वर्ष २०११ असम की एक...
 
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वर्ष २०११ असम की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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में!" कहा मैंने, चारु के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी! मैं भांप गया था! गया उसके पास, उसने तो न कुछ कही, न कुछ सुनी, चिपक गयी और रुलाई फूट पड़ी उसकी! 

अब समझाया उसको! छोड़े हीन! नाखून गड़ा दिए, लिपट गयी! न जाने दे! शर्मा जी ने समझाया उसको! मैंने भी, कई बार! 

और तब वो समझी! रो रो के आँखें लाल कर ली! कौन कहता है, कि मैं और आप, मैं वो चारु, या चारु और आप, या कोई अन्य, पराया होता 

है? कौन है पराया? कोई नहीं! बस समझ! सोच! ये हैं पराये! नहीं तो सब अपने! चारु, मेरी कोई नहीं लगती! तो फिर आंसू क्यों आये? किस वजह से? क्या कारण था? क्योंकि उसकी समझ, मुझे पराया न समझ रही थी! 

कोई किसी को पराया न समझे, तो कैसा दुःख इस संसार में! "यहीं रहना! दरवाजा बंद कर लो!" कहा मैंने, 

और हम, खंजर खोंस, चल दिए उस कमरे में! पहुंचे, तो चार औघड़ बैठे थे वहाँ, आठ अन्य आदमी थे वहाँ, सभी चमचे उस तावक नाथ के! "ये है!" बोला तावक नाथ एक औघड़ से, "तूने ही पीटा था?" बोला वो, "हाँ, मैंने ही उन कमीनों को पीटा था!" कहा मैंने, "तू जानता है ये कौन है?" बोला वो, "तू जानता है मैं कौन हूँ?" कहा मैंने, "मुंह बंद रख!" बोला, "और तू भी!" कहा मैंने, "चुप रहो सभी!" बोले बाबा काली! "तू इस आदमी को क्यों लाया यहां?" बोला वो शर्मा जी की तरफ ऊँगली करके, "तेरे इस तावक नाथ की हगनी में से इसकी जीभ खींचने!" कहा मैंने, "खामोश!" बोला चिल्ला कर! "तू भी!" कहा मैंने, चिल्ला कर! "मैं चाहूँ तो यहीं लिटवा दूँ तुझे!" बोला वो, "और मैं चाहूँ, तो तुम सब एक दूसरे की हगनी में छिपते फिरोगे!" कहा मैंने, "बद्तमीज़?" बोला वो, "माँ के ** !" मैं भी बोला! हुआ खड़ा वो! 

गुस्से में मुझे देखा! मैंने भी देखा, तावक भी खड़ा हुआ, किये बाजू से कपड़े ऊपर, हम भी तैयार, यदि कोई झपटा, तो कलेजा ही चीरना था उसका! "बैठ जाओ?" बोले बाबा लाल, 

और समझाने बुझाने पर वे बैठ गए! "कौन है ये?" पूछा बाबा लाल से, "नहीं जानते?" बोले वो, "नाह" बोला वो, "श्री महाबल नाथ जी का नाम सुना है?" पूछा उन्होंने, रस्सी की ऐंठन खुली! 

गुब्बारे की फूंक सी निकली! थूक गटका! "हाँ, सुना है!" बोला वो, "उनके ही शिष्य हैं!" बोले बाबा लाल, अब आँखें, जो चौड़ी थीं, सामान्य हुईं! "अंजन नाथ तो मालूम होगा आपको?" बोले बाबा लाल, "हाँ" बोला वो, "इनके गुरु श्री ने द्वन्द में ऐसा मारा, कि सर नहीं मिला उसका!" बोले वो, थूक हुआ पतला! मुंह से बाहर को चला! पोंछा कलाई से! जोश ठंडा हुआ उसका तो! "तो क्या हुआ?" बोला तावक नाथ! "हुआ नहीं, हो जाएगा!" कहा मैंने, 

"क्या होगा?" बोला वो, "ये दम्भ से तना सर, ढूंढें नहीं मलेगा!" बोला मैं, "तेरी ये मजाल?" बोला वो, "सच कहा है, मान ले!" कहा मैंने, "तो तू बाज नहीं आएगा?" बोला वो, "यही तुझसे पूछता हूँ!" कहा मैंने, उसने की अब गाली-गलौज मैंने भी की गाली-गलौज! हुआ माहौल गरम! 

और हुआ फिर से बीच बचाव! एक था उनमे से कालव नाथ! "समझौता कर लो!" बोला वो, "कैसा समझौता?" पूछा मैंने, "ये तावक, बड़े हैं आपसे!" बोला वो, "और ये शर्मा जी, इस से भी बड़े!" कहा मैंने, "मानता हूँ, लेकिन क्षमा मांग, चरण पूज लो इनके!" बोला वो, "ये चरण पूज ले शर्मा जी


   
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श्रीशः उपदंडक
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के, मैं इसके पूज लूँगा!" कहा मैंने, "ये तो सम्भव नहीं!" बोला वो, "तो ये भी नहीं!" कहा मैंने, "ये तो बदतमीज़ी है!" बोला वो, "आप कितने सलीकेमन्द हैं,पता चलता है!" कहा मैंने, "सुनो!" बोले बाबा काली, "आपस के मतभेद हटाओ, भूल जाओ!" बोले वो, "मुझे स्वीकार है" कहा मैंने, "हाँ तावक?" बोले वो, 

"मुझे नहीं!" बोला वो, मैं हंस पड़ा! जानता था कि यही होगा! "फिर?" पूछा उन्होंने, "ये माफ़ी मांगे, पाँव पड़े!" बोला तावक! "पाँव! तेरे को तो सूअर भी न चाटे!" कहा मैंने, "खामोश!" बोला वो, "तू भी!" कहा मैंने, चीख कर! 

अब माहौल फिर से गर्म हो गया था! "तेरी औकात पता चल जाएगी!" बोला वो, "तेरी तो अभी पता चल गयी है!" कहा मैंने, "तेरे टुकड़े न कर,, तो अपने बाप की औलाद नहीं मैं!" बोला वो, "मुझे भी यही शक है! तू उसका बीज नहीं!" कहा मैंने, "*** यही गाड़ दूंगा तुझे, अभी!" बोला वो, मैं हंसा! उसका उपहास उड़ाया! "तेरे में ज़रा सा भी अपने बाप का खून है, तो ज़रा हाथ लगा के देख तो सही!" कहा मैंने, अब अपना सा मुंह लिए, गुस्से में भरा, देखता रहा वो हमें! "मुझे बोलतान? तो तेरी जाँघों को चीर कर, तेरा सर घुसेड़ देता मैं!" कहा मैंने, अब तो खाया उबाल उसने! 

और बढ़ा मेरी तरफ, मैंने झट से खंजर निकाल लिया बाहर! "ऐसी सफाई से काटूंगा कि हड्डियों पर मांस न रहेगा!" कहा मैंने, हुआ पीछे! 

और अब दोनों ही बाबा, काली और लाल बाबा, उठ खड़े हुए! आये हमारे पास, और भेजा हमें वापिस, थोड़ी देर बाद वापिस आना था, हम आ गए अपने कमरे में, बेचारी चारु तो काँप रही थी, रोरो के बुरा हाल था उसका तो! मैं गया उसके पास, आंसू बहा रही थी मोटे मोटे! "क्या बात है?" पूछा मैंने, "कुछ नहीं" बोली धीरे से! "अरे कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने, "मुझे डर लगता है" बोली वो, "कुछ नहीं होगा! इरो मत!" कहा मैंने, बहुत समझाया उसे, बहत! शर्मा जी ने भी! तब जाकर, समझी वो, 

और हाथ-मुंह धुलवाए उसके, लगता था, साफ़ था कि, उसने जिंदगी में ऐसा कुछ देखा था, जिस से उसके मन में भय बैठा हुआ था! उसको बिठाया मैंने, और समझाया भी! अब तक क्या हुआ, ये भी समझाया! कोई आधे घंटे के बाद, बाबा लाल आये मेरे पास, बैठे, और गंभीर थे बहुत, "क्या रहा बाबा?" पूछा, "बात नहीं बन रही" बोले वो, 

