वर्ष २०११ असम की एक...
 
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वर्ष २०११ असम की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उठा तावक नाथ!
उठायी भस्म! और फेंक मारी भस्म उन पर!
नेहुक्ष लौट आई! लेकिन उन तीनों साध्वियों के मुंह और योनियों से, गाढ़ा पीला द्रव्य बाहर आ गया था! मैं चाहता तो उनको मार भी सकता था, रक्त जमा देता उनका! हृदयाघात होता और तीनों ही मारी जातीं! परन्तु मेरी शत्रु नहीं थीं वो, शत्रु तो उनका वो साधक था!
उसकी साध्वियां तोड़ दी गयीं थीं!
हाँ, सांस चल रही थी उनकी,
इसी कारण से, उनका प्रयोग किया जा सकता था!
वो गुस्से में बड़बड़ाया!
और उन दोनों औघड़ों के साथ,
आ बैठा अलख पर,
झोंका ईंधन!
और जपे मंत्र!
कर्ण-पिशाचिनी के कर्कश स्वर गूँज उठे!
रुद्रतिकि!
क्या?
ये तावक नाथ और रुद्रतिकि?
क्या इसने सिद्ध किया इसे?
कैसे?
ऐसा बूता तो नहीं लगता इसका?
ऐसा विशेष तो है नहीं?"
सम्भवतः पिता द्वारा प्रदत्त हो?
यही हो सकता है!
नहीं तो इसके बसका नहीं है इसे सिद्ध करना!
यमनि!
यही नाम है इसका!
एक सौ इक्कीस महाप्रबल महाभट्टों द्वारा सेवित है!
इक्यासी महा-रौद्र सहोद्रियों द्वारा सेवित है!
इक्यासी रात्रि साधना है इसकी!
इकत्तीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है!
एवड़ के वृक्ष तले, अपने हाथों से,
नदी किनारे की मिट्टी और रेत से एक चबूतरा बनाना पड़ता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये चबूतरा, एक ही रात में बनना आवश्यक है!
उसके बाद, रक्त-स्नान द्वारा स्वच्छ होता है!
रीछ के चर्म से बने आसन का प्रयोग होता है,
शिशु-नाल से माल बनाया जाता है,
अस्थियों के टुकड़े पिरोकर,
साधक वो चबूतरा कभी नहीं छोड़ सकता,
कम से कम साधना काल तक!
वहीँ रहना है,
वहीँ सोना है,
आदि आदि!
तो ये एक महाक्लिष्ट साधना है!
और ये तावक ऐसा करे? असम्भव!
इसीलिए मैं हैरान हुआ था!
"वृहदकुण्डा!"
कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
और मैं लगा उसके आह्वान में!
वृहदकुण्डा!
तीन सौ एक महाप्रेतों द्वारा सेवित!
एक सौ इक्यासी पिशाचिनियों द्वारा सेवित है!
नब्बे रात्रि साधना है इसकी!
पलाश वृक्ष के नीचे, गड्ढा खोदकर,
उसमे बैठ कर, इसका साधना की जाती है!
इक्यावन बलि-कर्म द्वारा पूजित है!
ये लौहाभूषण धारण करती है,
रक्त का भोग चढ़ता है इसको!
काया में भीषण और कुरूप होती है!
योनि बहुत दीर्घ होती है इसकी,
नाभि बहुत ही बड़ी,
बाहर को निकली हुई,
खड्ग धारण करती है,
अंग-पाश गले से लटका होता है,
शिशु-कपाल का कमर-बंध धारण करती है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वर्ण में भक्क काली और दुर्गन्ध वाली होती है!
मांस-प्रिय होती है!
श्वास में भीषण दुर्गन्ध निकलने लगती है साधक के,
साधना काल में भी!
पूरे साधना-काल में, ज्वर नहीं उतरता!
कई साधक तो, ज्वर से ही प्राण गंवा बैठते हैं!
महाक्लिष्ट साधना है इसकी!
तो मैंने इसका आह्वान किया था!
