वो अचानक से उठी, और फिर पीठ के बल, लेट गयी मेरे ऊपर, अब मेरी हालत हुई खराब, मंत्र पढ़ने में हुई दिक्कत मुझे नोंच रही थी हर जगह, काफी देर ये ये हंगामा सा चला,
और फिर प्रकाश की एक लहर सी आई उधर! वो चौंक पड़ी! देखा उसने ऊपर,
और हो गयी खड़ी! मैं भी झट से खड़ा हुआ, मैं जानता था कि वो, अब बस गश खाने को ही है, फौरन ही पकड़ लिया उसे!
और वो, झूल गयी मेरी बाजुओं में! मैं उसे ले गया आसन पर, और लिटा दिया, फिर भाग कर, उस स्थान पर आया, प्रकाश के वलय चक्कर लगा रहे थे! छन्न-छन्न की आवाजें आने लगी थीं वहाँ! ये भामर था, उसके आगमन का भामर!
और अचानक से शीतल वायु का बवंडर सा उठा! मिट्टी उड़ाता हुआ गुजर गया वहां से! इसी बीच, मेरे स्थान पर, तलवारों की सी टंकार करती हुई आवाजें आने लगी थीं! ये लहुशमाद्रि का आगमन था! भेज दिया था तावक नाथ ने उसको अपना उद्देश्य बता कर, जैसे ही वो धुंध सी चली मेरी तरफ, कि अचानक से पीला प्रकाश फूट पड़ा!
और प्रकट हुई लौहखंडा! मैं झट से नीचे लेटा! और प्रणाम किया। माँ! माँ! चीखने लगा! वो धुंध, पीछे हटी और उड़ गयी वापिस ऊपर! मैंने मिट्टी में एक मंत्राक्षर लिखा,
और महाभाक्ष जपा! खड़ा हुआ,
और वंदना की अपनी प्राण-रक्षणी आराध्या की! उद्देश्य पूर्ण हुआ!
और इस प्रकार लौहखंडा लोप हुई! मैं भागा वापिस अलख पर, ईंधन झोंका,
और कपाल उठाया, बगल में दबाया, चिमटा उठाया, और औघड़-नृत्य किया! उसको गाड़ा, तो त्रिशूल उखाड़ लिया!
और लगाई देख! वे सभी, अलख के चारों ओर खड़े थे! वे औघड़ ज़मीन पर बैठे हुए थे! साध्वियां खड़ी थीं। मिहिरा हाथ थामे उस तावक नाथ का, खड़ी थी,
और तावक नाथ! उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ी थीं! दोनों हाथ खोले, वो नीचे अब बैठता चला गया! भूमि में सर लगाया!
और रोने लगा ज़ोर ज़ोर से! "तावक!" चीखा मैं! उसने ऊपर देखा, चेहरे पर मिट्टी लगी थी! "अभी भी समय है!" कहा मैंने, वो फिर से रोया! "तेरा कोष रिक्त हुआ तावक!" कहा मैंने, खड़ा हुआ वो, उखाड़ा त्रिशूल! बनाई यौमिक मुद्रा,
और लहरा दिया त्रिशूल! मैं ज़ोर से हंस पड़ा! इस बार स्वतः ही हंसी निकल गयी मेरी! "तावक! जिनसे तू रिक्त हुआ, अब शेष आयु भोग में भी पुनः प्राप्त न हो सकेगा! सम्भल
जा!" बोला मैं, थू थूका उसने! पोंछी मिट्टी चेहरे से अपनी! "मांग ले क्षमा!" कहा मैंने, "क्षमा?" बोला वो, "हाँ, क्षमा! और लौट जा!" कहा मैंने, "तुझसे क्षमा?" बोला वो, "हाँ तावक!" कहा मैंने, "तेरा सर कटेगा!" बोला वो,
और हंसा बहुत तेज! मूर्खता देख उसकी, मैं भी हंस पड़ा। रस्सी जल गयी!
लेकिन बल न गए! "अरे मूढ़! क्यों नाश करता है अपना!" बोला मैं, "नाश तो तेरा होगा!" बोला वो,
और पलटा पीछे! गया अलख तक, झोंका ईंधन!