"तो भाड़ में जाने दो!" कहा मैंने, "बात बिगड़ गयी है" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, "वो द्वन्द की चुनौती दे रहा है!" बोले वो, "वाह! तो इसका अर्थ हुआ कि, अब उसके दिन बीत गए!" कहा मैंने, "आप, कम न आंको उसको" बोले वो, "खण्डार! है न?" कहा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "उस से निश्चिन्त रहें आप!" कहा मैंने, "मैं नहीं चाहता था ऐसा" बोले वो, "कोई बात नहीं!" कहा मैंने, "आइये फिर" बोले वो, 

और तब, मैं और शर्मा जी, चले उनके साथ, पहुंचे वहां! सभी थे, हम भी बैठे! "सुनो, तावक नाथ ने द्वन्द की चुनौती दी है, आपको स्वीकार है?" बोले बाबा काली, मैंने मुस्कुराया! उस शठ मनुष्य को देखा! "स्वीकार है!" कहा मैंने, "तिथि बताएं?" बोले बाबा, "जो ये चाहे!" कहा मैंने, "कब?" पलटे वो, और पूछा उस शठ से! "आगामी अमावस!" बोला वो, "स्वीकार है!" कहा मैंने, वो हंस पड़ा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठहाका मारा! "हंस ले! बजा ले गाल! उसके बाद कुछ शेष नहीं!" कहा मैंने, "अरे जा!" बोला वो, "देख लेगा तू!" कहा मैंने, "तेरा तो अंत हुआ!" बोला वो, "सपने मत ले तावक!" कहा मैंने, "जो सपना लिया, पूरा किया!" बोला वो, "ये आखिरी है, इसके बाद कोई सपना नहीं!" कह मैंने, "अरे जा!" बोला वो, "कोई और इच्छा हो तो बोल?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोला वो, "दो इच्छाएं!" बोला वो, "बोल!" कहा मैंने, "जी भी गिरेगा, उसका शव, विजेता का होगा!" बोला वो, "स्वीकार!" कहा मैंने, "और ये द्वन्द, तंत्र-भूमि, गोहाटी में होगा!" बोला वो, "स्वीकार!" कहा मैंने, गोहाटी में उसका अपना स्थान था! कोई बात नहीं! मेरा भी है! 

और मैं वहां, आज तक, कभी नहीं हारा था! अब नियम बताये गए! कोई छल न हो, साध्वी-साधन न हो, आदि आदि! 

लेकिन! तावक नाथ जैसे लोग, कहाँ मानते हैं नियमों को! वो मुस्कुरा रहा था, और मैं हंस रहा था! तो हो गया था निर्णय! अमावस आने में बारह दिन शेष थे, और इन दिनों में मैं, पूर्ण तैयारी कर सकता था! हम उठे, और चले कक्ष में अपने! चारु को सब समझा दिया गया! वो रहेगी श्री श्री श्री जी के पास, अपने पिता के साथ, 

और हम, गोहाटी के लिए प्रस्थान करेंगे। मन अप्रसन्न हो गया था उसका जैसे, अब हो भी क्या सकता था, शर्मा जी चले बाहर, अपने काम से, 

और तब आई चारु मेरे पास, "आप कब जाएंगे?" बोली वो, "कोई आठ दिन बाद" कहा मैंने, "आपको आवश्यकता नहीं पड़ेगी?" पूछा उसने, "किसकी?" पूछा मैंने, "साध्वी की?" बोली वो, मुझे झटका लगा! "अरे चारु? पगली?" बोला मैं, बैठ पास मेरे! सर झुकाये, हाथ की उँगलियों के नाखूनों को, एक दूसरे से लड़ाते हुए! 

"पगली!" बोला मैं, सर पर हाथ फिराया उसके! "तुम साध्वी नहीं बनोगी!" कहा मैंने, "फिर?" बोली वो, "वहाँ है मेरी साध्वी!" कहा मैंने, "लेकिन चारु जैसी नहीं" बोली वो, "अरे!!" कहा मैंने, निःशब्द कर रही थी मुझे! "बोलिए?" बोली वो, "नहीं चारु!" कहा मैंने, अब देखा मुझे उसने, घूर कर, "मैं अभी भी परायी हूँ न?" बोली वो, "एक लगाउँगा अभी? समी ?" कहा मैंने, "लगाओ, लगाओ!" बोली गुस्से से, अब क्या बोलू उसे? क्या कहूँ उसे? ऐसे भोलेपन का, कैसे सामना करूँ? "नहीं चारु! तुम न कहीं जाओगी और न ही ऐसा सोचना!" कहा मैंने, "क्यों नहीं ले जाओगे?" बोली, ऐसे पूछा जैसे भारी दर्द में हो, "नहीं, तुम्हारा कोई काम नहीं!" कहा मैंने, "ऐसा मत कहिये! मत कहिये!" बोली रो कर, उसके सर पर हाथ फेरा, उसके आंसू पोंछे, "नहीं चारु" कहा मैंने, "लेकिन क्यों?" पूछा उसने, 

"मैंने कहा, यो!" कहा मैंने, मेरे घुटने पर सर रख, रुलाई फूट गयी उसके! अब उसको रोते देखा भी न जाए! दिल पर ज़ोर पड़े! मेरी वजह से क्यों रोये? "सुनो चारु!" कहा मैंने, न सुने, मेरा हाथ हटाये, बार बार! "सुन तो लो?" कहा मैंने, "नहीं" बोली वो, 

आंसू पोंछे अपने,और मेरे कपड़े गीले करे आंसुओं से! "अच्छा सुनो तो सही?" पूछा मैंने, बड़ी मुश्किल से देखा मुझे उसने, एहसान के साथ! "कभी बैठी हो साधना में?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "तब कैसे बैठोगी?" कहा मैंने, "मुझे नहीं पता" बोली वो, "दोनों का ही अहित कर देगा वो!" कहा मैंने, "नहीं कर पायेगा, मुझे विश्वास है" बोली वो, "देखो, भावनाओं से काम न लो, दिमाग की


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुनो!" कहा मैंने, "मुझे ले जाओ?" बोली चिल्ला कर! तब मैं चुप हुआ, अब क्या करूँ? समझे तो समझ ही नहीं रही ये! भावनाओं में बह रही है! ज़िद पकड़ ली है! और स्त्री की ज़िद, सभी जानते हैं! "अच्छा सुनो!" कहा मैंने, "चलो, लेकिन बैठोगी नहीं!" कहा मैंने, 

फिर से रो पड़ी! बालिका की तरह, जैसे उसकी चोटी खोल दी हो बार बार! "नहीं, बैठना नहीं!" कहा मैंने, "मुझे कुछ नहीं होगा!" बोली गुस्से से! किस अधिकार से गुस्सा कर रही थी, ये वो जाने, किस अधिकार से मैं उसकी ज़िद मान रहा था, ये मैं भी नहीं जानता था! "अच्छा! ठीक है!" कहा मैंने, "सच?" बोली वो, "हाँ, लेकिन एक साध्वी और होगी संग मेरे?" कहा मैंने, "मेरे होते?"बोली वो, 

आँखें फैला कर! नथुने फैला कर, छोटी सी नाक के! "हाँ?" कहा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "चारु? हर जगह तुम्हारी चलेगी?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "बहुत नखरैल हो भई तुम तो!" कहा मैंने, "सुनो, मैं संकट झेल लूंगी, आपको आंच नहीं आने दूंगी, शपथ लेती हूँ!" बोली वो, मैं तो देखता रह गया उसे! ऐसा तो एक प्रबल साधिका कहा करती है! यही तो शक्ति है एक साधक की! "सच?" पूछा मैंने, "सच!" बोली वो, 

और जीत गयी! "ठीक है फिर!" कहा मैंने, 

और वो ये सुनते ही, लपक के मुझसे चिपक गयी! "अच्छा! ठीक है! अब तैयारियां करनी हैं चारु!" कहा मैंने, 

"हाँ!" बोली वो, हमने उसी दिन, बाबा काली और बाबा लाल से विदा ली, उन्होंने आशीर्वाद दिया विजय का! मैं उनके चरण छू, चल पड़ा बाहर! चारु के पिता के पास गए, और उनको समझा-मना कर, वहाँ के प्रमुख से आज्ञा ले, हम चल पड़े अपने डेरे की ओर! वहाँ पहुंचे, बाबा काश्व मिले, तो उन्होंने एक, अच्छा सा कक्ष दे दिया उन्हें, सारे इंतज़ाम थे वहाँ, एक सहायक, उनकी सेवा के लिए, रख दिया गया था, अब दवा-दारु की ज़िम्मेवारी, डेरे की थी, चारु के पिता की नहीं! उसी दिन मैंने मंत्रणा की श्री श्री श्री जी के साथ, सबकुछ बता दिया उन्हें, कि वो खण्डार का ज्ञाता है। उन्होंने कुछ अमोघ क्रियाएँ बतायीं, मैं ये छह दिन-रात में पूर्ण कर सकता था! 

