कितनी खुश थी वो!
किसी को ख़ुशी देने में कितनी ख़ुशी होती है!
कोई मोल नहीं इसका! कोई हँसे, खुश हो, तो आप धन्य हुए!
उसके मन-मस्तिष्क में बस जाओगे आप!
"क्या कर रही हो?" पूछा मैंने,
"नाम लिख रही हूँ!" बोली वो,
"कौन सा नाम?" पूछा मैंने,
"पढ़ लो!" कहा उसने,
"चारु!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
फिर मेरा नाम भी लिख दिया उसने!
फिर हाथ से, मिटा दिया!
मुझे देखा, हवा चली, बाल सामने आये उसके,
हटाये उसने, और कान के पीछे, खोंस लिए!
फिर मैं मुस्कुराया!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"बताओ तो?" बोली वो,
"अरे कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"बताओ न?" बोली हाथ जोड़ते हुए,
मुझ और हंसी आ गयी उस पर!
गुस्से में लकड़ी तोड़ दी उसने जो हाथ में थी!
"बताओ?" बोली वो,
"बताता हूँ! याद है, जब पहली बार मिले थे हम, उस श्मशान में?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अगर तुम न पूछतीं, तो आज यहां न होतीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मुझे बस वही चेहरा याद आ गया था!" कहा मैंने,
अब वो भी मुस्कुरा पड़ी!
"पता है?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"तावक नाथ के जो साथी थे, वो बहुत बद्तमीज़ थे, चार-पांच बार उनकी शिकायत की
हमने, इसीलिए हम चार लड़कियां साथ सोया करती थीं" बोली वो,
"हरामज़ादे कहीं के!" कहा मैंने,
"तावक नाथ की एक साध्वी आती थी संग उसके, नाम है, मिहिरा, बहुत बदसलूकी करती थी सभी से!" बोली वो,
"अच्छा! तो वो भी बैठेगी साथ में!" बोला मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"बैठने दो!" कहा मैंने,
तभी सामने से चितकबरे खरगोश दौड़ के निकले, साथ में उनके, दो छोटे छोटे खरगोश भी थे! बेहद प्यारे से, खड़े होकर देखते थे आगे पीछे!
"वो कितना सुंदर है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
चले गए फिर, घुस गए झाड़ियों में!
"इनकी जान को भी सत्तर मुसीबत हैं!" कहा मैंने,
"हाँ! डरते ही रहते हैं!" बोली वो,
"विवशता है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा, चलो अब!" कहा मैंने,
"चलो" बोली वो,
उठे हम, और चले वापिस, थोड़ा आगे चल रही थी, एकदम रुक गयी! भागी मेरी तरफ! आ चिपकी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो क्या है?" बोली वो,
"आओ?" कहा मैंने,
वो एक बड़ा सा मेंढक था!
टोड! काफी बड़ा था, आदमी पर छलांग लगा दे तो डर जाए एक बार को!
मैं हंस पड़ा!
वो वहीँ बैठा हुआ था, सामने देखता हुआ, गले पर खाल लटकी हुई थी!
"मेंढक है ये!" कहा मैंने,
"इतना बड़ा?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसे हटाओ?" बोली वो,
"भगाता हूँ!" कहा मैंने,
मैं आगे गया, पाँव पटका, और उसने छलांग लगाई!
"आओ!" कहा मैंने,
और हम चले फिर वापिस!
आ गए वापिस वहीँ,
थोड़ी देर बाद ही, भोजन लग गया, शर्मा जी को वहीँ बुला लिया था,
वो हम तीनों ने खाना खाया फिर, और फिर कुछ देर आराम,
करीब साढ़े बारह बजे, कैला ने हमारे साथ एक व्यक्ति को भेजा,
और ले चला हमें, हम चले संग उसके, एक स्थान था वो,
पीछे नदी बह रही थी उसके, और वहीँ था वो श्मशान!
मैंने जाँच की, सब ठीक ही निकला,
दो झोंपड़ी बनी थीं वहाँ, वहीँ ठहर सकते थे हम!
वहाँ एक महिला ही थी उस समय, और कोई नहीं था, उस से ही बात हुई,
और फिर हम हुए वापिस!
