सामने अपनी हार स्वीकार कर लेता है और अपना जीवन बचा लेता है! घंटक-बौना सर्वप्रथम अपने आह्वान करने वाले के रक्त से अपनी क्षुधा मिटाता है और फिर बाद में साधक के कार्य में सफल होने पर स्त्री-संसर्ग मांगता है! नहीं दिया तो समझो मृत्यु-निश्चित है साधक की! ये गाज़ी द्वारा की हुई विधि उसी घंटक-बौने का आह्वान थी!
मुझे घंटक-बौने को शिथिल करना था, वो द्रुत-गति से चलता है! अदृश्य और चक्षु-हीन होकर! सीधा अपने लक्ष्य पर वार करता है! अपने शत्रु-लक्ष्य के शरीर के आर-पार चला जाता है! जहां से गुजरता है वहीँ से खोखला कर देता है! अस्थियाँ भी काले रंग की हो जाती हैं! कुछ ही क्षणों में शत्रु धराशायी हो जाता है!
उसको रोकने के लिए मुझे शोभना-सखी व्युत्पाला का आह्वान करना था! मैंने आसन छोड़ा और अलख के पास जाकर बैठ गया! बकरे की निकाली हुई आँखें लीं और उनको फोड़कर एक सुएँ से धागे में प्रोकर अपने गले में धारण कर लिया अभिमन्त्रण के साथ! इसको चक्षु-बल कहा जाता है, कई अलौकिक जो अदृश्य रूप में रहती हैं, उनका साक्षात दृश्य स्पष्ट हो जाता है! यही मैंने किया था!
मैंने ‘जं जं होम जूं……………………………..” का अटूट मंत्रोच्चार किया!
एक एक मंत्र के साथ मेरी ध्वनि तीव्र होती जाती थी! मेरे शरीर में जैसे वायु भरती जाती थी! शरीर में वायु-संचरण से शरीर भारी होता जाता था! मै मंत्रोच्चार के साथ साथ भूमि पर तंत्र-चिन्ह अंकित करता जाता था अपने चारों ओर अपनी तर्जनी ऊँगली से! ये शोभना-सखी व्युत्पाला का आह्वान करने के लिए किया जाता है!
वहाँ गाज़ी ने अपने नेत्र खोले! नेत्र खोलते ही उसने अपनी मुट्ठी में रक्त भरा और उस गड्ढे पर फेंका! गड्ढे से श्वेत-धूम्र उठा और ज़मीन फाड़ता हुआ घंटक-बौना प्रकट हो गया! गाज़ी ने ठहाका लगाया!
घंटक-बौने ने एक अंगडाई सी ली! गाज़ी ने अपने हाथ के अंगूठे में अपने चाक़ू से एक चीरा लगाया और टपकता हुआ रक्त घंटक-बौने को चटा दिया!
रक्त चाटने के साथ ही गाज़ी ने फिर से अट्टहास किया! वो घंटक-बौना हवा में उठा और शांत खड़ा हो गया! गाज़ी उस समय शांत खड़ा हुआ आगे की रूप-रेखा बना रहा था! उसने औघड़ी-विद्या से मुझे देखा!
यहाँ मैंने घोरतम मंत्रोच्चार करके फरसा उठाया और फिर मेढ़े के सर पर मार दो फाड़ कर दिए! उसका भेजा निकाला और एक पात्र में रख दिया! मैंने फिर से मंत्रोच्चार किया! और आधा सर मैंने अलख से निकाली हुई एक बड़ी सी लकड़ी पर रख दिया! वायुमंडल में भूनते हुए मांस की गंध फ़ैल गयी! यही समय होता है और ऐसा ही माहौल जब शोभना-सखी व्युत्पाला का आगमन होना होता है तो! तभी ‘तराड’ जैसी तेज आवाज़ हुई! मैंने ऊपर देखा! अनुपम-प्रकाश वाली व्युत्पाला प्रकट हो गयी! ये व्युतपाला मुझे एक असम के औघड़ ने सिद्ध करवाई थी! मैंने दोनों हाथ जोड़ कर उसका नमन किया! उचित समय पर व्युतपाला प्रकट हो गयी थी! परन्तु उसी समय जब ‘तराड’ की आवाज हुई थी, घंटक-बौना गाज़ी से निर्देश ले कर चल पड़ा था शत्रु-भेदन को!
