और उसका श्रृंगार किया पुनः!
माँ कपालरुद्रा का आगमन हो रहा था! इसीलिए!
और तभी चौम-चौम की आवाज़ आई!
हर तरफ से, हर कोने से!
ये भैलकण्टा का आगमन था!
वो उधर प्रकट होने वाली थी!
मैंने तीव्र किया आह्वान और उठा फिर,
अपनी साधिका को पीठ पर लादा!
त्रिशूल हाथ में ले,
गया आगे तक,
और पढ़ा पुनः महाभाक्ष!
घम्म की सी आवाज़ हुई!
लाल रग का प्रकाश फूटा!
और तब हम दोनों ही,
भूमि पर लेट गए!
प्रकाश ऐसा, कि आंखें चुंधिया गयीं!
सजीली एक नव-यौवना प्रकट हुई थी!
चांदी के रंग जैसा वर्ण था उसका!
शरीर से लिपटे श्वेत वस्त्र, हवा में जैसे उड़ रहे थे!
केश लहरा रहे थे, प्रकाश ऐसा, कि देखा न जाए!
बवंडर ऐसा, कि आगे को धकेले!
यही थीं माँ कपालरुद्रा!
हम उठे, प्रणाम किया, भोग अर्पित किया,
और तभी!
तभी अर्राती हुई, एक छाया पकट हुई,
प्रकट होते ही, सीधी वायु-रेखा सी बनी और आकाश में उड़ गयी!
ये भैलकण्टा थी! कपालरुद्रा के सम्मुख टिक नहीं सकती!
यही हुआ था!
हम दोनों फिर से लेट गए!
मैंने तत्क्षण ही महाभाक्ष पढ़ा!
और कपलरुद्रा लोप हुई!
अब हुआ मैं खड़ा!
भागा अलख तक!
झोंका ईंधन!
और उठाया कपाल!
खोपड़ी पर, तीन थाप दीं हाथ से!
और लड़ाई देख!
नीचे बैठा था तावक नाथ!
पाँव फैलाये!
हाथ पीछे किये!
दीप बुझ गए थे उसके!
अलख शांत पड़ी थी!
वे चारों औघड़, भूमि पर बैठे थे!
अब मैंने लगाया अट्ठहास!
वे सभी चुप!
सांप सूंघ गया था उनको जैसे!
"तावक?" बोला मैं चीख कर!
उसने सर उठाया!
"भैलकण्टा से भी रिक्त हुआ तू!" कहा मैंने,
और हंसा! उड़ाया उपहास!
कुछ न बोले वो!
चुपचाप रहे!
एक शब्द भी न फूटे मुंह से उसके!
"मान जा तावक!" कहा मैंने,
चुप रहे!
"अभी समय है!" कहा मैंने,
हुआ खड़ा!
चला पीछे,
अलख पर बैठा,
झोंका ईंधन!
और बुलाया एक औघड़ को!
माँगा कुछ उस से, वो उठा,
गया पीछे, और लाया मांस का थाल!
बुलाया एक साधिका को,
अब मिहिरा ठीक थी, वही आई,
बैठी, उसकी गोद में, और कस लिया उसे,
अब पढ़े मंत्र उसने,
मांस का भोग दिया अलख में!
और फिर उस मिहिरा को उठा,
चला आगे, लिटाया उसको,
त्रिशूल से तीन जगह दागा उसको!
और बैठ गया उसके ऊपर,
स्तनों के बीच, रक्त से एक चिन्ह काढ़ा,
और किये नेत्र बंद!
और औघड़, अलख में ईंधन झोंकता रहा!
"दक्खन-भ्रूदा!" स्वर गूंजे कानों में, वाचाल के!
दक्खन-भूदा!
अपने पिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियां गंवाए जा रहा था तावक नाथ!
इसे कहते हैं दुर्दशा!
विवेक तो था ही नहीं पास,
अब संयम भी खाली हो रहा था!
विक्षिप्तता की तरफ, तेजी से भाग रहा था वो!
ऐसी हालत हो चली थी उसकी अब!
दक्खन-भूदा!
महाशक्ति!
प्रबल एवं महाक्रूर!
शत्रु-भंजनी!
अमोघ एवं अचूक!
इसका पूजन आज भी होता है!