यहां आबादी छिटपुट ही थी, कहीं कहीं मकान दीखते थे बस,
नहीं तो जंगल ही जंगल था!
तावक नाथ का डेरा यहां से नब्बे किलोमीटर दूर था!
वो भी तैयारियों में लगा होगा!
खैर, हम आ गए वापिस, कैला से बताया कि स्थान ठीक है,
अब परसों वहीँ बिसात बिछनी थी!
उसी शाम मैंने अपने तंत्राभूषण आदि सभी साफ़ किये और उनका अभिमंत्रण किया!
संध्या समय के बाद, अब हुड़क मिटाने का समय था,
किया जुगाड़ खाने-पीने का, और फिर हम हुए शुरू,
चारु को कमरे में ही रहने को कहा था मैंने,
जब हम फारिग हुए, करीब ग्यारह बजे, तो,
मैं गया चारु के पास, जागी हुई थी,
बैठ गयी, मैं भी बैठ गया!
"भोजन कर लिया?" पूछा मैंने,
"हाँ, कर लिया!" बोली वो,
"अच्छा किया! और कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ठीक है, सुबह मिलते हैं!" कहा मैंने,
उठी वो, आई मेरे पास,
देखा मुझे, नज़रों में कई सवाल थे, लेकिन मैं, अभी,
इनमे पड़ना नहीं चाहता था!
"दरवाज़ा बंद कर लो!" कहा मैंने,
और मैं मुड़ने लगा,
तभी पकड़ लिया उसने!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"चार घंटे हो गए!" बोली वो,
"किसे?" पूछा मैंने,
"वहाँ बैठे हो, और मैं यहां अकेली!" बोली वो,
"अच्छा! समझ गया!" कहा मैंने,
"मैं परेशान हो रही थी!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं?" पूछा उसने,
"हाँ! जानता हूँ! अब न होगा ऐसा!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी!
"चलो, चलता हूँ!" कहा मैंने,
और मैं आ गया बाहर,
उसे दरवाज़ा बंद किया, और मैं सीधे अपने कमरे में,
दरवाज़ा किया बंद,
चादर ली, ओढ़ी और फैला दिए पाँव!
और सो गया आराम से!
शर्मा जी सो ही गए थे पहले से ही!
सुबह हुई,
हुए फारिग!
आज सामान लेकर आना था बाज़ार से!
तो दोपहर में, हम तीनों चले गए बाज़ार,
वहाँ कुछ चटपटा खाया, और चाय भी पी,
सामान खरीद लिया था सारा,
और फिर हुए वापिस,
रास्ते में हल्की-फुलकी सी बरसात हुई थी,
मौसम बेहतरीन हो चला था!
शीतल बयार ने, मन मोह लिया था!
पहुंचे अपने यहां,
सामान रखवाया सारा,
और मुझे ले चली अपने कक्ष में चारु!
"कितना प्यारा मौसम है!" बोली वो,
"हाँ! है तो!" कहा मैंने,
"मैं नहा लूँ इसमें?" पूछा उसने,
"बीमार पड़ जाओगी!" कहा मैंने,
"नहीं पडूँगी न!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"जाने दो न?" बोली वो,
"बिलकुल नहीं!" कहा मैंने,
फूल गया मुंह!
बैठ गयी!
चेहरा नीचे किये!
और फिर बारिश हुई तेज! झाँका उसने बाहर!
अगले दिन, संध्या समय, मैं क्रिया-स्थल ले गया चारु को, उसकी देह को संतुलित करना था, और रक्षित भी, इसके लिए, उसको लाया था, उसमे एक खूबी थी, जो एक बार कहो, याद कर लेती थी वो! जस का तस! उसकी शिक्षा चलती रहती, तो अब तक तो कहीं किसी सरकारी महकमे में मुलाज़िम हो गयी होती! उसकी शिक्षा पुनः आरम्भ करवानी थी, कुछ और भी सोच के रखा था मैंने उसके लिए, दस उत्तीर्ण करना आवश्यक था! तो उस शाम मैंने उसको कुछ कंठस्थ करने के लिए कुछ 'मंजरी' बतायी, और उसको कंठस्थ करने के लिए दिया! आधे घंटे में ही, एक एक शब्द जैसे उकेर दिया गया था उसके मस्तिष्क में जैसे! उसकी इस प्रतिभा से मैं हैरान था!
