वर्ष २०११ काशी की ए...
 
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वर्ष २०११ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“बताओ, कौन है ये?” उसने मतंगनाथ से पूछा,

“ये धन्ना बाबा का पोता है!” मतंगनाथ ने कहा,

“कौन धन्ना बाबा?” उसने पूछा,

“थे एक” मतंगनाथ ने माना,

“कौन?” उसने पूछा,

“कर्मा बाबा के मित्र!” मैंने कहा,

अब चौंका वो!

“खेवड़ के मुंह से कभी सुना होगा तूने!” मैंने कहा,

उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा!

लेकिन कहते हैं न! दम्भ का सर इतना ऊंचा होता है कि उसके कान काम नहीं करते! वही हुआ!

“तो मैं क्या करूँ?” उसने कहा,

मतंगनाथ चुप!

“कुछ नहीं, तू कर भी क्या सकता है, एक असहाय लड़की को तंग ही कर सकता है!” मैंने कहा,

अब उसने मेरा गिरेबान पकड़ लिया उसी क्षण! मैंने भी पकड़ लिया! ये देखा अब मतंगनाथ चिंतित हुआ और उसने बीच-बचाव कर दिया! कुछ और लोग भी आ गए!

“तू नहीं मानने वाला, है न? सिखाना पड़ेगा तुझे, यही न?” उसने कहा,

“तू सिखाएगा?” मैंने पूछा,

“जा! ठीक है, परसों अपनी खैर मना! मैं और तू! देखते हैं तू कौन और मैं कौन!” उसने कहा,

“मंजूर बैजू! मुझे मंजूर!” मैंने कहा और बल पड़े मतंगनाथ के माथे पर!

उसके बाद अब कुछ शेष नहीं था वहाँ, मैं और शर्मा जी वहाँ से निकल पड़े, हाँ, रमा को बता के आया था कि अब वो भी कल्पि के साथ चलने को तैयार रहे!

और हम वहाँ से निकल आये फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तारीख तय हो गयी थी! परसों नवमी थी! महारात्रि!

 

हम वापिस चल पड़े! मैं बैजनाथ को बड़ा सबक सिखाना चाहता था, एक ऐसा सबक कि भविष्य में वो ऐसा कभी करने की सोचे भी नहीं! मुझे उम्मीद थी कि ये बात वो खेवड़ को भी बतायेगा, एक चेला भला कैसे न बताता! मतंगनाथ तो आने से रहा इस बीच, अपने मन के किसी कोने में उसे मेरे बारे में पता था! वो मदद तो कर सकता था, स्थान, सामग्री आदि से लेकिन इस पचड़े में नहीं पड़ सकता था! ऐसा मेरा मानना था, अब आगे जाने क्या हो!

हम टहलते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी एक दूकान पर रुक गए, आलू-पूरी की दूकान थी, सो ले लीं, साथ में दो चाय भी, एक बेंच पर बैठ गए और आलू-पूरी खाने लगे! तभी शर्मा जी ने कहा,”परसों की तारीख दी है उसने, बड़ा घमंड है उसे!”

“कोई बात नहीं, चाहे आज की ही दे देता, कोई बात नहीं!” मैंने कहा,

“वो तो ठीक है, लेकिन उसने कुछ सोचा नहीं, बस ऐसे तारीख दी जैसे सब तैयार करके बैठा हो!” वे बोले,

“बैठा होगा! अब मतंगनाथ है न उसके साथ!” मैंने कहा,

“हाँ, हो सकता है” वे बोले,

तभी सब्जी ख़तम हुई, तो और ले ली दोनों ने, फिर बैठ गए खाने के लिए,

“आपकी क्या तैयारी है?” उन्होंने पूछा,

“मुझे कोई चिंता नहीं” मैंने कहा,

“बाबा को तो पता है इस बारे में?” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“तब वो सम्भाल लेंगे” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

अब आलू-पूरी समाप्त हुईं और हम अब चले वहाँ से, सवारी पकड़ी और चल दिए अपने डेरे की तरफ!