श्मशान गूँज रहा था मन्त्रों से,
हूम फट्ट! यराक्ष फट्ट आदि आदि मंत्रों से!
तभी वाचाल के स्वर गूंजे!
एशम्भ!
एशम्भ?
ये हरामजादा नहीं आएगा बाज!
मैंने चारु को चुटकी मारकर, बुलाया अपने पास,
और बिठा लिया अपनी गोद में,
पाँव मुड़वा लिए,
कोई अंग भूमि स्पर्श न करे,
ऐसे बिठाया था उसको!
और मंत्रोचार करता रहा मैं!
वो मेरी साधिका पर वार पर वार कर रहा था!
वो विद्या भी लड़ाता,
और आह्वान भी करता!
ये विशेषता थी उसकी!
कोई कोई ही साधक ऐसा कर सकता है!
कोई कोई ही!
और ये तावक, ऐसा ही था!
तभी मेरे यहां एक कन्या प्रकट हुई!
रक्त-रंजित!
ये विद्यारूपिणी तमोरा थी!
जिसे भेजा था उस तावक ने!
कलेजा खाने के लिए मेरी साधिका का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं मंत्रोच्चार में लीन था,
लेकिन, अपना त्रिशूल उठाया मैंने,
और रखा चारु की टांगों पर!
वो नीचे बैठी, वो कन्या,
और किये दोनों हाथ आगे, जैसे, कुछ मांग रही हो!
और उधर! ठहाके गूंजे उन दोनों औघड़ों के!
वो जो कन्या प्रकट हुई थी, आयु में मात्र षोडशी रही होगी, पतली-दुबली, कृशकाय सी, श्याम वर्ण और गरदन लम्बी थी उसकी, हाँ, केश उसके सफेद थे, जैसे आयु में वृद्ध हो, वो हाथ फैला कर बैठी थी मेरी साधिका सम्मुख! मैं आह्वान में था, परन्तु उस पर नज़र टिकी हुई थी, उसने चेहरा ऊपर उठाया, मुझे देखा, और ज़मीन पर सर टिका लिया! उकडू बैठ बैठे ही! कोई इंसान ऐसा नहीं कर सकता! उसने सर आगे किया, और मेरे घुटने से टकराया उसका सर! बस! बहुत हुआ! मैंने भूमि पर, अपने बाएं हाथ की तर्जनी ऊँगली से, शयभण-यंत्र काढ़ा, और तब, वो ऊँगली उसके सर से लगा दी! वो खिचढ़ती चली गयी पीछे दूर तक! घूमी, चिल्लाई, और ऊपर उठते हुए, लोप हुई! अब राहत की सांस आई! मेरी साधिका ने, उठना चाहा, मैंने न उठने दिया उसे, न जाने वो धूर्त और क्या करे! 
कोई दस मिनट के बाद, मेरे यहां बड़े बड़े अंगार गिरने लगे! जैसे आकाश के टुकड़े! पृथ्वी से टकराने से पहले ही, वे लोप हो जाते थे! ये रुद्रतिकि का आगमन-सूचक था! मैंने और तीव्र किया मंत्रोच्चार!
और तब!
तब प्रकाश के गोले प्रकट हुए!
अंगार गिरने बंद हो गए!
खन्न-खन्न की आवाज़ें आनी शुरू हो गयी!
मैं जान गया, वृहदकुण्डा का भी आगमन होने को है!
अब मैं खड़ा हुआ, अपनी साधिका का हाथ थामे,
त्रिशूल थामे, मैं आगे तक गया!
और वृहदकुण्डा का महाभाक्ष मंत्र पढ़ा!
जैसे ही पढ़ा, मेरे स्थान पर, कई महाभट्ट प्रकट हुए!
और जैसे ही प्रकट हुए, महापिशाच भी प्रकट हुए!
महाभट्ट उनका आभास हो, तत्क्षण ही हुए लोप!
और वे महापिशाच नृत्य-मुद्रा में आ, अट्ठहास लगाने लगे!