मैंने दूर आकाश में घंटक-बौना आते देखा! वो तीर की भांति नीचे आया और आते ही ठिठक गया! उसने व्युतपाला को देखा और वापिस हुआ उसी क्षण! वो प्रकट हुआ गाज़ी के यहाँ और फ़ौरन से उसी गड्ढे में समा गया! ये देख गाज़ी और गरुड़ नाथ ने झटका खाया! घंटक-बौना वापिस चला गया था! बिना शत्रु-भेदन किये!
गाज़ी ने आँखें बंद कीं और सारी सच्चाई से अवगत हो गया! अब उसने पाँव पटके! पास पड़े बर्तनों में ठोकरें मारीं! गुस्से में गालियाँ दीं मुझे! और मुट्ठी भींचे अपनी छाती पर मारीं! उसके गुस्से ने भयानक रूप लिया! उसने चिल्ला के गरुड़ नाथ से कुछ माँगा, गरुड़ नाथ वहाँ से भागा और करीब पांच मिनट में वापिस आया, वो अपने स्थान से कुछ लाया था, काली पन्नी में लिपटा हुआ! गाज़ी ने गुस्से उस पन्नी को फाड़ा! उस पन्नी में से उसने बकरे की तिल्ली निकाली और उसके टुकड़े करने लगा! उसने उसके कई टुकड़े किया! ये दरअसल मेरा मारण था! उसने अपना आसन उठाया और अलख के पास रख दिया! फिर उसने उसने अपने त्रिशूल पर उस मांस के टुकड़े लगाए और फिर उनको आग में भूना! जब उसने तो टुकड़े भून लिए तो उसने दो टुकड़े गरुड़ नाथ को खिला दिए! गरुड़ नाथ वो टुकड़े खाता जाता और उस पर नशा हावी होता जाता! ये गाज़ी के अहम् चाल थी! वो गरुड़ नाथ के अन्दर किसी शक्ति को जागृत करना चाहता था और उस से मेरा मारण! बेहद चालाक औघड़ था ये गाज़ी! गाज़ी ने शराब से भरा एक गिलास गरुड़ नाथ के मुंह पर लगाया और उसको पिला दिया! गरुड़ नाथ आसन पर लेट गया!
अब गाज़ी ने फिर से मंत्र पढने आरम्भ किये! और प्रत्येक मंत्र की समाप्ति पर वो गरुड़ नाथ के होंठों पर अपनी ऊँगली, रक्त से डुबोई हुई लगाता जाता था! फिर अचानक उसने एक अट्टहास किया और खड़ा हो गया! खड़ा हो कर वो गरुड़ नाथ की छाती पर चढ़ गया! अब गरुड़ नाथ ने तेज तेज साँसें भरीं! गाज़ी उतरा और अपना चिमटा खडकाया! बड़बड़ाते हुए गरुड़ नाथ बैठ गया! मुंह खुला हुआ और आँखें पूरी फटी हुईं! अब गाज़ी बैठा उसके सामने और रक्त के छींटे
डालता गया उस पर! वो जैसे चिंघाड़ता! और कभी लेट जाता और कभी बैठ जाता! कभी हँसता और कभी रोता! मै समझ गया था! गाज़ी ने अब कौन सी चाल चली है! उसने अपना एक महाभट्ट महाप्रेत( इस शक्ति का मै नाम नहीं ले सकता, और ये उचित भी नहीं, इसीलिए मै इसको महाप्रेत ही कहूँगा) बुला लिया था!
अब मै और अधिक मुस्तैद हुआ! तभी मुझे खबर लगी कि वो मेरा मारण नहीं, बल्कि रूचि का मारण करेगा परोक्ष रूप में! ये मेरे लिए चिंता का विषय था!
मैंने तब रक्षण-विद्या जागृत की और ज़मीन पर एक घेरा बनाया! उस घेरे को उस रक्षण-विद्या से पोषित किया और उसके बीच में रूचि की तस्वीर रख दी, कुछ रक्त के छींटे दिए और इस प्रकार रक्षण-विद्या जागृत हो गयी!
वहाँ गाज़ी ने भोग लगवाया गरुद्नाथ के अन्दर समाये हुए महाप्रेत को! वार्तालाप हुआ उनके बीच और महाप्रेत उसको छोड़ चला पड़ा अपने गंतव्य की ओर!