डेरे पहुंचे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी अपने कक्ष में गए और मैं गया कल्पि के पास! वो बेचारी उलझन में फंसी थी, चेहरे से साफ़ झलकता था!

“कैसे परेशान हो कल्पि?” मैंने पूछा,

“कुछ नहीं” वो बोली,

मैंने उसको देखा, हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई थी, किसी गहन सोच में डूबी थी!

“अब बताओ भी?” मैंने पूछा,

“कुछ नहीं न” वो बोली,

“तो फिर मुर्दानगी सी क्यों छायी है चेहरे पर?” मैंने पूछा,

“पता नहीं” उसने कहा,

मुझे लगा गुस्सा है!

“गुस्सा हो क्या?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने मुझेदेखते हुए कहा,

“फिर?” मैंने पूछा,

“छोड़िये आप, ये बताइये आप वहाँ गए थे क्या रहा?” उसने पूछा,

मैंने सारी बात से अवगत कराया उसको अब!

परेशान हो गयी!

“कल्पि?” मैंने कहा,

“हाँ?” उसने जवाब दिया,

“कभी क्रिया में बैठी हो?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“हम्म” मैंने कहा,

“क्या हुआ?” उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“इसका मतलब मुझे एक साध्वी के आवश्यकता होगी” मैंने कहा,

“साध्वी? कौन?” उसने पूछा,

“द्वन्द समय मुझे एक साध्वी की आवश्यकता पड़ेगी” मैंने कहा,

“फिर?” उसने पूछा,

“है मेरे पास एक साध्वी यहाँ” मैंने कहा,

“यहाँ? कौन?” उसने पूछा,

“मेहुल, यहीं रहती है” मैंने कहा,

“वो ही क्यों?” उसने पूछा,

“वो पारंगत है” मैंने कहा,

“कैसे?” उसने पूछा,

“वो तुम नहीं जानोगी” मैंने कहा,

“समझायेंगे भी?” उसने पूछा,

“नहीं समझोगी” मैंने कहा,

“मुझे समझाइये आप!” उसने खड़े होते हुए पूछा, शायाद, शायद गुस्सा सा आ गया था उसको!

“कभी मदिरा सेवन किया है?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“कभी पुरुष-गमन किया है?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“कभी विद्रम्-श्रृंखला में बैठी हो?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“अब समझ गयीं?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“नहीं” उसने कहा,

“जो तुम सोच रही हो वो सम्भव नहीं” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“मैं नहीं चाहता प्राणहारी कष्ट हो तुमको” मैंने बताया,

“आपको नहीं होगा?” उसने पूछा,

“मुझे आदत है” मैंने कहा,

“मुझे भी पड़ जायेगी, यदि आप चाहो तो, आज से ही आरम्भ करें?” उसने कहा,

बात तो सही थी! लेकिन दिल के किसी कोने में मैं नहीं चाहता था कि उस पर कोई कष्ट आये! सच में नहीं!

“क्या विचारा?” उसने पूछा,

“क्या?” मैंने पूछा,

“आज से?” उसने कहा,

मुझे हंसी आ गयी!

“ये इतना सरल नहीं कल्पि!” मैंने कहा,

“तो मैंने कब कहा?” उसने कहा,

“तो जान लो, ये इतना सरल नहीं” मैंने कहा,

उसने मुझे मेरी आँखों में देखा! बहुत से सवाल-जवाब आँखों के रास्ते आये गए!

“मैं तैयार हूँ” उसने कहा,

“देखते हैं” मैंने कहा,

“नहीं, मैं तैयार हूँ” उसने कहा,

मैं उठा, उसके सर पर हाथ रखा और फिर कहा, “मैंने कहा न, देखते हैं”

फिर बाहर आ गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पीछे देखा!

वो मुझे ही देख रही थी!