महातामसिक प्रवृति है इसकी!
रात्रि-काल बली है!
इसकी तीसरे से चौथे प्रहर तक सत्ता रहती है!
ग्रीवा में सांप पड़े होते हैं दो,
तक्षक समान! गौ-पथ चिन्ह उलटे होते हैं,
देह से स्थूल है,
योनि का उभार अत्यंत अधिक होता है,
स्तनों से रक्त बहता रहता है,
लाल होते हैं स्तन इसके,
शेष देह नग्न है,
मस्तक पर भाल धारण करती है,
केश रुक्ष हैं,
चौदह मसानों द्वारा सेवित है!
ग्यारह महाशाकिनियों द्वारा सेवित है!
बल में अपार!
शक्ति में कोई सानी नहीं!
महाउग्र है!
रूप में गौर वर्ण है इसका,
बाएं हाथ में खड्ग रहता है!
चौदह रात्रि काल साधना ही इसकी,
ग्यारह सहस्त्र मंत्रोच्चार है इसका,
इक्कीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है!
अर्जुन के वृक्ष के नीचे अलख उठायी जाती है!
ये एकांत-साधना है,
अन्य कोई न हो साथ में,
कच्चा मांस और मदिरा,
यही भोज्य-पदार्थ हैं!
साधक को,
मिट्टी का लेप लगाना होता है शरीर पर,
अर्जुन का वृक्ष,
शिशु-अवस्था का न हो!
ठूंठ जैसा भी न हो,
लाल-पाषाण में वास है इसका!
मसान ही प्रकट होते हैं,
राजसिक वेश-भूषा में,
और फिर,
ये स्वयं प्रकट होती है!
साधक रक्त-रंजित हो जाता है!
अचेतावस्था में प्रश्न और उद्देश्य होते हैं!
सिद्ध होने के पश्चात,
साधक तीन रात्रि और दिन,
नेत्रहीन होता है!
तदोपरांत साधना पूर्ण होती है! अत्यंत ही क्लिष्ट साधनाओं में से एक है!
हैरत के बात थी! इस विवेकहीन मनुष्य ने अपने पिता द्वारा प्रदत्त शक्तियां,
अपने दम्भ को ऊँँचा रखने में, दांव पर लगा दी थीं!
इस से उसके पिता के एक महाप्रबल औघड़ रूप को मैं समझ गया था!
यदि वे जीवित होते, तो ऐसा कदापि न होने देते!
परन्तु, तावक नाथ अथिति को नहीं समझ रहा था, वो एक एक कर,
सारी शक्तियां झोंके जा रहा था! ये विक्षिप्तता का पहला लक्षण था!
"शैविकि!" स्वर गूंजे कर्ण-पिशाचिनी के!
शैविकि!
महारौद्र महाशक्ति!
खण्डवल्ली के नाम से जानी जाती है!
महापैशाचिक प्रवृति की होती है!
दोनों हाथों में कपाल धारण किये हुए रहती है!
आद्या-श्मशान में वास है इसका!
कोई आभूषण नहीं, कोई श्रृंगार नहीं,
बस रक्त से लिपी देह और नग्न रूप!
देह से छरहरी,
स्तन दीर्घ और श्रोणि-प्रदेश चौड़ा होता ही,
वर्ण में गौर वर्ण,
और धीमी चाल से चलती है!
हुंकार बेहद प्रबल होती है, शत्रु का भंजन किया करती है!
शैविकि का भी एक प्रयोग है!
जो निःसंतान हों,
जिसके कोर्ट-कचहरी के मुक़द्दमे हों,
भूमि आदि से लाभ न हो रहा हो,
विभागीय परेशानियां हों,
व्यापार बंद होने की कगार पर हो,
पुत्र संतान का लाभ न मिल रहा हो,
शरीर रोग-ग्रस्त हो, असाध्य रोग हों,
तो ये प्रयोग किया जाए, तो अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है,
फिर से एक बार कहूँगा कि, सात्विक विचारधारा वाले ये प्रयोग न करें,
बकरे की ताज़ा कलेजी लाएं सौ ग्राम,
ध्यान रहे, उस कलेजी में से, आप ही ऐसे पहले हों जो कलेजी कटवाए,
अन्यथा वो प्रयोग में काम नहीं आएगी!
