वर्ष २०११ काशी की ए...
 
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वर्ष २०११ काशी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आया बाहर,

खेवड़! बाबा खेवड़! पहुंचा हुआ औघड़ था वो! कहते हैं उसने कभी कोई द्वन्द नहीं हारा कभी भी, कालेश और जालेश दोनों में अच्छी पैठ थी उसकी! और ये मूढ़ बुद्धि बैजू उसी का चेला था! तभी घमंड था उसमे! इसकी वजह मुझे समझ आ गयी!

मैं अपने कक्ष में आया, कल्पि का कक्ष बंद था, शायद सो रही थी, हम दोनों बैठ गए अपने अपने बिस्तर पर,

“बड़ा ही घमंडी और कमीन इंसान है ये बैजू” वे बोले,

“हाँ, देख लिया न आपने?” मैंने कहा,

“हाँ, अब साले को ऐसी पढ़ाई पढ़ाना कि ज़िंदगी भर यहाँ की और देख कर मूत भी न उतरे साले का!” वे बोले,

मुझे हंसी आ गयी!

“लगता नहीं कि वो द्वन्द करेगा, यदि हुआ तो मैं उसको ऐसा ही सबक सिखाऊंगा” मैंने कहा,

तभी कल्पि आ गयी वहाँ, उसने नमस्ते की और बैठ गयी,

“कैसी हो?” मैंने पूछा,

“ठीक हूँ” उसने कहा,

“खाना खा लिया?” मैंने पूछा,

“अभी नहीं” उसने कहा,

“चलो, साथ ही खाते हैं” मैंने कहा,

और तब शर्मा जी उठे और खाने के लिए चले गये,

“क्या हुआ वहाँ?” उसने बड़ी बड़ी आँखों में बड़े बड़े प्रश्न लिए हुए पूछा!

मैंने उसको बता दिया!

घबरा गयी बेचारी तितली की तरह!

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ न बोली, आंसू ढलका लिए अपने गालों पर!

“अब क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“कुछ नहीं” उसने कहा और आंसू पोंछ लिए!

“जो तुम सोच रही हो, वैसा कुछ भी नहीं है, सुनो, द्वन्द औघड़ों का गहना है, जो पहना जाता है विजय के पश्चात!” मैंने कहा,

उसने मुझे घूर के देखा!

“और जो तुम सोच रही हो कि इसका कारण तुम हो, तो भूल जाओ, समझी? ये मान-सम्मान की बात है!” मैंने कहा,

नहीं मानी वो!

आखिर मुझे उसके आंसू पोंछने ही पड़े!

“अब नहीं रोना!” मैंने कहा, प्यार से!

उसने हाँ में गर्दन हिलायी और चुप हो गयी!

तभी शर्मा जी आ गए, साथ में दो सहायक भी आये थे, खाना लगाने के लिए, खाना लगा दिया गया, और हम तीनों ने खाना खाया, उसने बाद कल्पि अपने कक्ष में चली गयी और यहां मैं और शर्मा जी आराम करने लगे!

“इस बेचारी लड़की को देखो, साला कुत्ता इस बेचारी के पीछे पड़ा है” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“साले को अपने डेरे में कोई कमी है?” वे बोले, गुस्से में,

“बात यहाँ कुछ और है, वो साला इसको साध्वी बना कर कड़ा पहनाना चाहता है, साला इसको गुलाम बनाना चाहता है!” मैंने कहा,

“कमीनों का सरताज!” वे बोले,

“कोई शक़ नहीं!” मैंने कहा,

फिर कुछ देर आराम किया!

शाम से पहले का वक़्त होगा, मैं कल्पि के कक्ष में गया, वो जागी हुई थी, मुझे देख घबरा गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अब क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“मुझे डर लग रहा है” उसने कहा,

“किसका डर?” मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोली वो,

मैं समझ गया!

एक बात को पकड़ के बैठ गयी थी!

मैंने बिठाया उसको,

“डर की क्या बात?” मैंने पूछा,

कुछ न बोली!