और लिया एक झोला! निकाले पीतल के तीन दीपक! मूर्ख कहीं का! "तावक!" कहा मैंने, नहीं सुना उसने, टालता रहा! "खण्डार!" बोला मैं, "हाँ! खण्डार! तेरी मौत!" बोला वो,
मैं फिर से हंसा! "उसके बाद?" पूछा मैंने, "उसके बाद? तेरी मौत!" बोला वो,
और हंसने लगा ज़ोर ज़ोर से! लगाए दीपक उसने! अलख से दूर! लाया अपनी साध्वियों को, बिठाया एक एक करके, कतार में, फिर उनकी पीठ पर, चिन्ह अंकित किये भस्म से!
और आमने सामने मुंह करके उनके, बिठा दिया, केश एक दूसरे के ऊपर चढ़ा दिए, सबकी पीठ के पीछे, एक एक दीया प्रज्ज्वलित कर दिया!
और स्वयं, जा बैठा अलख पर! और आरम्भ की क्रिया! यही बताया था मुझे बाबा शाल्व ने!
और श्री श्री श्री जी ने! मुझे, कमल-रूपा काढ़ना था भूमि पर,
सो मैंने काढ़ा, एक बड़ा सा कमल बनाया! एक एक पत्ती पर, एक एक मांस का टुकड़ा रखा! रक्त के छींटे दिए, साध्वी के पास गया,
रक्त के छींटे दिए,
और उसको उठा लिया, वो अचेत थी अभी भी! उस कमल पर, लिटा दिया मैंने उसे, उसके शरीर पर, चिन्ह अंकित कर दिए!
खण्डार से अग्नि उत्पन्न होती है। वही भस्म करती है।
अग्नि भी ऐसी, नीले रंग की!
ये अग्नि , उन तीनों साध्वियों की प्राण-वायु थी! उसी को क्रियान्वित करके, खण्डार प्रयोग करता वो, मैंने उसकी काट के लिए, यही विधि अपनायी थी! खण्डार असत-कर्कक्ष समय तक रहती है, कुल नौ मिनट के करीब! वो एक हाथी को भी, एक ही क्षण में भस्म बना सकती है! जैसे ही शत्रु की प्राण वायु बाहर निकलती है, वो अग्नि बंद हो जाती है। आपने सुना होगा, स्वतः अग्निदाह (SPONTANEOUS HUMAN COMBUSTION), ये एक रहस्य ही है विज्ञान के लिए, कुछ ऐसा ही होता है खण्डार से, आप चाहें तो इसकी तस्वीरें आप,
पा
गूगल पर देख सकते हैं, ये रहस्य विज्ञान की समझ से परे है, परन्तु, अघोर में, ये सभी को पता है, कई शताब्दियों से! अब मैंने उस कमल की आकृति को, मन्त्रों द्वारा अभिमंत्रित किया, कई अन्य विद्याओं द्वारा पोषित किया! कहीं भी कोई छिद्र रह नहीं जाना था, अन्यथा परिणाम बहुत गंभीर था! मैंने साधिका का शरीर सारा का सारा उसी आकृति में रख दिया था, उसके शरीर को भी, अभिमंत्रित भस्म से लेप दिया था!
और फिर भूमि में, उस आकृति की, कुछ अस्थियों के टुकड़े, जो मैं बाबा काश्व से लाया था, गाड़ दिए थे। किसी भी पल, वो खण्डार वहाँ आ सकती थी, प्रबल-संहारक है ये खण्डार! ये भी तावक नाथ को, उसके पिता ने हीदी होगी! इसके बस की बात नहीं थी वो!
आज तावक नाथ ने खूब नाम निकाला था अपने पिता का! पूर्ण रिक्त होने की कगार पर आ खड़ा हुआ था। आखिरी अस्त्र चलाया था उसने अपने तरकश से, यूँ कहो, कि महासंहारक ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया था! इस ताव नाथ ने, न जाने कितने ही ऐसे औघड़ों को मारा होगा द्वन्द में,
आज उसकी का निर्णय होना था! उन सभी की आत्माओं को आज शान्ति पड़नी थी!
एक बात सच कहता हूँ मैं मित्रगण! मैं नहीं चाहता था कि उसका कोई अहित हो, या मृत्यु को प्राप्त हो,
मैं उस से बार बार क्षमा मांगने को कहता था, लेकिन वो अपनी शक्ति के दम्भ में अँधा हो चुका था! कुछ न दीख रहा था उसे, बस लक्ष्य अपना! लक्ष्य भी ऐसा, जिस पर उसके अस्त्र कुन्द पड़े जा रहे थे! मैंने देख लड़ाती, वाचाल ने अट्टहास किया!
