास गया, उसको देखा, वो कराह रही थी, मैंने उसको वैसे ही छोड़ा और अलख की तरफ भाग और वहाँ से एक चुटकी राख ली, और साध्वी के गए में मंत्र पढ़ते हुए लगा दी, कराहट बंद हुई!

और वहाँ!

वहाँ जैसे मेला उजड़ गया हो किसी तूफ़ान के आने से!

होश फाख्ता हो उड़ गए थे बैजनाथ के और दूर वहीँ एक कट्ठे के पेड़ पर जा बैठे थे! उसे समझ नहीं आया था कि जम्बूख ऐसे कैसे लोप हो गयी? मैंने कालरूढा को प्रकट किया था! खेवड़ होता तो सम्भवतः जान लेता, लेकिन ये तो दम्भ का मारा इंसान था! यहीं से शत्रु की मांद देखी जाती है, मैंने देख ली थी, लेकिन बैजू ने देखी या नहीं, पता नहीं था! मैंने कल्पि को उठाया, वो न उठी, धम्म से नीचे करवट में लेट गयी! वो बड़बड़ा रही थी, कुछ अनाप-शनाप! ये अनाप-शनाप समय के खंड के कण होते हैं जो समझ में नहीं आते! ये श्मशानी शक्ति थी! ये उसी के कण थे! मैंने फिर से कल्पि को खींचा, उसने विरोध किया, मैंने फिर खींचा उसने फिर से विरोध किया! मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ा और महामंत्र पढ़ते ही उसके उदर से छुआ दिया! खांसी का सा दौरा उठ पड़ा उसे, वो दुल्लर हो गयी!

“साधिका?” मैंने कहा,

वो बस पेट दबाये पड़ी रही!


   
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