"वाह चारु!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!
"बहुत तीक्ष्ण बुद्धि है तुम्हारी!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोली वो,
और फिर रात को, उसको मैंने मंत्रों से रक्षित किया!
और ले आया वापिस, छोड़ा कमरे में उसे,
और मैं आ गया अपने कमरे में, अब फिर, अपना सामान सारा बाँधा,
और उसके बाद, मैं सो गया!
हुई सुबह!
आज अमावस थी!
निर्णय की रात!
उस दिन मेरा मौन-व्रत था! बस मन्त्र कंठस्थ करने थे!
वही किया मैंने सारा दिन, भोजन निषिद्ध होता है, अतः नहीं किया,
और फिर हुई शाम!
खोला मौन-व्रत!
शर्मा जी से बात की मैंने,
और फ़ोन पर, श्री श्री श्री जी से भी बात की!
वहां भी वे तैयार थे! एक ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित करने ही जा रहे थे!
आशीर्वाद दिया उन्होंने! और 'आदेश!'
हम अब उस स्थान के लिए चल पड़े!
शर्मा जी भी चले, वो व्यक्ति भी!
हम वहाँ जा पहुंचे!
अब शर्मा जी से आशीर्वाद लिया, और अपना सामान उठाया!
पहुंचे एक जगह कोने में!
अँधेरा था वहां!
चारु, टोर्च लिए खड़ी थी!
वो सहायक, अन्य सारा सामान रख गया था वहाँ!
अमावस वैसे ही थी! नदी भयावह लग रही थी!
अब सबसे पहले, गुरु-नमन किया! गुरु-वंदना, अघोर-पुरुष वंदन!
फिर उस भूमि को माथे से छुआ! फिर स्थान-पूजन!
दिशा कीलन, और घंट-कीलन!
उसके बाद, आसन बिछाया,
अपने लिए और उसके लिए!
अब दीप प्रज्ज्वलित किये मैंने, इक्कीस, और रख दिए अलग अलग जगह,
चार अपने समक्ष!
अब अपना श्रृंगार किया,
भस्म-स्नान और रक्त-चिन्ह! रक्त-पुण्डिका आदि धारण कीं,
तंत्राभूषण धारण किये, मंत्र पढ़ते हुए!
अलख बनाई, और अलख, एक महानाद करते हुए, उठा दी!
अलख-नमन किया!
"इधर आओ चारु!" कहा मैंने,
वो आ गयी पास मेरे!
"बैठो!" कहा मैंने,
बैठ गयी!
"जैसा मैं कहूँ, वैसा ही करोगी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
अनुभव क्र,९२ भाग ४
"मन में भय तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई इच्छा, प्रश्न?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं" बोली वो,
"कोई बाध्यता?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"इस समय, मैं तुम्हारे तन और मन का स्वामी हूँ, कोई आपत्ति?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"यदि मैं तुम्हारे तन और मन का प्रयोग करूँ, तो कोई आपत्ति?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तुम जब चाहो, जा सकती हो, चाहे अभी, चाहे मध्य में, चाहे प्राण बचाने हों, तब भी मेरे तुम्हें रोकने का, ज़बरदस्ती करने का कोई अधिकार नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कोई एवज?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मैं तुम्हारा साधक, तुम मेरी साधिका!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"सुनो साधिके! मेरे प्राणों पर बनी हो, तो अपने प्राण पहले बचाना!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
मैंने सर पर हाथ फेरा तब उसके!
"वस्त्र खोल दो, उतार दो, वहाँ रख दो" कहा मैंने,
उसने ऐसा ही किया,
"यहां बैठो" कहा मैंने,
वो बैठ गयी,
अब उसका श्रृंगार किया,
माथे, गले, उदर, जंघाओं पर भस्म मली,
रक्त से, चिन्ह बनाये उसके शरीर पर,
कमर पर, स्त्री-चक्र बनाया, और शक्ति-यंत्र स्थापित किया,
नाभि पर, अष्ट-चक्र बनाया!