अब इस कलेजी को, एक बर्तन में रखें,
उसमे पानी डालें और साफ़ करें,
उसके बाद, इसको हल्दी और नमक लगा,
भून लें तवे पर, अब इसको स्वच्छ बर्तन में उतार लें,
और बर्तन को हाथ में पकड़, एक मंत्र बोलें,
मंत्र मैं व्यक्तिगत संदेश में बता दूंगा,
मंत्र का जाप करें इक्कीस बार,
तत्पश्चात, इसको आप खा सकें तो खा जाएँ,
एक आद टुकड़ा तो खाना ही होगा, ये आवश्यक है,
उसके बाद, ये बाकी बची कलेजी, किसी काले श्वान को खिला दें,
जब वो खा रहा हो, तो पांच बार उसी मंत्र का जाप करें!
ये आपको ग्यारह दिन रोज करना है,
बारहवें दिन खुशखबरी मिल जाएगी,
कोई भी शुभ शकुन आपके समक्ष होगा!
जब अभीष्ट फल प्राप्त हो, तो माँ शैविकि के नाम से,
किलो भर मांस और शराब दान कर दें!
इसकी साधना श्मशान में इकत्तीस रात्रि की है,
ग्यारह बलि-कर्म द्वारा पूजित है!
उजले रूप में प्रकट होती है,
तदोपरांत उद्देश्य जानती है और फल प्रदान करती है!
शैविकि सिद्ध हो जाए तो चार सिद्धयाँ स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं!
करेड़-प्रेतों व अन्यों से वार्तालाप कर सकते हैं!
भौष-भूमि में गड़ा धन देखा जा सकता है!
एक्रंड-आभा-मंडल उच्च हो जाता है,
और यौष, भविष्य में झाँका जा सकता है!
उसने दिया अलख में भोग!
उसकी साध्वी वैसे ही लेटी रही!
दूसरा औघड़, अलख संभालता रहा!
और वे तीन,
आये उठकर,
एक के पास त्रिशूल था,
भूमि में गाड़ा,
और बैठ गया नीचे,
कपाल उठाया,
शराब का प्याला पिया,
भूमि पर कुछ काढ़ा,
और गलगल की आवाज़ के!
क्रौंच-विद्या का संधान था ये!
मेरा आह्वान तोड़ने का प्रयास था उनका!
क्या खूब चाल चली थी!
मैंने उठाया त्रिशूल अपना,
और रखा कंधे पर,
उतरा साधिका से,
और बनाया घेरा!
इस घेरे में, मैंने अपनी साधिका को भी ले लिया,
और आह्वान करता रहा!
वहाँ, एक बलि दी गयी,
रक्त से नहला दिया गया वो कपाल,
रखा दीया उसके ऊपर,
और वो औघड़ लेट गया भूमि पर,
पढ़े मंत्र, और चलाये पाँव अपने!
क्रौंच बढ़ी आगे!
और मेरे यहां, हुई आवाज़ें, जैसे कोई भाग रहा हो मिट्टी पर!
ये क्रौंच के कारण ही था!
मैंने नज़रें बांधे सब देख रहा था!
और मित्रगण!
वहां उस घेरे के बाहर,
अँधेरे में से,
सांप ही सांप आने लगे!
विषैले सर्प!
सभी के सभी!
नाग थे सब!
अनुभव क्र. ९२ भाग ७ (अंतीम)
लेकिन घेरा न भेद पाये!
शंख-घेरा काढ़ा था मैंने, कैसे भेदते!
क्रौंच क्या, महाक्रौंच भी न भेद पाये उसे!
उठायी अलख से भस्म,
मली त्रिशूल पर,
और कर दिया बाहर त्रिशूल!
जैसे ही छुआ, वैसे ही वो मायावी सर्प, लोप हुए!
और वो औघड़,
उठा ऊपर!
चीखा और फेंक दिया गया एक तरफ!
गरदन टूटी उसकी, और उठा नहीं गया उस से!
दूसरे औघड़ भागे उसके पास!
उठाया उसे, और ले चले एक तरफ!
ये सब उस तावकनाथ ने भी देखा!
और फिर वहां प्रकाश कौंधा!
उठा तावक नाथ! चिल्लाया!
नाम जपता रहा बार बार अपनी आराध्या का!