मैं मुड़ा और बाबा के कक्ष की ओर चला गया!

 

अब मैं बाबा के पास गया! बाबा आराम से बैठे थे, फलाहार कर रहे थे, मुझे देखा तो मैंने नमस्ते की, उन्होंने मुझे बिठा लिया और मैं बैठ गया वहाँ! उन्होंने मुझे भी एक संतरा उठाकर दे दिया, मैं संतरा छीलने लगा, और फिर साफ़ कर खाने लगा,

“तारीख तय हो गयी?” बाबा ने पूछा,

“हाँ बाबा” मैंने कहा,

“कब की?” उन्होंने पूछा,

“परसों की” मैंने कहा,

“अच्छा” वे बोले,

“आपकी तैयारी है?” उन्होंने पूछा,

“हाँ बाबा” मैंने कहा,

“अच्छा” वे बोले,

फिर संतरे के बीज निकालते हुए एक तरफ रख दिए उन्होंने, मैंने भी बीज उसी तश्तरी में रख दिए,

“कुछ आवश्यकता है?” उन्होंने पूछा,

“नहीं बाबा” मैंने कहा,

‘अच्छा!” वे बोले,

मैं चुप था, उन्ही के बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था!

“खेवड़ जान गया है” वे बोले,

“स्वाभाविक है” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“उसका फ़ोन आया था” वे बोले,

‘अच्छा, क्या कह रहा था?” मैंने पूछा,

“यही कि मैं समझा दूँ तुमको, हटा दूँ रास्ते से” वे बोले,

मुझे हंसी सी आ गयी!

“आपने क्या कहा बाबा?” मैंने पूछा,

“कह दिया कि समझाना मेरा फ़र्ज़ है, समझा दूंगा, नहीं माने तो मैं क्या कर सकता हूँ!” वे बोले,

“अच्छा कहा आपने” मैंने कहा,

“मयनी कौन है?” उन्होंने पूछा,

मयनी मायने साध्वी,

अब मैं अटका!

न जाने क्यों अटक गया!

“वही लड़की?” उन्होंने पूछा,

“हाँ!” मैंने कहा दिया,

अब न जाने कैसे कह दिया!

“फर्राटी गिन लेती है?” उन्होंने पूछा,

फर्राटी मायने इशारे!

“गिन लेगी” मैंने कहा,

“अच्छा” वे बोले,

“वहाँ पूरब में तेली-डाला है इस स्थान के, वो स्थान सही रहेगा” वे बोले,

‘अच्छा बाबा” मैंने कहा,

“उस मयनी को भी ले जाना” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“ठीक है बाबा” मैंने कहा,

आज्ञा मिल गयी थी!

मैंने नमस्ते की और बाहर आ गया!

सीधा अपने कक्ष की ओर चला तो मुझे कल्पि खड़ी दिखायी दी दरवाज़े पर! मैं उसकी तरफ ही मुड़ गया,

“कैसे खड़ी हो यहाँ?” मैंने पूछा,

“आपकी प्रतीक्षा थी” उसने कहा,

‘अच्छा, खाना खाया तुमने?” मैंने पूछा,

“हाँ, खा लिया”, उसने बर्तन दिखाए मुझे इशारा करके गर्दन का!

“अच्छा, एक काम करना संध्या समय मेरे साथ चलना” मैंने कहा,

“कहाँ?” उसने पूछा,

“उस स्थान की बुहारी करनी है कल्पि, कल के लिए” मैंने कहा,

वो खुश हो गयी!

अचानक!

ग़मगीन सा चेहरा दमक उठा!

“हाँ, चलना मेरे साथ” मैंने कहा,

अब उसने मुझे पकड़ के अंदर कर लिया!

“अब कोई मेहुल नहीं न?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

उसको सुकून हुआ!