आकाश से जैसे जल फूटा!
और वो जल, आकाश में स्थिर हो, नीचे की ओर चला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे सब बहा ले जायेगा!
और उसी समय!
घंटा बजा!
वे सारे महापिशाच स्थिर हो गए,
सर झुका लिए!
वृहदकुण्डा प्रकट हो गयी!
वो जल का भंडार, लोप हो गया!
और लोप होने से पहले,

अनुभव क्र.९२ भाग ५
एक पतली सी धार के रूप में पृथ्वी में समा गया!
रुद्रतिकि लोप हो गयी थी उस,
वृहदकुण्डा के सम्मुख होने से पहले!
मैं झूम उठा!
औघड़-मुद्रा में आ गया!
नाचने लगा!
दौड़ा, साधिका को पकड़ा!
आया अलख तक, कपाल कटोरा भरा,
और ले भागा उन महापिशाचों के पास!
भौम-अर्पण किया,
और तदोपरांत भूमि पर लेट गया!
एक महाभाक्ष पढ़ा!
और वे सभी, लोप होते चले गए!
ये दूसरा परकोटा था उस तावक नाथ का,
जो अब ढह गया था!
रुद्रतिकि, लोप होते ही, उसके कोष से रिक्त हो चली!
अब मैंने गाल बजाए!
खूब ठहाके बजाए!
भूमि पर कई थाप दीं!
बार बार अपनी साधिका को पकड़,
सीने से लगाता!
उसका माथा चूमता!
उसकी बाजू पकड़, नाचने लगता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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औघड़-मद चढ़ने को था!
हुआ अभय-मुद्रा में खड़ा!
किया घुटना आगे,
लिया त्रिसूल,
कीं आँखें चौड़ी,
लहराया त्रिशूल,
"तावक?" चिल्ला के बोला मैं,
वहाँ,
वे सभी चौंक पड़े!
तावक नाथ को तो काटो खून नहीं!
"तावक?" बोला मैं,
चिल्ला कर, हँसते हुए!
"बोल?" चिल्ला के बोला वो,
"मान जा!" कहा मैंने,
"थू!" फेंका थूक!
"मारा जाएगा!" कहा मैंने,
"तू मारेगा?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
औघड़-मद ने कहा था ये!
अट्ठहास लगाया उसने!
"देख?" बोला वो,
और लिया त्रिशूल उसने,
गाड़ा भूमि में दबाकर,
और बैठ गया वहीँ आसन लगाकर,
"उम्भाक!" वाचाल के शब्द गूंजे!
कमीन इंसान! नहीं बाज आएगा!
मैं हटा वहाँ से, और जा लेटा नीचे!
"साधिके?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"आओ! शीघ्र ही!" कहा मैंने,
और उसको फिर से लिटाया अपने ऊपर,
इस बार पेट के बल, और कस लिया उसको,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उम्भाक से मेरी साध्वी की अस्थियां चूर्ण करना चाहता था!
मेरे ऊपर बस नहीं, तो मेरी साध्वी पर वार!
मित्रगण!
और तभी मेरे आसपास, धुंआ उठने लगा,
ये उम्भाकि-धूम्र था, श्वास को अवरुद्ध करता है,
अस्थियों में प्रवेश कर, उनको सुखा, जीते जी चूर्ण करने लगता है!
इसीलिए मैंने उसको लिटाया था अपने ऊपर,
और साथ ही साथ, प्रेताधिपति का जाप करने लगा!
अभीष्ट हुआ!
धूम्र, छंटने लगा! और इस प्रकार,
उसकी नव-पल उम्भाक नष्ट हो गयी!
परन्तु, अब मुझे क्रोध चढ़ बैठा था, वो बार बार,
मेरी साध्वी को निशाना बनाता था!
मैं आगे गया, एक गड्ढा खोदा हाथ से,
उसमे मदिरा डाली, और मूत्र-त्याग किया उसमे, बैठ कर,
मंत्र पढ़ते हुए, अब उस गड्ढे में, मिटटी डाल,
गूंदा उसे, दो गेंदें बनायीं मैंने, लाया अलख तक,
लिया खंजर! और पढ़ा महामंत्र पुरुतारुक,
और वो गेंदें, काट डालीं!