और उसी रात्रि से मुझे क्रिया में बिठाना शुरू किया उन्होंने! इस प्रकार, मुझे उन्होंने सीखा दिया एक एक वार और उनकी काट! अब मैं प्रसन्न था! अब उसकी खण्डार-विद्या की काट थी मेरे पास! एक बात और, जो उन्होंने बतायी मुझे, कि उसकी काट तो करनी ही थी, साथ ही साथ, वो शक्ति उस से रिक्त भी करनी थी! क्योंकि, अंत में, वो मात्र एक रिक्त औघड़ ही बचे! वो भी बस वेश-भूषा से! श्री श्री श्री जी का आशीर्वाद मिल गया था, और फिर बाबा काश्व ने एक रात्रि कुछ अचूक विद्याएँ मुझे प्रदान की! उसी रात बाबा शालव नाथ ने भी, कुछ अचूक विद्याएँ मुझे दी! 

मैंने उनके चरण छूकर, वे विद्याएँ ग्रहण की! अगली रात, मैं चारु को लाया क्रिया स्थल! 

और उसको अब वो सिखाया, जिसकी आवश्यकता थी उस द्वन्द में! त्वत, अरत्र, किंदुषी, अरिदमु, याल्व और बैकुषि! मुझे दस बजे से, सुबह के पांच बज गए थे! उसका मस्तिष्क प्रखर है! उच्चारण स्पष्ट है! अगला दिन हमने विश्राम में बिताया, टिकट बनवा लिया थे, कैला जोगन से बात हो ही गयी थी, वहीं जाना था हमें, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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कैलास्थान का प्रबंध करती और अन्य आवश्यक वस्तुओं का भी! अगले दिन, हम सभी, श्री श्री श्री जी का आशीर्वाद प्राप्त कर, चल दिए वहाँ से! श्री श्री श्री जी ने मुझे अपना एक सिद्ध कंठ-माल, दे दिया था, और उस चारु को, एक सिद्ध भुज-बंध! उन्होंने स्वयं बाँधा था! इस द्वन्द की देख-रेख अब श्री श्री श्री जी के हाथों में थी! 

अब कैसा भय! अब कैसा डर! हम पहुंचे स्टेशन, चार बजे करीब गाड़ी थी हमारी, गाड़ी लगी प्लेटफार्म पर, 

और हम सवार हुए, सीटें हमारी साथ साथ ही थीं, आराम से बैठ गए! और अब मंजिल, गोहाटी ही थी! देर रात तक, चारु सोयी नहीं, मैं दो बार सो चुका था, भोजन भी कर लिया था! आखिर में, कोई साढ़े बारह बजे, उसको ज़बरदस्ती सुलाया मैंने, डाँट-इपट कर! मैं डांटता तो वो होंठ बंद कर, मुंह ढक, हंसने लगती थी! 

आखिर में, सो गयी वो, 

और फिर मैं भी! हम अगले दिन, कोई आठ बजे रात को उतरे वहां, सवारी की, और चल पड़े, यहां से कोई साठ किलोमीटर दूर था वोस्थान! डेढ़ घंटे में पहुंचे वहाँ, मिले कैला से! बहुत खुश हुई! हमारा ठहरने का सारा प्रबंध किया ही जा चुका था! अतः, आराम से अपने कक्ष में चले गए! हाथ-मुंह धोये, और फिर चाय मंगवाई, चाय आई, लम्बी पत्ती वाली! बेहतरीन चाय थी वो! 

और उसके कुछ देर बाद, भोजन किया! ग्यारह बज गए! 

अब छोड़ने चला चरु को मैं उसके कक्ष तक, कक्ष खोला, उसका सामान रखा, 

और बैठ गए हम! "आराम करो अब!" कहा मैंने, "गाड़ी में आराम कर लिया था न?" बोली वो, "तुम्हें नींद नहीं आती?" पूछा मैंने, "आती तो है?" बोली वो, "डॉट खा कर, है न?" बोला मैं, हंस पड़ी! 

उसे नहीं पता था कि कितना संजीदा मामला है ये! "सो जाओ अब!" कहा मैंने, 

और लिटा दिया उसे, चादर उढ़ा दी, मच्छर से बचने वाली, कोइल भी जला दी, "लाइट बंद करूँ?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "कहीं डर लगा तो?" बोली वो, मैं हंस पड़ा! "अब इतनी भी छोटी नहीं तुम!" कहा मैंने, 

और चल पड़ा बाहर, "दरवाज़ा बंद कर लेना, सुबह मिलते हैं!" कहा मैंने,और हुआ वापिस! 

सुबह हुई! बेहद खूबसूरत सुबह थी वो! हरेभरे पेड़ पौधे, हरी-भरी वनस्पतियाँ! और बांस के झुण्ड! पक्षी चहचहा रहे थे! अजीब अजीब सी आवाजें! बड़े बड़े रंग-बिरंगे पक्षी! तितलियाँ और बरे! भौरे, अब अपनी दैनिक कार्यवाही में लग चुके थे। सूर्य का क्षितिज पर आगमन, उनके लिए समय सूचक होता है! मैं स्नान करने गया, स्नान से फारिग हुआ, और फिर शर्मा जी भी फारिग हुए, मैं फिर चला चारु को देखने, कि कहीं रात को डरी तो नहीं!! दरवाज़ा खटखटाया मैंने, दरवाज़ा खुला, नहा-धो, तैयार खड़ी थी सामने! काले रंग के कुर्ते में, खूबसूरत लग रही थी वो! "क्या बात है!" कहा मैंने, "क्या हुआ?" पूछा उसने, "सुंदर लग रही हो!" कहा मैंने, "अच्छा जी!" बोली वो! मैं बैठ गया वहाँ, बिस्तर पर, दुपट्टा सही कर रही थी, मैंने मदद की, तभी मैंने उसका वो श्वेत-माल देखा, 

और तोड़ दिया! वो चौंक पड़ी! "अब इसकी ज़रूरत नहीं चारु!" कहा मैंने, मैंने वो टूटा माल दिया उसे, "अब कोई तुमसे कुछ न कहेगा! बेफिक्र रहो!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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गंभीर सी खड़ी रही! "अब मैं बांधूंगा माल तुम्हें!" कहा मैंने, न रोक सकी अपने आपको, और सीने से लिपट गयी मेरे! मैंने उसके सर पर हाथ फेरा उस समय! 

स्त्री को सरंक्षण चाहिए होता है, बस! नहीं तो वो, अंगड़ाई भी नहीं ले सकती! अंगड़ाई तोड़ने वाली नज़रें फ़ौरन जा चिपकती हैं उसके बदन से! ये हाल है स्त्री का! शायद इसीलिए, वो लिपट गयी थी मुझसे! फिर मैंने बिठाया उसे, और तभी, कैला जोगन अंदर आई। प्रणाम हुई उनसे, बैठीं वो, सर पर हाथ फिराया चारु के! 

और उसके खाली कान देखे, उसकी नाक का छेद देखा, उसके खाली हाथ देखे! "आ बेटी! मेरे साथ आ!" बोली कैला, चारु मुझे देखे! "जाओ, माँ समान हैं! जाओ आराम से!" कहा मैंने, चली गयी वो साथ उसके, 

और मैं वहीं बैठा रहा, थोड़ी ही देर बाद वो आई अकेले, कानों में बालियां, झुमकों वाली! नाक में छल्लेदार नथनी, हाथों में दो कड़े! और गले में एक चैन! "अरे वाह!" कहा मैंने, "मैंने मना किया, लेकिन नही मानी!" बोली वो, "मानती भी नहीं!" कहा मैंने, उसकी नाक देखी! बेहद सुंदर! पूरा मुखड़ा ऐसा सुंदर कि, सुकून दे अंदर तक! "जाओ! दर्पण में देखो!" कहा मैंने, वो उठी, और गयी दर्पण के पास, झुक कर, देखा अपने आपको! 