“तैयार रहना!” मैंने कहा,

और अब मैं वहाँ से हटा और शर्मा जी के कक्ष में अ गया, वे लेटे हुए थे, मुझे एकः आटो बैठ गए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बाबा को बता दिया गुरु जी?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“स्थान मिल गया?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“यहीं है या कहीं और?” उन्होंने पूछा,

“यहीं है, तेली-डाला” मैंने कहा,

“अच्छा!” वे बोले,

तभी एक साहयक आया, भोजन लिए, हमने वहीँ रखवा दिया भोजन और फिर खाने लगे!

कुछ और बातें हुईं, और फिर कुछ देर के लिए झपकी ले ली हमने!

नींद खुली तो शाम के पांच के आसपास का समय था, शर्मा जी बाहर गए और एक सहायक को चाय के लिए कह दिया, थोड़ी देर में सहायक चाय ले आया, हमने चाय पी, तभी मेरे दिल्ली से फ़ोन आये और उनसे भी बातें कीं मैंने!

एक घंटा और बीता!

मैं अब गया वहाँ कल्पि के पास, वो जागी थी, मैंने आवाज़ दी तो दरवाज़ा खोला उसने,

“आओ, चलें” मैंने कहा,

तब मैंने एक सहायक से झाड़ू आदि ले ली, उस स्थान की साफ़-सफाई करनी थी! इसीलिए हम दोनों वहाँ चल दिए,

पहुंचे!

स्थान अनुपम था!

सुंदर!

पीछे कोई उपशाखा सी थी नदी की! बड़े बड़े वृक्ष! और फूलदार पौधे! ये ही स्थान था वो तेली-डाला!

अब मैंने एक उपयुक्त स्थान चुना! और फिर उसका सीमांकन किया और उसके बाद झाड़ू-बुहारी शुरू की, कल्पि ने मुझे कुछ न करने दिया, मैं बस उसको देखता ही रहा! उसके विश्वास


   
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श्रीशः उपदंडक
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ने मुझे बेहद सशक्त बना दिया था! इस कल्पि की खातिर मैं उस खेवड़ के चेले बैजू से भिड़ने को तैयार था, बस इसलिए कि शक्ति के स्वरुप का शोषण नहीं होना चाहिए कभी भी! क्योंकि ज्वाला सदैव घमंडी और दर्प के मारे मनुष्य को भस्म कर ही देती है एक न एक दिन!

और ये दिन अब बैजू का आने वाला था! और अब तो घंटों की बात बची थी! एक बात और, यहाँ कोई चिता नहीं थी, यहाँ केवल मैं, मेरा सामान और मेरी साध्वी ही थे! चिता पूजन पहले कर लेना था!

झाड़ू बुहारी हुई और मैं वहाँ काले धागों से निशान लगा आया! अब परसों ही फैंसला था, यहाँ से मैं जीवित जाऊँगा या फिर यही धराशायी हो जाऊँगा!

हम चले आये फिर वहाँ से, हाथ मुंह धोये और फिर मैं कल्पि को उसके कक्ष में बिठाकर अपने कक्ष में आ गया!

 

संध्या हो ही चुकी थी, अंतिम घटी भी बीतने वाली थी, अब मैंने कुछ सोचा, विचारा, और फिर एक मदिरा की बोतल ली, और चल पड़ा कल्पि के कक्ष की और, उसका दरवाज़ा खटखटाया, कल्पि ने दरवाज़ा खोला, मैं अंदर चला गया, वो स्नान करने के पश्चात् बैठी थी वहाँ, तैयार हो रही थी जैसे, मैंने वो मदिरा की बोतल उसको पकड़ाई और फिर बाहर चला गया, वहाँ जाकर एक सहायक को वहाँ कुछ सामान पाई आदि भेजने को कहा और वापिस आ गया, नीले वस्त्रों में कल्पि बहुत सुंदर लग रही थी!

“आज अच्छी लग रही हो कल्पि” मैंने कहा,

वो शरमा गयी!