जैसे ही काटीं, उस तावक नाथ के दोनों औघड़,
अपना पेट पकड़, हुए दुल्लर!
चीखें मारें, खून के कुल्ले करें!
और मैं ठहाके मारूं!
तावक नाथ, त्रिशूल लहराए,
मंत्र पढ़े! नाचे, पुरुतारुक की काट करे,
लेकिन जब तक करता, वे अचेत हो चले थे!
हुए बेकार!
शेष द्वन्द तक, अब हुए बेकार! 
और तब, तावक नाथ ने, मंत्रों द्वारा, अभिमंत्रण कर,
थूका उन पर! हुए मुक्त वो उस मारण-विद्या से!
परन्तु! अचेत! यही संचरण करते थे विद्याओं का!
" *!" उसने गाली दी मुझे! क्रोध में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मैं! हँसू उसकी इस अवस्था पर!
गाल बजाऊं!
जांघें पीटूं!
खिलखिलाकर हँसू!
"तावक?" चीखा मैं,
देखा उसने,
"तेरा इस से भी बुरा हाल करूंगा! *!!" कहा मैंने,
"* ********"" गाली-गलौज करे वो!

उसकी साध्वियां, अब भय खाने लगी थीं!
बुलाया एक को उसने,
लिटाया उसे, और चढ़ बैठा,
केश उखाड़े उसके, मुंह में भरे,
और फू कर, अलख में झोंक दिए!
उठाया रक्त-पात्र!
पिया रक्त!
और फू कर, सीधा अलख में!
किये हाथ ऊपर,
बोला एक महामंत्र!
"वज्रघंटा!" कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
वज्रघंटा!
महारौद्र!
अतिक्रूर!
मानव-मांस का भक्षण करने वाली!
कलेजे गले में धारण करने वाली,
यमरूपा सादृश्य!
इक्कीस रात्रि है साधना काल इसका!
ग्यारह बलि-कर्म से पूजित है!
विंश-कपाल से पूजित है!
फूस का आसन, मानव-चर्म से बना चाबुक आवश्यक है!
स्त्री की माहवारी का रक्त,
स्तन-पान कराने वाली स्त्री का दूध, आवश्यक है!
अंतिम तीन रात्रि, घाड़-उपासना आवश्यक है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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महाक्लिष्ट साधना है इसकी!
रुमुकि कहा जाता है इसको!
कहीं कहीं, ग्राम-देवी के रूप में पूज्नीय है!
दक्षिण भारत में, एक विशिष्ट देवी है!
कश्मीर में, एक अन्य नाम से जानी जाती है,
त्यौरा महा-सहोदरी की प्रधान उप-सहोदरी है!
वर्ण में गौर,
देह में स्थूल,
वायव में महाक्रूर है!
सूखे ठूंठ वृक्ष में वास है इसका!
रक्त द्वारा पूजन होता है इसका!
सिद्ध होने पर, समस्त सुखों की दात्री है!
सर्वकाल बली है! और महातामसिक है!
उसने वज्रघंटा का आह्वान किया था! वैसे एक बात तो तय थी, तावक नाथ के पास यदि विवेक रहा होता तो अवश्य ही वो एक महासाधक होता! परन्तु उसके दम्भ ने उसको पतन के रास्ते पर धकेल दिया था! मैं अभी तक, मात्र बचाव ही कर रहा था! वार नहीं किया था उस पर! उस परमोच्च देखना था मुझे! और फिर नीचे धकियाना था उसको!
"मुक्ताक्षी!" कर्ण-पिशाचिनी के स्वर गूंजे!
मुक्ताक्षी!
बाबा ऋद्धा की याद आ गयी!
उन्होंने ही, इसको सिद्ध करवाया था आशीर्वाद स्वरुप!
