नग्न-देह,
केशों में लिपटी हुई,
अस्थियों के आभूषण धारण किया करती है!
सिद्ध होने पर, साधक को सर्वस्व प्रदान किया करती है!
मैं लगा हुआ था आह्वान में,
कोई दस मिनट के बाद,
वहां अस्थियां और राख गिरने लगे!
मांस के छोटे छोटे लोथड़े!
अस्थियों के टुकड़े,
राख के कण गिर रहे थे!
और फिर अट्ठहास गूंजा!
कानफोड़ू अट्ठहास!
ऐसा अट्ठहास जो सर फोड़ दे!
आँखें बाहर निकाल दे!
पेट में, मरोड़ उठ जाएँ!
और तेज बवंडर उठा हवा का!
मिट्टी उड़ चली ऊपर!
बना एक चक्रवात सा!
और फिर,
अगले ही पल,
सब शांत!
हुई प्रकट तुलिता! मैं भागा,
और लेट गया, हाथ नीचे लिटा!
किया आगे भोग-थाल,
और बोला दिया अपना उद्देश्य!
अगले ही क्षण, वो लोप हुई वहाँ से,
तीव्र वेग से, वहाँ प्रकट हुई!
प्रकट होते ही, स्थिर रह गयी!
वहाँ पर, तावक नाथ में, मलयमुण्डका का जाप किया था,
नरमुंड पड़े थे!
मलयमुण्डका अगले ही क्षण प्रकट हुई!
और तुलिता, लोप!
मेरे यहां प्रकट हुई, मैंने हाथ जोड़े, नेत्र बंद किये,
और तीव्र वेग से, वो भी लोप हो गयी!
मेरा वार खाली गया था!
अट्ठहास गूँज पड़ा उस तावक नाथ का!
नाचने लगा था त्रिशूल उठाकर!
उसका साथी औघड़ भी, मदिरा पीकर, हंस रहा था!
"देखा?" गर्राया वो!
"देखा मेरा सामर्थ्य?" बोला वो,
मैं हंस पड़ा!
उसकी मूर्खता पर!
उसने मेरा एक ही वार काटा था,
तो ये हाल था,
मैंने तीन काटे, तो मुंह से चूं नहीं निकली!
"देख तेरा क्या हाल करता हूँ मैं!" बोला वो,
"अरे जा तावक!" कहा मैंने,
"तावक नाथ नाम है मेरा!" बोला वो,
"जानता हूँ, कायर!" कहा मैंने,
"अभी तक तो खेल रहा था मैं, अब देख!" बोला वो,
और जा बैठा आसन पर,
लिया कपाल हाथों में,
परोसी मदिरा,
और पीने लगा!
फिर कुल्ला किया,
अपने शरीर पर मली मदिरा,
लगाई भस्म,
और हुआ खड़ा!
"हे महाचरणी! प्रकट हो!" बोला वो,
और बैठ गया नीचे!
महाचरणी!
इक्कीस रात्रि साधना काल है इसका,
रात्रि के तीसरे चरण में, साधना होती है!
ग्यारह बलि-कर्म द्वारा पूज्य है,
ग्यारह महाभीषण शाकिनियों द्वारा सेवित है!
देह में छरहरी,
आयु में नव-यौवना,
स्वर्णाभूषण धारण किये हुए,
मुण्डमाल धारण करती है,
शेष देह, नग्न है,
स्तन दीर्घ हैं,
कमर पतली और नितम्ब बहुत चौड़े हैं,
जंघाएँ स्थूल और भुजाएं, शक्तिशाली हैं!
श्रीलंका, कम्बोडिया, थाईलैंड, मलेशिया आदि देशो ने,
ये महाचरणी शाकिनी के नाम से जानी जाती है,
भारत में कई जगह,
इसका पूजन होता है,
मध्य-युगीन मंदिरों में ये खड्ग लिए हुए दिखती है!
केश खुले हैं,
पांवों तक आते हैं,
यही है महाचरणी!
"यौमानिका!" स्वर गूंजे कर्ण-पिशाचिनी के!
यौमानिका!
गहरे तालाब इसका वास रहता है!
वर्ण ने नील वर्णी है!
कन्या समान आयु है,
मस्तक पर, रक्त का लेप होता है,
शेष देह नग्न है,
गले में मुण्डमाल है,
हाथ में त्रिशूल,
और एक हाथ में, मानव का कटा सर,
अस्थियों के आभूषण हैं,
इसको रक्त-सुंदरी भी कहते हैं!