वो यहाँ पहुंचा! मुझे खबर लगी! ये जो महाप्रेत था ये बलशाली, युक्तिपूर्ण तरीके से काम करने वाला महाभीषण था! जैसे ही वो शमशान की सरहद में आया, ठहर गया! रुक गया! उसने लक्ष्य की गंध ली! शमशान के भूत-प्रेत थम के वहीँ के वहीँ खड़े हो गए! मृगों के झुण्ड में आये एक सिंह सामान वो प्रबल महाप्रेत जायजा ले रहा था!
मैंने तब अपना तमंग-महाप्रेत हाज़िर कर लिया! तमंग उस से कम नहीं था! ये शमशान का रक्षक है! तमंग-महाप्रेत चल पड़ा उस आगंतुक से मिलने! रक्षण-विद्या की गंध से वो वहीँ जमा पड़ा था! मैंने तमंग को उस से लड़ने नहीं बस उसका मार्ग रोकने के लिए भेजा था!
वहाँ गरुड़ नाथ अचेत पड़ा था! औए गाज़ी ध्यान लगाए बैठा था! यहीं गाज़ी ने चूक कर दी थी! और ये चूक उसे अब महँगी पड़ने वाली थी!
अब मै बैठा अलख के सामने! अब मै वार करना चाहता था गाज़ी पर! गाज़ी के ध्यान का तार उस समय अपने महाप्रेत से बंधा था और मुझसे बेखबर था! जब बुद्धि साथ छोडती है तो उसके लक्षण पहले ही दिखाई देने लगते हैं! गाज़ी के साथ भी यही होना था अब!
वहाँ गाज़ी आँखें मूंदे, लक्ष्य-भेदन का इंतज़ार कर रहा था! मंत्र लगातार जपे जा रहा था! खो गया था मंत्रोच्चार में! उसने भोग वाला थाल पहले से ही सजा के रख दिया था थाल में! और थाल रख दिया था गरुड़ नाथ के ऊपर!
गाज़ी का मत्रोच्चार निरंतर चल रहा था! वो गहन-ध्यान में था! गरुड़ नाथ नाक-मुंह से अब झाग निकालने लगा था! मैंने फ़ौरन कपाल-मालिनी का आह्वान किया! तमंग डटा हुआ था उस महाप्रेत के सामने! न उसने पहल की और न ही दूसरे ने! महाप्रेत गंध ले रहा था खड़ा खड़ा! तमंग वहीँ जमा था! अमोघ-मारण के साने डट गया था! गाज़ी महाप्रेत को आगे बढाता और मेरे शशां की सरहद पर आके उसकी पकड़ छूट जाती! ये एक रहस्य है मित्रगण कि कैसे पकड़ छूट जाती है! अब मेरे पास अवसर था, मैंने भोग आदि सुसज्जित किया! और फिर मदिरा का एक गिलास गटक कर मांस खा कर मैंने उसका आह्वान किया!
“घडाम” जैसे ध्वनि हुई! कपाल-मालिनी के सेवकगण प्रकट हो गए! उसकी सहोदारियाँ प्रकट हो गयीं! मैंने तुरंत ही उन्हें अपने मंत्रोच्चार से नमन किया और तभी कपाल-मालिनी प्रकट हो गयी! रौद्र-रूपिणी, अत्यंत श्याम-वर्णी, रक्ताभ जिव्हा निकाले, पीले गोल नेत्रों वाली कपाल-मालिनी, मुंड-माल धारण किये प्रकट हो गयी थी!
मैंने मदोन्मत्त अवस्था में किसी प्रकार से उसके समक्ष दंडवत हुआ! मैंने तिहित्रा को, कपाल-मालिनी की सेविका सहोदरी को अपना उद्देश्य बता दिया! वे फ़ौरन लोप हुए! जा पहुंचे गाज़ी के पास! गाज़ी का ध्यान टूटा, उसने गंध ली पारलौकिक अस्तित्व की, वो खड़ा हुआ और चारों तरफ नज़र दौड़ायीं उसने! अब जब तक वो विमोचिनी का आह्वान करता तब तक कपाल-मालिनी के दो सेवकों ने उसका उठा के फेंका ज़मीन पर! वो कम से कम दस फीट हवा में उछला और धड़ाम से गिरा नीचे! गरुड़ नाथ को उसके बालों से पकड़ कर फेंक के मारा टिल्ले से नीचे! वो वैसे ही अवचेतन अवस्था में था, उसका सर फट गया, हाथ टूट गए, लेकिन मुंह से एक आवाज़ नहीं निकली उसकी! गाज़ी, सत्तर-अस्सी साल का वो औघड़ उठा किसी तरह से और फिर अपने हाथ जोड़ के बैठ गया! उसकी हवाइयां उड़ गयीं थीं! मैंने तभी उनका पक्ष-आह्वान किया! वे वहाँ से लोप हुए! और मेरे समक्ष प्रकट हुए! मैंने उनको नमन कर, भोग चखा कर, दंडवत होकर प्रणाम किया! मेरे सर ऊपर उठाने तक वे लोप हो गए!