मैंने तत्काल ही उन्हें मन ही मन प्रणाम किया!
बहुत प्रचंड औघड़ों में नाम था उनका! आज उनका पुत्र है, अंजेश!
परन्तु पिता सरीखा नहीं है अंजेश! अभी पीछे है बहुत!
खैर,
मुक्ताक्षी!
महाप्रबल, महासामर्थ्यवान्!
महाक्रूर परन्तु शत्रु-भंजन समय!
अन्यथा, माँ सरीखी! पुत्र की तरह से प्रेम करती है अपने साधक को!
इकत्तीस रात्रि साधना है इसकी,
कुँए समीप ही साधना होती है इसकी,
कुआँ त्यागा हुआ, सूखा होना चाहिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चौबीस बलि-कर्म द्वारा पूज्य है!
पांच, संसर्ग-क्रिया हैं इस साधना में,
साधिका मात्र एक ही होनी चाहिए,
रात्रि काल, एक बजे के बाद, इसकी साधना आरम्भ होती है,
मात्र तीन रात्रि बाद ही, ये जागृत हो जाती है,
प्रकाश फैलने लगता था,
अठारह महाप्रेतों और इक्यासी पिशाचिनियों द्वारा सेवित है!
वे सब, प्रकट होते रहे हैं, साधक सम्मुख!
कोई किस रूप में और कोई किस रूप में!
कभी पत्नी रूप में, कभी पुत्री रूप में, आदि आदि!
ये सब व्यावधान हुआ करते हैं, जैसा कि प्रत्येक साधना में होता है!
अंतिम रात्रि, ये साधक को हवा में घुमा देते हैं,
पटकते हैं, और साधक अचेत हो जाता है,
तब, उस अवस्था में, मुक्ताक्षी के दर्शन हुआ करते हैं!
प्रश्नोत्तर हुआ करते हैं, और तब जाकर, साधना का समापन हुआ करता है!
सिद्ध होने पर, साधक की रक्षा और सुखों की महादात्री बन जाया करती है!
तो मैं अब आह्वान में जुट गया था मुक्ताक्षी के!
और वहां, वहां तावक नाथ ज़ोर ज़ोर से मंत्रोचार किये जा रहा था!
वो दोनों औघड़, वहीँ लेटे हुए थे!
बाकी की दो साध्वियां, पीछे बैठी थीं,
मिहिरा, आधी बैठी, और आधी उठी थी,
उसको अभी तक रक्त-स्राव हो रहा था,
कराह पड़ती थी कभी कभार तो!
और तभी वहाँ प्रकाश कौंधा, हरे रंग का!
प्रकाश के कण फूट पड़े!
ये आगमन का सूचक था उस वज्रघंटा का!
अब खड़ा हुआ तावक नाथ! साधिका को भी खड़ा किया उसने,
और जा बैठ अलख पर!
ईंधन झोंका उसने!
अलख भड़की! और चिल्लाया तावक नाथ!
हंसा! ठहाका लगाया! और रक्त-पान किया!
उठाया कपाल, रक्त-मंडित किया उसे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अपनी गोद में रखा उसे,
मंत्र पढ़े,
और उठाया उस कपाल को, किया कुछ वार्तालाप!
भन्न भन्न की सी आवाज़ें आने लगीं तत्क्षण ही!
और मेरे यहां!
मैं जुटा हुआ था आह्वान में,
नेत्र बंद किये अपने,
और गहन मंत्रोच्चार किये आरम्भ!
भक्क की सी आवाज़ हुई!
अलख कोई चार फ़ीट तक भड़क गयी!
सुगंध फ़ैल गयी,
पारिजात के फूलों की सी भीनी भीनी सुगंध!
और तब ही,
आकाश से, कुछ आकृतियाँ उतरने लगीं,
धुंधली धुंधली सी!
ये सेवक और सेविकाएं थीं,
उस मुक्ताक्षी की!
वायु में ताप बढ़ने लगा था बहुत,
घन्न घन्न की सी आवाज़ें आ रही थीं ज़मीन में से!