"लेट जाओ" कहा मैंने,
वो लेट गयी, तब मैंने लांघा उसको,
और उठाया कमर से,
मंत्र पढ़ा, और अब वो पूर्ण रूप से तैयार हुई!
"वहाँ बैठ जाओ!" कहा मैंने,
वो बैठ गयी,
मैंने ईंधन दिया उसे,
और एक साथ झोंकने को कहा,
और जब मैंने नाद किया, हम दोनों ने एक साथ ईंधन झोंक दिया!
अलख भड़क गयी!
अब अलख-भोग दिया!
और उसकी भस्म से, उसके और अपने माथे पर टीका कर दिया!
अब मैं खड़ा हुआ,
इक्कीस परिक्रमा की अलख की,
महानाद किया!
रक्त के तीन घूँट पिए!
रक्त मला शरीर पर,
और बैठ गया!
अब किया अपने वाचाल महाप्रेत का आह्वान!
पंद्रह मिनट लगे!
और भयानक अट्ठहास करता हुआ महाप्रेत प्रकट हुआ!
प्रकट होते ही, मुस्तैद हो गया!
अलख में भोग दिया!
महानाद किया!
और फिर,
कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया!
थोड़ी ही देर में, मृग-नयनी के रूप में,
वो प्रकट हुई!
प्रकट होते ही,
लोप हो, हुई मुस्तैद!
मैंने ब्रह्म-कपाल रखा सम्मुख!
बाल-कपाल टांगा त्रिशूल पर!
अब लड़ाई देख!
वाचाल की देख!
त्रिशूल लिया,
उसको माथे से लगाया,
और कर दिया उत्तर की ओर!
दृश्य स्पष्ट हुआ!
वहां, अलख उठी थी,
मांस के थाल सजे थे!
दीप जले थे! चार साध्वियां थीं वहाँ!
वो मिहिरा भी! दो और औघड़, और मुंड गले में लटकाये,
तावक नाथ, अलख में ईंधन झोंक रहा था!
उसने देख पकड़ी!
और मारा ठहाका!
रक्त लेकर हाथ में,
अपने माथे से रगड़ दिया,
बहता रक्त जब, आया होंठों के पास, तो चाट लिया!
वो खड़ा हुआ, वो सभी खड़े हो गए! उसने त्रिशूल उखाड़ा अपना, और हुआ आगे, अलख के पास जा, तांडवी-मुद्रा बनाई, और फिर, सीधा खड़ा हो, त्रिशूल तीन बार नीचे झुकाया! स्पष्ट था, की मैं यदि तीन बार क्षमा मांग लूँ उस से से, तो वो छोड़ देगा मुझे! जीवन-दान दे देगा मझको! मैं खड़ा हुआ, त्रिशूल से बाल-कपाल उतारा, रखा बगल में वो, और साधन-मुद्रा बना! त्रिशूल तीन बार भूमि में गाड़ा और निकाला! स्पष्ट था की यदि वो अभी भी क्षमा मांग ले, तो सभी के प्राण बच जाएंगे!
मारी दहाड़ उसने!
लगाया ठहाका!
और जा बैठ अपने आसन पर!
सामने की भूमि खोदी, औ एक उलटा रखा कपाल निकाला उसने!
उसो उठाया, और नीचे कर, हिलाया उसे! कुछ बताया था उसने मुझे!
उसने कहा था कि विजेता को, अपने से पराजित शत्रु के शव का पूर्ण अधिकार होगा! तो ये वही कपाल था, उसके किसी शत्रु का!
उसने कपाल उठाया, और किया आगे!
जता रहा था की, मेरा भी हाल ऐसा ही होगा!
फिर मारी दहाड़! और सभी हँसे! वो साध्वियां भी!
मूर्खों की मड़ंली लगी थी!
और तावक नाथ, उनका सरदार था! मूर्ख! दम्भ ने कैसा बना दिया था उसे!
और तभी, उसने अपनी एक साध्वी को बुलाया,
वो आई, उस से कुछ कहा,
वो झुकी नीचे, दोनों हाथ और पैरों पर,
उसने अपनी एक लात रखी उसकी कमर पर,
और बोला एक मंत्र! और मारा ठहाका!