अब मैंने उसके सर को अपनी छाती से लगाया! चिपक गयी, जैस बहुत डरी हुई हो!

“अब डर निकाल दो अपने दिल से, समझीं?” मैंने कहा,

वो बेचारी मुझपर अटूट विश्वास करती थी, मैं उसका विश्वास कभी नहीं तोड़ सकता था! ये सबसे बड़ा गुनाह है दुनिया में! अपनी अंतरात्मा ही धिक्कारती रहती है, हाँ, यदि अंतरात्मा जागी हुई हो तो, जिसकी अंतरात्मा ही सोयी हुई वो उसमे और एक पत्थर में कोई अंतर नहीं!

 

उसको मैंने बहुत समझाया, बताया कि क्या होगा अधिक से अधिक! वो घबरायी, रोई, सुबकी लेकिन मैंने उसको समझा दिया! उस समय डर मिटाना मेरी प्राथमिकता थी, वही मैंने किया!

“अब नहीं रोना!” मैंने कहा,

चुप!

“समझ में आया कि नहीं?” मैंने दुबारा पूछा,

उसने गर्दन हिलायी!

“चलो, आज तुम्हे कुछ वस्त्रादि दिलाने हैं, आज चलना संध्या समय” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर मैं अपने कक्ष में आ गया, शर्मा जी आराम कर रहे थे, मैंने अपने बैग से पैसे निकाले और फिर तभी बाज़ार जाने का निर्णय किया, कल्पि को संग लिया और बाज़ार चला गया! कल्पि पढ़ी-लिखी लड़की थी, उम्र होगी कोई बाइस या तेईस बरस कद काठी ऐसी कि कि भी रीझ जाए, इसीलिए वो हरामज़ादा बैजू रीझा था उस पर, वो उको अपने संग गढ़वाल ले जाना चाहता था, कल्पि मना करती थी, वो कुत्ता उसको समय पर समय दिए जा रहा था, सोचने के लिए, आखिर में मैं आ गया और मैंने उसको तीन दिन का समय दे दिया!

खैर, हम बाज़ार गए, मैंने कल्पि के लिए सारा सामान खरीद लिया, वे वस्त्र खूब फबते उस पर! मैं और वो फिर वापिस आ गए अपने स्थान पर!

रात्रि की बात होगी, करीब नौ बज रहे थे, यहाँ मैं और शर्मा जी मदिरा का आनंद ले रहे थे और कल्पि अपने कक्ष में थी, मैंने खाना भिजवा दिया था उसका, उसने साथ में खाने के लिया कहा था लेकिन मैंने मना कर दिया था, हम मदिरा पी रहे थे, मदिरा के समय कल्पि का वहाँ रहना मुझे पसंद नहीं था, अब वो साध्वी नहीं बची थी, इसीलिए, हालांकि उसने ज़िद की लेकिन मैंने ही मना कर दिया था!

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, मैंने दरवाज़ा खोला, ये कल्पि थी,

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,

वो सर झुकाये खड़ी रही,

“आओ, अंदर आ जाओ” मैंने कहा,

वो अंदर आकर बैठ गयी,

“खाना खा लिया?” मैंने पूछा,

उसने न में गरदन हिलायी,

“क्यों?” मैंने पूछा,

“भूख नहीं है” उसने कहा,

:क्यों नहीं है भूख?” मैंने पूछा,

“पता नहीं” वो बोली,

“बहन की याद आ रही है?” मैंने हँसते हुए पूछा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शांत!

“अच्छा! मिलना है उस से?” मैंने पूछा,

शांत!

“ठीक है, कल मिलवा दूंगा!” मैंने कहा,

शांत!

“चलो, अब खाना खाओ जाकर” मैंने कहा,

वो अनमने मन से उठी और जाते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखते हुई गयी, मैं समझ गया, उसको बात करनी है मुझसे,

मैं भी उठा और अपने कमरे से बाहर चला गया, वो अपने कमरे के बाहर ही खड़ी थी, मुझे देख अंदर चली गयी, मैं भी आ गया,

“अब क्या बात है?” मैंने पूछा,

कुछ नहीं बोले वो!