मेरी विजय हो गयी थी! गाज़ी ने हाथ जोड़ लिए थे! वो हाथ जोड़ने के बाद बेहोश हो गया था! अब मै खड़ा हुआ! विजय नाद किया! त्रिशूल उठाया और लहराते हुए अलख के चारों और नाचने लगा! औघड़-नृत्य! मदोन्मत्त तो था ही, विजयोन्मत्त का रस-पान भी कर लिया था! मैंने शांत हुआ और अलख पर बैठा!
अब बचा था वो धौलिया!
मैंने उसी समय तातार खबीस को हाज़िर किया! तातार खबीस हाज़िर हुआ! उसने अपना भोग लिया और मेरे बताये लक्ष्य की ओर उड़ चला!
जब तातार-खबीस पहुंचा वहाँ, उस समय रात्रि के पौने चार बज चुके थे! धौलिया छत पर बने कमरे में सो रहा था अपने चेले के साथ इत्मीनान से! इत्मीनान इस्तना कि आज रात गाज़ी बाजी जीत लेगा! सोते हुए धौलिया को तातार ने उठाया उसकी कमर से, धौलिया की जब तक चीख निकलती तब तक उसकी कमर और सर ऊपर छत पर लग चुके थे! उसके मुंह से कराह निकली! चेले की आँख खुली तो उसने अपने गुरु को अदा पलंग पर और आधा ज़मीन पर पाया! धौलिया को कुछ समझ न आया, अब जैसे ही चेला आगे बढ़ा खबीस ने एक लात जमाई उसकी छाती पर! वो सीधा दरवाजे से बाहर गया और गुसलखाने के दीवार से टकराया! किसी लाचार मनुष्य की तरह चिलाया चेला! अब खबीस ने धौलिया को उसके बालों से पकड़ के उठाया और उठाके फेंका दरवाजे से बाहर! अब धौलिया रोया! घर में बातियाँ जल पड़ीं! पड़ोसियों ने भी बत्तियां जल लीं! खबीस ने एक बार फिर से उनका उठाया और फेंक के मारा साथ वाली दीवार पर! चेले का जबड़ा टूट गया और धौलिया की पसलियाँ कड़कड़ा गयीं! सर फट गया उसका! रक्त की धरा फूट पड़ी वहाँ! चेला दर्द के मारे गर्रा रहा था और उधर धौलिया बेहोश हो गया था! नीलू के माँ बाप दौड़े दौड़े आये ऊपर, उन दोनों का हाल देखा तो पाँव तले ज़मीन खिसक गयी उनके! रोना-पीटना शुरू हो गया! कौन आया, किसने मारा, किसने पटका, कुछ पता न चला! अब तातार उड़ा वापिस और आया मेरे पास! जमके ठहाका मारा! मैंने उसको उसका भोग दे वापिस कर दिया!
किस्सा ख़तम हो गया था! मै वहीँ ज़मीन पर लेट गया! लेटे-लेटे अपने गुरु की वंदना की, अघोर-पुरुष का आभार जताया और अपने महा-ईष्ट की वंदना की! अश्रु लिए आँखों में अलख की ओर देखा, मेरे अश्रु-पूर्ण नेत्रों में उसकी पीली पीली लपटें झिलमिला गयीं! यदि अलख बुझी तो समझो मृत्यु से साक्षात्कार हुआ उसी क्षण! अलख अभी जवान थी! उन्मत्त! मैंने हाथ जोड़े अलख के!
मै उठा और अपने कीकर के पेड़ के नीचे एक बोरा बिछाया, उस पर बैठा, मदिरा की बोतल खोलीं और कलेजी चबाते हुए मै मदिरापान करने लगा! विक्षिप्त-अवस्था के मनुष्य भांति मै हँसता और फिर चिल्लाता, गाली-गलौज करता! गाज़ी, गरुड़ नाथ और धौलिया को बार बार खड़े हो हर अपने त्रिशूल से इशारा करता और फिर बैठ जाता! और जैसे ही गाज़ी का ख़याल आता मुझे ताप चढ़ जाता और मै गाली गलौज करता उन्हें!