मेरे यहां तेज हवा चल पड़ी! मैं गया आगे,
और गाड़ दिया त्रिशूल भूमि में, मंत्र पढ़ते ही!
हवा शांत, और वहाँ बह चली!
उसने लात हटा ली अपनी उस साध्वी से!
हवा शांत! अलख जो ज़मीन चाटने लगी थी, अब फिर से उठ गयी!
उसने फिर से मंत्र पढ़ा, साध्वी को हटाया, खड़ा हुआ, और मारी थाप भूमि पर!
मेरे यहां ज़मीन हिल गयी! अलख टेढ़ी हो गयी!
मैं हुआ पीछे, मंत्र पढ़ा, और दी थाप!
अब वहां हिली भूमि! एक साध्वी तो गिर ही पड़ी, तावक नाथ पर!
मैंने पलट कर जवाब दिया था उसे, उसके ही तरीके से!
खड़ा हुआ वो, मुट्ठी बंद की, और अलख में जैसे कुछ झोंका हो, ऐसे फेंकी वो मुट्ठी!
मेरे यहां मेरे प्रियजनों के शव गिरने लगे! ढप्प ढप्प!
मैं हुआ आगे, पढ़ा मंत्र और गाड़ा त्रिशूल भूमि पर,
और वे सारे शव लोप!
और उधर,
उधर, उसके परिवारजनों के शवों के टुकङे बिखरने लगे!
कृंगिकी महाविद्या खेल रहा था वो!
मैंने भी ठीक उसी का जवाब दिया था! हाँ, शव क्षत-विक्षत अवश्य ही कर दिए थे, मुख से कह कर! उसने मंत्र पढ़ा, और मारी थाप!
सारे शव लोप हुए!
"तावक?" चीखा मैं,
देखा उसने सामने!
"अभी भी समय है! क्षमा मांग ले!" कहा मैंने,
थू! थूका उसने, और दिया अलख में भोग!
वो नहीं बाज आने वाला था! पूरा डूबा था खण्डार के दम्भ में!
अब वो दोनों औघड़ आगे आये, उनके हाथों में गैंती थी, ज़मीन खोदने लगे! मैं तभी समझ गया कि वो कर क्या रहे थे! वो रम्भाष-विद्या का प्रयोग कर रहे थे! वो भी मेरी साध्वी को, जीते जी दफन करने के लिए!
"चारु?" कहा मैंने, ज़ोर से,
"हाँ?" बोली वो,
"इधर आओ जल्दी!" कहा मैंने,
वो आई तेजी से,
उसकी टांगें खोलीं मैंने, पीछे से,
और अपनी गरदन, सर उसके पीछे से आगे किया, ताकि वो, मेरे कंधों पर चढ़ सके! और उठ लिया उसे! वे दोनों औघड़, उस तावक नाथ के कहने पर रुक गए! वो खड़ा हुआ, और फिर से गड्ढा खुदवाने लगा! जब खुद गया, तो अब मूत्र त्याग करने लगा उसमे, मंत्र पढ़ते पढ़ते! मैंने भी रम्भाष-भंजन मंत्र जपने शुरू किये! मेरे यहां भूमि फटने लगी! गड्ढा बनने लगा, ठीक वहीँ सामने, जहां चारु बैठी थी! अब मैं गया गड्ढे तक, मंत्र पढ़ा, और थूका गड्ढे में! झल्ल से गड्ढा भरा! अब उतार दिया उसको! लेकिन हाथ थामे रहा उसका! कट गयी रम्भाष! तावक नाथ, चकित तो नहीं हुआ, लेकिन देखता रहा गड्ढा भरते हुए!
"हरामजादा! देख कुत्ते की औलाद! देख अब तू!" कहा मैंने,
मैं बैठा नीचे!
लिया खंजर!
और बनायी एक आकृति उस से भूमि पर,
बनाते ही, तीन जगह से काट दिया उसे!
उसकी प्रधान साध्वी, की चीख निकल गयी!
तीन जगह से कट गयी थी वो! और अब, तावक नाथ के ज़रा से होश उड़े! तावक नाथ दौड़ा उसके पास, देखे ज़ख्म, फिर गालियां दीं उसने!
और मैं ठहाके मारता रहा! मारता रहा!