उठाया त्रिशूल और हुआ तांडवी-मुद्रा में खड़ा!
फिर से प्रकाश कौंधा!
दक्खन-भूदा का आगमन होने को ही था!
बरसने लगे अंगार!
मारे ठहाके बार बार!
भूमि में त्रिशूल गाड़े,
फिर निकाले, और फिर गाड़े!
ऐसे करते करते, एक बार तो गिर ही पड़ा!
उठा और खींचे भोग-थाल उसने!
मेरे यहां,
मैं अंतिम चरण के अंतिम क्षण पर था!
प्रकाश कौंधा!
जैसे बिजली चमकी हो!
अंगार बरसने लगे!
चकाचौंध रौशनी फ़ैल गयी!
मैं उठा और पहुंचा वहाँ!
त्रिशूल गाड़ा उधर ही,
भोग-थाल सजाया,
और लेटा भूमि पर!
और फूटा रौशनी का एक गोला!
पूरा श्मशान चमक उठा एक क्षण के लिए!
नहा गए हम दोनों उस प्रकाश में!
और तब, उस झिलमिलाते प्रकाश में,
ऐसा लगे कि जैसे बारिश हो रही है!
जैसे पर्दे से झूम रहे हैं!
और तभी के तभी,
वहाँ एक और सत्ता भी प्रकट हुई!
परन्तु, स्थिर रही!
और अगले ही पल,
शैविकि प्रकट हो गयी!
महा-कपाल उठाये हुए!
दक्खन-भूदा, उसको देख,
पल में ही लोप!
मैं लेट गया नीचे, मेरी साधिका भी!
मैंने महाभाक्ष का जाप किया!
और धन्यवाद किया अपनी प्राण-रक्षिणी का!
उद्देश्य पूर्ण हुआ था,
आठ, वो लोप हुई!
उसके लोप होते ही,
मैं भागा पीछे, गया अलख तक,
मदिरा गटकी,
और उठाया कपाल,
रखा बगल में,
और चिल्लाया! महानाद किया!
और लड़ाई देख वहां!
तावक नाथ खड़ा था उधर ही! उसे साथी औघड़ भी, और उसकी साध्वियां भी!
त्रिशूल नीचे पड़ा था उसका! उसे यक़ीन नहीं था कि उसकी महाशक्ति दक्खन-भूदा इस प्रकार,
शैविकि के सम्मुख लोप हो जायेगी!
उसके होश उड़ गए थे! हाथ से दक्खन-भूदा भी निकल गयी थी!
पिता की दी हुई शक्तियां हाथ से नदारद हो चली थीं!
कोष, रिक्त हुए जा रहा था उसका!
अब देखना था कि क्या शेष है उसके पास!
"मान जा तावक! अभी भी समय है! मांग ले क्षमा!" कहा मैंने,
कुछ न बोला वो,
झुका नीचे,
उठाया त्रिशूल, और फेंक मारा सामने!
त्रिशूल आगे जा, गड़ गया था!
एक औघड़ भागा और निकाल लाया उसको!
दिया वापिस तावक नाथ को!
तावक अंट-शंट बके जा रहा था!
गाली-गलौज किये जा रहा था!
"सम्भल जा तावक! सम्भल जा!" कहा मैंने,
मारी एक लात दबाकर, सामान को उसने,
बिखेर दिया रक्त पात्र में से बाहर!
अब वे औघ ज़रा खिसके पीछे को!
साध्वियां भी पीछे हटीं! अपना आपा खो चुका था अब वो!
ऐसा औघड़ बहुत खतरनाक होता है!
दूसरे का नाश तो करेगा ही करेगा, अपना भी कर लेगा!
वही हाल इसका था! मारे क्रोध के, फ़टे जा रहा था!
उसने खींचा मिहिरा को बालों से पकड़ कर!
और दिया धक्का आगे, वो गिर पड़ी, और लेट गयी!
डर गयी थी उस से शायद!
उसने सारा सामान इकट्ठा किया,
सारा का सारा, और बैठा फिर साध्वी के ऊपर,
माँगा त्रिशूल अपना उसने, और दिया गया उसे वो त्रिशूल,
एक महानाद किया उसने! और गाड़ दिया वहीँ!