वे स्थान को शून्य बनाते हैं, घेर लेते हैं,
ये पारलौकिक सत्ता है!
वे पारलौकिक सत्ताधारी हैं!
और तभी अट्ठहास गूंजा एक!
ये महाप्रेत का अट्ठास था!
ये प्रधान प्रेत, खेक्षा कहा जाता है!
खेक्षा की भी साधना होती है,
उसका भी विधान है! क्लिष्ट साधना है बहुत!
लेकिन तीन रात्रि में ही खेक्षा सिद्ध हो जाता है!
तीन बलि-कर्म द्वारा सेवित है!
साधना भी मात्र ग्यारह मिनट की ही है!
प्रत्येक रात्रि, परन्तु जान का भय रहता है!
खेक्षा के महाप्रेत, साधक को डिगाते हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भरमाते हैं, एक चूक और इहलीला समाप्त!
शरीर के टुकड़े टुकड़े हो, बिखर जाएंगे हर तरफ!
खैर,
मैंने नेत्र खोले अपने,
और अलख में, संपुष्ट भोग अर्पित किया!
चरक-चरक की आवाज़ उठने लगी!
और अगले ही क्षण,
मेरे स्थान पर, ऊपर, बादल से बनने लगे!
यही वज्रघंटा का आगमन था!
वो वहाँ प्रकट होनी थी, लेकिन सहोदरियां, उद्देश्य-स्थल पर पहुँचने लगी थीं!
मैंने फिर से ईंधन झोंका,
और एक महाभाक्ष पढ़ा!
वहाँ प्रकट हो, वज्रघंटा उद्देश्य जान,
मेरे यहां प्रकट होती, कि मुक्ताक्षी के महाप्रेतों का अट्ठहास गूँज उठा!
वज्रघंटा और उसके सेवक, झम्म से लोप!
निकल गए उस तावक नाथ के कोष से!
एक और विफलता!
और मैं, लेट गया वहीँ!
दोनों हाथ आगे कर,
माँ! माँ! धन्य हुआ मैं! यही चिल्लाता रहा!
उद्देश्य पूर्ण हुआ,
और वे भी लोप!
अब मैं भागा अलख की ओर,
अलख में ईंधन झोंका,
भस्म-पान किया!
कपाल कटोरे में मदिरा परोसी और गटक गया!
तभी एक मरी सी हंसी निकली!
"औंधिया?" बोला मैं,
फिर से हंसी!
"ले! आ जा!" कहा मैंने,
और दूसरे कपाल कटोरे में,
उसके लिए भी मदिरा परोस दी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चपड़ चपड़ सब चाट गया!
"ले! और ले!" कहा मैंने,
वो और चाट गया!
और फिर, एक ज़ोरदार अट्ठहास!
ढप्प की आवाज़ आई पीछे,
वो पीछे जा बैठा था, दूर अँधेरे में,
जहां बैठता है अक्सर वो!
कूद गया था मेरे सामने से वो, मुझे पार करते हुए!
अब हुआ मैं खड़ा!
और लगाई देख!
तावक नाथ, बैठ था चुपचाप, अपने दो नए साथियों के साथ,
वो अचेत साथी, उठा लिए गए थे वहाँ से,
मेरा अट्ठहास गूंजा वहाँ!
तावक नाथ हुआ खड़ा!
"तावक! क्षमा मांग ले!" कहा मैंने,
वो झुका, उठाया एक पात्र,
और फेंक मारा सामने!
गुस्से में अब बहकने लगा था!
और यही मैं चाहता था कि वो बहके!
खराब हो उसका संतुलन!
यही है असली द्वन्द!
"तावक! आगे बढ़!" कहा मैंने,
तभी एक औघड़ उठा!
एक झोला था उसके पास,
खोला झोला,
और निकाला एक और झोला,
उसको खोला,
और निकाला 'पेठा' बाहर,
रखा झोला नीचे उसने,
और फिर 'पेठा' उस पर,
बैठा, लिया खंजर,
उठाया एक दिया, रखा पेठे पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं समझ गया उसी क्षण!