कई जगह आख्यान है इसका!
चौबीस अक्षयात महाप्रेतों द्वारा सेवित है!
सर्वकाल बली है,
मध्यान्ह में दो बजे से, चार बजे के मध्य,
त्याजित श्मशान में इसकी साधना होती है,
ग्यारह रात्रि साधना काल है,
साधक अब वहीँ का हो कर रहता है,
उस श्मशान से बाहर जाने पर, प्राणों का संकट आ पड़ता है!
नग्न ही साधना होती है,
और नग्न ही इन दिनों रहना पड़ता है,
भोजन आदि की व्यवस्था स्वयं ही करनी पड़ती है,
स्नान त्याज्य है,
वस्त्र बिछा भी नहीं सकते,
मीठा खाना त्याज्य है,
ग्यारह रात्रि, ग्यारह जगह शयन करना पड़ता है,
पांच बलि-कर्म द्वारा पूज्य है,
सिद्ध होने पर,
मानव स्त्री के रूप में,
ये साधक से सहवास करती है,
कभी-कभार साधक मृत्यु के करीब भी पहुँच जाता है!
तदोपरांत ये, ये सिद्ध होती है!
ऐच्छिक कार्य करने में, विलम्ब नहीं लगता!
समस्त सुख-दात्री है!
हाँ, साधना क्लिष्ट है इसकी!
यौमानिका का आह्वान कर लिया था,
मेरे यहां प्रकाश फैला था, सफेद रंग!
और तभी, तभी सहचरी भी प्रकट हुईं उस महाचरणी की!
जैसे ही क्रंदन किया,
यौमानिका के प्रभा-मंडल से जैसे ही टकराईं, वे लोप हुईं!
नहीं ठहर सकती थीं वो!
और इस प्रकार, महाचरणी भी लोप ही हो गयी!
न प्रकट हो सख्त, हाँ, मार्ग अवरुद्ध हुआ, तो तावक नाथा भी हाथ मलता रह गया!
मैं नीचे बैठा! लेट गया था!
यौमिनिका का परम धन्यवाद किया!
और उद्देश्य पूर्ण होते ही, वो भी लोप हुई!
मैं उठा!
भागा अलख की तरफ!
और कपाल कटोरे में मदिरा परोसी!
गटक गया एक ही बार में!
उठाया त्रिशूल अपना!
और चला आगे!
कपाल भी उठा लिया,
रखा बगल में!
और आगे जाकर, रखा उसे!
और लगाया एक ज़ोरदार अट्ठहास!
"तावक!" कहा मैंने,
वो खड़ा हुआ, कपाल लिए,
और गुस्से में गाली-गलौज की!
और वो कपाल,
फेंक मारा सामने!
मेरी हंसी छूटी तभी!
"सम्भल जा!" कहा मैंने,
फिर से गुस्से में गालियां ही गालियां!
"तावक! महाचरणी से रिक्त हुआ तू!" कहा मैंने,
और लगाया ठहाका!
"कितना रिक्त होगा तू?" पूछा मैंने,
"बस बस?" बोला वो,
और लौटा पीछे,
उठाया एक झोला!
और निकाला उसमे से एक कटा हुआ सर,
छोटा सा,
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि,
क्या होगा वो!
"देखा तूने?" बोला वो,
मैं हंसा!
"ये देख?" बोला वो,
उसके चेहरे से केश हटाता हुआ!
दिखाया मुझे,
उसका मुंह खोला,
और जीभ निकाली बाहर,
जीभ पकड़ी,
और झुलाया उसको!
फिर मारा ठहाका उसने!
"ये! ये भाजन करेगी तेरा!" बोला वो,
मैं ज़रा सोच में पड़ा!
ये तो सरभंग क्रिया है?
ये कैसे जाने?
क्या सरभंगों में रहा है?
उसने लगाया ठहाका!
और चला अलख की तरफ!
रखा उसको नीचे,
किया उस पर मूत्र-त्याग!
उठाया उसको उसने,
और बुलाया अपनी एक साध्वी को,
वो रगड़ती हुई आई आगे,
उसो पीठ के बल लिटाया,
रक्त से उसका पेट लीपा उसने,
और रख दिया उसके ऊपर सर,
केश काटे,
अलख में झोंके!