उठाया चिमटा अपना, खड़काया और मदिरा पी,
चिमटे पर कुल्ला किया, और वो भी गाड़ दिया!
नेत्र बंद किये अपने, और जुटा मंत्रोच्चार में!
"लहुशमाद्रि!" स्वर गूँज उठे वाचाल के!
वाह!
अपने पिता के द्वारा दी गयीं सभी सिद्धियां आज दांव पर लगा दी थीं उसने!
उसने सारा सामान इकट्ठा किया था,
इसका अर्थ ये था कि ये उसका अंतिम वार था!
और उसके बाद, मात्र खण्डार भी शेष था!
इसका अर्थ ये हुआ, कि द्वन्द अब अंतिम चरण में जा पहुंचा था!
लहुशमाद्रि!
ये भी दक्खन-भारत की एक महाशक्ति है!
सर्वकाल बली है!
देह में स्थूल,
वर्ण में श्याम-नील,
रुक्ष केश वाली है,
स्तन सूखे हुए, वृद्धा स्त्री जैसे हैं,
आयु में वृद्ध,
झुक कर चलने वाली,
और अत्यंत ही कुरूप होती है,
आँखें अपने स्थान पर नहीं होतीं,
नसिका टेढ़ी है, और झुर्रियां ही झुर्रियां हैं!
मानव-चर्म धारण करती है,
आभूषण कुछ नहीं,
दायें हाथ में, दूब की सूखी घास हुआ करती है, मुट्ठी-बंद!
दक्खन-इमली के वृक्ष पर वास है इसका,
वहाँ के दक्खन-तंत्र में अहम है बहुत!
इक्यावन रात्रि इसकी साधना है,
इक्कीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है,
अंतिम पांच रात्रि साधक मृत्युतुल्य कष्ट झेलता है!
या तो क्षमा मांग लो, या फिर पूर्ण करो,
कोई भी साधना बिना गुरु की उपस्थिति के, कभी नहीं करनी चाहिए,
यहां तक की प्रेत-साधना भी,
मनुष्य की एक न चलेगी प्रेत के सामने,
भले ही कितना भीम हो वो!
रीढ़ की हड्डी दस जगह से तोड़ देगा एक ही बार में!
मैं किसी को भी ऐसी सलाह नहीं दूंगा!
सक्षम गुरु ढूंढें, गुरु ऐसे ही नहीं मिल जाया करते!
मिल भी गए, तो परीक्षा में पड़ोगे, ये परीक्षा, पांच, दस, पंद्रह से तीस साल की भी हो सकती है!
इस अवधि के बाद ही गुरु ये निश्चित करेंगे, कि आप,
इस मार्ग पर चलने योग्य हो या नहीं!
कहीं क्रोधी तो नहीं?
लोलुप तो नहीं?
प्रपंची तो नहीं?
स्व-हितकारी तो नहीं?
कहीं कच्चा तो नहीं?
यदि एक भी अवगुण रहा शेष,
तो वापिस लौटा देंगे आपको!
आपका उदेश्य क्या है सीखने के लिए?
क्या करेंगे आप उस शक्ति का?
यही विचारा जाता है!
हाँ, तो उसने लहुशमाद्रि का आह्वान किया था!
"लौहखंडा!" स्वर गूंजे कर्ण-पिशाचिनी के!
लौहखंडा!
पूर्वी भारत की महाशक्ति!
नेपूरिका, त्वतमालिनि, अजरांशी नाम से जानी जाती है!
देह में सुगठित,
रूप में रूपवान,
आयु में नव-यौवना,
काया अत्यंत ही रूपवान होती है,
अंग-प्रत्यंग यक्षिणी स्वरुप होते हैं!
आभूषण धारण किये रहती है,
शेष देह नग्न है,
एक हाथ में त्रिशूल,
और दूसरे हाथ में अस्थि-दंड धारण करती है!
शत्रु-भंजनी है!
इक्कीस रात्रि साधना है इसकी,
इक्कीस बलि-कर्म द्वारा पूज्य है,
नौ डाकिनियाँ इसकी सहोदरी हैं,
निन्यानवें महाप्रेतों द्वारा सेवित है!
एक एक महाप्रेत,
अंगिराक्ष है! महाभट्ट और योद्धा!