ये अंतिम वार था उस तावक नाथ का! वहाँ तावक नाथ उन साध्वियों पर, भस्म छिड़क रहा था, रक्त के छींटे छिड़क रहा था! पागलों की तरह से चिल्ला रहा था! "काट दूंगा! टुकड़े कर दूंगा! काट दूंगा!" यही बोले जा रहा था! उठाया अपना त्रिशूल,
और छुआया उन साधिकाओं से! वे बैठे बैठे ही तन गयीं!
रीढ़ की हड्डी ऐसे मोड़ ली, कि टूट ही न जाए! और फिर वे झूमने ली! दांत फाड़ता रहा तावक नाथ! रक्त के छींटे छिड़कता रहा, चिल्लाता रहा,
नाद करता रहा! एकदम से वे साध्वियां खड़ी हो गयीं! फिर बैठ गयीं!
झूमी और गिरे पीछे। तावक नाथ भागा अलख पर,
और उठाया कपाल, अलख में ईंधन झोंका!
और किया संधान खण्डार का! अलख भड़की! खड़ा हुआ वो! विद्या हुई जागृत!
और भेज दी खण्डार! मित्रगण! एक नीला गोला आग का वहीं प्रकट हुआ। ताप ऐसा कि लौह भी पिघल जाए! घम्म घम्म की आवाज़ आ रही थी, एकदम हल्की सी, मैं अपनी साध्वी के हाथ-पाँव ढके उसी आकृति में बैठा रहा! वो गोला, अब एक वलय का रूप लेने लगा! और नीचे आते ही, घेर लिया उसने हमें! विद्या से विद्या टकराई।
मैं शांत बैठा रहा! मिट्टी जलने लगी थी! घास भी कुम्हला गयी थी! वो वलय मुश्किल से, आठ इंच चौड़ा था, लेकिन घेरा करीब आठ फीट का था! यही थी खण्डार! मेरे तंत्राभूषण गरम होने लगे! और उस वलय का दायरा कम! यही चलता रहा! टक्कर चलती रही! मैं साधिका के पांव मोड़, बैठा रहा!
उसका भुजबंध गरम हो उठा! कम से कम पांच-छहः मिनट बीत गए! लेकिन अब साँसें गरम होने लगी थीं!
और अचानक से ही! मेरी साध्वी की आँखें खुली! मैंने मुंह पर हाथ रखा उसके! वो समझ गयी, और जस की तस लेटी रही! मेरी कमर पर ताप चढ़ा बहुत! सुलगने लगा मैं, साधिका की छाती सुलगने लगी, तो भींच लिया उसने मैंने अपने सीने में, पकड़े बैठा रहा उसको!
और तभी! तभी वो वलय उठा ऊपर, बना गोला और हुआ गायब! मैं हुआ खड़ा! साधिका को गले लगाया! हर्षनाद किया! अलखनाद किया! महानाद किया! अहरी महाऔघड़ का नाद किया! अपने गुरु-नाद किया! लेटा भूमि पर,
और हर्ष से चिल्ला उठा! श्री श्री श्री जी का नाम पुकारा कई बार!
उठा और चला अलख पर!
उठाया कपाल!
लगाई देख! वे साध्वियां, अचेत पड़ी थीं! तावक नाथ, लेटा पड़ा था! वे चारों औघड़, दूर खड़े थे! "तावक?" चीखा मैं, देखा उसने सर उठाकर, "खण्डार! क्या हुआ??" चीखा मैंने गुस्से से! तावक के बोल न फूटें! "हरामजादे! क्या हुआ खण्डार को?" पूछा गुस्से से मैंने! नहीं बोला कुछ! "क्षमा मांग ले तावक?" बोला मैं गुस्से से! वो खड़ा हुआ तब! सर पकड़े हुए। हंसा! और गया साध्वियों के पास!
और बजा दी उनमे लात ही लात! वे अचेत थीं, कोई विरोध न हुआ! "तावक? सुना नहीं?" बोला मैं, वो लात पर लात मारता रहा उन्हें! गालियां देता रहा! वे चारों औघड़ आये उसके पास! तावक ने एक को पकड़ा,
और फेंका नीचे! वो हाथ जोड़े! माफ़ी मांगे! लेकिन तावक! तावक पागल हो चुका था! "तावक?" चिल्लाया मैं, अब देखा उसने ऊपर, "क्षमा मांगता है या नहीं?" बोला मैंने,
वो हंसा! छाती पर हाथ मार हंसा! "नहीं! * **!" बोला वो,
और हंसा वो। "तू रिक्त हुआ तावक! सोच ले!" कहा मैंने, "तू वार कर?" चीखा वो,
बस!