ये मुण्डवाहिनी क्रिया थी!
ये सर, वहाँ से उड़ेगा,
और मेरे यहां गिरेगा!
तब वो मुझसे द्वन्द करेगा!
मेरे विरुद्ध दो!
संचालन इसका वहाँ से होगा!
मैं बैठा अलख पर,
ईंधन झोंका,
और उठा, कपाल उठाया, दूर रखा,
उसपर दीया रखा,
उखाड़ा त्रिशूल अपना,
चला दूर तक ज़रा!
त्रिशूल को नीचे भूमि पर लगाया,
और मंत्र पढ़ते हुए, एक बड़ा सा घेरा बनाया,
इतना बड़ा, कि वो सर हमारे पास न गिरे,
जब बना लिया,
तो भागा अब अलख की तरफ!
उठाया कपाल,
रखा सामने,
दीया हटाया उस से,
और रक्त पान किया,
मांस चबाया,
और आठों दिशाओं में,
वे टुकड़े चबा चबा के फेंक दिए!
और अब, धानुका विद्या का संधान किया,
कोई पंद्रह मिनट बीते!
और वो कटा सर,
ठीक हमारे सामने,
उस घेरे का बाहर आ गिरा!
वो बार बार उछलता!
लेकिन घेरे के मंत्रों से, अंदर न आ पाता!
इस से पहले कि वो तावक उस घेरे के मंत्र को काटता,
मैं भागा अपना त्रिशूल लेकर उसके पास,
उस कटे सर ने गुर्राहट की सी आवाज़ की!
मैंने लिया त्रिशूल,
धानुका से अभिमंत्रण किया!
और जैसे ही मैंने त्रिशूल नीचे किया,
वो रो पड़ा!
मैंने त्रिशूल खिंचा के मारा उसको!
उसकी चीख निकली!
और वो सर,
उड़ चला वहां से!
सीधा वहीँ गिरा!
तावक नाथ ने उठाया सर,
पढ़े मंत्र,
और फिर फेंका हवा में,
वो फिर से मेरे यहां गिरा!
इस बार भी रोते हुए!
अब कुछ न कुछ करना था!
मैंने रेवाकिषि विद्या का संधान किया,
तब तक वो सर,
मेरे पास तक,
उछल आया था,
विद्या संधानित हुई,
त्रिशूल के फाल पर हाथ फेरा!
और उस सर को,
जिसकी आँखें मुझे देख रही थीं,
छुआ दिया!
वो कांपा!
चिल्लाया,
और पड़ा नरम!
उठा धुंआ,
और फट पड़ा!
लीथड़े बिखर गए उसके!
और वो भी राख हुए!
अब मैं हंसा!
नाच उठा! झूमा!
भागा अलख के पास तक!
उठायी बोतल! गटकी शराब!
"तावक?" चिल्लाया मैं,
वो हैरान था!
उकडू बैठा हुआ था!
"नाश हुआ!" कहा मैंने,
और मारा ठहाका!
"तेरी मुण्डवाहिनी!" कहा मैंने,
वो खड़ा हुआ,
उठाया त्रिशूल अपना!
और दौड़ चला एक तरफ,
वहाँ जाकर, बैठा,
त्रिशूल गाड़ा,
फिर उठा, भागा,
आया अलख तक,
और एक पेठा निकाला उसने,
आया उसे लेकर वहीँ!
दो टुकड़े कर दिए उसके उसने,
एक को, गड्ढा खोद, दबा दिया,
दूसरा अपनी गोद में रख लिया!
पढ़े मंत्र फिर!
"भैलकण्टा!" कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
इसको हरमुण्ड भी कहा जाता है!
सरभंगों की आराध्या है!
ग्यारह रात्रि साधना काल है,
कलेजा इसका भोजन है,
मानव का कलेजा,
ग्यारह रात्रि,
इसका ही भोग दिया जाता है!
ये तावक नाथ,
सरभंग क्रिया में भी निपुण था!
मुझे हैरत थी!
सच में ही हैरत!
मैं भागा अलख तक,
और जा बैठा,
"कपालरुद्रा!" स्वर गूंजे!
और मैंने तब भोग-थाल सजाये,
मदिरा परोसी!
और लगा आह्वान में!
अलख में भोग अर्पित किया!