और वो मिहिरा, भूमि पर लेटे लेटे, खून से नहायी हुई, पलटियां मार रही थी! तावक नाथ बावरा हो गया था!
आया आगे, अब बैठा अलख पर, हटा दिया सभी को उसने पीछे! झोंका ईधन अलख में, जोड़े हाथ और किया मंत्रोच्चार!
तभी वाचाल के स्वर गूंजे!
तिमिरा!
तिमिरा! क्या चुना था उसने भी!
कोई छोटी-मोटी शक्ति नहीं! लुहांगी की सह-सहोदरी! और ये दोनों भी एक महाशक्ति की सहोदरी हैं! असम में कई स्थानों पर पूज्य है! प्राचीन महाविद्या है! इक्कीस रात्रि इसकी साधना है, ग्यारह बलि-कर्म द्वारा सेवित है! नौ उप-सहोदरियों द्वारा सेवित है! काले पानी में वास है इसका! इसको भंवरिका भी कहा जाता है! वार में अचूक और शत्रु भंजन में प्रयोग होती है! इसका आह्वान किया था उसने!
"रोड़का-सुरंगिनी!" वाचाल के स्वर गूंजे!
सुरंगिनी अथवा रोड़का-सुरंगिनी, प्राचीन महाविद्या है!
मूल रूप से, मध्य-प्रदेश में इसके कई मंदिर हुआ करते थे,
आज जो हैं, टूट-फूट गए हैं!
फिर भी कई मंदिरों में, ये सर्पिल देह में देखी जा सकती है!
इसको छायाकि भी कहा जाता है!
इकत्तीस रात्रि इसकी साधना है,
सत्ताईस बलि-कर्म द्वारा पूजित है!
प्रत्यक्ष प्रकट न हो, पीठ पीछे प्रकट होती है!
ग्यारह उस-सेविकाओं द्वारा सेवित है!
वाणी कर्कश है!
देह, स्थूल है, स्तन, लटके हुए हैं, किसी वृद्धा-स्त्री की भांति,
प्रश्न किया करती है!
और तब, सम्मुख प्रकट होती है,
तब ये कामायनी रूप में होती है!
नव-यौवना रूप में!
प्रसन्न होने पर, आह्वान मंत्र प्रदान करती है!
काम, अर्थ और सुरा-सुख प्रदायनी है!
तो अब इसका आह्वान आरम्भ किया था मैंने!
उधर!
उधर तो तावक नाथ अपने हाथ नचा रहा था!
ईंधन पर ईंधन!
रक्त-भोग!
मांस-भोग!
और मंत्रोच्चार!
और कोई दस मिनट के बाद!
मेरे यहां पर मुंड गिरने लगे!
चारों ओर! हर तरफ, एक से एक टकराता और उछल जाता!
कोई लुढ़कता हुआ,
हमारी ओर भी आ पड़ता!
मैं लात से फेंक देता उसको आगे!
मदिरा ली,
कपाल कटोरे में डाली,
और एक ही बार में, गटक गया!
त्रिशूल लिया,
अलख से छुआया, और छुआ भूमि को,
कपाल लोप होने लगे, उड़ने लगे ऊपर!
और तब!
तब मेरे यहां अंगार फूटने लगे!
प्रकाश सा कौंधने लगा!
वाचाल समय का सही आंकलन लगाया करता है!
और सटीक ही काट करने के लिए मदद करता है!
कुम्भक पुष्प गिरने लगे!
वल्लभ घास के टुकड़े!
छायाकि का आगमन होने ही वाला था!
धूम्र-वलय उठने लगे!
तड़ित क्रीड़ा करने लगी उनमे!
यही है रोड़का-सुरंगिनी की आमद!
मैंने एक दीप उठाया, रखा अलख के पास,
उसके तेल से, माथे पर टीका किया,
और अब उठा,
चला आगे त्रिशूल ले!
कि तभी, कर्णज्ज की सी आवाज़ गूंजी!
धुंए के बादल जैसे बढ़ रहे थे हमारी तरफ!
मैं आगे भागा!
उन वलयों के पास जा खड़ा हुआ!
हाथ जोड़े,
घुटनों पर बैठा!