पाप के घड़े में आखिरी बँद गिरी, घड़ा छलक गया! "सोच ले तावक?" बोला मैं, "वार कर * * * * * * !!! चीखा वो, "एक बार और सोच ले!" कहा मैंने, "वार कर?" बोला वो,
और सारा सामान बिखेर दिया वहाँ! "वार कर? वार कर?" चीखा वो, "बस तावक बस!" कहा मैंने, "चला खेलड़ी?" बोला वो, "तेरे जैसा औघड़, कलंक है!" कहा मैंने, उसने थूका!
हंसा!
गाली-गलौज की! मैं आया अलख के पास!
और तभी! तभी वाचाल प्रकट हुआ! अट्टहास लगाया उसने! मैंने इरादा भांप लिया उसका!
वो जाएगा उस तावक नाथ को सबक सिखाने! मैंने अनुमति दी, प्राण नहीं हरने थे, बस न मरे में, न जीने में! उसने भरी हुंकार! किया अट्टहास!
और हुआ लोप! तावक नाथ, अब एक ऐसा योद्धा था, जिसके पास धनुष तो था, परन्तु, उसका तरकश अब रिक्त था! कोई बाण नहीं था शेष! सारे बाण चला चुका था, अस्त्र-शस्त्र किसी काम न आये
थे! एक एक कर अपनी समस्त सिद्धियां को बैठा था! ये मात्र मेरे श्री श्री श्री जी द्वार रचा गया था! अब तावक नाथ के पास, बस उसका खोखला दम्भ ही बचा था, और कुछ नहीं! बुद्धि तो कब का साथ छोड़ चुकी थी, विवेक पहले ही विदा ले चुका था! अब बस क्रोध शेष था। उसने ही उसकी बची-खुची बुद्धि पर पर्दा डाल रखा था! न अपनी ही सोच रहा था और न उन साथियों की! मैंने उसको बार बार समझाया था, बार बार! लेकिन नहीं समझ रहा था! मेरी इच्छा थी कि वो सकुशल रहे, क्षमा मांग ले, और फिर अपना दम्भ त्याग, इस मार्ग का अनुसरण करे! परन्तु उसने तो कुछ और ही ठाना था! ये उसको उसके मान-सम्मान का प्रश्न लगा था। यदि वो क्षमा मांग लेता, तो मैं भी स्वयं उसकी मदद करने को तैयार था! परन्तु, अफ़सोस......ऐसा हो न सका..... मित्रगण!
रात के पौने चार बजे,
वाचाल महाप्रेत रवाना हुआ था! वाचाल महाशक्तिशाली महाप्रेत है!
राजसिक प्रवृति का है, स्वयं ही बहुतों के लिए पर्याप्त है! अलख, वहाँ, जो कि अब मंद पड़ चुकी थी, बिना ईंधन के, अब अंतिम साँसें ले रही थी! वहाँ, तेज बवंडर उठा! आंधी सी चल पड़ी!
और अट्टहास हुआ उस वाचाल महाप्रेत का! हर दिशा से! हर कोने से वहां मौजूद वे साध्वियां, चुपचाप सी, भयभीत सी इकडे हो बैठ गयीं थीं, उन्हें अब होश आ चुका था! एक साथ चिपकी हुई थीं। उन्हें वाचाल से कोई खतरा न था, स्त्री पर कभी भी वार नहीं किया जाता, न ही वाचाल ही करता! हाँ, भय के मारे, काँप अवश्य ही रही थीं। वे चारों औघड़, उस तावक नाथ के संग बैठे थे, जानते थे कि अब होगा क्या! खड़े हो गए थे अहास सुन! और तावक नाथ! खड़ा हो, अपना त्रिशूल उखाड़, सामने ताने बैठा था, सेधुनिका महाविद्या का जाप किया था उसने, परन्तु, ये विद्या तो मुंडवाहिनी के संग ही नष्ट हो चली थी उसकी! अब मात्र खोखले शब्द ही बचे थे! वही बके जा रहा था! देखे, तो दिखे नहीं किसी को! कैसे देखे? रिक्त हो गया था! नहीं समझा फिर भी!