और इस बार, अपनी नस से, रक्त का भोग भी दिया!
ये कपालरुद्रा का आह्वान-भोग है!
अनुभव क्र. ९२ भाग ६
नाच उठा! झूमा!
भागा अलख के पास तक!
उठायी बोतल! गटकी शराब!
"तावक?" चिल्लाया मैं,
वो हैरान था!
उकडू बैठा हुआ था!
"नाश हुआ!" कहा मैंने,
और मारा ठहाका!
"तेरी मुण्डवाहिनी!" कहा मैंने,
वो खड़ा हुआ,
उठाया त्रिशूल अपना!
और दौड़ चला एक तरफ,
वहाँ जाकर, बैठा,
त्रिशूल गाड़ा,
फिर उठा, भागा,
आया अलख तक,
और एक पेठा निकाला उसने,
आया उसे लेकर वहीँ!
दो टुकड़े कर दिए उसके उसने,
एक को, गड्ढा खोद, दबा दिया,
दूसरा अपनी गोद में रख लिया!
पढ़े मंत्र फिर!
"भैलकण्टा!" कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
इसको हरमुण्ड भी कहा जाता है!
सरभंगों की आराध्या है!
ग्यारह रात्रि साधना काल है,
कलेजा इसका भोजन है,
मानव का कलेजा,
ग्यारह रात्रि,
इसका ही भोग दिया जाता है!
ये तावक नाथ,
सरभंग क्रिया में भी निपुण था!
मुझे हैरत थी!
सच में ही हैरत!
मैं भागा अलख तक,
और जा बैठा,
"कपालरुद्रा!" स्वर गूंजे!
और मैंने तब भोग-थाल सजाये,
मदिरा परोसी!
और लगा आह्वान में!
अलख में भोग अर्पित किया!
और इस बार, अपनी नस से, रक्त का भोग भी दिया!
ये कपालरुद्रा का आह्वान-भोग है!
तो इस तावक नाथ ने भैलकण्टा का आह्वान किया था!
और मैंने कपालरुद्रा का!
समकक्ष हैं दोनों ही!
परन्तु, कपालरुद्रा महाबलशाली है!
सागौन के वृक्ष पर इसका वास है!
ये, अत्यंत रूपवान बन प्रकट होती है!
प्रबल रूप से कामुक है!
अच्छे से अच्छा साधक भी, स्खलन का शिकार हो जाता है!
व्यूत्-क्रिया से संतुलन बनाया जाता है!
ये क्रिया कोई भी कर सकता है!
इस से स्तम्भन हो जाएगा,
और जननांग सुन्न हो जाएगा,
जब तक आप दही न खाएं तब तक!
यही 'सुप्तावस्था' में किया जाए तो कारगर है,
अन्यथा, नसों में भारी दर्द होता है!
आप समझ सकते हैं!
ये क्रिया कोई मुश्किल नहीं,
मात्र सात दिनों में ही पूर्ण की जा सकती है,
इस क्रिया से, आपको कोई भी स्त्री स्खलित नहीं कर पाएगी!
अनुभूत क्रिया है!
कई मित्र लाभ उठा रहे हैं आज भी!
दाम्पत्य-जीवन सुख से बिता रहे हैं!
हाँ, तो,
मैं आह्वान कर रहा था उस,
कपालरुद्रा का!
कि अचानक,
मेरे स्थान पर,
एक सर से विहीन शव गिरा!
बिलकुल पास में,
हाथ बंधे हुए,
पाँव भी बंधे हुए,
ध्यान से देखा तो,
ये उसी सर का धड़ था!
मैंने त्रिशूल लिया, हुआ खड़ा, चारु को बुलाया,
और मुक्तमुण्ड पढ़ने को कहा,
वो पढ़ती रही,
और मैं चला उस धड़ के पास,
देख लड़ाई,
तो वहां चार औघड़ बैठे थे!
अपनी क्रिया करते हुए!
ये नियम विरुद्ध था! लेकिन तावक नाथ तो,
नियम जानता ही नहीं था!
क्रोध तो बहुत आया!
मैं आया धड़ के पास,
उसने तोड़ी रस्सियाँ!
हुआ खड़ा!
और झपटा मुझ पर!
मैं घूमा,
और घुसेड़ा त्रिशूल उसके पेट में!
खून का फव्वारा फूट पड़ा!
क्रोध ऐसा कि मैंने उठा ही लिया उसको त्रिशूल से!