और मुस्कुरा पड़ी! 

उसको खुश होते देख, मैं भी खुश हुआ बहुत! 

आई मेरे पास, बैठी! 

और मेरी आँखों में झाँका! झांकती ही रही! "क्यों डरा रही हो?" पूछा मैंने, न बोली कुछ! देखे ही जाए! "चारु! अभी इस संसार में इंसान हैं! इंसानियत भी है!" कहा मैंने, 

आँखों से आंसू निकल पड़े उसके! "नहीं। रोते नहीं चारु!" बोला मैं, उसके आंसू पोंछते हुए! "अब रोना छोड़ दो तुम! बहुत हुआ!" कहा मैंने, 

और रुमाल से, आंसू पोंछ दिए उसके, काजल भी ठीक कर दिया! 

और आ गयी फिर कैला जोगन अंदर! बैठी, और देखा चारु को! "कैसी सुंदर लग रही है मेरी बेटी!" बोलीं वो! "हाँ, बहुत सुंदर!" बोल मैं, शर्मा गयी चारु, नज़रें नीची कर ली! "वो आज स्थान देख लो?" बोली कैला, "हाँ, आज दिखा दो" कहा मैंने, "खाना खा कर, चलो" बोली वो, "ठीक है" कहा मैंने, उठीं और चलीं बाहर! "कोई संतान नहीं है इनके?" पूछा चारु ने, 

"दो लड़कियां हैं, ब्याह दी हैं!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोली वो, "तुम्हारा ब्याह करवा दें?" कहा मैंने, "नहीं!" बोली तुनक कर! "क्यों?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोली वो, अबकी बार गुस्से से ज़रा! "ये क्या बात हुई? अकेले?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "तुम्हारी मर्जी!" कहा मैंने, खिसकी ज़रा मेरे करीब, और फिर पीछे हुई! सहायक आ गया था चाय-नाश्ता लेकर, इसलिए! मैंने भी अपना चाय-नाश्ता वहीं रखवा लिया, 

और फिर मैं और चारु, चाय-नाश्ता करने लगे! कर लिया, हाथ-मुंह धोये! "बाहर चलें?" बोली वो, "घूमना है?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "आओ चलो!" कहा मैंने, 


   
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और उसका हाथ पकड़, हम चले बाहर, बहुत सुंदर स्थान है वो! हरा-भरा! प्राकृतिक सम्पदा! "वो देखो! मोर का बच्चा!!" बोली वो, मैंने देखा, हंसा फिर! "मोर नहीं है! पहरी है वो!" कहा मैंने, "मुझे मोर सा लगा!" बोली वो, "वो कठफोड़वा है!" कहा मैंने, 

"कैसे अजीब अजीब पक्षी हैं यहां!" बोली वो, "हाँ! जंगल है न!" कहा मैंने, "हम्म!" बोली वो, हम काफी आगे तक निकल आये थे, एक जगह बैठ गए, मैंने रुमाल दे दिया था उसे बैठने को, एक लकड़ी ले, ज़मीन में कुछ कुरेद रही थी वो! 

और मैं, एकटक उसे ही देखे जा रहा था! कितनी खुश थी वो! किसी को ख़ुशी देने में कितनी ख़ुशी होती है! कोई मोल नहीं इसका! कोई हँसे, खुश हो, तो आप धन्य हुए! उसके मन-मस्तिष्क में बस जाओगे आप! "क्या कर रही हो?" पूछा मैंने, "नाम लिख रही हूँ!" बोली वो, "कौन सा नाम?" पूछा मैंने, "पढ़ लो!" कहा उसने, "चारु!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, फिर मेरा नाम भी लिख दिया उसने! फिर हाथ से, मिटा दिया! मुझे देखा, हवा चली, बाल सामने आये उसके, हटाये उसने, और कान के पीछे,खोंस लिए! फिर मैं मुस्कुराया! "क्या हुआ?" पूछा उसने, "कुछ नहीं!" कहा मैंने, "बताओ तो?" बोली वो, 

-- 

"अरे कुछ नहीं!" कहा मैंने, "बताओ न?" बोली हाथ जोड़ते हुए, मुझ और हंसी आ गयी उस पर! गुस्से में लकड़ी तोड़ दी उसने जो हाथ में थी! "बताओ?" बोली वो, "बताता हूँ! याद है, जब पहली बार मिले थे हम, उस श्मशान में?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "अगर तुम न पूछती, तो आज यहां न होती!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "मुझे बस वही चेहरा याद आ गया था!" कहा मैंने, अब वो भी मुस्कुरा पड़ी! "पता है?" बोली वो, "क्या?" पूछा मैंने, "तावक नाथ के जो साथी थे, वो बहुत बद्तमीज़ थे, चार-पांच बार उनकी शिकायत की हमने, इसीलिए हम चार लड़कियां साथ सोया करती थीं" बोली वो, "हरामज़ादे कहीं के!" कहा मैंने, "तावक नाथ की एक साध्वी आती थी संग उसके, नाम है, मिहिरा, बहुत बदसलूकी करती 

थी सभी से!" बोली वो, "अच्छा! तो वो भी बैठेगी साथ में!" बोला मैंने, "हाँ!" कहा उसने, "बैठने दो!" कहा मैंने, तभी सामने से चितकबरे खरगोश दौड़ के निकले, साथ में उनके, दो छोटे छोटे खरगोश भी थे। बेहद प्यारे से, खड़े होकर देखते थे आगे पीछे! "वो कितना सुंदर है!" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, 

चले गए फिर, घुस गए झाड़ियों में! "इनकी जान को भी सत्तर मुसीबत हैं!" कहा मैंने, "हाँ! डरते ही रहते हैं!" बोली वो, "विवशता है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "अच्छा, चलो अब!" कहा मैंने, "चलो" बोली वो, उठेहम, और चले वापिस,थोड़ा आगे चल रही थी, एकदम रुक गयी! भागी मेरी तरफ! आ चिपकी! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "वो क्या है?" बोली वो, "आओ?" कहा मैंने, वो एक बड़ा सा मेंढक था! टोड! काफी बड़ा था, आदमी पर छलांग लगा दे तो डर जाए एक बार को! मैं हंस पड़ा! वो वहीं बैठा हुआ था, सामने देखता हुआ, गले पर खाल लटकी हुई थी! "मेंढक है ये!" कहा मैंने, "इतना बड़ा?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "इसे हटाओ?" बोली वो, "भगाता हूँ!" कहा मैंने, मैं आगे गया, पाँव पटका, और उसने छलांग लगाई! "आओ!" कहा मैंने, 

और हम चले फिर वापिस! आ गए वापिस वहीं, 


   
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थोड़ी देर बाद ही, भोजन लग गया, शर्मा जी को वहीं बुला लिया था, वो हम तीनों ने खाना खाया फिर, और फिर कुछ देर आराम, करीब साढ़े बारह बजे, कैला ने हमारे साथ एक व्यक्ति को भेजा, 

और ले चला हमें, हम चले संग उसके, एक स्थान था वो, पीछे नदी बह रही थी उसके, और वहीं था वो श्मशान! मैंने जाँच की, सब ठीक ही निकला, दो झोपड़ी बनी थीं वहाँ, वहीं ठहर सकते थे हम! वहाँ एक महिला ही थी उस समय, और कोई नहीं था, उस से ही बात हुई, 

और फिर हम हुए वापिस! यहां आबादी छिटपुट ही थी, कहीं कहीं मकान दीखते थे बस, नहीं तो जंगल ही जंगल था! तावक नाथ का डेरा यहां से नब्बे किलोमीटर दूर था! वो भी तैयारियों में लगा होगा! खैर, हम आ गए वापिस, कैला से बताया कि स्थान ठीक है, अब परसों वहीं बिसात बिछनी थी! उसी शाम मैंने अपने तंत्राभूषण आदि सभी साफ़ किये और उनका अभिमंत्रण किया! संध्या समय के बाद, अब हुड़क मिटाने का समय था, किया जुगाड़ खाने-पीने का, और फिर हम हुए शुरू, 