“बताओ कल्पि, इतना समय नहीं है मेरे पास” मैंने कहा,

उसने अपने हाथ से पकड़ के मुझे नीचे बिठा दिया,

“हाँ अब बताओ?” मैंने पूछा,

“एक बात पूछूं? पूछ सकती हूँ?” उसने लरजते हुए पूछा,

“हाँ, पूछो?” मैंने कहा,

“क्यों कर रहे हैं आप मेरे लिए ऐसा?” उसने पूछा,

“ओफ्फो! मैंने क्या समझाया था तुम्हे आज? सब पानी कर दिया तुमने, अरे मैं ये तुम्हारे लिए नहीं अपने लिए कर रहा हूँ” मैंने कहा,

“किसके लिए?” उसने पूछा,

“अपने लिए”

“क्यों?” उसने फ़ौरन ही मेरी दोनों आँखों को बारी बारी से देखते हुए पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं चुप हो गया!

समझ गया था मैं!

“अच्छा, बताता हूँ!” मैंने कहा,

वो थोड़ी सी जिज्ञासु हुई!

मैं खड़ा हुआ!

उसके हाथ पकडे और अपनी तरफ खींचा! मेरे सीने से आ लगी वो! बस थोड़ा सा फांसला!

“तुम्हारे लिए!” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“क्योंकि तुम मुझपर विश्वास करती हो” मैंने बताया,

मुस्कुरायी वो!

अब उसको उसकी तरह समझाना ज़रूरी था!

“चलो, अब खाना खाओ” मैंने कहा,

“ना” उसने कहा,

“क्यों?” मैंने पूछा,

“आपके साथ” उसने कहा,

“समझा करो” मैंने कहा,

“समझा करो” उसने भी कहा,

अब मैं गम्भीर हुआ!

“सुनो कल्पि, देखो, मैं दूसरे औघड़ों की तरह नहीं, ना क्लिष्ट ही हूँ और ना नरम ही, मेरे कुछ सिद्धांत हैं, और मेरे सिध्हंत के हिसाब से तुम रमा की छोटी बहन हो, जिसको मैंने महफूज़ रखना है” मैंने कहा,

अब उसने मुझे एक अजीब सी निगाह से देखा! एक अनजान निगाह से!

“अब खाना खा लो” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने भोजन पर रखा कपड़ा हटाया और उसको बिठा दिया वहाँ,

“चलो खाओ, मैं बाद में मिलता हूँ” मैंने कहा,

उसने खाना शुरू नहीं किया,

मुझे अब गुस्सा आ गया!

“कल्पि, मैं आता हूँ एक घंटे के बाद, सो गयीं तो मैं चला जाऊँगा वापिस, जागी रहीं तो ये खाना मेरे सामने होना नहीं चाहिए” मैंने कहा,

और बाहर आ गया उसके कमरे से,

अपने कमरे में!

 

मैं फिर से आकर अपने कमरे में बैठ आज्ञा, हम दोनों खाते पीते चले गये, जब तक सामान-सट्टा निबटा तब तक डेढ़ घंटा हो चुका था, मुझे कल्पि का ध्यान आया, मैं चला उसके कमरे की तरफ, दरवाज़े की झिरी से लाइट जलती नज़र आ रही थी, अर्थात वो अभी जागी थी! मैंने उसका दरवाज़ा खटखटाया, वो उठी और झट से दरवाज़ा खोल दिया, मैं अंदर चला आया, आकर सबसे पहले उसकी खाने की थाली देखी, खाना खा लिया था उसने!

मैंने उसको देखा और मुस्कुराया!

वो भी मुस्कुराई!