साधना समय, यही डाकिनियाँ और महाप्रेत,
अक्सर दिख जाया करते हैं,
ऐसी ऐसी लीलाएं रचते हैं कि,
साधक विक्षिप्त ही हो जाए!
परिवारजनों की हत्या दिखाते हैं!
उनकी आवाज़ें आती हैं, चीखने की, चिल्लाने की,
कभी कभी तो प्रियजन समक्ष ही आ खड़े होंगे!
आपके साथ बैठेंगे,
बातें करेंगे,
और ये डाकिनियाँ उनका भक्षण करेंगी!
ऐसा ऐसा विघ्न उत्पन्न करते हैं ये!
जो साधक पल भर के लिया भी डिगा,
तो समझी अब शेष आयु, ज़िंदा मुर्दे की तरह से कटी!
न सुनाई ही देगा,
न दिखाई ही देगा!
न शौच-त्यागने का पता,
न मूत्र त्यागने का!
मुंह से एक शब्द नहीं निकलेगा,
रोयेंगे तो आंसू नहीं निकलेंगे!
इसीलिए ऐसी साधनाओं को, क्लिष्ट या तीक्ष्ण साधना कहा जाता है!
और साधक डटा रहा!
तो ये सिद्ध हो जायेगी!
सिद्ध होते ही,
ऐच्छिक कार्य तो सिद्ध होंगे ही,
आपकी वाणी भी सिद्ध होने लगेगी!
अब मैंने इसका आह्वान किया था!
इस आह्वान में,
साधक के ऊपर, साधिका बैठती है,
प्रणय-मुद्रा में,
काम-मुद्रा में,
मैंने भी वहीँ किया,
और मंत्रोच्चार आरम्भ किया!
कोई पांच मिनट के बाद,
मेरी साधिका पर,
शक्ति-वेग चढ़ने लगा!
उसके हाव-भाव बदल गए!
आँखें चौड़ी हो गयीं!
और अब वो, वास्तविक काम की इच्छा से,
मुझे प्रेरित करने लगी,
ऐसा ही होता है ऐसे वेग में!
मुझे उसके लिंग प्रवेश कराने से पहले ही,
आह्वान पूर्ण करना था,
अन्यथा,
मेरे आह्वान विफल हो जाता!
फिर मुझे,
संसर्ग करना ही होता उस से,
और इस प्रकार,
प्राण-संकट आ धमकता!
मैं उसके हाथ पकड़ रहा था,
वो मेरे केश खींच रही थी,
मेरे छाती पर,
घूंसे मार रही थी और नाख़ून रगड़ रही थी,
मैंने आह्वान तीव्र किया!
और उसने जैसे हठ पकड़ा, झूमने लगी वो!
उसमे अपार बल आ चला था उस समय!
स्थिति तनावपूर्ण हो चली थी,
वो काम-क्रीड़ा चाहती थी, ये शक्ति-वेग के कारण था,
और मैं आह्वान में जुटा था!
वो अब उग्र हुए जा रही थी,
संभाले नहीं सम्भल रही थी,
मुझे दबा लिया था अपनी जाँघों में,
और मेरे केश पकड़, उठा रही थी मुझे,
मैं भी डटा हुआ था,
जितना बन पड़ रहा था, उतना कर ही रहा था,
वो अचानक से उठी, और फिर पीठ के बल,
लेट गयी मेरे ऊपर, अब मेरी हालत हुई खराब,
मंत्र पढ़ने में हुई दिक्कत!
मुझे नोंच रही थी हर जगह,
काफी देर ये ये हंगामा सा चला,
और फिर प्रकाश की एक लहर सी आई उधर!
वो चौंक पड़ी!
देखा उसने ऊपर,
और हो गयी खड़ी!
मैं भी झट से खड़ा हुआ,
मैं जानता था कि वो,
अब बस गश खाने को ही है,
फौरन ही पकड़ लिया उसे!
और वो,
झूल गयी मेरी बाजुओं में!
मैं उसे ले गया आसन पर, और लिटा दिया,
फिर भाग कर, उस स्थान पर आया,
प्रकाश के वलय चक्कर लगा रहे थे!
छन्न-छन्न की आवाज़ें आने लगी थीं वहाँ!
ये भ्रामर था, उसके आगमन का भ्रामर!
और अचानक से शीतल वायु का बवंडर सा उठा!