“बैठो यहाँ” मैंने उसको उसका हाथ पकड़ के बिठाया,

वो बैठ गयी,

‘तो आज तुम्हे कुछ सिखाया जाए?” मैंने मुस्कुरा के कहा,

वो लरज़ गयी, नज़रें हटा लीं उसने!

“ऐसे शरमाओगी तो मेरा बहुत बड़ा नुक्सान कर दोगी!” मैंने कहा,

उसने मुझे देखा कि पूछा हो आँखों से कि कैसे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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“सुनो कल्पि, एक साधिका को जब साधक क्रियान्वेषण में लगाता है तो वे समरूप हो जाते हैं, उसमे धन और ऋण का समावेश हो जाता है, ये समान रूप से रहना चाहिए, कोई भी कम हुआ तो अनिष्ट की आशंका आ घेरती है” मैंने बताया,

उसने जिज्ञासावश सुना!

“वो बैजू! वो तुमको इसी कार्य के लिए चाहता था, परन्तु वो तुमको साधिका कम और काम वस्तु अधिक समझता!” मैंने कहा,

उसने फिर से नज़रें नीचे कीं!

मैंने उसका हाथ पकड़ा और फिर उसकी उंगलिया, उसकी उँगलियों के पोर एक दम शीतल थे, हिम सादृश शीतल! कोई आशंका थी उसके मन में!

“कल्पि? यदि कोई आशंका हो, तो मुझे अभी कह दो” मैंने कहा,

उसने चेहरा उठाया!

“कैसी आशंका?” उसने पूछा,

“तुम घबरा रही हो” मैंने कहा,

“नहीं तो” उसने कहा,

“नहीं, ऐसा ही है” मैंने कहा,

“ऐसा नहीं है” उसने कहा,

“तो फिर ये शीतलता क्यों?” मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोली,

और मुझे समझ आ गया!

“कल्पि, उस विषय में मैं तो सोच भी नहीं सकता!” मैंने कहा,

उसने हैरत से मुझे देखा!

“सच में!” मैंने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए और उसकी लट हटाते हुए कहा,

वो मुझे देखे! एकटक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“सुनो कल्पि, एक साधिका को जब साधक क्रियान्वेषण में लगाता है तो वे समरूप हो जाते हैं, उसमे धन और ऋण का समावेश हो जाता है, ये समान रूप से रहना चाहिए, कोई भी कम हुआ तो अनिष्ट की आशंका आ घेरती है” मैंने बताया,

उसने जिज्ञासावश सुना!

“वो बैजू! वो तुमको इसी कार्य के लिए चाहता था, परन्तु वो तुमको साधिका कम और काम वस्तु अधिक समझता!” मैंने कहा,

उसने फिर से नज़रें नीचे कीं!

मैंने उसका हाथ पकड़ा और फिर उसकी उंगलिया, उसकी उँगलियों के पोर एक दम शीतल थे, हिम सादृश शीतल! कोई आशंका थी उसके मन में!

“कल्पि? यदि कोई आशंका हो, तो मुझे अभी कह दो” मैंने कहा,

उसने चेहरा उठाया!

“कैसी आशंका?” उसने पूछा,

“तुम घबरा रही हो” मैंने कहा,

“नहीं तो” उसने कहा,

“नहीं, ऐसा ही है” मैंने कहा,

“ऐसा नहीं है” उसने कहा,

“तो फिर ये शीतलता क्यों?” मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोली,

और मुझे समझ आ गया!

“कल्पि, उस विषय में मैं तो सोच भी नहीं सकता!” मैंने कहा,

उसने हैरत से मुझे देखा!

“सच में!” मैंने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए और उसकी लट हटाते हुए कहा,

वो मुझे देखे! एकटक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत बड़ा और भारी प्रश्न था! यही तो है स्त्री-सुलभता! कम शब्दों में गहन अर्थ! बहुत बड़ा प्रश्न था!

“उसके बाद तुम स्वयं जान लोगी कि क्या करना है” मैंने कहा,

“आपको नहीं पता?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

“मदद भी नहीं करेंगे?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

“कल्पि की भी नहीं?” उसने कहा,

कल्पि की भी नहीं! क्या कहूं! क्या कहना चाहिए!