“नींद नहीं आयी अभी तक?” मैंने पूछा,

“आपने आने को कहा था न?” उसने कहा,

“तो इसीलिए नींद नहीं आयी?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने शर्मा के कहा,

“ठीक है कल्पि, अब उम सो जाओ, कल मिलते हैं” मैंने कहा और अब उठके चला वहाँ से, तभी उसने मेरा कन्धा पकड़ लिया!

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“मैं आपके निकट रहना चाहती हूँ” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“क्या कह रही हो कल्पि?” मैंने उसका हाथ हटाया,

“मैंने सच ही कहा” उसने कहा,

“जानती हो इसके क्या मायने हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

“लेकिन ये सम्भव नहीं कल्पि” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“ये तुम रमा से पूछना” मैंने कहा,

“आप नहीं बता सकते?” उसने पूछा,

“बता सकता हूँ, लेकिन बताना नहीं चाहता” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“अब बस नहीं बताना चाहता” मैंने कहा,

वो मेरे सामने आयी, मुझे बाजुओं से पकड़ा और नीचे बिस्तर पर बिठा दिया, और फिर खुद भी बैठ गयी,

मित्रगण!

यहीं आपके पौरुष की जांच होती है, कि आप कितने सशक्त हैं! फल जब पक कर गिरता है तब ही उसमे मिठास होती है, कच्चा फल सड़ जाया करता है! कल्पि नव-यौवना थी, उसका मैं एहसास कर सकता था, उसकी बलिष्ठ देह इसकी परिचायक थी! लेकिन मैं कदापि इसके लिए तैयार नहीं था, नहीं, ये उचित नहीं, बस यही ठानिये मस्तिष्क में! फिर चाहे कुछ भी हो!

उसमे मेरा हाथ उठाया और अपने गले पर रख दिया, उसकी तपती देह मेरी कलाइयों पर लगी तो मुझे भी ताप सा चढ़ना लगा! स्वाभाविक है! कोई नव-यौवना यदि समर्पण भाव में हो तो झुलसना स्वाभाविक ही है! फिर उसने मेरा दूसरा हाथ लिया और अपने गले पे रख लिया, एक आबंध! आँखें बंद कर लीं उसने, मैं उस समय उसके चेहरे के रूप और कटाव को देखने लगा, कहिये निहारने लगा, जो उसके आँखें खोलने पर सम्भव न था! सच में सम्भव न था! उसके होंठों के पपोटे बहुत सुंदर थे, बंद नेत्रों की वो तस्वीर बहुत सुंदर थी, उसकी भौंहे उसके चेहरे


   
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श्रीशः उपदंडक
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की सुंदरता को और बढ़ा रही थीं! उसको उभरी हुई चिबुक बहुत सुंदर थी! मैं निहारता रहा, निहारता रहा, तब तक जब तक उसने नेत्र नहीं खोले!

उसने नेत्र खोले और मैं फिर से वहीँ आ गया जहां था!

उसने मुझे मेरी आँखों में देखा! मैंने भी देखा, मदिरा ने जैसे अब पूरे वेग से मुझ पर आघात कर दिया था, मेरे हाथ जैसे फड़कने ही वाले थे, उसको छूने के लिए, लेकिन मैंने उचित समय पर अपने हाथ हटा लिए!

वो समर्पण भाव में थी, मैं जानता था, इसीलिए मैंने अब उसके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ा और उसके माथे पर एक चुम्बन दे दिया! बस, इतना ही अधिकार था मेरा! इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं! इस से आगे उसका हनन होता, हालांकि वो मना नहीं करती, लेकिन वही सब वो! जो मुझे स्वीकार नहीं था!

मैं खा दो गया, उसने अपनी मजबूत बाँहों से मुझे बिठाने के लिए नीचे खींचा, लेकिन मैं नहीं बैठा!

“कल्पि, मैं अब चलता हूँ, सुबह मिलूंगा’ मैंने कहा और कमरे से बिना कुछ सुने और देखे बाहर आ गया!

अपने कक्ष में आया, शर्म अजी सो चुके थे, मैं भी अपने बिस्तर पर लुढ़का और सो गया!