चारु को कमरे में ही रहने को कहा था मैंने, जब हम फारिग हुए, करीब ग्यारह बजे, तो, मैं गया चारु के पास, जागी हुई थी, बैठ गयी, मैं भी बैठ गया! "भोजन कर लिया?" पूछा मैंने, "हाँ, कर लिया!" बोली वो, "अच्छा किया! और कुछ?" पूछा मैंने, 

"नहीं!" बोली वो, "ठीक है, सुबह मिलते हैं!" कहा मैंने, उठी वो, आई मेरे पास, देखा मुझे, नज़रों में कई सवाल थे, लेकिन मैं अभी, इनमै पड़ना नहीं चाहता था! "दरवाज़ा बंद कर लो!" कहा मैंने, 

और मैं मुड़ने लगा, तभी पकड़ लिया उसने! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "चार घंटे हो गए!" बोली वो, "किसे?" पूछा मैंने, "वहाँ बैठे हो, और मैं यहां अकेली!" बोली वो, "अच्छा! समझ गया!" कहा मैंने, "मैं परेशान हो रही थी!" बोली वो, "कोई बात नहीं!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं?" पूछा उसने, "हाँ! जानता हूँ! अब न होगा ऐसा!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी! "चलो, चलता हूँ!" कहा मैंने, 

और मैं आ गया बाहर, उसे दरवाजा बंद किया, और मैं सीधे अपने कमरे में, दरवाज़ा किया बंद, चादर ली,ओढ़ी और फैला दिए पाँव! 

और सो गया आराम से! शर्मा जी सो ही गए थे पहले से ही! 

सुबह हुई, हुए फारिग! 

आज सामान लेकर आना था बाज़ार से! तो दोपहर में, हम तीनों चले गए बाज़ार, वहाँ कुछ चटपटा खाया, और चाय भी पी, सामान खरीद लिया था सारा, 

और फिर हुए वापिस, रास्ते में हल्की-फुलकी सी बरसात हुई थी, मौसम बेहतरीन हो चला था! शीतल बयार ने, मन मोह लिया था! पहुंचे अपने यहां, सामान रखवाया सारा, और मुझे ले चली अपने कक्ष में चारु! "कितना प्यारा मौसम है!" बोली वो, "हाँ! है तो!" कहा मैंने, "मैं नहा लूँ इसमें?" पूछा उसने, "बीमार पड़ जाओगी!" कहा मैंने, "नहीं पढूंगी न!" बोली वो, "नहीं!" कहा मैंने, "जाने दो न?" बोली वो, "बिलकुल नहीं!" कहा मैंने, फूल गया मुंह! 

बैठ गयी! चेहरा नीचे किये! 

और फिर बारिश हुई तेज! झाँका उसने बाहर! 

अगले दिन, संध्या समय, मैं क्रिया-स्थल ले गया चारु को, उसकी देह को संतुलित करना था, और रक्षित भी, इसके लिए, उसको लाया था, उसमे एक खूबी थी, जो एक बार कहो, याद कर लेती थी वो! जस का तस! उसकी शिक्षा चलती रहती, तो अब तक तो कहीं किसी सरकारी महकमे में


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुलाज़िम हो गयी होती! उसकी शिक्षा पुनः आरम्भ करवानी थी, कुछ और भी सोच के रखा था मैंने उसके लिए, दस उत्तीर्ण करना आवश्यक था! तो उस शाम मैंने उसको कुछ कंठस्थ करने के लिए कुछ 'मंजरी बतायी, और उसको कंठस्थ करने के लिए दिया! आधे घंटे में ही, एक एक शब्द जैसे उकेर दिया गया था उसके मस्तिष्क में 

जैसे! उसकी इस प्रतिभा से मैं हैरान था! "वाह चारु!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी वो! "बहुत तीक्ष्ण बुद्धि है तुम्हारी!" कहा मैंने, "अच्छा जी!" बोली वो, 

और फिर रात को, उसको मैंने मंत्रों से रक्षित किया! और ले आया वापिस, छोड़ा कमरे में उसे, और मैं आ गया अपने कमरे में, अब फिर, अपना सामान सारा बाँधा, और उसके बाद, मैं सो गया! हुई सुबह 

आज अमावस थी! निर्णय की रात! उस दिन मेरा मौन-व्रत था! बस मन्त्र कंठस्थ करने थे! वही किया मैंने सारा दिन, भोजन निषिद्ध होता है, अतः नहीं किया, 

और फिर हुई शाम! खोला मौन-व्रत! शर्मा जी से बात की मैंने, 

और फ़ोन पर, श्री श्री श्री जी से भी बात की! 

वहां भी वे तैयार थे! एक ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित करने ही जा रहे थे! आशीर्वाद दिया उन्होंने! और 'आदेश!' हम अब उस स्थान के लिए चल पड़े! शर्मा जी भी चले, वो व्यक्ति भी! हम वहाँ जा पहुंचे! 

अब शर्मा जी से आशीर्वाद लिया, और अपना सामान उठाया! पहुंचे एक जगह कोने में! अँधेरा था वहां! चारु, टोर्च लिए खड़ी थी! वो सहायक, अन्य सारा सामान रख गया था वहाँ! अमावस वैसे ही थी! नदी भयावह लग रही थी। अब सबसे पहले, गुरु-नमन किया! गुरु-वंदना, अघोर-पुरुष वंदन! फिर उस भूमि को माथे से छुआ! फिर स्थान-पूजन! दिशा कीलन, और घंट-कीलन! उसके बाद, आसन बिछाया, अपने लिए और उसके लिए! अब दीप प्रज्ज्वलित किये मैंने, इक्कीस, और रख दिए अलग अलग जगह, चार अपने समक्ष! अब अपना श्रृंगार किया, भस्म-स्नान और रक्त-चिन्ह! रक्त-पण्डिका आदि धारण की, तंत्राभूषण धारण किये, मंत्र पढ़ते हुए! अलख बनाई, और अलख, एक महानाद करते हुए, उठा दी! अलख-नमन किया! "इधर आओ चारु!" कहा मैंने, वो आ गयी पास मेरे! 

"बैठो!" कहा मैंने, बैठ गयी! "जैसा मैं कहूँ, वैसा ही करोगी?" पूछा मैंने, "हाँ" बोली वो, "मन में भय तो नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "कोई इच्छा, प्रश्न?" पूछा मैंने, "कोई नहीं" बोली वो, "कोई बाध्यता?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "इस समय, मैं तुम्हारे तन और मन का स्वामी हूँ, कोई आपत्ति?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "यदि मैं तुम्हारे तन और मन का प्रयोग करूँ, तो कोई आपत्ति?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "तुम जब चाहो, जा सकती हो, चाहे अभी, चाहे मध्य में, चाहे प्राण बचाने हों, तब भी मेरे तुम्हें रोकने का, ज़बरदस्ती करने का कोई अधिकार नहीं!" कहा मैंने, "हाँ" बोली वो, "कोई एवज?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "मैं तुम्हारा साधक, तुम मेरी साधिका!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "सुनो साधिके! मेरे प्राणों पर बनी हो, तो अपने प्राण पहले बचाना!" कहा मैंने, "नहीं" बोली वो, मैंने सर पर हाथ फेरा तब उसके! "वस्त्र खोल दो, उतार दो, वहाँ रख दो' कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने ऐसा ही किया, "यहां बैठी" कहा मैंने, वो बैठ गयी, अब उसका श्रृंगार किया, माथे, गले, उदर, जंघाओं पर भस्म मली, रक्त से, चिन्ह बनाये उसके शरीर पर, कमर पर, स्त्री-चक्र बनाया, और शक्ति-यंत्र स्थापित किया, नाभि पर,अष्ट-चक्र बनाया! "लेट जाओ" कहा मैंने, वो लेट गयी, तब मैंने लांघा उसको, 

और उठाया कमर से, मंत्र पढ़ा, और अब वो पूर्ण रूप से तैयार हुई। "वहाँ बैठ जाओ!" कहा मैंने, वो बैठ गयी, मैंने ईधन दिया उसे, 

और एक साथ झोंकने को कहा, और जब मैंने नाद किया, हम दोनों ने एक साथ ईधन झोंक दिया! अलख भड़क गयी! अब अलख भोग दिया! 