“कल्पि, अभी वो समय आया नहीं है……” मैंने कहा, और इस से पहले मैं आगे कुछ कहता उसने मेरे होठों पर हाथ रख दिया अपना,

“वो समय आएगा” उसने कहा,

“जब आएगा तब देखेंगे” मैंने कहा, उसका हाथ हटाते हुए!

“उसी समय बताएँगे?” उसने पूछा,

“वचन देता हूँ” मैंने कहा,

अब उसने मदिरा की बोतल उठाई और गिलास आधे आधे भर दिए! फिर मैंने पानी मिलाया और गले के नीचे!

साथ में कुछ फल के टुकड़े!

उसने भी गिलास खाली कर दिया!

अब उसने गिलास बदल दिए, मेरा अपनी जगह और अपना मेरी जगह!

ये देख, मैं सच में हैरान रह गया!

वो वाक़ई समझदार थी!

बेहद समझदार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने फिर से मदिरा परोसी, मुझे देखा और मुस्कुरायी, उसने गिलास मुझे दिया, मैंने गिलास मुंह पर लगा खाली कर दिया, ऐसा ही उसने किया! अब उसको खुमारी सी हुई, बदन जैसे ऐंठने सा लगा, आवाज़ लरजने लगी उसकी, मुझे देख मुस्कुराती, फिर नज़रें बचाती, फिर से उठाती, मैं सब देख रहा था, फिर वो खिसकी और अपनी पीठ दीवार से लगा ली, मुझसे दूरी न रहे इसलिए चेहरा मेरी तरफ कर लिया!

“और?” मैंने पूछा,

कुछ न बोली,

मैंने अपना गिलास बनाया और रख दिया, फिर कुछ खाया, उसको भी दिया, उसने अंगड़ाई सी ली पाँव सीधे करके, स्पष्ट था मदिरा का प्रभाव होने लगा था उस पर और ये प्रभाव मैं देखना चाहता था!

“कल्पि?” मैंने पुकारा,

“हाँ?” उसने कहा,

“उसके बाद तुम्हे इलाहबाद जाना है मेरे साथ” मैंने कहा,

“पता है” वो बोली,

मैंने अब अपना गिलास खाली किया,

उसको नहीं दिया!

“क्या पता है?” मैंने पूछा,

“इलाहबाद जाना है” उसने कहा,

“क्या करने?” मैंने पूछा,

“मुझे नहीं पता” उसने कहा,

“जानना नहीं है क्या?” मैंने पूछा,

“नहीं” उसने कहा,

“क्यों?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आप वहीँ होओगे न मेरे साथ?” उसने पूछा,

“नहीं, मैं वापिस दिल्ली जाऊँगा वहाँ से” मैंने कहा,

वृक्ष से कोई बड़ी सी शाख टूटी!

कटाक!

“दिल्ली क्यों जाओगे?” उसने पूछा,

“मैं वहीँ रहता हूँ, ये बताया नहीं रमा ने?” मैंने पूछा,

“नहीं” वो बोली,

“झूठ?” मैंने कहा,

“नहीं बताया” उसने कहा,

“सच में?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

अब मैंने उसे बता दिया!

उसने सुना!

“तो मुझे भी दिल्ली ही ले जाओ न?” उसने पूछा,

मुझे हंसी आ गयी!

उसके भोलेपन पर!

सचमुच में भोलापन!

“नहीं, मैं चाहता हूँ ये तुम्हारा पहला और अंतिम क्रियान्वेषण हो, उसके बाद मैं तुमको उस संस्था में काम से लगवा दूंगा, वहाँ आराम से समय काट सकती हो अपना” मैंने कहा,

तभी मैंने देखा, उसकी आँखों में आंसू डबडबा गए!

“अब रो क्यों रही हो?” मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोली,


   
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