और मंत्र पढ़ा उस छायाकि का!
भन्न से प्रकाश कौंधा!
कुछ धूम्र की आकृतियाँ, चक्कर लगाने लगीं!
अब मैंने अलखनाद किया!
रोड़का-नाद किया!
और वो धुआं!
स्थिर हो गया!
तड़ित दमकी! नीले रंग की!
और अगले ही पल,
रोड़का और तिमिरा सम्मुख हुईं!
तिमिरा शीश झुका, लोप हुई!
और मैं,
मैं जा गिरा रोड़का के वलयों के नीचे!
उसका नाद किया!
और फिर, मन ही मन, प्रसन्न हुआ!
"हे मेरी प्राण-रक्षिका! मैं धन्य हुआ!" कहा मैंने,
अगले ही पल, रोड़का भी लोप हुई!
तिमिरा! छूट गयी तावक नाथ के हाथों से!
सुरंगिनी लोप हुई जैसे ही! मैं उठ खड़ा हुआ! आया अलख तक! ईंधन झोंका, और उधर देखा! तावक नाथ हाथ खोले बैठा था! एक माल, टूट चला था उसका! कोष अब रिक्त होना आरम्भ हुआ था! मैं हंसने लगा! ठहाके मारने लगा! वहाँ, वे दोनों औघड़, फ़ौरन गए, भेरी लाये, और टिकाया एक मेढ़े का सर, और एक ही वार में, उस मेढ़े का सर, भेरी से उतार दिया! रक्त इकठ्ठा करने लगे! और तावक नाथ, उस रक्त को अपने हाथों से पीता रहा! मैंने भी कपाल कटोरे में मदिरा परोसी, और गटक गया! बैठा मैं अब, वहाँ क्रिया-साधन चल रहा था!
"चारु?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"इधर आओ!" कहा मैंने,
और उसको उस कपाल कटोरे में मदिरा दी,
"ये लो! ये बोलो, और पी जाओ!" कहा मैंने,
मैंने मंत्र पढ़ा, उसने जपा, और पी गयी!
खांसी तो उठी उसे, लेकिन कर लिया बर्दाश्त उसने!
अब मैंने फिर से देख लड़ाई!
ये क्या कर रहा था वो तावक नाथ?
इतनी शीघ्र ही नियम भंग?
उसने अपनी एक साध्वी को नीचे लिटा दिया था,
और उसके ऊपर चढ़ बैठा था, उसकी कमर पर,
रक्त से चिन्ह काढ रहा था, वो ऐसा कर, मेरी साध्वी के,
उदर की आँतों को गलाना चाहता था,
ये महा-मारण कहलाता है!
उसने जैसे ही त्रिशूल उठाया,
मैंने तभी चारु को उठा लिया,
और लेट गया! उसको लिटा लिया अपने ऊपर,
"चारु! शरीर का कोई भी अंग भूमि से स्पर्श न हो!" कहा मैंने,
मैंने उसके दोनों हाथ उसकी छाती पर रखवा दिए,
और टांगें, खुद पकड़ लीं मैंने,
उधर उसने त्रिशूल छुआया भूमि से!
मिट्टी की एक रेखा फट से चली!
जैसे कपड़ा उधड़ता है, ऐसे!
मेरे यहां, यही हुआ, मेरे आसपास, कई जगह मिट्टी फटती,
मिट्टी उड़ती हुई, हमारे शरीर से टकराती,
आँखों में गिरती, मुंह में जाती!
लेकिन मैंने नहीं छोड़ा उसे! चिपकाए रहा उसको!
कम से कम दो मिनट ऐसा ही हुआ! और फिर शांत!
लौट गयी वो धरणिका महाविद्या!
अब उठाया मैंने उसे, बिठाया आसन पर!
"सूअर की औलाद! तेरी औक़ात जान गया मैं! बचा अपनी सारी साध्वियों को!" कहा मैंने,
मैंने अपना त्रिशूल उठाया,
नेहुक्ष का संधान किया,
स्त्री-तत्व की पुष्टि की,
और छुआ दिया भूमि से,
वो तीनों साध्वियां, पछाड़ खा गयीं!
चीख ही चीख!
शरीर धूल-धसरित!