और उसकी भस्म से, उसके और अपने माथे पर टीका कर दिया! अब मैं खड़ा हुआ, इक्कीस परिक्रमा की अलख की, महानाद किया! रक्त के तीन घुट पिए! रक्त मला शरीर पर, 

और बैठ गया! अब किया अपने वाचाल महाप्रेत का आहवान! पंद्रह मिनट लगे! 

और भयानक अट्टहास करता हुआ महाप्रेत प्रकट हुआ! प्रकट होते ही, मुस्तैद हो गया! अलख में भोग दिया! महानाद किया। 

और फिर, कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया! थोड़ी ही देर में, मृग-नयनी के रूप में, वो प्रकट हुई। प्रकट होते ही, लोप हो, हुई मुस्तैद! मैंने ब्रह्म-कपाल रखा सम्मुख! बाल-कपाल टांगा त्रिशूल पर! 

अब लड़ाई देख! वाचाल की देख! त्रिशूल लिया, उसको माथे से लगाया, 

और कर दिया उत्तर की ओर! दृश्य स्पष्ट हुआ! वहां, अलख उठी थी, मांस के थाल सजे थे! दीप जले थे! चार साध्वियां थीं वहाँ! वो मिहिरा भी! दो और औघड़, और मुंड गले में लटकाये, 

तावक नाथ, अलख में ईंधन झोंक रहा था! उसने देख पकड़ी! और मारा ठहाका! रक्त लेकर हाथ में, अपने माथे से रगड़ दिया, बहता रक्त जब, आया होंठों के पास, तो चाट लिया! वो खड़ा हुआ, वो सभी खड़े हो गए! उसने त्रिशूल उखाड़ा अपना, और हुआ आगे, अलख के पास जा, तांडवी-मुद्रा बनाई, और फिर, सीधा खड़ा हो, त्रिशूल तीन बार नीचे झुकाया! स्पष्ट था, की मैं यदि तीन बार क्षमा मांग लूँ उस से से, तो वो छोड़ देगा मुझे! जीवन दान दे देगा मझको! मैं खड़ा हुआ, त्रिशूल से बाल-कपाल उतारा, रखा बगल में वो, और साधन मुद्रा बना। त्रिशूल तीन बार भूमि में गाड़ा और निकाला! स्पष्ट था की यदि वो अभी भी क्षमा मांग ले, तो सभी के प्राण बच जाएंगे! मारी दहाड़ उसने! लगाया ठहाका! 

और जा बैठ अपने आसन पर! सामने की भूमि खोदी, औ एक उलटा रखा कपाल निकाला उसने! उसो उठाया, और नीचे कर, हिलाया उसे! कुछ बताया था उसने मुझे! उसने कहा था कि विजेता को, अपने से पराजित शत्रु के शव का पूर्ण अधिकार होगा! तो ये वही कपाल था, उसके किसी शत्रु का! उसने कपाल उठाया, और किया आगे! जता रहा था की, मेरा भी हाल ऐसा ही होगा! फिर मारी दहाड़! और सभी हँसे! वो साध्वियां भी! 

मूों की मड़ली लगी थी! और तावक नाथ, उनका सरदार था! मूर्ख! दम्भ ने कैसा बना दिया था उसे! और तभी, उसने अपनी एक साध्वी को बुलाया, 

वो आई, उस से कुछ कहा, वो झुकी नीचे, दोनों हाथ और पैरों पर, उसने अपनी एक लात रखी उसकी कमर पर, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बोला एक मंत्र! और मारा ठहाका! मेरे यहां तेज हवा चल पड़ी! मैं गया आगे, 

और गाड़ दिया त्रिशूल भूमि में, मंत्र पढ़ते ही! हवा शांत, और वहाँ बह चली! उसने लात हटा ली अपनी उस साध्वी से! हवा शांत! अलख जो ज़मीन चाटने लगी थी, अब फिर से उठ गयी! उसने फिर से मंत्र पढ़ा, साध्वी को हटाया, खड़ा हुआ, और मारी थाप भूमि पर! मेरे यहां ज़मीन हिल गयी! अलख टेढ़ी हो गयी। मैं हुआ पीछे, मंत्र पढ़ा, और दी थाप! अब वहां हिली भूमि! एक साध्वी तो गिर ही पड़ी, तावक नाथ पर! मैंने पलट कर जवाब दिया था उसे, उसके ही तरीके से! खड़ा हुआ वो, मुट्ठी बंद की, और अलख में जैसे कुछ झोंका हो, ऐसे फेंकी वो मुट्ठी! मेरे यहां मेरे प्रियजनों के शव गिरने लगे! ढप्प ढप्प! मैं हुआ आगे, पढ़ा मंत्र और गाड़ा त्रिशूल भूमि पर, 

और वे सारे शव लोप! और उधर, उधर, उसके परिवारजनों के शवों के टुकड़े बिखरने लगे! कृगिकी महाविद्या खेल रहा था वो! मैंने भी ठीक उसी का जवाब दिया था! हाँ, शव क्षत-विक्षत अवश्य ही कर दिए थे, मुख से कह कर! उसने मंत्र पढ़ा, और मारी थाप! सारे शव लोप हुए! "तावक?" चीखा मैं, 

देखा उसने सामने! "अभी भी समय है! क्षमा मांग ले!" कहा मैंने, थू! थूका उसने, और दिया अलख में भोग! वो नहीं बाज आने वाला था! पूरा डूबा था खण्डार के दम्भ में! अब वो दोनों औघड़ आगे आये, उनके हाथों में गैंती थी, ज़मीन खोदने लगे! मैं तभी समझ गया कि वो कर क्या रहे थे! वो रम्भाष-विद्या का प्रयोग कर रहे थे! वो भी मेरी साध्वी को, जीते जी दफन करने के लिए! "चारु?" कहा मैंने, ज़ोर से, "हाँ?" बोली वो, "इधर आओ जल्दी!" कहा मैंने, 

वो आई तेजी से, उसकी टांगें खोली मैंने, पीछे से, 

और अपनी गरदन, सर उसके पीछे से आगे किया, ताकि वो, मेरे कंधों पर चढ़ सके! और उठ लिया उसे! वे दोनों औघड़, उस तावक नाथ के कहने पर रुक गए! वो खड़ा हुआ, और फिर से गड्ढा खुदवाने लगा! जब खुद गया, तो अब मूत्र त्याग करने लगा उसमे, मंत्र पढ़ते पढ़ते। मैंने भी रम्भाष-भंजन मंत्र जपने शुरू किये! मेरे यहां भूमि फटने लगी! गड्ढा बनने लगा, ठीक वहीं सामने, जहां चारु बैठी थी! अब मैं गया गड्ढे तक, मंत्र पढ़ा, और थूका गड्ढे में! झल्ल से गड्ढा भरा! अब उतार दिया उसको! लेकिन हाथ थामे रहा उसका! कट गयी रम्भाष! तावक नाथ, चकित तो नहीं हुआ, लेकिन देखता रहा गड्ढा भरते हुए! "हरामजादा! देख कुत्ते की औलाद! देख अब तू!" कहा मैंने, मैं बैठा नीचे! लिया खंजर! 

और बनायी एक आकृति उस से भूमि पर, बनाते ही, तीन जगह से काट दिया उसे! उसकी प्रधान साध्वी, की चीख निकल गयी! 

तीन जगह से कट गयी थी वो! और अब, तावक नाथ के ज़रा से होश उड़े! तावक नाथ दौड़ा उसके पास, देखे ज़ख्म, फिर गालियां दी उसने! 