भागा मैं, साध्वी की ओर!
किया उसको खड़ा, और किया अपने आगे,
पीछे से, उसकी कमर में हाथ डाल दिया!
अगले ही क्षण,
मिटटी उठने लगी!
धूलम-धाल हो गया उधर,
मैंने महामोच्च मंत्र पढ़ता रहा!
वो औघड़, उस पेठे को बींध रहा था बार बार!
मंत्र पढ़ता था, और, मारण करता था!
मैं उन मंत्रों से, काट रहा था वो मारण!
साधिका को कस के पकड़ा था,
चिपकाए खड़ा था उसको,
वो हट जाती,
तो कलेजा बिंध जाता उसका, और मृत्यु हो जाती!
इसीलिए, मैं महामोच्च जपे जा रहा था!
उस साधिका को बचाने के लिए!
मैं महामोच्च जपे जा रहा था, अपनी साध्वी को लपेटे!
उसकी सुरक्षा का सारा दायित्व मुझ पर ही था, मैं यदि चूकता कही तो,
जान पर बन आती उसके, जो मैं नहीं चाहता था,
वो विद्या अवसर ढूंढती रही, और फिर, एक ही क्षण में, नष्ट हो गयी!
फिलहाल के लिए, संकट टल गया था!
मैंने उठाया उसे, और अपने आसन पर बिठा दिया,
और एक घेरा खींच दिया उस आसन के पास,
इस औघड़ ने, मेरी साध्वी पर वार किया था, इस बदकार आदमी को अब,
सबक देना आवश्यक था!
मैं बैठा अलख पर,
त्रिलोम महाविद्या का संधान किया!
मदिरा ली, और अलख में छींटे दिए,
फिर खंजर लिया, और ली भस्म, एक आकृति बनायी नीचे,
भूमि पर, भस्म, बीच में रखी उसके,
और खींच के खंजर गाड़ दिया उस भस्म में! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो औघड़ वहाँ,
हवा में उछला!
चीखें मारता हुआ, पेट फूला,
और गुदा मार्ग से रक्त बहाने लगा!
खून से लथपथ हो गया वो, चीखें मारे! चिल्लाये!
इधर उधर भागे, उस तावक नाथ के पाँव पर जा गिरा!
तावक नाथ ने, उठाया त्रिशूल, पढ़ा मंत्र और छुआ दिया उसे!
तत्क्षण ही ठीक हो गया वो, परन्तु नीचे ही गिरा रहा!
बहुत खून बहा चुका था, इसीलिए!
हांफ रहा था वो, तेज तेज!
वो तो बच गया, नहीं तो आंतें ही बाहर खींची चली आतीं उसकी!
अब मैं खड़ा हुआ!
चिल्लाया ज़ोर से!
"कायर?" बोला मैं,
उसने मारा ठहाका!
"आगे बढ़ कायर?" कहा मैंने,
फिर से हंसा! खड़ा हुआ, और थूका उसने!
अब मुझे क्रोध चढ़ा!
तीन वार वो कर चुका था अब में बारी थी,
मैं बैठा अलख पर, दिया अलख में ईंधन! 
और किया आह्वान मैंने तुलिता का!
तुलिता, आसुरिक शक्ति है,
शत्रु-भंजनी है, अत्यंत ही क्रूर है!
इक्कीस रात्रि इस की साधना होती है,
नौ बलिकर्म द्वारा पूज्य है,
भोर से कुछ पहले ही, इसकी साधना होती है!
ये उन्मुक्त है, कोई निश्चित वास-स्थान नहीं!
वैसे, जहां शिशु-शव गाड़े जाते हैं, उसकी हद पर, अक्सर वास करती है,
इसकी कूप-वासिनी भी कहा जाता है!
मैंने आह्वान कर डाला था इसी तुलिता का!
देह में स्थूल,
रूप में सुंदर नव-यौवना समान,


   
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