सुबह हुई,

स्नानादि से फारिग हुए हम, मैं कल्पि के पास गया, वो जागी हुई थी, वो भी स्नान कर चुकी थी, उसने मुझे देखा और जैसे रात के वो लम्हात फिर से ज़िंदा हो गए!

“आओ, चाय नाश्ता कर लो” मैंने कहा,

उसने अपना हाथ बढ़ाया, मैंने उसको उसके हाथ से पकड़ के उठाया और उसको अपने कमरे में ले आया, चाय-नाश्ता लग चुका था, सो हमने अब शुरू किया,

“कल्पि, आज मैं रमा को यहाँ बुलाऊंगा, मिल लेना” मैंने कहा,

उसने धीरे से हाँ कहा,

एक दिन बीत गया था! दो दिन शेष थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर मैंने नागल को फ़ोन किया, कि वो मेरा सन्देश दे दे रमा को, और वो यहाँ आ जाए, नागल ने ऐसा करने को कह दिया!

और फिर करीब ग्यारह बजे रमा आ गयी वहाँ, सीधा मेरे पास ही आयी, मैं उसको कल्पि के कक्ष में ले गया और स्वयं बाहर आ गया!

और फिर चला बाबा के पास, यदि कोई बात हुई हो तो!

 

मैं तभी बाबा के पास गया, बाबा आराम कर रहे थे, उनके सहायक से मैंने पूछा तो मुझे अंदर ले गया वो, और फिर मैंने उनको नमस्ते की, उन्होंने नमस्ते ली और मुझे बैठने को कहा, मैं बैठ गया, कुछ पल शान्ति के वहाँ, बीते!

“बाबा कोई बात हुई?” मैंने पूछा,

वे चुप रहे!

थोड़ी देर,

“हाँ! बात हुई मेरे मतंगनाथ से” वे बोले,

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,

हालांकि मैं उत्तर जानता था!

“मतंगनाथ ने कहा है कि परसों तुम उस लड़की को वहाँ छोड़ आओ, कैसे भी करके” वे बोले,

“अच्छा” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

“और कुछ?” मैंने पूछा,

वे चुप हो गए!

“आप क्या कहते हैं? ऐसा होने दूँ?” मैंने पूछा,

“कदापि नहीं” वे बोले,

अब मुझे बल मिला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“क्या किया जाये फिर?” मैंने पूछा,

“आपने क्या सोचा है?” उन्होंने पूछा,

“वो आप जानते हैं” मैंने कहा,

“ठीक है, मैंने भी यही कहा कि ये उस लड़की पर निर्भर करता है कि कहाँ जाए, उसको बंदी नहीं बनाया जा सकता!” वे बोले,

“बिलकुल सही कहा आपने! अब मैं देख लूँगा” मैंने कहा,

“किसी चीज़ की आवश्यकता हो तो बता देना” वे अब लेटते हुए बोले,

“अवश्य ही बताऊंगा” मैंने कहा, और उठा वहाँ से, नमस्कार की और कमरे से वापिस हो गया!

मैं वहाँ से सीधा कल्पि के कक्ष में गया, रमा वहीँ थी, वे दोनों जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही थीं,

“क्या हुआ?” रमा ने पूछा,

अब सारी बात मैं बता दी जो हुई थी मेरी और बाबा के बीच! चिंता की रेखाएं खिंच गयीं दोनों के चेहरों पर, ये लाजमी था, रमा को चिंता अधिक थी, क्योंकि वो दिन ब दिन कटाक्ष और धमकियां सुन रही थी उस बैजनाथ और उस मतंगनाथ की, यदि मुझे कुछ हुआ तो बहुत बुरा होना था, न केवल रमा के साथ वरन इस कल्पि के साथ भी! इसीलिए दुखी होना लाजमी था उनका!