और मैं ठहाके मारता रहा! मारता रहा! और वो मिहिरा, भूमि पर लेटे लेटे, खून से नहायी हुई, पलटियां मार रही थी! तावक नाथ बावरा हो गया था। आया आगे, अब बैठा अलख पर, हटा दिया सभी को उसने पीछे! झोंका ईधन अलख मैं, जोड़े हाथ और किया मंत्रोच्चार! तभी वाचाल के स्वर गूंजे! तिमिरा! तिमिरा! क्या चुना था उसने भी! कोई छोटी-मोटी शक्ति नहीं। लुहांगी की सह-सहोदरी! और ये दोनों भी एक महाशक्ति की सहोदरी हैं! असम में कई स्थानों पर पूज्य है! प्राचीन


   
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श्रीशः उपदंडक
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महाविद्या है! इक्कीस रात्रि इसकी साधना है, ग्यारह बलि-कर्म द्वारा सेवित है! नौ उप-सहोदरियों द्वारा सेवित है! काले पानी में वास है इसका! इसको भंवरिका भी कहा जाता है! वार में अचूक और शत्रु भंजन में प्रयोग होती है! इसका आह्वान किया था उसने! "रोड़का-सुरंगिनी!" वाचाल के स्वर गूंजे! सुरंगिनी अथवा रोड़का-सुरंगिनी, प्राचीन महाविद्या है! मूल रूप से, मध्य-प्रदेश में इसके कई मंदिर हुआ करते थे, आज जो हैं, टूट-फूट गए हैं! फिर भी कई मंदिरों में, ये सर्पिल देह में देखी जा सकती है! इसको छायाकि भी कहा जाता है! इकत्तीस रात्रि इसकी साधना है, सत्ताईस बलि-कर्म द्वारा पूजित है! प्रत्यक्ष प्रकट न हो, पीठ पीछे प्रकट होती है! ग्यारह उस-सेविकाओं द्वारा सेवित है! 

वाणी कर्कश है! देह, स्थूल है, स्तन, लटके हुए हैं, किसी वृद्धा-स्त्री की भांति, प्रश्न किया करती है। 

और तब, सम्मुख प्रकट होती है, तब ये कामायनी रूप में होती है! नव-यौवना रूप में! प्रसन्न होने पर, आह्वान मंत्र प्रदान करती है। काम,अर्थ और सुरा-सुख प्रदायनी है! तो अब इसका आह्वान आरम्भ किया था मैंने! उधर! उधर तो तावक नाथ अपने हाथ नचा रहा था! ईंधन पर ईंधन! रक्त-भोग! मांस-भोग! 

और मंत्रोच्चार! और कोई दस मिनट के बाद! मेरे यहां पर मुंड गिरने लगे! चारों ओर! हर तरफ, एक से एक टकराता और उछल जाता! कोई लुढ़कता हुआ, हमारी ओर भी आ पड़ता! मैं लात से फेंक देता उसको आगे! मदिराली, कपाल कटोरे में डाली, 

और एक ही बार में, गटक गया! त्रिशूल लिया, 

अलख से छुआया, और छुआ भूमि को, कपाल लोप होने लगे, उड़ने लगे ऊपर! 

और तब! तब मेरे यहां अंगार फूटने लगे! प्रकाश सा कौंधने लगा! वाचाल समय का सही आंकलन लगाया करता है! और सटीक ही काट करने के लिए मदद करता है! कुम्भक पुष्प गिरने लगे! वल्लभ घास के टुकड़े! छायाकि का आगमन होने ही वाला था! धूम-वलय उठने लगे। तड़ित क्रीड़ा करने लगी उनमे! यही है रोड़का-सुरंगिनी की आमद! मैंने एक दीप उठाया, रखा अलख के पास, उसके तेल से, माथे पर टीका किया, 

और अब उठा, चला आगे त्रिशूल ले! कि तभी, कर्णज्ज की सी आवाज़ गूंजी! धुंए के बादल जैसे बढ़ रहे थे हमारी तरफ! मैं आगे भागा! उन वलयों के पास जा खड़ा हुआ! हाथ जोड़े, 

घुटनों पर बैठा! 

और मंत्र पढ़ा उस छायाकि का! भन्न से प्रकाश कौंधा! 

कुछ धूम की आकृतियाँ, चक्कर लगाने लगीं! अब मैंने अलखनाद किया! रोड़का-नाद किया! 

और वो धुआं! स्थिर हो गया! तड़ित दमकी! नीले रंग की! 

और अगले ही पल, रोड़का और तिमिरा सम्मुख हुईं! तिमिरा शीश झुका, लोप हुई! 

और मैं, मैं जा गिरा रोड़का के वलयों के नीचे! 

उसका नाद किया! 

और फिर, मन ही मन, प्रसन्न हुआ! "हे मेरी प्राण-रक्षिका! मैं धन्य हुआ!" कहा मैंने, 

अगले ही पल, रोड़का भी लोप हुई! तिमिरा! छूट गयी तावक नाथ के हाथों से! सुरंगिनी लोप हुई जैसे ही! मैं उठ खड़ा हुआ! आया अलख तक! ईंधन झोंका, और उधर देखा! तावक नाथ हाथ खोले बैठा था! एक माल, टूट चला था उसका! कोष अब रिक्त होना आरम्भ हुआ था! मैं हंसने लगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठहाके मारने लगा! वहाँ, वे दोनों औघड़, फ़ौरन गए, भेरी लाये, और टिकाया एक मेढ़े का सर, और एक ही वार में, उस मेढ़े का सर, भेरी से उतार दिया! रक्त इकट्ठा करने लगे! और तावक नाथ, उस रक्त को अपने हाथों से पीता रहा! मैंने भी कपाल कटोरे में मदिरा परोसी, और गटक गया! बैठा मैं अब, वहाँ क्रिया-साधन चल रहा 

था! 

"चारू?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, 

"इधर आओ!" कहा मैंने, 

और उसको उस कपाल कटोरे में मदिरा दी, "ये लो! ये बोलो, और पी जाओ!" कहा मैंने, मैंने मंत्र पढ़ा, उसने जपा, और पी गयी! खांसी तो उठी उसे, लेकिन कर लिया बर्दाश्त उसने! अब मैंने फिर से देख लड़ाई! ये क्या कर रहा था वो तावक नाथ? इतनी शीघ्र ही नियमभंग? उसने अपनी एक साध्वी को नीचे लिटा दिया था, 

और उसके ऊपर चढ़ बैठा था, उसकी कमर पर, रक्त से चिन्ह काट रहा था, वो ऐसा कर, मेरी साध्वी के, 

उदर की आँतों को गलाना चाहता था, ये महा-मारण कहलाता है! उसने जैसे ही त्रिशूल उठाया, मैंने तभी चारु को उठा लिया, 

और लेट गया! उसको लिटा लिया अपने ऊपर, "चारु! शरीर का कोई भी अंग भूमि से स्पर्श न हो!" कहा मैंने, मैंने उसके दोनों हाथ उसकी छाती पर रखवा दिए, 

और टांगें, खुद पकड़ ली मैंने, उधर उसने त्रिशूल छुआया भूमि से! मिट्टी की एक रेखा फट से चली! 

जैसे कपड़ा उधड़ता है, ऐसे! मेरे यहां, यही हुआ, मेरे आसपास, कई जगह मिट्टी फटती, मिट्टी उड़ती हुई, हमारे शरीर से टकराती, 

आँखों में गिरती, मुंह में जाती! 

लेकिन मैंने नहीं छोड़ा उसे! चिपकाए रहा उसको! कम से कम दो मिनट ऐसा ही हुआ! और फिर शांत! लौट गयी वो धरणिका महाविद्या! अब उठाया मैंने उसे, बिठाया आसन पर! "सूअर की औलाद! तेरी औक़ात जान गया मैं! बचा अपनी सारी साध्वियों को!" कहा मैंने, मैंने अपना त्रिशूल उठाया, नेहुक्ष का संधान किया, स्त्री-तत्व की पुष्टि की, 

और छुआ दिया भूमि से, वो तीनों साध्वियां, पछाड़ खा गयीं! चीख ही चीख! शरीर धूल-धसरित! उठा तावक नाथ! उठायी भस्म! और फेंक मारी भस्म उन पर! नेहुक्ष लौट आई! लेकिन उन तीनों साध्वियों के मुंह और योनियों से, गाढ़ा पीला द्रव्य बाहर 

आ गया था! मैं चाहता तो उनको मार भी सकता था, रक्त जमा देता उनका! हृदयाघात होता और तीनों ही मारी जाती! परन्तु मेरी शत्रु नहीं थीं वो, शत्रु तो उनका वो साधक था! उसकी साध्वियां तोड़ दी गयीं थीं! हाँ, सांस चल रही थी उनकी, इसी कारण से, उनका प्रयोग किया जा सकता था! वो गुस्से में बड़बड़ाया! 

और उन दोनों औघड़ों के साथ, आ बैठा अलख पर, झोंका ईंधन! 

और जपे मंत्र! 

कर्ण-पिशाचिनी के कर्कश स्वर गूंज उठे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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रुद्रतिकि! 