मदिरा पीते पीते भूत आदि टोह लेटे तो मै उनके लिए टुकड़े फेंक देता! भूल गया था वे ऐसे नहीं खाते, लेकिन मेरी अवस्था उन्मत्त अवस्था थी तब! कोई मुझसे बात भी करता तो मै उसे भी गाली-गलौज कर देता! ये औघड़-मद है मित्रगण!
मै नशे में धुत्त वहीँ लेट गया था! लेता तो निन्द्रालीन हो गया! कोई होश नहीं, सब सुन्न! प्रातःकाल शर्मा जी वहाँ आये, मुझे अचेत समझ घबरा गए, आते ही मुझे पुकारा, एक बार, दो बार! मैंने अपने नेत्र खोले और उठ के खड़ा हुआ! कीकर और बेरी के पेड़ के पत्तों से सूर्य-रश्मि छन के मुझे पर पड़ रही थी! उन्होंने अपना हाथ दे मुझे उठाया और मैंने फिर अपना कुरता पहना तब!
“सब कुशल तो है ना गुरु जी?” उन्होंने पूछा,
“हाँ! शर्मा जी, वे तीनों हटा दिए गए हैं! शत्रु-भेदन हो चुका है! हम विजयी हुए हैं!”
“मुझे पूर्ण विश्वास था गुरु जी” उन्होंने कहा,
“अब रूचि को कोई खतरा नहीं, वैसे कैसी है अब?” मैंने पूछा,
“वो कुशलपूर्वक है! अभी सो रही है” उन्होंने बताया!
मुझे ये सुन परम संतोष हुआ!
मैंने वहाँ से अपना सामान उठाया और शर्मा जी को दे दिया! और स्वयं स्नान करने के लिए चला गया! वापिस आया अपने कमरे में स्नान-पश्चात, रात्रि की सभी घटनाएं याद आ गयीं! जो कुछ हुआ था अब समाप्त हो चुका था! गाजी, धौलिया और गरुड़ नाथ का क्या हुआ, ये मै पता करना चाहता था, पर सबसे पहले मै रूचि के पास गया! उसने नमस्कार की, वो कुशलपूर्वक थी, श्रीमती महाजन को शर्मा जी ने सभी बातों से अवगत करा दिया गया था! उन्होंने मेरा धन्यवाद किया! मैंने अपना कर्त्तव्य निभा दिया था! किसी मासूम को गर्त में जाने से रोक लिया था! परन्तु अफ़सोस, आज भी ऐसे तांत्रिक हैं जो इसी काम-लोभ में आसक्त हैं!
मित्रगण! रूचि आज ठीक है, उसके माँ-बाप आते रहते हैं मेरे पास, जब भी रूचि के पिता जी विदेश से वापिस आते हैं तो!
गाज़ी ने जब कपाल-मालिनी की सहोदरी के समक्ष हाथ जोड़े थे, समर्पण किया था, तभी उसकी विद्यायों का कीलन हो गया था! अब वो एक प्रकार से खाली ही था! गरुड़ नाथ के साथ जो हुआ वो, वो बर्दाश्त ना कर सका, वो वहाँ से चला गया था, धौलिया के पेट की आंतें फट गयी थीं, उसको उसके किये का सबक मिल गया था, आज तक पेट पर बेल्ट बांधे रहता है, उसका मिथ्या-संसार धूलधस्रित हो गया था, हाँ रहता वहीँ है आज भी गाज़ी के पास ही! नीलू के माँ-बाप ने उस दिन के बाद से महाजन परिवार से कभी संपर्क नहीं किया!
मित्रो! शक्ति कोई भी अर्जित कर सकता है, परन्तु उसको साधना अर्थात उचित संतुलन बनाना, हर एक के बस की बात नहीं! अपनी आयु के चौथे चरण में आया हुआ बाबा गाज़ी इसका उदाहरण है!
अभी भी कई गाज़ी, गरुड़ नाथ और धौलिया अपना डेरा जमाये बैठे हैं, और मै उनके अपने समक्ष आने की ताक में बैठा हूँ! स्मरण रहे, विजय सदैव सत्य की ही होती है! असत्य डरा तो सकता है, हावी भी हो सकता है, परन्तु सदैव अस्तित्व-विहीन होता है!
---------------------------साधुवाद!---------------------------