और वाचाल नीचे उतरा! एक एक सामान उड़ चला उसके वेग से! सामग्री तितर-बितर हो चलीं! दो औघड़ पीछे हटे, हाथ थामे एक दूसरे का! फिर से भयानक अट्टहास हुआ!
और अगले ही क्षण!
अगले ही क्षण, दो औघड़ हवा में उछाल दिए गए कम से कम साठ फीट! चीख गूंजी! धड़ाम से नीचे गिरे, फिर से छिटक गए, जैसे लात मारी हो किसी ने! हइडियां चटकी, पसलियां, कमर से बाहर आयीं, रक्त बह चला, अचेत हुए! अब शेष दो औघड़ भाग चले वहां से! वे भी उछाले गए! दोनों को, पेड़ों के ऊपर से उछाला! नीचे गिरे, घुमा कर फेंक दिए गए! हड्डियां टूटीं! चीख भी न निकली! घुटनों की हड्डियां बाहर, कोहनी की हड्डियां बाहर और अचेत! और उन साध्वियों ने भय के कारण आपा खोया अपना, कांपते कांपते भाग चलीं, जिसको जहां जगह मिली! रहा अब त्रिशूल ताने और सेधुनिका का जाप करता वो तावक नाथ! बार बार घूम रहा था! बार बार गालियां दे रहा था! एक पल को ये भी न सोचा कि छोटा सा शब्द, क्षमा, कितना बड़ा उपकार कर सकता था उस पर! नहीं! नहीं समझा!
और अगले ही पल, उसको उठा लिया गर्दन से वाचाल ने! करीब दस फ़ीट ऊपर! त्रिशूल छूटा!
गला अवरुद्ध हुआ! और फेंक दिया गया दूर बहुत! चीख गूंजी! फिर से उठाया गया वो!
और फिर से फेंका गया! फिर उठाया गया! अट्टहास गूंजा! और पटक दिया गया ज़मीन में! अचेत! खत्म किस्सा उस तावक नाथ का! वाचाल ने अहास किया! और उसके जाते ही, उस स्थान पर आग लग चली!
एक एक वस्तु ख़ाक़ होने लगी! मित्रगण!
द्वन्द समाप्त हुआ! तीन रोज बाद, एक औघड़ और वो तावक नाथ, अचेतावस्था में ही, इस संसार से विदा ले गए, तावक नाथ की अस्थियां, बाइस जगह से टूट गयी थीं, दूसरे औघड़ की तिल्ली फट गयी थी, कलेजा, चीर दिया गया था! मुझे तावक नाथ का बहुत दुःख हुआ, दम्भ का हश्र यही होता है! मैंने, उस रात अपनी साध्वी का पूजन किया था! उसके कारण, मुझे विजय श्री प्राप्त हुई थी, परन्तु मन में खेद था, एक साथ वि-संचालन करने वाला औघड़, अब इस संसार में नहीं
था!
राजसिक प्रवृति का है, स्वयं ही बहुतों के लिए पर्याप्त है! अलख, वहाँ, जो कि अब मंद पड़ चुकी थी, बिना ईंधन के, अब अंतिम साँसें ले रही थी! वहाँ, तेज बवंडर उठा! आंधी सी चल पड़ी!
और अट्टहास हुआ उस वाचाल महाप्रेत का! हर दिशा से! हर कोने से वहां मौजूद वे साध्वियां, चुपचाप सी, भयभीत सी इकडे हो बैठ गयीं थीं, उन्हें अब होश आ चुका था! एक साथ चिपकी हुई थीं। उन्हें वाचाल से कोई खतरा न था, स्त्री पर कभी भी वार नहीं किया जाता, न ही वाचाल ही करता! हाँ, भय के मारे, काँप अवश्य ही रही थीं। वे चारों औघड़, उस तावक नाथ के संग बैठे थे, जानते थे कि अब होगा क्या! खड़े हो गए थे अहास सुन! और तावक नाथ! खड़ा हो, अपना त्रिशूल उखाड़, सामने ताने बैठा था, सेधुनिका महाविद्या का जाप किया था उसने, परन्तु, ये विद्या तो मुंडवाहिनी के संग ही नष्ट हो चली थी उसकी! अब मात्र खोखले शब्द ही बचे थे! वही बके जा रहा था! देखे, तो दिखे नहीं किसी को! कैसे देखे? रिक्त हो गया था! नहीं समझा फिर भी!