“रमा, तुम मेरे साथ रही हो, इसीलिए कहता हूँ, न घबराओ, कुछ नहीं होगा! मुझ पर विश्वास रखो” मैंने कहा,

“मैं जानती हूँ, अच्छी तरह कि बैजनाथ का क्या होगा” वो बोली,

“तो फिर?” मैंने पूछा,

चुप रही वो,

फिर उठी और उसने चलने की इच्छा ज़ाहिर की, कल्पि और वो दोनों मिलीं और फिर मैं रमा को बाहर तक छोड़ आया!

फिर आया वापिस कल्पि के पास, अब कुछ कहने सुनने को बाकी शेष न था, अब तो बस कर गुजरना था! मैंने अब कल्पि को कुछ नहीं कहा, बस तत्पर रहने को कह दिया, क्या करती, कोई


   
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श्रीशः उपदंडक
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अन्य विकल्प शेष नहीं था उसके पास भी! वापिस वो जायेगी नहीं, जैसा बैजू कहता है वो, वो करेगी नहीं, तो क्या रास्ता रहा उसके पास? बस यही कि वो अब वैसा ही करे जैसा मैं कह रहा हूँ!

अब आया मैं शर्मा जी के पास, वे बैठे हुए थे, कुछ सोच रहे थे, मुझे देखा मुझे देखा और बोले, “बाबा से बात हुई?”

“हाँ, हो गयी” मैंने कहा,

“क्या रहा?” उन्होंने पूछा,

मैं अब सारी बात बताई उन्हे,

“मुझे पता था, यही होगा” वे बोले,

“मुझे भी” मैंने कहा,

“अब?” उन्होंने पूछा,

“तैयारी” मैंने कहा,

उन्होंने हाँ में गर्दन हिलायी,

“तो कल जाओगे वहाँ आप गुरु जी?” उन्होंने पूछा,

“हाँ, कल जाऊँगा मतंगनाथ के पास” मैंने कहा,

“ठीक है” वे बोले,

उस दिन मैं सोच-विचार में डूबा रहा, कुछ तैयारियां थीं वो मैंने निबटाने के लिए इंगित कर लीं,

रात हुई, हम सो गए,

प्रातः काल फारिग हो मैं और शर्मा जी चल पड़े मतंगनाथ के डेरे पर, देखने क्या निर्धारित होता है, आज आखिरी दिन था उसकी धमकी का और मेरे कहे का भी, अब देखना था क्या हुआ था! हाँ, जाने से पहले कल्पि को मैं सबकुछ समझकर आ गया था!

करीब दस बजे हम मतंगनाथ के डेरे पर पहुंचे गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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काफी भीड़-भाड़ थी वहाँ, कुछ आयोजन सा था, हम अंदर गए तो मैं सुर्रा और नागल के कक्ष की ओर बढ़ा, कक्ष तक पहुंचा, वे वहाँ नहीं थे, कक्ष खुला था, हम बाहर ही खड़े थे कि सुर्रा आ गया, नमस्ते हुई और फिर वो हमे कक्ष में ले गया,

“नागल कहाँ है?” मैंने पूछा,

“वो कदमनाथ के पास गया है” उसने कहा,

“अच्छा, और कोई बात हुई?” मैंने पूछा,

“नहीं, आपके जाने के बाद यहाँ कोई उल्लेख नहीं हुआ आपका” वो बोला,

तभी मैंने शर्मा जी को मतंगनाथ के पास चलने को कहा, हम दोनों चल पड़े उस मतंगनाथ के पास!

मिलने के लिए!

 

अब हम चले मतंगनाथ के कक्ष की ओर, उसका कक्ष उसके डेरे के दाहिने हाथ पर बना हुआ था, थोडा पैदल चलना पड़ा हमे और फिर हम आ गए उसके कक्ष के बाहर, वहाँ बैजू एक और औघड़ के साथ खड़ा था, मुझे देखा वो घूरने लगा! मैंने भी घूरा, जैसे दो परस्पर विरोधी एक दूसरे के निकट आ गए हों! मैं सीधा मतंगनाथ के कमरे में घुड़ गया, वहाँ बहुत से लोग थे, कुछ मेरे जानकार और कुछ अनजान लोग, मतंगनाथ खड़ा हुआ और मेरे पास आया,

“आओ मेरे साथ” उसने कहा,

मैं उसके साथ चला,

शर्मा जी चले तो उसने मना कर दिया साथ आने को, लेकिन शर्मा जी एक निश्चित दूरी बनाते हुए मेरे इर्द-गिर्द ही रहे, वहाँ ऐसा होते देख बैजू भी आ गया था, वो कभी मुझे देखे कभी शर्मा जी को!