क्या 

ये तावक नाथ और रुद्रतिकि? क्या इसने सिद्ध किया इसे? कैसे? ऐसा बूता तो नहीं लगता इसका? ऐसा विशेष तो है नहीं?" सम्भवतः पिता द्वारा प्रदत्त हो? यही हो सकता है! नहीं तो इसके बसका नहीं है इसे सिद्ध करना! यमनि! यही नाम है इसका! एक सौ इक्कीस महाप्रबल महाभट्टों द्वारा सेवित है। इक्यासी महा-रौद्र सहोद्रियों द्वारा सेवित है! इक्यासी रात्रि साधना है इसकी! इकत्तीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है! एवड़ के वृक्ष तले, अपने हाथों से, नदी किनारे की मिट्टी और रेत से एक चबूतरा बनाना पड़ता है! ये चबूतरा, एक ही रात में बनना आवश्यक है। उसके बाद, रक्त-स्नान द्वारा स्वच्छ होता है! रीछ के चर्म से बने आसन का प्रयोग होता है, शिशु-नाल से माल बनाया जाता है, 

अस्थियों के टुकड़े पिरोकर, साधक वो चबूतरा कभी नहीं छोड़ सकता, 

कम से कम साधना काल तक! वहीं रहना है, वहीं सोना है, आदि आदि। तो ये एक महाक्लिष्ट साधना है! 

और ये तावक ऐसा करे? असम्भव इसीलिए मैं हैरान हुआ था! "वृहदकुण्डा !" कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे! 

और मैं लगा उसके आह्वान में! वृहदकुण्डा ! तीन सौ एक महाप्रेतों द्वारा सेवित! एक सौ इक्यासी पिशाचिनियों द्वारा सेवित है! नब्बे रात्रि साधना है इसकी! पलाश वृक्ष के नीचे, गड्ढा खोदकर, उसमे बैठ कर, इसका साधना की जाती है! इक्यावन बलि-कर्म द्वारा पूजित है! ये लौहाभूषण धारण करती है, रक्त का भोग चढ़ता है इसको! काया में भीषण और कुरूप होती है! योनि बहुत दीर्घ होती है इसकी, नाभि बहुत ही बड़ी, बाहर को निकली हुई, खड्ग धारण करती है. अंग-पाश गले से लटका होता है, 

शिशु-कपाल का कमर-बंध धारण करती है! वर्ण में भक्क काली और दुर्गन्ध वाली होती है! 

मांस-प्रिय होती है! श्वास में भीषण दुर्गन्ध निकलने लगती है साधक के, साधना काल में भी! पूरे साधना-काल में,ज्वर नहीं उतरता! कई साधक तो, ज्वर से ही प्राण गंवा बैठते हैं। महाक्लिष्ट साधना है इसकी! तो मैंने इसका आह्वान किया था! श्मशान गूंज रहा था मन्त्रों से, हम फट्ट! यराक्ष फट्ट आदि आदि मंत्रों से! तभी वाचाल के स्वर गूंजे! एशम्भ! 

एशम्भ? ये हरामजादा नहीं आएगा बाज! मैंने चारु को चुटकी मारकर, बुलाया अपने पास, 

और बिठा लिया अपनी गोद में, पाँव मुड़वा लिए, कोई अंग भूमि स्पर्श न करे, ऐसे बिठाया था उसको! 

और मंत्रोचार करता रहा मैं! वो मेरी साधिका पर वार पर वार कर रहा था! वो विद्या भी लड़ाता, 

और आह्वान भी करता! ये विशेषता थी उसकी! 

कोई कोई ही साधक ऐसा कर सकता है! कोई कोई ही! 

और ये तावक, ऐसा ही था! तभी मेरे यहां एक कन्या प्रकट हुई। रक्त-रंजित! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये विद्यारूपिणी तमोरा थी! जिसे भेजा था उस तावक ने! कलेजा खाने के लिए मेरी साधिका का! मैं मंत्रोच्चार में लीन था, लेकिन, अपना त्रिशूल उठाया मैंने, 

और रखा चारु की टांगों पर! वो नीचे बैठी, वो कन्या, 

और किये दोनों हाथ आगे,जैसे, कुछ मांग रही हो! और उधर! ठहाके गूंजे उन दोनों औघड़ों के! वो जो कन्या प्रकट हुई थी, आयु में मात्र षोडशी रही होगी, पतली-दुबली, कृशकाय सी, श्याम वर्ण और गरदन लम्बी थी उसकी, हाँ, केश उसके सफेद थे, जैसे आयु में वृद्ध हो, वो हाथ फैला कर बैठी थी मेरी साधिका सम्मुख! मैं आहवान में था, परन्तु उस पर नज़र टिकी हुई थी, उसने चेहरा ऊपर उठाया, मुझे देखा, और ज़मीन पर सर टिका लिया। उकडू बैठ बैठे ही! कोई इंसान ऐसा नहीं कर सकता! उसने सर आगे किया, और मेरे घुटने से टकराया उसका सर! बस! बहुत हुआ! मैंने भूमि पर, अपने बाएं हाथ की तर्जनी ऊँगली से, शयभण यंत्र काढ़ा, और तब, वो ऊँगली उसके सर से लगा दी! वो खिचढ़ती चली गयी पीछे दूर तक! घूमी, चिल्लाई, और ऊपर उठते हुए, लोपहुई! अब राहत की सांस आई! मेरी साधिका ने, उठना चाहा, मैंने न उठने दिया उसे, न जाने वो धूर्त और क्या करे! कोई दस मिनट के बाद, मेरे यहां बड़े बड़े अंगार गिरने लगे! जैसे आकाश के टुकड़े! पृथ्वी से टकराने से पहले ही, वे लोप हो जाते थे! ये रुद्रतिकि का आगमन-सूचक था! मैंने और तीव्र 

किया मंत्रोच्चार! 

और तब! तब प्रकाश के गोले प्रकट हुए! अंगार गिरने बंद हो गए! खन्न-खन्न की आवाजें आनी शुरू हो गयी! मैं जान गया, वृहदकुण्डा का भी आगमन होने को है। अब मैं खड़ा हुआ, अपनी साधिका का हाथ थामे, त्रिशूल थामे,मैं आगे तक गया! 

और वृहदकुण्डा का महाभाक्ष मंत्र पढ़ा! जैसे ही पढ़ा, मेरे स्थान पर, कई महाभट्ट प्रकट हुए! और जैसे ही प्रकट हुए, महापिशाच भी प्रकट हुए! महाभट्ट उनका आभास हो, तत्क्षण ही हुए लोप! 

और वे महापिशाच नृत्य-मुद्रा में आ, अट्टहास लगाने लगे! आकाश से जैसे जल फूटा! और वो जल, आकाश में स्थिर हो, नीचे की ओर चला! जैसे सब बहा ले जायेगा! 

और उसी समय! घंटा बजा! वे सारे महापिशाच स्थिर हो गए, सर झुका लिए! वृहदकुण्डा प्रकट हो गयी! वो जल का भंडार, लोप हो गया! 

और लोप होने से पहले, एक पतली सीधार के रूप में पृथ्वी में समा गया! रुद्रतिकि लोप हो गयी थी उस, 

वृहदकुण्डा के सम्मुख होने से पहले! मैं झूम उठा! 

औघड़-मुद्रा में आ गया! नाचने लगा। दौड़ा, साधिका को पकड़ा! 

आया अलख तक, कपाल कटोरा भरा, और ले भागा उन महापिशाचों के पास! भौम-अर्पण किया, 

और तदोपरांत भूमि पर लेट गया! एक महाभाक्ष पढ़ा! 

और वे सभी, लोप होते चले गए! ये दूसरा परकोटा था उस तावक नाथ का, जो अब ढह गया था! रुद्रतिकि, लोप होते ही, उसके कोष से रिक्त हो चली! अब मैंने गाल बजाए! खूब ठहाके बजाए! भूमि पर कई थाप दी! बार बार अपनी साधिका को पकड़, सीने से लगाता! उसका माथा चूमता! उसकी बाजू पकड़, नाचने लगता था! 

औघड़-मद चढ़ने को था! हुआ अभय-मुद्रा में खड़ा! किया घुटना आगे, लिया त्रिसूल, 


   
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