और वाचाल नीचे उतरा! एक एक सामान उड़ चला उसके वेग से! सामग्री तितर-बितर हो चलीं! दो औघड़ पीछे हटे, हाथ थामे एक दूसरे का! फिर से भयानक अट्टहास हुआ!
और अगले ही क्षण!
अगले ही क्षण, दो औघड़ हवा में उछाल दिए गए कम से कम साठ फीट! चीख गूंजी! धड़ाम से नीचे गिरे, फिर से छिटक गए, जैसे लात मारी हो किसी ने! हइडियां चटकी, पसलियां, कमर से बाहर आयीं, रक्त बह चला, अचेत हुए! अब शेष दो औघड़ भाग चले वहां से! वे भी उछाले गए! दोनों को, पेड़ों के ऊपर से उछाला! नीचे गिरे, घुमा कर फेंक दिए गए! हड्डियां टूटीं! चीख भी न निकली! घुटनों की हड्डियां बाहर, कोहनी की हड्डियां बाहर और अचेत! और उन साध्वियों ने भय के कारण आपा खोया अपना, कांपते कांपते भाग चलीं, जिसको जहां जगह मिली! रहा अब त्रिशूल ताने और सेधुनिका का जाप करता वो तावक नाथ! बार बार घूम रहा था! बार बार गालियां दे रहा था! एक पल को ये भी न सोचा कि छोटा सा शब्द, क्षमा, कितना बड़ा उपकार कर सकता था उस पर! नहीं! नहीं समझा!
और अगले ही पल, उसको उठा लिया गर्दन से वाचाल ने! करीब दस फ़ीट ऊपर! त्रिशूल छूटा!
गला अवरुद्ध हुआ! और फेंक दिया गया दूर बहुत! चीख गूंजी! फिर से उठाया गया वो!
और फिर से फेंका गया! फिर उठाया गया! अट्टहास गूंजा! और पटक दिया गया ज़मीन में! अचेत! खत्म किस्सा उस तावक नाथ का! वाचाल ने अहास किया! और उसके जाते ही, उस स्थान पर आग लग चली!
एक एक वस्तु ख़ाक़ होने लगी! मित्रगण!
द्वन्द समाप्त हुआ! तीन रोज बाद, एक औघड़ और वो तावक नाथ, अचेतावस्था में ही, इस संसार से विदा ले गए, तावक नाथ की अस्थियां, बाइस जगह से टूट गयी थीं, दूसरे औघड़ की तिल्ली फट गयी थी, कलेजा, चीर दिया गया था! मुझे तावक नाथ का बहुत दुःख हुआ, दम्भ का हश्र यही होता है! मैंने, उस रात अपनी साध्वी का पूजन किया था! उसके कारण, मुझे विजय श्री प्राप्त हुई थी, परन्तु मन में खेद था, एक साथ वि-संचालन करने वाला औघड़, अब इस संसार में नहीं
था!
चारु की पढ़ाई दुबारा आरम्भ करायी गयी! बाबा काश्व नाथ जी के ही रिश्तेदारी में जान-पहचान के कारण, एक ग्रामोद्योग सहकारी संस्था में उसको नौकरी मिल गयी! आज अपने पिता के साथ, अपने सरकारी आवास पर रहती है वो! मिलता रहता हूँ उस से, मेरी एक रात की साध्वी रही है वो! दम्भ काहे का? किसलिए? शक्ति का संतुलन न बने, तो त्याग कर दो उसका! जहां वो नाश करेगी अन्य किसी का, स्वयं का सर्वनाश कर देगी! संयम कभी न त्यागें! विवेक कभी विदा न ले!
सत्य की राह से कभी न डिगें! कांटे हैं, पर आगे फूल भी हैं!
का!
स्मरण रहे, कुमुदनी और कमल, एक ही तालाब में रहते हैं, परन्तु आकार के कारण, कभी नहीं ढकता कमल उसे! अर्थात, कभी अपने को बड़ा न मानें! और किसी को छोटा नहीं! दिन में कमल खिलता है, सुंदर लगता है। परन्तु रात में, कुमुदनी जब खिलती है, तो यक्षिणियां भी प्रसन्न हो जाती हैं!
----------------साधुवाद!--------------------