“कहो?” मैंने कहा,

“देखो, मेरी बात ध्यान से सुनना” वो बोला,

“सुनाओ” मैंने कहा,

“तुम उस लड़की को यहाँ ले आओ” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“असम्भव है ये” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“लड़की नहीं आना चाहती” उसने कहा,

“या तुम नहीं चाहते?” उसने पूछा,

“ऐसा ही सही” मैंने कहा,

“क्या करोगे उसका?” उसने पूछा,

“कम से कम अपनी इच्छा से तो रहेगी” मैंने बताया,

“यहाँ कौन उसे क़त्ल कर रहा है?” उसने पूछा,

“उसकी भावनाओं का क़त्ल हो रहा है और कर रहा है वो बैजू” मैंने कहा,

“जानते हो वो रमा की छोटी बहन है? उसको आसरा हमने दिया” उसने कहा,

“दास बनाने के लिए?” मैंने कहा,

“बेकार की बात” वो बोला,

“सही बात” मैंने कहा,

“सुनो, यहाँ और भी साधिकाएं हैं, उनसे काम साध लो?” उसने कहा,

“नहीं” मैंने कहा,

“कोई निजी मामला है क्या?” उसने पूछा,

“ऐसा ही समझ लो” मैंने कहा,

“इसको ज़िद समझूँ?” उसने कहा,

“समझ सकते हो” मैंने कहा,

“सोच लो फिर रमा का क्या होगा?” उसने चेताया अब!

तुरूप का इक्का खेल गया था वो!

“क्या कहना चाहते हो, साफ़ साफ़ कहो?” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अगर वो लड़की यहाँ नहीं रहेगी तो ये भी नहीं रहेगी” मैंने कहा,

“मंजूर है” मैंने कहा,

“और उसे हम छीन लेंगे!” उसने कुटिल मुस्कान के साथ ऐसा कहा,

“छीन लोगे! कितना आसान सा शब्द प्रयोग किया है, छीन!” मैंने कहा, मुस्कुरा कर!

“हाँ, हम छीन लिया करते हैं!” उसने कहा,

“लिया करते होंगे, अब नहीं” मैंने गम्भीर हो कर कहा,

“जानते हो इसका नतीजा?” उसने कहा,

“बेशक” मैंने कहा,

अब चुप वो!

मैं प्रतीक्षा कर रहा था उसके बोलने की!

और तभी बीच में वो बैजू आ गया, वो आया तो शर्मा जी भी आ गए!

“क्या कह रहा है ये?” उसने मतंगनाथ से पूछा,

“मना कर रहा है” उसने कहा,

“दिन आ गए इसके अब” उसने कहा,

“मैं तो समझा रहा था इसको, लेकिन नहीं मानना चाहता!” वो बोला,

“ये ऐसे नहीं समझेगा, जब धड़ से सर अलग होगा न, तब पता चलेगा इसको!” बैजू ने हाथ पर मुक्का मारते हुए कहा,

“इतने बड़े बोल न बोल! तू भूल में है अभी, मतंगनाथ के *** चाट कर इस से पहले मेरे बारे में पूछना, लंगोट गीली हो जाए तो कभी भी आकर मेरे पाँव पकड़ लेना, जीवन दान मिल जाएगा!” मैंने कहा बैजू से!

खून का घूँट सा पिया उसने!

“अच्छा! कौन है तू?” उसने पूछा,

“इस से पूछ!” मैंने मतंगनाथ की ओर इशारा करते हुए कहा,


   
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