ले चला पीछे!
और निकाला त्रिशूल,
वो गिरा नीचे,
उसके पेट पर,
पाँव रख,
मैंने घोंप दिए त्रिशूल के फाल!
फाल, ज़मीन तक जाते!
खून के फव्वारे फूटते!
वो हाथ चलाता!
और मैं उसके पेट पर वार करता!
जब वो लड़ता ही रहा,
तो ग्यूक्ष विद्या का संधान किया!
त्रिशूल पर हाथ फिराया!
और घोंप दिया!
वो तड़पा!
त्रिशूल पकड़े,
और नीचे पटके कन्धों को!
और अगले ही पल,
वो लोप!
कांदरपि-माया थी!
ये माया, मणिपुर में प्रचलित है!
मैं जानता था!
बाबा जागड़ ने सिखाई थी,
आज काम आई थी मेरे!
जय बाबा जागड़! जय बाबा जागड़!
आशीष!
आशीष बाबा! आशीष!
अब मुझमे क्रोध भर आया था!
ऐसा क्रोध,
कि मरे सामने हो वो तो,
गरदन ही मरोड़ दूँ उसकी!
कलेजा चीर दूँ!
तिल्ली निकाल,
कुत्तों को खिला दूँ,
नेत्र निकाल, चीलों को खिला दूँ!
दिल निकाल, चींटियों को खिला दूँ!
ऐसा क्रोध!
मैं चिल्ला उठा!
भागा अलख तक!
और अब!
अब दीं गालियां उस तावक नाथ को!
"तावक? ** ****!" बोला मैं,
"मांग ले क्षमा!" बोला वो,
"सूअर की औलाद!" कहा मैंने,
"अब मरने का समय है!" बोला वो,
"तावक! तुझ जैसा महाकमीन इंसान नहीं देखा!" कहा मैंने,
मारा त्रिशूल भूमि पर,
एक तो नशा,
ऊपर से मद!
"तू आज ज़िंदा न बचेगा!" बोला वो,
"तेरा मस्तक फटेगा तावक!" कहा मैंने,
"तेरा! मत भूल!" बोला वो,
अब हंसा मैं!
बुरी तरह!
गया अपनी साध्वी तक,
उसको उठाया,
लगाये गले,
चूमा माथा!
और बैठा अलख पर!
फिर से आह्वान आरम्भ!
फिर से एक हंसी!
"औंधिया?" चीखा मैं,
एक दीया बुझा, और फिर जला!
"आ! आ औंधिया!" बोला मैं,
और दिया उसे भोग!
एक प्रबल अट्ठहास!
मसान हँसे, तो बल मिलता है!
हुआ मैं खड़ा! और किया, श्री महाौघनाथ का महानाद!
आह्वान प्रबल था! मेरा भी और उसका भी!
सत्ता की लड़ाई अभी ज़ारी थी! मुझे चुनौती इसी तावक नाथ ने दी थी,
मैं मात्र उसको जवाब दे रहा था!
वो भैलकण्टा के वार से प्राण हरना चाहता था,
और मैं कपालरुद्रा से रक्षण चाहता था!
और अब इस अंतिम चरण में, मुझे मेरी साधिका की आवश्यकता थी,
इसीलिए, मैंने उसको उठाया वहां से,
आसन पर बिठाया और उसको पेट के बल लिटाया,
त्रिशूल से देह-पुष्टि की उसकी,
और तब मैं, उसके श्रोणि-प्रदेश पर बैठ गया,
ये आवश्यक था, मेरी साधिका के नेत्र बंद हुए,
और मेरा आह्वान अत्यंत ही तीव्र!
वहाँ वो भी अलख में ईंधन झोंके जा रहा था!
श्मशान जीवंत हो उठे थे मंत्रों से!
उधर भी और इधर भी!
और तभी मेरे सीने में, गुबार सा उठा!
पीड़ा का सा अनुभव हुआ!
ये सूचक था उस कपालरुद्रा के जागृत होने का!
अगले ही पल, पीड़ा समाप्त और देह हल्की सी प्रतीत हुई!
शीतल बयार बह उठी!
सुगंध फ़ैल गयी!
मैं उठा गया साधिका से,
और गया अलख तक, ईंधन झोंका!
और महाभाक्ष पढ़ा!
अपनी साधिका को उठाया,
